Tuesday, July 19, 2022

कबीर ग्रंथावली | सजीवनी कौ अंग (साखी) | कबीरदास | Kabir Granthavali | Sajeevni ko Ang / Sakhi | Kabirdas



जहाँ जुरा मरण ब्यापै नहीं, मुवा न सुणिये कोइ।
चलि कबीर तिहि देसड़ै, जहाँ बैद विधाता होइ॥1॥
टिप्पणी: ख-जुरा मीच।

कबीर जोगी बनि बस्या, षणि खाये कंद मूल।
नाँ जाणौ किस जड़ी थैं, अमर गए असथूल॥2॥

कबीर हरि चरणौं चल्या, माया मोह थैं टूटि।
गगन मंडल आसण किया, काल गया सिर कूटि॥3॥

यहु मन पटकि पछाड़ि लै, सब आपा मिटि जाइ।
पंगुल ह्नै पिवपिव करै, पीछै काल न खाइ॥4॥

कबीर मन तीषा किया, बिरह लाइ षरसाँड़।
चित चणूँ मैं चुभि रह्या तहाँ नहीं काल का पाण॥5॥
टिप्पणी: ख-मन तीषा भया।

तरवर तास बिलंबिए, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंषी केलि करंत॥6॥

दाता तरवर दया फल, उपगारी जीवंत।
पंषी चले दिसावराँ, बिरषा सुफल फलंत॥7॥732॥

No comments:

Post a Comment

Poem | To the Nightingale | John Milton

John Milton To the Nightingale O Nightingale that on yon bloomy spray Warblest at eve, when all the woods are still, Thou with fresh hope th...