Sunday, July 24, 2022

कविता | स्मृतियाँ | सुभद्राकुमारी चौहान | Kavita | Smritiyan | Subhadra Kumari Chauhan



 क्या कहते हो? किसी तरह भी

भूलूँ और भुलाने दूँ?

गत जीवन को तरल मेघ-सा

स्मृति-नभ में मिट जाने दूँ?


शान्ति और सुख से ये

जीवन के दिन शेष बिताने दूँ?

कोई निश्चित मार्ग बनाकर

चलूँ तुम्हें भी जाने दूँ?

कैसा निश्चित मार्ग? ह्रदय-धन

समझ नहीं पाती हूँ मैं

वही समझने एक बार फिर

क्षमा करो आती हूँ मैं।


जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर

पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं

मेरा निश्चित मार्ग यही है

ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।


भूलो तो सर्वस्व ! भला वे

दर्शन की प्यासी घड़ियाँ

भूलो मधुर मिलन को, भूलो

बातों की उलझी लड़ियाँ।


भूलो प्रीति प्रतिज्ञाओं को

आशाओं विश्वासों को

भूलो अगर भूल सकते हो

आंसू और उसासों को।


मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन

सुख या शांति नहीं होगी

यही बात तुम भी कहते थे

सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी।


सुख को मधुर बनाने वाले

दुःख को भूल नहीं सकते

सुख में कसक उठूँगी मैं प्रिय

मुझको भूल नहीं सकते।


मुझको कैसे भूल सकोगे

जीवन-पथ-दर्शक मैं थी

प्राणों की थी प्राण ह्रदय की

सोचो तो, हर्षक मैं थी।


मैं थी उज्ज्वल स्फूर्ति, पूर्ति

थी प्यारी अभिलाषाओं की

मैं ही तो थी मूर्ति तुम्हारी

बड़ी-बड़ी आशाओं की।


आओ चलो, कहाँ जाओगे

मुझे अकेली छोड़, सखे!

बंधे हुए हो ह्रदय-पाश में

नहीं सकोगे तोड़, सखे!

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