तऊ लाज आई झुकत खरे लजौहैं देखि॥401॥
अनत = दूसरी जगह। रिसनु = क्रोध से। बरि रही = जल रही। झुकत = झुकते, पैरों पड़ते। खरे लजौंहैं = अत्यन्त लज्जित।
रात में दूसरी जगह रहने के कारण क्रोध से (नायिका का) हृदय विशेष रूप से जल रहा था। किन्तु (प्रीतम को इसके लिए) अत्यन्त लज्जित और पैरों पड़ते देखकर (उसके हृदय में भी) लाज उमड़ आई- वह भी लज्जित हो गई।
सुरँग महावरु सौति-पग निरखि रही अनखाइ।
पिय अँगुरिनु लाली लखैं खरी उठी लगि लाइ॥402॥
सुरँग = लाल। अनखाइ = अनखाकर, अनमनी होकर। खरी = अत्यन्त। लगि लाइ उठी = आग-सी लग उठी = जल उठी। लाइ = आग।
सौतिन के पैर का लाल महावर अनखा (अनमनी हो) कर देख रही थी। (इतने में) प्रीतम की अँगुलियों में लाली देखकर वह अत्यन्त जल उठी (इसलिए कि सौतिन के पैर में इन्होंने ही महावर लगाया है)।
कत सकुचत निधरक फिरौ रतियौ खोरि तुम्हैं न।
कहा करौ जो जाइ ए लगैं लगौंहैं नैन॥403॥
कत = क्यों। रतियौ = रत्ती भर भी। खोरि = दोष। कहा = क्या। लगौंहैं = लगनेवाले, लगीले, फंसनेवाले, लगन-भरे।
सकुचाते क्यों हो? बेधड़क घूमो। तुम्हारा तनिक भी दोष नहीं है। यदि ये लगीले नेत्र जाकर (किसी अन्य स्त्री से) लग जाते हैं, तो तुम क्या करोगे-तुम्हारा इसमें क्या दोष है? (दोष तो है आँखों का!)
प्रानप्रिया हिय मैं बसै नख-रेखा-ससि भाल।
भलौ दिखायौ आइ यह हरि-हर-रूप रसाल॥404॥
ससि = चन्द्रमा। भाल = मस्तक। रसाल = रसीला, सुन्दर। हरि-हर = विष्णु और शंकर।
(विष्णु के हृदय में बसी हुई लक्ष्मी के समान) तुम्हारी प्रियतमा तुम्हारे हृदय में बस रही है, और (शिव के ललाट पर शोभित चंद्ररेखा के समान) उस प्रियतमा के नख की रेखा-रूपी (द्वितीया का) चन्द्रमा शीश पर है। यह हरि-हर का सुन्दर (संयुक्त) रूप लाकर (प्रातःकाल ही) अच्छा दिखलाया!
नोट - नायक भर-रात किसी दूसरी स्त्री के साथ विहार कर प्रातःकाल नायिका के पास आया है। उसके सिर पर उस स्त्री के नख को खरोंट है। इस पर नायिका व्यंग्य और उपालम्भ सुनाती है।
ह्याँ न चलै बलि रावरी चतुराई की चाल।
सनख हियैं खिन-खिन नटत अनख बढ़ावत लाल॥405॥
ह्याँ = यहाँ। बलि = बलिहारी। रावरी = आपकी। सनख = नखसहित। खिन-खिन = क्षण-क्षण। नटत = नहीं (इन्कार) करना। अनख = क्रोध। लाल = प्रीतम।
आपकी चतुराई की चाल, बलिहारी है, यहाँ न चलेगी। नख-रेखायुक्त वक्षःस्थल होने पर भी-छाती पर किसी दूसरी स्त्री के नख की खरोंट होने पर भी-क्षण-क्षण में इन्कार करके, हे लाल! क्यों अनख बढ़ा रहे हो-मुझे क्रोधित कर रहे हो?
न करु न डरु सबु जगु कहतु कत बिनु काज लजात।
सौहैं कीजै नैन जौ साँचौ सौंहैं खात॥406॥
कत = क्यों। बेकाज = व्यर्थ। सौंहैं = सम्मुख, सामने। कीजै = कीजिए। सौंहै = शपथ, कसम।
”न करो तो न डरो“-सारा संसार यही कहता है। (फिर) आप व्यर्थ क्यों बजाते हैं? (यदि) आप सच्ची कसम खाते हैं-यदि आप सचमुच आज रात को किसी दूसरी स्त्री के पास नहीं गये थे, तो आँखें सामने (बराबर) कीजिए-ढीठ होकर इधर ताकिए।
कत कहियत दुखु देन कौं रचि-रचि बचन अलीक।
सबै कहाउ रह्यौ लखैं भाल महाउर लोक॥407॥
कत = क्यों। रचि-रचि = बना-बनाकर, गढ़-गढ़कर। अलीक = झूठ। कहाउ = कहना, कथन। भाल = मस्तक। लीक = रेखा।
दुःख देने के लिए रच-रचकर झूठी बातें क्यों कह रहे हो? तुम्हारे मस्तक पर (किसी दूसरी स्त्री के पैर के) महावर की रेखा देखने से ही सब कहना (यों ही) रह जाता है-सब कहना झूठ साबित हो जाता है।
नख-रेखा सोहैं नई अलसौंहैं सब गात।
सौहैं होत न नैन ए तुम सौंहैं कत खात॥408॥
नख-रेख = नख की खरोंट, नख-क्षत। सोहैं = शोभती है। अलसौं हैं = अलसाया हुआ। सौहैं = सामने। सौंहैं = शपथ। कत = क्यों।
(हृदय पर किसी दूसरी स्त्री द्वारा दी गई) नख की नई रेखा शोभा दे रही है। (संभोग करने के कारण) सारा शरीर अलसाया हुआ है। (लज्जा से तुम्हारी) ये आँखें भी सामने नहीं होतीं। फिर तुम क्यों (व्यर्थ) शपथ खा रहे हो? (कि मैं किसी दूसरी स्त्री के पास नहीं गया था।)
लाल सलोने अरु रहे अति सनेह सौं पागि।
तनक कचाई देत दुख सूरन लौं मुँ लागि॥409॥
सलोने = (1) लावण्ययुक्त (2) लवण-युक्त। सनेह सौं पगि = (1) प्रेम में शराबोर (2) तेल में तला हुआ। कचाई = (1) बात का हल्कापन (2) कच्चापन। सूरन = एक प्रकार की तरकारी, ओल, जिसकी बड़ी-बड़ी गोल-मटोल गाँठें जमीन के अन्दर पैदा होती हैं; वह नमक और तेल में तला हुआ होने पर भी जरा-सा कच्चा रह जाने पर मुँह में सुरसुराहट और खाज-सी पैदा करता है। लौं = समान। मुँह लागि = (1) मुँह से लगकर, जबान पर आकर (2) मुँह में खुजलाहट पैदा कर।
हे लाल! आज लावण्ययुक्त हैं, और स्नेह में अत्यन्त शराबोर भी हैं। किन्तु आपकी जरा-सी कच्चई भी सूरन के समान मुख से लगकर दुःख देती है।
कत लपटइयतु मो गरैं सो न जु ही निसि सैन।
जिहिं चंपकबरनी किए गुल्लाला रँग नैन॥410॥
सो = वह। जु = जो। ही = थी। सैन = शयन। जिहि = जिस। चंपक-बरनी = चम्पा के फूल के समान सुनहली देहवाली। गुल्लाला = एक प्रकार का लाल फूल।
मेरे गले से क्यों लिपटते हो? मैं वह नहीं हूँ, जो रात में साथ सोई थी, और जिस चम्पकवर्णी ने तुम्हारी आँखों को गुल्लाला के रंग का कर दिया था-रात-भर जगाकर लाल कर दिया था।
पल सोहैं पगि पीक रँग छल सोहैं सब बैन।
बल सौहैं कत कीजियत ए अलसौंहैं नैन॥411॥
पल = पलक। सोहैं = शोभते हैं। पगि = पगकर, शराबोर होकर। पीक रँग = लाल रंग। छल सोहैं = छल से भरी हैं। बल = जबरदस्ती। सौहैं = सामने। अलसौंहैं = अलसाये हुए।
तुम्हारी पलकें पीक के रंग से शराबोर होकर शोभ रही हैं-रात-भर जगने से आँखें लाल हो गई हैं और, तुम्हारी सारी बातें छल से (भरी) हैं। फिर, इन अलसाई हुई आँखों को जबरदस्ती सामने (करने की चेष्टा) क्यों कर रहे हो?
भये बटाऊ नेहु तजि बादि बकति बेकाज।
अब अलि देत उराहनौ अति उपजति उर लाज॥412॥
बटाऊ = बटोही, रमता जोगी, विरागी। बादि = व्यर्थ, बेकार। बेकाज = बेमतलब, निष्प्रयोजन। अलि = सखी। उराहनौ = उलहना।
प्रेम छोड़कर ये बटोही हो गये, फिर व्यर्थ क्यों निष्प्रयोजन बकती हो? अरी सखी! अब इन्हें उलहना देने में भी हृदय में अत्यन्त लाज उपजती है-बड़ी लज्जा होती है।
नोट - बटोही से भी कोई करता है प्रीत!
मसल है कि जोगी हुए किसके मीत॥-मीर हसन
सुभर भर्यौ तुव गुन-कननु पकयौ कपट कुचाल।
क्यौंधौं दार्यौ ज्यौं हियौ दरकतु नाहिन लाल॥413॥
मुभर भर्यौ = अच्छी तरह भर गया है। कननु = दानों से। पकयौ = पका दिया है। दारयौं = दाड़िम = अनार। दरकतु = फटकता है।
तुम्हारे गुण-रूपी दानों से अच्छी तरह भर गया है, और तुम्हारे कपट और कुचाल ने उसे पका भी दिया है; तो भी हे लाल! न मालूम क्यों अनार के समान मेरा हृदय फट नहीं जाता?
नोट - दाने भर जाने और अच्छी तरह पक जाने पर अनार आप-से-आप फट जाता है। हृदय पकने का भाव यह है कि कपट-कुचाल सहते-सहते नाकों दम हो गया है। असह्य कष्ट के अर्थ में ‘छाती पक जाना’ मुहावरा भी है।
मैं तपाइ त्रय-ताप सौं राख्यौ हियौ-हमामु।
मति कबहूँ आबै यहाँ पुलकि पसीजै स्यामु॥414॥
तपाइ = गर्म करके। त्रय-ताप = तीन ताप = कामाग्नि, विरहाग्नि और उद्दीपन-ज्वाला। हमामु = हम्माम, स्नानागार। मति = संभावना-सूचक शब्द, शायद। पुलकि पसीजै = रोमांचित और पसीने से भीजे हुए।
मैंने अपने हृदय-रूपी स्नानागार को तीन तापों से तपाकर (इसलिए) रक्खा है कि शायद कभी (किसी दूसरी प्रेमिका से समागम करने के पश्चात्) रोमांचित और पसीने से तर होकर कृष्णचन्द्र यहाँ आ जावें (तो स्नान करके थकावट मिटा लें)।
नोट - कृष्ण के प्रति राधा का उपालम्भ। जिस तरह हम्माम में तीन ओर से (छत से, नीचे से तथा दीवारों से) पानी में गर्मी पहुँचाई जाती है, उसी प्रकार मैंने भी अपने हृदय को उक्त तीन तापों से गर्म कर रक्खा है।
आज कछू औरैं भए छए नए ठिकठैन।
चित के हित के चुगुल ए नित के होहिं न नैन॥415॥
नए ठिकठैन छए = नये ठीक-ठाक से ठये, नवीन सजधन से सजे। चित के हित के = हृदय के प्रेम के। चुगुल = चुगलखोर। नित = नित्य।
नवीन सजधज से सजे आज ये कुछ और ही हो गये हैं। चित्त के प्रेम की चुगली करनेवाले ये नेत्र नित्य के-से नहीं हैं-जैसे अन्य दिन थे, वैसे आज नहीं हैं। (निस्संदेह आज किसी से उलझ आये हैं।)
फिरत जु अटकत कटनि बिनु रसिक सुरस न खियाल।
अनत-अनत नित-नित हितनु चित सकुचत कत लाल॥416॥
अटकत फिरत = समय गँवाते फिरते हो। कटनि = आसक्ति। खियाल = विचार, तमीज। अनत-अनत = अन्यत्र, दूसरी-दूसरी जगहों में। सकुचत = लजाते हो।
बिना आसक्ति के ही जो अटकते फिरते हो-जिस-तिस से उलझते फिरते हो-सो, हे रसिक! क्या तुम्हें रस का कुछ विचार नहीं है? नित्य ही जहाँ-तहाँ प्रेम करके, हे लाल! तुम मन में क्यो लजाते हो? (तुम्हारी यह घर-घर प्रीति करते चलने की आदत देखकर मुझे भी लज्जा आती है।)
जो तिय तुम मनभावती राखी हियै बसाइ।
मोहि झुकावति दृगनु ह्वै वहिई उझकति आइ॥417॥
तुम = तुम्हारी। मनभावती = प्रियतमा। झुकावति = चिढ़ाती है। दृगनु ह्वै = आँखों की राह से। वहिई = वही। उझकति = झाँकती है।
जो भी स्त्री तुम्हारी परम प्यारी है (और जिसे तुमने) हृदय में बसा रक्खा है, वही (तुम्हारी) आँखों की राह आ (मेरी तरफ) झाँक-झाँककर मुझे चिढ़ाती है।
नोट - नायिका अपनी ही सुन्दर मूत्ति को नायक की उज्ज्वल आँखों में प्रतिबिम्बित देख और उसे नायक के हृदय में बसीे हुई अपनी सौत समझकर ऐसा कहती है।
मोहि करत कत बावरौ करैं दुराउ दुरै न।
कहे देत रँग राति के रँग निचुरत-से नैन॥418॥
बावरी = पगली। दुराव = छिपाव। दुरै न = नहीं छिपता। राति के रँग = रात्रि में किये गये भोग-विलास।
मुझे क्यों पगली बना रहे हो? छिपाने से तो छिप नहीं सकता। ये तुम्हारे रंग-निचुड़ते-हुए से नेत्र-लाल रंग में शराबोर नेत्र-रात के (सारे) रंग कहे देते हैं (कि कहीं रात-भर जगकर तुमने केलि-रंग किया है।)
पट सौं पोंछि परी करौ खरी भयानक भेख।
नागिनि ह्वै लागति दृगनु नागबेलि रँग रेख॥419॥
पट = कपड़ा। परी करौ = दूर करो। खरी = अत्यन्त। भेख = वेष = रूप। दृगनु = आँखों में! नागबेलि = नाग वल्ल्ी, पान। रेख = लकीर।
कपड़े से पोंछकर दूर करो-मिटाओ। इसका वेष अत्यन्त भयावना है। (तुम्हारे नेत्रों में लगी हुई) पान की लकीर मेरी आँखों में नागिन के समान लग रही है (नागिन-सी डँस रही है।)
नोट - पर-स्त्री के साथ रात-भर जगने से नायक की आँखें लाल-लाल हो रही हैं। इसलिए क्रुद्ध होकर नायिका व्यंग्यबाण छोड़ रही है।
ससि-बदनी मोकौ कहत हौं समुझी निजु बात।
नैन-नलिन प्यौ रावरे न्याव निरखि नै जात॥420॥
ससि-बदनी = चन्द्रमुखी। मोको = मुझको। निजु = निजगुत, ठीक-ठीक। नलिन = कमल प्यौ = पिय। नै जात = नम जाते हैं, झुक जाते हैं।
हे प्रीतम! सच्ची बात मैंने आज समझी। मुझे आप चन्द्रवदनी कहते हैं (इसीलिए) आपके नेत्र (अपने को) कमल-तुल्य समझकर (मेरे मुखचन्द्र के सामने) झुक (संकुचित हो) जाते हैं।
नोट - रात-भर नायक दूसरी स्त्री के पास रहा है। प्रातःकाल लज्जावश नायिका के सामने उसकी आँखें नहीं उठतीं-झेंपती हैं। चन्द्रमा के साथ कमल अपनी आँखें बराबर नहीं कर सकता।
दुरै न निघरघट्यौ दियैं ए रावरी कुचाल।
विपु-सी लागति है बुरी हँसी खिसी की लाल॥421॥
निघरघट्यौ = सफाई देना। कुचाल = दुश्चरित्रता। रावरी = आपकी। खिसी की हँसी = खिसियानपन की हँसी, बेहयाई की हँसी।
सफाई देने पर भी आपकी यह कुचाल नहीं छिप सकती। हे लाल, (आपकी) यह बेहयाई की हँसी (मुझे) विष के समान बुरी लगती है।
जिहिं भामिनि भूषनु रच्यौ चरन-महाउर भाल।
उहीं मनौ अँखियाँ रँगीं ओठनु कै रँग लाल॥422॥
जिहिं = जिसने। भामिनि = स्त्री। भाल = मस्तक। मनौ = मनो।
जिस स्त्री ने (अपने) पैरों के महावर से (तुम्हारे) मस्तक में भूषण रचा है-तुम्हारे मस्तक को भूषित किया है-हे लाल! मानो उसीने अपने ओठों के (लाल) रंग में तुम्हारी आँखें भी रँग दी हैं। (जिस मानिनी स्त्री के पैरों पड़कर तुमने मनाया है, उसीने रात-भर जगा-जगाकर तुम्हारी आँखें लाल-लाल कर दी हैं।)
नोट - ”ओठनु के रँग अँखियाँ रँगीं“ में हृदय-संवेद्य सरसता है।
चितवनि रूखे दृगनु की हाँसी बिनु मुसकानि।
मानु जनायौ मानिनी जानि लियौ पिय जानि॥423॥
रूखे = प्रेमरसहीन। दृगनु = आँखें। जानि = ज्ञान, प्रवीण।
रूखी आँखों की चितवन और बिना हँसी की मुस्कुराहट से मानिी ने अपना मान जताया और प्रवीण प्रीतम ने जान लिया-इन लक्षणों को देखकर नायिका का मान रख लिया।
बिलखी लखै खरी-खरी भरी अनख बैराग।
मृगनैंनी सैन न भजै लखि बेनी के दाग॥424॥
बिलखी = व्याकुलता से। अनख = क्रोध। बैराग = उदासीनता। सैन न भजै = शयन नहीं करती, शय्या पर नहीं जाती।
वह मृगनैनी क्रोध और उदासीनता से भरी खड़ी-खड़ी व्याकुलता के साथ देख रही है। (सुकोमल शय्या पर) वेणी का दाग देखकर शयन करने के लिए नहीं जाती-(यह समझकर कि इस पलंग पर प्रीतम ने किसी दूसरी स्त्री के साथ विहार किया है)
हँसि हँसाइ उर लाइ उठि कहि न रुखौंहैं बैन।
जकित थकित ह्वै तकि रहे तकत तिलौंछे नैन॥425॥
लाइ = लगाओ। रुखौंहैं = नीरस। जकित = स्तम्भित। तिलौंछे = तिरछे।
हँसाकर हँसो और उठकर छाती से लगा लो, यों रूखी बातें न कहो। (देखो) तुम्हारे तिरछी आँखों से देखते ही ये (प्रीतम) स्तम्भित और शिथिल से हो रहे हैं।
रस की-सी रुख ससिमुखी हँसि-हँसि बोलति बैन।
गूढ़ मानु मन क्यौं रहै भए बूढ़-रँग नैन॥426॥
रस = प्रेम। रुख = चेष्टा। गूढ़ = गुप्त, छिपा हुआ। बूढ़ = बीरबहूटी, एक लाल बरसाती कीड़ा।
यह चन्द्रवदनी प्रेम की-सी चेष्टा से हँस-हँसकर बातें करती है, उसके हृदय का मान गुप्त कैसे रह सकता है, (फलतः) आँखें बीरबहूटी के रंग की (लाल-लाल) हो उठी हैं।
मुँह मिठासु दृग चीकने भौंहैं सरल सुभाइ।
तऊ खरैं आदर खरौ खिन-खिन हियौ सकाइ॥427॥
सुभाइ = स्वभावतः। तऊ = तेरी। खरैं-खरौ = अत्यन्त। खिन-खिन = क्षण-क्षण। सकाइ = शंकित होता है।
मुँह में मिठास है-बातें मीठी हैं, आँखें चिकनी है-स्नेह-स्निग्ध हैं, और भौंहें भी स्वभावतः सीधी हैं; तो भी तुम्हें अत्यन्त आदर करते देखकर क्षण-क्षण (मेरा) हृदय बहुत डरता है (कि कहीं तुम रुष्ट तो नहीं हो-यह आदर-भाव बनावटी तो नहीं है!)
पति रितु औगुन गुन बढ़तु मानु माह कौ सीत।
जातु कठिन ह्वै अति मृदौ रवनी-मन-नवनीतु॥428॥
माह = माघ। मृदौ = कोमल भी। नवनीत = घी, नैनू, मक्खन।
मान और माघ के जाड़े में (पूरी समता है। मान में) पति का अवगुण बढ़ता है-पति के दोष दिखलाई पड़ते हैं (और माघ के जाड़े में) ऋतु का गुण बढ़ता है-शीत का वेग बढ़ता है। (मान में) अन्यन्त कोमल रमणी का चित्त भी कठोर हो जाता है, और (माघ में) अत्यन्त कोमल मक्खन भी कठोर हो जाता है।
नोट - पति अवगुन रितु के गुनन, बढ़त मान अरु सीत।
होत मान तें मन कठिन, सीत कठिन नवनीत॥-लछूलाल
कपट सतर भौहैं करीं मुख अनखौहैं बैन।
सहज हँसौहैं जानिकै सौहैं करति न नैन॥429॥
सतर = तिरछा। अनखौंहैं = क्रोधयुक्त। सहज = स्वभावतः। हँसौंहैं = हँसोड़, विनोदशील, चिर-प्रसन्न, प्रफुल्ल। सौंहैं = सामने।
छल से भौंहों को तिरछा कर लिया, और मुख से क्रोधयुक्त वचन (कहने लगी); किन्तु अपने नेत्रों को स्वभावतः हँसोड़ जानकर (नायक के) सम्मुख नहीं करती। (इस शंका से कि कहीं ये आँखें हँसकर यह बनावटी मान बिगाड़ न दें!)
सोवति लखि मन मानु धरि ढिग सोयौ प्यौ आइ।
रही सुपन की मिलनि मिलि तिय हिय सौं लपटाइ॥430॥
मन में मान धारण कर प्रियतमा को सोया देख प्रीतम (चुपचाप) उसके निकट आकर सो रहा। (इधर) प्रियतमा भी (अंग-स्पर्श से कामोद्दीपन होने के कारण) उसके हृदय से लिपटकर स्वप्न का मिलन मिलने लगी।
नोट - नायक पर नायिका क्रुद्ध थी। झूठमूठ सोने का बहाना किये पड़ी थी। नायक रहस्य समझ गया। चुपचाप उसके पास सटकर सो रहा। अब वह अपने प्रेमावेश को रोक न सकी, किन्तु खुलकर मिलने में अपनी हेठी समझ नींद की बेखबरी में ही नायक के गले से यों लिपट गई मानो स्वप्न में मिल रही हो। स्त्रियों की तरल प्रकृति का यह चित्र है।
दोऊ आधकाई भरे एकै गौं गहराइ।
कौनु मनावै को मनै मानै मन गहराइ॥431॥
गौं = घात। गहराई = अड़ना, डटना। मानै = मान ही में।
दोनों ही अधिकाई से मरे हैं-एक दूसरे से बढ़े-चढ़े हैं (और दोनों) एक ही घात पर अड़े हुए हैं-(वे सोचते हैं कि वह मनावेगी, और यह सोचती है कि वे मनावेंगे)। फिर कौन किसको मनावे और कौन किससे माने? (शायद) मान ही में दोनों की मति ठहरती है-दोनों को मान ही पसन्द है।
लग्यौ सुमनु ह्वैहै सुफलु आतप-रोसु निवारि।
वारो वारी आपनी साींचि सुहृदता-वारि॥432॥
सुमन = (1) सुन्दर मन (2) फूल। सुफल = (1) सफलता (2) सुन्दर फल। आतप = धूप, घास। रोस = रोष = क्रोध। बारी = (1) अनुभवहीन बालिका (2)मँजरी हुई। बारी = (1) पारी, माँज (2) वाटिका, फुलवारी। सुहृदता = प्रेम, सहृदयता। बारि = पानी।
(जब) सुन्दर मन (रूपी फूल) लगा है, (तब) सफलता (रूपी सुन्दर फल) होगी ही। अतः क्रोध-रूपी धूप को निवारण कर अपनी इस मँजरी हुई वाटिका में प्रेम-रूपी जल छिड़क-अथवा, अपनी पारी आने पर दिल खोलकर नायक से मिल।
गह्यो अबोलौ बोलि प्यौ आपुहिं पठै वसीठि।
दीठि चुराई दुहुँनु की लखि सकुचौंही दीठि॥433॥
आपुहिं = स्वयं ही। गह्यो अबोलौ = मौन धारण कर लिया। बोलि = बुलाकर। बसीठि = दूती। दीठि = नजर। सकुचौंही = लजीली।
स्वयं दूती भेज प्रीतम को बुलाकर (उसके आने पर) मौन धारण कर लिया। (दूती और प्रीतम) दोनों की लजीली आँखों को देखकर (यह समझ कि दोनों ने मिलकर रतिक्रीड़ा की है, क्रोध में आ) उसने, अपनी नजर चुरा ली-नायक से आँखें तक न मिलाईं।
मानु करत बरजति न हौं उलटि दिवावति सौंह।
करी रिसौंहीं जाहिंगी सहज हँसौंहीं भौंह॥434॥
बरजति = बरजना, मना करना। सौंह = शपथ। रिसौंहीं = रोषयुक्त, टेढ़ी। सहज = स्वभाविक। हँसौंहीं = हँसोड़, विकसित, प्रसन्नता-सूचक।
मान करने से मैं मना नहीं करती, (वरन्) उलटे मैं शपथ दिलाती हूँ (कि तू अवश्य मान कर; किन्तु कृपा कर यह तो बता कि क्या तुझसे) ये स्वाभाविक हँसोड़ भौंहैं रोषयुक्त (बंक) की जा सकेंगी?
खरी पातरी कान की कौनु वहाऊ बानि।
आक-कली न रली करै अली अली जिय जानि॥435॥
खरी = अत्यन्त। बहाऊ = बहा ले जानेवाली, बहकाऊ। आक = अकवन। रली करै = विहार करे। अली = सखी। अली = भौंरा।
तुम कान की अत्यन्त पतली हो-जो कोई चुगली कर देता है, सुन लेती हो। यह कौन-सी बहकाऊ आदत है? सखी! यह बात हृदय से जान लो कि भौंरा अकवन की कली के साथ विहार नहीं करता-(तुम-सी तन्वंगी तरुणी को छोड़कर अन्य काली-कलूटी के पास वह रसिक नायक नहीं जा सकता।)
रुख रूखी मिस रोष मुख कहति रुखौंहैं बैन।
रूखे कैसैं होत ए नेह चीकने नैन॥436॥
रुख = चेष्टा। मिस बहाना। रुखौंहैं = रूखी-सूखी, कर्कश। नेह- चीकने = (1) स्नेह-स्निग्ध, प्रेम-रस में पगे (2) चेल से चीकने बने।
रूखी चेष्टा से क्रोध का बहाना कर मुख से रूखी बातें कहती है; किन्तु प्रेम से पगे ये नैंन कैसे रूखे हों?
सौंहैं हूँ हेर्यौ न तैं केती द्याई सौंह।
ए हो क्यौं बैठी किए ऐंठी-ग्वैंठी भौंह॥437॥
सौंहैं = सम्मुख। हेरîौ = देखा। द्याई = दिलाई। सौंह = शपथ, कसम। ए हो = अरी। ऐंठो-ग्वैंठी = टेढ़ी-मेढ़ी, बंकिम।
कितनी भी कसमें दिलाईं; किन्तु तूने सामने न देखा-मेरी ओर न ताका। अरी, यों भौंहों को टेढ़ी-मेढ़ी करके क्यों बैठी है?
ए री यह तेरी दई क्यौं हूँ प्रकृति न जाइ।
नेह-भरे ही राखियैं तउ रूखियै लखाइ॥438॥
प्रकृति = स्वभाव। लखाई = दीख पड़ना। नेह = (1) प्रेम (2) तेल।
अरी! हाय री दई! यह तेरा स्वभाव किसी प्रकार नहीं बदलता। नेह से भरे (हृदय में) रखने पर भी तू रूखी दीख पड़ती है-नीरस (क्रुद्ध) ही मालूम पड़ती है।
बिधि बिधि कौन करै टरै नहीं परे हूँ पान।
चितै कितै तैं लै धर्यौ इतौं इतैं तनु मान॥439॥
बिधि = ब्रह्मा। टरै = निकले, दूर हो। पान = पैरों। चितै = देखो। कितै = कहाँ से। इतौं = इतना। इतैं = इतने।
पैरों पड़ने से भी (तेरा मान) दूर नहीं होता। (अब) हे विधाता, किस विधान से यह दूर होगा? देख, इतने-से (छोटे) शरीर में तूने इतना (बड़ा) मान कहाँ से लेकर रख लिया है?
तो रस राँच्यौ आन-बस कहैं कुटिल-मति कूर।
जीभ निबौरी क्यौं लगै वौरी चाखि अँगूर॥440॥
रस = प्रेम। राँच्यौ = अनुरक्त है। आन-बस = परवश। कूर = क्रूर, निर्दय। निबौरी = नीम। लगैं = आसक्त हो। बौरी = पगली।
(प्रीतम तो) तुम्हारे ही प्रेम में पगा है। (जो उसे) दूसरे के वश में बतलाते हैं, वे कुटिल-बुद्धि और निर्दय हैं। अरी पगली! जीभ अंगूर चखकर नीम पर किस प्रकार अनुरक्त होगी-(तुम्हारे इस सुन्दर रूप के आगे उसे अन्य स्त्री कैसे पसंद आयेगी?)
हा हा बदनु उघारि दृग सुफल करैं सबु कोइ।
रोज सरोजनु के परै हँसी ससी की होइ॥441॥
बदन उघारि = घूँघट उठा दो। रोज परै = रोना पड़े। हँसी = निंदा।
अहाहा! जरा अपना मुख उधार दो, ताकि सब कोई नेत्र सफल कर लें, कमलों को रोना पड़े, और चन्द्रमा की हँसी हो।
गहिली गरबु न कीजिये समै सुहागहिं पाइ।
जिय की जीवनि जेठ सो माह न छाँह सुहाइ॥442॥
गहिली = (सं. ग्रहिली) पगली। माह = माघ। छाँह = छाया।
अरी बावली! यह जवानी का समय और प्रीतम के प्रेम का सौभाग्य पाकर अभिमान न कर। देख, जो जेठ (जवानी) में प्राणों का प्राण है, वही छाया (स्त्री) माघ में (जवानी ढलने पर) नहीं सुहाती-अच्छी नहीं लगती।
कहा लेहुगे खेल पैं तजौ अटपटी बात।
नैकु हँसौंद्दी हैं भई भौंहैं सौंहैं खात॥443॥
कहा = क्या। लेहुगे = लोगे, पाओगे। खेल पैं = विनोद से। अटपटी = बे-सिर-पैर की। हँसौंही = हँसीली। सौंहैं = सौगन्द।
इस खेल में क्या पा जाओगे? अटपटी बातों को छोड़ो। कितनी सौगन्दें खाने पर इसकी भौंहैं जरा हँसीली हुई हैं-तुम्हारी निर्दोषिता के विषय में कितनी सौगन्दें खाकर मैंने इसे कुछ-कुछ मनाया है। (फिर अंटसंट बोलकर इसे क्यों चिढ़ा रहे हो?)
सकुचि न रहियै स्याम सुनि ए सतरौहैं बैन।
देत रचौंहैं चित कहे नेह नचौंहैं नैन॥444॥
सकुचि = संकोच करके। सतरौंहैं = क्रोधपूर्ण। बैन = वचन। रचौंहैं = प्रेम में शराबोर, राँचे हुए। नचौहैं = नाचते हुए चंचल।
इन क्रोधपूर्ण बातों को सुनकर, हे श्याम, संकोच करके न रह जाइए। उसकी प्रेम से चंचल हुए नेत्र देखकर प्रकट होता है कि उसका हृदय प्रेम से शराबोर है।
चलौ चलैं छुटि जाइगौ हठु रावरैं सँकोच।
खरे चढ़ाए हे ति अब आए लोचन लोच॥445॥
चलैं = चलने पर। रावरैं = आपके, तुम्हारे । सँकोच = मुरौवत, मुलाहजा, लिहाज। खरे चढ़ाए = खूब चढ़े हुए, क्रुद्ध।
चलो, चलने पर तुम्हारे संकोच में पड़कर उसका हठ (मान) छूट जायगा-वह मान जायगी, क्योंकि जो नेत्र तब खूब चढ़े हुए (क्रुद्ध) थे, उनमें अब लोच (कोमलता) आ गई है-उसकी चढ़ी हुई आँखें अब नम्र हो गई हैं।
अनरस हूँ रस पाइयतु रसिक रसीली पास।
जैसे साँठे की कठिन गाँठ्यौ भरी मिठास॥446॥
साँठे = ऊँख, ईख। गाँठ्यौ = गाँठ (गिरह) में भी।
ऐ रसिया! रसीली (नायिका) के पास अनरस (क्रोध और मान) में भी रस (आनंद) मिलता है, जिस प्रकार ऊख की कठिन गाँठ में मिठास भी भरी हुई रहती है।
क्यौंहूँ सह मात न लगै थाके भेद उपाइ।
हठ दृढ़-गढ़ गढ़वै सु चलि लीजै सुरँग लगाइ॥447॥
सह = (1) शह = शतरंज की एक चाल, जिससे शाह की मात होती है। ()()()
(2) युक्ति। मात न लगे = (1) मात (परास्त) नहीं होती (2.)नहीं मानती। गढ़वै = किलेदार, गढ़पति। सुरँग = (1) जमान के अन्दर-ही-अंदर खोदकर बना हुआ बन्द रास्ता। (2) सुन्दर प्रेम। कहीं-कहीं ‘सह मात’ के स्थान पर ‘सह बात’ भी पाठ है, जिसका अर्थ है ‘मेल की बातचीत।’
किसी प्रकार शह देने से भी मात नहीं होती-किसी भी युक्ति से नहीं मानती। भेद (फूट) के सारे उपाय थक गये-मैं समझा बुझा (फोढ़) कर हार गई। (अतएव) अब आप ही चलकर उस हठ-रूपी दृढ़ गढ़ की किलेदारिन को सुरंग लगाकर-सुन्दर प्रेम जताकर-(जीत) लीजिए।
वाही निसि तैं ना मिटौ मान कलह कौ मूल।
भलें पधारैं पाहुने ह्वै गुड़हर कौ फूल॥448॥
कलह = झगड़ा। मूल = जड़। पाहुने = अतिथि, मेहमान। गुड़हर कौ फूल = अड़हुल का फूल।
हे झगड़े का मूल मान! तुम उसी रात से नहीं मिटे-उस रात से अबतक तुम वर्त्तमान हो। ऐ पाहुने! अड़हुल का फूल होकर तुम अच्छे आये!
नोट - भाव यह है कि मान कभी-कभी पाहुने की तरह आता और कुछ काल तक ठहरता है और, स्त्रियों का विश्वास है कि जिस घर में अड़हुल का फूल होगा, वहाँ स्त्री-पुरुष में न पटेगी। इसलिए यहाँ ‘पाहुन’ और ‘अड़हुल का फूल’ कहा है।
आए आपु भली करो मेटन मान-मरोर।
दूरि करौ यह देखिहै छला छिगुनिया छार॥449॥
छला = अँगूठी। छिगुनिया = कनिष्ठा अँगुली। छोर = अन्त।
मान का मरोड़ (ऐंठ) मेंटने को-समझा-बुझाकर (इस नायिका को) मनाने के लिए-आये, सो तो आपने अच्छा ही किया। किन्तु छिगुनी के छोर में पहनी गई इस अँगूठी को-(जो निस्संदेह किसी अन्य युवती की है, क्योंकि छोटी-पतली उँगलियों में पहनी जानेवाली-होने के कारण आपकी अँगुली के छोर पर ही अटकी हुई है)-दूर कीजिये, (नहीं तो) वह देख लेगी (तो फिर मनाना कठिन हो जायगा!)
हम हारीं कै कै हहा पाइनु पार्यौ प्यौऽरु।
लेहु कहा अजहूँ किए तेह तरेर्यौ त्यौरु॥450॥
कै कै हहा = हाय-हाय या दौड़-धूप और कोशिश पैरवी करके। पार्यौ = डाल दिया। प्यौऽरु = प्यौ+अरु = अरु प्यौ = और प्रीतम को। अजहूँ = अब भी, इतनेपर भी। तेह तरेर्यौ त्यौरु = क्रोध से त्योरियाँ चढ़ाये।
हाय-हाय करके मैं हार गई, और प्रीतम को भी तुम्हारे पैरों पर लाकर ढाल (गिरा) दिया- (मैं भी समझा‘-बुझाकर थक गई और नायक भी मेरे कहने से तुम्हारे पैरों पड़ा)-इतने पर भी क्रोध से त्योरियाँ चढ़ाकर क्या पाओगी?
लखि गुरुजन बिच कमल सौं सीसु छुवायौ स्याम।
हरि-सनमुख करि आरसी हियैं लगाई बाम॥451॥
गुरुजन = श्रेष्ठ पुरुष, माता-पिता आदि। सौं = से। आरसी = आईना। बाम = बामा, युवती स्त्री।
(उसे) गुरुजनों के बीच में देखकर श्रीकृष्ण ने अपना सिर कमल से छुलाया (अर्थात्-हे कमलनयने! अभिवादन करता हूँ) इस पर उस स्त्री (राधिका) ने दर्पण को श्रीकृष्ण के सम्मुख करके हृदय से लगाया (अर्थात्-इसी दर्पण के समान मेरे निर्मल हृदय में भी तुम्हारा प्रतिबिम्ब विराज रहा है)।
मनु न मनावन कौं करै देतु रुठाइ रुठाइ।
कौतुक लाग्यौ प्यौ प्रिया खिझहूँ रिझवति जाइ॥452॥
कौतुक = विनोद, मनोरंजन। लागै = निमित्त। खिझहूँ = खीझ (झुँझला) कर ही। रिझवति जाइ = प्रसन्न करती जाती है।
(प्रियतमा के रूठने की भावभंगी पर मुग्ध होने के कारण प्रीतम को प्रिया के) मनाने का मन नहीं करता, (अतएव) वह बार-बार उसे रूठा देता है। (इधर) प्रीतम के कौतुक के लिए प्रियतमा भी (झूठमूठ अधिकाधिक) खीझकर ही उसे रिझाती जाती है।
सकत न तुव ताते वचन मो रस कौ रस खोइ।
खिन-खिन औटे खीर लौं खरौ सवादिलु होइ॥453॥
ताते = (1) जली-कटी (2) गरम। रस = प्रेम। रस = (1) स्वाद (2) पानी। खिन-खिन = क्षण-क्षण। खीर लौं = (क्षीर) दूध की तरह।
तुम्हारी जली-कटी बातें मेरे प्रेम रस को खो (सोख या सुखा) नहीं सकती-नष्ट नहीं कर सकतीं। (वह तो इन तप्त वचनों से) क्षण-क्षण (अधिकाधिक) औंटे हुए दूध के समान और भी अधिक स्वादिष्ट होता जाता है।
खरैं अदब इठलाहटो उर उपजावति त्रासु।
दुसह संक विष कौ करै जैसैं सोंठि मिठासु॥454॥
खरैं = अत्यंत। अदब = शिष्टता। इठलाहटी = ऐंठ भी। त्रास = डर। दुसह = कठोर। सोंठि मिठासु = सोंठ में मिठास आ जाने पर वह विषैली हो जाती है, खाने से दस्त-कै और सिर-दर्द होने लगता है।
(प्यारी का) अदब के साथ इठलाना भी हृदय में भय उत्पन्न करता है। जिस प्रकार सोंठ की मिठास (सोंठ का स्वाभाविक स्वाद तीता है, अतएव उसकी मिठास) विष की कठिन शंका पैदा करती है।
राति द्यौस हौंसै रहति मान न ठिकु ठहराइ।
जेतौ औगुन ढूँढ़ियै गुनै हाथ परि जाइ॥455॥
हौसै रहति = हौसला ही बना रहता है। ठिकु न ठहराइ = ठीक नहीं जँचता। हाथ परि जाइ = हाथ लग (मिल) जाते हैं।
रात-दिन उत्सुकता बनी रहती है (कि मान करूँ), किन्तु मान ठीक नहीं जँचता। (क्योंकि मान करने के बहाने के लिए) जितने ही अवगुण उसमें ढूँढ़ती हूँ, उतने ही गुणों (पर) हाथ पड़ जाते हैं।
सतर भौंह रूखे वचन करति कठिनु मनु नीठि।
कहा करौं ह्वै जाति हरि हेरि हँसौंहीं डीठि॥456॥
सतर = तिरछी। नीठि = मुश्किल से। कहा = क्या। हेरि = देखकर। हँसौंहीं = हँसीयुक्त, प्रफुल्ल।
(मान करने की गरज से) मुश्किल से भौंहैं तिरछी, वचन रूखे और मन कठोर करती हूँ, (किन्तु) क्या करूँ, श्रीकृष्ण को देखते ही दृष्टि विकसित हो जाती है- आँखें हँस पड़ती हैं! (फिर मान कैसे हो?)
मो ही कौ छुटि मान गौ देखत ही ब्रजराज।
रही घरिक लौं मान-सी मान करे की लाज॥457॥
मो = मेरे। ही = हृदय। छुटि गौ = छूट गया। ब्रजराज = श्रीकृष्ण। घरिक = घड़ी+एक = एक घड़ी। मान-सी = मान के समान।
श्रीकृष्ण को देखते ही मेरे हृदय का मान छूट गया। हाँ, उस मान के समान मान करने की लाज एक घड़ी तक अवश्य रही-(एक घड़ी तक इस लाज में ठिठकी रही कि ऐसा मान नाहक क्यों किया, जो निभ न सका।)
दहैं निगोड़े नैन ए गहैं न चेत अचेत।
हौं कसु कै रिसहे करौं ए निसिखे हँसि देत॥458॥
चेत न गहैं = होश नहीं सँभालते। अचेत = बेहोश। कसु कै = कसकर, चेष्टा करके। रिसहे = रोषयुक्त। निसिखे = अशिक्षित, मूर्ख।
ये निगोड़े नैन जल जायँ। ये बेहोश कुछ भी होश नहीं सँभालते। मैं कसकर-बड़ी चेष्टा से-इन्हें रोषयुक्त बनाती हूँ, और ये मूर्ख हँस देते हैं।
तुहूँ कहति हौं आपु हूँ समुझति सबै सयानु।
लखि मोहनु जौ मनु रहै तौ मनु राखौं मानु॥459॥
आपु हूँ = स्वयं भी। सयानु = चतुराई की बातें, चातुरी।
तू भी कहती है और मैं स्वयं भी सब चातुरी समझती हूँ। किन्तु मोहन को देखकर जो मन स्थिर रह सके, तभी तो मन में मान रक्खूँ? (उन्हें देखकर मन ही नहीं स्थिर रहता, फिर मान कैसे करूँ?)
मोहिं लजावत निलज ए हुलसि मिलत सब गात।
भानु-उदै की ओस लौं मानु न जानति जात॥460॥
हुलसि = लालसा से भरकर। भानु = सूर्य। मानु = मान, गर्व।
(मेरे मान करने पर भी) ये सारे निर्लज्ज अंग (भुजाएँ, हृदय, आँखें, कपोल आदि) ललककर (उन्हें देखते ही) मिल जाते हैं, और मुझे लज्जित कर देते हैं। (सो क्या कहूँ) सूर्योदय (के बाद) की ओस के समान मान नहीं जान पड़ता। (समझ में नहीं आता, कैसे गायब हो जाता है।)
खिचैं मान अपराध हूँ चलि गै बढ़ैं अचैन।
जुरत दीठि तजि रिस खिसी हँसे दुहुँन के नैन॥461॥
अचैन = बेचैनी। जुरत = जुड़ते। दीठि = नजर। खिसी = लाज।
दोनों के नेत्र पहले मान और अपराध के कारण (नायिका के मान और नायक के अपराध के कारण) ही खिंचे रहे-तने रहे। किन्तु बेचैनी बढ़ते ही (एक दूसरे से मिलने को) चल दिये और नजर जुड़ते (आँखें चार होते) ही क्रोध एवं लाज छोड़कर दोनों के नेत्र हँस पड़े (खिल उठे)।
नभ लालो चाली निसा चटकाली धुनि कीन।
रति पाली आली अनत आए वनमाली न॥462॥
नभ = आकाश। चटकाली = पक्षियों का समूह। रति पाली = प्रेम का पालन किया, समागम या विहार किया। आली = सखी। अनत = अन्यत्र।
आकाश में लाली छा गई, रात बीत गई, पक्षी-समूह चहचहाने लगा, (किन्तु) कृष्णजी न आये। हे सखि! (मालूम पड़ता है कि) उन्होंने कहीं अन्यत्र प्रेम का पालन किया (विहार किया)।
दच्छिन पिय ह्वै बाम बस बिसराँई तिय-आन।
एकै वासरि कैं बिरह लागी बरप बिहान॥463॥
दच्छिन = दक्षिण = चतुर, दक्ष। बाम = कुटिला (स्त्री)। बासरि = दिन। तिय-आन = स्त्रियों की आन (टेक)। बिहान लागी = बीतने लगी।
चतुर नायक होकर भी तुमने कुटिला के वश में पड़कर प्रेमिका की आन भुला दी-प्रेमिका अपने प्रीतम को दूसरी स्त्री के वश में नहीं देख सकती, यह बात भुला दी। (चलकर अपनी प्यारी को तो देखो कि) एक ही दिन का विरह उसे वर्ष के समान बीत रहा है।
आपु दियौ मन फेरि लै पलटैं दीनी पीठि।
कौन चाल यह रावरी लाल लुकावत डीठि॥464॥
मन फेरि लै = मन फेर लिया, उदासीन बन गये। पलटैं = बदले में। पीठि दीनी = पीठ दी = विमुख बन गये। डीठि लुकावत = नजर चुराते हो = शर्माते हो।
अपना दिया हुआ मन वापस लेकर बदले में पीठ दे दी! (यहाँ तक तो अच्छा था, क्योंकि एक चीज फेर ली, तो उसके बदले में दूसरी दे दी-मन फेर लिया और पीठ दे दी!) किन्तु लाल, आपकी यह कौन-सी चाल है कि अब नजर चुरा रहे हो? (चुराना तो चोर का काम है!)
नोट - ”मन फेर लेना, पीठ देना, आँखें चुराना“-इन तीन मुहावरों द्वारा इस दोहे में कवि ने जान डाल दी है। सिवा उर्दू-कवियों के कोई भी हिन्दी-कवि इस प्रकार मुहावरे की करामात नहीं दिखा सका है। हाँ, ‘रसलीन’ ने भी अच्छी मुहावरेबन्दी की है।
मोहि दयौ मेरौ भयौ रहतु जु मिलि जिय साथ।
सो मनु बाँधि न सौंपियै पिय सौतिन कैं हाथ॥ 465॥
जिय = जीव, प्राण। सो = वह। सौंपिये = जिम्मे कीजिए।
आपने मुझे (मन) दिया, (फलतः) वह मेरा हो गया, और अब वह मेरे प्राणों के साथ मिलकर रहता है। उस मन को (जबरदस्ती) बाँधकर, हे प्रीतम, सौतिन के हाथ मत सौंपिए। (एक तो उसपर मेरा अधिकार, दूसरे वह मुझसे राजी, फिर न्यायतः उसे दूसरे को देना आपको उचित नहीं!)
मार्यौ मनुहारिनु भरी गार्यौ खरी मिठाहिं।
वाकौ अति अनखाहटौ मुसक्याहट बिनु नाहिं॥466॥
मार्यौ = मार भी। मनुहारिनु = मनुहारों, प्यारों। गार्यौ = गाली भी। खरी = अत्यन्त। मिठाहिं = मीठी। अनखाहटौ = क्रोध भी।
उसकी मार भी प्यारों से भरी है, और गाली भी अत्यन्त मीठी है। उसका अत्यन्त क्रोध भी बिना मुस्कुराहट के नहीं होता। (नायक के हृदय में नायिका के प्रतिकूल कुछ नहीं सूझता!)
तुम सौतिन देखत दई अपनैं हिय तैं लाल।
फिरति डहडही सबनु मैं वहै मरगजी माल॥467॥
देखत = देखते रहने पर। डहडही = हरी-भरी, फूली-फली, आनन्दित। सबनु = सब लोगों या सखियों के बीच। मरगजी = मलिन, मुरझाई हुई।
हे लाल, तुमने सौतिन के देखते रहने पर भी अपने हृदय से (माला उतारकर) उसे दी, सो उस मुरझाई हुई (मलिन) माला को पहने वह सब (सहेलियों) में आनन्दित बनी फिरती है।
बालम बारैं सौति कैं सुनि पर-नारि-बिहार।
भो रसु अनरसु रिस रली रीझि खीझि इक बार॥468॥
बालम = बल्लभ = पति। बारैं = पारो, भाँज। बिहार = सम्भोग। रसु = सुख। अनरसु = दुःख। रिस = क्रोध। रली = क्रीड़ा, मजाक। रीझि = प्रसन्नता। खीझि = अप्रसन्नता।
सौतिन की पारी में अपने पति के दूसरी स्त्री के साथ विहार करने की बात सुनकर नायिका के मन में सुख और दुःख, क्रोध और मजाक, रीझ और खीझ (ये परस्पर-विरोधी भाव) एक ही समय हुए।
नोट - सुख, मजाक और रीझ इसलिए कि अच्छा हुआ, सौतिन को दुःख हुआ; और दुःख, क्रोध तथा खीझ इसलिए कि कहीं मेरी पारी में भी ऐसा ही न हो।
सुघर-सौति-बस पिउ सुनत दुलहिनि दुगुन हुलास।
लखी सखी-तन दीठि करि सगरब सलज सहास॥469॥
सुघर = सुन्दर गढ़न की, सुडौल। दुलहिनि = नई बहू, नवोढ़ा। हुलास = आनन्द। सखी-तन = सखी की ओर। दीठि = नजर।
अपने पति को सुन्दरी सौतिन के वश में सुनकर नई बहू का आनन्द दुगुना हो गया। उसने गर्वीली, लजीली और हँसीली नजरों से सखी की ओर देखा।
नोट- आनन्दित होकर सखी की ओर देखने का भाव यह है कि हे सखी, घबराओ मत, यदि वे वस्तुतः सौन्दर्य के प्रेमी हैं, तो एक-न-एक दिन अवश्य मेरी ओर आकृष्ट होंगे। रूपगर्विता!!
हठि हितु करि प्रीतम लियौ कियौ जु सौति सिंगारु।
अपने कर मोतिनु गुह्यौ भयौ हरा हर-हारु॥470॥
हित = प्रेम। सिंगारु = शृंगार। गुह्यौ = गूँथकर। हरा = हार, माला। हर-हारु = शिव की माला, सर्प की माला।
अपने हाथों से मोतियों की माला गूँथकर हठ और प्रेम करके सौतिन ने प्रीतम के हृदय का जो शृंगार किया-प्रीतम के हृदय को उस मोतियों की माला से आभूषित किया-सो (वह मोतियों की माला) नायिका के लिए सर्प की माला (सी दुःखदायिनी) हुई।
बिथुर्यौ जावकु सौति पग निरखि हँसी गहि गाँसु।
सलज हँसौंहीं लखि लियौ आधी हँसी उसाँसु॥471॥
बिथुर्यौ = पसरा हुआ। जावकु = महावर। गाँसु गहि = ईर्ष्या से, डाह से। उसाँसु = ऊँची साँस, उसाँस, दीर्घ निःश्वास।
(अपनी) सौतिन के पैरों में पसरा हुआ महावर देख (उसे फूहड़ समझ) ईर्ष्या से हँसने लगी। (किन्तु अपनी इस हँसी के कारण) सौतिन को लजीली होकर हँसते देख (यह समझा कि यह बेढंगा महावर नायक ने लगाया है) आधी हँसी में ही (दुःख से) लम्बी साँस लेने लगी।
बाढ़तु तो उर उरज-भरु भरि तरुनई बिकास
बोझनु सौतिनु कैं हियैं आवति रूँधि उसास॥472॥
उर = छाती। उरज-भरु = कुचों का भार! तरुनाई = जवानी। बिकास = खिलना। बोझनु = बोझ से। हियैं = हृदय में। उसास = उच्छ्वास, गर्म आइ, लम्बी साँस, दुःख भरी साँस।
जवानी के विकास से भरकर कुचों का भार बढ़ता जाता है तुम्हारी छाती पर, और उसके बोझ से रुँधी हुई उसासें आती हैं सौतिन के हृदय में (कैसा आश्चर्य है!)
ढीठि परोसिनी ईठि ह्वै कहे जु गहे सयानु।
सबै सँदेसे कहि कह्यौ मुसुकाहट में मानु॥473॥
ढीठि = ढिठाई से भरी, धृष्ट, शोख। ईठि = इष्ट-मित्र, सुहृद। सयानु गहैं = चतुराई के साथ।
धृष्ट पड़ोसिन ने मित्र बनकर जो कुछ कहने थे सो चतुराई के साथ कहे (और अन्त में कहा कि) इन सब सन्देशों को कहकर (अन्त में तुम्हारे प्रीतम ने) कहा है कि केवल मुस्कुराहट में मान कैसा?
चलत देत आभारु सुनि उहीं परोसिहिं नाह।
लसी तमासे की दृगनु हाँसी आँसुनु माँह॥474॥
आभारु = घर की देख-भाल का भार। नाह = नाथ, पति। लसी = शोभित हुई। तमासे की हँसी = कौतुक की हँसी। दृगनु = आँखों में। आँसुनु माँह = आँसुओं के बीच।
चलते समय अपने पति को उसी पड़ोसी (अपने गुप्त प्रेमी) को घर की देखभाल का भार देते सुनकर उसकी आँखों में आँसुओं के बीच कौतुक की हँसी शोभित हुई।
नोट - यद्यपि आँसू ढालकर ऊपर से वह दिखला रही है कि पति के (विदेश) जाने से वह दुःखित है; किन्तु यह देखकर कि घर की देख-रेख का भार उन्होंने पड़ोसी ही को सौंपा है, अतएव अब इस (अपने गुप्त प्रेमी) से खुलकर खेलने में कोई अड़चन न होगी, वह मन-ही-मन आनंदित भी हो रही है।
छला परोसिनि हाथ तैं छलु करि लियौ पिछानि।
पियहिं दिखायौ लखि बिलखि रिस-सूचक मुसुकानि॥475॥
छला = अँगूठी। छल करि = चालाकी या चालबाजी से। पिछानि = पहचानकर। लखि = देखती हुई। बिलखि = व्याकुल होकर।
उस अँगूठी को पहचानकर पड़ोसिन के हाथ से छल करके ले लिया और फिर व्याकुल होकर क्रोध-सूचक मुस्कुराहट के साथ (प्रीतम की ओर) देखती हुई प्रीतम को उसे दिखलाया (कि देखिए, यह आपकी अँगूठी उसकी अँगुली में कैसे गई!)
रहिहैं चंचल प्रान ए कहि कौन की अगोट।
ललन चलन की चित धरी कल न पलनु की ओट॥476॥
कहि = कहो। अगोट = अग्र+ओट = आड़। ललन = प्रीतम। चित धरी = इरादा किया है, निश्चय किया है। पलनु = पलकें, आँखें।
कहो, किसकी आड़ में ये चंचल प्राण (टिक) रहेंगे-कौन इन प्राणों को निकलने से रोक सकेगा? प्रीतम ने (विदेश) चलने की बात चित्त में धरी है और यहाँ आँखों की ओट होते ही कल नहीं पड़ती- (उन्हें देखे बिना क्षण-भर शान्ति नहीं मिलती)।
पूस मास सुनि सखिन पैं साँई चलत सवारु।
गहि कर वीन प्रबीन तिय राग्यौ रागु मलारु॥477॥
साँई = स्वामी, पति। सवारु = सबेरे। राग्यौ = गाया, अलापा।
पूस के महीनों में, सखियों से (यह) सुनकर कि कल प्रातःकाल प्रीतम (परदेश) जायँगे, वह सुचतुरा स्त्री हाथ में वीणा लेकर मलार-राग गाने लगी (ताकि मेघ बरसे और प्रीतम का परदेश जाना रुक जाय; क्यांेकि अकाल वृष्टि से यात्रा रुक जायगी।)।
नोट - संगीत-शास्त्र के अनुसार मलार-राग गाने से मेघ बरसता है और सुखद बरसात में रसिक पति परदेश नहीं जाते।
ललन चलनु सुनि चुपु रही बोलो आपु न ईठि।
राख्यौ गहि गाढ़ैं गरैं मनौ गलगली डीठि॥478॥
ललन = प्रीतम। ईठि = प्यारी सखी। गाढ़ैं गहि = जोर से पकड़कर। गरैं = गला। गलगली = आँसुओं से डबडबाई हुई। डीठि = आँख।
हे सखी, प्रीतम का (परदेश) चलना सुनकर वह चुप हो रही, स्वयं कुछ नहीं बोली, मानो डबडबाई हुई आँखों ने उसके गले को जोर से पकड़ रक्खा हो-(अश्रुगद्गद कंठ रुद्ध हो गया हो!)।
बिलखी डभकौहैं चखनु तिय लखि गवनु बराइ।
पिय गहबरि आऐं गरैं राखो गरैं लगाइ॥479॥
बिलखीं = व्याकुल। डभकौंहैं = डबडबाई हुई। गबनु बराइ = जाना रोककर। गहवरि आऐं गरैं = भर आये हुए गले से, गद्गद कंठ से।
व्याकुल और डबडबाई हुई आँखों से, नायिका को देश (परदेश) जाना रोककर प्रीतम ने गद्गद कंठ से उसे गले लगा रक्खा।
चलत चलत लौं लै चलैं सब सुख संग लगाइ।
ग्रीष्म-वासर सिसिर-निसि प्यौ मो पास बसाइ॥480॥
ग्रीषम-बासर = गरमी के दिन। सिसिर-निसि = जाड़े की रात।
(परदेश) चलते-ही-चलते सब सुखों को संग लगाकर ले चले-जाते-ही-जाते सब सुखों को साथ ले गये। हाँ, ग्रीष्म के (तपते हुए बड़े-बड़े) दिन और शिशिर की (ठिठुरानेवाली लम्बी-लम्बी) रातें (इन्हीं दो को) प्रीतम ने मेरे पास बसा दीं-रख छोड़ीं। (रात-दिन इतने बड़े-बड़े और भयंकर मालूम होते हैं कि काटे नहीं कटते-जाड़े की रात और गरमी के दिन बहुत बड़े होते भी हैं)।
अजौं न आए सहज रँग बिरह-दूबरैं गात।
अबहीं कहा चलाइयतु ललन चलनु की बात॥481॥
अजौं = अभी तक। सहज = स्वाभाविक। रँग = कान्ति, छटा।
विरह से दुबली हुई (नायिका की) देह में अबतक स्वाभाविक कान्ति भी नहीं आई है, (फिर) हे ललन, (परदेश) चलने की बात अभी क्यों चला रहे हैं?
ललन चलनु सुनि पलनु में अँसुवा झलके आइ।
भई लखाइ न सखिनु हूँ झूठैं हीं जमुहाइ॥482॥
पलनु में = पलकों (आँखों) में। अँसुबा आइ झलके = चमकीले आँसू छलक आये। लखाइ न भई = मालूम नहीं हुई।
प्रीतम के परदेश चलने की बात सुनकर पलकों में आँसू आ झलके-आँखें डबडबा आईं। किन्तु नायिका के झूठी जम्हाई लेने के कारण (पास की) सखियों को भी (यथार्थ बात) नहीं मालूम हुई-(सखियों ने समझा कि ये आँसू अँगड़ाई लेने के कारण निकल आये हैं!)
चाह-भरीं अति रस-भरीं बिरह-भरीं सब बात।
कोरि सँदेसे दुहुँनु के चले पौरि लौं जात॥483॥
चाह = प्रेम। पौरि = दरवाजा, देवढ़ी। लौं = तक।
(नायक के परदेश चलने के समय नायक और नायिका-दोनों-की) सभी बातें प्रेमपूर्ण, अत्यन्त रसीली और विरह से भरी थीं। यों दरवाजे (देवढ़ी) तक जाते-जाते दोनों के (परस्पर) करोड़ों सन्देश आये-गये। (प्रेम, रस और विरह से भरी बातें होती चली गईं।)
मिलि-चलि चलि-मिलि मिलि चलत आँगन अथयौ भानु।
भयौ महूरत भोर कौ पौरिहिं प्रथम मिलानु॥484॥
अथयौ = डूब गया। भानु = सूर्य। महूरत = शुभ समय, यात्रा का समय। भोर = तड़कै, प्रातः। पौरिहिं = दरवाजा। मिलानु = मुकाम, डेरा।
मिल-मिलकर, चल-चलकर पुनः मिलकर फिर चलते हैं (यों इस मिलने-चलने में) आँगन ही में सूर्य डूब गया-प्रातःकाल ही का यात्रा-समय होने पर भी दरवाजें में ही पहला मुकाम हुआ-यद्यपि भोर ही यात्रा करने चले, तो भी इस मिलने-मिलाने से संध्या होने के कारण दरवाजे पर ही पहला डेरा जमाना पड़ा।
दुसह बिरह दारुन दसा रह्यौ न और उपाइ।
जात-जात जौ राखियतु प्यौ कौ नाउँ सुनाइ॥485॥
दुसह = असह्य। दारुन = भयंकर। और = अन्य। जात-जात = जाते-जाते, गमनोन्मुख। ज्यौ = प्राण। प्रिय = प्रीतम।
विरह असह्य है, अवस्था भयंकर है। (इस दशा से छुटकारा दिलाने का) कोई अन्य उपाय नहीं रह गया। प्रीतम का नाम सुना-सुनाकर ही उसके गमनोन्मुख प्राणों की रक्षा की जाती है।
पजर्यौ आगि बियोग की बह्यौ बिलोचन नीर।
आठौं जाम हियौ रहै उड़îौ उसास-समीर॥486॥
पजरयौ = पजरना, प्रज्वलित होना। बिलोचन = आँखों से। जाम = पहर। उसास = लम्बी साँस, शोकोच्छ्वास। समीर = पवन।
विरह की आग प्रज्वलित हो गई है, आँखों से आँसू बह रहे हैं-आँसुओं की झड़ी लग गई है-और हृदय में आठो पहर उच्छ्वास का पवन (बवंडर) उठ रहा है। (यों वह अबला एक ही साथ जल भी रही है, डूब भी रही है और बवंडर में उड़ भी रही है!)
नोट - विधवाओं की दशा पर एक ने लिखा है-”आह की अगिन में तड़पती है जलती है, लांछन की लहरी डुबोती प्राण लेती है। बिरह-बवंडर में व्याकुल बनी है बाला, आह री नियति! यह कैसी तेरी चित्रशाला!“
पलनु प्रगटि बरुनीनु बढ़ि छिनु कपोल ठहरात।
अँसुवा परि छतिया छिनकु छनछनाइ छिपि जात॥487॥
पलनु = पलकें, आँखों में। बरुनीनु = पपनी या पलक के बालों में। कपोल =गाल। छिनकु = छिन+एकु = एक क्षण। छिपि जात = लुप्त हो जाते हैं।
पलकों में प्रकट होते हैं-पलक ही उनकी जन्मभूमि है, बरुनियों में बढ़ते हैं-बरुनी ही उनकी क्रीड़ाभूमि है, (और वहाँ से बढ़कर) क्षण-भर के लिए (चिकने) गालों पर ठहरते हैं-यों गाल उनकी प्रवास-भूमि या कर्म-भूमि हैं। फिर आँसू (उस नायिका की विरह-विदग्ध) छाती पर पड़ एक ही क्षण में छनछनाकर लुप्त हो जाते हैं-अतएव छाती ही उनकी श्मशानभूमि हुई!
नोट - बिहारी ने इस एक ही दोहे में आँसुओं के बहाने मनुष्यों के जीवन की एक तस्वीर-सी खींच दी है। जन्म, बचपन, प्रवास या कर्म-साधना और मृत्यु-ये चार ही मनुष्य-जीवन के खेल हैं। उर्दू-कवि अकबर ने भी एक ही शेर में वर्त्तमान शिक्षितों के जीवन की बड़ी ही अच्छी तस्वीर खींची है-”हम क्या कहें अकबर की क्या कारे-नुमायाँ कर गये। बी.ए. हुए, डिपटी बने, पेन्शन मिली, फिर मर गये।“
करि राख्यौ निरधारु यह मैं लखि नारी-ज्ञानु।
वहै बैंदु ओषधि वहै वहई जु रोग-निदानु॥488॥
निरधारु = निश्चय। नारी-ज्ञानु = (1) नाड़ी का ज्ञान (2) स्त्री की चेष्टा। बैंदु = वैद्य। निदान = उपचार, व्यवस्था।
मैंने नाड़ी का ज्ञान देखकर (इस नारी की चेष्टा देखकर) यह निश्चय कर रक्खा है कि वही वैद्य है, वही औषध है, और जो रोग है वही निदान भी है। (प्रेम की बीमारी है, प्रेम ही उपचार है, प्रेम ही वैद्य बनेगा, और दवा भी प्रेम ही की होगी।)
नोट - इस दोहे में भी बिहारी ने वैद्यक के सभी उपकरणों का अच्छा विवरण दिया है। रोग, निदान, औषध और वैद्य-बस ये चार ही वैद्यक के उपकरण-साधन हैं।
मरिबै कौ साहसु ककै बढ़ै बिरह की पीर।
दौरति ह्वै समुहैं ससी सरसिज सुरभि-समीर॥489॥
मरिबे कौ = मरने का। ककै = करके। समुहैं = सम्मुख। ससी = शशि = चन्द्रमा। सरसिज = कमल। मुरभि-समीर = सुगंधित पवन।
विरह की पीड़ा बढ़ने पर मरने का साहस करके (वह उन्मादिन बाला) चन्द्रमा, कमल और पवन के सम्मुख होकर दौड़ती है। (यद्यपि चन्द्रमा, कमल और पवन शीतलता देने वाले हैं, तथापि विरह में उसे अत्यन्त तापपूर्ण जान पड़ते हैं, जिससे वह उनके सम्मुख दौड़ती है कि वे मुझे जला डालें।)
ध्यान आनि ढिग प्रानपति रहति मुदित दिन-राति।
पलकु कँपति पुलकति पलकु पलकु पसीजति जाति॥490॥
आनि = लाकर। ढिग = निकट। मुदित = प्रसन्न। पलकु = पल+एकु = एक पल या क्षण में।
(परदेश गये हुए) प्राणपति को ध्यान-द्वारा निकट लाकर-ध्यान में उन्हें अपने निकट बैठा समझकर (वह बाला) दिन-रात प्रसन्न रहती है। क्षण में काँपती हैं, क्षण में पुलकित होती है, और क्षण में पसीने से तर हो जाती है।
सकै सताइ न बिरहु-तमु निसि-दिन सरस सनेह।
रहै वहै लागी दृगनु दीप-सिखा-सी देह॥491॥
बिरह-तम = विरह-रूपी अंधकार। सरस सनेह = (1) प्रेम से शराबोर (2) तेल से भरा हुआ। दीप-सिखा = दिये की लौ।
विरह-रूपी अंधकार (नायक को) नहीं सता सकता, क्योंकि रात-दिन स्नेह से सरस (तेल से परिपूर्ण) दीपक की लौ के समान (उस नायिका की) देह उसकी आँखों से लगी रहती है-उसकी आँखों में बसी रहती है। (जहाँ दीपक की लौ, वहाँ अंधकार कहाँ!)
नोट - जो लोग हिन्दी में ‘पुरुष-विरह-वर्णन’ का अभाव देखकर दुःखित होते हैं उन्हें यह दोहा याद रखना चाहिए।
बिरह-जरी लखि जीगननु कह्यौ न उहि कै बार।
अरी आउ भजि भीतरै बरसत आजु अँगार॥492॥
बिरह-जरी = विरह-ज्वाल से जली हुई। जीगननु = जुगनुओं, भगजोगनियों। भजि = भागकर। अँगार = आग, चिनगारी।
विरह से जली हुई उस (नायिका) ने भगजोगनियों को देखकर उन सखियों से न जाने कितनी बार कहा (अर्थात् बहुत बार कहा) कि अरी! भीतर भाग आ, आज (आकाश से) चिनगारी की वर्षा हो रही है। (जल जायगी!)।
नोट - विरह में व्याकुल बाला को वर्षा-ऋतु में दीख पड़नेवाली भगजोगनी चिनगारी के समान दाहक मालूम पड़ती है।
अरैं परैं न करैं हियौ खरैं जरैं पर जार।
लावति घोरि गुलाब-सौं मलै मलै घनसार॥493॥
अरैं न परैं = अलग नहीं करती। खरैं = अत्यन्त। मलै = मलयज चंदन, श्रीखंड। घनसार = कर्पूर।
अरी सखी! हठ में मत पड़, अत्यन्त जले हुए हृदय को क्यों जला रही है? श्रीखंड और कर्पूर को मिलाकर (और उन्हें) गुलाब-जल में घोलकर (हृदय पर) क्यों लगा रही है? (इससे तो ज्वाला और भी बढ़ती है!)
नोट - बिरहिणी नायिका को श्रीखंड, कर्पूर, गुलाब-जल आदि परम शीतल पदार्थ भी अत्यन्त तापदायक प्रतीत होते हैं।
कहे जु बचन वियोगिनी विरह-विकल बिललाइ।
किए न को अँसुवा सहित सुआ ति बोल सुनाइ॥494॥
जु = जो। बिललाइ = अंटसंट बककर। सुआ = सुग्गा। ति = वह।
विरह से व्याकुल होकर उस वियोगिनी ने जो बिललाकर वचन कहे, सुग्गे ने उस वियोगिनी के ही वचन सुनाकर किसकी आँखों को आँसू-सहित न कर दिया-किसको रुला न दिया?
नोट ‘- नायिका के पास एक सुग्गा (तोता) था। उसने नायिका के प्रलापों को सुनते-सुनते याद कर लिया था। वह प्रायः उन प्रलापों को उसी मर्मस्पर्शी स्वर में कहता था, जिन्हें सुनकर लोग करुणावश रो पड़ते थे।
सीरैं जतननु सिसिर-रितु सहि बिरहिनि तन-तापु।
बसिबे कौं ग्रीषम दिननु पर्यौ परोसिनि पापु॥495॥
सीरैं जतननु = शीतल उपचारों (खस की टट्टी, बरफ आदि) से। सिसिर-रितु = पूस-माघ। तन-तापु = शरीर की ज्वाला। बसिबे कौं = रहने को। पापु पर्यौ = पाप पड़ गया = अत्यन्त कठिन हो गया, महादुःखदायक हो गया।
(पड़ोसियों ने अत्यन्त शीतल) शिशिर-ऋतु में शीतल उपचारों से विरहिणी नायिका के शरीर की ज्वाला को (किसी तरह) सहन किया। किन्तु (जलते हुए) ग्रीष्म के दिनों में (उस विरहिणी के पड़ोस में) रहना पड़ोसियों के लिए अत्यन्त कठिन हो गया।
पिय प्राननु की पाहरू करति जतन अति आपु।
जाकी दुसह दसा पर्यौ सौतिनि हूँ संतापु॥496॥
पाहरू = पहरुआ, रक्षक। दुसह =असह्य। संताप = पीड़ा।
(नायिका को) प्रीतम के प्राणों की रक्षिका समझकर उसकी रक्षा के लिए (सौतें) स्वयं भी अत्यन्त यत्न करती हैं (क्योंकि उसके बिना नायक नहीं जी सकता)। (आह! उसके दुःख का क्या पूछना!) जिसकी असहनीय अवस्था देखकर (स्वभावतः जलनेवाली) सौतों को भी दुःख होता है।
आड़े दै आले वसन जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेह-बस सखी सबै ढिग जाति॥497॥
आड़े दै = ओट देकर, ओट करके। आले = भीगे हुए, ओढ़े। साहस = हिम्मत। सखी सबै = सभी सखियाँ। ढिग = निकट।
जाड़े की (ठंडी) रात में भी, गीले कपड़े की ओट कर, बड़े साहस से, प्रेमवश सभी सखियाँ (उस विरहिणी नायिका के) निकट जाती हैं! (क्योंकि उसके शरीर में ऐसी प्रचण्ड विरह-ज्वाला है कि आँच सही नहीं जाती!)
सुनत पथिक-मुँह माह-निसि लुवैं चलति उहिं गाम।
बिनु बूझैं बिनु ही कहैं जियति बिचारी बाम॥498॥
पथिक = राही, यात्री, मुसाफिर। लुवैं = लू। उहि गाम = उसी ग्राम (गाँव) में। बिचारी = समझा। जियति = जीती है।
बटोही के मुँह से यह सुनकर कि माघ की रात में भी उस गाँव में लू चलती है, बिना पूछे और बिना कहे-सुने ही (नायक ने) समझ लिया कि नायिका (अभी) जीती है (और निस्संदेह उसी की विरह-ज्वाला से मेरे गाँव में ऐसी हालत है।)
इत आवति चलि जाति उत चली छ-सातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरैं-सैं रहै लगी उसासनु साथ॥499॥
इत = इधर। उत = उधर। चली = चलायमान या विचलित होकर या झोंके में पड़कर = खिंचकर। उसासनु = दुःख के कारण निकली हुई आह-भरी लम्बी साँस, जिसे दीर्घ निःश्वास, शोकोच्छ्वास, निसाँस आदि भी कहते हैं।
(विरह-वश अत्यन्त दुर्बल होने के कारण) लम्बी साँसों के साथ लगी हुई (नायिका मानो) झूले पर चढ़ी-सी रहती है। (झूला झूलने के समान लम्बी साँसों के झोंक से झूलती रहती है) फलतः वह (ऊँची साँसों के साथ) विचलित न होकर (कमी) छः-सात हाथ इधर आ जाती है (और कभी छः सात हाथ) उधर चली जाती है (उसका विरह-जर्जर कृश शरीर उसीकी लम्बी साँस के प्रबल झोंके से दोलायमान हो रहा है।)
(सो.) बिरह सुकाई देह, नेहु कियौ अति डहडहौ।
जैसैं बरसैं मेह, जरै जवासौ जौ जमै॥500॥
जवासौ = एक प्रकार का पेड़, जो वर्षा होने पर सूख जाता है। जैसे-अर्क जवास पात बिनु भयऊ-तुलसीदास। डहडहौ = हरा-भरा। मेह = मेघ। जौ = जीव, जड़, जपा, गुड़हर।
विरह ने देह को सुखा दिया और प्रेम को अत्यन्त हरा-भरा कर दिया, जैसे मेह के बरसने से जवासा जल जाता है और गुड़हर पुष्ट होता है।
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