बनह बसे का कीजिये, जे मन नहीं तजै बिकार।
घर बन तत समि जिनि किया ते बिरला संसार॥
का जटा भसम लेपन किये, कहा गुफा मैं बास।
मन जीत्या जग जीतिये, जौ बिषया रहै उदास॥
सहज भाइ जे ऊपजै, ताका किसा माँन अभिमान।
आपा पर समि चीनियैं, तब मिलै आतमां राम॥
कहै कबीर कृपा भई, गुर ग्यान कह्या समझाइ।
हिरदै श्री हरि भेटियै, जे मन अनतै नहीं जाइ॥300॥
है हरि भजन कौ प्रवान।
नींच पावैं ऊँच पदवी बाजते नीसान॥टेक॥
भजन कौ प्रताप ऐसो, तिरे जल पाषान।
अधम भील अजाति गनिका, चढ़े जात बिवान॥
नव लख तारा चलै मंडल, चलै ससिहर भान।
दास धू कौ अटल पदवी, राम को दीवाँन॥
निगत जाकी साखि बोलै, कहै संत सुजाँन।
जन कबीर तेरी सरनि आयौ, राखि लेहु भगवाँन॥301॥
चलो सखी जाइये तहाँ, जहाँ गये पाइयै परमानंद॥टेक॥
यहु मन आमन धूमनाँ, मेरो तन छीजत नित जाइ।
च्यंतामणि चित चोरियौ, ताथैं कछू न सुहाइ॥
सुँनि लखी सुपनै की गति ऐसी, हरि आए हम पास।
सोवत ही जगाइया, जागत भए उदास॥
चलु सखी बिलम न कीजिये, जब लग सांस सरीर।
मिलि रहिये जमनाथ सूँ, सूँ कहै दास कबीर॥302॥
मेरे तन मन लागी चोट सठोरी।
बिसरे ग्यान बुधि सब नाठी, भई बिकल मति बौरी॥टेक॥
देह बदेह गलित गुन तीनूँ, चलत अचल भई ठौरी।
इत उत चित कित द्वादस चितवत, यहु भई गुपत ठगौरी॥
सोई पै जानै पीर हमारी, जिहिं सरीर यहु ब्यौरी।
जन कबीर ठग ठग्यौ है बापुरौ, सुंनि सँमानी त्यौरी॥303॥
मेरी अँषियाँ जानि सुजान भई।
देवर भरम ससुर संग तजि करि, हरि पीव तहाँ गई॥टेक॥
बालपनै के करम हमारे काटे जानि दई।
बाँह पकरि करि कृपा कीन्हीं, आप समीप लई॥
पानी की बूँद थैं जिनि प्यंड साज्या, तासंगि अधिक करई।
दास कबीर पल प्रेम न घटई, दिन दिन प्रीति नई॥304॥
हो बलियां कब देखोगी तोहि।
अह निस आतुर दरसन कारनि, ऐसी ब्यापै मोहि॥टेक॥
नैन हमारे तुम्ह कूँ चांहै, रती न मांनै हारि।
बिरह अगनि तन अधिक जरावै ऐसी लेहु बिचारि॥
सुनहुं हमारी दादि गुसांई, अब जिन करहुं वधीर।
तुम्ह धीरज मैं आतुर स्वामी, काचै भांडै नीर॥
बहुत दिनन के बिछुरै माधौ, मन नहीं बाँधे धीर।
देह छतां तुम्ह मिलहु कृपा करि, आरतिवंत कबीर॥305॥
वे दिन कब आवैगे भाइ।
जा कारनि हम देह धरी है, मिलिबौ अंगि लगाइ॥टेक॥
हौं जाँनूं जे हिल मिलि खेलूँ, तन मन प्राँन समाइ।
या काँमनाँ करौ परपूरन, समरथ हौ राम राइ॥
मांहि उदासी साधौ चाहे, चितवन रैनि बिहाइ।
सेज हमारी स्यंध भई है, जब सोऊँ तब खाइ।
यह अरदास दास की सुनिये, तन को तपति बुझाइ॥
कहैं कबीर मिलै जे साँई, मिलि करि मंगल गाइ॥306॥
बाल्हा आव हमारे गेहु रे, तुम्ह बिन दुखिया देह रे॥टेक॥
सब को कहै तुम्हारी नारी, मोकौ इहै अदेह रे।
एकमेक ह्नै सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे॥
आन न भावै नींद न आवै, ग्रिह बन धरै न धीर रे।
ज्यूँ कामी कौ काम पियारा, ज्यूँ प्यासे कूँ नीर रे॥
है कोई ऐसा परउपगारी, हरि सूँ कहै सुनाइ रे॥
ऐसे हाल कबीर भये हैं, बिन देखे जीव जाइ रे॥307॥
भावार्थ- कबीर स्वयं को विरहिणी मानते है। उनकी आत्मा रूपी विरहिणी कहती है हे वल्लभ! हे प्रियतम! हे परमात्मा! मेरे घर आओ। घर आने से यहां पर उनका अर्थ आत्मा में परमात्मा के मिल जाने से है। परमात्मा तुम्हारे बिना यह मेरी देह बहुत अधिक दुख पा रही है। सारे लोग मुझसे कह रहे हैं कि मैं (कबीर) तुम्हारी धर्मपत्नी हूं लेकिन मैं यह कैसे मान लूं। मुझे तो इस बात में पूरा संदेह है क्योंकि यदि मैं तुम्हारी स्त्री होती (पत्नी होती) तो तुम मेरे साथ मेरे घर पर एक ही शैया पर शयन करते। हे परमात्मा! तुम तो मेरे पुकारने पर भी घर नहीं आ रहे हो। यह कैसा स्नेह है ? तुम्हारे बिना मुझे इस संसार की किसी भी वस्तु से मोह नहीं बचा है। मेरे मन को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। यहां तक कि मैं नींद भी नहीं ले पा रहा हूं। मेरा मन , घर में तथा वन में कहीं पर भी धीरज नहीं रख पा रहा है। जैसे किसी कामी व्यक्ति को काम प्यारा होता है, जैसे किसी प्यासे व्यक्ति को पानी की इच्छा होती है उसी प्रकार से मेरी आत्मा रूपी पत्नी को परमात्मा रूपी पति की जरूरत है। क्या इस संसार में कोई ऐसा परोपकारी है जो मुझ पर यह परोपकार करें और परमात्मा से जाकर मेरे मन की सारी बातें, मेरे सारे भाव सुना दे। कबीर कह रहे हैं कि परमात्मा के बिना मेरी स्थिति, मेरी दशा दयनीय हो गई है। यदि परमात्मा मुझे दर्शन नहीं देंगे तो मेरे प्राण ही निकल जाएंगे।
*विशेष- कबीर यहां पर आत्मा और परमात्मा के मिलन की बात कर रहे हैं। दांपत्य जीवन के उदाहरण द्वारा एक विरहिणी अपने प्रेम के प्रति एक निष्ठ भाव की बात करती है। परमात्मा से मिलने की परम इच्छा तथा सांसारिक विषय- वस्तु से मोहभंग का चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
माधौ कब करिहौ दाया।
काम क्रोध अहंकार ब्यापै, नां छूटे माया॥टेक॥
उतपति ब्यंद भयौ जा दिन थें, कबहूँ सच नहीं पायो।
पंच चोर सगि लाइ दिए हैं, दन संगि जनम गँवायो।
तन मन डस्यौ भुजंग भामिनी, लहरी वार न पारा।
सो गारडू मिल्यो नहीं कबहूँ, पसरो बिष बिकराला।
कहै कबीर यहु कासूँ कहिये, यह दुख कोई न जानै।
देहु दीदार बिकार दूरि करि, तब मेरा मन मांनै॥308॥
टिप्पणी: ख-लहरी अंत न पारा।
भावार्थ - कबीर कहते हैं हे माधव हे, ईश्वर, हे प्रभु तुम मुझ पर दया कब करोगे। मेरे भीतर काम, क्रोध व अहंकार विष के रूप में एकत्रित होते जा रहे हैं। यह मोह- माया, यह सांसारिकता मुझसे छूट नहीं पा रही है। तुम मुझे इन सबसे कब मुक्त करोगे ? जिस बिंदु (वीर्य) से मेरे जीवन की उत्पत्ति हुई है (उसी बिंदु से) उसी दिन से मैं सांसारिक वासनाओं में डूबा हुआ हूँ। मैंने जीवन -कर्म की सच्चाई को अभी तक नहीं पाया है। काम, क्रोध, लालच, मोह व द्वेष चोरों की भाँति मेरे भीतर छिपे हुए हैं, ये मेरे जीवन की शांति को चुरा रहे हैं। मैं अपना जन्म इन्हीं चोरों के साथ रहकर नष्ट कर रहा हूँ। मेरे तन तथा मन को कामना और लालसा रूपी साँप ने डस लिया है उसकी ज़हरीली लहरों का कोई भी किनारा नहीं है। मैं उसी में डूबा हुआ हूँ। मैं उस ईश्वर को ढूंढ रहा हूं जो मेरा यह विष उतार दे लेकिन ईश्वर मुझे नहीं मिल नहीं रहे हैं। यह सांसारिकता रूपी विष मेरे भीतर विकराल होता जा रहा है, फैलता जा रहा है। कबीर कहते हैं इस दुख को मैं किससे कहूँ क्योंकि मेरा यह दुख सिर्फ मैं ही जानता हूं। इसे मैं ही भुगत रहा हूं। मेरे भीतर इन दूषित कामनाओं ने, दूषित इच्छाओं ने मेरे शरीर को, मेरे मन पूरी तरह से अपने बस में कर लिया है। हे ईश्वर! मुझे दर्शन दो और मेरे इन सभी दोषों को दूर करो। मेरे जीवन को पार लगाने वाले, मुझे विषाक्त विषयों से दूर करने वाले एकमात्र तुम ही हो प्रभु। तुमसे मिलकर ही मेरा मन संतुष्ट होगा।
विशेष -कबीर परमात्मा से बड़ा किसी को नहीं मानते हैं। उनके अनुसार हमारा जन्म सद्कार्यों के लिए होता है लेकिन हम सांसारिक मोहमाया, कामनाओं व इच्छाओं में इस प्रकार डूब जाते हैं कि हम अपने जीवन का वास्तविक धर्म भूल जाते हैं तब एक मात्र ईश्वर भक्ति है जो हमें सही मार्ग की ओर ले जा सकती है और जीवन की विषाक्तता को दूर कर सकती है।
मैं बन भूला तूँ समझाइ।
चित चंचल रहै न अटक्यौ, बिषै बन कूँ जाइ॥टेक॥
संसार सागर मांहि भूल्यो, थक्यो करत उपाइ।
मोहनी माया बाघनी थैं, राखि लै राम राइ।
गोपाल सुनि एक बीनती, सुमति तन ठहराइ।
कहै कबीर यहु काम रिप है, मारै सबकूँ ढाइ॥309॥
भगति बिन भौजलि डूबत है रे।
बोहिथ छाड़ि बेसि करि डूंडै, बहुतक दुख सहै रे॥टेक॥
बार बार जम पै डहकावै, हरि को ह्नै न रहे रे।
चोरी के बालक की नाई, कासूँ बाप कहे रे॥
नलिनी के सुवटा की नांई, जग सूँ राचि रहे रे।
बंसा अपनि बंस कुल निकसै, आपहिं आप दहे रे॥
खेवट बिनां कवन भौ तारै, कैसे पार गहे रे।
दास कबीर कहै समझावै, हरि की कथा जीवै रे॥
रांम कौ नाँव अधिक रस मीठौं, बारंबार पीवै रे॥310॥
चलत कत टेढौं टेढौं रे।
नउँ दुवार नरक धरि मूँदे, तू दुरगंधि को बैढी रे॥
जे जारे तौ होई भसमतन, तामे कहाँ भलाई॥
सूकर स्वाँन काग कौ भखिन, रहित किरम जल खाई।
फूटे नैन हिरदै नाहीं सूझै, मति एकै नहीं जाँनी॥
माया मोह ममिता सूँ बाँध्यो, बूडि मूवो बिन पाँनी॥
बारू के घरवा मैं बैठी, चेतन नहीं अयाँनाँ।
कहै कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयाना॥311॥
अरे परदेसी पीव पिछाँनि।
कहा भयौ तोकौं समझि न परई, लागी कैसी बांनि॥टेक॥
भोमि बिडाणी मैं कहा रातौ, कहा कियो कहि मोहि।
लाहै कारनि मूल गमावै, समझावत हूँ तोहि॥
निस दिन तोहि क्यूँ नींद परत है, चितवत नांही तोहि॥
जम से बैरी सिर परि ठाढे, पर हथि कहाँ बिकाइ।
झूठे परपंच मैं कहा लगौ, ऊंठे नाँही चालि॥
कहै कबीर कछू बिलम न कीजै, कौने देखी काल्हि॥312॥
भयौ रे मन पहुंनड़ौ दिन चारि।
आजिक काल्हिक मांहि चलौगो, ले किन हाथ सँवारि॥टेक॥
सौंज पराई जिनि अपणावै, ऐसी सुणि किन लेह।
यहु संसार इसी रे प्राँणी, जैसी धूँवरि मेह।
तन धन जीवन अंजुरी कौ पानी, जात न लागै बार।
सैवल के फूलन परि फूल्यो, गरब्यो कहाँ गँवार॥
खोटी खाटै खरा न लीया, कछू न जाँनी साटि।
कहै कबीर कछू बनिज न कीयौ, आयौ थौ इहि हाटि॥313॥
मन रे राम नामहिं जांनि।
थरहरी थूँनी परो मंदिर सूतौ खूँटी तानि॥टेक॥
सैन तेरी कोई न समझै, जीभ पकरी आंनि।
पाँच गज दोवटी माँगी, चूँन लीयो साँनि॥
बैसदंर पोषरी हांडी, चल्यौ लादि पलानि।
भाई बंध बोलइ बहु रे, काज कीनौ आँनि।
कहै कबीर या मैं झूठ नाँहीं, छाँड़ि जीय की बाँनि।
राम नाम निसंक भजि रे, न करि कुल की काँनि॥314॥
प्राणी लाल औसर चल्यौ रे बजाइ।
मुठी एक मठिया मुठि एक कठिया, संग काहू कै न जाइ॥टेक॥
देहली लग तेरी मिहरी सगी रे, फलसा लग सगी माइ।
मड़हट लूँ सब लोग कुटुंबी, हंस अकेलो जाइ।
कहाँ वे लौग कहाँ पुर पाटण, बहुरि न मिलबौ आइ।
कहै कबीर जगनाथ भजहु रे, जन्म अकारथ जाइ॥315॥
राम गति पार न पावै कोई।
च्यंतामणि प्रभु निकटि छाड़ि करि, भ्रंमि मति बुधि खोई॥टेक॥
तीरथ बरत जपै तप करि करि, बहुत भाँति हरि सोधै।
सकति सुहाग कहौ क्यूँ पावे, अछता कंत बिरोधै॥
नारी पुरिष बसै इक संगा, दिन दिन जाइ अबोलै।
तजि अभिमान मिलै नहीं पीव कूँ, ढूँढत बन बन डोलै॥
कहै कबीर हरि अकथ कथा है, बिरला कोई जानै।
प्रेम प्रीति बेधी अंतर गति, कहूँ काहि को मानै॥316॥
राम बिनां संसार धंध कुहेरा,
सिरि प्रगट्या जम का फेरा॥टेक॥
देव पूजि पूजि हिंदू मूये, तुरुक मूये हज जाई।
जटा बाँधि बाँधि जोगी मूये, कापड़ी के दारौ पाई॥
कवि कवीवै कविता मूये, कापड़ी के दारौ जाई।
केस लूंचि लूंचि मूये बरतिया, इनमें किनहुँ न पाई॥
धन संचते राजा मूये अरु ले कंचन भारी।
बेद पढे़ पढ़े पंडित मूये, रूप भूले मूई नारी।
जे नर जोग जुगति करि जाँनै, खोजै आप सरीरा।
तिनकूँ मुकति का संसा नाहीं, कहत जुलाह कबीरा॥317॥
कहूँ रे जे कहिबे की होइ।
नाँ को जाने नाँ को मानै ताथें अचिरज मोहि॥टेक॥
अपने अपने रंन के राजा, मांनत नाहीं कोइ।
अति अभिमान लोभ के घाले, अपनपौ खोइ॥
मैं मेरी करि यहु तन खोयो, समझत नहीं गँवार।
भौजलि अधफर थाकि रहे हैं, बूड़े बहुत अपार॥
मोहि आग्या दई दयाल दया करि, काहू कूँ समझाइ।
कहै कबीर मैं कहि कहि हार्यो, अब मोहिं दोष न लाइ॥318॥
एक कोस बन मिलांन न मेला।
बहुतक भाँति करै फुरमाइस, है असवार अेकला॥टेक॥
जोरत कटक जु धरत सब गढ़, करतब झेली झेला।
जोरि कटक गढ़ तोरि पातसाह, खेली चल्यो एक खेला॥
कूंच मुकांम जोग के घर मैं, कछू एक दिवस खटांनां।
आसन राखि बिभूति साखि दे, फुनि ले माटी उडांना॥
या जोगी की जुगति जू जांनै, सो सतगुर का चेला।
कहै कबीर उन गुर की कृपा थैं, तिनि सब भरम पछेला॥319॥
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