Monday, July 11, 2022

महाकाव्य | प्रिय प्रवास (सोलहवां सर्ग ) | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ | Mahakavya | Priya pravas / Solhwa Sarg | Ayodhya Singh Upadhyay 'Hari Oudh'


 वंशस्थ छन्द


विमुग्ध-कारी मधु मंजु मास था।

वसुन्धरा थी कमनीयता-मयी।

विचित्रता-साथ विराजिता रही।

वसंत वासंतिकता वनान्त में॥1॥


नवीन भूता वन की विभूति में।

विनोदिता-वेलि विहंग-वृन्द में।

अनूपता व्यापित थी वसंत की।

निकुंज में कूजित-कुंज-पुंज में॥2॥


प्रफुल्लिता कोमल-पल्लवान्विता।

मनोज्ञता-मूर्ति नितान्त-रंजिता।

वनस्थली थी मकरंद-मोदिता।

अकीलिता कोकिल-काकली-मयी॥3॥


निसर्ग ने, सौरभ ने, पराग ने।

प्रदान की थी अति कान्त-भाव से।

वसुन्धरा को, पिक को, मिलिन्द को।

मनोज्ञता, मादकता, मदांधता॥4॥


वसंत की भाव-भरी विभूति सी।

मनोज की मंजुल-पीठिका-समा।

लसी कहीं थी सरसा सरोजिनी।

कुमोदिनी-मानस-मोदिनी कहीं॥5॥


नवांकुरों में कलिका-कलाप में।

नितान्त न्यारे फल पत्र-पुंज में।

निसर्ग-द्वारा सु- प्रसूत-पुष्प में।

प्रभूत पुंजी-कृत थी प्रफुल्लता॥6॥


विमुग्धता की वर-रंग-भूमि सी।

प्रलुब्धता केलि वसुंधारोपमा।

मनोहरा थीं तरु-वृन्द-डालियाँ।

नई कली मंजुल-मंजरीमयी॥7॥


अन्यूनता दिव्य फलादि की, दिखा।

महत्तव औ गौरव, सत्य-त्याग का।

विचित्रता से करती प्रकाश थी।

स-पत्रता पादप पत्र-हीन की॥8॥


वसंत- माधुर्य- विकाश- वर्ध्दिनी।

क्रिया-मयी, मार-महोत्सवांकिता।

सु-कोंपलें थीं तरु-अंक में लसी।

स-अंगरागा अनुराग-रंजिता॥9॥


नये-नये पल्लववान पेड़ में।

प्रसून में आगत थी अपूर्वता।

वसंत में थी अधिकांश शोभिता।

विकाशिता-वेलि प्रफुल्लिता-लता॥10॥


अनार में औ कचनार में बसी।

ललामता थी अति ही लुभावनी।

बड़े लसे लोहित-रंग-पुष्प से।

पलाश की थी अपलाशता ढकी॥11॥


स-सौरभा लोचन की प्रसादिका।

वसंत- वासंतिका- विभूषिता।

विनोदिता हो बहु थी विनोदिनी।

प्रिया-समा मंजु-प्रियाल-मंजरी॥12॥


दिशा प्रसन्ना महि पुष्प-संकुला।

नवीनता-पूरित पादपावली।

वसंत में थी लतिका सु-यौवना।

अलापिका पंचम-तान कोकिला॥13॥


अपूर्व-स्वर्गीय-सुगंध में सना।

सुधा बहाता धमनी-समूह में।

समीर आता मलयाचलांक से।

किसे बनाता न विनोद-मग्न था॥14॥


प्रसादिनी-पुष्प सुगंध-वर्ध्दिनी।

विकाशिनी वेलि लता विनोदिनी।

अलौकिकी थी मलयानिली क्रिया।

विमोहिनी पादप पंक्ति-मोदिनी॥15॥


वसंत शोभा प्रतिकूल थी बड़ी।

वियोग-मग्ना ब्रज-भूमि के लिए।

बना रही थी उसको व्यथामयी।

विकाश पाती वन-पादपावली॥16॥


दृगों उरों को दहती अतीव थीं।

शिखाग्नि-तुल्या तरु-पुंज-कोंपलें।

अनार-शाखा कचनार-डाल थी।

अपार अंगारक पुंज-पूरिता॥17॥


नितान्त ही थी प्रतिकूलता-मयी।

प्रियाल की प्रीति-निकेत-मंजरी।

बना अतीवाकुल म्लान चित्त को।

विदारता था तरु कोबिदार का॥18॥


भयंकरी व्याकुलता-विकासिका।

सशंकता-मुर्ति प्रमोद-नाशिनी।

अतीव थी रक्तमयी अशोभना।

पलाश की पंक्ति पलाशिनी समा॥19॥


इतस्तत: भ्रान्त-समान घूमती।

प्रतीत होती अवली मिलिन्द की।

विदूषिता हो कर थी कलंकिता।

अलंकृता कोकिल कान्त कंठता॥20॥


प्रसून को मोहकता मनोज्ञता।

नितान्त थी अन्यमनस्कतामयी।

न वांछिता थी न विनोदनीय थी।

अ-मानिता हो मलयानिल-क्रिया॥21॥


बड़े यशस्वी वृष-भानु गेह के।

समीप थी एक विचित्र वाटिका।

प्रबुद्ध-ऊधो इसमें इन्हीं दिनों।

प्रबोध देने ब्रज-देवि को गये॥22॥


वसंत को पा यह शान्त वाटिका।

स्वभावत: कान्त नितान्त थी हुई।

परन्तु होती उसमें स-शान्ति थी।

विकाश की कौशल-कारिणी-क्रिया॥23॥


शनै: शनै: पादप पुंज कोंपलें।

विकाश पा के करती प्रदान थीं।

स-आतुरी रक्तिमता-विभूति को।

प्रमोदनीया-कमनीय श्यामता॥24॥


अनेक आकार-प्रकार से मनो।

बता रही थीं यह गूढ़-मर्म्म वे।

नहीं रँगेगा वह श्याम-रंग में।

न आदि में जो अनुराग में रँगा॥25॥


प्रसून थे भाव-समेत फूलते।

लुभावने श्यामल पत्र अंक में।

सुगंध को पूत बना दिगन्त में।

पसारती थी पवनातिपावनी॥26॥


प्रफुल्लता में अति-गूढ़-म्लानता।

मिली हुई साथ पुनीत-शान्ति के।

सु-व्यंजिता संयत भाव संग थी।

प्रफुल्ल-पाथोज प्रसून-पुंज में॥27॥


स-शान्ति आते उड़ते निकुंज में।

स-शान्ति जाते ढिग थे प्रसून के।

बने महा-नीरव, शान्त, संयमी।

स-शान्ति पीते मधु को मिलिन्द थे॥28॥


विनोद से पादप पै विराजना।

विहंगिनी साथ विलास बोलना।

बँधा हुआ संयम-सूत्र साथ था।

कलोलकारी खग का कलोलना॥29॥


न प्रायश: आनन त्यागती रही।

न थी बनाती ध्वनिता दिगन्त को।

न बाग में पा सकती विकाश थी।

अ-कुंठिता हो कल-कंठ-काकली॥30॥


इसी तपोभूमि-समान वाटिका।

सु-अंक में सुन्दर एक कुंज थी।

समावृता श्यामल-पुष्प-संकुला।

अनेकश: वेलि-लता-समूह से॥31॥


विराजती थीं वृष-भानु-नन्दिनी।

इसी बड़े नीरव शान्त-कुंज में।

अत: यहीं श्री बलवीर-बन्धु ने।

उन्हें विलोका अलि-वृन्द आवृता॥32॥


प्रशान्त, म्लाना, वृषभानु-कन्यका।

सु-मुर्ति देवी सम दिव्यतामयी।

विलोक, हो भावित भक्ति-भाव से।

विचित्र ऊधो-उर की दशा हुई॥33॥


अतीव थी कोमल-कान्ति नेत्र की।

परन्तु थी शान्ति विषाद-अंकिता।

विचित्र-मुद्रा मुख-पद्म की मिली।

प्रफुल्लता - आकुलता - समन्विता॥34॥


स-प्रीति वे आदर के लिए उठीं।

विलोक आया ब्रज-देव-बन्धु को।

पुन: उन्होंने निज-शान्त-कुंज में।

उन्हें बिठाया अति-भक्ति-भाव से॥35॥


अतीव-सम्मान समेत आदि में।

ब्रजेश्वरी की कुशलादि पूछ के।

पुन: सुधी-ऊद्धव ने स-नम्रता।

कहा सँदेसा वह श्याम-मूर्ति का॥36॥


मन्दाक्रान्ता छन्द

प्राणाधारे परम-सरले प्रेम की मुर्ति राधे।

निर्माता ने पृथक तुमसे यों किया क्यों मुझे है।

प्यारी आशा प्रिय-मिलन की नित्य है दूर होती।

कैसे ऐसे कठिन-पथ का पान्थ मैं हो रहा हूँ॥37॥


जो दो प्यारे हृदय मिल के एक ही हो गये हैं।

क्यों धाता ने विलग उनके गात को यों किया है।

कैसे आ के गुरु-गिरि पड़े बीच में हैं, उन्हीं के।

जो दो प्रेमी मिलित पय औ नीर से नित्यश: थे॥38॥


उत्कण्ठा के विवश नभ को, भूमि को, पादपों को।

ताराओं को, मनुज-मुख को प्रायश: देखता हूँ।

प्यारी! ऐसी न ध्वनि मुझको है कहीं भी सुनाती।

जो चिन्ता से चलित-चित की शान्ति का हेतु होवे॥39॥


जाना जाता परम विधि के बंधनों का नहीं है।

तो भी होगा उचित चित में यों प्रिये सोच लेना।

होते जाते विफल यदि हैं सर्व-संयोग सूत्र।

तो होवेगा निहित इसमें श्रेय का बीज कोई॥40॥


हैं प्यारी औ 'मधुर सुख औ भोग की लालसायें।

कान्ते, लिप्सा जगत-हित की और भी है मनोज्ञा।

इच्छा आत्मा परम-हित की मुक्ति की उत्तम है।

वांछा होती विशद उससे आत्म-उत्सर्ग की है॥41॥


जो होता है निरत तप से मुक्ति की कामना से।

आत्मार्थी है, न कह सकते हैं उसे आत्मत्यागी।

जी से प्यारा जगत-हित औ लोक-सेवा जिसे है।

प्यारी सच्चा अवनि-तल में आत्मत्यागी वही है॥42॥


जो पृथ्वी के विपुल-सुख की माधुरी है विपाशा।

प्राणी-सेवा जनित सुख की प्राप्ति तो जन्हुजा है।

जो आद्या है नखत द्युति सी व्याप जाती उरों में।

तो होती है लसित उसमें कौमुदी सी द्वितीया॥43॥


भोगों में भी विविध कितनी रंजिनी-शक्तियाँ हैं।

वे तो भी हैं जगत-हित से मुग्धकारी न होते।

सच्ची यों है कलुष उनमें हैं बड़े क्लान्ति-कारी।

पाई जाती लसित इसमें शान्ति लोकोत्तरा॥44॥


है आत्मा का न सुख किसको विश्व के मध्य प्यारा।

सारे प्राणी स-रुचि इसकी माधुरी में बँधे हैं।

जो होता है न वश इसके आत्म-उत्सर्ग-द्वारा।

ऐ कान्ते है सफल अवनी-मध्य आना उसी का॥45॥


जो है भावी परम-प्रबला दैव-इच्छा प्रधाना।

तो होवेगा उचित न, दुखी वांछितों हेतु होना।

श्रेय:कारी सतत दयिते सात्तिवकी-कार्य्य होगा।

जो हो स्वार्थोपरत भव में सर्व-भूतोपकारी॥46॥


वंशस्थ छन्द


अतीव हो अन्यमना विषादिता।

विमोचते वारि दृगारविन्द से।

समस्त सन्देश सुना ब्रजेश का।

ब्रजेश्वरी ने उर वज्र सा बना॥47॥


पुन: उन्होंने अति शान्त-भाव से।

कभी बहा अश्रु कभी स-धीरता।

कहीं स्व-बातें बलवीर-बंधु से।

दिखा कलत्रोचित-चित्त-उच्चता॥48॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


मैं हूँ ऊधो पुलकित हुई आपको आज पा के।

सन्देशों को श्रवण करके और भी मोदिता हूँ।

मंदीभूता, उर-तिमिर की ज्ञान आभा।

उद्दीप्ता हो उचित-गति से उज्ज्वला हो रही है॥49॥


मेरे प्यारे, पुरुष, पृथिवी-रत्न औ शान्त धी हैं।

सन्देशों में तदपि उनकी, वेदना, व्यंजिता है।

मैं नारी हूँ, तरल-उर हूँ, प्यार से वंचिता हूँ।

जो होती हूँ विकल, विमना, व्यस्त, वैचित्रय क्या है॥50॥


हो जाती है रजनि मलिना ज्यों कला-नाथ डूबे।

वाटी शोभा रहित बनती ज्यों वसन्तान्त में है।

त्योंही प्यारे विधु-वदन की कान्ति से वंचिता हो।

श्री-हीना मलिन ब्रज की मेदिनी हो गई है॥51॥


जैसे प्राय: लहर उठती वारि में वायु से है।

त्योंही होता चित चलित है कश्चिदावेग-द्वारा।

उद्वेगों में व्यथित बनना बात स्वाभाविकी है।

हाँ, ज्ञानी औ विबुध-जन में मुह्यता है न होती॥52॥


पूरा-पूरा परम-प्रिय का मर्म्म मैं बूझती हूँ।

है जो वांछा विशद उर में जानती भी उसे हूँ।

यत्नों द्वारा प्रति-दिन अत: मैं महा संयता हूँ।

तो भी देती विरह-जनिता-वासनायें व्यथा हैं॥53॥


जो मैं कोई विहग उड़ता देखती व्योम में हूँ।

तो उत्कण्ठा-विवश चित में आज भी सोचती हूँ।

होते मेरे अबल तन में पक्ष जो पक्षियों से।

तो यों ही मैं स-मुद उड़ती श्याम के पास जाती॥54॥


जो उत्कण्ठा अधिक प्रबल है किसी काल होती।

तो ऐसी है लहर उठती चित्त में कल्पना की।

जो हो जाती पवन, गति पा वांछिता लोक-प्यारी।

मैं छू आती परम-प्रिय के मंजु-पादाम्बुजों को॥55॥


निर्लिप्ता हूँ अधिकतर मैं नित्यश: संयता हूँ।

तो भी होती अति व्यथित हूँ श्याम की याद आते।

वैसी वांछा जगत-हित की आज भी है न होती।

जैसी जी में लसित प्रिय के लाभ की लालसा है॥56॥


हो जाता है उदित उर में मोह जो रूप-द्वारा।

व्यापी भू में अधिक जिसकी मंजु-कार्य्यावली है।

जो प्राय: है प्रसव करता मुग्धता मानसों में।

जो है क्रीड़ा अवनि चित की भ्रान्ति उद्विग्नता का॥57॥


जाता है पंच-शर जिसकी 'कल्पिता-मुर्ति' माना।

जो पुष्पों के विशिख-बल से विश्व को वेधता है।

भाव-ग्राही 'मधुर-महती चित्त-विक्षेप-शीला।

न्यारी-लीला सकल जिसकी मानसोन्मादिनी है॥58॥


वैचित्रयों से वलित उसमें ईदृशी शक्तियाँ हैं।

ज्ञाताओं ने प्रणय उसको है बताया न तो भी।

है दोनों से सबल बनती भूरि-आसंग-लिप्सा।

होती है किन्तु प्रणयज ही स्थायिनी औ प्रधाना॥59॥


जैसे पानी प्रणय तृषितों की तृषा है न होती।

हो पाती है न क्षुधित-क्षुधा अन्न-आसक्ति जैसे।

वैसे ही रूप निलय नरों मोहनी-मुर्तियों में।

हो पाता है न 'प्रणय' हुआ मोह रूपादि-द्वारा॥60॥


मूली-भूता इस प्रणय की बुध्दि की वृत्तियाँ हैं।

हो जाती हैं समधिकृत जो व्यक्ति के सद्गुणों से।

वे होते हैं नित नव, तथा दिव्यता-धाम, स्थायी।

पाई जाती प्रणय-पथ में स्थायिता है इसी से॥61॥


हो पाता है विकृत स्थिरता-हीन हैं रूप होता।

पाई जाती नहिं इस लिए मोह में स्थायिता है।

होता है रूप विकसित भी प्रायश: एक ही सा।

हो जाता है प्रशमित अत: मोह संभोग से भी॥62॥


नाना स्वार्थों सरस-सुख की वासना-मध्य-डूबा।

आवेगों से वलित ममतावान है मोह होता।

निष्कामी है प्रणय-शुचिता-मुर्ति है सात्तिवकी है।

होती पूरी प्रमिति उसमें आत्म-उत्सर्ग की है॥63॥


सद्य: होती फलित, चित में मोह की मत्त है।

धीरे-धीरे प्रणय बसता, व्यापता है उरों में।

हो जाती है विवश अपरा-वृत्तियाँ मोह-द्वारा।

भावोन्मेषी प्रणय करता चित्त सद्वृत्ति को है॥64॥


हो जाते हैं उदय कितने भाव ऐसे उरों में।

होती है मोह-वश जिनमें प्रेम की भ्रान्ति प्राय:।

वे होते हैं न प्रणय न वे हैं समीचीन होते।

पाई जाती अधिक उनमें मोह की वासना है॥65॥


हो के उत्कण्ठ प्रिय-सुख की भूयसी-लालसा से।

जो है प्राणी हृदय-तल की वृत्ति उत्सर्ग-शीला।

पुण्याकांक्षा सुयश-रुचि वा धर्म-लिप्सा बिना ही।

ज्ञाताओं ने प्रणय अभिधा दान की है उसी को॥66॥


आदौ होता गुण ग्रहण है उक्त सद्वृत्ति-द्वारा।

हो जाती है उदित उर में फेर आसंग-लिप्सा।

होती उत्पन्न सहृदयता बाद संसर्ग के है।

पीछे खो आत्म-सुधि लसती आत्म-उत्सर्गता है॥67॥


सद्गंधो से, 'मधुर-स्वर से, स्पर्श से औ रसों से।

जो हैं प्राणी हृदय-तल में मोह उद्भूत होते।

वे ग्राही हैं जन-हृदय के रूप के मोह ही से।

हो पाते हैं तदपि उतने मत्तकारी नहीं वे॥68॥


व्यापी भी है अधिक उनसे रूप का मोह होता।

पाया जाता प्रबल उसका चित्त-चांचल्य भी है।

मानी जाती न क्षिति-तल में है पतंगोपमाना।

भृङ्गों, मीनों द्विरद मृग की मत्तत्ता प्रीतिमत्त॥69॥


मोहों में है प्रबल सबसे रूप का मोह होता।

कैसे होंगे अपर, वह जो प्रेम है हो न पाता।

जो है प्यारा प्रणय-मणि सा काँच सा मोह तो है।

ऊँची न्यारी रुचिर महिमा मोह से प्रेम की है॥70॥


दोनों ऑंखें निरख जिसको तृप्त होती नहीं हैं।

ज्यों-ज्यों देखें अधिक जिसकी दीखती मंजुता है।

जो है लीला-निलय महि में वस्तु स्वर्गीय जो है।

ऐसा राका-उदित-विधु सा रूप उल्लासकारी॥71॥


उत्कण्ठा से बहु सुन जिसे मत्त सा बार लाखों।

कानों की है न तिल भर भी दूर होती पिपासा।

हृत्तन्त्री में ध्वनित करता स्वर्ग-संगीत जो है।

ऐसा न्यारा-स्वर उर-जयी विश्व-व्यामोहकारी॥72॥


होता है मूल अग जग के सर्वरूपों-स्वरों का।

या होती है मिलित उसमें मुग्धता सद्गुणों की।

ए बातें ही विहित-विधि के साथ हैं व्यक्त होतीं।

न्यारे गंधो सरस-रस, औ स्पर्श-वैचित्रय में भी॥73॥


पूरी-पूरी कुँवर-वर के रूप में है महत्ता।

मंत्रो से हो मुखर, मुरली दिव्यता से भरी है।

सारे न्यारे प्रमुख-गुण की सात्तिवकी मुर्ति वे हैं।

कैसे व्यापी प्रणय उनका अन्तरों में न होगा॥74॥


जो आसक्ता ब्रज-अवनि में बालिकायें कई हैं।

वे सारी ही प्रणय रँग से श्याम के रंजिता हैं।

मैं मानूँगी अधिक उनमें हैं महा-मोह-मग्ना।

तो भी प्राय: प्रणय-पथ की पंथिनी ही सभी हैं॥75॥


मेरी भी है कुछ गति यही श्याम को भूल दूँ क्यों।

काढ़ूँ कैसे हृदय-तल से श्यामली-मुर्ति न्यारी।

जीते जी जो न मन सकता भूल है मंजु-तानें।

तो क्यों होंगी शमित प्रिय के लाभ की लालसायें॥76॥


ए ऑंखें हैं जिधर फिरती चाहती श्याम को हैं।

कानों को भी 'मधुर-रव की आज भी लौ लगी है।

कोई मेरे हृदय-तल को पैठ के जो विलोके।

तो पावेगा लसित उसमें कान्ति-प्यारी उन्हीं की॥77॥


जो होता है उदित नभ में कौमुदी कांत आ के।

या जो कोई कुसुम विकसा देख पाती कहीं हूँ।

शोभा-वाले हरित दल के पादपों को विलोके।

है प्यारे का विकच-मुखड़ा आज भी याद आता॥78॥


कालिन्दी के पुलिन पर जा, या, सजीले-सरों में।

जो मैं फूले-कमल-कुल को मुग्ध हो देखती हूँ।

तो प्यारे के कलित-कर की औ अनूठे-पगों की।

छा जाती है सरस-सुषमा वारि स्रावी-दृगों में॥79॥


ताराओं से खचित-नभ को देखती जो कभी हूँ।

या मेघों में मुदित-बक की पंक्तियाँ दीखती हैं।

तो जाती हूँ उमग बँधता ध्यान ऐसा मुझे है।

मानो मुक्ता-लसित-उर है श्याम का दृष्टि आता॥80॥


छू देती है मृदु-पवन जो पास आ गात मेरा।

तो हो जाती परस सुधि है श्याम-प्यारे-करों की।

ले पुष्पों की सुरभि वह जो कुंज में डोलती है।

तो गंधो से बलित मुख की वास है याद आती॥81॥


ऊँचे-ऊँचे शिखर चित की उच्चता हैं दिखाते।

ला देता है परम दृढ़ता मेरु आगे दृगों के।

नाना-क्रीड़ा-निलय-झरना चारु-छीटें उड़ाता।

उल्लासों को कुँवर-वर के चक्षु में है लसाता॥82॥


कालिन्दी एक प्रियतम के गात की श्यामता ही।

मेरे प्यासे दृग-युगल के सामने है न लाती।

प्यारी लीला सकल अपने कूल की मंजुता से।

सद्भावों के सहित चित में सर्वदा है लसाती॥83॥


फूली संध्या परम-प्रिय की कान्ति सी है दिखाती।

मैं पाती हूँ रजनि-तन में श्याम का रङ्ग छाया।

ऊषा आती प्रति-दिवस है प्रीति से रंजिता हो।

पाया जाता वर-वदन सा ओप आदित्य में है॥84॥


मैं पाती हँ अलक-सुषमा भृङ्ग की मालिका में।

है आँखों की सु-छवि मिलती खंजनों औ मृगों में।

दोनों बाँहें कलभ कर को देख हैं याद आती।

पाई शोभा रुचिर शुक के ठोर में नासिका की॥85॥


है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाड़िमों में।

बिम्बाओं में वर अधर सी राजती लालिमा है।

मैं केलों में जघन-युग ही मंजुता देखती हूँ।

गुल्फों की सी ललित सुषमा है गुलों में दिखाती॥86॥


नेत्रोन्मादी बहु-मुदमयी-नीलिमा गात की सी।

न्यारे नीले गगन-तल के अङ्क में राजती है।

भू में शोभा, सुरस जल में, वद्दि में दिव्य-आभा।

मेरे प्यारे-कुँवर वर सी प्रायश: है दिखाती॥87॥


सायं-प्रात: सरस-स्वर से कूजते हैं पखेरू।

प्यारी-प्यारी 'मधुर-ध्वनियाँ मत्त हो, हैं सुनाते।

मैं पाती हूँ 'मधुर ध्वनि में कूजने में खगों के।

मीठी-तानें परम-प्रिय को मोहिनी-वंशिका की॥88॥


मेरी बातें श्रवण करके आप उद्विग्न होंगे।

जानेंगे मैं विवश बन के हूँ महा-मोह-मग्ना।

सच्ची यों है न निज-सुख के हेतु मैं मोहिता हूँ।

संरक्षा में प्रणय-पथ के भावत: हूँ सयत्ना॥89॥


हो जाती है विधि-सृजन से इक्षु में माधुरी जो।

आ जाता है सरस रंग जो पुष्प की पंखड़ी में।

क्यों होगा सो रहित रहते इक्षुता-पुष्पता के।

ऐसे ही क्यों प्रसृत उर से जीवनाधार होगा॥90॥


क्यों मोहेंगे न दृग लख के मुर्तियाँ रूपवाली।

कानों को भी 'मधुर-स्वर से मुग्धता क्यों न होगी।

क्यों डूबेंगे न उर रँग में प्रीति-आरंजितों के।

धाता-द्वारा सृजित तन में तो इसी हेतु वे हैं॥91॥


छाया-ग्राही मुकुर यदि हो, वारि हो चित्र क्या है।

जो वे छाया ग्रहण न करें चित्रता तो यही है।

वैसे ही नेत्र, श्रुति, उर में जो न रूपादि व्यापें।

तो विज्ञानी, विबुध उनको स्वस्थ कैसे कहेंगे॥92॥


पाई जाती श्रवण करने आदि में भिन्नता है।

देखा जाना प्रभृति भव में भूरि-भेदों भरा है।

कोई होता कलुष-युत है कामना-लिप्त हो के।

त्योंही कोई परम-शुचितावान औ संयमी है॥93॥


पक्षी होता सु-पुलकित है देख सत्पुष्प फूला।

भौंरा शोभा निरख रस ले मत्त हो गूँजता है।

अर्थी-माली मुदित बन भी है उसे तोड़ लेता।

तीनों का ही कल-कुसुम का देखना यों त्रिधा है॥94॥


लोकोल्लासी छवि लख किसी रूप उद्भासिता की।

कोई होता मदन-वश है मोद में मग्न कोई।

कोई गाता परम-प्रभु की कीर्ति है मुग्ध सा हो।

यों तीनों की प्रचुर-प्रखरा दृष्टि है भिन्न होती॥95॥


शोभा-वाले विटप विलसे पक्षियों के स्वरों से।

विज्ञानी है परम-प्रभु के प्रेम का पाठ पाता।

व्याधा की हैं हनन-रुचियाँ और भी तीव्र होतीं।

यों दोनों के श्रवण करने में बड़ी भिन्नता है॥96॥


यों ही है भेद युत चखना, सूँघना और छूना।

पात्रो में है प्रकट इनकी भिन्नता नित्य होती।

ऐसी ही हैं हृदय-तल के भाव में भिन्नतायें।

भावों ही से अवनि-तल है स्वर्ग के तुल्य होता॥97॥


प्यारे आवें सु-बयन कहें प्यार से गोद लेवें।

ठंढे होवें नयन, दुख हों दूर मैं मोद पाऊँ।

ए भी हैं भाव मम उर के और ए भाव भी हैं।

प्यारे जीवें जग-हित करें गेह चाहे न आवें॥98॥


जो होता है हृदय-तल का भाव लोकोपतापी।

छिद्रान्वेषी, मलिन, वह है तामसी-वृत्ति-वाला।

नाना भोगाकलित, विविधा-वासना-मध्य डूबा।

जो है स्वार्थाभिमुख वह है राजसी-वृत्ति शाली॥99॥


निष्कामी है भव-सुखद है और है विश्व-प्रेमी।

जो है भोगोपरत वह है सात्तिवकी-वृत्ति-शोभी।

ऐसी ही है श्रवण करने आदि की भी व्यवस्था।

आत्मोत्सर्गी, हृदय-तल की सात्तिवकी-वृत्ति ही है॥100॥


जिह्ना, नासा, श्रवण अथवा नेत्र होते शरीरी।

क्यों त्यागेंगे प्रकृति अपने कार्य को क्यों तजेंगे।

क्यों होवेंगी शमित उर की लालसाएँ, अत: मैं।

रंगे देती प्रति-दिन उन्हें सात्तिवकी-वृत्ति में हूँ॥101॥


कंजों का या उदित-विधु का देख सौंदर्य्य ऑंखों।

या कानों से श्रवण करके गान मीठा खगों का।

मैं होती थी व्यथित, अब हूँ शान्ति सानन्द पाती।

प्यारे के पाँव, मुख, मुरली-नाद जैसा उन्हें पा॥102॥


यों ही जो है अवनि नभ में दिव्य, प्यारा, उन्हें मैं।

जो छूती हूँ श्रवण करती देखती सूँघती हूँ।

तो होती हूँ मुदित उनमें भावत: श्याम की पा।

न्यारी-शोभा, सुगुण-गरिमा अंग संभूत साम्य॥103॥


हो जाने से हृदय-तल का भाव ऐसा निराला।

मैंने न्यारे परम गरिमावान दो लाभ पाये।

मेरे जी में हृदय विजयी विश्व का प्रेम जागा।

मैंने देखा परम प्रभु को स्वीय-प्राणेश ही में॥104॥


पाई जाती विविध जितनी वस्तुयें हैं सबों में।

जो प्यारे को अमित रंग औ रूप में देखती हूँ।

तो मैं कैसे न उन सबको प्यार जी से करूँगी।

यों है मेरे हृदय-तल में विश्व का प्रेम जागा॥105॥


जो आता है न जन-मन में जो परे बुध्दि के है।

जो भावों का विषय न बना नित्य अव्यक्त जो है।

है ज्ञाता की न गति जिसमें इन्द्रियातीत जो है।

सो क्या है, मैं अबुध अबला जान पाऊँ उसे क्यों॥106॥


शास्त्रों में है कथित प्रभु के शीश औ लोचनों की।

संख्यायें हैं अमित पग औ हस्त भी हैं अनेकों।

सो हो के भी रहित मुख से नेत्र नासादिकों से।

छूता, खाता, श्रवण करता, देखता, सूँघता है॥107॥


ज्ञाताओं ने विशद इसका मर्म्म यों है बताया।

सारे प्राणी अखिल जग के मुर्तियाँ हैं उसी की।

होतीं ऑंखें प्रभृति उनकी भूरि-संख्यावती हैं।

सो विश्वात्मा अमित-नयनों आदि-वाला अत: है॥108॥


निष्प्राणों की विफल बनतीं सर्व-गात्रोन्द्रियाँ हैं।

है अन्या-शक्ति कृति करती वस्तुत: इन्द्रियों की।

सो है नासा न दृग रसना आदि ईशांश ही है।

होके नासादि रहित अत: सूँघता आदि सो है॥109॥


ताराओं में तिमिर-हर में वह्नि-विद्युल्लता में।

नाना रत्नों, विविध मणियों में विभा है उसी की।

पृथ्वी, पानी, पवन, नभ में, पादपों में, खगों में।

मैं पाती हूँ प्रथित-प्रभुता विश्व में व्याप्त की ही॥110॥


प्यारी-सत्ता जगत-गत की नित्य लीला-मयी है।

स्नेहोपेता परम-मधुरा पूतता में पगी है।

ऊँची-न्यारी-सरल-सरसा ज्ञान-गर्भा मनोज्ञा।

पूज्या मान्या हृदय-तल की रंजिनी उज्ज्वला है॥111॥


मैंने की हैं कथन जितनी शास्त्र-विज्ञात बातें।

वे बातें हैं प्रकट करती ब्रह्म है विश्व-रूपी।

व्यापी है विश्व प्रियतम में विश्व में प्राणप्यारा।

यों ही मैंने जगत-पति को श्याम में है विलोका॥112॥


शास्त्रों में है लिखित प्रभु की भक्ति निष्काम जोहै।

सो दिव्या है मनुज-तन की सर्व संसिध्दियों से।

मैं होती हूँ सुखित यह जो तत्तवत: देखती हूँ।

प्यारे की औ परम-प्रभु की भक्तियाँ हैं अभिन्ना॥113॥


द्रुतविलम्बित छन्द


जगत-जीवन प्राण स्वरूप का।

निज पिता जननी गुरु आदि का।

स्व-प्रिय का प्रिय साधन भक्ति है।

वह अकाम महा-कमनीय है॥114॥


श्रवण, कीर्तन, वन्दन, दासता।

स्मरण, आत्म-निवेदन, अर्चना।

सहित सख्य तथा पद-सेवना।

निगदिता नवध प्रभु-भक्ति है॥115॥


वंशस्थ छन्द


बना किसी की यक मुर्ति कल्पिता।

करे उस की पद-सेवनादि जो।

न तुल्य होगा वह बुध्दि दृष्टि से।

स्वयं उसी की पद-अर्चनादि के॥116॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


विश्वात्मा जो परम प्रभु है रूप तो हैं उसी के।

सारे प्राणी सरि गिरि लता वेलियाँ वृक्ष नाना।

रक्षा पूजा उचित उनका यत्न सम्मान सेवा।

भावोपेता परम प्रभु की भक्ति सर्वोत्तमा हैं॥117॥


जी से सारा कथन सुनना आर्त-उत्पीड़ितों का।

रोगी प्राणी व्यथित जन का लोक-उन्नायकों का।

सच्छास्त्त्रों का श्रवण सुनना वाक्य सत्संगियों का।

मानी जाती श्रवण-अभिधा-भक्ति है सज्जनों में॥118॥


सोये जागें, तम-पतित की दृष्टि में ज्योति आवे।

भूले आवें सु-पथ पर औ ज्ञान-उन्मेष होवे।

ऐसे गाना कथन करना दिव्य-न्यारे गुणों का।

है प्यारी भक्ति प्रभुवर की कीर्तनोपाधिवाली॥119॥


विद्वानों के स्व-गुरु-जन के देश के प्रेमिकों के।

ज्ञानी दानी सु-चरित गुणी सर्व-तेजस्वियों के।

आत्मोत्सर्गी विबुध जन के देव सद्विग्रहों के।

आगे होना नमित प्रभु की भक्ति है वन्दनाख्या॥120॥


जो बातें हैं भव-हितकरी सर्व-भूतोपकारी।

जो चेष्टायें मलिन गिरती जातियाँ हैं उठाती।

हो सेवा में निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना।

विश्वात्मा-भक्ति भव-सुखदा दासता-संज्ञका है॥121॥


कंगालों की विवश विधवा औ अनाथाश्रितों की।

उद्विग्नों की सुरति करना औ उन्हें त्राण देना।

सत्काय्र्यों का पर-हृदय की पीर का ध्यान आना।

मानी जाती स्मरण-अभिधा भक्ति है भावुकों में॥122॥


द्रुतविलम्बित छन्द


विपद-सिन्धु पड़े नर वृन्द के।

दुख-निवारण औ हित के लिए।

अरपना अपने तन प्राण को।

प्रथित आत्म-निवेदन-भक्ति है॥123॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


संत्रास्तों को शरण मधुरा-शान्ति संतापितों को।

निर्बोधो को सु-मति विविधा औषधी पीड़ितों को।

पानी देना तृषित-जन को अन्न भूखे नरों को।

सर्वात्मा भक्ति अति रुचिरा अर्चना-संज्ञका है॥124॥


नाना प्राणी तरु गिरि लता आदि की बात ही क्या।

जो दूर्वा से द्यु-मणि तक है व्योम में या धरा में।

सद्भावों के सहित उनसे कार्य्य-प्रत्येक लेना।

सच्चा होना सुहृद उनका भक्ति है सख्य-नाम्नी॥125॥


वसन्ततिलका छन्द


जो प्राणी-पुंज निज कर्म्म-निपीड़नों से।

नीचे समाज-वपु के पग सा पड़ा है।

देना उसे शरण मान प्रयत्न द्वारा।

है भक्ति लोक-पति की पद-सेवनाख्या॥126॥


द्रुतविलम्बित छन्द


कह चुकी प्रिय-साधन ईश का।

कुँवर का प्रिय-साधन है यही।

इसलिए प्रिय की परमेश की।

परम-पावन-भक्ति अभिन्न है॥127॥


यह हुआ मणि-कांचन-योग है।

मिलन है यह स्वर्ण-सुगंध का।

यह सुयोग मिले बहु-पुण्य से।

अवनि में अति-भाग्यवती हुई॥128॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


जो इच्छा है परम-प्रिय की जो अनुज्ञा हुई है।

मैं प्राणों के अछत उसको भूल कैसे सकूँगी।

यों भी मेरे परम व्रत के तुल्य बातें यही थीं।

हो जाऊँगी अधिक अब मैं दत्ताचित्ता इन्हीं में॥129॥


मैं मानूँगी अधिक मुझमें मोह-मात्र अभी है।

होती हूँ मैं प्रणय-रंग से रंजिता नित्य तो भी।

ऐसी हूँगी निरत अब मैं पूत-कार्य्यावली में।

मेरे जी में प्रणय जिससे पूर्णत: व्याप्त होवे॥130॥


मैंने प्राय: निकट प्रिय के बैठ, है भक्ति सीखी।

जिज्ञासा से विविध उसका मर्म्म है जान पाया।

चेष्टा ऐसी सतत अपनी बुध्दि-द्वारा करूँगी।

भूलूँ-चूकूँ न इस व्रत की पूत-कार्य्यावली में॥131॥


जा के मेरी विनय इतनी नम्रता से सुनावें।

मेरे प्यारे कुँवर-वर को आप सौजन्य-द्वारा।

मैं ऐसी हूँ न निज-दुख से कष्टिता शोक-मग्ना।

हा! जैसी हूँ व्यथित ब्रज के वासियों के दुखों से॥132॥


गोपी गोपों विकल ब्रज की बालिका बालकों को।

आ के पुष्पानुपम मुखड़ा प्राणप्यारे दिखावें।

बाधा कोई न यदि प्रिय के चारु-कर्तव्य में हो।

तो वे आ के जनक-जननी की दशा देख जावें॥133॥


मैं मानूँगी अधिक बढ़ता लोभ है लाभ ही से।

तो भी होगा सु-फल कितनी भ्रान्तियाँ दूर होंगी।

जो उत्कण्ठा-जनित दुखड़े दाहते हैं उरों को।

सद्वाक्यों से प्रबल उनका वेग भी शान्त होगा॥134॥


सत्कर्मी हैं परम-शुचि हैं आप ऊधो सुधी हैं।

अच्छा होगा सनय प्रभु से आप चाहें यही जो।

आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की विश्व के काम आऊँ।

मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे॥135॥


द्रुतविलम्बित छन्द


चुप हुई इतना कह मुग्ध हो।

ब्रज-विभूति-विभूषण राधिका।

चरण की रज ले हरिबंधु भी।

परम-शान्ति-समेत विदा हुए॥136॥



No comments:

Post a Comment

Short Story - At Christmas Time | Anton Chekhov

Anton Chekhov Short Story - At Christmas Time I "WHAT shall I write?" said Yegor, and he dipped his pen in the ink. Vasilisa had n...