Tuesday, July 19, 2022

कबीर ग्रंथावली | पद (राग धनाश्री) | कबीरदास | Kabir Granthavali | Pad / Rag Dhanashri | Kabirdas



 जपि जपि रे जीयरा गोब्यंदो, हित चित परमांनंदौ रे।

बिरही जन कौ बाल हौ, सब सुख आनंदकंदौ रे॥टेक॥

धन धन झीखत धन गयौ, सो धन मिल्यौ न आये रे॥

ज्यूँ बन फूली मालती, जन्म अबिरथा जाये रे॥

प्रांणी प्रीति न कीजिये, इहि झूठे संसारी रे॥

धूंवां केरा धौलहर जात न लागै बारी रे॥

माटी केरा पूतला, काहै गरब कराये रे॥

दिवस चार कौ पेखनौ, फिरि माटी मिलि जाये रे॥

कांमीं राम न भावई, भावै विषै बिकारी रे॥

लोह नाव पाहन भरी, बूड़त नांही बारी रे॥

नां मन मूवा न मारि सक्या, नां हरि भजि उतर्‌या पारो रे॥

कबीर कंचन गहि रह्यौ, काच गहै संसार रे॥398॥


न कछु रे न कछू राम बिनां।

सरीर धरे की रहै परमगति, साध संगति रहनाँ॥टेक॥

मंदिर रचत मास दस लागै, बिनसत एक छिनां।

झूठे सुख के कारनि प्रांनीं, परपंच करता घना॥

तात मात सुख लोग कुटुंब, मैं फूल्यो फिरत मनां।

कहै कबीर राम भजि बौरे, छांड़ि सकल भ्रमनां॥399॥


कहा नर गरबसि थोरी बात।

मन दस नाज टका दस गंठिया, टेढ़ौ टेढ़ौ जात॥टेक॥

कहा लै आयौ यहु धन कोऊ, कहा कोऊ लै जात॥

दिवस चारि की है पतिसाही, ज्यूँ बनि हरियल पात॥

राजा भयौ गाँव सौ पाये, टका लाख दस ब्रात॥

रावन होत लंका को छत्रापति, पल मैं गई बिहात॥

माता पिता लोक सुत बनिता, अंत न चले संगात॥

कहै कबीर राम भजि बौरे, जनम अकारथ जात॥400॥


नर पछिताहुगे अंधा।

चेति देखि नर जमपुरि जैहै, क्यूँ बिसरौ गोब्यंदा॥टेक॥

गरभ कुंडिनल जब तूँ बसता, उरध ध्याँन ल्यो लाया।

उरध ध्याँन मृत मंडलि आया, नरहरि नांव भुलाया॥

बाल विनोद छहूँ रस भीनाँ, छिन छिन बिन मोह बियापै॥

बिष अमृत पहिचांनन लागौ, पाँच भाँति रस चाखै॥

तरन तेज पर तिय मुख जोवै, सर अपसर नहीं जानैं॥

अति उदमादि महामद मातौ, पाष पुंनि न पिछानै॥

प्यंडर केस कुसुम भये धौला, सेत पलटि गई बांनीं॥

गया क्रोध मन भया जु पावस, कांम पियास मंदाँनीं॥

तूटी गाँठि दया धरम उपज्या, काया कवल कुमिलांनां॥

मरती बेर बिसूरन लागौ, फिरि पीछैं पछितांनां॥

कहै कबीर सुनहुं रे संतौ, धन माया कछू संगि न गया॥

आई तलब गोपाल राइ की, धरती सैन भया॥401॥


लोका मति के भोरा रे।

जो कासी तन तजै कबीर, तौ रामहिं कहा निहोरा रे॥टेक॥

तब हमें वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा।

ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, यूँ ढुरि मिलै जुलाहा॥

राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा॥

गुर प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा॥

कहै कबीर सुनहु रे संतो, भ्रमि परे जिनि कोई॥

जसं कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई॥402॥


ऐसी आरती त्रिभुवन तारै, तेज पुंज तहाँ प्रांन उतारै॥टेक॥

पाती पंच पुहुप करि पूजा, देव निरंजन और न दूजा॥

तन मन सीस समरपन कीन्हां, प्रकट जोति तहाँ आतम लीना॥

दीपक ग्यान सबद धुनि घंटा पर पुरिख तहाँ देव अनंता॥

परम प्रकाश सकल उजियारा, कहै कबीर मैं दास तुम्हारा॥


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