आइ साह के बार पहूँचा । देखा राज जगत पर ऊँचा ॥
छत्तिस लाख तुरुक असवारा । तीस सहस हस्ती दरबारा ॥
जहँ लगि तपै जगत पर भानू । तहँ लगि राज करै सुलतानू ॥
चहूँ खँड के राजा आवहिं । ठाढ झुराहिं, जोहार न पावहिं ॥
मन तेवान कै राघव झूरा । नाहिं उवार, जीउ-डर पूरा ॥
जहँ झुराहिं दीन्हें सिर छाता । तहँ हमार को चालै बाता ? ॥
वार पार नहिं सूझै, लाखन उमर अमीर ।
अब खुर-खेह जाहुँ मिलि, आइ परेउँ एहि भीर ॥1॥
बादशाह सब जाना बूझा । सरग पतार हिये महँ सूझा ॥
जौ राजा अस सजग न होई । काकर राज, कहाँ, कर कोई ॥
जगत-भार उन्ह एक सँभारा । तौ थिर रहै सकल संसारा ॥
औ अस ओहिक सिंघासन ऊँचा । सब काहू पर दिस्टि पहूँचा ॥
सब दिन राजकाज सुख-भोगी । रैनि फिरै घर घर होइ जोगी ॥
राव रंक जावत सब जाती । सब कै चाह लेइ दिन राती ॥
पंथी परदेसी जत आवहिं । सब कै चाह दूत पहुँचावहिं ॥
एहू वात तहँ पहुँची, सदा छत्र सुख-छाहँ !
बाम्हन एक बार है, कँकन जराऊ बाहँ ॥2॥
मया साह मन सुनत भिखारी । परदेसी को? पूछु हँकारी ॥
हम्ह पुनि जाना है परदेसा । कौन पंथ, गवनब केहि भेसा ?॥
दिल्ली राज चिंत मन गाढी । यह जग जैस दूध कै साढी ॥
सैंति बिलोव कीन्ह बहु फेरा । मथि कै लीन्ह घीउ महि केरा ॥
एहि दहि लेइ का रहै ढिलाई । साढी काढु दही जब ताईं ॥
एहि दहि लेइ कित होइ होइ गए । कै कै गरब खेह मिलि गए ॥
रावन लंक जारि सब तापा । रहा न जोबन, आव बुढापा ॥
भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाँट ।
अज्ञा भइ हँकारहु, धरती धरै लिलाट ॥3॥
राघव चेतन हुत जो निरासा । ततखन बेगि बोलावा पासा ॥
सीस नाइ कै दीन्ह असीसा । चमकत नग कंकन कर दीसा ॥
अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ । तू मंगन, कंकन का बाहाँ ?॥
राघव फेरि सीस भुइँ धरा । जुग जुग राज भानु कै करा ॥
पदमिनि सिंघलदीप क रानी । रतनसेन चितउरगढ आनी ॥
कँवल न सरि पूजै तेहि बासा । रूप न पूजै चंद अकासा ॥
जहाँ कँवल ससि सूर न पूजा । केहि सरि देउँ, और को दूजा ? ॥
सोइ रानी संसार-मनि दछिना कंकन दीन्ह ।
अछरी-रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह ॥4॥
सुनि कै उतर साहि मन हँसा । जानहु बीजु चमकि परगसा ॥
काँच-जोग जेहि कंचन पावा । मंगन ताहि सुमेरु चढावा ॥
नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची । अबहुँ सँभारि बात कहु साँची ॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं । जेहि के सूरुज ससि नाहीं ?॥
जो पदमिनि सो मंदिर मोरे । सातौ दीप जहाँ कर जोरे ॥
सात दीप महँ चुनि चुनि आनी । सो मोरे सोरह सै रानी ॥
जौ उन्ह कै देखसि एक दासी । देखि लोन होइ लोन बिलासी ॥
चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रबि तपै अकास ।
जौ पदमिनि तौ मोरे , अछरी तौ कबिलास ॥5॥
तुम बड राज छत्रपति भारी । अनु बाम्हन मैं अहौं भिखारी ॥
चारउ खंड भीख कहँ बाजा । उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा ॥
धरमराज औ सत कलि माहाँ । झूठ जो कहै जीभ केहि पाहाँ ?॥
किछु जो चारि सब किछु उपराहीं । ते एहि जंबू दीपहि नाहीं ॥
पदमिनि, अमृत, हंस, सदूरू । सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू ॥
सातौं दीप देखि हौं आवा । तब राघव चेतन कहवावा ॥
अज्ञा होइ, न राखौं धोखा । कहौं सबै नारिन्ह गुन-दोषा ॥
इहाँ हस्तिनी, संखिनी औ चित्रिनि बहु बास ।
कहाँ पदमिनी पदुम सरि, भँवर फिरै जेहि पास ?॥6॥
(1) बार = द्वार । ठाढ झुराहिं = खडे खडे सूखते हैं । जोहार सलाम । तेवान = चिंता, सोच । झूरा = व्याकुल होता है, सूखता है । नाहिं उबार = यहाँ गुजर नहीं । दीन्हें सिर छाता = छत्रपति राजा लोग । उमर = उमरा, सरदार । खुर-खेह = घोडों की टापों से उठी धूल में ।
(2) सजग = होशियार । रैनि फिरै....जोगी को जोगी के भेस में प्रजा की दशा देखने को घूमता है । चाह = खबर ।
(3) मया साह मन = बादशाह के मन में दया हुई । सैति = संचित करके । बिलोव कीन्ह = मथा । महि = पृथ्वी ; मही, मट्ठा । दहि लेइ = दिल्ली में; दही लेकर । खेह = धूल, मिट्टी ।
(4) हुत = था । संसार मनि = जगत में मणि के समान ।
(5) जेहि कंचन पावा = जिससे सोना पाया । नावँ भिखारि...बाँची = भिखारी के नाम पर अर्थात् भीखारी समझकर तेरे मुँह में जीभ बची हुई है, खींच नहीं ली गई । लोन = लावण्य, सौंदर्य । होइ लोन बिलासीं = तू नमक की तरह गल जाय । चक्कवै = चक्रवर्ती ।
(6) अनु = और, फिर । भीख कहँ = भिक्षा के लिए । बाजा = पहुँचता है, डटता है । उदय-अस्त = उदयाचल से अस्ताचल तक । किछि जो चारि...उपराहीं = जो चार चीजें सबसे ऊपर हैं । मूरू = मूल, असल । बहुबास = बहुत सी रहती हैं ।
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