लोक पतीणे कछू न होवै नाहीं राम अयाना।
पूजहू राम एकु ही देवा साचा नावण गुरु की सेवा।
जल के मज्जन जे गति होवै नित नित मेडुक न्हावहि॥
जैसे मेडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि।
मनहु कठोर मरै बनारस नरक न बांच्या जाई।
हरि का संत मरै हाँड़वैत सगली सैन तराई॥
दिन सुरैनि बेद नहीं सासतर तहाँ बसै निरकारा।
कहि कबीर नर तिसहि धियावहु बावरिया संसारा॥1॥
अंधकार सुख कबहि न सोइहै। राजा रंक दोऊ मिलि रोइहै॥
जो पै रसना राम न कहिबो। उपजत बिनसत रोवंत रहिबो॥
जम देखिय तरवर की छाया। प्रान गये कछु बाकी माया॥
जस जंती महि जीव समाना। मुये मर्म को काकर जाना॥
हंसा सरबर काल सरीर। राम रसाइन पीउ रे कबीर॥2॥
अग्नि न दहै पवन नहीं गमनै तस्कर नेरि न आवै।
राम नाम धन करि संचौनी सो धन कतही न जावै॥
हमारा धन माधव गोबिंद धरनधर इहै सार धन कहियै।
जो सुख प्रभु गोबिंद की सेवा सो सुख राज न लहियै॥
इसु धन कारण सिव सनकादिक खोजत भये उदासी।
मन मुकुंद जिह्ना नारायण परै न जम की फाँसी॥
निज धन ज्ञान भगति गुरु दीनी तासु सुमति मन लागी।
जलत अंग थंभि मन धावत भरम बंधन भौ भागी॥
कहै कबीर मदन के माते हिरदै देखु बिचारी।
तुम घर लाख कोटि अस्व हस्ती हम घर एक मुरारी॥3॥
अचरज एक सुनहु रे पंडिया अब किछु कहन न जाई।
सुर नर गन गंध्रब जिन मोहे त्रिभुवन मेखलि लाई।
राजा राम अनहद किंगुरी बाजै जाकी दृष्टि नाद लव लागै॥
भाठी गगन सिडिया अरु चूंडिया कनक कलस इक पाया॥
तिस महि धार चुए अति निर्मल रस महि रस न चुआया।
एक जु बात अनूप बनी है पवन पियाला साजिया॥
तीन भवन महि एको जागी कहहु कवन है राजा॥
ऐसे ज्ञान प्रगट्या पुरुषोत्तम कहु कबीर रंगराता।
और दुनी सब भरमि भुलाना मन राम रसाइन माता॥4॥
अनभौ कि नैन देखिया बैरागी अड़े।
बिनु भय अनभौ होइ वणाँ हंबै।
सहुह दूरि देखैं ताभौ पावै बैरागी अड़े।
हुक्मै बूझै न निर्भऊ होइ न बेणा हंबै॥
हरि पाखंड न कीजई बैरागी अड़ै।
पाखंडि रता सब लोक बणाँ हंबै॥
तृष्णा पास न छोड़ई बैरागी अड़े।
ममता जाल्या पिंड बणाँ हंबै॥
चिंता जाल तन जालिया बैरागी अड़े।
जे मन मिरतक होइ वणा हंबै॥
सत गुरु बिन वैराग न होवई बैरागी अड़े।
जे लोचै सब कोई बणां हंबै॥
कर्म होवे सतगुरु मिलै बैरागी अड़े।
सहजै पावै सोइ बणा हंबै॥
कब कबीर इक बैरागी अड़े।
मौको भव जल पारि उतारि बड़ा हंबै॥5॥
अब मौको भये राजा राम सहाई । जनम मरन कटि परम गति पाई।
साधू संगति दियो रलाइ । पंच दूत ते लियो छड़ाइ॥
अमृत नाम जपौ जप रसना । अमोल दास करि लीनो अपना॥
सति गुरु कीनों पर उपकारू । काढ़ि लीन सागर संसारू॥
चरन कमल स्यों लागी प्रीति । गोबिंद बसै निता नित चीति॥
माया तपति बुझ्या अग्यारू । मन संतोष नाम आधारू॥
जल थल पूरि रहै प्रभु स्वामी । जत पेखो तत अंतर्यामी॥
अपनी भगति आपही दृढ़ाई । पूरब लिखतु गिल्या मेरे भाई॥
जिसु कृपा करै तिसु पूरन साज । कबीर को स्वामी गरीब निवाज॥6॥
अब मोहि जलत राम जल पाइया । राम उदक तन जलत बुझाइया॥
जेहि पावक सुर नर है जारे । राम उदक जन जलत उबारे॥
मन मारन कारन बन जाइयै । सो जल बिन भगवंत न पाइयै॥
जेहि पावक सुर नर है जारे । राम उदक जन जलत उबारे॥
भवसागर सुखसागर माहीं । पीव रहे जल निखूटत नाहीं॥
कहि कबीर भजु सारिंगपानी । राम उदक मेरी तिषा बुझानी॥7॥
अमल सिरानी लेखा देना । आये कठिन दूत जम लेना॥
क्या तै खटिया कहा गवाया । चलहु सिताब दिवान बुलाया॥
चलु दरहाल दिवान बुलाया । हरि फुर्मान दरगह का आया॥
करौ अरदास गाव किछु बाकी । लेउ निबेर आज की राती॥
किछू भी खर्च तुम्हारा सारौ । सुबह निवाज सराइ गुजारौ॥
साधु संग जाकौ हरि रंग लागा । धन धन सो जन पुरुष सभागा॥
ईत ऊत जन सदा सुहेले । जनम पदारथ जीति अमोले॥
जागत सोया जन्म गंवाया । माल धन जोर्या भया पराया॥
कहु कबीर तेई नर भूले । खसम बिसारि माटी संग रूलें॥8॥
अल्लह एकु मसीति बसतु है अवर मुलकु किसु केरा।
हिंदू मूरति नाम निवासी दुहमति तत्तु न हेरा॥
अल्लह राम जीउ तेरी नाई। तू करीमह राम तिसाई॥
दक्खन देस हरी का बासा पच्छिम अलह मुकामा।
दिल महि खोजि दिलै दिल खोजहु एही ठौर मुकामा॥
ब्रह्म न ज्ञान करहि चौबीसा काजी महरम जाना॥
ग्यारह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना॥
कहाउड़ीसे मज्जन कियाँ क्या मसीत सिर नायें॥
दिल महि कपट निवाज गुजारै क्या हज काबै जायें॥
एते औरत मरदा साजै ये सब रूप तुमारे॥
कबीर पूंगरा राम अलह का सब गुरु पीर हमारे॥
कहत कबीर सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना।
केवल नाम जपहु रे प्रानी तबही निहचै तरना॥9॥
अवतरि आइ कहा तुम कीना । राम को नाम न कबहूँ लीना॥
राम न जपहुँ कवन भनि लागे । मरि जैबे को क्या करहु अभागे॥
दुख सुख करिकै कुटंब जिवाया । मरती बार इकसर दुख पाया॥
कुंठ गहन तब कर न पुकारा । कहि कबीर आगे ते न सभारा॥10॥
अवर मुये क्या सोग करीजै । तौ कीजै जो आपन जीजै॥
मैं न मरौ मरिबो संसारा । अब मोहि मिल्यो है जियावनहारा॥
या देही परमल महकंदा । ता सुख बिसरे परमानंदा॥
कुअटा एकु पंच पनिहारी । टूटी लाजु भरैं मतिहारी॥
कहु कबीर इकु बुद्धि बिचारी । नाउ कुअटा ना पनिहारी॥11॥
अव्वल अल्लह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे॥
एक नूर के सब जन उपज्या कौन भले को मंदे॥
लोगा भरमि न भूलहु भाई।
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूर रह्यो सब ठाई।
माटी एक अनेक भाँति करि साजी साजनहारे॥
ना कछु पोच माटी के मांणे, ना कछु पोच कुंभारे॥
सब महि सच्च एको सोई तिसका किया सब किछु होई॥
हुकम पछानै सु एको जानै बंदा कहियै सोई॥
अल्लह अलख न जाई लखिया गुरु गुड़ दीना मीठा॥
कहि कबीर मेरी संका नासी सर्व निरंजन डीठा॥12॥
अस्थावर जंगम कीट पतंगा। अनेक जनम कीये बहुरंगा॥
ऐसे घर हम बहुत बसाये। जब हम राम गर्भ होइ आये॥
जोगी जपी तपी ब्रह्मचारी। कबहु राजा छत्रापति कबहु भेखारी॥
साकत मरहि संत जन जी वहि। राम रसायन रसना पीवहि॥
कहु कबीर प्रभु किरपा कीजै। हारि परै अब पूरा दीजै॥13॥
अहि निसि नाम एक जौ जागै। केतक सिद्ध भये लव लागै॥
साधक सिद्ध सकल मुनि हारे। एकै नाम कलपतरु तारे॥
जो हरि हरे सु होहि न आना। कहि कबीर राम नाम पछाना॥14॥
आकास गगन पाताल गगन है चहु दिसि गगन रहाइले।
आनंद मूल सदा पुरुषोत्तम घट बिनसै गगन न जाइलै॥
मोहि बैराग भयो इह जीउ आइ कहाँ गयो।
पंच तत्व मिलि काया कीनों तत्व कहां ते कीन रे॥
कर्मबद्ध तुम जीव कहत हौ कर्महि किन जीउ दीन रे॥
हरि महि तनु है तनु महि हरि है सर्व निरंतर सोइ रे॥
कहि कबीर राम नाम न छोड़ो सहज होइ सु होइ रे॥15॥
अगम दुर्गम गढ़ रचियो बास। जामहि जोति करै परगास॥
बिजली चमकै होइ अनंद। जिह पोड़े प्रभु बाल गुबिंद॥
इहु जीउ राम नाम लव लागै। जरा मरन छूटै भ्रम भागै॥
अबरन बरन स्यों मन ही प्रीति। हौ महि गायत गावहिं गीति॥
अनहद सबद होत झनकार। जिहँ पौड़े प्रभु श्रीगोपाल॥
खंडल मंडल मंडल मंडा। त्रिय अस्थान तोनि तिय खंडा॥
अगम अगोचर रह्या अभ्यंत। पार न पावै कौ धरनीधर मंत॥
कदली पुहुप धूप परगास। रज पंकज महि लियो निवास॥
द्वादस दल अभ्यंतर मत। जहँ पौड़े श्रीकवलाकंत॥
अरध उरध मुख लागो कास। सुन्न मंडल महि करि परगांसु॥
ऊहाँ सूरज नाहीं चंद। आदि निरंजन करै अनंद॥
सो ब्रह्मंडि पिंड सो जानू। मानसरोवर करि स्नानू॥
सोहं सो जाकहुँ है जाप। जाको लिपत न होइ पुन्न अरु पाप॥
अबरन बरन धाम नहिं छाम। अबरन पाइयै गुंरु की साम॥
टारी न टरै आवै न जाइ। सुन्न सहज महि रह्या समाइ॥
मन मद्धे जाने जे कोइ। जो बोलै सो आपै होइ॥
जोति मंत्रि मनि अस्थिर करै। कहि कबीर सो प्रानी तरै॥16॥
आपे पावक आपे पवना। जारै खसम त राखै कवना।
राम जपतु तनु जरि किन जाइ। राम नाम चित रह्या समाइ॥
काको जरै काहि होइ हानि। नटवर खेलै सारिंगपानि॥
कहु कबीर अक्खर दुइ भाखि। होइगा खसम त लेइगा राखि॥17॥
आस पास घन तुरसी का बिरवा मांझ बनारस गाऊँ रे।
वाका सरूप देखि मोहीं ग्वारिन मोकौ छाड़ि न आउ न जाहुरे॥
तोहि चरन मन लागी। सारिंगधर सो मिलै जो बड़ भागी॥
वृंदावन मन हरन मनोहर कृष्ण चरावत गाऊँ रे॥
जाका ठाकुर तुही सारिंगधर मोहि कबीरा नाऊँ रे॥18॥
इंद्रलोक सिवलोकै जैबो। ओछे तप कर बाहरि ऐबो॥
क्या मांगी किछु थिय नाहीं। राम नाम राखु मन माहीं॥
सोभा राज विभव बड़ि पाई। अंत न काहू संग सहाई॥
पुत्र कलत्रा लक्ष्मी माया। इनते कछु कौने सुख पाया॥
कहत कबीर अवर नहिं कामा। हमारे मन धन राम को नामा॥19॥
इक तु पतरि भरि उरकट कुकरट इक तू पतरि भरि पानी॥
आस पास पंच जोगिया बैठे बीच नकटि देरानी॥
नकटी को ठनगन बाड़ाडूं किनहिं बिबेकी काटी तूं॥
सकल माहि नकटी का बासा सकल मारिऔ हेरी॥
सकलिया की हौ बहिन भानजी जिनहि बरी तिसु चेरी॥
हमरो भर्ता बड़ो विवेकी आपे संत कहावै॥
आहु हमारे माथे काइमु और हमरै निकट न आवै॥
नाकहु काटी कानहु काटी कूटि कै डारीं॥
कहु कबीर संतन की बैरनि तीनि लोक की प्यारी॥20॥
इन माया जगदीस गुसाई तुमरे चरन बिसारे॥
किंचत प्रीति न उपजै जन को जन कहा करे बेचारे॥
धृग तन धृग धन धृगं इह माया धृग धृग मति बुधि फन्नी॥
इस माया कौ दृढ़ करि राखहु बाँधे आप बचन्नी॥
क्या खेती क्या लेवा देवा परपंच झूठ गुमाना॥
कहि कबीर ते अंत बिगूते आया काल निदाना॥21॥
इसु तन मध्ये मदन चोर। जिन ज्ञानरतन हरि लीन मोर॥
मैं अनाथ प्रभु कहौं काहि। की कौन बिगूतो मैं की आहि॥
माधव दारुन दुख सह्यौ न जाइ। मेरो चपल बुद्धि स्यों बसाइ॥
सनक सनंदन सिव सुकादि। नाभि कमल जाने ब्रह्मादि॥
कविजन जोगी जटाधारि। सब आपन औसर चले धारि॥
तू अथाह मोहि थाह नांहि। प्रभु दीनानाथ दुख कहौं काहि॥
मेरो जनम मरन दुख आथि धीर। सुखसागर गुन रव कबीर॥22॥
इहु धन गोरो हरि को नाउँ। गांठि न बाँधो बेचि न खाँउ॥
नाँउ मेरे खेती नाँउ मेरी बारी। भगति करौ जन सरन तुम्हारी॥
नाँउ मेरे माया नाँउ मेरे पूँजी। तुमहि छोड़ि जानौ नहिं दूजी॥
नाँउ मेरे बंधिय नाँउ मेरे भाई। नाँउ मेरे संगी अति होई सहाई॥
माया महि जिसु रखै उदास। कहि हौं ताकौ दास॥23॥
उदक समुँद सलल की साख्या नदी तरंग समावहिंगे॥
सुन्नहि सुन्न मिल्या ममदर्सी पवन रूप होइ जावहिंगे॥
बहुरि हम काहि आवहिंगे॥
आवनजाना हुक्म तिसै का हुक्मै बुज्झि समावहिंगे॥
जब चूकै पंच धातु की रचना ऐते भर्म चुकावहिंगे॥
दर्सन छोड़ भए समदर्सी एको नाम धियावहिंगे॥
जित हम लाए तितही लागे तैसे करम कमावहिंगे॥
हरि जी कृपा करै जौ अपनी तो गुरु के सबद कमावहिंगे॥
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जन्म न होइ॥
कह कबीर जो नाम सामने सुन्न रह्याँ लव सोई॥24॥
उपजै निपजै निपजिस भाई। नयनहु देखत इह जग जाई॥
लाज न मरहु कहौ घर मेरा। अंत के बार नहीं कछु तेरा॥
अनेक जतन कर काया पाली। मरती बार अगनि संग जाली॥
चोवा चंदन मर्दन अंगा। सो तनु जले काठ के संगा॥
कहु कबीर सुनहु रे गुनिया। बिनसैगो रूप देखै सब दुनियां॥25॥
उलटत पवन चक्र षट भेदै सुरति सुन्न अनुरागी॥
आवै न जाइ मरै न जीवै तासु खोज बैरागी॥
मेरा मन मनहीं उलटि समाना।
गुरु परसादि अकल भई अवरै नातरु था बेगाना॥
निबरै दूरि दूरि फनि निबरैं जिन जैसा करि मान्या॥
अलउती का जैसे भया बरेडा जिन पिया तिन जान्या॥
तेरी निर्गुण कथा काहि स्यों कहिये ऐसा कोई बिबेकी॥
कहु कबीर निज दया पलीता तिनतै सीझल देखी॥26॥
उलटि जात कुल दोऊ बिसारी। सुन्न सहजि महि बुनत हमारी॥
हमरा झगरा रहा न कोऊ। पंडित मुल्ला छाड़ै दोऊ॥
बुनि बुनि आप आप परिरावौं। जहँ नहीं आप तहाँ ह्नै गावौं॥
पंडित मुल्ला जो लिखि दिया। छाड़ि चले हम कछू न लिया॥
रिदै खलासु निरिखि ले मीरा। आपु खोजि खोजि मिलै कबीरा॥27॥
उस्तुति निंदा दोउ बिबरजित तजहू मानु अभिमान।
लोहा कांचन सम करि जानहि ते मुरति भगवान॥
तेरा जन एक आध कोइ।
काम क्रोध लोभ मोह बिबरजित हरिपद चीन्हैं सोई।
रजगुण तमगुण सतगुण कहियै इह तेरी सब माया॥
चौथे पद को जो नर चीन्है तिनहिं परम पद पाया।
तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा॥
त्रिस्ना अरु माया भ्रम चूका चितवत आतमरामा॥
जिह मंदिर दीपक परिगास्या अंधकार तह नासा॥
निरभौ पूरि रहे भ्रम भागा कहि कबीर जनदासा॥28॥
ऋद्धि सिद्ध जाकौ फुरी तब काहु स्यो क्या काज॥
तेरे कहिने कौ गति क्या कहौं मैं बोलत ही बड़ लाज॥
राम जह पाया राम ते भवहि न बारे बार॥
झूठा जग डहकै घना दिन दुइ बर्तन की आज॥
राम उदक जिह जन पिया तिह बहुरि न भई पियासा॥
गुरु प्रसादि जिहि बुझिया आसा ते भया निरासा॥
सब सचुन दरि आइया जो आतम भया उदास॥
राम नाम रस चाखिया हरि नामा हरि तारि॥
कहु कबीर कंचन भया भ्रम गया समुद्रै पारि॥29॥
एक कोटि पंचसिक दारा पंचे मांगहि हाला।
जिमि नाहीं मैं किसी की बोई ऐसा देव दुखाला॥
हरि के लोगा मोकौ नीति डसे पटवारी॥
ऊपर भुजा करि मैं गुरु पहि पुकारा तिनकौ लिया उबारी॥
नव डाडी दस मुंसफ धावहि रहयति बसन न देही॥
डोरी पूरी मापहि नाही बहु बिष्टाला लेही॥
बहुतरि घर इक पुरुष समाया उन दीया नाम दिखाई॥
धर्मराय का दफ्तर सोध्या बाकी रिज मन काई॥
संता को मति कोई निंदहु संत राम है एको।
कहु कबीर मैं सो गुरु पाया जाका नाउ बिबेकौ॥30॥
एक जोति एका मिली किबा होइ न होइ॥
जितु घटना मन उपजै फूटि मरै जन सोइ॥
सावल सुंदर रामय्या मेरा मन लागा तोहि॥
साधु मिलै सिधि पाइयै कियेहु योग कि भोग॥
दुहु मिलि कारज ऊपजै राम नाम संयोग॥
लोग जानै इहु गीता है इह तो ब्रह्म बिचार॥
ज्यो कासी उपदेस होइ मानस मरती बार।
कोई गावै कोई सुनै हरि नामा चितु लाइ।
कहु कबीर संसा अंत परम गति पाइ॥31॥
एक स्वान कै धर गावण, जननी जानत सुत बड़ा होत है।
इतंना कुन जानै जि दिन दिन अवध घटत है॥
मोर मोर करि अधिक लाहु धरि पेखत ही जमराउ हँसै॥
ऐसा तैं जगु भरम भुलाया कैसे मुझे जब मोह्या है माया॥
कहत कबीर छोड़ि बिषया रस इतु संगति निहची मरना॥
रमय्या जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भवसाग तरना॥
जाति सुभावै ता लागे भाउं। मर्म भुलावा बिचहु जाइ॥
उपजै सहज ज्ञान मति जागै। गुरु प्रसाद अंतर लव लागै॥
इतु संगति नाहीं मरण। हुकुम पछाणि ता खसमै मिलणा॥32॥
ऐसौ अचरज देख्यौ कबीर। दधि कै भोलै बिरोलै नीर॥
हरी अंगूरी गदहा चरै। नित उठि हासै हीगै मरै॥
माता भैसा अम्मुहा जाइ। कुदि कुदि चरै रसातल पाइ॥
कहु कबीर परगट भई खेड़। ले ले कौ चूधे नित भेड़॥
राम रमत मति परगटि आई। कहु कबीर गुरु सोझी पाई॥33॥
ऐसो इहु संसार पेखना रहन न कोऊ पैहे रे॥
सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवैहै रे॥
सारे बूढ़े तरुने भैया सबहु जम लै जैहै रे॥
मानस बपुरा मूसा कीनौ मींच बिलैया खैहै रे॥
धनवंता अरु निर्धन मनई ताकी कछू न कानी रे॥
राज परजा सम करि मारै ऐसो काल बढ़ानी रे॥
हरि के सेवक जो हरि भाये तिनकी कथा निरारी रे॥
आवहि न जाहि न कबहूँ मरती पारब्रह्म संगारी रे॥
पुत्र कलत्रा लच्छमी माया इहै तजहु जिय जानी रे॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु मिलिहै सारंगपानी रे॥34॥
ओई जूं दीसहि अंबरि तारे। किन ओइ चीते चीतन हारे॥
कहु रे पंडित अंबर कास्यो लागा। बूझे बूझनहार सभागा॥
सूरज चंद्र करहि उजियारा। सब महि पसर्या ब्रह्म पसार्या॥
कहु कबीर जानैगा सोई। हिरदै राम मुखि रामै होई॥35॥
कंचन स्यो पाइयै नहीं तोलि। मन दे राम लिया है मोलि॥
अब मोहि राम अपना करि जान्या। सहज सुभाइ मेरा मन मान्या॥
ब्रह्मै कथि कथि अंत न पाया। राम भगति बैठे घर आया॥
बहु कबीर चंचल मति त्यागी। केवल राम भक्ति निज भागी॥36॥
कत नहीं ठौर मूल कत लावौ। खोजत तनु महिं ठौर न पावौ॥
लागी होइ सो जानै पीर। राम भगत अनियाले तीर॥
एक भाइ देखौ सब नारी। क्या जाना सह कौन पियारी॥
कहु कबीर जाके मस्तक भाग। सब परिहरि ताको मिले सुहाग॥37॥
करवतु भया न करवट तेरी। लागु गले सुन बिनती मेरी॥
हौ बारी मुख फेरि पियारे। करवट दे मोकौ काहे को मारे॥
जौ तन चीरहि अंग न मोरी। पिंड परै तो प्रीति न तोरी॥
हम तुम बीच भयो नहीं कोई। तुमहि सुंकत नारि हम सोई॥
कहत कबीर सुनहु रे होई। अब तुमरी परतीति न होई॥38॥
कहा स्वान कौ सिमृति सुनाये। कहा साकत पहि हरि गुन गाये॥
राम राम रमे रमि रहियै। साकत स्यों भूलि नहिं कहिये॥
कौआ कहा कपूर चराये। कह बिसियर को दूध पिआये॥
सत संगति मिलि बिबेक बुधि होई। पारस परस लोहा कंचन सोई॥
साकत स्वान सब करै कहाया। जो धूरि लिख्या सु करम कमाया॥
अभिरत लै लै नीम सिंचाई। कहत कबीर वाको सहज न जाई॥39॥
काम क्रोध तृष्णा के लीने गति नहिं एकै जाना।
फूटी आंखै कछू सूझै बूड़ि मुये बिनु पानी॥
चलत कत टेढ़े टेढ़े टेढ़े।
अस्थि चर्म बिष्टा के मूँदे दुरगंधहिं के बेढ़े॥
राम न जपहु कौन भ्रम भूले तुमते काल न दूरे॥
अनेक जतन करि इह तन राखहु रहे अवस्था पूरे॥
आपन कीया कछू न होवै क्या को करै परानी॥
जाति सुभावै सति गुरु भेटै एको नाम बखानी॥
बलुवा के धरुआ मैं बसत फुलवते देह अयाने॥
कहु कबीर जिह राम न चेत्यो बूड़े बहुत सयाने॥40॥
काया कलालनि लादनि मेलै गुरु का सबद गुड़ कीनु रे।
त्रिस्ना काल क्रोध मद मत्सर काटि काटि कसु दीन रे॥
कोई हेरै संत सहज सुख अंतरि जाको जप तप देउ दलाली रे॥
एक बूँद भरि तन मन देवो जोमद देइ कलाली रे॥
भुवन चतुरदस भाठी कीनी ब्रह्म अगिन तन जारी रे॥
मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे॥
तीरथ बरत नेम सचि संजम रवि ससि गहनै देउ।
सुरति पियास सुधारस अमृत एहु महारसु पेउ रे॥
निर्झर धार चुऔ अति निर्मल इह रस मुनआ रातो रे॥
कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महारस साचो रे॥41॥
कालबूत की हस्तनी मन बौरा रे चलत रच्यो जगदीस।
काम सुजाइ गज बसि परे मन बौरा रे अकसु सहियो सीस॥
बिषय बाचु हरि राचु समझु मन बौरा रे।
निर्भय होइ न हरि भजे मन बौरा रे गह्यो न राम जहाज॥
मर्क्कट मुष्टी अनाज की बन बौरा रे लीनी हाथ पसारि॥
छूटन को संसा पर्या मन बौरा रे नाच्यो घर घर बारि॥
ज्यो नलनी सुअटा गह्यो मन बौरा रे माया इहु ब्योहारु॥
जैसा रंग कसुंम का मन बौरा रे त्यों पसरो पासारु॥
न्हावन को तीरथ घने मन बौर रे पूजन को बहु देव॥
कबीर छूटत नहीं मन बौर रे छूट न हरि की सेव॥42॥
काहू दीने पाट पटंबर काहू पलघ निवारा।
काहू गरी गोदरी नाहीं काहू खान परारा॥
अहि रख बादु न कीजै रे मन सुकृत करि करि लीजै रे मन॥
कुमरै एक जु माटी गंधी बहु बिधि बानी लाई॥
काहू कहि मोती मुकताहल काहू ब्याधि लगाई॥
सूमहि धन राखन कौ दीया मुगध कहै धन मेरा॥
जम का दंड मुंड महि लागै खिन महि करै निबेरा॥
हरि जन ऊतम भगत सदावै आज्ञा मन सुख पाई॥
जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंत्रा बसाई॥
कहै कबीर सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी॥
चिरगट फारि चटारा लै गयो तरी तागरी छूटी॥43॥
किनहीं बनज्या कांसा तांबा किनही लोग सुपारी।
संतहु बनज्या नाम गोबिंद का ऐसी खेप हमारी॥
हरि के नाम व्यापारी।
हीरा हाथ चढ़ा निर्मोलक छूटि गई संसारी॥
साँचे लाए तो संच लागे सांचे के ब्योपारी॥
सांची वस्तु के भार चलाए पहुँचे जाइ भंडारी॥
आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी॥
आपै ह्नै दस दिसि आप चलावै निहचल है ब्यापारी॥
मन करि बैल सुरति करि पेडा ज्ञान गोनि भरी डारी।
कहत कबीर सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी॥44॥
कियौ सिंगार मिलन के ताई। हरि न मिले जगजीवन गुसाई॥
हरि मेरौ पितर हौं हरि की बहुरिया। राम बड़े मैं तनक लहुरिया॥
धनि पिय एकै संग बसेरा। सेज एक पै मिलन दुहेरा॥
धन्न सुहागिन जो पिय भावै। कहि कबीर फिर जनमि न आवै॥45॥
कूटन सोइ जु मन को कूटै। मन कूटै तो जम तै छूटै॥
कुटि कुटि मन कसवही लावे। सो कूटनि मुकति बहु पावै॥
कूटन किसै कहहु संसार। सकल बोलन के माहि बिचार॥
नाचन सोइ जु मन स्यौ नाचै। झूठ न पतियै परचै साचै॥
इसु मन आगे पूरै ताल। इसु नाचन के मन रखवाल॥
बाजारी सो बजारहिं सोधै। पाँच पलीतह को परबोधै॥
नव नायक की भगतिप छाने। सो बाजारी हम गुरु माने॥
तस्कर सोइ जिता तित करै। इंद्री कै जतनि नाम ऊचरै॥
कहु कबीर हम ऐसे लक्खन। धन्न गुरुदेव अतिरूप बिचक्खन॥46॥
कोऊ हरि समान नहीं राजा।
ए भूपति सब दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा॥
तेरो जन होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा॥
हात पसारि सकस्ै को जन को बोलि सकै न अंदाजा॥
चेति अचेति मूढ़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा॥
कहि कबीर संसा भ्रम चूको ध्रुव प्रह्लाद निवाजा॥47॥
कोटि मूर जाके परगास। कोटि महादेव अरु कविलास॥
दुर्गा कोटि जाकै मर्दन करै। ब्रह्मा कोटि बेद उच्चरै॥
जौ जांनौ तौ केवल राम। आन देव स्यो नाहीं काम॥
कोटि चंद्र में करहि चराक। सूर तेतीसौ जेवहि पाक॥
नवग्रह कोटि ठाढे़ दरबार। धर्म कोटि जाके प्रतिहार॥
पवन कोटि चौबारे फिरहिं। बासक काटि सेज बिस्तरहिं॥
समुंद्र कोटि जाके पनिहार। रोमावलि कोटि अठारहि भार॥
कोटि कुबेर भरहिं भंडार। कोटिक लखमी करै सिंगार॥
कोटिक पाप पुन्य बहु हिराहि। इंद्र कोटि जाके सेवा कराहि॥
छप्पन कोटि जाके प्रतिहार। नगरी नगरी खियत अपार॥
लट छूटी बरतै बिकराल। कोटि कला खेलै गोपाल॥
कोटि जग जाकै दरबार। गंधर्व कोटहिं करहिं जयकार॥
बिद्या कोटि सबे गुन कहै। ताउ पारब्रह्म का अंत न लहै॥
बावन कोटि जाकै रोमवली। रावन सैना जहँ ते छली॥
सहस कोटि बहु कहत पुरान। दुर्योधन का मथिया मान॥
कंद्रप कोटि जाकै लवै न धरहिं। अंतर अंतर मनसा हरहिं॥
कहि कबीर सुनि सारंगपान। देहि अभयपद मानो दान॥48॥
कोरी को काहु भरम न जाना। सब जग आन तनायो ताना।
जब तुम सुनि ले बेद पुराना। तब हम इतनकु पसरो ताना॥
धरनि अकास की करगह बनाई। चंद सुरज दुह साथ चलाई॥
पाई जोरि बात इक कीनी तह ताती मन माना॥
जोलाहे घर अपना चीना घट ही राम पछाना॥
कहत कबीर कारगह तोरी। सूतै सूत मिलाये कौरी॥49॥
भव निधि तरनतारन चिंतामनि इक निमिष इहु मन लागा॥
गोबिंद हम ऐसे अपराधी।
जिन प्रभु जीउ पिंड था दीया तिसकी भाव भगति नहिं साधी।
परधन परतन परतिय निंद्रा पर अपवाद न छूटै॥
आवागमन होत है फुनि फुनि इहु पर संग न छूटै॥
जिह घर कथा होत हरि संतन इक निमष न कीनो मैं फेरा॥
लंपट चोर धूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा॥
दया धर्म औ गुरु की सेवा ए सुपनंतरि नाहीं॥
दीन दयाल कृपाल दमोदर भगति बछल भैहारी॥
कहत कबीर भीर जनि राखहु हरि सेवा करौं तुमारी॥50॥
कौन तो पूत पिता को काकौ। कौन मेरे को देइ संतापौ।
हरि ठग जग कौ ठगौरी लाई। हरि के बियोग कैसे जियों मेरी माई॥
कौन को पुरुष कौन को नारी। या तत लेहु सरीर बिचारी॥
कहि कबीर ठग स्यों मन मान्या। गई ठगौरी ठग पहिचान्या॥51॥
क्या जप, क्या तप, क्या ब्रत पूजा। जाकै रिदै भाव है दूजा॥
रे जन मन माधव स्यों लाइयै। चतुराई न चतुर्भुज पाइयै।
परिहरि लोभ अरु लोकाचार। परिहरि काम क्रोध अहंकार॥
कर्म करत बद्धे अहंमेव। मिल पाथर की करही सेव।
कहु कबीर भगत कर पाया। भोलै भाइ मिलै रघुराया॥52॥
क्या पढ़िये क्या गुनियै। क्या वेद पुराना सुनियै।
पढ़े सुनै क्या होई। जो सहज न मिलियो सोई॥
हरि का नाम न जपसि गंवारा। क्या सोचहिं बारंबारा॥
अंधियारे दीपक चहियै। इक वस्तु अगोचर लहियै॥
वस्तु अगोचर पाई। घट दीपक रह्या समाई॥
कहि कबीर अब जान्या। जब जान्या तौ मन मान्या॥
मन माने लोग न पतीजै। न पतीजै तौ क्या कीजै॥53॥
खसम मरे तौ नारी न रोवै। उस रखवारा औरो होवै॥
रखवारे का होइ बिनास। आगे नरक इहा भोग बिलास॥
एक सुहागिन जगत पियारी। सगले जीव जंत की नारी॥
सोहागिन गल सोहै हार। संत कौ विष बिगसै संसार॥
करि सिंगार बहै पखियारी। संत की ठिठकी फिरै बिचारी॥
संत भागि ओह पाछै परै। गुरु परसादी मारहु डरै॥
साकत को ओह पिंड पराइणि। हमसो दृष्टि परै त्राखि डाइणि॥
हम तिसका बहु जान्या भेव। जबहु कृपाल मिले गुरु देव॥
कहु कबीर अब बाहर परी। संसारै कै अंचल लरी॥54॥
गंग गुसाइन गहिर गंभीर। जंजीर बाँधि करि खरे कबीर।
मन न डिगै तन काहे को डराइ। चरन कमल चित रह्यो समाइ॥
गंगा की लहरि मेरी टूटी जंजीर। मृगछाला पर बैठे कबीर॥
कहि कबीर कोऊ संग न साथ। जल थल राखन है रघुनाथ॥55॥
गंगा के संग सलिता बिगरी। सो सलिता गंगा होइ निबरी॥
बिगरो कबीरा राम दुहाई। साचु भयो अन कतहिं न जाई॥
चंदन के संगि तरवर बिगरो। सो तरवर चंदन ह्नै निबरो॥
पारस के संग तांबा बिगरो। सो तांबा कंचन ह्नै निबरो॥
संतन संग कबीरा बिगरो। सो कबीर राम ह्नै निबरो॥56॥
गगन नगरि इक बूँद न वर्षे नाद कहा जु समाना॥
पारब्रह्म परमेसर माधव परम हंस ले सिधाना॥
बाबा बोलते ते कहा गये देही कै संगि रहते॥
सुरति माहि जो निरते करते कथा वार्ता कहते॥
बबजावनहारी कहाँ गयी जिन इहु मंदर कीना॥
साखी सबद सुरत नहीं उपजै खिंच तेज सब लीना॥
òवननि बिकल भये संगि तेरे इंद्री का बल थाका॥
चरन रहे कर ढरग परे हैं मुखहु न निकसै बाता॥
थाके पंचदूत सब तस्कर आप आपणै भ्रमते॥
थाका मम कुंजर उर थाका तेज सूत धरि रमते॥
मिरतक भये दसै बंद छूटे मित्रा भाई सब छोरे।
कहत कबीरा जो हरि ध्यावै जीवन बंधन तोरे॥57॥
गगन रसाल चुए मेरी भाठी। संचि महारस तन भया काठी॥
वाकौ कहिये सहज मतवारा। पीवत राम रस ज्ञान बिचारा॥
सहज कलानननि जौ मिलि आई। आनंदि माते अनदिन जाई॥
चीन्हत चीत निरंजन लाया। कहु कबीर तौ अनभव पाया॥58॥
गज नव गज दस गज इक्कीस पुरी आये कत नाई॥
साठ सूत नव खंड बहत्तर पाटु लगो अधिकाई॥
गई बुनावन माहो घर छोड़îो जाइ जुलाहो॥
गजी न मिनियै तोलि न तुलियै पाँच न सेर अढ़ाई॥
जौ जरि पाचन बेगि न पावै झगरू करै घर आई॥
दिन की बैठ खसम की बरकस इह बेला कत आई॥
छूटे कुंडे भीगै पुरिया चल्यो जुलाहो रिसाइ॥
छोछी नली तंतु नहीं निकसै नतरु रही उरझाही॥
छोड़ि पसारई हारहु बपुरी कहु कबीर समुझाही॥59॥
गज साढ़े तै तै धोतिया तिहरे पाइनि तग्गा।
गली जिना जपमालिया लौटे हत्थिनि बग्गा॥
ओइ हरिके संतन आखि यदि बानारसि के ठग्गा॥
ऐसे संत न मोकौ भावहि डाला स्यों पेड़ा गटकावहिं॥
बासन माजि चरावहिं ऊपर काठी धोइ जलावहिं॥
बसुधा खोदि करहि दुइ चूल्हे सारे माणस खावहिं॥
ओई पापी सदा फिरहि अपराधौ मुखहु अपरस कहावहिं॥
सदा सदा फिरहि अभिमानी सकल कुटुंब डूबावहिं॥
जित को लाया तितही लागा तैसे करम कमावै॥
कहु कबीर जिस सति गुरु भेटे पुनरपि जनमि न आवै॥6
गर्भ बास महि कुल नहिं जाती। ब्रह्म बिंद ते सब उतपाती॥
कहु रे पंडित बामन कब क होये। बामन कहि कहि जनम मति खोये॥
जौ तू ब्राह्मण ब्राह्मणी जाया। तौ आन बाट काहे नहीं आया॥
तुम कत ब्राह्मण हम कत शूद। हम कत लोहू तुम कत दूध॥
कहु कबीर जो ब्रह्म बिचारै। सो ब्राह्मण कहियत है हमारे॥61॥
गूड़ करि ज्ञान ध्यान करि महुआ भाठी मन धारा।
सुषमन नारी सहज समानी पीवै पीवन हारा॥
अवधू मेरा मन मतवारा।
उन्मद चढ़ा रस चाख्या त्रिभुवन भया उजियारा।
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महारस भारी॥
काम क्रोध दुइ किये जलेता छूटि गई संसारी॥
प्रगट प्रगास ज्ञान गम्मित सति गुरु ते सुधि पाई।
दास कबीर तासु मदमाता। उचकि न कबहूँ जाई॥62॥
गुरु चरण लागि हम बिनवत पूछत कह जीव पाया॥
कौन काज जग उपजै बिनसै कहहु मांहि समझाया॥
देव करहु दया मोहि मारग लावहु जित भवबंधन टूटै॥
जनम मरण दुख फेड़ कर्म सुख जीव जनम ते छूटै॥
माया फाँस बंधन ही फारै अरु मन सुन्नि न लूके॥
आपा पद निर्वाण न चीन्हा इन बिधि अमिउ न चूके॥
कही न उपजै उपजी जाणे भाव प्रभाव बिहूण।
उदय अस्त की मन बुधि नासी तो सदा सहजि लवलीण॥
ज्यों प्रतिबिंब बिंब कौ मिलिहै उदक कुंभ बिगराना॥
कहु कबीर ऐसा गुण भ्रम भागा तौ मन सुन्न समाना॥63॥
गुरु सेवा ते भगति कमाई। तब इह मानस देही पाई॥
इस देही कौ सिमरहिं देव। सो देही भुज हरि की सेव॥
भजहु गुबिंद भूल मत जाहु। मानस जनम की रही चाहु॥
जब लग जरा रोग नहीं आया। जब लग काल ग्रसी नहिं काया॥
जब लग विकल भई नहीं बानी। भजि लेहि रे मन सारंगपानी॥
अब न भजसि भजसि कब भाई। आवैं अंत न भजिया जाई॥
जो किछु करहिं सोई अवि सारू। फिर पछताहु न पावहु पारू॥
जो सेवक जो लाया सेव। तिनही पाये निरंजन देव॥
गुरु मिलि ताके खुले कपाट। बहुरि न आवै योनी वाट॥
इही तेरा अवसर इह तेरी वार। घट भीतर तू देखु बिचारि॥
कहत कबीर जीति कै हारि। बहुबिधि कह्यौ पुकारि पुकारि॥64॥
गृह तजि बन खंड जाइयै चुनि खाइयै कंदा।
अजहु बिकार न छोड़ई पापी मन मंदा॥
क्यौं छूटा कैसे तरौ भवनिधि जल भारी॥
राखु राख मेरे बीठुला, जन सरनि तुमारी॥
बिषम बिषय बासना तजिय न जाई॥
अनिक यत्न करि राखियै फिरि लपटाई॥
जरा जीवन जोबन गया कछु कीया नीका।
इह जीया निर्मोल को कौड़ी लगि मीका॥
कहु कबीर मेरे माधवा तू सर्वव्यापी॥
तुम सम सरि नाहीं दयाल मो सम सरि पापी॥65॥
गृह शोभा जाकै रे नाहीं। आवत पहिया खूदे जाहि॥
वाकै अंतरि नहीं संतोष। बिन सोहागिन लागे कोष॥
धन सोहागनि महा पबीत। तपे तपीसर डालै चीत॥
सोहागनि किरपन की पूती। सेवक तजि जग तस्यो सूती॥
साधू कै ठाढ़ी दरबारि। सरनि तेरी मोके निस्तारि॥
सोहागनि है अति सुंदरी। पगनेवर छनक छन हरी॥
जौ लग प्रान तऊ लग संगे। नाहिन चली बेगि उठि नंगे॥
सोहागिन भवन त्रौ लीया। दस अष्टपुराण तीरथ रसकीया॥
ब्रह्मा विष्णु महेसर बेधे। बड़ भूपति राजै है छेधे॥
सोहागिन उर पारि न पारि। पाँच नारद कै संग बिधबारि॥
पाँच नारद के मिठवे फूटे। कहु कबीर गुरु किरपा छूटे॥66॥
चंद सूरज दुइ जोति सरूप। जीता अंतरि ब्रह्म अनूप॥
करु रे ज्ञानी ब्रह्म बिचारु। जोति अंतरि धरि आप सारु॥
हीरा देखि हीरै करो आदेस। कहै कबीर निरंजन अलेखु॥67॥
चरन कमल जाके रिदै। बसै सो जन क्यौं डोलै देव।
मानौ सब सुख नवनिधि ताके सहजि जस बोलै देव॥
तब इह मति जौ सब महि पेखै कुटिल गाँठि जब खोलै देव॥
बारंबार माया ते अटकै लै नरु जो मन तौलै देव॥
जहँ उह जाइ तहीं सुख पावै माया तासु न झोलै देव॥
कहि कबीर मेरा मन मान्या राम प्रीति को ओलै देव॥68॥
हरि बिन बैल बिराने ह्नैहै।
चार पाव दुई सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गैहै॥
ऊठत बैठत ठैगा परिहै तब कत मूडलुकेहै॥
फाटे नाक न टूटै का धन कोदौ कौ भूस खैहै॥
सारो दिन डोलत बन महिया अजहु न पेट अघैहै॥
जन भगतन को कही न मानी कीयो अपनो पैहै॥
दुख सुख करत महा भ्रम बूड़ौ अनिक योनि भरमैहै॥
रतन जनम खोयो प्रभु बिसरौं इह अवसर कत पैहैं॥
भ्रमत फिरत तेलक के कपि ज्यों गति बिनु रैन बिंहैहै॥
कहत कबीर राम नाम बिन मुंड धूनै पछितैहै॥69॥
चारि दिन अपनी नौबति चले बजाइ।
इतनकु खटिया गठिया मठिया संगि न कछु लै जाइ।
देहरी बैठी मेहरी रोवै हारे लौ संग माइ॥
मरहट लगि सब लोग कुटुंब मिलि हंस इकेला जाइ॥
वै सुत वै बित वै पुर पाटन बहुरि न देखै आई॥
कहत कबीर राम को न सिमरहु जन्म अकारथ जाई॥70॥
चोवा चंदन मर्दन अंगा। सो तन जलै काठ के संगा।
इसु तन धन की कौन बड़ाई। धरनि परै उरबारि न जाई॥
रात जि सोवहि दिन करहि काम। इक खिन लेहि न हरि का नाम।
हाथि त डोर मुख खायो तंबोर। मरती बार कसि बांध्यौ चोर॥
गुरु मति रहि रसि हरि गुन गावै। रामै राम रमत सुख पावै॥
किरपा करि के नाम दृढ़ाई। हरि हरि बास सुगंध बसाई॥
कहत कबीर चेते रे अंधा। सत्य राम झूठ सब धंधा॥71॥
जग जीवत ऐसा सूपनौ जैसा जीव सुपन समान।
साचु करि हम गांठ दीनी छोड़ि परम निधान॥
बाबा माया मोह हितु कीन जिन ज्ञान रतन हरि लीन।
नयन देखि पतंग उरझै पसु न देखै आगि॥
काल फास न मुगध चेतै कनि काँमिनि लागि॥
करि बिचारि बिकार परिहरि तुरन तारेन सोइ॥
कहि कबीर जग जीवन ऐसा दुंतिया नहीं कोइ॥72॥
जन्म मरन का भ्रम गया गोविंद लिव लागी।
जीवन सुन्नि समानिया नुरु साखी जागी॥
कासी ते धुनी उपजै धुनि कांसी जाई॥
त्रिकुटी संधि मैं पेखिया घटहू घट जागी॥
ऐसी बुद्धि समाचरी घट माही तियागी॥
आप आप जे जागिया तेज तेज समाना॥
कहु कबीर अब जानिया गोविंद मन माना॥73॥
जब जरिये तब होइ भसम तन रहे किरम दल खाई॥
काची गागरि नीर परतु है या तन की इहै बड़ाई॥
काहे भया फिरतो फूला फूला।
जब दस मास उरध मुख रहता सो दिन कैसे भूला॥
ज्यों मधु मक्खी त्यों सठोरि रसु जोरि जोरि धन कीया॥
मरती बार लेहु लेहु करिये भूत रहन क्यों दीया॥
देहुरी लौ बरी नारि संग भई आगि सजन सुहेला॥
मरघट लौ सब लगे कुटुंब भयो आगै हंस अकेला॥
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ॥
झूठी माया आप बँधाया ज्यों नलनी भ्रमि सुआ॥74॥
जब लग तेल दीवै मुख बाती तब सूझै सब कोई।
तेल जलै बाती ठहरानी सूना मंदर होई॥
रे बौरे तुहि घरी न राखै कोई तूं राम नाम जपि सोई॥
काकी माता पिता कहु काको कौन पुरुष की जोई॥
घट फूटे कोउ बात न पूछै काढ़हु काढ़हु होई॥
देहुरी बैठ माता रोवै खटिया ले गये भाई॥
लट छिटकाये तिरिया रोवै हंस ईकेला जाई॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु भौसागर के ताईं॥
इस बदे सिर जुलम होत है जम नहीं घटै गुसाईं॥75॥
जब लगी मेरी मेरी करै। तब लग काज एक नहि सरै॥
जब मेरी मेरी मिट जाई। तब प्रभु काज सवारहिं आई॥
ऐसा ज्ञान बिचारु मना। हरि किन सिमरहु दुख भंजना॥
जब लगि सिंध रहे बन माहि। तब लग बन फूनई नाहि॥
जब ही स्यार सिंघ कौ खाई। फूल रहीं सगली बनराई॥
जीतौ बूड़े हारो लरै। गुरु परसादि पार उतरै।
दास कबीर कहै समझाई। केवल राम रहहु लिव लाई॥76॥
जब हम एकौ एक करि जानिया। तब लोग कहै दुख मानिया॥
हम अपतह अपनौ पति खोई। हमरै खोज परहु मति कोई॥
हम मंदे मंदे मन माहीं। सांझपाति काहु स्यौं नाहीं॥
पति मा अपति ताकी नहीं लाज। तब जानहुगे जब उधरैगा पाज॥
कहु कबीर पति हरि पखानु। सबर त्यागी भजु केवल रामु॥77॥
जल महि मीन माया के बेधे। दीपक पतंग माया के छेदे॥
काम मया कुंजर को ब्यापै। भुवंगम भुंग माया माहि खापै॥
माया ऐसी मोहनी भाई। जेते जीय तेते डहकाई॥
पंखी मृग माया महि राते। साकर माँखी अधिक संतापे॥
तुरे उष्ट माया महिं मेला। सिध चौरासी माया महि खेला॥
छिय जती माया के बंदा। भवै नाथु सूरज अरु चंदा॥
तपे रखीसर माया महि सूता। माया महि कास अरु पंच दूता॥
स्वान स्याल माया महि राता। बंतर चीते अरु सिंघाता॥
माजर गाडार अरु लूबरा। बिरख सूख माया महि परा॥
माया अंतर भीने देव। नागर इंद्रा अरु धरतेव॥
कहि कबीर जिसु उदर तिसु माया। तब छूटै जब साधु पाया॥78॥
जल है सूतक थल है सूतक सूतक आपति होई॥
जनमे सूतक मूए फुनि सूतक सूतक परज बिगोई॥
कहुरे पंडित कौन पबीता ऐसा ज्ञान जपहु मेरे मीता॥
नैनहु सूतक बैनहु सूतक लागै सूतक परै रसोई॥
ऊठत बैठत सूतक सूतक òवनी होई॥
फांसन की बिधि सब कोऊ जानै छूटन की इकु कोई॥
कहि कबीर राम रिदै बिचारै सूतक तिनैं न होई॥79॥
जहँ किछू अहा तहाँ किछु नाहीं पंच तत तह नाहीं॥
इड़ा पिंगला सुषमन बदे ते अवगुन कंत जाहीं॥
तागा तूटा गगन बिनसि गया तेरा बोलत कहा समाई।
एह संसा मौको अनदिन ब्यापै मोको कौन कहै समझाई॥
जह ब्रह्मांड पिंड तह नाहीं रचनहार तह नाहीं॥
जोड़नहारी सदा अतीता इह कहिये किसु माहीं॥
जोड़ी जुड़े न तोड़ी तूटै जब लग होइ बिनासी॥
काको ठाकुर काको सेवक को काहू के जासी॥
कहु कबीर लिव लागि रही है जहाँ बसै दिन राती।
वाका मर्म वोही पर जानै ओहु तौ सदा अबिनासी॥80॥
जाके निगम दूध के ठाटा। समुद बिलोवन की माटा।
ताकी होहु बिलोवनहारी। क्यों मिटैगी छाछि तुम्हारी॥
चेरी तू राम न करसि भरतारा। जग जीवन प्रान अधारा॥
तेरे गलहि तौक पग बेरी। तू घर घर रमिए फेरी॥
तू अजहु न चेतसि चेरी। तू जेम बपुरी है हेरी॥
प्रभु करन करावन हारी। क्या चेरी हाथ बिचारी॥
सोई सोई जागी। जितु लाई तितु लागी।
चेरी तै सुमति कहाँ ते पाई। जाके भ्रम की लीक मिटाई॥
सुरसु कबीरै जान्या। मेरो गुरु प्रसाद मन मान्या॥81॥
जाकै हरि सा ठाकुर भाई। सु कति अनत पुकारन जाई।
अब कहु राम भरोसा तोरा। तब काहूँ को कौन निहोरा॥
तीनि लोक जाके इहि भार। मो काहे न करै प्रतिपार।
कहु कबीर इक बुद्धि बिचारी। क्या बस जौ बिष दे महतारी॥82॥
जिन गढ़ कोटि किए कंचन के छोड़ गया सो रावन।
काहे कीजत है मन भावन।
जब जम आइ केस ते पकरै तहँ हरि का नाम छुड़ावन॥
काल अकाल खसम का कीना इहु परपंच बधावन॥
कहि कबीर ते अंते मुक्ते जिन हिरदै राम रसायन॥83॥
जिह मुख बेद गायत्री निकसै सो क्यों ब्राह्मन बिसरु करै॥
जाके पाय जगत सब लागै सो क्यों पंडित हरि न कहै॥
काहे मेरे ब्राह्मन हरि न कहहिं रामु न बोलहि पांडे दोजक भरहिं।
आपन ऊँच नीच घरि भोजन हठे करम करि उदर भरहिं।
चौदस अमावस रचि रचि माँगहिं कर दीपक लै कूप परहिं॥
तूँ ब्राह्मन मैं कासी का जुलाहा मोहि तोहिं बराबरि कैसे कै बनहि॥
हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूब मरहिं॥84॥
जिह कुल पूत न ज्ञान बिचारी। बिधवा कस न भई महतारी॥
जिह नर राम भगति नहीं साधी। जनमत कस न मुयो अपराधी॥
मुच मुच गर्भ गये कौन बचिया। बुड़भुज रूप जीवे जग मझिया॥
कहु कबीर जैसे सुंदर स्वरूप। नाम बिना जैसे कुबज कुरूप॥85॥
लिह मरनै कब जगत तरास्या। सो मरना गुरु सबद प्रगास्या।
अब कैसे मरो मरम सब मान्या। मर मर जाते जिन राम न जान्या॥
मरनौ मरन कहै सब कोई। सहजे मरै अमर होइ सोई॥
कहु कबीर मन भयो अनंदा। गया भरम रहा परमानंदा॥86॥
जिह सिमरनि होइ मुक्ति दुवारि। जाहि बैकुंठ नहीं संसारि॥
निर्भव के घर बजावहिं तूर। अनहद बजहिं सदा भरपूर॥
ऐसा सिमरन कर मन माहिं। बिनु सिमरन मुक्ति कत नाहिं॥
जिह सिमरन नाहीं ननकारू। मुक्ति करै उतरै बहुभारू॥
नमस्कार करि हिरदय मांहि। फिर फिर तेरा आवन नाहिं॥
जिह सिमरन कहहिं तू केलि। दीपक बाँधि धरो तिन तेल॥
सो दीपक अमर कु संसारि। काम क्रोध बिष काढ़ि ले मार॥
जिह सिमरन तेरी गति होइ। सो सिमरन रखु कंठ पिरोइ॥
सो सिमरन करि नहीं राखि उतारि। गुरु परसादी उतरहिं पार॥
जिह सिमरन नहीं तुहि कान। मंदर सोवहि पटंबरि तानि॥
सेज सुखाली बिगसै जीउ। सो सिमरन तू अनहद पीउ॥
जिह सिमरन तेरी जाइ बलाई। जिह सिमरन तुझ पोह न माई॥
सिमरि सिमरि हरि हरि मन गाइयै। इह सिमरन सति गुरु ते पाइयै॥
सदा सदा सिमरि दिन राति। ऊठत बैठत सासि गिरासि॥
जागु सोई सिमरन रस भोग। हरि सिमरन पाइयै संजोग॥
जिहि सिमरन नाहीं तुझ भाऊ। सो सिमरन राम नाम अधारू॥
कहि कबीर जाका नहीं अंतु। तिसके आगे तंतु न मंतु॥87॥
जिह मुख पाँचो अमृत खाये। तिहि मुख देखत लूकट लाये।
इक दुख राम राइ काटहु मेरा। अग्नि दहै अरु गरभ बसेरा॥
काया बिमति बहु बिधि माती। को जारे को गड़ले मादी॥
कहु कबीर हरि चरण दिखावहु। पाछे ते जम को पठावहु॥88॥
जिह सिर रचि बाँधत पाग। सो सिर चुंच सवारहिं काग॥
इसु तन धन को दया गर्बीया। राम नाम वहि न दृढ़ीया॥
कहत कबीर सुनहु मन मेरे। इही हवाल होहिंगे तेरे॥89॥
जीवत पितरन माने कोऊ मुएं सराद्ध कराहीं।
पीतर भी बपुरे कहु क्यों पावहिं कौआ कूकर खाहीं॥
मोंकौ कुसल बतावहु कोई।
कुसल कुसल करते जग बिनसे कुसल भी कैसे होई।
माटी के करि देवी देवा तिसु आगे जीउ देही॥
ऐसे पितर तुम्हरे कहियहिं आपन कह्या न लेही।
सरजीव काटहिं निरजीव पूजहि अंत काल कौ भारी॥
राम नाम की गति नहीं जानी भय डूबे संसारी।
देवी देवा पूजहिं डोलहिं पारब्रह्म नहीं जाना॥
कहत कबीर अकुल नहीं चेत्या विषया त्यौं लपटाना।
जीवत मरै मरै फुनि जीवै ऐसे सुन्नि समाया।
अंजन माहि निरंजन रहियै बहुरि न भव जल पाया॥90॥
मेरे राम ऐसा खीर बिलोइये।
गुरु मति मनुवा अस्थिर राखहु इन विधि अमृत पिओइये।
गुरु कै बाणी बजर कलछेदी प्रगट्या पर परगासा॥
सक्ति अधेर जेवणी भ्रम चूका निहचल सिव घर बासा॥
तिन बिन बाणै धनुष चढ़ाइयै इहु जग बेध्या भाई।
दस दिसि बूड़ी पावन झुलावै डोरि रही लिव लाई॥
जनमत मनुवा सुन्नि समाना दुबिधा दुर्मति भागी।
बहु कबीर अनुभौ इकु देख्या राम नाम लिव लागी॥91॥
जो जन भाव भगति कछु जाने ताको अचरज काहो।
बिनु जल जल महि पैसि न निकसै तो ढरि मिल्या जुलाहो॥
हरि के लोग मैं तो मति का भोरा।
जो तन कासी तजहिं कबीरा रामहि कहा निहोरा।
कहतु कबीर सुनहु रे लोई भरम न भूलहु कोई॥
क्या कासी क्या ऊसर मगहर राम रिदय जौ होई॥92॥
जेते जतन करत ते डूबे भव सागर नहीं तारौं रे॥
कर्म धर्म करते बहु संजम अहं बुद्धि मन जारो रे॥
सांस ग्रास को दाता ठाकुर सो क्यों मनहुँ बिसारौं रे॥
हीरा लाल अमोल जमन है कौड़ी बदलै हारौं रे॥
तृष्णा तृषा भूख भ्रमि लागी हिरदै नाहिं बिचारौं रे॥
उनमत मान हिरौं मन माही गुरु का सबद न धारौं रे॥
स्वाद लुभंत इंद्री रस प्रेरौं मद रन लेत बिकारौं रे॥
कर्म भाग संतन संगा ते काष्ठ लोह उद्धारौं रे॥
धावत जोनि जनम भ्रमि थाके अब दुख करि हम हारौं रे॥
कहि कबीर गुरु मिलत महा रस प्रेम भगति निस्तारौं रे॥93॥
जेइ बाझु न जीया जाई। जौ मिलै तौ घाल अघाई॥
सद जीवन भलो कहाही। मुए बिन जीवन नाहीं॥
अब क्या कथियै ज्ञान बिचारा। निज निर्खत गत ब्यौहारा॥
घसि कुंकम चंदन गार्या। बिन नयनहु जगत निहार्या॥
पूत पिता इक जाया। बिन ठाहर नगर बनाया।
जाचक जन दाता पाया। सो दिया न जाई खाया॥
छोड़îा जाइ न मूका। औरन पहि जाना चूका॥
जो जीवन मरना जानै। सो पंच सैल सुख मानै॥
कबीरै सो धन पाया। हरि भेट आप मिटाया॥94॥
जैसे मंदर महि बल हरना ठाहरै। नाम बिना कैसे पार उतारै॥
कुंभ बिना जल ना टिकावै। साधू बिन ऐसे अवगत जावै॥
जारौ तिसै जु राम न चेतै। तन तन रमत रहै महि खेतै॥
जैसे हलहर बिना जिमी नहि बोइये। सूत बिना कैसे मणी परोइयै॥
घुंडी बिन क्या गंठि चढ़ाइये। साधू बिन तैसे अवगत जाइयै॥
जैसे मात पिता बिन बाल न होई। बिंब बिना कैसे कपरे धोई॥
घोर बिना कैसे असवार। साधू बिन नाहीं दरबार॥
जैसे बाजे बिन नहीं लीजै फेरी। खमस दुहागनि तजिहौ हेरी॥
कहै कबीर एकै करि जाना। गुरुमुखि होइ बहुरि नहीं मरना॥95॥
जोइ खसम है जाया।
पूत बाप खेलाया। बिन रसना खीर पिलाया।
देखहु लोगा कलि को भाऊ। सुति मुकलाई अपनी माऊ॥
पग्गा बिन हुरिया मारता। बदनै बिन खिन खिन हासता॥
निद्रा बिन नरु पै सोवै। बिन बासन खीर बिलोवै॥
बिनु अस्थन गऊ लेबेरी। पंडे बिनु घाट घनेरी॥
बिन सत गुरु बाट न पाई। कहु कबीर समझाई॥96॥
जो जन लेहि खमस का नाउ। तिनकै सद बलिहारै जाउ॥
सो निर्मल हरि गुन गावै। सो भाई मेरे मन भावै॥
जिहि घर राम रह्या भरपूरि। तिनकी पग पंकज हम धूरि॥
जाति जुलाहा मति का धीरू। सहजि सहजि गुन रमै कबीरू॥
जो जन परमिति परमनु जाना। बातन ही बैकुंठ समाना॥
ना जानौं बैकुंठ कहाहीं। जान न सब कह हित हाही॥
कहन कहावत नहिं पतियैहै। तौ मन मानै जातेहु मैं जइहै॥
जब लग मन बैकुंठ की आस। तब लगि होहिं नहीं चरन निवास॥
कहु कबीर इह कहियै काहि। साध संगति बैकुंठै आहि॥97॥
जो पाथर को कहिते देव। ताकी बिरथा होवै सेव॥
जो पाथर की पांई पाई। तिस की घाल अजाई जाई॥
ठाकुर हमरा सद बोलंता। सबै जिया को प्रभ दान देता॥
अंतर देव न जानै अंधु। भ्रम को मोह्या पावै फंधु॥
न पाथर बोलै ना किछु देइ। फोकट कर्म निहफल है सेइ॥
जे मिरतक के चंदन चढ़ावै। उससे कहहु कौन फल पावैं॥
जो मिरतक को विष्टा मांहिं सुलाई। तो मिरतक का क्या घटि जाई॥
कहत कबीर हौ करहुँ पुकार। समझ देखु साकत गावार॥
दूजै भाइ बहुत घर घाले। राम भगत है सदा सुखाले॥98॥
जो मैं रूप किये बहुतेरे अब फुनि रूप न होई।
ताँगा तंत साज सब थाका राम नाम बसि होई॥
अब मोहि नाचनो न आवै। मेरा मन मंदरिया न बजावै॥
काम क्रोध काया लै जारौ तृष्णा गागरि फूटी।
काम चोलना भया है पुराना गया भरम सब छूटी॥
सर्व भूत एक करि जान्या चूके बाद बिबादा।
कहि कबीर मैं पूरा पाया भये राम परसादा॥99॥
जो तुम मोकौ दूरि करत हौ तौ तुम मुक्ति बतावहुगे॥
एक अनेक होइ रह्यो सकल महि अब कैसे भर्मावहुगे॥
राम मोकौ तारि कहाँ लै जैहै।
सोधौ मुक्ति कहा देउ कैसी करि प्रसाद मोहि पाइहै।
तारन तरन कबै लगि कहिये जब लगि तत्व न जान्या॥
अब तौ विमल भए घट ही महि कहि कबीर मन मान्या॥100॥
ज्यों कपि के कर मुष्टि चरन की लुब्धि न त्यागि दयो।
जो जो कर्म किये लालच स्यों ते फिर गरहि परो॥
भगति बिनु बिरथेे जनम गयो।
साध संगति भगवान भजन बिन कही न सच्च रह्यो॥
ज्यों उद्यान कुसुम परफुल्लित किनहि न घ्राउ लयो॥
तैसे भ्रमत अनेक जोनि महि फिरि फिरि काल हयो॥
या धन जोबन अरु सुत दारा पेखन कौ जु दयो॥
तिनहीं माहि अटकि जो उरझें इंद्री प्रेरि लयो॥
औध अनल तन तिन को मंदर चह दिसि ठाठ ठयो॥
कहि कबीर भव सागर तरन कौ मैं सति गुरु ओट लयो॥101॥
ज्यों जल छोड़ि बाहर भयो मीना। पूरब जनम हौं तप का हीना॥
अब कहु राम कवन गति मोरी। तजीले बनारस मति भई थोरी॥
सकल जनम सिवपुरी गवाया। मरती बार मगहर उठि आया॥
बहुत बरस तप कीया कासी। मरन भया मगहर कौ बासी॥
कासी मगहर सम बीचारी। ओछी भगति कैसे उतरसि पारी॥
कहु गुरु गजि सिव सबको जामै। मूवा कबीर रमत श्रीरामै॥102॥
ज्योति की जाति जाति की ज्योति। तितु लागे कंचुआ फल मोती।
कौन सुघर जो निभौं कहियै। भव भजि जाइ अभय ह्नै रहियै॥
तट तीरथ नहि मन पतियाइ। चार अचार रहे उरझाइ।
पाप पुन्य दुइ एक समान। निज घर पारस तजहु गुन आन॥103॥
टेढ़ी पाग टेढ़े चले लागे बीरे खान॥
भाउ भगति स्यो काज न कछु ए मेरो काम दीवान॥
राम बिसारौं है अभिमानी।
कनक कामिनी महा सुंदरी पेखि पेखि सचु मानी।
लालच झूठ बिकार महा मद इह विधि औध बिहानी॥
कहि कबीर अंत की बेर आई लागौ काल निदानी॥104॥
डंडा मुद्रा खिंथा आधारी। भ्रम कै भाई सबै भेषधारी।
आसन पवन दूरि करि बवरे। छोड़ि कपट नित हरि भज बवरे॥
जिह तू याचहि सो त्रिभुवन भोगी। कहि कबीर कैसो गज जोगी॥105॥
तन रैनी मन पुनरपि करिहौ पाचौ तत्व बराती॥
राम राइ स्यों भांवरि लैंहो आतम तिह रंगराती॥
गाउ गाउ री दुलहिनी मंगलचारा।
मेरे गृह आये राजा राम भतारा॥
नाभि कमल मुहि बेदी रचि ले ब्रह्म ज्ञान उच्चारा॥
राम राइ स्यों दूल्हो पायो अस बड़ भाग हमारा॥
सुर नर मुनि जन कौतक आये कोटि तैतीसो जाना॥
कहि कबीर मोहि ब्याहि चले हैं पुरुष एक भगवाना॥106॥
तरवर एक अनंत डार साखा पुहुप पत्रा रस भरिया॥
इह अमृत की बाड़ी है रे तिन हरि पूरै करिया॥
जानी जानी रे राजा राम की कहानी।
अंतर ज्योति राम परगासा गुरु मुख बिरलै जानी॥
भवर एक पुहुप रस बीधा बार हले उर धरिया॥
सोरह मध्ये पवन झकोरो आकासे फर फरिया॥
सहज सुन्न इक बिरवा उपज्या धरती जलहर सोख्या॥
कहि कबीर हौ ताका सेवक जिनका इहु बिरवा देख्या॥107॥
टूटे तागे निखुटी पानि। द्वार ऊपर झिलिकावहि कान॥
कूच बिचारे फूए फाल। या मुंडिया सिर चढ़िबो कान॥
इहु मुंडिया सगलो द्रव खोई। आवत जात ना कसर होई॥
तुरी नारि की छोड़ि बाता। राम नाम वाका मन राता॥
लरिकी लरिकन खैबो नाहि। मुंडिया अनुदिन धाये जाहि॥
इक दुइ मंदर इक दुइ बाट। हमकौ साथरु उनको खाट॥
मूंड पलोसि कमर बंधि पोथी। हमकौ चाबन उनकौ रोटी॥
मुंडिया मुंडिया हुए एक। ए मुंडिया बूडत की टेक॥
सुनि अधली लोई बेपीर। इस मुंडियन भजि सरन कबीर॥108॥
तू मेरो मेरु परबत सुवामी ओट गही मैं तेरी॥
ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी॥
अब तब जब तूही तूही। हम तुम परसाद सुखी सदाहीं॥
तोरे भरोसे मगहर बसियो। मेरे तन की तपति बुझाई॥
पहिले दर्सन मगहर पायो। फुनि कासी बसे आई।
जैसा मगहर तैसा कासी हम एकै करि जानी॥
हम निर्धन ज्यों इह धन पाया मरते फूटि गुमानी॥
करे गुमान चुभहिं तिसु सूला कोऊ काढ़न कौ नाहीं॥
अजै सुचोभ को बिलल बिलाते नरके घोर पचाहीं॥
कौन नरक क्या स्वर्ग बिचारा संतन दोऊ रादे॥
हम काहू की काणि न कढ़ते अपने गुरु परसादे॥
अब तौ जाइ चढ़े सिंहासन मिलिहैं सारंगपानी॥
राम कबीरा एक भये हैं कोई न सकै पछानी॥109॥
थरथर कंपै बाला जीउ। ना जानौ क्या करसी पीउ॥
रैनि गई मति दिन भी जाइ। भवर गये बग बैठे आइ॥
काचै करबै रहै न पानी। हंस चला काया कुम्हिलानी॥
क्वारी कन्या जैसे करत सिंगारा। क्यों रलिया मानै बोझ भतारा॥
काग उड़ावत भुजा पिरानी। कहि कबीर इह कथा सिरानी॥110॥
थाके नयन òवण सुनि थाके थाकी सुंदर काया।
जरा हाक दी सब मति थाकी एक न थाकिस माया॥
बावरै तै ज्ञान बिचार न पाया बिरथा जनम गंवाया॥
तब लगि प्रानी तिसे सरेबहु जब लगि मही सांसां॥
जे घट जाइत भाव न जासी हरि के चरन निवासा॥
जिसको सबद बसावै अंबर चूकहि तिसहि पियासा॥
हुक्मैं बूझै चौपड़ी खेलै मन जिन ढाले पासा॥
जो मन जनि भजहि अवगति कौ तिनका कछू न नासा॥
कहु कबीर ते जन कबहु न हारहिं ढालि जु जानहिं पासा॥111॥
दरमादे ठाढ़े दरबारि।
तुझ बिन सुरति करै को मेरी दर्सन दीजै खोलि किवार॥
तुम धन धनी उदार तियारी òवनन सुनियत सुजस तुमार॥
माँगौ काहि रंक सब देखौ तुम ही ते मेरो निसतार।
जयदेव नामा बिष्प सुदामा तिनकौ कृपा भई है अपार॥
कहि कबीर तुम समरथ दाते चारि पदारथ देत न बार॥112॥
दिन ते पहर पहर ते घरियाँ आयु घटै तनु छीजै।
कौल अहेरी फिरहि बधिक ज्यों कहहु कौन बिधि कीजै॥
सो दिन आवन लागा।
माता पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है काका।
जग लगु जोति काया महि बरतै आपा पसू न बूझै॥
लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै।
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोड़हु मन के भरमा॥
केवल नाम जपहु रे प्रानी परहु एक ही सरना॥113॥
दीन बिसारो रे दीवाने दीन बिसारो।
पेट भरो पसुआ ज्यों सोयो मनुष जनम है हारो॥
साध संगति कबहु नहिं कीनी रचियो धंधै झूठ॥
स्वान सूकर बायस सम जीवै भटकत चाल्यो ऊठि॥
आपन की दौरघ करि जानै औरन कौ लघु मान॥
मनसा वाचा करमना मैं देखे दोजक जान॥
कामी क्रोधी चातुरी बाजीगर बेकाम॥
निंदा करते जनम सिरानी कबहु न सिमरो राम॥
कहि कबीर चेतै नहिं मूरख मुगध गवार।
राम नाम जानियो नहीं, कैसे उतरसि पार॥114॥
दुइ दुइ लोचन पेखा। हौं हरि बिन और न देखा॥
नैन रहे रंग लाई। अब बेगल कहन न जाई॥
हमारा भर्म गया भय भागा। जब राम नाम चितु लागा॥
बाजीगर डंक बजाई। सब खलक तमासे आई॥
बाजीगर स्वांग सकेला। अपने रंग रवै अकेला॥
कथनी कहि धर्म न जाई। सब कथि कथि रही लुकाई॥
जाकौ गुरु मुखि आप बुझाई। ताके हिरदै रह्या समाई॥
गुरु किंचित किरपा कीनी। सब तन मन देह हरि लीनी॥
कहि कबीर रंगि राता। मिल्यो जग जीवनदाता॥115॥
दुनिया हुसियार बेदार जगत मुसियत हौरे भाई॥
निगम हुसियार पहरुआ देखत जम ले जाई॥
नीबु भयो आंबु आंबु भयो नींबा केला पाका झारि॥
नालिएर फल सेबरिया पाका मूरख मुगध गवार॥
हरि भयो खांडु रे तुमहि बिखरियो हस्ती चुन्यो न जाई।
कहि कबीर कुल जाति पांति तजि चींटी होइ चुनि खाई॥116॥
देखो भाई ज्ञान की आई आँधी।
सबै उड़ानी भ्रम की टाटी रहै न माया बाँधी॥
दुचिते की दुई थूनि गिरानीं मोह बलेड़ा टूटा॥
तिष्णा छानि परी घर ऊपर दुमिति भाँड़ा फूटा॥
आँधी पाछै जो जल बर्षे तिहि तेरा जन भींना॥
कहि कबीर मग भया प्रगासा उदय भानु जब चीना॥117॥
देइ मुहार लगाम पहिरावौ। सगल के पावड़े पग धरि लीजै॥
अपने बिचारै असवारी कीजै। सहज के पावड़े पग धरि लीजै॥
चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारी। हित चित प्रेम के चाबुक मारी॥
कहत कबीर भले असवारा। बेद कतेब ते रहहि निरारा॥118॥
देही गावा जीउ धर्म हत उवसहि पंच किरसाना॥
नैनू नकटू òवन रसपति इंद्री कह्या न माना॥
बाबा अब न बसहु इहु गाउ।
घरी घरी का लेखा माँगै काइथु चेतू नाउ।
धर्मराय जब लेखा माँग बाकी निकसी भारी॥
पच कृसनवा भागि गये लै बाध्यौ जोउ दरबारी॥
कहहि कबीर सुनहु रे संतहु खेतहि करौ निबेरा॥
अबकी बार बखसि बंदे को बहुरि न भव जल फेरा॥119॥
धन्न गुपाल धन्न गुरुदेव। धन्न अनादि भूखे कब लुटह केव॥
धन ओहि संत जिन ऐसी जानी। तिनको मिलिबो सारंगपानी॥
आदि पुरुष ते होई अनादि। जपियै नाम अन्न कै सादि॥
जपियै नाम जपियै अन्न। अभै कै संग नीका बन्न॥
अन्ने बाहर जो नर होवहिं। तीनि भवन महि अपनो खोवहिं॥
छोड़हि अन्न करै पाखंड। ना सोहागनि ना बोहि रंग॥
जग महि बकते दूधाधारी। गुप्ती खावहि बटिका सारी॥
अन्नै बिना न होइ सुकाल। तजियै अन्न न मिलै गुपाल॥
कहु कबीर हम ऐसे जान्या। धन्न अनादि ठाकुर मन मान्या॥120
नगन फिरत जो पाइये जोग। बनका मिरग मुकति सब होग॥
क्या नागे क्या बांधे चाम। जब नहिं चीन्हसि आतम राम॥
मूँड़ मुडांए जो सि;ि पाई। मुक्ती भेड़ न गय्या काई॥
बिंदु राख जो तरयै भाई। खुसरै क्यों न परम गति पाई॥
कहु कबीर सुनहु नर भाई। राम नाम बिन किन गति पाई॥121॥
नर मरै नर काम न आवै। पशु मरैदस काज संवारे॥
अपने कर्म की गति मैं क्या जानी। मैं क्या जानौ बाबा रे॥
हाड़ जले जैसे लकड़ी का तूला। केस जले जैसे घास का पूला॥
कहत कबीर तबही नर जागै। जम का डंड मुँड़ महि लागै॥122॥
नाँगे आवत नाँगे जाना। कोई न रहिहै राजा राना॥
राम राजा नव निधि मेरे। संपै हेतु कलतु धन तेरै॥
आवत संग न जात संगाती। कहा भयो दर बाँधे हाथी॥
लंका गढ़ सोने का भया। मूरख रावन क्या ले गया॥
कह कबीर कुछ गुन बीचारि। चलै जुआरी दुइ हथ झारि॥123॥
नाइक एक बनजारे पांच। बरध पचीसक संग काच॥
नव बहियाँ दस गोनी आहि। कसन बहत्तरि लागी ताहि॥
मोहि ऐसे बनज स्यो ही काजु। जिह घटै मूल नित बढ़ै ब्याजु॥
सत सूत मिलि बनजु कीन। कर्म भावनी संग लीन॥
तीनि जगाती करत रारि। चलो बनजारा हाथ झारि॥
पूँजी हिरानी बनजु टूटि। दह दिस टाँडो गयो फूटि॥
कहि कबीर मन सरसी काज। सहज समानी त भर्म भाजि॥124॥
ना इहु मानुष ना इहु देव। ना इहु जती कहावै सेव॥
ना इहु जोगी ना अवधूता। ना इसु माइ न काहू पूता॥
या मंदर मह कौन बसाई। ता का अंत न कोऊ पाई॥
ना इहु गिरही ना ओदासी। ना इहु राज न भीख मँगासी॥
ना इहु पिंड न रकतू राती। ना इहु ब्रह्मन ना इहु खाती॥
ना इहु तया कहावै सेख। ना इहु जीवै न मरता देख॥
इसु मरते को जे कोऊ रोवै। जो रोवै सोई पति खोवै॥
गुरु प्रसादि मैं डगरो पाया। जीवन मरन दोऊ मिटवाया॥
कहु कबीर इहु राम की अंसु। उस कागद पर मिटै न मंसु॥125॥
ना मैं जोग ध्यान चित लाया। बिन बैराग न छूटसि माया॥
कैसे जीवन होइ हमारा। जब न होइ राम नाम अधारा॥
कहु कबीर खोजौं असमान। राम समान न देखौ आन॥126॥
निंदौ निंदौ मोकौ लोग निंदौ। निंदौ निंदौ मोकौ लोग निंदौ॥
निंदा जन को खरी पियारी। निंदा बाप निंदा महतारी॥
निंदा होय त बैकुंठ जाइयै। नाम पदारथ मनहि बसाइयै॥
रिदै सुद्ध जौ निंदा होइ। हमरे कमरे निंदक धोइ॥
निंदा करै सु हमरा मीत। निंदक माहिं हमारा चीत॥
निंदक सो जो निंदा होरै। हमरा जीवन निंदक लोरै॥
निंदा हमरी प्रेम प्रियार। निंदा हमरा करै उधार॥
जन कबीर कौ निंदा सार। निंदक डूबा हम उतरे पार॥127॥
नित उठि कारि गागरिया लै लीपत जनम गयो॥
ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रस लपट्यो॥
हमरे कुल कौने राम कह्यो॥
जब की माला लई निपूते तब ते सुख न भयो॥
सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरज एक भयो॥
सात सूत इन मुडिये खोये इहु मुडिया क्यों न भयो॥
सर्व सखा का एक हरि स्वामी सो गुरु नाम दयो॥
संत प्रह्लाद की पैज निज राखी हरनाखसु नख बिदरो॥
घर के देव पितर की छोड़ो गुरु को सबद लयो॥
कहत कबीर सकल पाप खंडन संतह ले उधरो॥128॥
निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहु चित न धरेई॥
जौ निर्धन सरधन कै जाई। आगै बैठा पीठ फिराई॥
जौ सरधन निर्धन कै जाई। दीया आदर लिया बुलाई॥
निर्धन सरधन दोनों भाई। प्रभु की कला न मेटी जाई।
कहि कबीर निर्धन है सोई। जाकै हिरदै नाम न होई॥129॥
पंडित जन माते पढ़ि पुरान। जोगि माते जोग ध्यान॥
संन्यासी माते अहमेव। तपसी माते तप के भेव॥
सब मदमाते कोऊ न जाग। संग ही चोर घर मुसन लाग॥
जागै सुकदेव अरु अक्रूर। हणवंत जाग धरि लंकूर॥
संकर जागे चरन सेव। कलि जागे नामा जैदेव॥
जागत सोवत बहु प्रकार। गुरु मुखि जागे सोई सार॥
इह देही के अधिक काम। कहि कबीर भजि राम नाम॥130॥
पंडिया कौन कुमति तुम लागे।
बूड़हु गे परवार सकल स्यो राम न जपहु अभागे॥
वेद पुरान पढे़ का किया गुन खर चंदन जस भारा॥
राम नाम की गति नहीं जानी कैसे उतरसि पारा॥
जीव बधहु सुधर्म करि थापहु अधर्म कहौ कत भाई॥
आपस को मुनि वर करि थापहु काकहु कहौ कसाई॥
मन के अंधे आपि न बूझहु का कहि बुझावहु भाई।
माया कारन विद्या बेचहु जनम अबिर्था जाई॥
नारद बचन बियास कहत है सुक कौ पूछहु जाई॥
कहि कबीर रामहि रमि छूटहु नाहिं त बूड़े भाई॥131॥
पंथ निहारै कामनी लोचनि भरि लेइ उसासा॥
उर न भीजै पग ना खिसै हरि दर्सन की आसा॥
उड़हु न कागा कारे बेग। मिलीजै अपने राम प्यारे॥
कहि कबीर जीवन पद कारन हरि की भक्ति करीजै॥
एक अधार नाम नारायण रसना राम रबीजै॥132॥
पंद्रह तिथि सात बार। कहि कबीर उर वार न पार॥
साधक सिद्ध लखै जौ भेउ। आपे करता आपे देउ॥
अम्मावस महि आय निवारौ। अंतर्यामी राम समारहु॥
जीवत पावहु मोख दुबारा। अनभौ सबद तत्व निज सारा॥
चरन कमल गोविंद रंग लागा।
संत प्रसाद भये मन निर्मल। हरि कीर्तन महिं अनदिन जागा॥
परवा प्रीतम करहु बीचार। घट महिं खेलै अघट अपार॥
काल कल्पना कदे न खाइ। आदि पुरुष महि रहै समाइ॥
दुतिया दुइ करि जानै अंग। माया ब्रह्म रमै सब संग॥
ना ओहु बढ़ै न घटता जाइ। अकुल निरंजन एकै भाइ॥
तृतीया तीने सम करि ल्यावै। आनंद मूल परम पद पावै॥
साध संगति उपजै बिस्वास। बाहर भीतर सदा प्रगास॥
चौथहि चंचल मन को गहहु। काम क्रोध संग कबहु न बहहू॥
टिप्पणी : एक दूसरे स्थान पर यह पद इस प्रकार आरंभ होता है, ‘बड़ी आकबत कुमति तुम लोग’ शेष सब ज्यों का त्यों है। मूल प्रति में जो 39 नंबर का पद है वह भी कुछ थोड़े से हेर फेर के साथ ऐसा ही है।
जल थल माहें आपही आप। आपै जपहु अपना जाप॥
पांचे पंच तत्त बिस्तार। कनक कामिनि जुग ब्योहार॥
प्रेम सुधा रस पीवै कोई। जरा मरण दुख फेरि न होई॥
छटि षट चक्र चहूँ दिसि धाइ। बिनु परचै नहीं थिरा रहाइ॥
दुबिधा मेटि खिमा गहि रहहु। कर्म धर्म की सूल न सहहु॥
सातै सति करि बाचा जाणि। आतम राम लेहु परवाणि॥
छूटै संसा मिटि जाहि दुक्ख। सुन्य सरोवरि पावहु सुक्ख॥
अष्टमी अष्ट धातु की काया। तामहिं अकुल महा निधि राया॥
गुरु गम ज्ञान बतावै भेद। उलटा रहै अभंग अछेद॥
नौमी नवै द्वार कौ साधि। बहती मनसा राखहु बाँधि॥
लोभ मोह सब बीसरी जाहु। जुग जुग जीवहु अमर फल खाहु॥
दसमी दस दिसि होइ अनंदा। छूटै भर्म मिलै गोबिंदा॥
ज्योति स्वरूप तत्त अनूप। अमल न मल न छाँह नहिं धूप॥
एकादसी एक दिसि धावै। तौ जोनी संकट बहुरि न आवै॥
सीतल निर्मल भया सरीरा। दूरि बतावत पाया नीरा॥
बारसि बारहौ गवै सूर। अहि निसि बाजै अनहद तूर॥
देख्या तिहूँ लोक का पीउ। अचरज भया जीव ते सीउ॥
तेरसि तेरह अगम बखाणि। अर्द्ध अर्द्ध बिच सम पहिचाणि॥
नीच ऊँच नह मान प्रमान। ब्यापक राम सकल सामान॥
चौदसि चौदह लोक मझारि। रोम रोम महि बसहिं मुरारि॥
सत संतोष का धरहु धियान। कथनी कथियै ब्रह्म गियान॥
पून्यो पूरा चंद्र अकास। पसरहिं कला सहज परगास॥
आदि अंत मध्य होइ रह्या बीर। सुखसागर महि रमहिं कबीर॥133॥
पहिला पूत पिछैरी माई। गुरु लागो चेले की पाई॥
अचंभौ सुनहु तुम भाई। देखत सिंह चरावत गाई॥
जल की मछुली तरवर ब्याई। देखत कुतरा लै गई बिलाई॥
तलेरे वैसा ऊपर सूला। तिसकै पेड़ लगै फल फूला॥
घोरै चरि भैस चरावन जाई। बाहर बैल गोनि घर आई॥
कहत कबीर जो इस पद बूझै। राम रमत तिसु सब किछु सूझै॥134॥
पहिली कुरूप कुजाति कुलक्खनी साहुरै पेइयै बुरी।
अब की सरूप सुजाति सुलक्खनी सहजे उदरधरी॥
भत्ती सरी मुई मेरी पहली बरी।
जुग जुग जीवो मेरी अबकी धरी॥
कहु कबीर जब लहुरी आई बड़ी का सुहाग टरो।
लहुरी संग भई अब मेरे जेठी और धरो॥135॥
पाती तैरे मालिनी पाती पाती जीउ।
जिसु पाहन कौ पाती तोरै सो पाहनु निरजीउ॥
भूली मालिनी है एउ सति गुरु जागता है दोउ।
ब्रह्म पाती बिस्नु डारी फूल संकर देव।
तीन देव प्रतख्य तोरहि करहिं किसकी सेव॥
पाषान गढ़ि के मूरति कीनी देकै छाती पाउ।
जे एइ मूरति साची है तो गड़णहारे खाउ॥
भातु पहिति और लापसी करकरा का सारु॥
भोगनु हारे भोगिया इसु मूरति के मुख छार॥
मालिन भूलि जग भुलाना हम भुलाने नाहि॥
कहु कबीर हम राम राखे कृपा करि हरि राइ॥136॥
पानी मैला माटी गोरी। इस माटी को पुतरी जोरी॥
मैं नाहीं कछु आहि न मोरा। तन धन सब रस गोबिंद तोरा॥
इस माटी महि पवन समाया। झूठा परपंच जोरि चलाया॥
किनहू लाख पाँच की जोरी। अंत की बाट गगरिया फोरी॥
कहि कबीर इक नीवौ सारी। खिन महि बिनसि जाइ अहंकारी॥137॥
पाप पुन्य दोइ बैल बिसाहे पवन पूँजी परगास्यो॥
तृष्णा गूणि भरी घट भीतर इन बिधि टाँड बिसाह्यो॥
ऐसा नायक राम हमारा सकल संसार कियो बंजारा॥
काम क्रोध दुइ भये जगाती मन तरंग बटवारा॥
पंच तत्तु मिलि दान निबेरहिं टाडा उतरो पारा॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु अब ऐसी बनि आई॥
घाटी चढ़त बैल इक थाका चलो गोनि छिटकाई॥138॥
पंड मुए जिउ किहि घर जाता। सबद अतीत अनाहद राता॥
जिन राम जान्या तिन्ही पछान्या। ज्यों गूँगे साकर मन मान्या॥
ऐसा ज्ञान कथै बनवारी। मन रे पवन दृढ़ सुषमन नाड़ी॥
सो गुरु करहु जि बहुरि न करना। सो पद रवहु जि बहुरि न रवना॥
सो ध्याना धरहु जि बहुरि न धरना। ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना॥
उलटी गंगा जमुन मिलावौ बिनु जल संगम मन महि नावौ॥
लोचा सम सरिहहु ब्योहारा। तत्तु बिचारि क्या अवर बिचारा॥
अप तेज वायु पृथवी अकासा। ऐसी रहनि रहौ हरि पासा॥
कहै कबीर निरंजन ध्यावौ। तित घर जाहु जि बहुरि न आवौ॥139॥
पेवक दै दिन चारि है साहुरडे जाणा।
अंधा लोक न जाणई मूरखु एयाणा॥
कहु डडिया बाँधे धन खड़ी। याहूँ घर आये मूकलाऊ आये॥
ओह जि दिसै खूहड़र कौ न लाजु बहारी।
लाज घड़ी स्यो टूटि पड़ी उठि चलि पनिहारी॥
साहिब होइ दयाला कृपा करे अपना कारज सवारें
ता सोहागणि जानिए गुरु सबद बिचारै॥
किरत कौ बाँधी सब फिरै देखहु बिचारी।
एसनो क्या आखियै क्या करे बिचारी॥
भई निरासी उठि चली चित बँधी न धीरा।
हरि का चरणी लागि रहु भजु सरण कबीरा॥140॥
प्रहलाद पठाये पठन साल। संगि सखा बहु लिए बाल॥
मोकौ कहा पढ़ावसि आल जाल। मेरी पटिया लिखि देहु श्रीगोपाल॥
नहीं छोड़ौ रे बाबा राम नाम। मेरो और पढ़न स्यो नहीं काम॥
संडै मरकै कह्यौ जाइ। प्रहलाद बुलाये बेगि धाइ॥
तू राम कहन की छोडु बानि। तुझ तुरत छड़ाऊँ मेरो कह्यो मानि॥
मोकौ कहा सतावहु बार बार। प्रभु भज थल गिर किये पहार॥
इक राम न छोड़ौ गुरुहि गारि। मोकौ घालि जारि भाखै मारि डांरि॥
काढ़ि खड्ग कोप्यो रिसाइ। तुझ राखनहारो मोहि बताइ॥
प्रभु थंभ ते निकसे कै बिस्तार। हरनाखस छेद्यो नख बिदार॥
ओइ परम पुरुष देवाधिदेव। भगत हेत नरसिंघ भेव॥
कहि कबीर का लखै न पार। प्रहलाद उबारे अनिक बार॥141॥
फील रबाबी बलुद पखावज कौआ ताल बजावै।
पहरि चोलना गदहा नाचै भैसा भगति करावै॥
राजा राम क करिया बरपे काये। किनै बूझन हारे खाय॥
बैठि सिंघ घर पान लगावहिं घीस गल्योरे लावै॥
घर घर मुसरी मंगल गावहि कछुआ संख बजावै॥
बंस को पूत बिआहन चलिया सुइने मंडप छाये॥
रूप कन्निया सुंदर बेधी ससै सिंह गुन गाये॥
कहत कबीर सुनहु रे पंडित कीटी परबत खाया॥
कछुआ कहै अंगार भिलोरौ लूकी सबद सुनाया॥142॥
फुरमान तेरा सिरै ऊपर फिरि न करत बिचार।
तुही दरिया तुही करिया तुझै ते निस्तार॥
बंदे बंदगी इकतीयार। साहिब रोष धरौ कि पियार॥
नाम तेरा अधार मेरा जिउ फूल जइहै नारि॥
कहि कबीर गुलाम घर का जीआइ भावै मारि॥143॥
बंधचि बंधनु पाइया। मुकतै गुरि अनल बुझाइया।
जब नख सिख इहु मनु चीना। तब अंतर मंजनु कीना॥
पवन पति उनमनि रहनु खरा। नहीं मिसु न जनमु जरा।
उलटौ ले सकति संहार। फैसीले गगन मझार॥
बेधिय ले चक्र भुअंगा। भेटिय ले राइन संगा॥
चूकिय ले मोह मइ आसा। ससि कीनो सूर गिरासा॥
जब कुंभ कुभरि पुरि जीना। तब बाजे अनहद बीना॥
बकतै बकि सबद सुनाया। सुनतै सुन माल बसाया॥
करि करता उतरसि पारं। कहै कबीरा सारं॥144॥
बटुआ एक बहत्तरि आधारी एको जिसहि दुबारा।
नवै खंड की प्रथमी माँगै सो जोगी जगसारा॥
ऐसो जोगी नव निधि पावै तल का ब्रह्म ले गगन चरावै॥
खिंथा ज्ञान ध्यान करि सूई सबद ताग मथि घालै॥
पंच तत्व की करि मिरगाणी गुरु कै मारग चालै॥
दया फाहुरी काया करि धूई दृष्टि की जलावै॥
तिसका भाव लए रिद अंतर चहु जुग ताड़ी लावै॥
सभ जोगत्तण राम नाम है जिसका पिंड पराना।
कहु कबीर जे किरपा धारै देइ सचा नीसाना॥145॥
बनहि बसे क्यों पाइये जौ लौ मनहु न तजै बिकार॥
जिह घर बन समसरि किया ते पूरे संसार॥
सार सुख पाइये रामा रंगि रवहु आतमै रामा॥
जटा भस्म लै लेपन किया कहा गुफा महि बास॥
मन जीते जग जीतिया ते बिषिया ते होइ उदास॥
अंजन देइ सब कोई टुक चाहन माहिं विडानु॥
ज्ञान अंजन जिह पाइया ते लोइन परवानु॥
कहि कबीर अब जानिया गुरु ज्ञान दिया समुझाइ॥
अंतर मति हरि भेटिया अब मेरा मन कतहु न जाइ॥146॥
बहुत प्रपंच करि परधन ल्यावै। सुत दारा पहि आनि लुटावै॥
मन मेरे भूले कपट न कीजै। अंत निबेरा तेरे जोय पहि लीजै॥
छिन छिन तन छीजै जरा जनावै। तब तेरी ओक कोई पानियो न पावै॥
कहत कबीर कोई नहीं तेरा। हिरदै राम किन जपहि सबेरा॥147॥
बाती सूखी तेल निखूटा। मंदल न बाजै नट सूता॥
बुझि गई अगनि न निकस्यो धूआ। रवि रह्या एक अवर नहीं दूजा॥
तूटी तंतु न बजै रबाव। भूलि बिगरो अपना काज॥
कथनी बदनी कहन कहावन। समझ परी तो बिसरौं गावन॥
कहत कबीर पंच जो चूरे। तिनते नाहिं परम पद दूरे॥148॥
बाप दिलासा मेरो कीना। सेज सुखाली मुखि अमृत दीना॥
तिसु बाप कौ मनहु बिसारी। आगे गया न बाजी हारी॥
मुई मेरी माई हौ खरा सुखाला। पहिरौ नहीं दगली लगै न पाला॥
बलि तिसु बापै जिन हौ जाया। पंचा ते तेरा मेरा संग चुकाया॥
पंच मारि पावा तलि दीने। हरि सिमरन मेरा मन तन भीने॥
पिता हमारो बहु गोसाई। तिसु पिता पहिं हौ क्यों करि जाई॥
सति गुरु मिले ता मारग दिखाया। जगत पिता मेरे मन भाया॥
हौ पूत तेरा तू बाप मेरा। एकै ठाहरि दुहा बसेरा॥
कह कबीर जनि एको बूझिया। गुरु प्रसाद मैं कछु सूझिया॥149॥
बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कियो।
तीस बरस कछु देव न पूजा फिर पछुताना बिरध भयो॥
मेरी मेरी करते जनम गयो। साइर सोखी भुंज बलयो॥
सूके सरबर पालि बँधावै लूणे खेत हथवारि करै॥
आयो चोर तुरत ही ले गयो मेरी राखत मुगध फिरै॥
चरन सीस कर कंपन लागे नैनों नीर असार बहै॥
जिहिवा बचन सुद्ध नहीं निकसै तब रे धरम की आस करै॥
हरि जी कृपा करि लिव लावै लाहा हरि हरि नाम लियो॥
गुरु परसादी हरि धन पायो अंते चल दिया नालि चल्यो॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु अन धन कछु ऐलै न गयो।
आई तलब गोपाल राइ की माया मंदर छोड़ चल्यौ॥150॥
बावन अक्षर लोक त्राय सब कछु इनहीं माहि।
जे अक्खर खिरि जाहिगे ओइ अक्खर इन महिं नाहिं॥
जहाँ बोल तह अक्खर आवा। जहँ अबोल तहं मन न रहावा॥
बोल अबोल मध्य है सोई। जस ओहु है तस लखै न कोई॥
अलह लहौ तौ क्या कहौ कहौ तो को उपकार।
बटक बीजि महि रबि रह्यौ जाको तीनि लोक बिस्तार॥
अलह लहता भेद छै कछु कछु पाया भेद।
उलटि भेद मन बेधियो पायो अभंग अछेद॥॥
तुरक तरीकत जानियै हिंदू बेद पुरान॥
मन समझावन कारनै कछु यक पढ़ियै ज्ञान॥
ओअंकार आदि मैं जाना। लिखि और मेटै ताहि न माना॥
ओअंकार लखै जो कोई। सोई लखि मेटणा न होई॥
कक्का किरणि कमल महि पावा। ससि बिगास संपट नहिं आवा॥
अरु जे तहा कुसुम रस पावा। अकह कहा कहि का समझावा॥
खक्खा इहै खोड़ि मन आवा। खोड़े छाड़ि न दह दिसि धावा॥
खसंमहिं जाणि खिसा करि रहै। तो होइ निरबओ अखै पद लहै॥
गग्गा गुरु के बचन पछाना। दूजी बात न धरई काना॥
रहै बिहंगम कतहि न जाई। अगह गहै गहि गगन रहाई॥
घघ्घा घट घट निमसै सोई। घट फूटे घट कबहिं न होई॥
ता घट माहिं घाट जौ पावा। सो घट छाँड़ि अक्घट कत धावा॥
डंडा निग्रह सनेह करि निरवारो संदेह।
नाही देखि न भाजिये परम सियानप एह॥
चच्चा रचित चित्र है भारी। तजि चित्रौ चेतहु चितकारी॥
चित्र बिचित्र इहै अवझेरा। तजि चित्रौ चितु राखि चितेरा॥
छछ्छा इहै छत्रापति पासा। छकि किन रहहु छाड़ि किन आसा॥
रे मन मैं तो छिन छिन समझावा। ताहि छोड़ि कत आप बधावा॥
जज्जा जौ तन जीवत जरावे। जीवन जारि जुगति सो पावै॥
अस जरि परजरि जरि जब रहै। तब जाइ ज्योति उजारी लहै॥
झझ्झा उरझि सुरझि नहिं जाना। रह्यौ झझकि नाही परवाना॥
कत झकि झकि औरन समझावा। झगर किये झगरौ ही पावा॥
ञंञा निकट जु घट रह्यो दूरि कहा तजि जाइ।
जा कारण जा ढूँढ़ियौ नेरौ पायो ताहि॥
टट्टा बिकट घाट घाट माही। खोलि कपाट महल किन जाही॥
देखि अटल टलि कतहि न जावा। रहै लपटि घट परचौ पावा॥
ठट्ठा इहै दूरि ठग नीरा। नीठि नीठि मन कीया धीरा॥
जिन ठग ठग्या सकल जग खावा। सो ठग ठग्या ठौर मन आवा॥
डड्डा डर उपजै डर जाई। ता डर महि डर रह्या समाई॥
जौ डर डरै तौ फिरि डर लागै। निडर हुआ डर उर होइ भागै॥
ढढ्ढा ढि ढूँढहिं कत आना। ढूँढ़त ही ढहि गये पराना॥
चढ़ि सुमेर ढूँढ़ि जब आवा। जिह गढ़ गढ्यो सुगढ़ महि पावा॥
णण्णा रणि रूतौ नर नेही करै। नानि बैना फुनि संचरै॥
धन्य जनम ताही को गणै। मारे एकहि तजि जाइ घणै॥
तत्ता अतर तरो नइ जाई। तन त्रिभुवन मैं रह्यो समाई॥
जौ त्रिभुवन तन माहि समावा। तौ ततहि तत मिल्या सचु पावा॥
थथ्था अथाह थाह नहीं पावा। ओहु अथाह इहु थिर न रहावा॥
थोड़े थल थानक आरंभै। बिनु ही थाहर मंदिर थंभै॥
दद्दा देखि जु बिनसन हारा। जस अदेखि तस राखि बिचारा॥
दसवै द्वार कुंजी जब दीजै। तौ दयाल कौ दर्सन कीजै॥
धद्धा अर्द्धहि अर्द्ध निबेरा। अद्धहि उर्द्धह मंझि बसेरा॥
अर्द्धह छाड़ि अर्द्ध जो आवा। तो अर्द्धहि उर्द्ध मिल्या सुख पावा॥
नन्ना निसि दिन निरखत जाई। निरख नयन रहे रतवाई॥
निरखत निरखत जब जाइ पावा। तब ले निरखहिं निरख मिलावा॥
पप्पा अपर पार नहीं पावा। परम ज्योति स्यो परचौ लावा॥
पाँचो इंद्री निग्रह करई। पाप पुण्य दोऊ निरबरई॥
फफ्फा बिनु फूलै फल होई। ता फल फंक लखै जो कोई॥
दूणि न परई फंक बिचारै। ता फल फंक सबै नर फारै॥
बब्बा बिंदहि बिंद मिलावा। बिंदहि बिंद न बिछुरन पावा॥
बंदौ होइ बंदगी गहै। बंधक होइ बंधु सुधि लहै॥
भभ्भा भेदहि भेद मिलावा। अब भौ भांति भरौसौ आवा॥
जो बाहर सो भीतर जान्या। भया भेद भूपति पहिचाना॥
मम्मा मूल रह्या मन मानै। मर्मी हो सो मन कौ जानै॥
मत कोइ मन मिलना बिलमावै। मगन भया तेसो सचु पावै॥
मम्मा मन स्यो काजु है मन साधै सिधि होइ॥
मनही मन स्यो कहै कबीरा मनसा मिल्या न कोइ॥
हुई मन सकती इहु मन सीउ। इहु मन मंच तत्व को जीउ।
इहु मन ले जौ उनमनि रहै। तौ तीनि लोक की बातै कहै॥
यय्या जौ जानहि तौ दुर्मति हनि बसि काया गाउ।
रणि रूतौ भाजै तहीं सूर उधारौ नाउ॥
रारा रस निरस्स करि जान्या। होइ निरस्स सुरस पहिचान्या।
इह रस छोड़े उह रस आवा। उह रस पीया इह रस नहीं भावा।
लल्ला ऐसे लिव मन लावै। अनत त जाइ परम सचु पावै॥
अरु जौ तहा प्रेम लिव लावै। तौ अलह लहै लहि चरन समावै।
ववा बार बार बिष्णु समारि। बिष्णु समारि न आवै हारि॥
बलि बलि जे बिष्णु तना जस गावै। बिष्णु मिलै सबही सचु पावै॥
वावा वाही जानियै वा जाने इहु होइ।
इहु अरु ओहु जब मिलै तब मिलत न जानै कोइ॥
शश्शा सो नीका करि सोधहु। घट परचा की बात निरोधहु॥
घट परचै जो उपजै भाउ। पूरि रह्या तह त्रिभुवन राउ॥
षष्षा खोजि परै जो कोई। जो खोजै सो बहुरि न होई॥
खोजि बूझि जो करै बिचारा। तौ भवजल तरत न लावै बारा॥
सस्सा सो सह सेज सवारै। सोई सही संदेह निवारै॥
अल्प सुख छाड़ि परम सुख पावा। तब इह त्रिय ओहु कंत कहावा॥
हाहा होत होइ नहीं जाना। जबही होइ तबहि मन माना॥
है तो सही लखौ जो कोई। तब ओही उह एहु एहु न होई॥
लिउँ लिउँ करत फिरै सब लोग। ता कारण ब्यापै बहु सोग॥
लक्ष्मीबर स्यो जौ लिव लागै। सोग मिटै सब ही सुख पावै॥
खख्खा खिरत खपत गये केते। खिरत खपत अजहूँ नहिं चेते॥
अब जग जानि जो मना रहै। जह का बिछुरा तहँ थिरु लहै॥
बावन अक्खर जोरे आन। सकया म अक्खरु एक पछानि॥
सत का सबद कबीरा कहै। पंडित होइ सो अनभै रहै॥
पंडित लोगह कौ ब्यवहार। दानवंत कौ तत्व बिचार॥
जाकै जीय जैसी बुधि होई। कहि कबीर जानैगा सोई॥151॥
बिंदु ते जिन पिंड किया अगनि कुछ रहाइया।
दस मास माता उदरि राख्या बहुरि लागी माइया॥
प्रानी काहै को लोभि लागै रतन जनम खोया।
पूरब जनम करम भूमि बीजु नाहीं बायो॥
बारिक ते बिरध भया होना सो हाया।
जा जम आइ झोट पकरै तबहि काहे रोया॥
जीवन की आसा करै जम निहारै सासा।
बाजीगरी संसार कबीरा चेति ढालि पासा॥152॥
बुत पूजि हिंदू मुये तुरक मूये सिर नाई।
ओइ ले जारे ओइ ले गाड़े तेरौ गति दुहूँ न पाई।
मन रे संसार अंध गहेरा। चहुँ दिसि पसरो है जम जेवरा॥
कबित पढ़े पढ़ि कविता मूये पकड़ के दारै जाई।
जटा धारि धारि जोगी मूये मेरी गति इनहि न पाई॥
द्रव्य संचि संचि राजे मूये गड़िले कंचन भारी।
बेद पढ़े पढ़े पंडित मूये रूप देखि देखि नारी॥
राम नाम बिन सबै बिगूते देखहु निरखि सरीरा।
हरि के नाम बिन किन गति पाई कहि उपदेस कबीरा॥153॥
भुजा बाँधि मिला करि डारौं। हस्ती कोपि मूँड महि मारो।
हस्ती भगि के चीसा मारै। या मूरति कै हौ बलिहारै॥
आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोर। काजी बकिबो हस्ती तोर।
हस्त न तोरै धरै ध्यान। वाकै रिदै बसै भगवान॥
क्या अपराध संत है कीना। बाँधि पाट कुंजर को दीना॥
कुंजर पोटलै लै नमस्कारै। बूझी नहीं काजी अंलियारै॥
तीन बार पतिया भरि लीना। मन कठोर अजहू न पतीना॥
कहि कबीर हमारा गोबिंद। चौथे पद महि जन की जिंद॥154॥
भूखे भगति न कीजै। यह माला अपनी लीजै।
हौं माँगो संतन रेना। मैं नाहीं किसी का देना॥
माधव कैसी बने तुम संगै। आपि न देउ तले बहु मंगे॥
दुइ सेर माँगौ चूना। पाव घीउ संग लूना।
अधसेर माँगौ दाले। मोको दोनों बखत जिवालै।
खाट माँगौ चौपाई। सिरहाना और तुलाई॥
ऊपर कौ माँगौ खींधा। तेरी भगति करै जनु बींधा॥
मैं नाहीं कीता लब्बो। इक नाउ तेरा मैं फब्बो॥
कहि कबीर मन मान्या। मन मान्या तो हरि जान्या॥155॥
मन करि मक्का किबला करि देही। बोलनहार परस गुरु एही।
कह रे मुल्ला बाँग निवाज। एक मसीति दसै दरवाज॥
मिसभिलि तामसु भर्म क दूरी। भाखि ले पंचे होइ सबूरी॥
हिंदू तुरक का साहिब एक। कह करै मुल्ला कह करै सेख॥
कहि कबीर हो भया दिवाना। मुसि मुसि मनुआ सहजि समाना॥156॥
मन का स्वभाव मनहिं बियापी। मनहि मार कवन सिधि थापी।
कवन सु मनि जो मन को मारै। मन को मारि कबहुँ किस तारै॥
मन अंतर बोलै सब कोई। मन मारै बिन भगत न होई।
कबु कबीर जो जानै भेउ। मन मधुसूदन त्रिभुवन देउ॥157॥
मन रे छाड़हु मर्म प्रगट होई नाचहु या माया के डाड़े।
सूर कि सनमुख रन ते डरपै सती की साँचे भाँड़े॥
डगमग छाँड़ि रे मन बौरा।
अब तो जरै मरै सिधि पाइये लीनो हाथ सिधोरा।
काम क्रोध माया के लीने या बिधि जगत बिगूचा॥
कहि कबीर राजा राम न छोड़ौ सगल ऊँच ते ऊँचा॥158॥
माता जूठी पिता भी जूठा जूठा फल लागे॥
आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे॥
कबु पंडित सूचा कवन ठाउ। जहाँ बैसि हौ भोजन खाउ।
जिहवा जूठी बोलन जूठा करन नेत्रा सब जूठे।
इंद्री की जूठी उतरसि नाहि ब्रह्म अगनि के जूठे॥
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइया।
जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइया॥
गोबर जूठा चौका जूठा जूठी दीनों कारा॥
कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा॥159॥
मरन जीवन की संका नासी। आपन रंगि सहज परगासी॥
प्रकटी ज्योति मिट्या अँधियारा। राम रतन पाया करता बिचारा॥
जहँ अनंद दुख दूर पयाना। मन मानुक लिव तत्तु लुकाना॥
जौ किछु होआ सू तेरा भाणा। जौ इन बूझे सु सहजि समाणा॥
कहत कबीर किलबिष गये खीणा। मन माया जग जीवन लीणा॥160॥
माई मोहि अवरु न जान्यो आनाँ।
सिव सनकादिक जासु गुन गावहि तासु बसहि मेरे प्रानाँ।
हिरदै प्रगास ज्ञान गुरु गम्मित गगन मंडल महि ध्यानाँ॥
बिषय रोग भव बंधन भागे मन निज घर सुख जानाँ॥
एक सुमति रति जानि मानि प्रभु दूसर मनहि न आना।
चंदन बास भये मन बास न त्यागि घट्यो अभिमानाँ॥
जो जन गाइ ध्याइ जस ठाकुर तासु प्रभु है थानाँ॥
तिह बड़ भाग बस्यो मन जाके कर्म प्रधान मथानाँ॥
काटि सकति सिव सहज प्रगास्यौ एकै एक समानाँ॥
कहि कबीर गुरु भेटि महासुख भ्रमत रहे मन मानाँ॥161॥
माथे तिलक हथि माला बाँना। लोगन राम खिलौना जानाँ॥
जौ हौं बौरा तौ राम तोरा। लोग मर्म कह कह जानै मोरा॥
तोरौ न पाती पूजौ न देवा। राम भगति बिन निहफल सेवा॥
सतिगुरु पूजौ सदा मनावौ। ऐसी सेव दरगह सुख पावौ॥
लोग कहै कबीर बौराना। कबीर का मर्म राम पहिचाना॥162॥
माधव जल की प्यास न जाइ। जल महि अगनि उठी अधिकाइ॥
तू जलनिधि हौ जल का मीन। जल महि रहौ जलै बिन खीन॥
तू पिंजर हौ सुअटा तोर। जम मंजार कहा करे मोर॥
तू तरवर हौ पंखी आहि। मंदभागी तेरो दर्शन नाहि॥163॥
मुंद्रा मोनि दया करि झोली पत्रा का करहु बिचारू रे॥
खिंथा इहु तन सीओ अपना नाम करो आधारू रे॥
ऐसा जोग कमावै जोगी जप तप संजम गुरु मुख भोगी॥
बुद्धि बिभूति चढ़ाओ अपनी सिंगी सुरति मिलाई॥
करि बैराग फिरौ तन नगर मन की किंगुरी बजाई॥
पंच तत्त्व लै हिरदै राखहु रहै निराल मताड़ी॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु धर्म दया करि बाढ़ी॥164॥
मुसि मुसि रोवै कबीर की माई। ऐ बारिक कैसे जीवहि रघुराई।
तनना बुनना सब तज्या है कबीर। हरि का नाम लिखि लियो सरीर॥
जब लग तागा बाहउ बेही। तब लग बिसरै राम सनेही॥
ओछी मति मेरी जाति जुलाहा। हरि का नाम लह्यो मैं लाहा॥
कहत कबीर सुनहु मेरी माई। हमरा इनका दाता एक रघुराई॥165॥
मेरी बहुरिया को धनिया नाउ। ले राख्यौ रामजनिया नाउ॥
इन मुंडिन मेरा घर धुधरावा। बिटवहि राम रमौआ लावा॥
कहत कबीर सुनहु मेरी माई। इन मुंडियन मेरी जाति गवाई॥166॥
मैला ब्रह्म मैला इंदु। रबि मैला है मैला चंदु।
मैला मलता इहु संसार। इक हरि निर्मल जाका अंत न पार॥
मैला ब्रह्मंडा इक्कै ईस। मैले निसि बासुर दिन तीस॥
मैला मोती मैला हीरु। मैला पवन पावक अरु नीरु॥
मैले सिव संकरा महेस। मैले सिध साधिक अरु भेष॥
मैले जोगी जंगम जटा समेति। मैली काया हंस समेति॥
कहि कबीर ते जन परवान। निर्मल ते जो रामहि जान॥167॥
मौलो धरती मौला आकास। घटि घटि मौलिया आतम प्रगास॥
राज राम मौलिया अनत भाइ। जब देखो तहँ रहा समाइ॥
दुतिया मौले चारि बेद। सिमृति मौली सिवउ कतेब॥
संकर मौल्यौ जोग ध्यान। कबीर को स्वामी सब समान॥168॥
जम ते उलटि भये हैं राम। दुख बिनसे सुख कियो बिश्राम।
बेरी उलटि भये हैं मीता। साकल उलटि सुजन भये चीता॥
अब मोंहि सर्ब कुसल करि मान्या। सांति भई जब गोबिंद जान्या॥
तन महि होती कोटि उपाधि। उलटि भई सुख सहजि समाधि॥
आप पछानै आपै आप। रोग न ब्यापै तीनों ताप॥
अब मन उलटि सनातन हूआ। तब जान्या जब जीयत मूआ॥
कहु कबीर सुख सहज समाओ। आपि न डरो न अवर डराओ॥169॥
जोगी कहहिं जोग भल मीठी अवर न दूजा भाई।
रुंडित मुंडित एकै सबदी एकहहि सिधि पाई।
हरि बिन भरमि भूलानै अंधा।
जा पहि जाउ आप छुटकावनि ते बाँधे बहु फंदा।
जह ते उपजी तही समानी इहि बिधि बिसरी तबही॥
पंडित गुणी सूर हम दाते एहि कहहिं बड़ हमही।
जिसहि बुझाए सोई बूझै बिनु बूझैं क्यों रहिये॥
तिस गुरु मिलै अंधेरा चूके इन बिधि प्राण कु लहियै।
तजिवा बेदा हने बिकारा हरि पद दृढ़ करि रहियै॥
कह कबीर गूँगैं गुण खाया पूछे ते क्या कहियै॥170॥
जोगी जती तपी सन्यासी बहु तीरथ भ्रमना।
लुंजि मुंजित मौनि जटा धरि अंत तऊ मरना॥
ताते सेविए ले रामना।
रसना राम नाम हितु जाकै कहा करे जमना।
आगम निगम जोतिक जानहि बहु वह ब्याकरना।
तंत्रा मंत्रा सब औषध जानहि अंत तऊ मरना।
राजा भोग अरु छत्रा सिंहासन बहु सुंदरि रमना॥
पान कपूर सुबासक चंदन अंत तऊ मरना॥
बेद पुरान सिमृति सब खोजे कहँू न ऊबरना।
कहु कबीर यों रामहिं जपौं मेटि जनम मरना॥171॥
जोनि छाड़ि जौ जग महि आयो। लागत पवन खसम बिसरायो।
जियरा हरि के गुन गाउ।
गर्भ जोनि महि ऊर्ध्व तपु करता। तौं जठर अग्नि महि रहता।
लख चौरासहिं जोनि भ्रमि आयो। अब के छुटके ठौर न ठायो॥
कहु कबीर भजु सारंगपानी। आवत दीसै जात न जानी॥172॥
रहु रहु री बहुरिया घूँघट जिनि काढ़ै। अंत की बान लहैगी न आढ़ै।
घूँघट काढ़ि गई तेरो आगै। उनकी गैल तोहिं जिनि लागै॥
घूँघट काढ़ि की इहै बड़ाई। दिन दस पांच बहु भले आई॥
घूँघट तेरी तौपरि सांचै। हरि गुन गाइ कूदहिं अरु नाचै॥
कहत कबीर बहू तब जीतै। हरि गुन गावत जनम ब्यतीतैं॥173॥
राखि लेहु हमते बिगरी।
सील धरम जप भगति न कीनी हौ अभिमन टेढ़ पगरी।
अमर जानि संची इह काया इह मिथ्या काची गगरी॥
जिनहि निवाजि साजि हम कीये तिनही बिसारि औ लगरी।
संधि कोहि साध नहीं कहियौ सरनि परे तुमरी पगरी।
कह कबीर इहि बिनती सुनियहु मत घालहु जम की खबरी॥174॥
राजन कौन तुमारे आवै।
ऐसा भाव बिनुर को देख्यो ओहु गरीब केहि भावै।
हस्ती देखि भर्म ते भूला री भगवान न जान्या॥
तुमरी दूध बिदुर को पानी अमृत करि मैं मान्या॥
खीर समान सागु मैं पाया गुन गावत रैनि बिहानी॥
कबीर को ठाकुर अनद बिनोदी जाति न काहूँ की मानी॥175॥
राजा राम तू ऐसा निर्भव तरन तारन राम राया।
जब हम होते तब तुम नाही अब तुम हहु हम नाही।
अब हम तुुुम एक भये इहि एकै देखति मन पतियाही।
जब बुधि होती तब बल कैसा अब बुद्धि बल न खटाई॥
कही कबीर बुधि हरि लई मेरी बुद्धि बदली सिधि पाई॥176॥
राजा राम òिमामति नहीं जानी तोरी। तेरे संतन की हौ चेरी।
हसतो जाइ सु रोवत आवै रोवत जाइ सु हँसै॥
बसतो होइ सो ऊजरु उजरु होइ सु बसै।
जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावें।
धरती ते आकास चढ़ावै चढ़े अकास गिरावै॥
भेख़ारी ते राज करावै राजा ते भेखारी।
खल मूरख ते पंडित करिबो पंडित ते मगधारी॥
नारी ते जे पुरुख करावै पुरखन ते जो नारी॥
कहुँ कबीर साधू का प्रीतम सुमूरति बलिहारी॥177॥
राम जपो जिय ऐसे ऐसे। धुव प्रह्लाद जंप्यो हरि जैसे।
दीनदयाल भरोसे तेरे। सब परवार चढ़ाया बेड़े॥
जाति सुभावै ताहु कम मनावै। इस बेड़े कौ पार लंथावै॥
गुरु प्रसादि ऐसी बुद्धि समानी। चूँकि गई फिरि आवन जानी।
कहु कबीर भजु सारिंगपानी। उरबार पार सब एको दानी।॥178॥
राम सिमरि राम सिमरि राम सिमिरि भाई।
राम नाम सिमिरन बिनु बूड़ते अधिकाई॥
बनिता सुत देह ग्रेह संपति सुखदाई।
इनमें कछु नाहिं तेरो काल अवधि आई॥
अजामल गज गनिका पतित कर्म कीने।
तेऊ उतरि पार परे राम नाम लीने।
सूकर कूकर जोनि भ्रमतेऊ लाज न आई।
राम नाम छाड़ि अमृत काहे बिष खाई॥
तजि भर्म कर्म बिधि निषेध राम नाम लेही।
गुरु प्रसाद जन कबीर राम करि सनेही॥179॥
री कलवारि गवारि मूढ़ मति उलटी पवन फिरावो।
मन मतवार मेर सर भाठी अमृत धार चुवावौ॥
बोलहु भैया राम की दुहाई।
पीवहु सत सदा मति दुर्लभ सहजे प्यास बुझाई।
भय बिच भाउ भाई कोउ बूझहिं हरि रस पावै भाई।
जेते घट अमृत सबही महि भावै तिसहि पियाई॥
नगरी एकै नव दरवाजै धारत बर्जि रहाई।
त्रिकुटी छूटै दस बादर खूलै ताम न खींवा भाई।
अभय पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी॥
उबट चलते इहु मद पाया जैसे खोद खुमारी॥180॥
रे जिय निलज्ज लाज तोहि नाहीं। हरि तजि कत काहू के जाही।
जाको ठाकुर ऊँचा होई। सो जन पर घर जात न सोही॥
सो साहिब रहिया भरपूरि। सदा संगि नाहीं हरि दूरि॥
कवला चरन सरन है जाके। कहू जन का नाहीं घर ताके।
सब कोउ कहै जासु की बाता। जी सम्भ्रथ निज पति है दाता॥
कहै कबीर पूरन जग सोई। जाकै हिरदै अवरु न होई॥181॥
रे मन तेरा कोइ नहीं खिचि लेइ जिन भार।
बिरख बसेरा पंखि कर तैसो इहु संसार॥
राम रस पीया रे जिह रस बिसरि गये रस और।
और मुये क्या रोइये जा आपा थिर न रहाइ॥
जा उपजै सो बिनसिहे दुख करि रोवै बलाइ।
जह की उपजी तह़ रची पीवतु मरद न लाग॥
कह कबीर चित चेतिया राम सिमिर बैराग॥182॥
रोजा धरै मनावै अल्लहु स्वादति जीय सँघारै।
आपा देखि अवर नहीं देखै काहे कौ झख मारै॥
काजी साहिब एक तोही महि तेरा सोच बिचार न देखै।
खबरि न करहिं दीन के बौरे ताते जनम अलेखै॥
साँच कतेब बखनै अल्लहु नारि पुरुष नहिं कोई।
पढ़ै गुनै नाहीं कछू बौरे जो दिल महि खबरि न होई॥
अल्लहु गैव सगल घट भीतर हिरदै लेहु बिचारी।
हिंदू तुरक दुइ महि एकै कहै कबीर पुकारी॥183॥
लंका सा कोट समुद्र सी खाई। तिह रावन घर खबरि न पाई।
क्या माँगै किछू थिरु न रहाई। देखत नयन चल्यो जग जाई॥
इक लख पूत सवा लख नाती। तिह रावन घर दिया न बाती॥
चंद सूर जाके तपत रसोई। बैसंतर जाके कपरे धोई॥
गुरुमति रामै नाम बसाई। अस्थिर रहै कतहू जाई॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई राम नाम बिन मुकुति न होई॥184॥
लख चौरासी जीअ जोनि महि भ्रमन नंदुबहु थाको रे।
लगति हेतु अवतार लियो है भाग बड़ी बपुरा को रे॥
तुम जो कहत हौ नंद को नंदन नंद सु नंदन काको रे॥
धरनि अकास दसों दिसि नाहींे तब इहु नंद कहायो रे॥
संकट नहीं परै जोनि नहिं आवै नाम निरंजन जाको रे।
कबीर को स्वामी ऐसो ठाकुर जाकै माई न बापो रे॥185॥
विद्या न पढ़ो वाद नहीं जानो। हरि गुन गथत सुनत बैरानो।
मेरे बाबा मैं बौरा, सब खलक सयानो, मैं बौरा॥
मैं बिगरो बिगरै मति औरा। आपन बौरा राम कियौ बौरा॥
सतिगुरु जारि गयो भ्रम मोरा॥
मैं बिगरे अपनी मति खोई। मेरे भर्मि भूलो मति कोई।
सो बौरा आपु न पछानै। आप पछानै त एकै जानै॥
अबहिं न माता सु कबहुँन भाता। कहि कबीर रामै रंगि राता॥186॥
बिनु तत सती होई कैसे नारि। पंडित देखहु रिदे बिचारि॥
प्रीति बिना कैसे बँधे सनेहू। जब लग रस तब लग नहिं नेहू॥
साह निसत्तु करै जिय अपनै। सो रमय्यै कौ मिलै न स्वपने॥
तन मन धन गृह सौपि सरीरू। सोई सोहागनि कहै कबीरू॥187॥
बिमल अस्त्रा केते है पहिरे क्या बन मध्ये बासा॥
कहा भया नर देवा धोखे क्या जल बौरो गाता॥
जीय रे जाहिगा मैं जाना अविगत समझ इयाना।
जत जत देखौ बहुरि न पेखौ संग माया लपटना॥
ज्ञानी ध्वानी बहु उपदेसी इहु जन सगली धंधा।
कहि कबीर इक राम नाम बिनु या जग माया अंधा॥188॥
बिषया ब्यापा सकल संसारू। बिषया लै डूबा परवारू।
रे नर नाव चौंडि कत बोड़ी। हरि स्यो तोड़ि बिषया संगि जोड़ी॥
सुर नर दाधे लागी आगि। निकट नीर पसु पीवसि न झागि॥
चेतत चेतत निकस्यो नीर। सो जल निर्मल कथन कबीर॥189॥
बद कतेब इकतरा भाई दिल का फिकर न जाई।
टुक दम करारी जौ करहु हाजिर हजूर खुदाई।
बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरि परेसाना माहि।
इह जु दुनिया सहरु मेला दस्तगीरी नाहि॥
दरोग पढ़ि पढ़ि सुखी होह बेखबर बाद बकाहिं।
हक सच्च खालक खलक म्याने स्याममूरति नाहि॥
असमान म्याने लहंग दरिया गुसल करद त बूंद।
करि फिकरु दाइम लाइ चसमें जहँ तहाँ मौजूद॥
अल्लाह पाक पाक हैं सक करो जे दूसर होइ।
कबीर कर्म करीम का उहु करे जानै सोइ॥190॥
बेद कतेब कहहु मत झूठेइ झूठा जो न बिचारै।
जो सब मैं एकु खुदा कहत हौ तौ क्यों मुरगी मारै॥
मुल्ला कहहु नियाउ खुदाई तेरे मन का भरम न जाई।
पकरि जीउ आन्या देह बिनती माटी कौ बिसमिल किया॥
जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलाला क्यों कीया॥
क्या उज्जू पाक किया मुह धोया क्या मसीति सिर लाया।
जौ दिले मैंहि कपट निवाजे छूजारहु क्या हज काबै जाया॥
तू नापाक पाक नहीं सूक्ष्या तिसका मरम न जान्या॥191॥
बेद की पुत्री सिंमृति भाई। सांकल जबरी लैहै आई।
आपन नगर आप ते बाँध्या। मोह कै फाधि काल सरु साध्या॥
कटी न कटै तूटि नह जाई। सो सापनि होइ जग को खाई॥
हम देखत जिन्ह सब जग लूट्या। कहु कबीर मैं राम कहि छूट्या॥192॥
बेद पुरान सबै मत सुनि के करी करम की आसा।
काल ग्रस्त सब लोग सियाने उठि पंडित पै चले निरासा॥
मन रे सरो न एकै काजा। भाज्यो न रघुपति राजा।
बन खंड जाइ जोग तप कीनो कंद मूल चुनि खाया।
नादी बेदी गबदी मौनी जम के परै लिखाया॥
भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तन दीना।
राम रागनी डिंभ होइ बैठा उन हरि पहि क्या लीना॥
अरयो काल सबै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम ज्ञानी।
कहु कबीर जन भये खलासे प्रेम भगति जिह जानी॥193॥
षट नेम कर कोठड़ी बाँधी बस्तु अनूप बीच पाई॥
कुंजी कुलफ प्रान करि राखे करते बार न लाई॥
अब मन जागत रहु रे भाई।
गाफिल होय कै जनम गवायो चोर मुसै घर जाई।
पंच पहरुआ दर महि रहते तिनका नहीं पतियारा।
चेति सुचेत चित्त होइ रहूँ तौ लै परगासु उबारा॥
नव घर देखि जु कामिनि भूली बस्तु अनूप न पाई।
कहत कबीर नवै घर मूसे दसवें तत्व समाई॥194॥
संत मिलै कछु सुनिये कहिये। मिलै असंत मष्ट करि रहियै।
बाबा बोलना कया कहियै। जैसे राम नाम रमि रहियै॥
संतन स्यों बोले उपकारी। मूरख स्यों बोले झक मारी॥
बोलत बोलत बढ़हिं बिकारा। बिनु बोले क्या करहिं बिचारा॥
कह कबीर छूछा घट बोलै। भरिया होइ सु कबहु न डोलै॥195॥
संतहु मन पवनै सुख बनिया। किछु जोग परापति गनिया।
गुरु दिखलाई मोरी। जितु मिरग पड़त है चोरी॥
मूँदि लिये दरवाजै। बाजिले अनहद बाजे॥
कुंभ कमल जल भरिया। जलौ मेट्यो ऊमा करिया॥
कहु कबीर जन जान्या। जौ जान्या तौ मन मान्या॥196॥
संता मानौ दूता डानौ इह कुटवारी मेरी॥
दिवस रैन तेरे पाउ पलोसो केस चवर करि फेरी॥
हम कूकर तेरे दरबारि। भौकाई आगे बदन पसारि॥
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तौ मिट्या न जाई॥
तेरे द्वारे धनि सहज की मथै मेरे दगाई॥
दागे होहि सुरन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई॥
साधू होई सुभ गति पछानै हरि लये खजानै पाई॥
कोठरे महि कोठरी परम कोठरी बिचारि॥
गुरु दीनी बस्तु कबीर कौ लेवहु वस्तु सम्हारि॥
कबीर दोई संसार कौ लीनी जिसु मस्तक भाग॥
अमृत रस जिनु पाइया थिरता का सोहाग॥197॥
संध्या प्रात स्नान कराही। स्यों भये दादुर पानी माहीं।
जो पै राम नाम रति नाहीं। ते सवि धर्मराय कै जाहीं॥
काया रति बहु रूप रचाहीं। तिनकै दया सुपनै भी नाहीं॥
चार चरण कहहि बहु आगर। साधु सुख पावहि कलि सागर॥
कहु कबीर बहु काय करीजै। सरबस छोड़ि महा रस पीजै॥198॥
सत्तरि सै इसलारू है जाके। सवा लाख है कावर ताके॥
सेख जु कही यही कोटि अठासी। छप्पन कोटि जाके खेल खासी॥
सो गरीब की को गुजरावै। मजलसि दूरि महल को पावै॥
तेतसि करोडि है खेल खाना। चौरासी लख फिरै दिवाना॥
बाबा आदम कौ कछु न हरि दिखाई। उनभी भिस्त घनेरी पाई॥
दिल खल हलु जाकै जर दरुबानी। छोड़ि कतेब करै सैतानी॥
दुनिया दोस रोस है लोई। अपना कीया पावे सोई॥
तुम दाते हम सदा भिखारी। देउ जवाब होइ बजगारी॥
दास कबीर तेरी पनह समाना। भिस्त नजीक राखु रहमाना॥199॥
सनक आनंद अंत नहीं पाया। बेद पढ़ै ब्रह्मै जनम गवाया।
हरि का विलोबना विलोबहु मेरे भाई। सहज विलोबहु जैसे तत्व जाई॥
तन करि मटकी मन माहि बिलोई। इसु मटकी महि सबद संजोई॥
हरि का बिलोना तन का बीचारा। गुरु प्रसाद पावै अमृत धारा॥
कहु कबीर न दर करे जे मीरा। राम नाम लगि उतरे तीरा॥200॥
सनक सनंद महेस समाना। सेष नाग तेरी मर्म न जाना॥
संत संगति राम रिदै बसाई।
हनुमान सरि गरुड़ समाना। सुरपति नरपति नहिं गुन जाना॥
चारि बेद अरु सिमृति पुराना। कमलापति कमल नहिं जाना॥
कह कबीर सो धरमैं नाहीं। पग लगि राम रहै सरनाहीं॥201॥
सब कोई चलन कहत है ऊँहा। ना जानी बैकुठ है कहाँ॥
आप आपका मरम न जाना। बातन ही बैकुंठ बखानाँ॥
जब लग मन बैकुंठ की आस। तब लग नाही चरन निवास॥
खाई कोटि न परल पगारा। ना जानौ बैकुंठ दुआरा॥
कहि कबीर अब कहिये काहि। साधु संगति बैकुंठे आहि॥202॥
सर्पनि ते ऊपर नहीं बलिया। जिन ब्रह्मा बिष्णु महादेव छलिया।
मारु मारु सर्पनी निर्मल जल पैठी। जिन त्रिभुवन डसिले गुरु प्रसाद डीठी॥
सर्पनी सर्पनी क्या कहहु भाई। जिन साचु पछान्या तिन सर्पनी खाई॥
सर्पनी ते आन छूछ नहीं अवरा। सर्पनी जीति कहा करै जमरा॥
इहि सर्पनी ताकी कीती होई। बल अबल क्या इसते होई॥
एह बसती ता बसत सरीरा। गुरु प्रसादि सहजि तरे कबीरा॥203॥
सरीर सरोवर भीतरै आछै कमल अनूप।
परस ज्योति पुरुषोत्तमो जाकै रेख न रूप।
रे मन हरि भजु भ्रम तजहु जग जीवन राम॥
आवत कछू न दीसई न दीसै जात॥
जहाँ उपजै बिनसै तहि जैसे पुरवनि पात।
मिथ्या करि माया तजा सुख सहज बीचारि॥
कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि॥204॥
सासु की दुखी ससुर की प्यारी जेठ के नाम डरौं रे।
सखी सहेली ननद गहेली देवर कै बिरहि जरौं रे॥
मेरी मति बौरी मैं राम बिसारो किन विधि रइनि रहौं रे॥
सेजै रमत नयन नहीं पेखौं इहु दुख कासौं कहौं रे॥
बाप सबका करै लराई मया सद मतवारी॥
बड़े भाई के जग संग होती तब ही नाह पियारी॥
कहत कबीर पंच को झगरा झगरत जनम गवाया॥
झूठी माया सब जग बाँध्या पै राम रमत सुख पाया॥205॥
सिव की पुरी बस बुधि सारु। यह तुम मिलि कै करहु बिचार॥
ईत ऊत की सोझौ परै। कौन कर्म मेरा करि करि मरै॥
निज पद ऊपर लागौ ध्यान। राजा राम नाम मेरा ब्रह्म ज्ञान॥
मूल दुआरै बंध्या बंधु। रवि ऊपर गहि राख्या चंदु॥
पंचम द्वारे की सिल ओड़। तिह सिल ऊपर खिड़की और॥
खिड़की ऊपर दसवा द्वार। कहि कबीर ताका अंतु न पार॥206॥
सुख माँगत दुख आगै आवै। सो सुख हमहुँ न माँग्या भावै॥
बिषगा अजहु सुरति सुख आसा। कैसे होइ है राजाराम निवासा॥
इसु सुख ते सिव ब्रह्म हराना। सो सुख हमहुँ साँच करि जाना॥
सनकादिक नारद मुनि सेखा। तिन भी तन महि मन नहीं पेखा॥
इस मन कौ कोई खोजहु भाई। तन छूटै मन कहा समाई॥
गुरु परसादी जयदेव नामा। भगति कै प्रेम इनहीं है जाना॥
इस मन कौ नहीं आवन जाना। जिसका भम गया तिन साचु पछाना॥
इस मन कौ रूप न रेख्या काई। हुकुमे होया हुकुम बूझि समाई॥
इस कन का कोई जानै भेउ। इहि मन लीण भये सुखदेउ॥
जींउ एक और सगल सरीरा। इस मन कौ रबि रहै कबीरा॥207॥
सुत अवराध करल है जेते। जननी चीति न राखसि तेते॥
रामज्या हौं बारिक तेरा। काहे न खंडसि अवगुन मेरा॥
जे अति कोप करे करि धाया। ताभी चीत न राखसि माया॥
चित्त भवन मन परो हमारा। नाम बिना कैसे उतरसि पारा॥
देहि बिमल मति सदा सरीरा। सहजि सहजि गुन रवै कबीरा॥208॥
सुन्न संध्या तेरी देव देवा करि अधपति आदि समाई।
सिद्ध समादि अंत नहीं पाया लागि रहे सरनाई॥
लेहु आरति हो पुरुष निरंजन सति गुरु पूजहु जाई॥
ठाढ़ा ब्रह्मा निगम बिचारै अलख न लखिया जाई॥
तत्तु तेल नाम कीया बाती दीपक देह उज्यारा॥
जोति लाई जगदीस जगाया बूझे बूझनहारा॥
पंचे सबद अनाहत बाजै संगे सारिंगपानी।
कबीरदास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी॥209॥
सुरति सिमृति दुई कन्नी मंदा परमिति बाहर खिंथा॥
सुन्न गुफा महि आसण बैसण कल्प विवर्जित पंथा॥
मेरे राजन मैं बैरागी जोगी मरत न साग बिजोरी॥
खंड ब्रह्मांड महि सिंडी मेरा बटुवा सब जग भसमाधारी।
ताड़ी लागी त्रिपल पलटिये छूटै होइ पसारी॥
मन पवन्न दुई तूंबा करिहै जुग जुग सारद साजी॥
थिरु भई नंती टूटसि नाहीं अनहद किंगुरी बाजी॥
सुनि मन मगन भये है पूरे माया डोलत लागी॥
कहु कबीर ताकौ पुनरपि जनम नहीं खेलि गयो बैरागी॥210॥
सुरह की सैसा तेरी चाल। तेरा पूछट ऊपर झमक बाल॥
इस घर मह है सु तू ढुढ़ि खाहि। और किसही के तू मति ही जाहि॥
चाकी चाटै चून चाहि। चाकी का चीथरा कहा लै जाहि॥
छीके पर तेरी बहुत डीठ। मत लकरी सोंटा परै तेरी पीठ॥
कहि कबीर भोग भले कीन। मति कोऊ मारै ईट ठेम॥211॥
सो मुल्ला जो मन स्यो लरै। गुरु उपदेश काल स्यो जुरै॥
काल पुरुष का मरदै मान। तिस मुल्ला को सदा सलाम॥
है हुजूर कत दूरि बतावहु। दुंदर बाधहु मुंदर पावहु॥
काजी सो जो काया बिचारै। काया की अग्नि ब्रह्म पै जारै॥
सुपनै बिंदु न देई जरना। तिस काजी कौ जरा न मरना॥
सो सुरतान जो दुइ सुर तानै। बाहर जाता भीतर आनै॥
गगन मंडल महि लस्कर करै। सो सुरतान छत्रा सिर धरै॥
जोगी गोरख गोरख करै। हिंदू राम नाम उच्चरै॥
मुसलमान का एक खुदाई। कबीर का स्वामी रह्या समाई॥212॥
स्वर्ग वास न बाछियै डारियै न नरक निवासु।
होना है सो होइहै मनहि न कीजै आसु॥
रमय्या गुन गाइयै जाते पाइयै परम निधानु॥
क्या जप क्या तप संयमी क्या ब्रत क्या इस्नान॥
जब लग जुक्ति न जानिये भाव भक्ति भगवान॥
संपै देखि न हर्षियौ बिपति देखि न रोइ।
ज्यो संपै त्यों बिपत है बिधि ने रच्या सो होइ॥
कहि कबीर अब जानिया संतन रिदै मझारि॥
सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि॥213॥
हज्ज हमारी गोमती तीर। जहाँ बसहि पीतंबर पीर॥
वाहु वाहु क्या खुद गावता है। हरि का नाम मेरे मन भावता है।
नारद सारद करहि खवासी। पास बैठि बिधि कवला दासी॥
कंठे माला जिह्वा नाम। सुहस नाम लै लै करो सलाम॥
कहत कबीर राम नाम गुन गावौ। हिंदु तुरक दोऊ समझावौ॥214॥
हम घर सूत तनहि नित ताना कंठ जनेऊ तुमारे॥
तुम तो बेद पढ़हु गायत्री गोबिंद रिदै हमारे॥
मेरी जिह्ना विष्णु नयन नारायण हिरदै बसहि गोबिंदा॥
जम दुआर जब पूँछसि बबरे तब क्या कहसि मुकुंदा॥
हम गोरू तुम ग्वार गुसाइ जनम जनम रखवारे॥
कबहूँ न पार उतार चराइह कैसे खसम हमारे॥
तू बाम्हन मैं कासी का जुलाहा बूझहु मोर गियाना॥
तुम तौ पाचे भूपति राजे हरि सो मोर धियाना॥215॥
हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राचसु मन भावै।
अल्लह अबलि दीन को साहिब जोर नहीं फुरमावै॥
काजी बोल्या बनि नहीं आवै।
रोजा धरै निवाजु गुजारै कलमा भिस्त न होई।
सत्तरि काबा घर ही भीतर जे करि जानै कोई॥
निवाजु सोई जो न्याइ बिचारै कलमा अकलहि जानै॥
पाँचहु मुसि मुसला बिछावै तब तौ दीन पछानै॥
खसम पछानि तरस करि जीय महि मारि मणी करि फीकी॥
आप जनाइ और को जानै तब होई भिस्त सरीकी॥
माटी एक भेष धरि नाना तामहि ब्रह्म पछाना।
कहै कबीर भिस्त छोड़ि करि दोजक स्यों मनमाना॥216॥
हरि बिन कौन सहाई मन का।
माता पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सब फन का॥
आगै कौ किछु तुलहा बाँधहु क्या भरोसा धन का॥
कहा बिसासा इस भाँडे का इत नकु लगै ठनका॥
सगल धर्म पुन्न फल पावहु धूरि बाँछहु सब जन का॥
कहै कबीर सुनहु रे संतहु इहु मन उड़न पखेरू बन का॥217॥
हरि जन सुनहि न हरि गुन गावहिं। बातन ही असमान गिरावहिं॥
ऐसे लोगन स्यों क्या कहिये।
जो प्रभु कीये भगति ते बाहज। तिनते सदा डराने रहिय॥
आपन देहि चुरू भरि पानी। तिहि निंदहि जिह गंगा आनी॥
बैठत उठत कुटिलता चालहिं। आप गये औरनहू घालहिं॥
छाड़ि कुचर्चा आन न जानहिं। ब्रह्माहू का कह्यो न मानहिं॥
आप गये औरनहू खोवहि। आगि लगाइ मंदिर में सोवहिं॥
औरन हँसत आप हहिं काने। तिनको देखि कबीर लजाने॥218॥
हिंदू तुरक कहाँ ते आये किन एह राह चलाई।
दिल महि सोच बिचार कवादे भिस्त दोजक कित पाई॥
काजी तै कौन कतेब बखानी॥
पढ़त गुनत ऐसे सब मारे किनहू खबरू न जानी॥
सकति सनेह करि सुन्नति करियै मैं न बदौगा भाई॥
जौ रे खुदाई मोहि तुरक करैगा आपन ही कटि जाई॥
सुन्नत किये तुरक जे होइगा औरत का क्या करियै॥
अर्द्ध सरीरी नारि न छोड़े तातें हिंदू ही रहिये॥
छाड़ि कतेब राम भजु बौरे जुलम करत है भारी॥
कबीर पकरी टेक राम की तुरक रहे पचि हारी॥219॥
हीरै हीरा बेधि पवन मन सहजे रह्या समाई।
सकल जोति इन हीरै बेधी सतिगुरु बचनी मैं पाई॥
हरि की कथा अनाहद बानी हंस ह्नै हीरा लेइ पछानी॥
कह कबीर हीरा अस देख्यो जग महि रह्या समाई॥
गुपता हीरा प्रकट भयो जब गुरु गम दिया दिखाई॥220॥
हृदय कपट मुख ज्ञानी। झूठे कहा बिलोवसि पानी॥
काया मांजसि कौन गुना। जो घट भीतर है मलनाँ॥
लौकी अठ सठि तीरथ न्हाई। कौरापन तऊ न जाई॥
कहि कबीर बीचारी। भव सागर तारि मुरारी॥221॥
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