Monday, July 18, 2022

बिहारी सतसई (छठा शतक) | बिहारी | Bihari Satsai / Chatha Shatak | Bihari



 (सो.) आठौ जाम अछेह, दृग जु बरत बरसत रहत।

स्यौं बिजुरी ज्यौं मेह, आनि यहाँ बिरहा धर्‌यौ॥501॥


जाम = पहर। अछेह = निरंतर, सदा। जु = जो। बरत = जलती है। स्यौं = सहित। ज्यौं = जैसे, मानो। मेह = मेघ। आनि घर्‌यौ = ला रक्खा।


आठों पहर सदा आँखें जो जलती और बरसती रहती हैं-व्याकुल बनी रहतीं और आँसुओं की झड़ी लगाये रहती हैं, (सो ऐसा मालूम होता है कि) मानो बिजली-सहित मेघ को विरह ने यहाँ (आँखों में) ला रक्खा है।



बिरह-बिपति-दिनु परत हीं तजे सुखनु सब अंग।

रहि अब लौंऽब दुखौ भए चलाचली जिय संग॥502॥


रहि अब लौंऽब = रहि अब लौं अब = अब तक रहकर अब। दुखौ = दुःख भी। चलाचली भए = चलने को तैयार हुए।


बिरह-रूपी विपत्ति के दिन आते ही सब सुखों ने मेरे शरीर को छोड़ दिया था। (बचा था केवल दुःख, सो) अब तक रहकर, अब दुःख भी जीवन के साथ-ही-साथ चलने की तैयारी करने लगा।



नयैं विरह बढ़ती बिथा खरी विकल जिय बाल।

बिलखी देखि परोसिन्यौ हरखि हँसी तिहिं काल॥503॥


बिथा = व्यथा, पीड़ा। बिलखी = व्याकुल हुई।


नये वियोग की बढ़ती हुई व्यथा से उस बाला का हृदय अत्यन्त विकल था। किन्तु इतने में पड़ोसिन को भी व्याकुल देख (यह समझकर कि इसे भी मेरे पति से गुप्त प्रेम था, अतएव अब यह भी दुःख भोगेगी, ईर्ष्या से वह तत्काल ही हर्षित होकर हँसने लगी।)


छतौ नेहु कागद-हियैं भई लखाइ न टाँकु।

बिरह तचैं उघज्यौ सु अब सेहुँड़ कै सो आँकु॥504॥


छतौ = अछतौ = था। लखाइ न भई = दीख नहीं पड़ी। टाँकु = लिखावट। तचैं = तपाये जाने पर। सेहुँड़ कै सो आँकु = सेंहुड़ के दूध से लिखे गये अक्षर के समान, जो कि आग पर तपाये बिना दीख नहीं पड़ते।


कागज-रूपी हृदय पर प्रेम (लिखा हुआ) था, किन्तु उसकी लिखावट दिखाई नहीं पड़ती थी, सो अब सेंहुड़ के दूध से लिखे हुए अक्षर के समान वह विरह (रूपी आग) से तपाये जाने पर (स्पष्ट) प्रकट हो गया।


करके मीड़े कुसुम लौं गई बिरह कुम्हिलाइ।

सदा समीपिनि सखिनु हूँ नीठि पिछानी जाइ॥505॥


मीड़े = मसले या मीजे हुए। कुसुम = कोमल फूल। समीपिनि = निकट रहनेवाली। नीठि = मुश्किल से। पिछानी = पहचानी।


हाथ से मसले हुए फूल के समान विरह से कुम्हला गई है। सदा निकट रहनेवाली सखियों से भी मुश्किल से पहचानी जाती है। (अत्यन्त दुर्बलता के कारण चिरसंगिनी सखियाँ भी नहीं पहचानतीं!)


लाल तुम्हारे बिरह की अगिनि अनूप अपार।

सरसै बरसै नीर हूँ झर हूँ मिटै न झार॥506॥


अनूप = जिसकी उपमा (बराबरी) न हो, अनुपम। अपार = जिसका पार (अन्त) न हो। सरसै = सरसता है, प्रज्वलित होता है। झर = झड़ी लगना। झार = ज्वाला।


हे लाल! तुम्हारे विरह की आग अनुपम और अपरम्पार है। पानी बरसने पर (वर्षा होने पर) भी प्रज्वलित होती है, और झड़ी लगने पर (आँसुओं के गिरने पर) भी उसकी ज्वाला नहीं मिटती।


नोट - विरहिणी बेचारी को वर्षा से अधिक कष्ट होता है!

पजरै नीर गुलाब कैं पिय की बात बुझाइ॥507॥


औरै कछू = कुछ विचित्र ही। लाइ = आग। पजरै = प्रज्वलित होना। बात = (1) वचन (2) हवा, अथवा मुँह की सुगंधित साँस।


इसके हृदय में कुछ विचित्र विरह की आग लग गई है, जो गुलाब के पानी से तो प्रज्वलित हो जाती है, और प्रीतम की ‘बात’ से बुझ जाती है।


नोट - पानी से जलना और हवा से बुझ जाना निस्संदेह विचित्रता है।


मरी डरो कि टरी बिथा कहा खरी चलि चाहि।

रही कराहि-कराहि अति अब मुँहु आहि न आहि॥508॥


खरी = खड़ी। चाहि = देखो। आहि = आह। न आहि = नहीं है।


(हे सखी!) क्या खड़ी हो, चलकर देखो तो कि वह मर गई है कि डर गई है कि उसकी पीड़ा टल गई (जो वह चुप हो रही है)। अब तक तो वह अत्यन्त कराह रही थी, किन्तु अब मुख में आह भी नहीं है- आह भी नहीं सुन पड़ती है।


कहा भयौ जो बीछुरे सो मनु तो मनु साथ।

उड़ी जाउ कितहूँ गुड़ी तऊ उड़ाइक हाथ॥509॥


बीछुरे = बिछुड़ गये। मो = मेरा। तो = तेरा। कितहूँ = कहीं भी। गुड़ी = गुड्डी, पतंग। तऊ = तो भी। उड़ाइक = उड़ानेवाला, खेलाड़ी।


यदि बिछुड़ ही गये, तो क्या हुआ? मेरा मन तो तुम्हारे मन के साथ है। गुड्डी कहीं भी ड़कर जाती है, तो भी वह उड़ानेवाले (खेलाड़ी) ही के हाथ में रहती है-जब उड़ानेवाला चाहता है, उसकी डोर खींचकर निकट ले आता है। (उसी प्रकार तुम्हें भी मैं, जब चाहूँगी, अपनी प्रेम-डोर से अपनी ओर खींच लूँगी।)



जब जब वै सुधि कीजियै तब सब ही सुधि जाहिं।

आँखिनु आँखि लगी रहै आँखैं लागति नाहिं॥510॥


आँखैं लागति नाहिं = आँखें नहीं लगतीं = नींद नहीं आती।


जब-जब उन बातों की याद आती है, तब-तब सभी सुधि जाती रहती है-बिसर जाती है। उनकी आँखें मेरी आँखों से लगी रहती हैं, इसलिए मेरी आँखें भी नहीं लगतीं-मुझे नींद भी नहीं आती।


कौन सुनै कासौं कहौं सुरति बिसारी नाह।

बदाबदी ज्यौ लेत हैं ए बदरा बदराह॥511॥


सुरति = स्मृति, याद, सुधि। बदाबदी = शर्त बाँधकर। ज्यौ लेत हैं = जान मारते हैं। बदरा = बादल। बदराह = कुमार्गी, बदमाश।


कौन सुनता है, किससे कहूँ। प्रीतम ने सुधि भुला दी। ये बदमाश बादल बाजी लगाकर जान ले रहे हैं-शर्त लगाकर प्राण लेने पर तुले हैं (इनसे रक्षा कौन करे?)


औरै भाँति भएऽब ए चौसरु चंदनु चंदु।

पति बिनु अति पारतु बिपति मारतु मारुत मंदु॥512॥


भएऽब = भये अब, अब हुए। चौसरु = चार लड़ियों की मोती-माला। चंदनु = श्रीखण्ड। बिपति पारतु = दुःख देते हैं। मारुत = हवा।


मोती की चौलरी, चंदन और चन्द्रमा, ये सब अब और ही भाँति के हो गये-कुछ विचित्र-से हो गये। प्रीतम के बिना ये सब अत्यन्त दुःख देते हैं और मंद-मंद हवा तो मारे ही डालती है।


नैंकु न झुरसी-बिरह-झर नेह-लता कुम्हिलाति।

नित-नित होति हरी-हरी खरी झालरति जाति॥513॥


नैंकु = जरा, तनिक। झुरसी = झुलसकर। झर = ज्वाला, लपट। खरी = अधिक, खूब। झालरति = फैलती या सघन पल्लवों से भरी जाती है।


प्रेम-रूपी लतिका विरह की ज्वाला से झुलसकर तनिक भी नहीं कुम्हिलाती, वरन् नित्य-प्रति हरी-भरी होती और खूब फूलती-फैलती जाती है।


यह बिनसतु नगु राखिकै जगत बड़ौ जसु लेहु।

जरो बिषम जहुर ज्याइयैं आइ सुदरसनु देहु॥514॥


नगु = रत्न। विषम जुर = (1) कठिन ज्वाला (2) विषम ज्वर, तपेदिक की बीमारी। सुदरसनु = (1) सुन्दर दर्शन (2) सुदर्शन का अर्क।


इस नष्ट होते हुए रत्न की रक्षा कर (अनमोल नायिका को मरने से बचाकर) संसार में खूब यश लूटो-यह कठिन विरह-ज्वाला (विषम-ज्वर) में जल रही है, अतः आकर सुन्दर दर्शन (सुदर्शन-रस) देकर इसे जिला दीजिए।


नोट - वैद्यक के अनुसार सुदर्शन-रस से विषम-ज्वर छूटता है।


नित संसौ हंसौ बचतु मनौ सु इहिं अनुमानु।

विरह-आगिनि लपटनु सकतु झपटि न मीचु-सचानु॥515॥


संसौ = संशय = संदेह। हंसौ = (1) प्राण को (2) हंस को। मीचु = मृत्यु। सचानु = श्येन = ‘बाज’ नामक शिकारी पक्षी।


उसके प्राण (रूपी-हंस) को बचते देख नित्य संदेह होता है (कि वह कैसे बचा?) यह अनुमान होता है कि मानो विरह रूपी आग की लपटों के कारण मृत्यु-रूपी बाज उस पर झपट नहीं सकता।


करी विरह ऐसी तऊ गैल न छाड़तु नीचु।

दीनै हूँ चसमा चखनु चाहै लहै न मीचु॥516॥


गैल छाड़तु = (गैल = राह) पीछा नहीं छोड़ती। दीनै हूँ चसमा = ऐनक देने (लगाने) पर भी। चखनु = आँखों पर। नीचु मीचु = निगोड़ी मौत।


विरह ने उसे ऐसी (दुबली-पतली) बना दिया है, तो भी नीच मृत्यु उसका पीछा नहीं छोड़ती। (दुबली-पतली) बना दिया है, तो भी नीच मृत्यु उसका पीछा नहीं छोड़ती। (किन्तु क्या करे बेचारी?) आँखों पर चश्मा चढ़ाकर भी (उसे ढूँढ़ निकालना) चाहती है, (तो भी) नहीं पाती।



मरनु भलौ बरु बिरह तैं यह निहचय करि जोइ।

मरनु मिटै दुखु एक कौ बिरह दुहूँ दुखु होइ॥517॥


मरनु = मृत्यु। बरु = बल्कि। जोइ = देखो।


यह निश्चय करके देखो कि विरह से बल्कि मृत्यु ही अच्छी है, क्योंकि मृत्यु से तो (कम से कम) एक आदमी का दुःख छूट जाता है, किन्तु विरह में (प्रेमी-पेमिका) दोनों को दुःख होता है।


बिकसित नवमल्ली-कुसुम बिकसति परिमल पाइ।

परसि पजारति बिरहि-हिय बरसि रहे की बाइ॥518॥


बिकसित = खिलते हुए। नवमल्ली = नई चमेली। कुसुम = कोमल फूल। परिमल = सुगंध। परसि = स्पर्श कर। पजारति = प्रज्वलित कर देती है। बरसि रहे की = बरसते समय की। बाइ = वायु = हवा।


जो नई चमेली के खिलते हुए फूल की सुगन्ध पाकर निकलती है, वह वर्षा होते समय की हवा, विरही के हृदय को स्पर्श कर प्रज्वलित कर देती है।


औंधाई सीसी सुलखि विरह बरनि बिललात।

बिचहीं सूखि गुलाब गौ छींटौं छुई न गात॥519॥


औंधाई = उलट (उँड़ेल) दी। बरनि = जलती हुई। बिललात = रोती-कलपती है, व्याकुल हो बक-झक करती है। छीटौं = एक छींटा भी। गात = देह।


विरह से जलती और बिललाती हुई देखकर (सखियों ने नायिका के शरीर पर गुलाब-जल की) शीशी उलट दी, (किन्तु विरह की धधकती आँच के कारण) गुलाब-जल बीच ही में सूख गया, (उसका) एक छींटा भी (विरहिणी के) शरीर को स्पर्श न कर सका।


हौं ही बौरी बिरह-बस कै बौरौ सब गाँउ।

कहा जानि ए कहत हैं ससिहिं सोत-कर नाँउ॥520॥


हौं ही = मैं ही। बौरी = पगली। ससिहिं = चन्द्रमा का। सीत-कर = शीतल किरणों वाला, शीतरश्मि, चन्द्रमा। नाँउ = नाम।


विरह के कारण मैं ही पगली हो गई हूँ, सारा सारा गाँव ही पागल हो गया है। न मालूम क्या जानकर ये लोग (ऐसे झुलसाने वाले) चन्द्रमा का नाम शीत-कर कहते हैं।


ससोवत-जागत सपन-बस रस रिस चैन कुचैन।

सुरति स्यामघन की सुरति बिसरैं हूँ बिसरै न॥521॥


रस = प्रेम। रिस = क्रोध। सुरति = सु+रति = सुन्दर प्रीति। सुरति = स्मृति, याद। बिसरैं हूँ = विस्मृत करने या भुलाने से भी।


सोते, जागते और सपने में, स्नेह, क्रोध, सुख और दुःख में-सभी अवस्थाओं और सभी भावों में-घनश्याम (श्रीकृष्ण) के प्रेम की स्मृति भुलाये नहीं भूलती।


(सो.) कौड़ा आँसू-बूँद, कसि साँकर बरुनी सजल।

कीन्हे बदन निमूँद, दृग-मलिंग डारे रहत॥522॥


कौड़ा = कौड़ियों की माला। साँकर = जंजीर। बरुनी = पपनी, पलक के बाल। सजल = अश्रुयुक्त। बदन = मुख। निमूँद = खुला हुआ। मलिंग = फकीर। डारे रहत = पड़े रहते हैं।


आँसुओं की बूँदों को कौड़ियों की माला और सजल बरुनी को (अपनी कमर की) जंजीर बनाकर सदा मुख को खोले हुए (उस विरहिणी नायिका के) नेत्र-रूपी फकीर पड़े रहते हैं-डेरा डाले रहते हैं।


नोट - ‘मलिंग’ फकीर हाथों में कौड़ियों की माला रखते और कमर में लोहे की जंजीर पहनते हैं तथा सदा मुख खोले कुछ-न-कुछ जपते रहते हैं। विरहिणी के आँसू टपकाते और टकटकी लगाये हुए नेत्रों से यहाँ रूपक बाँधा गया है। ‘देव’ कवि ने शायद इसी सोरठे के आधार पर यह कल्पना की है-


”बरुनी बघम्बर में गूदरी पलक दोऊ कोये राते बसन भगोहैं भेख रखियाँ।

बूड़ी जल ही में दिन जामनी रहति भौंहैं घूम सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ॥

आँसू ज्यौं फटिक माल लाल डोरे सेल्ही सजि भई है अकेली तजि चेली सँग सखियाँ।

दीजिये दरस ‘देव’ लीजिये सँजोगनि कै जोगिन ह्वै बैठी हैं बिजोगिन की अँखियाँ॥“


जिहिं निदाघ-दुपहर रहै भई माह की राति।

तिहिं उसीर की रावटी खरी आवटी जाति॥523॥


निदाघ = ग्रीष्म, जेठ-बैसाख। माह = माघ। उसीर = खस। रावटी = छोलदारी। खरी = अत्यन्त। आवटी जाति = औंटी जाती या संतप्त हो रही है।


जिस (रावटी) में ग्रीष्म की (जलती हुई) दुपहरी भी माघ की (अत्यन्त शीतल) रात-सी हुई रहती है, उस खस की रावटी में भी (यह विरहिणी नायिका विरह-ज्वाला से) अत्यन्त संतप्त हो रही है।


तच्यौ आँच अब बिरह की रह्यौ प्रेमरस भीजि।

नैननु कै मग जल बहै हियौ पसीजि-पसीजि॥524॥


तच्यौ = तपाया जाना, जलना। बिरह = वियोग। प्रेमरस (1) प्रेम का रस (2) प्रेम का जल।


(नायिका का हृदय) प्रेम के रस से भीजा हुआ था, और अब विरह की आँच में जल रहा है। (इसी कारण) हृदय पसीज-पसीजकर नेत्र के रास्ते से जल बह रहा है।


नोट - यह बड़ा सुन्दर रूपक है। हृदय (प्रेम-रूपी) पानी से भरा बर्तन है, विरह आँच है, आँखें नली हैं, आँसू अर्क है। अर्क चुलाने के लिए एक बर्तन में दवाइयाँ और पानी रख देते हैं। नीचे से आँच लगाते हैं। बर्तन में लगी हुई नली द्वारा अर्क चूता है। विरहिणी मानो साक्षात् रसायनशाला है।


स्याम सुरति करि राधिका तकति तरनिजा-ती/।

अँसुवनु करति तरौंस कौ खिनकु खरौंहौं नीरु॥525॥


सुरति = याद। तरनिजा = तरणि+जा = सूर्य की पुत्री, यमुना। तरौंस = तलछट। खिनकु = एक क्षण। खरौंहौं = खारा, नमकीन।


श्रीश्याम सुन्दर की याद कर (विरहिणी) राधिका (श्यामला) यमुना के तीर को देखती है और, आँसुओं (के प्रवाह) से एक क्षण में ही उसके गर्भस्थ जल को भी नमकीन बना देती हैं-(उसके नमकीन आँसुओं के मिलने से यमुना का तलछट-निचली तह-का पानी भी नमकीन हो जाता है।)


गोपिनु कैं अँसुवनु भरी सदा असोस अपार।

डगर-डगर नै ह्वै रही बगर-बगर कैं बार॥526॥


असोस = अशोष्य, जो कभी न सूखे। अपार = अगाध, अलंघनीय। डगर = गली। नै = नदी। बगर = घर। बार = द्वार, दरवाजा।


गोपियों के आँसुओं से भरी, कभी न सूखनेवाली और अपार नदियाँ (ब्रजमंडल के) घर-घर के द्वार पर और गली-गली में (प्रवाहित) हो रही है-(कृष्ण के विरह में गोपियाँ इतना रोती हैं कि व्रज की गली-गली में आँसुओं की नदियाँ बहती हैं।)



बन-बाटनु पिक-बटपरा तकि बिरहिन मतु मैन।

कुहौ-कुहौ कहि-कहि उठैं करि-करि राते नैन॥527॥


बाटनु = रास्ते में। पिक = कोयल। बटपरा = बटमार, लुटेरा, डाकू। मैनमतु = कामदेव की सलाह से। कुहौ-कुहौ =(1) कुहू-कुहू (2) मारो-मारो। राते = रक्त = लाल।


वन के रास्तों में कोयल-रूपी डाकू विरहिणियों को देख कामदेव की सम्मति से आँखें लाल-लाल कर ‘कुहौ-कुहौ’ (मारो-मारो) कह उठता है।


दिसि-दिसि कुसुमित देखियत उपवन बिपिन समाज।

मनो बियोगिनु कौं कियौ सर-पंजर रतिराज॥528॥


कुसुमित = फूले हुए। उपवन = फुलवारी। बिपिन = जंगल। समाज = समूह। सर-पंजर = बाणों का पिंजड़ा। रतिराज = कामदेव।


प्रत्येक दिशा में फुलवारियों और जंगलों के समूह फूले हुए दीख पड़ते हैं, मानो वियोगिनियों के लिए कामदेव ने बाणों का पिंजड़ा तैयार किया है- (ये चारों ओर के फूल विरहिणियों के हृदय को विदीर्ण करने में बाणों का काम देते हैं)।


नोट - कामदेव के बाण पुष्प के होते हैं। इसलिए चारों ओर खिले हुए पुष्प-पुंज को कामदेव का शर-पंजर कहा है। जैसे बाणों के पिंजड़े में कैदी जिधर देखेगा उधर ही चोखी-तीखी नोकें दीख पड़ेंगी, वैसे ही चारों ओर फूले हुए फूल विरहिणी की दृष्टि में चुभते हैं-दिल में खटकते हैं।


ही औरै-सी ह्वै गई टरी औधि कैं नाम।

दूजै कै डारी खरी बौरी बौरैं आम॥529॥


ही = हृदय। औधि = वादा, आने की तारीख। दूजैं = दूसरे। खरी = अधिक, पूरी। बौरी = पगली। बौरै = मँजराये हुए।


(एक तो) टली हुई अवधि के नाम से ही (यह सुनते ही कि प्रीतम अपने किये हुए वादे पर नहीं आयँगे) उसका हृदय कुछ और ही प्रकार का (उन्मना) हो गया था, दूसरे इन मँजराये हुए आमों ने उसे पूरी पगली बना डाला- (आम की मंजरी देखते ही वह एकदम पगली हो गई)।


भौ यह ऐसौई समौ जहाँ सुखद दुखु देत।

चैत-चाँद की चाँदनी डारति किए अचेत॥530॥


भौ = हो गया। ऐसौई = ऐसा ही। समौ = समय, जमाना। अचेत किए डारत = बेहोश किये डालती है।


यह ऐसा ही (बुरा) समय आ गया है कि जहाँ सुख देने वाला भी दुःख ही देता है। (देखो न, सखी!) चैत के चन्द्रमा की (सुखद) चाँदनी भी (इस विरहावस्था में) बेहोश किये डालती है।



गिनती गनिबे तैं रहे छत हूँ अछत समान।

अब अलि ए तिथि औम लौं परै रहै तन प्रान॥531॥


छत = रहना। अछत = न रहना। अलि = सखी। औम तिथि = अवम तिथि = क्षय-तिथि-चन्द्रमा के अनुसार महीने की गिनती करने से बीच-बीच में कितनी तिथियों की हानि हो जाती है, और लुप्त होने पर भी वे पत्रा में लिखी जाती हैं, पर उनकी गणना नहीं होती।


(मेरे प्राण) गिनती में गिने जाने से भी रहे-अब कोई इनकी (जीवित में) गिनती भी नहीं करता। रहते हुए भी न रहने के समान हो रहे हैं। हे सखी, अब ये मेरे प्राण क्षय-तिथि के समान शरीर में पड़े रहते हैं।


जाति मरी बिछुरति घरी जल-सफरी की रीति।

खिन-खिन होति खरी-खरी अरी जरी यह प्रीति॥532॥


सफरी = मछली। रीति = भाँति, समान। खरी-खरी होति = बढ़ती जाती है। जरी = जली हुई, मुँहजली। खिन-खिन = क्षण-क्षण।


जल की मछली के समान एक घड़ी भी (प्रियतम से) बिछुड़ने पर मरी जाती हूँ। अरी सखी! तो भी यह मुँहजली प्रीति ऐसी है कि क्षण-क्षण बढ़ती ही जाती है।


मार सु मार करी खरी मरी मरीहिं न मारि।

सोंचि गुलाब घरो-घरी अरी बरीहिं न बारि॥533॥


मार = कामदेव। सु मार = गहरी मार या चोट। खरी = अत्यन्त, खूब। मरी = मर गई। मरीहिं = मरी हुई को। मारि = मारो। बरीहिं = जली हुई को। बारि = जलाओ।


कामदेव ने तो खूब ही गहरी मार मारी है, (जिससे) मैं मर गई हूँ, (अब फिर) मरी हुई को मत मार। अरी सखी! घड़ी-घड़ी गुलाब-जल छिड़ककर, (विरह में) जली हुई को मत जला।


रह्यौ ऐंचि अंत न लह्यौ अवधि दुसासन बी/।

आली बाढ़तु बिरहु ज्यौं पंचाली कौ चीरु॥534॥


ऐंचि = खींचना। अंत न लह्यौ = अन्त (छोर) न पाया, पार न पाया। अवधि = वादे का दिन, निश्चित तिथि। आली = सखी। पंचाली = द्रौपदी।


(प्रीतम के आने का) निश्चित समय-रूपी दुःशासन-वीर (विरह-रूपी दीर्घ चीर को) खींचता ही रह गया, किन्तु पार न पाया। अरी सखी! यह विरह द्रौपदी के चीर के समान बढ़ रहा है।


नोट - जिस प्रकार द्रौपदी के चीर को दुःशासन खींचता रह गया और छोर न पा सका, उसी प्रकार प्रीतम के आने का निश्चित दिन प्रिया के विरह को शांत न कर सका। अर्थात् प्रीततम के आने का दिन ज्यों-ज्यों निकट आता है, त्यों-त्यों विरहिणी की व्यथा बढ़ रही है।


बिरह-बिथा-जल परस बिन बसियतु मो मन-ताल।

कछु जानत जलथंभ-बिधि दुरजोधन लौं लाल॥535॥


बिथा = व्यथा, दुःख। परस = स्पर्श। ताल = तालाब। लौं = समान।


बिरह के दुःख रूपी जल के स्पर्श बिना मेरे मन-रूपी तालाब में बसते हो-यद्यपि सदा मैं तुम्हें हृदय में धारण किये रहती हूँ, तथापित मेरी हार्दिक व्यथा का तुम अनुभव नहीं करते। (सो मालूम होता है कि) हे लाल! तुम दुर्योधन के समान कुछ जल-स्तम्भन-विधि जानते हो।


नोट - दुर्योधन जलस्तम्भन-विधि जानता था। अगाध जल में घुसकर बैठ रहता था, किन्तु उस पर जल का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था।


सोवत सपनैं स्यामघनु हिलि-मिलि हरत बियोगु।

तबहीं टरि कित हूँ गई नींदौ नींदनु जोगु॥536॥


नींदौ = नींद भी। नींदन जोगु = निन्दा करने के योग्य, निन्दनीय।


सोते समय स्वप्न में श्रीकृष्ण हिल-मिलकर विरह हर रहे थे-विछोह के दुःख का नाश कर रहे थे। उसी समय निंदनीय नींद भी न मालूम कहाँ टल गई।


पिय-बिछुरन कौ दुसह दुखु हरपु जात प्यौसार।

दुरजोधन लौं देखियति तजति प्रान इहि बार॥537॥


प्यौसार = नैहर, मायका, पीहर। लौं = समान।


यद्यपि प्रीतम से बिछुड़ने का असह्य दुःख है, तथापि प्रसन्न होकर नैहर जाती है। (इस अत्यन्त दुःख और अत्यन्त सुख के सम्मिश्रण से) यह बाला दुर्योधन के समान प्राण त्यागती हुई दीख पड़ती है-(मालूम होता है कि इस आत्यन्तिक सुख-दुःख के झमेले में इसके प्राण ही निकल जायँगे।)


नोट - दुर्योधन को शाप था कि जब उसे समान भाव से सुख और दुःख होगा, तभी वह मरेगा। ऐसा ही हुआ भी। दुर्योधन के आदेशानुसार अश्वत्थामा पाण्डवों के भ्रम से उनके पुत्रों के सिर काट लाया। पहले शत्रु-वध-जनित अतिशय आनन्द हुआ, फिर सिर पहचानने पर समूल वंशनाश जानकर घोर दुःख।


कागद पर लिखत न बनत कहत सँदेसु लजात।

कहिहै सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात॥538॥


कागद = कागज। हियौ = हृदय।


कागज पर लिख्तो नहीं बनता-लिखा नहीं जाता, और (जवानी) संदेश कहते लज्जा आती है। बस तुम्हारा हृदय ही मेरे हृदय की सारी बातें (तुमसे) कहेगा।



बिरह-बिकल बिनु ही लिखी पाती दई पठाइ।

आँक-बिहूनीयौ सुचित सूनै बाँचत जाइ॥539॥


आँक-बिहूनीयौ = अक्षर-विहीन होने पर भी। सुचित = स्थिरचित होकर, अच्छी तरह से। सूनै = खाली-ही-खाली। बाँचत जाइ = पढ़ता जाता है।


विरह व्यथिता (बाला ने) बिना लिखे ही (सादे कागज के रूप में) चिट्ठी पठा दी। (और इधर प्रेम-मत्त प्रीतम) उस अक्षर-रहित (चिट्ठी) को भी अच्छी तरह से खाली-ही-खाली पढ़ता जाता है।


रँगराती रातैं हियैं प्रियतम लिखी बनाइ।

पाती काती बिरह की छाती रही लगाइ॥540॥


रँगराती = लाल रंग में रँगी। रातैं हियैं = प्रेमपूर्ण (अनुरक्त) हृदय। पाती = चिट्ठी। काती = छोटी तेज तलवार, कत्ती।


प्रेमपूर्ण हृदय से प्रीतम ने लाल रंग में (लाल स्याही से) रच-रचकर चिट्ठी लिखी, और विरह को काटनेवाली तलवार समझकर उस चिट्ठी को (प्रियतमा) हृदय से लगाये रही।


तर झरसी ऊपर गरी कंजल जल छिरकाइ।

पिय पाती बिनही लिखी बाँची बिरह-बलाइ॥541॥


तर = तले, नीचे। झरसी = झुलसी हुई। गरी = गली हुई। पाती = पत्री = चिट्ठी। बाँची = पढ़ लिया। बलाइ = रोग।


(हाथ की ज्वाला से) नीचे झुलसी हुई (आँखों के आँसुओं से भींगी होने के कारण) ऊपर से गली हुई, और काजल के जल से छिड़की हुई (काले दाग से भरी हुई) बिना लिखी (प्रियतमा की) सादी चिट्ठी में ही प्रीतम ने विरह का रोग पढ़ लिया-(प्रीतम जान गया कि प्रियतमा विरह से जल रही है और आँसू बहा रही है।)


कर लै चूमि चढ़ाइ सिर उर लगाइ भुज भेंटि।

लहि पाती पिय की लखति बाँचति धरति समेटि॥542॥


कर = हाथ। उर = हृदय। भुज भेंटि = आलिंगन कर। पिय = प्रीतम। धरति समेटि = मोड़कर वा तह लगाकर यत्न से रखती है। बाँचति = पढ़ती है।


(नायिका) प्रीतम की पाती पाकर उसे हाथ में लेकर, चूमकर, सिर पर चढ़ाकर देखती है और छज्ञती से लगाकर, तथा (भुजाओं से) आलिंगन कर (बार-बार) पढ़ती और समेटकर रखती है।


मृगनैनी दृग की फरक उर उछाह तन फूल।

बिनही पिय आगम उमगि पलटन लगी दुकूल॥543॥


उछाह = उत्साह। आगम = आगमन, आना। उमगि = उमंग में आकर। पलटन लगी = बदलने लगी। दुकूल = रेशमी साड़ी, चीर।


आँख के फड़कते ही मृगनैनी (नायिका) का हृदय उत्साह से भर गया, और शरीर (आनन्द से) फूल उठा, तथा बिना प्रीतम के आये ही (अपने शुभ शकुन को सोलह-आने सत्य समझ) उमंग में आकर साड़ी बदलने लगी।


नोट - स्त्रियों के लिए बाईं आँख का फड़कना शुभ शकुन है। अतः नायिका ने अपनी बाईं आँख के फड़कते ही प्रेमावेश के कारण समझ लिया कि आज प्रीतम अवश्य आवेंगे, अतः बन-ठनकर मिलने को तैयार होने लगी।


बाम बाँहु फरकत मिलैं जौं हरि जीवनमूरि।

तौ तोहीं सौं भेंटिहौं राखि दाहिनी दूरि॥544॥


बाम = बाईं। बाँहु = बाँह, भुजा। जीवनमूरि = प्राणाधार। भेंटिहौं = भेटूँगी, भुजा भरकर मिलूँगी। दूरि = अलग।


ऐ बाईं भुजा! (तू फड़क रही है, सो) तेरे फड़कने से यदि प्राणाधार श्रीकृष्ण मिल जायँ-श्रीकृष्ण आज आ जायँ-तो दाहिनी भुजा को दूर रखकर मैं तुझी से उनका आलिंगन करूँगी। (यही तेरे फड़कने का पुरस्कार है।)


कियौ सयानी सखिनु सौं नहिं सयानु यह भूल।

दुरै दुराई फूल लौं क्यांे पिय-आगम-फूल॥545॥


सयानी = चतुराई। सयानु = चतुराई। दुरै = छिपै। लौं = समान। पिय-आगम-फूल = प्रीतम के आगमन का उत्साह।


सखियों से की गई चतुराई (वास्तविक) चतुराई नहीं, वरन् यह भूल है। प्रीतम के आगमन का उत्साह (सुगंधित) फूल के समान छिपाने से कैसे छिप सकता है?


आयौ मीत बिदेस तैं काहू कह्यौ पुकारि।

सुनि हुलसीं बिहँसीं हँसीं दोऊ दुहुनु निहारि॥546॥


मीत = मित्र = प्यारा, प्रीतम। काहू = किसी ने। हुलसीं = आनन्दित हुईं। बिहँसी = मुस्कुराई। दुहुनु = दानों को। निहारि = देखकर।


किसी ने पुकारकर कहा कि प्रीतम विदेश से आ गया। यह सुनकर आनन्दित हुई, मुस्कुराई और दोनों (नायिकाएँ) दोनों को देखकर हँस पड़ीं।


नोट - दोनों नायिकाएँ एक ही नायक से प्रेम करती थीं। किन्तु दोनों का प्रेम परस्पर अप्रकट था। आज अकस्मात् विदेश से नायक के आने की बात सुनकर दोनों स्व्भावतः प्रसन्न हुईं। तब एक दूसरी की प्रसन्नता देखकर ताड़ गइ कि यह उन्हें चाहती है। फलतः अनायास भेद खुलने के कारण दोनों परस्पर देखकर हँस पड़ीं।


मलिन देह वेई बसन मलिन बिरह कैं रूप।

पिय-आगम औरै चढ़ी आनन ओप अनूप॥547॥


वेई = वे ही। आगम = आगमन, आना। आनन = मुख। औरै = विचित्र ही, निराली ही। ओप = कान्ति। अनूप = अनुपम।


शरीर मलिन है, वे ही मलिन कपड़े हैं और विरह के कारण रूप भी मलिन है। किन्तु प्रीततम के आगमन से उसके मुख पर और ही प्रकार की अनुपम कान्ति चढ़ गई है।


कहि पठई जिय-भावती पिय आवन की बात।

फूली आँगन मैं फिरै आँग न आँग समात॥548॥


जिय-भावती = जो जी को भावे, प्राणों को प्यारी लगे। आँग = अंग, शरीर। आँग न आँग समात-बहुत हर्ष के समय में इस कहावत का प्रयोग होता है।


अपनी प्राणवल्लभा को प्रियतम ने अपने आने का सँदेसा कहला भेजा। (अतएव मारे प्रसन्नता के) वह फूली-फूली आँगन में फिर रही है, अंग-अंग में नहीं समाते।



रहे बरोठे में मिलत पिउ प्रानन के ईसु।

आवत-आवत की भई बिधि की घरी घरी सु॥549॥


बरोठे = बाहर की बैठक। प्रानन के ईसु = प्राणेश। सु = सो, वह।


प्राणनाथ प्रीतम (परदेश से आने पर) बाहर की बैठक में ही लोगों से मिल रहे थे। (अतएव) जो एक घड़ी। (उन्हें आँगन में) आते-आते बीती, सो घड़ी (नायिका के लिए) ब्रह्या की घड़ी के समान (लम्बी) हो गई।


नोट - कितने ही युग बीत जाते हैं तब ब्रह्मा की एक घड़ी होती है।


जदपि तेज रौहाल-बल पलकौ लगी न बार।

तौ ग्वैंड़ौं घर कौ भयौ पैंड़ों कोस हजार॥550॥


रौहाल = (फा. रहबार) घोड़ा। पलकौ = एक पल की भी। बार = देर। ग्वैंड़ौं = बस्ती के आसपास की भूमि। पैंड़ों = रस्ता।


यद्यपि तेज घोड़े के कारण (नायक के आने में) एक पल-भर की भी देर न हुई, तो भी गोयँड़े से घर तक का रास्ता (उत्कंठिता नायिका को) हजार कोस (सदृश) मालूम हुआ।


नोट - नायिका ने धर की खिड़की से नायक को तेज घोड़े पर चढ़कर विदेश से आते हुए गाँव के गोयँड़े में देखा। उस गोयँड़े में देखा। उस गोयँड़े से बस्ती के अन्दर अपने घर तक आने में जो थोड़ी-सी देर हुई, वह उसे हजार वर्ष-सी जान पड़ी।


बिछुरैं जिए सँकोच इहिं बोलत बनत न बैन।

दोऊ दौरि लगे हियैं किए निचौहैं नैन॥551॥


बिछुरे = जुदा हुए। जिए = मन में। निचौंहैं = नीचे की ओर।


(कैसी लज्जा की बात है कि परस्पर इतना प्रेम करने पर भी) हम दोनों बिछुड़ गये-एक दूसरे से अलग-अलग हो गये-फिर भी जीते रहे यह संकोच मन में होने के कारण वचन बोलते (बातें करते) नहीं बना। (तो भी प्रेमावेश के कारण) आँखें नीची किये दोनों दौड़कर (परस्पर) हृदय से लिपट गये।


ज्यौं-ज्यौं पावक-लपट-सी तिय हिय सौं लपटाति।

त्यौं-त्यौं छुही गुलाब-सैं छतिया अति सियराति॥552॥


पावक = आग। तिय = स्त्री। हिय =हृदय। छुही गुलाब-सैं = गुलाब-जल से सींची हुई-सी। सियराति = ठंढी होती है।


ज्यों-ज्यों आग की लपट के समान (ज्योति पूर्ण, कान्तिपूर्ण और कामाग्निपूर्ण) वह स्त्री हृदय से लिपटती है, त्यों-त्यों गुलाब-जल से छिड़की हुई के समान छाती अतयन्त ठंढी होती है।


पीठि दियैं ही नैंकु मुरि कर घूँघट-पटु टारि।

भरि गुलाल की मूठि सौं गई मूठि-सी मारि॥553॥


पीठि दियैं = मुँह फेरकर। नैंकु = जरा। मुरि = मुड़कर। कर = हाथ। पटु = कपड़ा। गुलाल = अबीर। मूठि = मुट्ठी। मूठि -वशीकरण-प्रयोग की विधि।


(मेरी ओर) पीठ किये हुए ही जरा-सा मुड़कर और हाथ से घूँघट का कपड़ा हटाकर अबीर भरी हुई मुट्ठी से (वह नायिका) मानो (वशीकरण प्रयोग की) मूठ-ही-सी मार गई-(उस अदा से मुझपर अबीर डालना क्या था, वशीकरण-प्रयोग का टोना करना था।)।


नोट - लज्जाशीला नायिका घूँघट काढ़े नायक की ओर पीठ किये खड़ी थी। नायक उसपर ताबड़तोड़ अचरी डाल रहा था। इतने में उसने भी तमक-कर कुछ मुड़कर और घूँघट को हाथ से हटाते हुए नायक पर अबीर की मूठ चला ही दी। उसी पर यह उक्ति है।


दियौ जु पिय लखि चखनु मैं खेलत फागु खियालु।

बाढ़त हूँ अति पीर सु न काढ़त बनतु गुलालु॥554॥


लखि = ताककर। चख = आँखें। खियालु = कौतुक, विनोद, चुहल। पीर = पीड़ा। सु = सो। गुलालु = अबीर।


फाग खेलते समय कौतुक (विनोद) वश प्रीतम ने ताककर उसकी आँखों में जो (अबीर) डाल दी, सो अत्यन्त पीड़ा बढ़ने पर भी उससे वह अबीर काढ़ते नहीं बनता (क्योंकि उस पीड़ा में भी एक विलक्षण प्रेमानन्द है!)


छुटत मुठिनु सँग ही छुटी लोक-लाज कुल-चाल।

लगे दुहुनु इक बेर ही चलि चित नैन गुलाल॥555॥


कुल-चाल = कुल की चाल, कुल-मर्यादा। इक बेर ही = एक साथ ही।


अबीर की मुट्ठियाँ छूटने के साथ लोक-लज्जा और कुल-मर्यादा छूट गई। एक साथ ही चलकर दोनों के हृदय, नयन और अबीर एक दूसरे से लगे-अबीर (की मूठ) चलाते समय ही दोनों के नेत्र लड़ गये और दिल एक हो गया।


जज्यौं उझकि झाँपति बदनु झुकति बिहँसि सतराइ।

तत्यौं गुलाल मुठी झुठी झझकावत प्यौ जाइ॥556॥


जज्यौं = ज्यों-ज्यों। उझकि = लचक के साथ उचककर। झाँपति = ढकती है। सतराइ = डरती है। तत्यौं = त्यों-त्यों। झझकावत = डराता है।


ज्यों-ज्यों उझककर (नायिका) मुँह ढाँपती, झुक जाती और हँसकर डरने की चेष्टा (भावभंगी) करती है, त्यों-त्यों अबीर की झूठी मुट्ठी से-बिना अबीर की (खाली) मुट्ठी चला-चलाकर-प्रीतम उसे डरवाता जाता है।


रस भिजए दोऊ दुहुनु तउ ठिकि रहे टरै न।

छबि सौं छिरकत प्रेम-रँग भरि पिचकारी नैन॥557॥


भिजए = शराबोर कर दिया। ठिकि रहे = डटे रहे।


दोनों ने दोनों को रस से शराबोर कर डाला है, तो भी दोनों अड़े खड़े हैं, टलते नहीं। (मानों फाग खेलने के बाद अब) नैन-रूपी पिचकारी में प्रेम का रंग भरकर सुन्दरता के साथ (परस्पर) छिड़क रहे हैं।


गिरै कंपि कछु कछु रहै कर पसीजि लपटाइ।

लैयौ मुठी गुलाल भरि छुटत झुठी ह्वै जाइ॥558॥


कंपि = काँपना। छुटत = छूटते ही, चलाते ही। झुठी = खाली।


कुछ तो (प्रेमावेश में) हाथ काँपने से गिर पड़ती है, और कुछ हाथ के पसीजने से उसमें लिपटी रह जाती है। मुट्ठी में अबीर भरकर तो लेती है, किन्तु चलाते ही (वह मुट्ठी) झूठी हो जाती है-नायक की देह पर अबीर पड़ती ही नहीं।


ज्यौं-ज्यौं पटु झटकति हठति हँसति नचावति नैन।

त्यौं-त्यौं निपट उदार हूँ फगुवा देत बनै न॥559॥


पटु = अंचल। झटकति = जोर से हिलाती वा फहराती है। हठति = हठ करती है। निपट = अत्यन्त। फगुवा = फाग खेलने के बदले में वस्त्राभूषण या मेवा-मिठाई आदि का पुरस्कार।


ज्यों-ज्यों वह (नायिका) कपड़े (अंचल) को झटकती है, हठ करती है, हँसती है और आँखों को नचाती है, त्यों-त्यों अत्यन्त उदार होने पर भी (इस हाव-भाव पर मुग्ध होकर, नायक से) फगुआ देते नहीं बनता।


छकि रसाल-सौरभ सने मधुर माधवी-गंध।

ठौर-ठौर झौंरत झँपत झौंर-झौंर मधु-अंध॥560॥


छकि = तृप्त या मत्त होकर। रसाल = (यहाँ) आम की मंजरी। सौरभ = सुगंध। सने = लिप्त होकर माधवी-एक प्रकार की बसन्ती लता। ठौर-ठौर। जगह-जगह, यत्र-तत्र। झँपत = मस्ती से ऊँघते हैं। झौंर = समूह। झौंरत = मँड़राते हैं।


आम की (मंजरी की) सुगन्ध से मस्त होकर, माधवी-लता की मधुर गन्ध से सने (लिप्त) हुए मदांध भौंरों के समूह जगह-जगह झूमते और झपकी लेते (फिरते) हैं-(किसी पुष्प पर गुंजार करते हैं, तो किसी पर बैठकर ऊँघने लगते हैं।)


यह बसन्त न खरी अरी गरम न सीतल बातु।

कहि क्यौं प्रगटैं देखियतु पुलकु पसीजे गातु॥561॥


खरी = अतयन्त। अरी = ऐ सखी। बातु = हवा। कहि = कहो। प्रगटैं = प्रत्यक्ष। पुलकु = रोमांच। पसीजे = पसीने से लथपथ।


यह वसन्त ऋतु है। अरी सखी, न इसमें अत्यन्त गर्मी है और न (अत्यन्त) ठंडी हवा! कहो, फिर तुम्हारे पसीजे हुए-पसीने से लथपथ-शरीर में पुलकें प्रत्यक्ष क्यों दीख पड़ती हैं?


नोट - गर्मी से पसीना निकलता है और सर्दी में रोंगटे खड़े हो जाते हैं। प्रीतम के साथ तुरत रति-समागम करके आई हुई नायिका में ये दोनों ही चिह्न देखकर सखी परिहास करती है।


फिरि घर कौं नूतन पथिक चले चकित-चित भागि।

फूल्यौ देखि पलास-बन समुही समुझि दवागि॥562॥


तन = नवीन। पथिक = बटोही, परदेशी। चकित-चित = घबराकर। पलास = ढाक, किंशुक, लाल फूल का एक पेड़। समुही = सामने। दवागि = दावाग्नि, दावानल, जंगल की आग-जो आप-ही-आप (जंगलों में) उत्पन्न होकर सारे वन को स्वाहा कर डालती है।


पलास के वन को फूला देख, उसे अपने सामने ही दावाग्नि समझ (डर से) घबराकर नया बटोही लौटकर अपने घर की ओर भाग चला। (वसन्त ऋतु में फूले हुए पलास उसे दावाग्नि के समान जान पड़े।)


अंत मरैंगे चलि जरैं चढ़ि पलास की डार।

फिरि न मरैं मिलिहैं अली ए निरधूम अँगार॥563॥


चलि = चलो। डार = डाल। निरधूम = बिना धुएँ की। अँगार = आग।


(विरहिणी नायिका विरह के उन्माद में पलास के फूल को आग का लाल अंगार समझकर कहती है-) अन्त में मरना ही है, तो चलो, पलास की डाल पर चढ़कर जल जायँ। अरी सखी, फिर मरने पर ऐसी बिना धुएँ की आग नहीं मिलेगी।


नाहिन ए पावक-प्रबल लुवैं चलैं चहुँ पास।

मानहु विरह वसंत कैं ग्रीषम लेत उसास॥564॥


पावक-प्रबल = आग के समान प्रचंड। लुवैं = आँच भरी हवा, गर्म हवा के जबरदस्त झोंके (‘लू’ का बहुवचन ‘लवैं’)। चहुँ पास = चारों ओर। उसास = आह भरी ऊँची साँसें।


चारों ओर ये आग के समान प्रबल लुएँ नहीं चल रही हैं,प परन् वसंत के विरह में मानो ग्रीष्म-ऋतु लम्बी साँसें ले रही है-आह भर रही है।


कहलाने एकत बसत अहि-मयूर मृग-बाघ।

जगतु तपोवन सौ कियो दीरघ दाघ निदाध॥565॥


कहलाने = (1) कुम्हलाये हुए, गर्मी से व्याकुल (2) किसलिए। एकत = एकत्र। अहि = सर्प। दीरघ दाघ = कठोर गर्मी। निदाघ = ग्रीष्म।


(परस्पर कट्टर शत्रु होने पर भी) सर्प और मयूर तथा हिरन और बाघ किसलिए (गर्मी से व्याकुल होकर) एकत्र वास करते हैं-एक साथ रहते हैं? ग्रीष्म की कठोर गर्मी ने संसार को तपोवन-सा बना दिया।


नोट - इस दोहे के प्रथम चरण में एक खूबी है। उसमें प्रश्न और उत्तर दोनों हैं। प्रश्न है-सर्प और मयूर तथा मृग और बाघ किसलिए एकत्र बसते हैं? उत्तर गर्मी से व्याकुल होकर तपोवन में सभी जीव-जन्तु आपस में स्वाभाविक वैर-भाव भूलकर एक साथ रहते हैं। आचार्य केशवदास ने भी तपोवन का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है-”केसोदास मृगज बछेरू चूमैं बाघनीन चाटत सुरभि बाघ-बालक-बदन है। सिंहिन की सटा ऐंचे कलभ करिनि कर सिंहन के आसन गयन्द के रहन है॥ फनी के फनन पर नाचत मुदित मोर क्रोध न विरोध जहाँ मद न मदन है। बानर फिरत डोरे-डोरे अन्घ तापसनि सिव की मसान कैधौं ऋषि को सदन है।“


बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन तन माँह।

देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥566॥


सघन = घना। सदन = घर। तन = शरीर। छाँहौं = छाया भी।


(छाया या तो) अत्यन्त सघन वन में बैठ रही है (या बस्ती के) घर और (जीव के) शरीर में घुस गई है। (मालूम पड़ता है) जेठ-मास की (झुलसाने वाली) दुपहरी देखकर छाया भी छाया चाहती है।


नोट - जेठ की दुपहरी में सूर्य ठीक सिर के ऊपर (मध्य आकाश में) रहता है। अतः सब चीजों की छाया अत्यन्त छोटी होती है। पेड़ की छाया ठीक उसकी डालियों के नीचे रहती है। घर की छाया घर में ही घुसी रहती है-दीवार से नीचे नहीं उतरती। शरीर की छाया भी नहीं दीख पड़ती-परछाई पैरों के नीचे जाती है, मानों वह भी शरीर में ही घुस गई हो। वाह वा! इस दोहे से बिहारी के प्रकृति-निरीक्षण-नैपुण्य का कैसा उत्कृष्ट परिचय मिलता है!


तिय-तरसौहैं मन किए करि सरसौंहैं नेह।

धर परसौंहैं ह्वै रहे झर बरसौंहैं मेह॥567॥


तिय तरसौंहैं = स्त्री पर ललचने वाले। सरसौंहैं = रसीला, सरस। घर = धरा, पृथ्वी। परसौंहैं = स्पर्श करने वाले। बरसौंहैं = बरसने वाले।


(वर्षा ने) प्रेम को सरस बनाकर मन को स्त्री के लिए ललचने वाला बना दिया-(वर्षा आते ही प्रेम जग गया और स्त्री के साथ भोग-विलास करने को मन मचल गया) और, झड़ी लगाकर बरसने वाले मेघ पृथ्वी को स्पर्श करने वाले हो गये-(मेघ इतने नीचे आकर बरसते हैं, मानो वे पृथ्वी का आलिंगन कर रहे हों)।


पावस निसि-अँधियार मैं रह्यौ भेदु नहिं आनु।

राति-द्यौस जान्यौ परतु लखि चकई-चकवानु॥568॥


पावस = वर्षा ऋतु। निसि = रात। भेदु = फर्क, अन्तर। आन = अन्य, दूसरा। द्यौस = दिन।


पावस और रात के अन्धकार में अन्य भेद नहीं रहा-(पावस का अंधकार और रात का अंधकार एक समान हो रहा है), चकई और चकवे को देखकर ही रात-दिन जान पड़ते हैं-(जब चकवे और चकई को लाग एक साथ देखते हैं, तब समझते हैं कि दिन है; फिर जब उन्हें बिछुड़ा देखते हैं, तब समझते हैं कि रात है)।


नोट - रात में चकवा-चकई एक साथ नहीं रहते।


छिनकु चलति ठिठकति छिनकु भुज प्रीतम-गल डारि।

चढ़ी अटा देखति घटा बिज्जु-छटा-सी नारि॥569॥


छिनकु = एक क्षण। ठिठकति = रुककर खड़ी हो जाती है। अटा = कोठा, अटारी। बिज्जु-छटा = बिजली की दमक।


एक क्षण चलती है, और दूसरे ही क्षण प्रीतम के गलबँहियाँ डालकर ठिठककर खड़ी हो जाती है। (इस प्रकार) बिजली की दमक के समान वह स्त्री कोठे पर चढ़कर (मेघ की) छटा देख रही है।


पावक-झर तैं मेह-झर दाहक दुसह बिसेखि।

दहै देह वाकै परस याहि दृगनु ही देखि॥570॥


झर = (1) लपट (2) झड़ी। दहे = जलना। दृगनु = आँखों से।


आग की लपट से मेघ की झड़ी (कहीं) अधिक जलाने वाली और असहनीय (मालूम होती) है, क्योंकि उस (आग की लपट) के स्पर्श से देह जलती है, और इस (मेघ की झड़ी) को आँखों से देखने ही से (विरहाग्नि भड़ककर देह को भस्म कर देती है)।


कुढँगु कोप तजि रँगरली करति जुवति जग जोइ।

पावस गूढ़ न बात यह बूढ़नु हूँ रँग होइ॥571॥


कुढँगु = नटखटपन, मानिनी का वेष। कोप = क्रोध। रँगरली = केलि-रंग, विहार। जोइ = देखो। पावस = वर्षा-ऋतु। गूढ़ = गुप्त, छिपा हुआ। बूढ़नु = (1) एक लाल कीड़ा, बीरबहूटी (2) बूढ़ियों। रँग = (1) रसिकता, उमंग (2) प्रेम।


देखो, नटखटपन और क्रोध छोड़कर संसार की युवतियाँ अपने प्रीतमों के संग रँगरलियाँ (विहार) करती हैं। और तो और, यह बात भी छिपी नहीं है कि इस वर्षा-ऋतु में बूढ़ियों (बीरबहूटियों) में भी रंग आ जाता है-उमंग उमड़ आती है। (फिर युवतियों का क्या पूछना?)


धुरवा होहि न अलि इहै धुआँ धरनि चहुँकोद।

जारतु आवत जगतु कौं पावस-प्रथम-पयोद॥572॥


धुरवा = मेघ। अलि = सखी। धरनि = पृथ्वी। चहुँकोद = चारों ओर। पावस-प्रथम-पयोद = वर्षा-ऋतु के पहलीे दिन का बादल।


वर्षा-ऋतु के पहले दिन का बादल संसार को जलाता हुआ चला आता हे। हे सखी, यह उसी का (संसार के जलने का) धुआँ पृथ्वी के चारों ओर (दीख पड़ता है), यह मेघ हो नहीं सकता।


हठु न हठीली करि सकैं यह पावस-ऋतु पाइ।

आन गाँठि घुटि जाति ज्यौं मान-गाँठि छुटि जाइ॥573॥


आन = दूसरा। गाँठि = गिरह। घुटि जाति = कड़ी पड़ जाती है।


इस पावस-ऋतु को पाकर-इस वर्षा के जमाने में-हठीली नायिका भी हठ नहीं कर सकती, (क्योंकि इस ऋतु में) अन्य गाँठें जिस प्रकार कड़ी पड़ जाती है, (उसी प्रकार) मान की गाँठ (आप-से-आप) खुल जाती है।


नोट - बरसात में सन, मूँज आदि की रस्सियों की गाँठें कड़ी पड़ जाती हैं, पर मेघ उमड़ने और बिजली कौंधने पर मान की गाँठ टूट ही जाती है।


वेऊ चिरजीवी अमर निधरक फिरौ कहाइ।

छिन बिछुरैं जिनकी नहीं पावस आउ सिराइ॥574॥


आउ = उम्र, अवस्था। सिराइ = बीतती है।


वे भी बेखटके चिरजीवी और अमर कहलाते फिरें जिनकी आयु पावस-ऋतु में एक क्षण के वियोग मकें भी नहीं बताती-या जो (रसिक जन) इस वर्षा-ऋतु में अपनी प्रियतम से क्षण मात्र के लिए बिछुड़ने पर भी मर नहीं जाते, वे ही अमर और चिरजीवी पदवी के हकदार हैं।



अब तजि नाउँ उपाव कौ आयौ सावन मास।

खेलु न रहिबो खेम सौं केम-कुसुम की बास॥575॥


नाउँ = नाम। उपाव = उपाय, यंत्र, तरकीब, युक्ति। खेम = क्षेम, कुशल। केम-कुसुम = कदम्ब का फूल, जिसमें बड़ी भीनी-भीनी और मस्तानी सुगन्ध होती है।


अब उपाय का नाम छोड़ो- उस बाला के फँसाने की युक्तियों को त्यागो, क्योंकि सावन का महीना आ गया। कदम्ब के फूल की सुगन्ध सूँघकर कुशल-क्षेम से रह जाना हँसी-खेल नहीं-अर्थात् कदम्ब के फूल की गन्ध पाते ही वह पगली (मस्त) होकर अपने-आप तुमसे आ मिलेगी।


बामा भामा कामिनी कहि बोलौ प्रानेस।

प्यारी कहत खिसात नहिं पावस चलत बिदेस॥576॥


बामा = (1) स्त्री (2) जिससे विधाता वाम हो। भामा = (1) स्त्री (2) मानिनी, क्रुद्धस्वभावा। कामिनी = (1) स्त्री (2) जो किसी की कामना करे। प्रानेस = प्राणेश, प्राणनाथ। खिससात = लजाते हो।


हे प्राणनाथ! मुझे बामा, मामा और कामिनी नाम से कहकर पुकारिए। इस वर्षा-ऋतु में विदेश जाते हुए भी मुझे प्यारी कहते लज्जा नहीं आती? (यदि मैं सचमुच आपकी ‘प्यारी’ होती, तो इस वर्षा-ऋतु में मुझे अकेली छोड़कर आप विदेश क्यों जाते?)


उठि ठकुठकु एतौ कहा पावस कैं अभिसार।

जानि परैगी देखियौ दामिनि घन-अँधियार॥577॥


ठकुठकु = झमेला। एतौ = इतना। अभिसार = प्रेमी से मिलने के लिए संकेत-स्थल पर जाना। देखियौ = देख लिये जाने पर भी। दामिनी = बिजली। घन = बादल।


उठो, वर्षा-ऋतु के अभिसार में भी इतना झमेला कैसा-इतनी हिचकिचाहट और सजधज क्यों? देखा लिये जाने पर भी बादलों के अंधकार में तुम बिजली जान पड़ोगी-जो तुम्हें देखेंगे भी वे समझेंगे कि बादलों में बिजली चमकती जा रही है।


फिर सुधि दै सुधि द्यााइ प्यौ इहिं निरदई निरास।

नई नई बहुर्‌यौ दई दई उसासि उसास॥578॥


सुधि दै = होश दिलाकर। सुधि द्याइ = याद दिला दी। बहुर्यौ = फिर। उसास उसासि दई = उसाँसें उभाड़ दीं। उसासि = ऊँची साँस।


इस निर्दय (पावस-ऋतु) ने निराशा में मुझे पुनः होश दिलाकर प्रियतम की याद कर दी। ब्रह्मा ने फिर नई-नई उसाँसें उमाड़ दी हैं (अतः इस अवस्था में तो बेहोश ही रहना अच्छा था।)


घन-घेरा छुटिगौ हरषि चली चहूँ दिसि राह।

कियौ सुचैनौ आइ जगु सरद सूर नरनाह॥579॥


घन = मेघ। घेरा = आक्रमणकारी सेना-मण्डल। सुचैनौ = खूब निश्चिंत। सूर = बली। नरनाह = नरनाथ, राजा।


मेघों का घेरा छूट गया। प्रसन्न होकर चारों ओर की राहें चलने लगीं-पथिक आने-जाने लगे। शरद-रूपी बली राजा ने आकर संसार को (उपद्रवों से) खूब निश्चिंत बना दिया। (वर्षा-ऋतु के उपद्रव शान्त हो गये।)


ज्यौं-ज्यौं बढ़ति बिभावरी त्यौं-त्यौं बढ़त अनंत।

ओक-ओक सब लोक-सुख कोक सोक हेमंत॥580॥


विभावरी = रात। अनन्त = जिसका अन्त न हो, अपार। ओक = घर। लोक = लोग, जन-समुदाय। कोक = चकवा।

ज्यों-ज्यों रात बढ़ती जाती है-रात बड़ी होती जाती है, त्यों-त्यों हेमन्त ऋतु में घर-घर में सब लोगों का सुख और चकवा-चकई का दुःख बेहद बढ़ता जाता है।


नोट - जाड़े की रात बड़ी होने से संयोगी तो सुख लूटते हैं, और चकवा-चकई के मिलने में बहुत देर होती है, जिससे वे दुखी होते हैं; क्योंकि रात में शापवश वे मिल नहीं सकते।


कियौ सबै जगु काम-बस जीते जिते अजेइ।

कुसुम-सरहिं सर-धनुष कर अगहनु गहन न देइ॥581॥


जिते = जितना। अजेइ = न हारने वाले, जो जीता न जा सके। कुसुम-सर = जिसका बाण फूल का हो, कामदेव। अगहनु = जाड़े का महीना; अ+गहनु = पकड़ने न देनेवाला; जाड़े के मारे हाथ ऐसे ठिठुर जाते हैं कि कोई चीज पकड़े नहीं बनती-कामदेव भी धनुष-बाण नहीं सँभाल सकता। गहन = ग्रहण करना, धारण करना।


समूचे संसार को काम के अधीन कर दिया। जितने अजेय थे, (सब को) जीत लिया। (इस प्रकार) अगहन कामदेव को हाथ में धनुष और बाण नहीं धरने देता। (वह स्वयं सबको कामासक्त बना देता है।)


मिलि बिहरत बिछुरत मरत दम्पति अति रसलीन।

नूतन बिधि हेमंत-रितु जगतु जुराफा कीन॥582॥


बिहरत = विहार करते हैं। बिछुरत = बिछुड़ते ही, एक दूसरे से अलग होते ही। दम्पति = पति और पत्नी। जुराफा = अफ्रिका देश का एक जंतु जो अपनी मादा से बिछोह होते ही मर जाता है।


अत्यन्त रस (आनन्दोपभोग) में लीन दम्पति-प्रेम में पूरे पगे पति-पत्नी-हिल-मिलकर विहार करते हैं और वियोग होते ही प्राण त्याग देते हैं। इस हेमन्त -ऋतु ने (अपनी) नवीन (शासन) व्यवस्था से सारे संसार को ही ‘जुराफा’ बना दिया। अथवा-हेमन्त-ऋतु-रूपी नवीन ब्रह्मा ने सारे संसार को जुराफा के रूप में बदल दिया-सृष्टि ही बदल दी।


आवत जात न जानियतु तेजहिं तजि सियरानु।

घरहँ-जँवाई लौं घट्यौ खरौ पूस दिन-मानु॥583॥


सियरानु = ठंढा पड़ गया है। घरहँ-जँवाई = घर-जमाई, सदा ससुराल ही में रहने वाला दामाद। लौं = समान। खरौ = अत्यन्त। मानु = (1) लमबई (2) आदर।


आते-जाते जान नहीं पड़ता-कब आया और कब गया, यह नहीं जान पड़ता; तेज को तजकर (तेजहीन होकर) ठंढ़ा पड़ गया है-‘घर-जमाई’ के समान पूस के दिन का मान अत्यन्त घट गया है।


लगत सुभग सीतल किरन निसि-सुख दिन अवगाहि।

महा ससी-भ्रम सूर त्यौं रही चकोरी चाहि॥584॥


सुभग = सुन्दर। निसि-सुख = रात का सुख। अवगाहि = प्रापत करना। माह = माघ। सूर = सूर्य। त्यौं = तरह, ओर। चाहि = देखना।


माघ-महीने में चन्द्रमा के भ्रम से चकोरी सूर्य की ओर देख रही हैं; (क्योंकि) सूर्य की किरणें भी उसे शीतल और सुन्दर लगती हैं। (इस प्रकार) रात्रि का सुख वह दिन ही में प्राप्त कर रही है।


तपन-तेज तापन-तपति तूल-तुलाई माँह।

सिसिर-सीतु क्यौंहुँ न कटैं बिनु लपटैं तिय नाँह॥585॥


तपन = सूर्य। तेज = किरण, गर्मी। तापन-तपति = आग की गर्मी। तूल-तुलाई = रुईदार (खूब मुलायम) दुलाई। माँह = में। सिसिर-सीतु = पूस-माघ की सर्दी। क्यौंहुँ = किसी प्रकार से भी। तिय = स्त्री। नाँह = पति।


स्त्री से लिपटे बिना सूर्य की किरणें, आग की गर्मी, रुईदार दुलाई से जाड़े की सर्दी किसी प्रकार भी नहीं मिटा सकती- (जाड़ा तो तभी दूर होगा जब प्यारे को छाती से लगाकर गरमायेगी।)



रहि न सकी सब जगत मैं सिसिर-सीत कैं त्रास।

गरम भाजि गढ़वै भई तिय-कुच अचल मवास॥586॥


त्रास = भय, डर। भाजि = भागकर। गढ़वै भई = किलेदारिन हो गई। अचल = दुर्गम, दृढ़। मवास = अलंघ्य, दुर्ग, किला।


शिशिर-ऋतु की सर्दी के डर से गर्मी सारे संसार में कहीं न रह सकी, (तो अन्त में) भागकर (वह) स्त्री के कुच-रूपी दुर्ग की किलेदारिन बन गई।



द्वैज सुधा-दीधिति कला वह लखि डीठि लगाइ।

मनों अकास अगस्तिया एकै कली लखाइ॥587॥


द्वैज = द्वितीया। सुधा-दीघिति = (अमृत-भरी किरणों वाला) चन्द्रमा। डीठि = दृष्टि। अगस्तिया = अगस्त्य नाम का वृक्ष जिसका फूल उज्ज्वल होता है।


द्वितीया के चन्द्रमा की कला को दृष्टि लगाकर (ध्यान से) वह देखो, मानो आकाश-रूपी अगस्त्य नामक वृक्ष में एक ही कली दीख पड़ती है।


धनि यह द्वैज जहाँ लख्यौ तज्यौ दृगनु दुखदंदु।

तुम भागनु पूरब उयौ अहो अपूरबु चंदु॥588॥


धनि = धन्य। जहाँ = जिसे। दुखदंदु = दुख-द्वन्द्व = दुःखसमूह।


यह द्वितीया धन्य है, जिसे देखकर आँखों को दुःख-समूह ने छोड़ दिया-जिसे देखते ही आँखों के दुःख दूर हो गये। अहा! यह अपूर्व चन्द्रमा तुम्हारे ही भाग्य से पूर्व-दिशा में उगा है।


नोट - द्वितीया के चन्द्रमा को देखने के लिए नायक अपने सखाओं के साथ कोठे पर चढ़ा। उधर उसकी प्रेमिका नायिका भी अपने कोठे पर आ गई। नायिका उसके पूरब की ओर थी। नायक-नायिका के परस्पर दर्शन के बाद एक सखा ने यह उक्ति कही।


जोन्ह नहीं यह तमु वहै किए जु जगत निकेत।

होत उदै ससि के भयौ मानहु संसहरि सेत॥589॥


जोन्ह = चाँदनी। तमु = अंधकार। निकेत = घर। ससि = चन्द्रमा। ससहरि = सिहरकर, डरकर। सेत = स्वेत = उजला।


यह चाँदनी नहीं है, यह वही अंधकार है, जिसने संसार में अपना घर कर लिया है, (तो फिर उजला क्यों है?) मानों चन्द्रमा के उदय होते ही वह सिहरकर-भयभीत होकर-उजला (फीका) पड़ गया है।


नोट - भय से चेहरा सफेद (बदरंग) हो जाता है।


रनित भृृग-घंटावली झरित दान-मधुनीरु।

मंद-मंद आवतु चल्यौ कुंजरु-कुंज-समीरु॥590॥


रनित = रणित = बजते हुए। भृंग = भौंरे। घंटावली = घंटों की कतार, बहुत-से घंटे। दान = यौवन-मदान्ध हाथी की कनपटी फोड़कर चूने वाला रस या मद। मधुनीरु = मकरंद। कुंजरु = हाथी। कुंज-समीरु = कुंज की हवा, कुंजों से होकर बहने वाली वायु जो छाया और पुड्ढ के संसर्ग से ठंढी और सुगन्धित भी होती है।


भौंरे-रूपी घंटे बज रहे हैं और मकरन्द-रूपी गज-मद झर रहा है। कुंज-समीर-रूपी हाथी मन्द-मन्द चला आ रहा है।


नोट - यह त्रिविध समीर का अतीव सुन्दर वर्णन है।


रही रुकी क्यौं हूँ सु चलि आधिक राति पधारि।

हरति तापु सब द्यौस कौ उर लगि यारि बयारि॥591॥


पघारि = आकर। तापु = ज्वाला। द्यौस = दिन। यारि = प्रियतमा।


(अन्य समय तो) रुकी रही, किन्तु किसी प्रकार भी-किसी छल-बल से-चलकर, आधी रात को पधारकर, वह प्रियतमा-रूपी, (ग्रीष्म-काल की) हवा हृदय से लगकर, दिन-भर के सब तापों को दूर करती है-(जिस प्रकार गुप्त प्रेमिका अन्य समय तो किसी प्रकार रूकी रहती है, पर आधी रात होते ही चुपचाप चली आती और हृदय के तापों का नाश करती है, उसी प्रकार ग्रीष्म की हवा भी रुकती, आती और आधी रात में छाती ठंढी करती है।)


चुवतु सेद-मकरंद-कन तरु-तरु-तर बिरमाइ।

आवतु दच्छिन-देस तैं थक्यौ बटोही-बाइ॥592॥


सेद = स्वेद, पीसना। कन = बूँद। तरु = वृक्ष। तर = नीचे। बिरमाइ = बिलमता है या विराम लेता है, ठहरता है। बाइ = वायु, पवन।


 मकरन्द की बूँद-रूपी पसीने चूते हैं, और (सुस्ताने के लिए) प्रत्येक वृक्ष के नीचे ठहरता है। (इस प्रकार) दक्षिण-दिशा से (वसन्त काल का) पवन-रूपी थका हुआ बटोही चला आता है।


नोट - यह भी त्रिविध समीर का उत्कृष्ट वर्णन है-मकरंद-कन’, ‘तरु-तरु-तर’ और ‘दच्छिन-देस तैं थक्यौ’ से क्रमशः ‘सुगंध, शीतल और मंद’ का भाव बोध होता है। बसन्त-’काल की हवा प्रायः दक्षिण की ओर से बहती भी है। मैथिल-कोकिल विद्यापति कहते हैं-”सरस बवंत समय भल पावली दखिन-पबन बहु धीरे। सपनहु रूप बचन यक भाषिय मुख ते दूरि करु चीरे।“


लपटी पुहुप-पराग-पट सनी सेद-मकरंद।

आवति नारि-नवोढ़ लौं सुखद वायु गति-मंद॥593॥


पुहुप = फूल। पराग = फूल की धूल। पट = वस्त्र। सेद = स्वेद = पसीना। मकरंद = फूल का रस। नवोढ़ नारि = नवयौवना स्त्री, जो यौवन-मद-मत्त या स्तन-भार-नम्र होकर इठलाती (मन्द-मन्द) चलती है। लौं = समान। वायु = हवा।


फूलों के पराग-रूपी वस्त्र से लिपटी हुई (आच्छादित) और मकरंदरूपी पसीने से सनी हुई (लिप्त), नवयुवती स्त्री के समान, सुख देने वाली वायु मंद-मंद गति से आ रही है।


रुक्यौ साँकरैं कुंज-मग करतु झाँझि झकुरातु।

मंद-मंद मारुत-तुरँगु खूँदतु आवतु जातु॥594॥


साँकरे = तंग। कुंज-मग = कुंज के रास्ते। करत झाँझि = हिनहिनाता हुआ। झकुरातु = झोंके (वेग) से चलता हुआ। मारुत-तुरँगु = पवन-रूपी घोड़ा। खूँदतु = खूँदी (जमैती) करता हुआ।


पवन-रूपी घोड़ा कुंज के तंग रास्ते में रुकता, हिनहिनाता (शब्द करता) और झौंके से आता हुआ, तथा मंद-मंद गति से जमैती करता (ठुमुक चाल चलता) हुआ, आता और जाता है।


कहति न देवर की कुबत कुलतिय कलह डराति।

पंजर-गत मंजार ढिग सुक लौं सूकति जाति॥595॥


कुबत = खराब बात, शरारत, छेड़छाड़। पंजर गत = पिंजडे में बन्द। मंजार = मार्जार = बिल्ली। सुक = शुक = सुग्गा, तोता।


(अपने पर आसक्त हुए) देवर की शरारत किसी से कहती नहीं है (क्योंकि) कुलवधू (होने के कारण) झगड़े से डरती है-(बात प्रकट होते ही घर में कलह मचेगा, इस डर से वह देवर की छेड़खायिों की चर्चा नहीं करती)।


बिल्ली के पास रक्खे हुए पिंजड़े में बन्द सुग्गे के समान (इस अप्रतिष्ठा के दुःख से वह) सूखती जाती है।


नोट - यहाँ स्त्री सुग्गा है, कलह का डर पिंजड़ा है और देवर (पति का छोटा भाई) बिल्ली है। ऊपर से सतीत्त्व-रक्षा की चिंता भी है।


पहुला-हारु हियै लसै सन की बेंदी भाल।

राखति खेत खरे-खरे खरे उरोजनु बाल॥596॥


पहुला = प्रफुला = कुँई, कुमुद, काँच के छोटे-छोटे दाने। लसै = शोभता है। सन = सनई, जिसके फूल की टिकुली देहाती स्त्रियाँ पहनती हैं। खरे-खरे = खड़ी-खड़ी। खरे = खड़े (तने) या ऊँचे उठे हुए। उरोजनु = कुचों (स्तनों) से।


कुमुद की माला हृदय में शोभ रही है, और सन के फूल की बेंदी ललाट पर। (इस प्रकार) तने हुए स्तनोंवाली वह युवती खड़ी-खड़ी (अपने) खेत की रखवाली कर रही है।


नोट - पीनस्तनी ग्रामीण नायिका का वर्णन है। नीचे के दो दोहों में भी ग्रामीण नायिका का ही वर्णन मिलेगा।


गोरी गदकरी परै हँसत कपोलनु गाड़।

कैसी लसति गँवारि यह सुनकिरवा की आड़॥597॥


गदकारी = गुलथुल, जिसके शरीर पर इतना मांस गठा हुआ हो कि देह गुलगुल जान पड़े। हँसते = हँसते समय। कपोलनु = गालों पर। गाड़ = गढ़ा। लसति = शोभती है। सुनकिरवा = स्वर्ण कीट-एक प्रकार का सुनहला कीड़ा, जिसके पंख बड़े चमकीले होते हैं, जिन्हें (कहींटूट पड़ा पाकर) ग्रामीण युवतियाँ टिकुली की तरह साटती हैं। आड़ = लम्बा टीका।


गोरी है गुलथुल है, (फलतः) हँसते समय उसके गालों में गढ़े पड जाते हैं। सुनकिरवा के पंख का टीका लगाये यह देहाती युवती कैसी अच्छी लगती है?


गदराने तन गोरटी ऐपन आड़ लिलार।

हूठ्यौ दै इठलाइ दृग करै गँवारि सु मार॥598॥


गदराने = गदराये (खिले) हुए, जवानी से चिकनाये हुए। गोरटी = गोरी, गौरवर्णी। ऐपन = चावल और हल्दी एक साथ पीसकर उससे बनाया हुआ लेप। आड़ = टीका। लिलार = ललाट। हूठ्यौ दै = गँवारपन दिखला कर। सु मार = अच्छी मार, गहरी चोट।


गोरे शरीर में जवानी उमड़ आई है। ललाट में ऐपन का टीका लगा है। गँवारपन दिखलाकर आँखों को नचाती हुई-वह ग्रामीण युवती अच्छी चोट करती है-(दर्शकों को खूब घायल करती है।)


सुनि पग-धुनि चितई इतै न्हाति दियैंई पीठि।

चकी झुकी सकुची डरी हँसी लजीली डीठि॥599॥


पग-धुनि = पैर की आवाज, आहट। चितई इतै = इधर देखा। पीठि दियैंई न्हाति = पीठ की आड़ देकर नहा रही थी। चकी = चकित होना। लजीली डीठि = सलज्ज दृष्टि।


(उस ओर) पीठ करके ही नहा रही थी कि (प्रीतम के) पैर की धमक सुनकर (मुँह फेरकर) इधर (पीठ की ओर) देखा, और (प्रीतम को) देखकर चकित हुई, झुक गई, लजा गई, डर गई और लजीली नजरों से हँस पड़ी।


नोट - स्नान करते समय नायिका अपने को अकेली जान स्वच्छंदता से कुच आदि अंगों को खोलकर खूब मल-मल नहा रही थी। तब तक नायक पहुँच गया। उसी समय का चित्र है।


नहिं अन्हाइ नहिं जाइ घर चित चिहुँट्यौ तकि तीर।

परसि फुरहरी लै फिरति बिहँसति धँसति न नीर॥600॥


अन्हाई = स्नान कर। चित चिहुँट्यौ = मन प्रेमासक्त हो गया। तीर = यमुना तट। परसि = स्पर्श कर। फुरहरी लै = फुरहरी लेना, मुख से पानी लेकर फव्वारा छोड़ना। धँसति = पैठती है। नीर = पानी।


न स्नान करती है, न घर जाती है, (श्यामला यमुना के) तट को देखकर (श्यामसुन्दर की याद में उसका) चित्त प्रेमासक्त हो गया है। अतएव, जल को स्पर्श कर, फुरहरी लेकर लौट आती है, और मुस्कुराती है, किन्तु पैठती नहीं है (कि कहीं इस श्यामल जल में श्रीकृष्ण न छिपे हों, वरना खूब छकूँगी!)



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