निबंध - कवि और कविता
यह बात सिद्ध समझी गई है कि कविता अभ्यास से नहीं आती। जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्दा होता है वही कविता कर सकता है। देखा गया है कि जिस विषय पर बड़े-बड़े विद्वान अच्छी कविता नहीं कर सकते उसी पर अपढ़ और कम उम्र के लड़के कभी-कभी अच्छी कविता लिख देते हैं। इससे स्पष्ट है कि किसी-किसी में कविता लिखने की इस्तेदाद स्वाभाविक होती है, ईश्वरदत्त होती है। जो चीज ईश्वरदत्त है वह अवश्य लाभदायक होगी, वह निरर्थक नहीं हो सकती। उससे समाज को अवश्य कुछ न कुछ लाभ पहुँचता है।
कविता यदि यथार्थ में कविता है तो संभव नहीं कि उसे सुनकर सुननेवाले पर कुछ असर न हो। कविता से दुनिया में आज तक बहुत बड़े-बड़े काम हुए हैं। अच्छी कविता सुनकर कवितागत रस के अनुसार दुःख, शोक, क्रोध, करुणा, जोश आदि भाव पैदा हुए बिना नहीं रहते, और जैसा भाव पैदा होता है कार्य के रूप में फल भी वैसा ही होता है। हम लोगों में पुराने जमाने में भाट चारण आदि अपनी कविता ही की बदौलत वीरों में वीरता का संचार कर देते थे। पुराणादि में कारुणिक प्रसंगों का वर्णन सुनने और उत्तर रामचरित आदि दृश्य काव्यों का अभिनय देखने से जो अश्रुपात होने लगता है वह क्या है? वह अच्छी कविता ही का प्रभाव है।
रोम, इंगलैंड, अरब, फारस आदि देशों में इस बात के सैंकड़ों उदाहरण मौजूद हैं कि कवियों ने असंभव बातें समझ कर दिखाई हैं। जहाँ पस्तहिम्मती का दौर था, वहां गदर मचा दिया है। अतएव कविता एक असाधारण चीज़ है। परन्तु बिरले ही को सत्कवि होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। जब तक ज्ञानबुद्धि नहीं होती, जब तक सभ्यता का ज़माना नहीं आता—तभी तक कविता की विशेष उन्नति होती है, क्योंकि ‘सभ्यता और कविता में परस्पर विरोध है' (लार्ड मैकाले की प्रसिद्ध उक्ति As Civilization advances Poetry declines) । सभ्यता और विद्या की वृद्धि होने से कविता का असर कम हो जाता है। कविता में कुछ न कुछ झूठ का अंश ज़रूर रहता है। असभ्य अथवा अर्द्धसभ्य लोगों को यह अंश कम खटकता है, शिक्षित और सभ्य लोगों को बहुत। तुलसीदास की रामायण खास-खास स्थलों का स्त्रियों पर जितना प्रभाव पड़ता है, उतना पढ़े-लिखे आदमियों पर नहीं। पुराने काव्यों को पढ़ने से लोगों का चित्त जितना पहले आकृष्ट होता था उतना अब नहीं होता। हज़ारों वर्ष से कविता का क्रम जारी है। जिन प्राकृतिक बातों का वर्णन अब तक बहुत कुछ हो चुका है, प्रायः उन्हीं बातों का वर्णन जो नए कवि होते हैं ये भी उलटफेर से करते हैं, इसी से अब कविता कम हृदयग्राहिणी होती है।
संसार में जो बात जैसी देख पड़े कवि को उसे वैसे ही वर्णन करनी चाहिए। उसके लिए, किसी तरह की रोक या पाबंदी का होना अच्छा नहीं। दबाव से कवि का जोश दब जाता है। उसके मन में जो भाव, आप ही आप पैदा होते हैं, उन्हें जब वह निडर होकर अपनी कविता में प्रगट करता है तभी उसका पूरा-पूरा असर लोगों पर पड़ता है। बनावट से, कविता बिगड़ जाती है। किसी राजा या व्यक्ति विशेष के गुणदोषों को देखकर कवि के मन में जो भाव उद्भूत हों, उन्हें यदि वे रोकटोक प्रकट कर दे तो उसको कविता हृदय-द्रावक हुए बिना न रहे। परंतु परतंत्रता या पुरस्कारप्राप्ति या और किसी तरह की रुकावट पैदा हो जाने से यदि उसे अपने मन की बात कहने का साहस नहीं होता तो कविता का रस ज़रूर कम हो जाता है। इस दशा में अच्छे कवियों की भी कविता नीरस, अतएव प्रभावहीन हो जाती है। सामाजिक और राजनैतिक विषयों में कटु होने से सच कहना भी जहाँ मना है, वहाँ इन विषयों पर कविता करने वाले कवियों की युक्तियों का प्रभाव क्षीण हुए बिना नहीं रहता। कवि के लिए कोई रोक न होनी चाहिए। अथवा जिस विषय में रोक हो उस विषय पर कविता ही न लिखनी चाहिए। नदी, तालाब, वन, पर्वत, फूल, पत्ती, गरमी, सरदी आदि ही के वर्णन से उसे संतोष करना उचित है। ख़ुशामद के जमाने में कविता की बुरी हालत होती है! जो कवि राजाओं, नवाबों या बादशाहों के आश्रय में रहते हैं, अथवा उनको ख़ुश करने के इरादे से कविता करते हैं, उनको ख़ुशामद करनी पड़ती है; वे अपने आश्रयदाताओं की इतनी प्रशंसा करते हैं, इतनी स्तुति करते हैं, कि उनकी उक्तियाँ असलियत से दूर जा पड़ती हैं। इससे कविता को बहुत हानि पहुँचती है। विशेष करके शिक्षित और सभ्य देशों में कवि का काम प्रभावोत्पादक रीति से यथार्थ घटनाओं का वर्णन करना है, आकाशकुसुमों के गुलदस्ते तैयार करना नहीं। अलंकारशास्त्र के आचार्यों ने अतिशयोक्ति एक अलंकार ज़रूर माना है; परंतु अभावोक्तियाँ भी क्या कोई अलंकार है? किसी कवि की बेसिरपैर की बातें सुनकर किस समझदार आदमी को आनंदप्राप्ति हो सकती है? जिस समाज के लोग अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते हैं वह समाज प्रशंसनीय नहीं समझा जाता।
कारणवश अमीरों की प्रशंसा करने अथवा किसी भी विषय की कविता में कवि-समुदाय के आजन्म लगे रहने से, कविता की सीमा कट-छँटकर बहुत थोड़ी रह जाती है। इसी तरह की कविता उर्दू में बहुत अधिक है। यदि यह कहें कि आशिकाना (शृंगारिक) कविता के सिवा और तरह की कविता उर्दू में है ही नहीं, तो बहुत बड़ी अत्युक्ति न होगी। किसी दीवान को उठाइए, आशिक-माशूकों के रंगीन रहस्यों से आप उसे प्रारंभ से अंत तक रँगा हुआ पाइएगा। इश्क़ भी यदि सच्चा हो तो कविता में कुछ असलियत आ सकती है। पर क्या कोई कह सकता है कि आशिकाना शेर कहने वाली का सारा रोना, कराहना, ठंडी साँस लेना, जीते जी अपनी कब्रों पर चिराग जलाना सब सच है? सब न सही, उनके प्रलापों का क्या थोड़ा सा भी अंश सच है? फिर इस तरह की कविता सैकड़ों वर्ष से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके, जिन्होंने इस विषय पर न मालूम क्या-क्या लिख डाला है। इस दशा में नए कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं? वही तुक, वही छंद, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक! इस पर भी लोग पुरानी लकीर को बस बार-बार पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैए, घनाक्षरी, दोहे, सोरठे लिखने से बाज नहीं आते। नखसिख, नायिकाभेद, अलंकारशास्त्र पर पुस्तकों पर पुस्तकें लिखते चले जाते हैं! अपनी व्यर्थ, बनावटी बातों से देवी-देवताओं तक को बदनाम करने से नहीं संकुचते। फल इसका यह हुआ है कि असलियत काफ़ूर हो गई है।
कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है। वह बरबाद हो जाता है। भाषा में दोष आ जाता है। जब कविता की प्रणाली बिगड़ जाती है तब उसका असर सारे ग्रंथकारों पर पड़ता है। यही क्यों, सर्वसाधारण की बोलचाल तक में कविता के दोष आ जाते हैं। जिन शब्दों, जिन भावों, जिन उक्तियों का प्रयोग कवि करते हैं उन्हीं का प्रयोग और लोग भी करने लगते हैं। भाषा और बोलचाल के संबंध में कवि ही प्रमाण माने जाते हैं। कवियों ही के प्रयुक्त शब्दों और मुहावरों को कोशकार अपने कोशों में रखते हैं। मतलब यह कि भाषा और बोलचाल का बनाना या बिगाड़ना प्रायः कवियों ही के हाथ में रहता है। जिस भाषा के कवि अपनी कविता में बुरे शब्द और बुरे भाव भरते रहते हैं, उस भाषा की उन्नति तो होती नहीं, उल्टा अवनति होती जाती है।
कविता-प्रणाली के बिगड़ जाने पर यदि कोई नए तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निंदा करते हैं। कुछ नासमझ और नादान आदमी कहते हैं, यह बड़ी भद्दी कविता है। कुछ कहते हैं, यह कविता ही नहीं। कुछ कहते हैं कि यह कविता तो ‘छंदप्रभाकर’ में दिए गए लक्षणों से च्युत है, अतएव यह निर्दोष नहीं। बात यह है कि वे जिसे अब तक कविता कहते आए हैं वही उनकी समझ में कविता है और सब कोरी काँव-काँव! इसी तरह की नुक्ता-चीनी से तंग आकर अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को संबोधन करके उसकी सांत्वना की है। वह कहता है- कविते! यह बेकदरी का जमाना है। लोगों के चित्त का तेरी तरफ़ खिंचना तो दूर रहा, उल्टा सब कहीं तेरी निंदा होती है। तेरी बदौलत सभा समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना पड़ता है। पर जब मैं अकेला होता हूँ तब तुझ पर घमंड करता हूँ। याद रख, तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है। जो लोग अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा रखते हैं वे निर्धन होकर भी आनंद से रह सकते हैं। पर अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद ज़रूर चूर्ण हो जाता है।
गोल्डस्मिथ ने इस विषय पर बहुत कुछ कहा है। इससे प्रकट है कि नई कविता-प्रणाली पर भृकुटी टेढ़ी करने वाले कवि प्रकांडों के कहने की कुछ भी परवा न करके अपने स्वीकृत पथ से ज़रा भी इधर-उधर होना उचित नहीं।
आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज़ समझ रखा है। यह भ्रम है। कविता और पद्य में वही भेद है जो 'पोयटरी' (Poetry) और 'वर्स' (Verse) में है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है, और नियमानुसार तुली हुई सतरों का पद्य है। जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता वह कविता नहीं। वह नपी-तुली शब्द-स्थापना मात्र है। गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है। तुकबंदी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं। संस्कृत का प्रायः सारा पद्य-समूह बिना तुकबंदी का है। और संस्कृत से बढ़ कर कविता शायद ही किसी भाषा में हो। अरब में भी सैकड़ों अच्छे-अच्छे कवि हो गए हैं। वहाँ भी शुरू-शुरू में तुकबंदी का बिलकुल ख़्याल नहीं था। अँग्रेज़ी में भी अनुप्रास हीन बेतुकी कविता होती है। हाँ, एक बात ज़रूर है कि वज़न और क़ाफ़िए से कविता अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है (Oscar Wilde तुकबंदी को A Spiritual element of thought and passion कहता है) । पर कविता के लिए ये बातें ऐसी हैं जैसे कि शरीर के लिए वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता उसमें न हो तो इनका होना निष्फल समझना चाहिए। पद्य के लिए क़ाफ़िए वग़ैरह की ज़रूरत है, कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बातें एक प्रकार से उल्टा हानिकारक हैं। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातंत्र्य में बड़ी बाधा आती है। पद्य के नियम कवि के लिए एक प्रकार की बेड़ियाँ हैं। उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उद्यान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करे। पर क़ाफ़िया और वज़न उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं। वे उसे अपने भावों को स्वतंत्रता से नहीं प्रकट करने देते। क़ाफ़िए और वज़न को पहले ढूँढ़कर कवि को अपने मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है। फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है। जो बात एक असाधारण और निराले ढंग से शब्दों के द्वारा इस तरह प्रकट की जाए कि सुनने वालों पर उसका कुछ न कुछ असर ज़रूर पड़े, उसका नाम कविता है। आजकल हिंदी के पद्य रचयिताओं में कुछ ऐसे भी हैं जो अपने पद्यों को कालिदास, होमर और बाइरन की कविता से भी बढ़कर समझते हैं। कोई संपादक के ख़िलाफ़ नाटक, प्रहसन और व्यंग्यपूर्ण लेख प्रकाशित करके अपने जी की जलन शांत करते हैं।
कवि का सबसे बड़ा गुण नई-नई बातों का सूझना है। उसके लिए इमैजिनेशन (imagination) की बड़ी ज़रूरत है। जिसमें जितनी भी अधिक यह शक्ति होगी वह उतनी ही अच्छी कविता कर सकेगा। कविता के लिए उपज चाहिए। नए-नए भावों की उपज जिसके हृदय में नहीं होती वह कभी अच्छी कविता नहीं कर सकता। ये बातें प्रतिभा की बदौलत होती हैं, इसलिए संस्कृत वालों ने प्रतिभा को प्रधानता दी है। प्रतिभा ईश्वरदत्त होती है, अभ्यास से वह नहीं प्राप्त होती। इस शक्ति को कवि माँ के पेट से लेकर पैदा होता है। उसी की बदौलत वह भूत और भविष्यत् को हस्तामलकवत् देखता है। वर्तमान की तो कोई बात ही नहीं। इसी की कृपा से वह सांसारिक बातों को एक अजीब निराले ढंग से बयान ध्यान करता है, जिसे सुनकर सुनने वालों के हृदयोदधि में नाना प्रकार के सुख, दुःख, आश्चर्य आदि विकारों की लहरें उठने लगती हैं। कवि कभी-कभी ऐसी अद्भुत बातें कह देते हैं कि जो कवि नहीं हैं उनकी पहुँच वहाँ तक कभी हो ही नहीं सकती।
कवि का काम है कि वह प्रकृति विकास को ख़ूब ध्यान से देखे। प्रकृति की लीला का कोई ओर छोर नहीं। यह अनंत है। प्रकृति अद्भुत, अद्भुत खेल खेला करती है। एक छोटे से फूल में वह अजीब-अजीब कौशल दिखलाती है। वे साधारण आदमियों के ध्यान में नहीं आते। वे उनको समझ नहीं सकते, पर कवि अपनी सूक्ष्म दृष्टि से प्रकृति के कौशल अच्छी तरह से देख लेता है; उनका वर्णन भी वह करता है, उनसे नाना प्रकार की शिक्षा भी ग्रहण करता है और अपनी कविता के द्वारा संसार को लाभ पहुँचाता है। जिस कवि में प्राकृतिक दृश्य और प्रकृति के कौशल देखने और समझने का जितना ही अधिक ज्ञान होता है वह उतना ही बड़ा कवि भी होता है।
कवि-कुलगुरू कालिदास के विश्व-विख्यात काव्य रघुवंश तथा कविवर बिहारी लाल की सतसई से, विषय का, एक-एक प्रत्युदाहरण सुनिए-
इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम्।
आकुमारकखोद्घातं शालिगोप्यो जगुर्यशः ।। -रघुवंश
रघु की दिग्विजय यात्रा के उपोद्घात में शरदृतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ईख की छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियाँ रघ का यश गाती थां। शरत् काल में जब धान के खेत पकते है, तब ईख इतनी-इतनी बड़ी हो जाती है कि उसकी छाया में हैठकर खेत रखा सकें। ईख और धान के खेत प्रायः पास ही पास हुआ करते हैं। कवि को ये सब बाते विदित थीं। श्लोक में इस दशा का-इस वास्तविक घटना का चित्र सा खींच दिया गया है। शलोक पढ़ते ही वह समाँ आँखों में फिरने लगता है।
महाराजाधिराज विक्रमादित्य के सखा राजसी ठाठ से रहने वाले कालिदास ने गरीब किसानों की, नगर से दूर जंगल में सम्बन्ध रखने वाली एक वास्तविक घटना का कैसा मनोहर चित्र उतारा है। यह उसके प्रकृति पर्यायलोचक होने का दृढ़ प्रमाण है। दूसरा प्रत्युदाहरण-
सन सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखरि ।
हरी-हरी अरहर अजौं धर घर हर हिय नारि।।- सतसई
पहले सन सूखता है, फर बन-बाड़ी या कपास के खेत की बहार खत्म होती है। पुनः ईख उखड़ने की बारी आती है और इन सबसे पीछे हुँओं के साथ तक अरहर हरी-भरी खड़ी रहती है।
प्रकृति-पर्यालोचना के सिवा कवि को मानव-स्वभाव की अलोचना का भी अभ्यास करना चाहिए। मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के सुख-दुख आदि का अनुभव करता है। उसकी दशा कभी एक सी नहीं रहती। अनेक प्रकार के विकार तरंग उसके मन में उठा ही करते हैं। इन विकारों की जाँच, ज्ञान और अनुभव करना सबका काम नहीं। केवल कवि ही इनके अनुभव कराने में समर्थ होता है। जिसे कभी पुत्र-शोक नहीं हुआ उसे उस शोक का यथार्थ ज्ञान होना संभव नहीं। पर यदि वह कवि है तो वह पुत्र-शोकाकुल पिता या माता की आत्मा में प्रवेश पा करके उसका अनुभव कर लेता है। उस अनुभव का वह इस तरह वर्णन करता है कि सुनने वाला तन्मनस्क होकर उस दुःख से अभिभूत हो जाता है। उसे ऐसा मालूम होने लगता है कि स्वयं उसी पर वह दुःख पड़ रहा है। जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता।
कविता को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उचित शब्द-स्थापना की भी बड़ी ज़रूरत है। किसी मनोविकार या दृश्य के वर्णन से ढूँढ़-ढूँढ़कर ऐसे शब्द रखने चाहिए जो सुनने वालों की आँखों के सामने वर्ण्य-विषय का एक चित्र सा खींच देता है। मनोभाव चाहे कैसा ही अच्छा क्यों न हो यदि वह तदनुकूल शब्दो में न प्रकट किया गया, तो उसका असर यदि ज्यादा नहीं रहता तो कम ज़रूर हो जाता है। इसीलिए कवि को चुन-चुनकर ऐसे शब्द रखना चाहिए और इस क्रम से रखना चाहिए, जिससे उसके मन का भाव पूरे तौर पर व्यक्त हो जाए। उसमें कसर न पड़े। मनोभाव शब्दों ही द्वारा व्यक्त होता है। अतएव संयुक्तिक शब्द-स्थापना के बिना कवि की कविता ताद्दृश हृदयहारिणी नहीं हो सकती। जो कवि अच्छी शब्द-स्थापना करना नहीं जानता, अथवा यों कहिए कि जिसके पास काफ़ी शब्दसमूह नहीं है, उसे कविता करने का परिश्रम ही न करना चाहिए। जो सुकवि हैं, उन्हें एक-एक शब्द की योग्यता ज्ञात रहती है। वे ख़ूब जानते हैं कि किस शब्द में क्या प्रभाव है। अतएव जिस शब्द में उनका भाव प्रकट करने की एक बाल भर भी कमी होती है उसका वे कभी प्रयोग नहीं करते।
अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने कविता के तीन गुण वर्णन किए हैं। उनकी राय है कि कविता सादी हो, जोश से भरी हो और असलियत से गिरी हुई न हो (Poetry should be simple, sensuous and impassioned)।
सादगी से यह मतलब नहीं कि सिर्फ़ शब्द-समूह ही सादा हो, किंतु विचार-परंपरा भी सादी हो। भाव और विचार ऐसे सूक्ष्म और छिपे हुए न हों कि उनका मतलब समझ में न आवे, या देर से समझ में आवे। यदि कविता में कोई ध्वनि हो तो इतनी दूर की न हो कि उसे समझने में गहरे विचार की ज़रूरत हो। कविता पढ़ने या सुननेवाले को ऐसी साफ़ सुथरी सड़क मिलनी चाहिए जिस पर कंकर, पत्थर, टीले, खंदक, काँटे और झाड़ियों का नाम न हो। वह ख़ूब साफ़ और हमवार हो जिससे उस पर चलनेवाला आराम से चला जाए। जिस तरह सड़क ज़रा भी ऊँची-नीची होने से पैरगाड़ी के सवार को दचके लगते हैं उसी तरह कविता की सड़क यदि थोड़ी सी नाहमवार हुई तो पढ़नेवाले के हृदय पर धक्का लगे बिना नहीं रहता। कवितारूपी सड़क के इधर-उधर स्वच्छ पानी के नदी नाले बहते हों; दोनों तरफ़ फल-फूलों से लदे हुए पेड़ हों, जगह-जगह पर विश्राम करने योग्य स्थान बने हों; प्राकृति-दृश्यों की नई-नई झाँकियाँ आँखों को लुभाती हों। दुनिया में आज तक जितने अच्छे-अच्छे कवि हुए हैं उनकी कविता ऐसी ही देखी गई है। अटपटे भाव और अटपटे शब्द-प्रयोग करनेवाले कवियों की कभी कद्र नहीं हुई। यदि कभी किसी की कुछ हुई भी है तो थोड़े ही दिन तक। ऐसे कवि विस्मृति के अंधकार में ऐसे छिप गए हैं कि इस समय उनका कोई नाम तक नहीं जानता। एक मात्र सूखा शब्द-झंकार ही जिन कवियों की करामात है उन्हें चाहिए कि वे एक़दम ही बोलना बंद कर दे (इस प्रकार के कवियों के लिए अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक कारलाइल Carlyle की शिक्षा ध्यान देने योग्य है Why sing your bits of thought if you can contrive to speak them By your thought not by your mode of delivering it you must live or die)।
भाव चाहे कैसा ही ऊँचा क्यों न हो, पेचीदा न होना चाहिए। वह ऐसे शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए जिनसे सब लोग परिचित हों। क्योंकि कविता की भाषा बोलचाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है, उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है। बोलचाल से मतलब उस भाषा से है जिसे ख़ास और आम सब बोलते हैं, विद्वान और अविद्वान दोनों जिसे काम में लाते हैं। इसी तरह कवि को मुहावरे का भी ख़्याल रखना चाहिए। जो मुहावरा-सर्वसम्मत है उसी का प्रयोग करना चाहिए। हिंदी और उर्दू में कुछ शब्द अन्यः भाषाओं के भी आ गए हैं। वे यदि बोलचाल के हैं तो उनका प्रयोग सदोष नहीं माना जा सकता। उन्हें त्याज्य नहीं समझना चाहिए। कोई-कोई ऐसे शब्दों को मूल रूप में लिखना ही सही समझते हैं। पर यह उनकी भूल है।
असलियत से यह मतलब नहीं कि कविता एक प्रकार का इतिहास समझा जाए और हर बात में सचाई का ख़्याल रखा जाए। यह नहीं कि सचाई की कसौटी पर कसने पर यदि कुछ भी कसर मालूम हो तो कविता का कवितापन जाता रहे। असलियत से सिर्फ़ इतना ही मतलब है कि कविता बेबुनियाद न हो। उसमें जो उक्ति हो वह मानवी मनोविकारों और प्राकृतिक नियमों के आधार पर कही गई हो। स्वाभाविकता से उसका लगाव न छूटा हो। कवि यदि अपनी या और किसी की तारीफ़ करने लगे और यदि वह उसे सचमुच ही सच समझे, अर्थात् उसकी भावना वैसी ही हो, तो वह भी असलियत से ख़ाली नहीं, फिर चाहे और लोग उसे उसका उल्टा ही क्यों न समझते हों। परंतु इन बातों में भी स्वाभाविकता से दूर न जाना चाहिए। क्योंकि स्वाभाविक अर्थात् नेचुरल (Natural) उक्तियाँ ही सुननेवाले के हृदय पर असर कर सकती हैं अस्वाभाविक नहीं। असलियत को लिए हुए कवि स्वतंत्रतापूर्वक जो चाहे कह सकता है। असल बात को, एक नए साँचे में ढालकर कुछ दूर तक इधर-उधर की उड़ान भी भर सकता है, पर असलियत के लगाव को वह नहीं छोड़ता। असलियत को हाथ से जाने देना मानो कविता को प्राय: निर्जीव कर डालना है। शब्द और अर्थ दोनों ही के संबंध में उसे स्वाभाविकता का अनुधावन करना चाहिए। जिस बात के कहने में लोग स्वाभाविक रीति पर जैसे और जिस क्रम से शब्द प्रयोग करते हैं वैसे ही कवि को भी करना चाहिए। कविता में उसे कोई बात ऐसी न कहनी चाहिए जो दुनिया में न होती हो। जो बातें हमेशा हुआ करती है अथवा जिन बातों का होना संभव है, वही स्वाभाविक हैं। अर्थ की स्वाभाविकता से मतलब ऐसी ही बातों से है।
जोश से यह मतलब है कि कवि जो कुछ कहे, इस तरह कहे मानो उसके प्रयुक्त शब्द आप ही आप उसके मुँह से निकल गए हैं। उनसे बनावट न ज़ाहिर हो। यह न मालूम हो कि कवि ने कोशिश करके ये बातें कहीं हैं, किंतु यह मालूम हो कि उसके हृदयगत भावों ने कविता के रूप में अपने को प्रकट कराने के लिए उसे विवश किया है। जो कवि है उसमें जोश स्वाभाविक होता है। वर्ण्यवस्तु को देखकर, किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से, वह उस पर कविता करने के लिए विवश सा हो जाता है। उसमें एक अलौकिक शक्ति पैदा हो जाती है। इसी शक्ति के बल से वह सजीव ही नहीं, निर्जीव चीज़ों तक का वर्णन ऐसे प्रभावोत्पादक ढंग से करता है कि यदि उन चीज़ों में बोलने की शक्ति होती तो ख़ुद वे भी उससे अच्छा वर्णन न कर सकतीं। जोश से यह भी मतलब नहीं कि कविता के शब्द ख़ूब ज़ोरदार और जोशीले हो। संभव है शब्द ज़ोरदार न हों पर जोश उसमें छिपा हुआ हो। धीमे शब्दों में भी जोश रह सकता है और पढ़ने या सुननेवाले के हृदय पर चोट कर सकता है। परंतु ऐसे शब्दों का कहना ऐसे वैसे कवि का काम नहीं। जो लोग मीठी छुरी में तलवार का काम लेना जानते हैं, वही धीमे शब्दों में जोश भर सकते हैं।
सादगी, असलियत और जोश, यदि ये तीनों गुण कविता में हों तो कहना ही क्या है। परंतु बहुधा अच्छी कविता में भी इनमें से एक-आध गुण की कमी पाई जाती है। कभी-कभी देखा जाता है कि कविता में केवल जोश रहता है, सादगी और असलियत नहीं। परंतु बिना असलियत के जोश का होना बहुत कठिन है। अतएव कवि को असलियत का सबसे अधिक ध्यान रखना चाहिए।
अच्छी कविता की सबसे बड़ी परीक्षा यह है कि उसे सुनते ही लोग बोल उठें कि सच कहा है। वही कवि सच्चे कवि हैं जिनकी कविता सुनकर लोगों के मुँह से सहसा यह उक्ति निकलती है। ऐसे कवि धन्य हैं, और जिस देश में ऐसे कवि पैदा होते हैं वह देश भी धन्य है। ऐसे ही कवियों की कविता चिरकाल तक जीवित रहती है।
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