Friday, September 23, 2022

कहानी | असमंजस | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Asmanjas | Subhadra Kumari Chauhan



 “आप इतने दिन से आए क्यों नहीं केशव जी?” सभा-मंडप के बाहर निकलते-निकलते कुसुम ने पूछा।


'मैं अपने मित्र बसंत के साथ बाहर चला गया था । केशव ने बसंत की ओर इशारा करते हुए जवाब दिया।


कुसुम ने बसंत की ओर देखा, फिर जरा रुकती हुई बोली, क्या यही आपके मित्र बसंत हैं? मैंने जैसे इन्हें पहले कभी देखा है। कन्वोकेशन डिबेट में फर्स्ट प्राइज आप ही को मिला था?


कन्वोकेशन डिबेट में फर्स्ट प्राइज जीतने वाला बसंत एक बालिका के सामने कुछ घबरा-सा गया, उसका चेहरा लाल हो गया, उसने कुछ भी उत्तर न दिया।

केशव ने कहा, हाँ, प्राइज इन्हीं को मिला था।


उसके बाद कुसुम, बसंत और केशव दोनों को शाम के समय अपने यहाँ चाय के लिए निमंत्रित करके अपने पिता के साथ कार पर बैठकर चली गई।


कुसुम कुमारी अपने माता-पिता की इकलौती कन्या है। इलाहाबाद के जार्जटाउन में, जहाँ शहर के धनी-मानी व्यक्तियों के बँगले हैं वहीं कुसुम के पिता की एक विशाल कोठी है। शहर के प्रमुख धनी व्यक्तियों में उनकी गणना है। उनके पास मोटर है, गाड़ी है, और भी न जाने क्या-क्या है। दस-पाँच नौकर सदा उनके घर पर काम किया करते हैं। घर बैठे केवल लेन-देन से ही उन्हें छह-सात सौ रुपए मासिक की आमदनी हो जाती है। कुसुम ही उनकी एक मात्र संतान है जो वहीं क्रास्थवेट गर्ल्स स्कूल में मैट्रिक में पढ़ती है।


केशव कुसुम का पड़ोसी है, यूनिवर्सिटी में बी०ए० का विद्यार्थी है। बसंत केशव का सहपाठी है, वह अपने मामा के साथ अहियापुर में रहता है। बसंत के माता-पिता वचपन में ही मर चुके हैं और तभी से बसंत अपने मामा का आश्रित है। बसंत पढ़ने-लिखने में कुशाग्रबुद्धि, सदाचारी, सरल स्वभाव और मिलनसार है, इसलिए शिक्षक उसे चाहते हैं और सहपाठी उसका आदर करते हैं।


शाम को केशव के आग्रह से बसंत कुसुम के घर पर आया तो जरूर था, किंतु उसे वहाँ बात-बात में संकोच मालूम हो रहा था। जब कुसुम उन्हें लेकर मखमली सीढ़ियों पर से ऊपर अपने ड्राइंगरूम में जाने लगी, तब बसंत ने अपने पैरों की ओर देखा। जहाँ कुसुम के कमल सरीखे मुलायम पैर पड़ रहे थे, वहाँ अपने धूल-भरे पैरों को रखने में उसको कुछ अटपटा-सा लगा। कमरे में पहुँचकर वहाँ की विभूतियों को देखकर, बसंत भौंचक-सा रह गया। ऐश्वर्य के प्रकाश में उसे अपनी दशा और भी हीन मालूम होने लगी। उस वातावरण के योग्य अपने को न समझकर उसे कष्ट हो रहा था। वह बार-बार सोचता था कि मैं नाहक ही यहाँ आया।


कुसुम अद्वितीय सुंदरी थी। उसकी शिक्षा और व्यावहारिक ज्ञान ने सोने में सुहागे का-सा काम कर दिया था। उसके शरीर पर आभूषणों का विशेष आडंबर न था। वह लाल किनारी की एक साफ साड़ी पहिने थी, जो उसकी कांति से मिलकर और भी उज्ज्वल मालूम हो रही थी। कुसुम का व्यवहार बड़ा शिष्ट था, उसकी वाणी में संगीत का-सा माधुर्य था। वह चतुर चितेरे के चित्र की तरह मनोहर, कुशल शिल्पी की कृति की तरह त्रुटि-रहित, और सुकवि की कल्पना की तरह सुंदर थी।


बसंत के जीवन में किसी युवती बालिका से बातचीत करने का यह पहला ही अवसर था। उसने कुसुम की ओर एक बार देखा फिर उसकी आँखें ऊपर न उठ सकीं। कुसुम ने चाँदी के-से सुंदर प्यालों में चाय बनाकर टेबिल पर रखी। तश्तरियों में जलपान के लिए फल और मिठाइयाँ सजा दीं। बसंत स्वभाव से ही शिष्ट था। किंतु आज वह साधारण शिष्टाचार की बातें करना भी भूल गया और उसने चुपचाप चाय पीना शुरू कर दिया। कुसुम यदि कोई बात पूछती तो बसंत का चेहरा अकारण ही लाल हो जाता, और उसका हृदय इस प्रकार धड़कने लगता जैसे वह किसी कठिन परीक्षक के सामने बैठा हो। चाय पीते-पीते भी उसका गला सूख जाता था और सिवा 'हाँ' या 'न' के वह कुछ बोल न सकता था।


इंटर-यूनिवर्सिटी-डिबेट में जाकर बनारस से अपने कॉलेज के लिए 'शील्ड' जीत लाना बसंत के लिए उतना कठिन न था जितना कठिन आज उसे साधारण बातचीत करना मालूम हो रहा था। वह अपनी दशा पर स्वयं हैरान था और उसे अपने अचानक मौन पर आश्चर्य हो रहा था।

केशव के आग्रह पर जब कुसुम ने सितार पर यमनकल्याण बजाकर सुनाया तो बसंत ने कहा, आप तो संगीत में भी बड़ी प्रवीण हैं।

यह सुनकर कुसुम ने जरा हँसकर कहा, आप तो मुझे बनाते हैं, यह सुनकर कुसुम ने जरा हँसकर कहा, आप तो मुझे बनाते हैं, अभी तो मुझे अच्छी तरह बजाना भी नहीं आता।

यह सुनकर बसंत का अपना वाक्य मूर्खतापूर्ण लगने लगा, और उसे अपनी उक्ति में केवल व्यंग्य का ही आभास मालूम पड़ा।

बसंत बहुत देर बाद बोला था और अब बोलने के बाद अपने को धिक्कार रहा था।


बसंत जब वापिस आया तो उसे कुछ याद आ रहा था कि जैसे कुसुम ने चलते समय उससे कभी-कभी आते रहने का अनुरोध किया था। किंतु वह अकेला कुसुम के घर न जा सका और एक दिन फिर केशव के ही साथ गया। इसी प्रकार बसंत जब कई बार कुसुम के घर गया तो कुसुम ने देखा कि बसंत भी बातचीत कर सकता है। उसकी विद्वत्ता और योग्यता पर तो कुसुम पहले से ही मुग्ध थी, अब उसकी मर्यादित सीमा के अंदर बातचीत और व्यावहारिक ज्ञान को देखकर कुसुम की श्रद्धा और बढ़ गई।


अन्य नवयुवकों की तरह बसंत में उच्छुंखलता और उद्दंडता न थी, उसकी बातचीत, हँसी-मजाक सब सीमा के बाहर न जाते थे। कुसुम ने बसंत से अंग्रेजी पढ़ाने के लिए आग्रह किया, जिसे बसंत ने स्वीकार कर लिया। और इस प्रकार धीरे-धीरे कुसुम और बसंत की घनिष्टता बढ़ने लगी। कुसुम से मिलने के पहले बसंत ने उसके विषय में जो धारणा बना रखी थी कि धनवान पिता की अकेली कन्या जरूर उद्धत स्वभाव की होगी, वह निर्मूल हो गई। अब उसे कुसुम के पास जाने की सदा इच्छा बनी रहती थी, सबेरे से ही वह शाम होने की बाट देखा करता। अपनी दशा पर उसे स्वयं आश्चर्य था।


कुसुम मैट्रिक पास हो गई और बसंत बी०ए० । किंतु दोनों ही ने आगे पढ़ना जारी रखा। बसंत अब भी कभी-कभी कुसुम के घर आया करता था।


एक दिन बसंत ने सुना कि कुसुम का विवाह मई के महीने में होने वाला है। बसंत समझ न सका कि यह सुनकर उसका चित्त अव्यवस्थित-सा क्‍यों हो गया। उसने कभी स्वप्न में भी न सोचा था कि कुसुम के साथ उसका भी कोई ऐसा संबंध हो सकता है। अपनी और कुसुम की आर्थिक स्थिति में जमीन-आसमान का अंतर वह देखा करता था। और कभी इस प्रकार की असंभव कल्पना को लाने के लिए उसे अपने ऊपर विश्वास था।


कुसुम, उसके लिए आकाश-कुसुम थी। उसे छूने तक की कल्पना बेचारा बसंत कैसे करता? अदरक के व्यापारी को जहाज की खबर से क्या मतलब और यदि जहाज की खबर सुनकर उसे सुख-दुःख हो तो आश्चर्य की बात ही है। बसंत यही सोच रहा था। बसंत कुसुम से दूर-दूर रहने की सोचने लगा, किंतु ज्योंही शाम हुई वह अपने आपको रोक न सका, निकला तो वह टहलने, लेकिन टहलता हुआ कुसुम के घर जा पहुँचा।


जब वह कूसुम के घर पहुँचा तो कुसुम वहाँ न थी, वह ड्राइंगरूम में बैठकर एक एलबम के पन्‍ने उलटने लगा। उसकी दृष्टि एक चित्र पर जाकर एकाएक रुक गई। वह बड़ी देर तक उस चित्र को ध्यानपूर्वक देखता रहा। उसका सिर चित्र के ऊपर झुक गया और आँसू की दो बड़ी-बड़ी बूँदें गिर पड़ीं। बसंत जैसे सोते से जाग पड़ा हो। उसने झट से जेब से रूमाल निकालकर चित्र पर से आँसू की दो बूँदें पोंछ दीं, और उसी समय उसकी नजर सामने लगे हुए बड़े आईने पर पड़ी, कुसुम उसके पीछे चुपचाप खड़ी थी, उसकी आँखें सजल थीं।'


बसंत कुछ घबरा-सा गया, कुसुम पास की एक कुरसी खींचकर बैठ गई। थोड़ी देर तक दोनों ही चुपचाप रहे, आखिर कुसुम ने ही कुछ देर बाद निस्तव्धता भंग करते हुए कहा, बसंत बाबू, अब तो बहुत देर हो चुकी है।

बसंत ने कहा, जो कुछ हुआ ठीक ही हुआ है।

इसके बाद मिल्टन की एक पोयम की कुछ पंक्तियाँ जो कुसुम न समझ सकती थी, बसंत ने उसे समझाई। बसंत अपने घर गया, और कुसुम अपने पिता के साथ हवाखोरी के लिए।


गर्मी की छुट्टी में बसंत को एक लाल लिफाफे में कुसुम की शादी का निमंत्रण-पत्र मिला, और कुछ दिन बाद उसने यह सुना कि कूसुम का विवाह एक धनी-मानी जमींदार के यहाँ सकुशल हो गया। कुसुम का पढ़ना-लिखना बंद हो गया और साथ ही बंद हो गया बसंत का उसके यहाँ का आना-जाना। बसंत को अब मालूम हुआ कि उसका हृदय उससे छिप-छिपकर कुसुम को कितना चाहने लगा था; कुसुम को अपनाने की लालसा भी उसके हृदय में दबी हुई थी। अपने हृदय के इस विश्लेषण पर बसंत को आश्चर्य हुआ। यह इच्छाएँ कब उसके हृदय में आईं ऐसा उसे स्पष्ट भाव से स्मरण नहीं आया। उसे अपने ऊपर और अपनी बुद्धि पर विश्वास था। किंतु हृदय बुद्धि और तर्क को धोखा देकर, मनुष्य को किस प्रकार असंभव कल्पना की ओर प्रेरित कर सकता है, बसंत ने आज जाना। उसने सोचा यदि मैं सचमुच कुसुम को प्यार करता था तो मैंने कुसुम से यह कहा क्यों नहीं? यदि उसे अपनाने की इच्छा मेरे हृदय में थी तो उसे मैंने कभी प्रकट क्यों नहीं किया? वह अपने प्रश्नों पर आप ही निरुत्तर हो जाता था।


फिर उसने बार-बार यही सोचा कि उसने सदा से ही कुसुम को प्यार किया है और हृदय से प्यार किया है। तब, कया कुसुम भी उसे प्यार करती थी? शायद 'हाँ' या 'नहीं', बसंत कुछ निश्चय न कर सका। किंतु तर्क की शुष्क विवेचना में उस दिन की कुसुम की सजल आँखें डूबते हुए को तिनके के सहारे की तरह बसंत को मालूम हुईं।


बसंत एम०ए० पास करने पर लाहौर कॉलेज में प्रोफेसर हो गया और साधारण स्थिति में अपने दिन काटने लगा। उसे प्रोफेसरी करते-करते चार साल हो गए, किंतु उसके जीवन में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ। उसके मामा ने उसके विवाह के लिए दो-चार बार कहा भी किंतु बसंत ने टाल दिया। माता-पिता तो थे ही नहीं, जो उसे बार-बार विवाह के लिए बाध्य करते। मित्रों ने भी यदि कभी बसंत से इसकी चर्चा की तो बसंत ने बात सदा हंसी में उड़ा दी।


अपनी इस लापरवाही का कारण वह ख़ुद न समझ सकता था। विवाह न करने की उसने कोई प्रतिज्ञा तो न कर रखी थी, किंतु न जाने क्‍यों उसका चित्त अव्यवस्थित था, विवाह की ओर उसका झुकाव नहीं-सा था।

इन चार वर्षों में बसंत एक बार भी इलाहाबाद नहीं गया, बार-बार इच्छा होते हुए भी वह वहाँ न जा सका। उसके मामा की बदली लखनऊ हो गई थी। अब इलाहाबाद जाता भी तो किसके यहाँ?


अपने क्लास के विद्यार्थियों को टाटानगर के कारखाने दिखलाकर, जब बसंत लौट रहा था, उसे इलाहाबाद स्टेशन से जाना पड़ा। यहाँ एक दिन रुकने के प्रलोभन को वह न रोक सका। सामान स्टेशन पर छोड़कर पहिले वह अपने पुराने साथियों से मिलने गया, एक-दो को छोड़कर उसे और कोई न मिला। फिर वह जार्जटाउन की ओर गया, और उसके पैर अपने-आप कुसुम के घर के पास जाकर ठिठक गए। दरवाजे पर वही पुराना चौकीदार बैठा हुआ, हाथ में तमाखू मल रहा था। बसंत को देखते ही वह उठकर खड़ा हो गया, बोला, बहुत दिन में आए भैया? और बिना वसंत के कहे ही अंदर ख़बर देने चला गया।


बसंत जाकर उसी ड्राइंगरूम में बैठ गया, जहाँ वह बहुत बार कुसुम के शिक्षक के रूप में बैठ चुका था। इन चार वर्षों में कुसुम और बसंत के बीच किसी प्रकार का कोई पत्र-व्यवहार नहीं हुआ था, और न उन्हें एक-दूसरे के विषय में कुछ मालूम था। वसंत सोच रहा था कि इतने दिनों के बाद कुसुम न जाने किस भाव से मिलती है, कैसा स्वागत करती है, उसका आना उसे अच्छा भी लगता है या नहीं, कौन जाने?


इतने ही में बिना किनारी की एक सफेद, खादी की साड़ी पहिने कुसुम ड्राइंगरूम में आई। बसंत ने बड़े ही नम्न भाव से उठकर अभिवादन किया। 'क्यों क्या कुसुम को इतनी जल्दी भूल गए जो अपरिचित की तरह शिष्टाचार करते हो, बसंत बाबू' कुसुम ने हलकी मुस्कुराहट के साथ कहा।

बसंत का ध्यान इस ओर न था, वह चकित दृष्टि से कुसुम के सादे पहिनावे को देख रहा था। सौभाग्य के कोई चिह्न न थे। न तो हाथ में चूड़ी और न माथे परे सिंदूर की बिंदी । विधाता! तो क्या कुसुम विधवा हो चुकी है? किंतु बसंत का हृदय इस बात को मानने के लिए तैयार ही न होता था।

क्या सोच रहे हो बसंत बाबू? कुसुम ने फिर पूछा। बसंत जैसे चौंक पड़ा, बोला, “कुछ तो नहीं, वैसे ही मैं देख रहा था कि”

कुसुम ने बात काटकर कहा, आप मेरी तरफ देख रहे होंगे, किंतु इसके लिए क्या किया जाए, विधि के विधान को कौन टाल सकता है?


बसंत को मालूम हुआ कि विवाह के दो ही वर्ष बाद कुतुम विधवा हो गई। उसके पिता भी उसे अटूट संपत्ति की अधिकारिणी बनाकर छै महीने हुए परलोकवासी हुए। बसंत ने देखा कि विपत्तियों ने कुसुम को ज्ञान में उससे भी अधिक प्रौढ़ बना दिया है। कुसुम उमर में बसंत से कुछ साल छोटी थी, किंतु बसंत अभी संसार-सागर के इसी तट पर था और कुसुम! कुसुम, लहरों के चपेट में आकर उस पार-बसंत से बहुत दूर, पहुँच गई थी। बसंत के जीवन में आशा थी और कुसुम का जीवन निराशापूर्ण था। निराशा की अंतिम सीमा शांति है। कुसुम उसी शांति का अनुभव कर रही थी।


उस दिन बसंत फिर लौटकर वापिस न जा सका। कुसुम के अनुरोध से वह दो दिन तक कुसुम का मेहमान रहा। दोनों ने परस्पर एक-दूसरे के विषय में इतने दिनों का हालचाल जाना। पत्र न लिखने की शिकायत न तो कुसुम को थी, न बसंत को। चलते समय कुसुम ने बसंत से आग्रह किया कि यदि किसी काम से उन्हें इस ओर आना हो तो इलाहाबाद में जरूर ठहरें। कुसुम, बसंत का हृदय, उसकी आँखों में देख रही थी, उसे विश्वास था कि बसंत जरूर आवेगा।


बसंत का स्वास्थ्य दिनोदिन बिगड़ता ही गया। कोई खास बीमारी तो न थी, केवल आठ-दस दिन तक मलेरिया ज्वर से पीड़ित रहने के बाद वह कमजोर होता गया। छुट्टी में जलवायु परिवर्तन के लिए बसंत मसूरी गया। प्रकृति के सुंदर दृष्य, यात्रियों की चहल-पहल, बिजली की रोशनी, किसी भी बात से बसंत के चित्त को शांति न मिल सकी, वह सदा गंभीर और उदास रहा करता। कुसुम को वह जी से प्यार करता था। बसंत का स्वभाव और चरित्र अत्यंत उज्ज्वल और ऊँचा था, फिर भी जब वह सोचता कि कुसुम के विवाह के समय, उसके सुख के समय, उसकी आँखों में आँसू आए थे और कुसुम के विधवा होने पर उसके हृदय में आशा का संचार हुआ है, तब वह अपने विचारों पर स्वयं लज्जित होता और अपने को नीच समझकर धिक्कारता।

बसंत बहुत दिनों तक मसूरी में न रह सका । देहरादून एक्सप्रेस से वह एक दिन इलाहाबाद जा पहुँचा। कुसुम के सदव्यवहार से कुछ शांति मिली। कई दिनों से बसंत कुसुम को कुछ कहना चाहता था किंतु कहते समय उसे ऐसा मालूम होता जैसे कोई आकर उसकी जबान पकड़ लेता हो, वह कुछ न कह सकता था।

एक दिन बगीचे में कुसुम बसंत के साथ टहल रही थी, दोनों ही चुपचाप थे। बसंत ने निस्तब्धता भंग की, उसने पूछा, कुसुम! तुम अपना सारा जीवन इसी प्रकार, तपस्विनी की तरह बिता दोगी?

-क्या करूँ ईश्वर की ऐसी ही इच्छा है,' कुसुम ने शांति से उत्तर दिया।

-किंतु इस तपश्चर्या को सुख में परिवर्तित करने का क्‍या कोई मार्ग नहीं है?

-क्या मार्ग हो सकता है बसंत, तुम्हीं कहो न? मेरी समझ में तो नहीं आता?

बसंत ने धड़कते हुए हृदय से कहा, पुनर्विवाह, जैसा कि तुम्हारी सखी मालती ने भी किया है।

कुसुम को एक धक्का-सा लगा। उसका चेहरा लाल हो गया। उसने दृढ़ता से कहा, लेकिन बसंत बाबू मुझसे तो यह कभी न हो सकेगा।


बसंत चुप हो गया। वह रह-रहकर अपनी गलती पर पछता रहा था। बसंत ने साहस करके इस नाजुक विषय को छेड़ तो जरूर दिया था, किंतु वह डर रहा था कि कहीं कुसुम की नजर से वह नीचे न गिर जाए। दोनों चुप थे। दोनों के दिमाग में एक प्रकार का तूफान-सा उठ रहा था। टहलते-टहलते कुसुम जैसे थककर एक संगमरमर की बेंच पर बैठ गई। उसने बसंत से भी बैठ जाने का इशारा किया। उसने कहा, "बसंत मैं तुम्हें कितना चाहती हूँ, शायद तुम इसे अभी तक अच्छी तरह नहीं जान पाये हो?" बसंत के हृदय में फिर आशा चमक उठी, वह ध्यानपूर्वक उत्सुकता के साथ कुसुम की बात सुनने लगा।


कुसुम ने कहा-"तुम भी मुझे पहले से चाहते थे यह बात मुझ से छिपी न रह सकी, उस दिन ड्राइंगरूम में अपनेआप ही प्रकट हो गई, लेकिन यह प्रकट हुई बहुत देर के बाद, जब उसके लिए कोई उपाय शेष न था। उसके बाद बसंत, इन लम्बे चार वर्षों की अवधि में भी मैं तुम्हें भूल नहीं सकी हूँ, जैसा कि तुम देख रहे हो।" बसंत का हृदय जोर से धड़क रहा था। कुसुम ने फिर कहा-"इतना सब होते हुए भी, बसंत ! मैंने निश्चय किया है कि मैं कभी पुन: विवाह न करूंगी, अपने माता-पिता और अपने स्वामी की स्मृति में कलंक न लगाऊंगी, तुम्हारी ओर मेरा शुद्ध प्रेम है, उसमें वासना और स्वार्थ की गन्ध नहीं है।" बसंत हताश हो गया । कुसुम ने फिर कहा- "कहानियों की तरह क्या प्रेम का अन्त विवाह में ही होना चाहिए, बसंत !" बसंत कोई उत्तर न दे सका । उसने देखा कुसुम प्रेम की दौड़ में भी उससे बहुत आगे निकल गई है। बसंत अपने को स्वार्थी, और ओछे हृदय का समझने लगा। उसे ऐसा मालूम हुआ कि कुसुम बहुत ऊंचे से-किसी दूसरे लोक से-बोल रही है जिसे बसंत कुछ समझ सकता है और कुछ नहीं।


इसके बाद बसंत और कुसुम के बीच में इस विषय में फिर कभी कोई बात न हुई । किन्तु; बसंत अब भी समझता है कि कुसुम का तर्क सत्य नहीं है, किसी सुकवि की कल्पना की तरह यह सुन्दर ज़रूर है, पर उसमें सचाई नहीं है । परन्तु इस प्रकार के विचार आने पर वह स्वयं अपनी आँखों से नीचे गिरने लगता है, उसके कानों में बार-बार कुसुम के यह शब्द गूंजने लगते हैं-"क्या प्रेम का अन्त कहानियों की तरह विवाह में ही होना आवश्यक है?"...

 

(यह कहानी ‘उन्मादिनी’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1934 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का दूसरा कहानी संग्रह है।)


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