सत रज तम थें कीन्हीं माया, चारि खानि बिस्तार उपाया॥
पंच तत ले कीन्ह बंधानं, पाप पुंनि मांन अभिमानं॥
अहंकार कीन्हें माया मोहू, संपति बिपति दीन्हीं सब काहू॥
भले रे पोच अकुल कुलवंता, गुणी निरगुणी धन नीधनवंता॥
भूख पियास अनहित हित कीन्हो, हेत मोर तोर करि लीन्हा॥
पंच स्वाद ले कीन्हां बंधू, बँधे करम जा आहि अबंधू॥
अचर जीव जंत जे आही, संकट सोच बियापैं ताही॥
निंद्या अस्तुति मांन अभिमांना, इनि झूठै जीव हत्या गियांनां॥
बहु बिधि करि संसार भुलावा, झूठै दोजगि साच लुकावा॥
माया मोह धन जोबना, इनि बँधे सब लोइ॥
झूठै झूठ बियापियां, कबीर अलख न लखई कोइ॥
झूठनि झूठ साँच करि जानां, झूठनि मैं सब साँच लुकानां॥
धंध बंध कीन्ह बहुतेरा, क्रम बिवर्जित रहै न नेरा॥
षट दरसन षट आश्रम कीन्हा, षट रस खाटि काम रस लीन्हां॥
चारि बेद छह सास्त्रा बखानैं, विद्या अनंत कथैं को जांनै॥
तप तीरथ ब्रत कीन्हें पूजा, धरम नेम दान पुन्य दूजा॥
और अगम कन्हें ब्यौहारा, नहीं गमि सूझै वार न पारा॥
लीला करि करि भेख फिरावा, ओट बहुत कछू कहत न आवा॥
गहन ब्यंद नहीं कछू नहीं सूझै, आपन गोप भयौ आगम बूझै॥
भूलि परो जीव अधिक डराई, रजनी अंध कूप ह्नै धाई॥
माया मोह उनवै भरपूरी, दादुर दामिनि पवनां पूरी॥
तरिपै बरिषै अखंड धारा, रैनि भाँमिनी भया अँधियारा॥
तिहि बियोग तजि भये अनाथा, परे निकुंज न पावै पंथा॥
वेद न आहि कहूँ को मानै, जानि बूझि मैं मया अयानै॥
नट बहु रूप खेलै सब जांनै, कला केर गुन ठाकुर मांने॥
ओ खेले सब ही घट मांही, दूसर के लेखै कछु नाहीं॥
जाकें गुन सोई पै जांनै, और को जानै पार अयानै॥
भले रे पोच औसर जब आवा, करि सनामांन पूरि जम पावा॥
दान पुन्य हम दिहूँ निरासा, कब लग रहूँ नटारंभ काछा॥
फिरत फिरत सब चरन तुरांनै, हरि चरित अगम कथै को जानै॥
गण गंध्रप मुनि अंत न पावा, रह्यो अलख जग धंधै लावा॥
इहि बांजी सिव बिरंचि भुलांनां, और बपुरा को क्यंचित जांनां॥
त्राहि त्राहि हम कीन्ह पुकारा, राखि राखि साई इहि बारा॥
कोटि ब्रह्मंड गडि दीन्ह फिराई, फल कर कीट जनम बहुताई॥
ईश्वर जोग खरा जब लीन्हा, टरो ध्यान तप खंड न कीन्हां॥
सिध साधिका उनथै कहु कोई, मन चित अस्थिर कहुँ कैसै होई॥
लीला अगम कथै को पारा, बसहु समीप कि रहौ निनारा॥
खग खोज पीछै नहीं, तूँ तत अपरंपार॥
बिन परसै का जांनिये, सब झूठे अहंकार॥
अलख निरंजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई॥
सुनि असथूल रूप नहीं रेखा, द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यौ नहीं पेखा॥
बरन अबरन कथ्यौ नहीं जाई, सकल अतीत घट रह्यौ समाई॥
आदि अंत ताहि नहीं मधे, कथ्यौ न जाई आहि अकथे॥
अपरंपार उपजै नहीं बिनसै, जुगति न जांनिये कथिये कैसे॥
जस कथिये तत होत नहीं, जस है तैसा सोइ॥
कहत सुनत सुख उपजै, अरु परमारथ होइ॥
जांनसि नहीं कस कथसि अयांनां, हम निरगुन तुम्ह सरगुन जानां॥
मति करि हीन कवन गुन आंहीं, लालचि लागि आसिरै रहाई॥
गुंन अरु ग्यान दोऊ हम हीनां, जैसी कुछ बुधि बिचार तस कीन्हां॥
हम मसकीन कछु जुगति न आवै, ते तुम्ह दरवौ तौ पूरि जन पावै॥
तुम्हरे चरन कवल मन राता, गुन निरगुन के तुम्ह निज दाता॥
जहुवां प्रगटि बजावहु जैसा, जस अनभै कथिया तिनि तैसा॥
बाजै जंत्रा नाद धुनि होई, जे बजावै सो औरै कोई॥
बांजी नाचै कौतिग देखा, जो नचावै सो किनहूँ न पेखा॥
आप आप थैं जानिये, है पर नाहीं सोइ॥
कबीर सुपिनै केर धंन ज्यूँ, जागत हाथि न होइ॥
जिनि यहु सुपिनां फुर करि जांनां, और सब दुखियादि न आंनां॥
ग्यांन हीन चेत नहीं सूता, मैं जाया बिष हार भै भूता॥
पारधी बांन रहै सर साँधे, बिषम बांन मारै बिष बाधै॥
काल अहेड़ी संझ सकारा, सावज ससा सकल संसारा॥
दावानल अति जरै बिकारा, माया मोह रोकि ले जारा॥
पवन सहाइ लोभ अति भइया, जम चरचा चहुँ दिसि फिरि गइया॥
जम के चर चहुँ दिसि फिरि लागे, हंस पखेरुवा अब कहाँ जाइवे॥
केस गहै कर निस दिन रहई, जब धरि ऐंचे तब धरि चहई॥
कठिन पासु कछू चलै न उपाई, जंम दुवारि सीझे सब जाई॥
सोई त्रास सुनि राम न गावै, मृगत्रिष्णां झूठी दिन धावै॥
मृत काल कीनहूँ नहीं देखा, दुख कौ सुख करि सबहीं लेखा।
सुख करि मूल न चीन्हसि अभागी, चीन्है बिना रहै दुख लागी॥
नीब काट रस नीब पियारा, यूँ विष कूँ अमृत कहै संसारा॥
अछित रोज दिन दिनहि सिराई, अमृत परहरि करि बिष खाई॥
जांनि अजांनि जिन्हैं बिष खावा, परे लहरि पुकारै धावा॥
बिष के खांये का गुन होई, जा बेद न जानै परि सोई॥
मुरछि मुरछि जीव जरिहै आसा, कांजी अलप बहुखीर बिनासा॥
तिल सुख कारनि दुख अस मेरू, चौरासी लख लीया फैरू॥
अलप सुख दुख आहि अनंता, मन मैंगल भूल्यौ मैमंता॥
दीपक जोति रहै इक संगा, नैन नेह मांनूं परै पतंगा॥
सुख विश्राम किनहूँ नहीं पावा, परहरि साच झूठे दिन धावा॥
लालच लागे जनम सिरावा, अति काल दिन आइ तुरावा॥
जब लग है यहु निज तन सोई, तब लग चेति न देखै कोई॥
जब निज चलि करि किया पयांनां, भयौ अकाज तब फिर पछितांनां॥
मृगत्रिष्णां दिन दिन ऐसी, अब मोहि कछू न सोहाइ॥
अनेक जतन करि टारिये, करम पासि नहीं जाइ॥
रे रे मन बुधिवत भंडारा, आप आप ही करहुँ बिचारा॥
कवन सयाँना कौन बौराई, किहि दुख पइये किहि दुख जाई॥
कवन सार को आहि असारा, को अनहित को आहि पियारा॥
कवन साच कवन है झूठा, कवन करू को लागै मीठा॥
किहि जरिये किहि करिले अनंदा, कवन मुकति को मल के फंदा॥
रे रे मन मोंहि ब्यौरि कहि, हौ तत पूछौ तोहि॥
संसै मूल सबै भई, समझाई कहि मोहि॥
सुनि हंसां मैं कहूँ बिचारी, त्रिजुग जोति सबै अँधियारी॥
मनिषा जनम उत्तिम जो पावा, जांनू राम तौ सयांन कहावा॥
नहीं चेतै तो जनम गँवाया, परौं बिहान तब फिरि पछतावा॥
सुख करि मूल भगति जो जांनै, और सबै दुखया दिन आनै॥
अंमृत केवल राम पियारा, और सबै बिष के भंडारा॥
हरि आहि जौ रमियै रांमां, और सबै बिसमा के कांमां॥
सार आहि संगति निरवांनां, और सबै असार करि जांनां॥
अनहित आहि सकल संसारा, हित करि जानियै राम पियारा॥
साच सोई जे थिरह रहाई, उपजै बिनसै झूठ ह्नै जाई॥
मींठा सो जो सहजै पावा, अति कलेस थै करूँ कहावा॥
ना जरियै ना कीजै मैं मेरा, तहाँ अनंद जहाँ राम निहोरा॥
मुकति सोज आपा पर जांनै, सो पद कहाँ जु भरमि भुलानै॥
प्राननाथ जग जीवनाँ, दुरलभ राम पियार।
सुत सरीर धन प्रग्रह कबीर, जीये रे तर्वर पंख बसियार॥
रे रे जीव अपना दुख न संभारा, जिहि दुख ब्याप्या सब संसारा॥
मायां मोह भूले सब लोई, क्यंचित लाभ मांनिक दीयौ खोई॥
मैं मेरी करि बहुत बिगूला, जननी उदर जन्म का सूला॥
बहुत रूप भेष बहु कीन्हां, जुरा मरन क्रोध तन खींना॥
उपजै बिनसै जोनि फिराई, सुख कर मूल न पावै चाही॥
दुख संताप कलेस बहु पावै, सो न मिलै जे जरत बुझावै॥
जिहि हित जीव राखिहै भाई, सो अनहित है जाइ बिलाई॥
मोर तोर करि जरे अपारा, मृगतृष्णा झूठी संसारा॥
माया मोह झूठ रह्यौ लागी, को भयौ इहाँ का ह्नै है आगी॥
कछु कछु चेति देखि जीव अबहीं, मनिषा जनम ज पावै कबही॥
सारि आहि जे संग पियारा, जब चेतै तब ही उजियारा॥
त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता, मनिषा जनम भयौ चित चेता॥
आतमां मुरछि मुरछि जरि जाई, पिछले दुख कहता न सिराई॥
सोई त्रास जे जांनै हंसा, तौ अजहुँ न जीव करै संतोसा॥
भौसागर अति वार न पारा, ता तिरिबे को करहु बिचारा॥
जा जल की आदि अंति नहीं जानिये, ताकौ डर काहे न मानिये॥
को बोहिथ को खेवट आही, जिहि तिरिये सो लीजै चाही॥
समझि बिचारि जीव जब देखा, यहु संसार सुपन करि लेखा॥
भई बुधि कछू ग्यांन निहारा, आप आप ही किया बिचारा॥
आपण मैं जे रह्यौ समाई, नेड दूरि कथ्यौ नहीं जाई॥
ताके चीन्है परचौ पावा, भई समझि तासूँ मन लावा॥
भाव भगति हित बोहिया, सतगर खेवनहार॥
अलप उदिक तब जाँणिये, जब गोपदखुर बिस्तार॥4॥
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