चित चेता जाने बहु भेऊ । कबि बियास पंडित सहदेऊ ॥
बरनी आइ राज कै कथा । पिंगल महँ सब सिंघल मथा ॥
जो कबि सुनै सीस सो धुना । सरवन नाद बेद सो सुना ॥
दिस्टि सो धरम-पंथ जेहि सूझा । ज्ञान सो जो परमारथ बूझा ॥
जोगि, जो रहै समाधि समाना । भोगि सो, गुनी केर गुन जाना ॥
बीर जो रिस मारै, मन गहा । सोइ सिगार कंत जो चहा ॥
बेग-भेद जस बररुचि, चित चेता तस चेत ।
राजा भोज चतुरदस ,भा चेतन सौं हेत ॥1॥
होइ अचेत घरी जौ आई । चेतन कै सब चेत भुलाई ॥
भा दिन एक अमावस सोई । राजै कहा `दुइज कब होई ?'॥
राघव के मुख निकसा `आजू' । पंडितन्ह कहा`काल्हि, महराजू' ॥
राजै दुवौ दिसा फिरि देखा । इन महँ को बाउर, को सरेखा ॥
भुजा टेकि पंडित तब बोला । `छाँडहिं देस बचन जौ डोला' ॥
राघव करै जाखिनी-पूजा । चहै सो भाव देखावै दूजा ॥
तेहि ऊपर राघव बर खाँचा । `दुइज आजु तौ पँडित साँचा' ॥
राघव पूजि जाखिनी, दुइज देखाएसि साँझ ।
बेद-पंथ जे नहिं चलहिं ते भूलहिं बन माँझ ॥2॥
पँडितन्ह कहा परा नहिं धोखा । कौन अगस्त समुद जेइ सोखा ॥
सो दिन गएउ साँझ भइ दूजी । देखी दुइज घरी वह पूजी ॥
पँडितन्ह राजहि दीन्ह असीसा । अब कस यह कंचन और सीसा ॥
जौ यह दुइज काल्हि कै होती । आजु तेज देखत ससि-जोती ॥
राघव दिस्टिबंध कल्हि खेला । सभा माँझ चेटक अस मेला ॥
एहि कर गुरु चमारिन लोना । सिखा काँवरू पाढन टोना ॥
दुइज अमावस कहँ जो देखावै । एक दिन राहु चाँद कहँ लावै ॥
राज-बार अस गुनी न चाहिय जेहि टोना कै खोज ।
एहि चेटक औ विद्या छला जो राजा भोज ॥3॥
राघव -बैन जो कंचन रेखा । कसे बानि पीतर अस देखा ॥
अज्ञा भई, रिसअन नरेसू । मारहु नाहिं, निसारहु देसू ॥
झूठ बोलि थिर रहै न राँचा । पंडित सोइ बेद-मत-साँचा ॥
वेद-वचन मुख साँच जो कहा । सो जुग-जुग अहथिर होइ रहा ॥
खोट रतन सोई फटकारै । केहि घर रतन जो दारिद हरै ?॥
चहै लच्छि बाउर कबि सोई । जहँ सुरसती, लच्छि कित होई ?॥
कविता-सँग दारिद मतिभंगी । काँटे-कूँट पुहुप कै संगी ॥
कवि तौ चेला, विधि गुरू; सीप सेवाती-बूँद ।
तेहि मानुष कै आस का जौ मरजिया समुंद ?॥4॥
एहि रे बात पदमावति सुनी । देस निसारा राघव गुनी ॥
ज्ञान-दिस्टि धनि अगम बिचारा । भल न कीन्ह अस गुनी निसारा ॥
जेइ जाखिनी पूजि ससि काढा । सूर के ठाँव करै पुनि ठाढा ॥
कवि कै जीभ खडग हरद्वानी । एक दिसि आगि, दुसर दिसि पानी ॥
जिनि अजुगुति काढै मुख भोरे । जस बहुते, अपजस होइ थोरे ॥
रानी राघव बेगि हँकारा । सूर-गहन भा लेहु उतारा ॥
बाम्हन जहाँ दच्छिना पावा । सरग जाइ जौ होई बोलावा ।
आवा राघव चेतन, धौराहर के पास ।
ऐस न जाना ते हियै, बिजुरी बसै अकास ॥5॥
पदमावति जो झरोखे आई । निहकलंक ससि दीन्ह दिखाई ॥
ततखन राभव दीन्ह असीसा । भएउ चकोर चंदमुख दीसा ॥
पहिरे ससि नखतन्ह कै मारा । धरती सरग भएउ उजियारा ॥
औ पहिरै कर कंकन-जोरी । नग लागे जेहि महँ नौ कोरी ॥
कँकन एक कर काढि पवारा । काढत हार टूट औ मारा ॥
जानहुँ चाँद टूट लेइ तारा । छुटी अकास काल कै धारा ॥
जानहु टूटि बीजु भुइँ परी । उठा चौधि राघव चित हरी ॥
परा आइ भुइँ कंकन, जगत भएउ उजियार ।
राघव बिजुरी मारा, बिसँभर किछ न सँभार ॥6॥
पदमावति हँसि दीन्ह झरोखा । जौ यह गुनी मरै, मोहिं दोखा ॥
सबै सहेली दैखै धाईं । `चेतन चेतु' जगावहिं आई ॥
चेतन परा, न आवै चैतू । सबै कहा `एहि लाग परेतु' ॥
कोई कहै, आहि सनिपातू । कोई कहै, कि मिरगी बातू ॥
कोइ कह, लाग पवन झर झोला । कैसेहु समुझि न चेतन बोला ॥
पुनि उठाइ बैठाएन्हि छाहाँ पूछहिं, कौन पीर हिय माहाँ ?॥
दहुँ काहू के दरसन हरा । की ठग धूत भूत तोहि छरा ॥
की तोहि दीन्ह काहु किछु, की रे डसा तोहि साँप ?।
कहु सचेत होइ चेतन, देह तोरि कस काँप ॥7॥
भएउ चेत चेतन चित चेता । नैन झरोखे, जीउ सँकेता ॥
पुनि जो बोला मति बुधि खोवा । नैन झरोखा लाए रोवा ॥
बाउर बहिर सीस पै धूना । आपनि कहै, पराइ न सुना ॥
जानहु लाई काहु ठगौरी । खन पुकार, खन बातैं बौरी ॥
हौं रे ठगा एहि चितउर माहाँ । कासौं कहौं, जाउँ केहि पाहाँ॥
यह राजा सठ बड हत्यारा । जेइ राखा अस ठग बटपारा ॥
ना कोइ बरज, न लाग गोहारी । अस एहि नगर होइ बटपारी ॥
दिस्टि दीन्ह ठगलाडू, अलक-फाँस परे गीउ ।
जहाँ भिखारि न बाँचै, तहाँ बाँच को जीऊ ?॥8॥
कित धोराहर आइ झरोखे ?। लेइ गइ जीउ दच्छिना-धोखे ॥
सरग ऊइ ससि करै अँजोरी । तेहि ते अधिक देहुँ केहि जोरी ?॥
तहाँ ससिहि जौ होति वह जोती । दिन होइ राति , रैनि कस होती ?॥
तेइ हंकारि मोहिं कँकन दीन्हा । दिस्टि जो परी जीउ हरि लीन्हा ॥
नैन-भिखारि ढीठ सतछँडा । लागै तहाँ बान होइ गडा ॥
नैनहिं नैन जो बेधि समाने । सीस धुनै निसरहिं नहिं ताने ॥
नवहिं न आए निलज भिखारी । तबहिं न लागि रही मुख कारी ॥
कित करमुहें नैन भए, जीउ हरा जेहि वाट ।
सरवर नीर-निछोह जिमि दरकि दरकि हिय फाट ॥9॥
सखिन्ह कहा चेतसि बिसँमारा । हिये चेतु जेहि जासि न मारा ॥
जौ कोइ पावै आपन माँगा । ना कोइ मरै, न काहू खाँगा ॥
वह पदमावति आहि अनूपा । बरनि न जाइ काहु के रूपा ॥
जो देखा सो गुपुत चलि गएउ । परगट कहाँ, जीउ बिनु भएउ ॥
तुम्ह अस बहुत बिमोहित भए । धुनि धुनि सीस जीउ देइ गए ॥
बहुतन्ह दीन्ह नाइ कै गीवा । उतर देइ नहिं, मारै जीवा ॥
तुइँ पै मरहिं होइ जरि भूई । अबहुँ उघेलु कान कै रूई ॥
कोइ माँगे नहिं पावै, कोइ माँगे बिनु पाव ।
तू चेतन औरहि समुझावै, तोकहँ को समुझाव ?॥10॥
भएउ चेत, चित चेतन चेता । बहुरि न आइ सहौं दुख एता ॥
रोवत आइ परे हम जहाँ ।रोवत चले, कौन सुख तहाँ ?॥
जहाँ रहे संसौ जिउ केरा । कौन रहनि ? चलि चलै सबेरा ॥
अब यह भीख तहाँ होइ मागौं । देइ एत जेहि जनम न खाँगौं ॥
अस कंकन जौ पावौं दूजा । दारिद हरै, आस मन पूजा ॥
दिल्ली नगर आदि तुरकानू । जहाँ अलाउदीन सुलतानू ॥
सोन ढरै जेहि के टकसारा । बारह बानी चलै दिनारा ॥
कँवल बखानौं जाइ तहँ जहँ अलि अलाउदीन ।
सुनि कै चढै भानु होइ, रतन जो होइ मलीन ॥11॥
(1) आऊ सरि = आयु पर्यंत, जन्म भर । चेता = ज्ञान प्राप्त । भेऊ = भेद, मर्म । पिंगल = छंद या कविता में । सिंघल मथा = सिंघलदीप की सारी कथा मथकर वर्णन की । मन गहा = मन को वश में किया । राजा भोज चतुरदस = चौदहों विद्याओं में राजा भोज के समान ।
(2) होइ अचेत ,..जौ आई = जब संयोग आ जाता है तब चेतन भी अचेत हो जाता है; बुद्धिमान भी बुद्धि खो बैठता है ।भुजा टेकि = हाथ मारकर , जोर देकर । जाखिनी = यक्षिणी । बर खाँचा = रेखा खीचकर कहा , जोर देकर कहा ।
(3) कौन अगस्त...सोखा = अर्थात् इतनी अधिक प्रत्यक्ष बात को कौन पी जा सकता है ? अब कस सीसा = अब यह कैसा कंचन कंचन और सीसा सीसा हो गया । काल्हि कै = कल को। दिस्टिबंध = इंद्रजाल, जादू । चेटक = माया । चमारिनि लोना = कामरूप की प्रसिद्ध जादूगरनी लोना चमारी । एक दिन राहु चाँद कहँ लावै = जब चाहे चंद्रग्रहण कर दे ; पद्मावती के कारण बादशाह की चढाई का संकेत भी मिलता है ।
(4) फटकरै = फटक दे । मतिभंगी = बुद्धि भ्रष्ट करनेवाला । तेहि मानुष कै आस का = उसको मनुष्य की क्या आशा करनी चाहिए ? अगम = आगम, परिणाम । जाखिनी = यक्षिणी । सूर के ठाँव ..ठाढा = सूर्य की जगह दूसरा सूर्य खडा कर दे । (राजा पर बादशाह को चढा लाने का इशारा है )हरद्वानी = हरद्वान की तलवार प्रसिद्ध थी । अजुगुति = अनहोनी बात, अयुक्त बात । भोरे = भूलकर । जस बहुते....थोरे = यश बहुत करने से मिलता है, अपयश थोडे ही में मिलता है । उतारा = निछावर किया हुआ दान ।
(6) कोरी = बीस की संख्या । पवारा = फेंका । चौंधि उठा = आँखों में चकाचौंध हो गई ।
(7) सनिपातू = सन्निपात, त्रिदोष ।
(8) सँकेता = संकट में ।ठगोरी लाई = ठग लिया; सुध-बुध नष्ट करके ठक कर लिया । बौरी = बावलों की सी । बरज = मना करता है । गोहारि लगना = पुकार सुनकर सहायता के लिये आना ।
(9) दच्छिना-धोखे = दक्षिणा का धोखा देकर । जोरी = पटतर, उपमा । दिन होइ राति = तो रात में भी दिन होता और रात न होती । हँकारि = बुलाकर । सतछँडा = सत्य छोडनेवाला । समाने = खींचने से । तबहिं न....कारी = तभी न (उसी कारण से ) आँखों के मुँह में कालिमा ( काली-पुतली । लग रही है । सरवर नीर ....फाट = तालाब के सूखने पर उसकी जमीन में चारों ओर दरारें सी पड जाती है ।
(10) बरनि न जाइ....रूपा = किसी के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती ।भूई = सरकंडे का धूआ । उघेलु....रूई = सुनकर चेत कर, कान की रूई खोल ।
(11) एता = इतना । संसौ = शंशय । कौन रहनि = वहाँ का रहना क्या ? देइ एत...खाँगौं = इतना दो कि फिर मुझे कमी न हो । सोन ढरै = सोना ढलता है, सोने के सिक्के ढाले जाते हैं । बारहबानी = चोखा । दिनारा = दीनार नाम का प्रचलित सिने का सिक्का । अलि = भौंरा ।
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