"तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी । केहि दुख रैनि न लावसि आँखी"
नागमती कारन कै रोई । का सोवै जो कंत-बिछोई ॥
मनचित हुँते न उतरै मोरे । नैन क जल चुकि रहा न मोरे ॥
कोइ न जाइ ओहि सिंगलदीपा । जेहि सेवाति कहँ नैना सीपा ॥
जोगी होइ निसरा सो नाहू । तब हुँत कहा सँदेस न काहू ॥
निति पूछौं सब जोगी जंगम । कोइ न कहै निज बात, बिहंगम !॥
चारिउ चक्र उजार भए, कोइ न सँदेसा टेक ।
कहौं बिरह दुख आपन, बैठि सुनहु दँड एक ॥1॥
तासौं दुख कहिए, हो बीरा । जेहिं सुनि कै लागै पर पीरा ॥
को होइ भिउ अँगवे पर -दाहा । को सिंघल पहुँचावै चाहा ?॥
जहँवाँ कंत गए होइ जोगी । हौं किंगरी भइ झूरि बियोगी ॥
वै सिंगी पूरी, गुरु भेंटा । हौं भइ भसम, न आइ समेटा ॥
कथा जो कहै आइ ओहि केरी । पाँवर होउँ, जनम भरि चेरी ॥
ओहि के गुन सँवरत भइ माला । अबहुँ न बहुरा उडिगा छाला ॥
बिरह गुरू, खप्पर कै हीया । पवन अधार रहै सो जीया ॥
हाड भए सब किंगी, नसैं भई सब ताँति ।
रोवँ रोवँ तें धुनि उठैं, कहौं बिथा केहि भाँति ? ॥2॥
पदमावति सौं कहेहु, बिहंगम । कंत लोभाइ रही करि संगम ॥
तू घर घरनि भई पिउ-हरता । मोहि तन दीन्हेसि जप औ बरता ॥
रावट कनक सो तोकहँ भएऊ । रावट लंक मोहिं कै गएऊ ॥
तोहि चैन सुख मिलै सरीरा । मो कहँ हिये दुंद दुख पूरा ॥
हमहुँ बियाही संग ओहि पीऊ । आपुहि पाइ जानु पर-जीऊ ॥
अबहुँ मया करु, करु जिउ फेरा । मोहिं जियाउ कंत देइ मेरा ॥
मोहिं भोग सौं काज न बारी । सौंह दीठि कै चाहनहरी ॥
सवति न होहि तू बैरिनि, मोर कंत जेहहि हाथ ।
आनि मिलाव एक बेर, तोर पाँय मोर माथ ॥3॥
रतनसेन कै माइ सुरसती । गोपीचंद जसि मैनावती ॥
आँधरि बूढि होइ दुख रोवा । जीवन रतन कहाँ दहुँ खोवा ॥
जीवन अहा लीन्ह सो काढी । भइ विनु टेक, करै को ठाढी ?॥
बिनु जीवन भइ आस पराई । कहाँ सो पूत खंभ होइ आई ॥
नैन दीठ नहिं दिया बराहीं । घर अँधियार पूत जौ नाहीं ॥
को रे चलै सरवन के ठाँऊ । टेक देह औ टेकै पाऊँ ॥
तुम सरवन होइ काँवरि सजा । डार लाइ अब काहे तजा ?॥
"सरवन! सरवन!" ररि मुई माता काँवरि लागि ।
तुम्ह बिनु पानि न पावैं, दसरथ लावै आगि ॥4॥
लेइ सो सँदेश बिहंगम चला । उठी आगि सगरौं सिंगला ॥
बिरह-बजागि बीच को ठेघा ?। धूम सो उठा साम भए मेघा ॥
भरिगा गगन लूक अस छूटे । होइ सब नखत आइ भुइँ टूटे ॥
जहँ जहँ भूमि जरी भा रेहू । बिरह के दाघ भई जनु खेहू ॥
राहु केतु, जब लंका जारी । चिनगो उडी चाँद महँ परी ॥
जाइ बिहंगम समुद डफारा । जरे मच्छ पानी भा खारा ॥
दाधे बन बीहड, जड, सीपा । जाइ निअर भा सिंघलदीपा ॥
समुद तीर एक तरिवर, जाइ बैठ तेहि रूख ।
जौ लगि कहा सदेस नहि, नहिं पियास, नहिं भूख ॥5॥
रतनसेन बन करत अहेरा । कीन्ह ओही तरिवर-तर फेरा ॥
सीतल बिरिछ समुद के तीरा । अति उतंग ओ छाँह गँभीरा ॥
तुरय बाँधि कै बैठ अकेला । साथी और करहिं सब खेला ॥
देखत फिरै सो तरिवर-साखा । लाग सुनै पंखिन्ह कै भाखा ॥
पंखिन महँ सो बिहंगम अहा । नागमती जासौं दुख कहा ॥
पूछहिं सबै बिहंगम नामा । अहौ मीत! काहै तुम सामा ?॥
कहेसि "मीत! मासक दुइ भए । जंबूदीप तहाँ हम गए ॥
नगर एक हम देखा, गढ चितउर ओहि नाँव ।
सो दुख कहौं कहाँ लगि, हम दाढे तेहिं ठावँ ॥6॥
जोगी होइ निसरा सो राजा । सून नगर जानहु धुंध बाजा ॥
नागमती है ताकरि रानी । जरी बिरह, भइ कोइल-बानी ॥
अब लगि जरि भइ होइहि छारा । कही न जाइ बिरह कै झारा ॥
हिया फाट वहव जबहिं कूकी । परै आँसु सब होइ होइ लूकी ॥
चहूँ खंड छिटकी वह आगी । धरती जरति गगन कहँ लागी ॥
बिरह-दवा को जरत बुझावा ?। जेहि लागै सो सौंहैं धावा ॥
हौं पुनि तहाँ सो दाढै लागा । तन भा साम, जीउ लेइ भागा ॥
का तुम हँसहु गरब कै, करहु समुद महँ केलि ।
मति ओहि बिरहा बस परै, दहै अगिनि जो मेलि"॥7॥
सुनि चितउर-राजा मन गुना । बिदि-सँदेस मैं कासौं सुना ॥
को तरिवरि पर पंखि-बेखा । नागमति कर कहै सँदेसा ?॥
को तुँ मीत मन-चित्त-बसेरु । देव कि दानव पवन पखेरू ?॥
ब्रह्म बिस्नु बाचा है तोही । सो निज बात कहै तू मोही ॥
कहाँ सो नागमती तैं देखी ।कहेसि बिरह जस मनहिं बिसेखी ॥
हौं सोई राजा भा जोगी । जेहि कारन वह ऐसि बियोगी ॥
जस तूँ पंखि महूँ दिन भरौं । चाहौं कबहि जाइ उडि परौं ॥
पंखि! आँखि तेहि मारग लागी सदा रहाहिं ।
कोइ न सँदेसी आवहिं, तेहि क सँदेश कहाँहिं ॥8॥
पूछसि कहा सँदेस-बियोगू । जोगी भए न जानसि भोगू ॥
दहिने संख न सिंगी पूरै । बाएँ पूरि राति दिन झूरै ॥
तेलि बैल जस बावँ फिराई । परा भँवर महँ सो न तिराई ॥
तुरय, नाव, दहिने रथ हाँका । बाएँ फिरै कोहाँर क चाका ॥
तोहिं अस नाहीं पंखि भुलाना । उडे सो आव जगत महँ जाना ॥
एक दीप का आएउँ तोरे । सब संसार पाँय-तर मोरे ॥
दहिने फिरै सो अस उजियारा । जस जग चाँद सुरुज मनियारा ॥
मुहमद बाईं दिसि तजा, एक स्रवन, एक आँखि ।
जब तें दाहिन होइ मिला बोल पपीहा पाँखि ॥9॥
हौं धुव अचल सौं दाहिनि लावा । फिर सुमरु चितुउर-गढ आवा ॥
देखेउँ तोरे मँदिर घमोई । मातु तोहि आँधरि भइ रोई ॥
जस सरवन बिनु अंधी अंधा । तस ररि मुई, तोहि चित बँधा ॥
कहेसि मरौं, को काँवरि लेइ ?। पूत नाहिं, पानी को तेई ?॥
गई पियास लागि तेहि साथा । पानि दीन्ह दशरथ के हाथा ॥
पानि न पिये, आगि पै चाहा । तोहि अस सुत जनमे अस लाहा ॥
होइ भगीरथ करु तहँ फेरा । जाहि सवार, मरन कै बेरा ॥
तू सपूत माता कर , अस परदेस न लेहि ।
अब ताईं मुइ होइहि, मुए जाइ गति तेहि ॥10॥
नागमति दुख बिरह अपारा । धरती सरग जरै तेहि झारा ॥
नगर कोट घर बाहर सूना । नौजि होइ घर पुरुष-बिहूना ॥
तू काँवरू परा बस टोना । भूला जोग, छरा तोहि लोना ॥
वह तोहि कारन मरि भइ छारा । रही नाग होइ पवन अधारा ॥
कहुँ बोलहि `मो कहँ लेइ खाहू'। माँसु न, काया रचै जो काहू ॥
बिरह मयूर, नाग वह नारी । तू मजार करु बेगि गोहारी ॥
माँसु गिरा, पाँजर होइ परी । जोगी ! अबहुँ पहुँचु लेइ जरी ॥
देखि बिरह-दुख ताकर मैं सो तजा बनवास ।
आएउँ भागि समुद्रतट तबहुँ न छाडै पास ॥11॥
अस परजरा बिरह कर गठा । मेघ साम भए धूम जो उठा ॥
दाढा राहु, केतु गा दाधा । सूरज जरा, चाँद जरि आधा ॥
औ सब नखत तराईं जरहीं । टूटहिं लूक धरति महँ परहीं ॥
जरै सो धरती ठावहिं ठाऊँ । दहकि पलास जरै तेहि दाऊ ॥
बिरह-साँस तस निकसै झारा । दहि दहि परबत होहिं अँगारा ॥
भँवर पतंग जरैं औ नागा । कोइल, भुजइल, डोमा कागा ॥
बन-पंखी सब जिउ लेइ उडे । जल महँ मच्छ दुखी होइ बुडे ॥
महूँ जरत तहँ निकसा, समुद बुझाएउँ आइ ।
समुद, पान जरि खार भा, धुँआ रहा जग छाइ ॥12॥
राजै कहा, रे सरग सँदेसी । उतरि आउ, मोहिं मिलु, रे बिदसी ॥
पाय टेकि तोहि लायौं हियरे । प्रेम-सँदेस कहहु होइ नियरे ॥
कहा बिहंगम जो बनवासी । "कित गिरही तें होइ उदासी ?॥
"जेहि तरवर-तर तुम अस कोऊ । कोकिल काग बराबर दोऊ ॥
"धरती महँ विष-चारा परा । हारिल जानि भूमि परिहरा ॥
"फिरौं बियोगी डारहि डारा । करौं चलै कहँ पंख सँवारा ॥
"जियै क घरी घटति निति जाहीं । साँझहिं जीउ रहै, दिन नाहीं ॥
जौ लहि फिरौं मुकुत होइ परौं न पींजर माँह ।
जाउ बेगि थल आपने, है जेहि बीच निबाह"" ॥13॥
कहि संदेस बिहंगम चला । आगि लागि सगरौं सिघला ॥
घरी एक राजा गोहराबा । भा अलोप, पुनि दिस्टि न आवा ॥
पंखी नावँ न देखा पाँखा । राजा होइ फिरा कै साँखा ॥
जस हैरत वह पंखि हेराना । दिन एक हमहूँ करब पयाना ॥
जौ लगि प्रान पिंड एक ठाऊँ । एक बार चितउर गढ जाऊँ ॥
आवा भँवर मंदिर महँ केवा । जीउ साथ लेइ गएउ परेवा ॥
तन सिंघल, मन चितउर बसा । जिउ बिसँभर नागिनि जिमि डसा ॥
जेति नारि हँसि पूछहिं अमिय-बचन जिउ-तंत ।
रस उतरा, बिष चढि रहा, ना ओहि तंत न मंत ॥14॥
बरिस एक तेहि सिंगल भएऊ । भौग बिलास करत दिन गयऊ ॥
भा उदास जौ सुना सँदेसू । सँवरि चला मन चितउर देसू ॥
कँवल उदास जो देखा भँवरा । थिर न रहै अब मालति सँवरा ॥
जोगी, भवरा, पवन परावा । कित सो रहै जो चित्त उठावा ?॥
जौं पै काढ देइ जिउ कोई । जोगी भँवर न आपन होई ॥
तजा कवल मालति हिय घाली । अब कित थिर आछै अलि , आली ॥
गंध्रबसेन आव सुनि बारा । कस जिउ भएउ उदास तुम्हारा ?॥
मैं तुम्हही जिउ लावा, दीन्ह नैन महँ बास ।
जौ तुम होहु उदास तौ यह काकर कबिलास ? ॥15॥
(1) कारन कै = करुणा करके (अवध) तब हुँत = तब से । टेक = ऊपर लेता है ।
(2) बीरा = भाई । भिउँ = भीम । अँगवै = अंग पर सहे । चाहा = खबर । पाँवरि = जूती ।
(3) घर = अपने घर में ही । घरनि = घर वाली, गृहिणी । रावट = महल । लंक =जलती हुई लंका । चाहनहारी = देखनेवाली ।
(4) खंभ = सहारा । बराहीं जलते हैं । सरवन = `श्रमणकुमार' जिसकी कथा उत्तरापथ में घर घर प्रसिद्ध है । काँवरि = बाँस के डंडे के दोनों छोरों पर बँधे हुए झाबे, जिनमे तीर्थयात्री लोग गंगाजल आदि लेकर चला करते हैं । (सरवन अपने माता = पिता को काँवरि में बैठाकर ढोया करते थे )। ठेघा = टिका, ठहरा । डफारा = चिल्लाया ।
(7) धुँध बाजा = धुंध या अंधकार छाया । बानी = वर्ण की । भइ होइहि = हुई होगी । झार = ज्वाला । लूकी = लुक । दवा = दावाग्नि ।
(8) बसेरू = वसनेवाला । दिन भरौं = दिन बिताता हूँ । महूँ = मैं भी ।
(9) दहिने संख = दक्षिणावर्त शंख नहीं फूँकता । झूरै = सूखता है । तिराई = पानी के ऊपर आता है । तोहिं अस...भुलाना = पक्षी तेरे ऐसा नहीं भूले हैं, वे जानते हैं कि हम उडने के लिए इस संसार में आए हैं । मनियार = रौनक, चमकता हुआ । मुहमद बाँई...आँखि = मुम्मद कवि ने बाईं ओर आँख और कान करना छोड दिया (जायसी काने थे भी) अर्थात् वाम मार्ग छोडकर दक्षिण मार्ग का अनुसरण किया । बोल = कहलाता है ।
(10) दाहिन लावा = प्रदक्षिणा की । घमोई = सत्यानासी या भँडभाँढ नामक कंटीला पौधा जो खंडहरों या उजडे मकानों में प्रायः उगता है । सबार = जल्दी ।
(11) नौजि = न, ईश्वर न करे (अवध) । काँवरू =कामरूप में जो जादू के लिये प्रसिद्ध है । लोना = लोना चमारी जो जादू में एक थी । मजार = बिल्ली । जरी = जडी-बूटी ।
(12) परजरा = प्रज्वलित हुआ, जला । गठा = गट्ठा, ढेर । दाऊँ = दवाग्नि । भुजइल = भुजंगा नाम का काला पक्षी । डोमा कागा = बडा कौवा जो सर्वांग काला होता है । सरग सँदेसी = स्वर्ग से (ऊपर से) सँदेसा कहनेवाला । गिरही = गृह । हारिल...परिहरा = कहते हैं, हारिल भूमि पर पैर नहीं रखता; चंगुल में सदा लकडी लिए रहता है जिससे पैर भूमि पर पैर न पडे । चलै कहँ = चलने के लिए ।
(14) गोहरावा = पुकारा । साँखा =शंका, चिंता । पिंड = शरीर । मंदिर महँ केवा = कमल (पद्मावती) के घर में । बिसँभर = बेसँभाल, सुध-बुध भूला हुआ । जेति नारि = जितनी स्त्रियाँ हैं सब जिउ तंत = जी की बात (तत्त्व) ।
(15) परावा = पराए, अपने नहीं । चित्त उठावा = जाने का संकल्प या विचार किया । हिय घाली = हृदय में लाकर ।
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