Thursday, July 14, 2022

प्रबंध काव्य | पद्मावत (राघव-चेतन-दिल्ली-गमन-खण्ड) | मलिक मोहम्मद जायसी | Prabandh Kavya | Padmavat / Raghav Chetan Dilli Gaman Khand | Malik Muhammad Jayasi



 राघव चेतन कीन्ह पयाना । दिल्ली नगर जाइ नियराना ॥

आइ साह के बार पहूँचा । देखा राज जगत पर ऊँचा ॥

छत्तिस लाख तुरुक असवारा । तीस सहस हस्ती दरबारा ॥

जहँ लगि तपै जगत पर भानू । तहँ लगि राज करै सुलतानू ॥

चहूँ खँड के राजा आवहिं । ठाढ झुराहिं, जोहार न पावहिं ॥

मन तेवान कै राघव झूरा । नाहिं उवार, जीउ-डर पूरा ॥

जहँ झुराहिं दीन्हें सिर छाता । तहँ हमार को चालै बाता ? ॥


वार पार नहिं सूझै, लाखन उमर अमीर ।

अब खुर-खेह जाहुँ मिलि, आइ परेउँ एहि भीर ॥1॥


बादशाह सब जाना बूझा । सरग पतार हिये महँ सूझा ॥

जौ राजा अस सजग न होई । काकर राज, कहाँ, कर कोई ॥

जगत-भार उन्ह एक सँभारा । तौ थिर रहै सकल संसारा ॥

औ अस ओहिक सिंघासन ऊँचा । सब काहू पर दिस्टि पहूँचा ॥

सब दिन राजकाज सुख-भोगी । रैनि फिरै घर घर होइ जोगी ॥

राव रंक जावत सब जाती । सब कै चाह लेइ दिन राती ॥

पंथी परदेसी जत आवहिं । सब कै चाह दूत पहुँचावहिं ॥


एहू वात तहँ पहुँची, सदा छत्र सुख-छाहँ !

बाम्हन एक बार है, कँकन जराऊ बाहँ ॥2॥


मया साह मन सुनत भिखारी । परदेसी को? पूछु हँकारी ॥

हम्ह पुनि जाना है परदेसा । कौन पंथ, गवनब केहि भेसा ?॥

दिल्ली राज चिंत मन गाढी । यह जग जैस दूध कै साढी ॥

सैंति बिलोव कीन्ह बहु फेरा । मथि कै लीन्ह घीउ महि केरा ॥

एहि दहि लेइ का रहै ढिलाई । साढी काढु दही जब ताईं ॥

एहि दहि लेइ कित होइ होइ गए । कै कै गरब खेह मिलि गए ॥

रावन लंक जारि सब तापा । रहा न जोबन, आव बुढापा ॥


भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाँट ।

अज्ञा भइ हँकारहु, धरती धरै लिलाट ॥3॥


राघव चेतन हुत जो निरासा । ततखन बेगि बोलावा पासा ॥

सीस नाइ कै दीन्ह असीसा । चमकत नग कंकन कर दीसा ॥

अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ । तू मंगन, कंकन का बाहाँ ?॥

राघव फेरि सीस भुइँ धरा । जुग जुग राज भानु कै करा ॥

पदमिनि सिंघलदीप क रानी । रतनसेन चितउरगढ आनी ॥

कँवल न सरि पूजै तेहि बासा । रूप न पूजै चंद अकासा ॥

जहाँ कँवल ससि सूर न पूजा । केहि सरि देउँ, और को दूजा ? ॥


सोइ रानी संसार-मनि दछिना कंकन दीन्ह ।

अछरी-रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह ॥4॥


सुनि कै उतर साहि मन हँसा । जानहु बीजु चमकि परगसा ॥

काँच-जोग जेहि कंचन पावा । मंगन ताहि सुमेरु चढावा ॥

नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची । अबहुँ सँभारि बात कहु साँची ॥

कहँ अस नारि जगत उपराहीं । जेहि के सूरुज ससि नाहीं ?॥

जो पदमिनि सो मंदिर मोरे । सातौ दीप जहाँ कर जोरे ॥

सात दीप महँ चुनि चुनि आनी । सो मोरे सोरह सै रानी ॥

जौ उन्ह कै देखसि एक दासी । देखि लोन होइ लोन बिलासी ॥


चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रबि तपै अकास ।

जौ पदमिनि तौ मोरे , अछरी तौ कबिलास ॥5॥


तुम बड राज छत्रपति भारी । अनु बाम्हन मैं अहौं भिखारी ॥

चारउ खंड भीख कहँ बाजा । उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा ॥

धरमराज औ सत कलि माहाँ । झूठ जो कहै जीभ केहि पाहाँ ?॥

किछु जो चारि सब किछु उपराहीं । ते एहि जंबू दीपहि नाहीं ॥

पदमिनि, अमृत, हंस, सदूरू । सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू ॥

सातौं दीप देखि हौं आवा । तब राघव चेतन कहवावा ॥

अज्ञा होइ, न राखौं धोखा । कहौं सबै नारिन्ह गुन-दोषा ॥


इहाँ हस्तिनी, संखिनी औ चित्रिनि बहु बास ।

कहाँ पदमिनी पदुम सरि, भँवर फिरै जेहि पास ?॥6॥



(1) बार = द्वार । ठाढ झुराहिं = खडे खडे सूखते हैं । जोहार सलाम । तेवान = चिंता, सोच । झूरा = व्याकुल होता है, सूखता है । नाहिं उबार = यहाँ गुजर नहीं । दीन्हें सिर छाता = छत्रपति राजा लोग । उमर = उमरा, सरदार । खुर-खेह = घोडों की टापों से उठी धूल में ।


(2) सजग = होशियार । रैनि फिरै....जोगी को जोगी के भेस में प्रजा की दशा देखने को घूमता है । चाह = खबर ।


(3) मया साह मन = बादशाह के मन में दया हुई । सैति = संचित करके । बिलोव कीन्ह = मथा । महि = पृथ्वी ; मही, मट्ठा । दहि लेइ = दिल्ली में; दही लेकर । खेह = धूल, मिट्टी ।


(4) हुत = था । संसार मनि = जगत में मणि के समान ।


(5) जेहि कंचन पावा = जिससे सोना पाया । नावँ भिखारि...बाँची = भिखारी के नाम पर अर्थात् भीखारी समझकर तेरे मुँह में जीभ बची हुई है, खींच नहीं ली गई । लोन = लावण्य, सौंदर्य । होइ लोन बिलासीं = तू नमक की तरह गल जाय । चक्कवै = चक्रवर्ती ।


(6) अनु = और, फिर । भीख कहँ = भिक्षा के लिए । बाजा = पहुँचता है, डटता है । उदय-अस्त = उदयाचल से अस्ताचल तक । किछि जो चारि...उपराहीं = जो चार चीजें सबसे ऊपर हैं । मूरू = मूल, असल । बहुबास = बहुत सी रहती हैं ।


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