Sunday, July 24, 2022

कविता | साध | सुभद्राकुमारी चौहान | Kavita | Saadh | Subhadra Kumari Chauhan


 

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।

भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।


वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।

बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।


कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।

पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।


सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।

तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।


सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन।

हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।


रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली।

दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।


तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान।

निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।।


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