Wednesday, September 14, 2022

कहानी | भाई की विदाई | आचार्य चतुरसेन शास्त्री | Kahani | Bhai Ki Vidaai | Acharya Chatursen Shastri


 
(यह कहानी आचार्यजी ने 1933 ई० में लिखी थी। क्रान्तिकारी दस्यु-जीवन पर आधारित इस कहानी में कर्तव्यनिष्ठा और पवित्र प्रेम का सुन्दर निर्वाह हुआ है। पढ़ते-पढ़ते व्यक्ति भावना-विभोर हो उठता है।)


दारोगाजी नये-डाल के टूटे थाने में आए थे। अधिकार की पुरानी बू दिमाग में थी, अफसरी की धौंस भी थी, ईश्वर की दया से मोटे-ताजे, गोरे-चिट्टे खासे गबरू जवान थे। डींग-हांकना उनकी आदत थी। ठाकुर बताते थे, पता नहीं कुर्मी थे कि काछी। थाने में आते ही उन्होंने सिपाहियों पर रौब गांठना शुरू कर दिया, सिपाही भी एक से एक बढ़कर चण्ट, सैकड़ों थानेदारों की आंखें देखे हुए; भला इन्हें क्या गिनते? जो नये थे, जी हुजूर कहकर बुरी-भली सब पी जाते थे। जो पुराने थे वे मुंह पर तो कुछ न कहते; पर पीठ पीछे 'कल का लौंडा' कहा करते। सिपाही और जमादार, हेड और मुहरिर सब पुरानी खराद के आदमियों ने मिलकर मिस्कट कर रखी थी कि किसी मौके पर बच्चूजी को वह चरका दिया जाए कि जिसका नाम। दारोगाजी डाकुओं को पकड़ने के लिए बड़े उत्सुक दीख पड़ते थे। अभी तक अच्छी मुहिम से उनका वास्ता न पड़ा था। उन्हें अपनी निशानेबाज़ी पर नाज़ था। कहा करते थे कि उड़ती चिड़िया को पट से गिरा दूं। सिपाही उन्हें खूब बनाते। तारीफ के पुल बांध देते। थानेदार फूलकर कुप्पा हो जाते। वे अकसर डाकूओं को पकड़ने में फेल होनेवाले थानेदारों को जुलाहा कहा करते थे। उनका कहना था कि वह थानेदार ही क्या जो डाकुओं को गिरफ्तार न करे।


क्रांतिकारी डाकों का ज़ोर था, इन लोगों के आतंक से कसबों और गांवों में घबराहट फैली हुई थी। आए दिन एक न एक वारदात नज़र पड़ जाती थी। दो-एक पुलिसवाले गोली से उड़ा दिए गए थे। इसलिए वे ऐसे मौके पर भिड़ जाने से कतराते थे। पर कार सरकार बड़ा बेढब है-अछताते-पछताते जाना ही पड़ता। परन्तु प्रायः सदैव उन्हें निराश लौटना पड़ता था। ये पढ़े-लिखे जवांमर्द नवयुवक डाकू मानो जादू के ज़ोर से सफलतापूर्वक डाके मार ले जाते थे। मानो उन्होंने सरकार के अमन-अमान को चुनौती दे रखी थी।


सर्दी के दिन थे--और बारिश हो चुकी थी। अभी भी आकाश पर बदली थी। ठण्डी हवा तीर की भांति चल रही थी। दारोगाजी अंगीठी सामने रखे हुए कुर्सियों पर पैर फैलाए सटक मुंह में दाबे फकाफक धुआं फेंक रहे थे । एक आदमी धीरे से आकर सामने खड़ा हो गया । यह दुबला-पतला पीले रंग का आदमी था। इसकी प्रांखें गढ़े में घुसी थीं। बदन पर साधारण धोती और कुरता था। सिर पर एक मैली पाग थी। उसे देखते ही हेड मुंशी ने अपने रजिस्टर से नज़र उठाकर देखा और कहा-अरे तुम हो, लाला, आज इधर कैसे भूल पड़े ?


वह व्यक्ति हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाकर बोला-दीवानजी, मेरी शामत आई दीखती है। मेरी इज़्ज़त बचाइए ; मैं किसी भांति बाहर नहीं।


'कुछ बोलोगे भी या गिड़गिड़ाए जाओगे? कुछ मालूम भी तो हो! आखिर मामला क्या है ?'


'यह देखिए सरकार' उसने एक पुर्जा धीरे से मुंशीजी के सामने बढ़ा दिया। पुर्जा देखते ही मुंशीजी उछल पड़े ; उन्होंने थानेदार साहब की ओर देखकर कहा--देखिए हुजूर, यह मामला टेढ़ा मालूम होता है । रिवोल्यूशनरी पार्टी का पुर्जा है, लाला से पांच हजार रुपये तलब किए हैं।


दारोगा साहब ऐसे चमके मानो बिजली घूम गई हो। उन्होंने हुक्के की नाल एक ओर सरकाकर पुर्जे के लिए हाथ बढ़ाकर कहा-देखें, देखें!--पुर्जा पाकर वे गौर से पढ़ गए। उन्होंने मूंछों पर ताव दिया, होंठ काटे, फिर धीरे-धीरे कहा-यह काम भी उन्हीं शैतानों का है। जिनकी बाबत खबरदार रहने को साहब ने लिखा है। इसके बाद वे लाला से धड़ाधड़ सवाल करने लगे। दारोगाजी की सरगर्मी देख लालाजी को तसल्ली हुई। उन्होंने कहा--हुजूर, मेरे घर में पांच रुपये भी नहीं, पांच हजार कहां से दूंगा। और यह तो धींगा-मुश्ती हुई। सरकार की अमलदारी में ऐसा अंधेर, हुजूर माई-बाप हैं।


दारोगाजी कुर्सी से उठकर टहलने लगे। वे बीच-बीच में जमीन पर पैर पटकते और होंठ काटते जाते थे। कभी-कभी एकाध शब्द उनके मुंह से भी निकल जाता था। अन्त में उन्होंने मुंशी को रिपोर्ट लिखने का हुक्म दिया।फिर लाला से बोले-तो अगर तुम लिखे ठिकाने पर पांच हजार रुपया न पहुंचानोगे तो वे घर में डाका डालेंगे, क्यों?


'जी हां, हुजूर पुर्जे में तो यही लिखा है।'


'ठीक नौ बजे रात को ?'


'जी हां, सरकार।'


'अच्छी बात है, देख लिया जाएगा। तुम किसीसे गांव में ज़िक्र न करना,वरना वे भाग जाएंगे या आएंगे ही नहीं । मैं एकबारगी ही इन बदमाशों को गिरफ्तार किया चाहता हूं। समझे। तुम बेखटके घर जाकर बैठो।हम ठीक वक्त पर पहुंच जाएंगे।'


'हुजूर, मैं कहीं का न रहूंगा। गरीब बनिया हूं, सरकार मेरी जान-माल


'घबरा मत बूढ़े दारोगाजी ने डांटकर कहा--जा, सब ठीक हो जाएगा।


लाला ने दक्षिणा निकाली, दीवानजी की गद्दी के नीचे सरका दी, और कहा--मैं किसी लायक तो नहीं, पर जो बन पड़ेगा खिदमत से बाहर नहीं।


'बेफिकर रहो लाला।' मुंशी ने हंसती हुई आंखों से दारोगाजी को घूरते हुए कहा । लाला चला गया।


दारोगाजी ने पूछा--क्यों आसामी कैसा है ?


'लखपती है हुजूर, आसपास के गांवों में लेन-देन करता है, मगर है मनहूस,मक्खीचूस । आज चंडूल फंसा है।'


'अच्छा, देखें तो कितने की बोहनी हुई ?'


'यह देखिए हुजूर, मुंशी ने सौ रुपये का नोट गद्दी के नीचे से निकालकर दारोगाजी के सामने पेश कर दिया। दारोगाजी की पांचों घी में और सिर कढ़ाई में।


'कमालुद्दीन, तुम पुराने तजुर्बेकार हो, तुम किस-किसको ले चलना चाहते हो? तुम्हें तो चलना ही होगा।'


'आखिर आप करना क्या चाहते हैं हुजूर ?'


'इसके क्या मानी ? डाकुओं को गिरफ्तार करेंगे।'


'हुजूर, इस खयाल में न रहना, वे मामूली डाकू नहीं हैं।'


'तुम्हारी राय में वे जिन हैं ?


'जिन हैं या फरिश्ते यह तो खुदा जाने, मगर देवीसिंह आवाज़ पर गोली सर करता है, उसकी गोली खाली जाना जानती ही नहीं।'


'और हम योंही गाबदू हैं, मियां, क्या बुज़दिलों की जैसी बातें करते कान्स्टेबिली करते उम्र गुज़ार दी। मालूम होता है बुढ़ापे में तुम्हारी अक्ल को मोर्चा लग गया है?'


इसके बाद उन्होंने कमालुद्दीन की तरफ से मुंह फेरकर दूसरे एक जवान कान्स्टे-बिल से कहा--तुम कहो रामदीन, क्या कहते हो?


'हम सरकार के साथ सिर कटाने को तैयार हैं। जौन आप हुक्म दें वहै करें, सरकार का नमक खात हैं।'


'शाबाश ! तुम्हें साथ रहना होगा। और किसे तुम पसन्द करते हो?'


'सरकार, गुलाम अहमद और गोपाल पांडे भी अच्छे बांके जवान हैं। इन्हें भी ले लेना चाहिए।'


कमालुद्दीन ने बीच ही में रोककर कहा- हुजूर, अब बीच में बोलना ही पड़ा, हुजूर ही की तरह ये लोग भी नये रंगरूट हैं। अभी कवायदें की हैं-मुहिम नहीं देखी, सिर्फ पेशाब करनेवालों के दफा 34 में चालान किए हैं। ये वहां से मुंह की खाकर आवेंगे।


दारोगाजी ने क्रुद्ध होकर कहा-कमालुद्दीन, तुम बहुत मुंहजोर हो गए हो! मुझे साहब के पास तुम्हारी रिपोर्ट करनी होगी। तुम्हारी राय में तुम्हारे सिवा और किसीके सिर में दिमाग ही नहीं है।


शह पाकर रामदीन बोला- हुजूर, कमालुद्दीन तो दारोगा होने लायक है। बेचारे को कान्स्टेबिल बना रखा है। हुजूर, सिफारिश कर दें तो अच्छा।


कमालुद्दीन वहां से खसक गया। और दारोगाजी ने अपनी पसन्द के आठ मज़बूत सिपाही चुनकर उन्हें चाक-चौबन्द रहने, गोली, बारूद, बन्दूक, किरच ठीक रखने का हुक्म दे दिया। गांव कोई पांच-छः कोस पर था। पार्टी ने तीसरे पहर ही कूच कर दिया। रास्ते-भर दारोगाजी अपने दिली हौसले बयान करते जा रहे थे। भांति-भांति की तजवीजें सोची जा रही थीं। इरादा पक्का यह था कि एक भी डाकू बचने न पाए, सब गिरफ्तार कर लिए जाएं । सब अपनी-अपनी कह रहे थे। सिर्फ कमालुद्दीन चुप था। वह चुपचाप कुछ सोचता हुआ चल रहा था। गांव के कुछ फासले पर एक नाला था। उसपर एक पुराना पुल था। नाला सूखा था। यह सदर सड़क से ज़रा हटकर था। इसके पास ही तीन-चार बड़े-बड़े पेड़ थे। वहां पहुंचते ही कमालुद्दीन रुक गया। उसने चारों तरफ देखा और कहा--


दारोगाजी, यही जगह ठीक है, यही हम लोगों को ठहरकर देखना चाहिए कि क्या होता है।


'यह क्यों ? मैं तो मौके पर रहूंगा।'


'हुजूर, आपके बाल--बच्चे हैं, आप नौजवान हैं, नौकरी में पेट भरने जितनी तनखा मिलती है, जान देने जितनी नहीं, आप पहली बार मुहिम पर पाए हैं, वे लोग पक्के खिलाड़ी हैं। आप मतलब से मतलब रखिए वरना यहां से जीता-जागता लौटना मुश्किल है।'


सन्ध्या हो रही थी, दारोगाजी और कान्स्टेविल सभी ने कमालुद्दीन की बात सुनी, सब सन्न हो गए। दारोगाजी का धीरज भी भागने लगा और जोश भी ठण्डा पड़ गया। उन्होंने सोचा, चिड़िया का शिकार करना और डाकू से लड़ना एक ही बात नहीं है । उन्होंने कहा-तब तुम्हारी क्या राय है ?


'यहीं चुपचाप बैठिए।'


'इसके बाद?'


'वे लोग शर्तिया यहीं से होकर गुज़रेंगे। आप पेड़ पर चढ़ जाइए और जो कुछ नज़र आए देखते रहिए। हम लोग पुलिया में छिपे बैठे रहेंगे।'


'इससे फायदा?'


'कार सरकार भी होगा और जान-जोखिम न होगी।'


'मगर लुद्दीन, वे लोग शायद आएंगे ही नहीं।'


'हुजूर, वे ज़रूर आएंगे, इस मनहूस बनिये को लूटेंगे भी, और हम लोग कुछ न कर सकेंगे।'


दारोगाजी वहीं बैठ गए। डाकू पकड़ने का उत्साह अब बहुत कम रह गया था। उन्हें सलामती से वापस जाने ही में भलाई दीखती थी। कमालुद्दीन ने कहा-हुजूर, ये वारदातें तो रोज़ के धन्धे हैं, क्या हम लोगों के सिर गाजर-मूली हैं कि उन्हें हथेली पर लिए फिरें। हां, जाप्ते की कार्रवाई होनी चाहिए। दारोगाजी ने सिपाहियों से कहा--क्यों भाइयो, तुम्हारी क्या राय है ?


'हुजूर, कमालुद्दीन ठीक कहता है, यहां जान किसे भारू है। हां, जाप्ते की कार्रवाई होनी चाहिए।


दारोगाजी ने घबराकर कहा--जाप्ते की कार्रवाई किस तरह होगी कमालुद्दीन ?


'वह सब मैं अर्ज करूंगा। आप देखते रहिए। वह तरकीब काम में लाऊं कि सांप मरे और लाठी भी न टूटे।'


'तब तो हम लोग यहीं से फैर करेंगे।'


'खुदा के लिए ऐसा न करना, हुजूर, इससे डाकुओं का कुछ न होगा। हमारी कम्बख्ती आ जावेगी।'


अंधेरा बहुत हो गया था। एकाएक घोड़ों की टाप की ध्वनि सुनाई दी।


‘कमालुद्दीन ने कहा-हुजूर, वे लोग पा रहे हैं। खबरदार रहिए, आप पेड़ पर चढ़ जाइए, हम लोग इस पुलिया में घुसे बैठते हैं। कमालुद्दीन और उसके साथी बिना विलम्व किए पुलिया में घुस बैठे। घोड़ों की टाप निकट सुनाई दे रही थी। दारोगाजी अकेले पेड़ के पास खड़े थे। एक साइकिल सर्र से निकल गई और क्षण-भर में ही सीटी की आवाज़ सुनाई दी।


दारोगाजी को पसीना आ गया। उन्होंने दबी ज़बान से कहा-कमालुद्दीन, मेरे जते का फीता खोलो-फीता-मैं पेड़ पर चढ़ नहीं सकता, जल्दी।


'हुजूर, खड़े मत रहिए-लेट जाइए-जल्दी, पेड़ पर चढ़िए।' एक साइकिल और सर से निकल गई और सीटी की आवाज गूंज गई।


दारोगाजी के शरीर से पनाला बह निकला। वे लेटकर खिसकते-खिसकते नाले के मुंह पर आए और बोले-कमालुद्दीन, मुझे भी यहीं छिपाओ, ओह साला जते का तस्मा खुला ही नहीं।


कमालद्दीन ने चुपचाप उनका मुंह भींच लिया। सवार पुल पर होकर गुज़र रहे थे। एक आदमी पुलिया पर खड़ा रह गया। कमालुद्दीन ने संकेत से दारोगाजी से कहा-उसे अगर गिरफ्तार किया जाए तो बहुत मतलब हल हो सकता है।


'चुप रहो, साले के हाथ में छ:नला पिस्तौल है।' दारोगाजी ने कांपते स्वर में कहा। और वे लोग दम रोककर मुर्दो से बाजी लगाकर पड़ गए।


नायक छत पर खड़ा था। उसके एक हाथ में सर्चलाइट और दूसरे में भरा हुआ रिवाल्वर था। दो और रिवाल्वर उसके जेबों में थे। वह प्रत्येक डाक की गतिविधि का निरीक्षण कर रहा था और साहसिक शब्दों में अंग्रेजी में प्रत्येक को आज्ञा दे रहा था। द्वार पर दो डाकू बन्दूक ऊंची किए मुस्तैद खड़े थे। गृहपति और गृहिणी बीच आंगन में चारपाई पर चुपचाप बैठे थे। उनके सिर पर पिस्तौल ताने एक डाकू खड़ा था। डाक घर में से माल ला-लाकर गट्ठर बांध-बांधकर प्रांगन में ढेर कर रहे थे। सब काम चुपचाप हो रहा था। बीच-बीच में बाहर के प्रहरियों की सांकेतिक सीटी, नायक की अस्फुट आज्ञा और सांप की भांति लहराती उज्ज्वल सर्चलाइट की रोशनी-बस इसीका अस्तित्व था। रात खूब अंधेरी थी।


घर के एक कोने से किसी बालिका के चीत्कार की ध्वनि आई और बन्द हो गई। नायक ने सांकेतिक भाषा में पूछा-क्या है?


और उसे कुछ भी उत्तर न मिला। वह एकदम आंगन में कूद पड़ा। गृहपति से पूछा-यह चिल्लाया कौन?


गृहिणी ने मर्माहत भाषा में कहा-मेरी लड़की, वह अपने कमरे में छिपी थी। तुम लोगों के डर से हमने उसे छिपा दिया था। कोई पापी उसे सता रहा है। हाय, तुम्हें भगवान का भी भय नहीं?--गृहिणी ने हृदय विदीर्ण करनेवाली हाय की।


नायक बिजली की भांति लपककर वहां पहुंचा। देखा एक किशोरी बालिका धरती पर बदहवास पड़ी है। उसके मुंह में कपड़ा ठुसा है और वस्त्र अस्त-व्यस्त हो रहे हैं। एक डाकू उसके साथ पाशविक कर्म किया चाहता है। बालिका इस अवस्था में भी छटपटा रही है।


डाकू के सावधान होने से प्रथम ही नायक की गोली ने उसकी खोपड़ी को चकनाचूर कर दिया और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बालिका के मुंह से वस्त्र खोला और सहारा देकर खड़ा किया। गोली चलने और एक आदमी की खोपड़ी चूर-चूर होने तथा अपने ऊपर भयानक आक्रमण होने से बालिका विमूढ़ हो रही थी। वह थर-थर कांप रही थी और उसकी दृष्टि ज़मीन पर झुकी थी। वह रो भी न सकती थी।


नायक ने धीरे से घुटने के बल बैठकर करुण-कोमल स्वर में कहा-बहिन, इस पतित-पापी को क्षमा कर दो, यह दुष्ट अब तो पूरा दण्ड पा चुका।


बालिका ने साहस करके नायक की ओर देखा, वह कुछ देर स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखती रही। अभी भी नायक के हाथ में पिस्तौल थी। नायक घुटने के बल सिर झुकाए खड़ा 'बहिन क्षमा, बहिन क्षमा!' शब्द बार-बार कह रहा था। बालिका साहसपूर्ण नायक के पास आई और उसका नकाब पकड़कर खींच लिया। तप्त अंगार के समान नायक का मुख, नाममात्र की रेखा के समान >उसकी मूंछे और आंसू से छलछलाती हुई बड़ी-बड़ी आंखें, अनुनय के लिए फड़-कते हुए होंठ, यह देखकर बालिका स्तम्भित रह गई। उसने रोना चाहा पर रो न सकी। क्रोध करना चाहा पर क्रोध भी न कर सकी। उसने नायक की ओर से मुंह फेर लिया । नायक धरती में लेट गया-उसने बालिका के पैर छूने के लिए हाथ बढ़ाया। बालिका का भय बहुत कुछ दूर हो गया था। उसने कुछ क्रुद्ध और कुछ दुःख-भरे स्वर में कहा :


'ऐसे भले हो तो यह काम क्यों करते हो ?' बालिका के होंठ कांपने लगे।


युवक ने कहा--बहिन, यह सब इस अभागे देश के लिए, जिसके लिए हमने प्राण और शरीर दे दिया है। इस धन का खरीदा हुआ अन्न का एक दाना भी हमारे लिए गोमांस के समान है, हम निरुपाय होकर ही यह सब करते हैं।


'फिर इसे क्यों मार डाला?'


'इस पापी का अपराध इससे भी अधिक था। यह दण्ड पाकर भी यह अभी पाप से उन्मुक्त नहीं हुआ-जब तक तुम क्षमा न करो। इसने हमारे दल को छिन्न-भिन्न कर दिया। पृथ्वी-भर की स्त्रियां हमारी बहिनें हैं। यह तो हमारा व्रत है--युवक नायक का सुन्दर मुख लाल हो गया। उसके चारों ओर उज्ज्वल आभा फैल गई। उसने टपाटप.प्रांसू गिराते हुए कहा-बहिन, इस पापी को क्षमा कर दो ! वरना मैं स्वयं को गोली मार लूंगा। उसने पिस्तौल उठाकर अपने सिर में लगा ली।


बालिका दौड़ी, उसने पिस्तौल युवक से छीन ली। फिर क्षण-भर चुप खड़ी रही। इसके बाद उसने भरीए स्वर में कहा-खड़े हो जायो । जमीन में क्यों पड़े हो?


युवक ने कहा--मेरे साथी को जब तक तुम क्षमा न करोगी, खड़ा न हूंगा। या तो क्षमा करो या मुझे गोली मारो, पिस्तौल तुम्हारे हाथ में है। उसमें अभी लचार गोलियां हैं। निशाना साधने की ज़रूरत नहीं। मेरी खोपड़ी में लगाकर घोड़ा दबा दो।


युवक नायक की आंखें सूख गईं। उसके स्वर में तीखापन भी था। बालिका आगे बढ़ी, उसने युवक का हाथ पकड़ लिया और कहा :


'उठो-उठो।'


'तब क्षमा किया?"


'किया'--बालिका रोने लगी। पिस्तौल उसके हाथ से छूट गई। युवक ने उसका आंचल आंखों से लगाया और कहा :


'बहिन, अपने भाई को कुछ आज्ञा करो।'


बालिका चुप रही। युवक ने कहा--अगर तुम्हारी इच्छा नहीं तो हम यह धन नहीं ले जाएंगे। कहो क्या कहती हो ?--बालिका कुछ न बोली।


युवक कुछ देर बालिका की ओर देखता रहा फिर वहां से तेज़ी से बाहर पा गया । बाहर लूट का सामान इकट्ठा था, सव डाकू चुपचाप नायक की प्रतीक्षा में खड़े थे। नायक ने अधिकारसम्पन्न स्वर में कहा-यहां से एक पाई भी नहीं ले जाई जाएगी। तुम लोग बाहर चले जाओ। वहां, उस कमरे में तुम्हारे साथी का शव पड़ा है, उसे भी ले जाना होगा।


शव को लेकर डाकू लौटने लगे। सबके पीछे नायक नीचा सिर किए जा रहा था। पीछे से किसीने मृदु स्वर से पुकारा-ठहरो।


युवक ने रुककर देखा–बालिका है। वह लौटकर उसके सम्मुख खड़ा हो गया। उसने तीखे स्वर में कहा :


'क्या कहती हो?'


'लौटे क्यों जा रहे हो ?'


'यह हमारी मर्जी है।'


'यह सब ले क्यों नहीं जाते ?' .


'यह भी हमारी मर्जी है।'


'क्या नाराज़ हो गए ?' बालिका रो उठी। नायक की आंखें भीग गईं।


उसने कहा-तुम्हारा क्रोध भाई के ऊपर से नहीं गया, उस भाई के ऊपर से जिसने जीवन और मृत्यु तक साथ देनेवाले साथी को पागल कुत्ते की भांति मार डाला--सिर्फ बहिन का अपमान करने के कारण, और जिसने उस पाप को अपने हृदय पर ग्रहण कर क्षमा मांगी। तुम लोग हमारी अज्ञात वहिनें हो, जो उन साहसी भाइयों के दुःख को नहीं जानती हो, जिनके हृदय धांय-धांय जल रहे हैं और जिन्होंने जवानी की सारी वासनाएं त्यागकर संन्यास ले लिया है, जो फांसी की रस्सियां गले में डाले मृत्यु को ढूंढ़ते फिरते हैं। जिन्होंने मृत्यु को वरा है, और जिनसे अपनी लाखों बहिनों का नंगा-भूखा रहना नहीं देखा जाता। तुम लोग उनसे सहानु- भूति तक नहीं रख सकतीं ! तुम्हारे छोटे-से घर की चहारदीवारी ही तुम्हारे जीवन और अस्तित्व का केन्द्र है । तुम भारत की अयोग्य पुत्रियां हो, जब तक तुम स्वार्थ और अज्ञान के गढ़े में हो, देश की करोड़ों बहिनों की गुलामी नहीं दूर हो सकती।


सतर्क स्वर में युवक ने इतनी बातें कहीं।


बालिका रो रही थी। उसने धीरे-धीरे आकर युवक का हाथ पकड़ लिया । उसने कहा--मैं हाथ जोड़ती हूं, इसे तुम ले जाओ, तुम्हें ले जाना पड़ेगा।


'तुम्हारा दिल दुखेगा।'


"तुम न ले जाओगे तो मैं जान खो दूंगी।'


युवक नायक ने साथियों को संकेत किया। वे रुक गए। वह गृहपति के पास जाकर बोला-क्या आपके पास और धन-सम्पत्ति है ?


'अब कुछ नहीं है।'


'इसमें से जितना चाहो रख लो।'


गृहिणी प्रभावित हो रही थी, उसने एक भारी-सा सोने का ज़ेवर उठाकर कहा--वैशाख में तुम्हारी बहिन की शादी करनी है उसके लिए यह काफी है। मेरे पुत्रो, जाओ, यह सब तुम ले जाओ। भगवान तुम्हारा कल्याण करे । युवक ने गृहिणी के पैर छुए, साथियों ने गट्ठर उठाए और चल दिए। बालिका युवक के पीछे जा रही थी, जब उसने ड्योढ़ी से बाहर कदम रखा, उसने पुकाराः


'भाई !'


युवक हर्षातिरेक से विह्वल होकर लौटा :


'कहो बहिन, क्या कहती हो?'


'तुम्हें आना पड़ेगा। बालिका ने मन्द मुस्कान से कहा। उस अभेद्य अन्धकार में वह मुस्कान को देख तो न सका, पर अनुभव करके बोला:


'आऊंगाबहिन!'


'नाम तो बताओ।'


'देवीसिंह।'


'अच्छा, वैशाख कृष्णा तेरस ।'


'याद रहेगा?' बालिका ने फिर पूछा।


'अवश्य, यदि स्वाधीन रहा तो आऊंगा ज़रूर।'


'आना ही पड़ेगा।

'आऊंगा वहिन!'


नायक हंस पड़ा, फिर रो पड़ा। उसने बालिका के पैर छुए और मंडलीसहित अन्धकार में डूब गया।


'दारोगाजी, अब आप निकल आइए, वे लोग चले गए।'


'भई, अच्छी तरह देख-भाल लो!'


'बेखटके निकल आइए।'


दारोगाजी ने निकलकर वर्दी झाड़ी और जूते के फीते कसते हुए बोले-इन साले जूतों ने आज मरवाया था।


कमालुद्दीन ने कहा-खैर, अब जाब्ते की कार्रवाई करनी चाहिए।


'जाब्ते की कार्रवाई कैसी?'


'दो सिपाहियों को गांव के पूरब की ओर जाकर फायर करने को कहिए। दो सिपाही पीछे से हवा में फायर करें। आप यहीं से तमंचा दागना शुरू कर दें। वर्दी फाड़ डालिए और सिपाहियों की वर्दियां भी चिथड़ा कर डालिए।' 'इसके क्या माने?'


'आखिर डाकुओं से मुठभेड़ भी क्या मामूली हुई?'


दारोगाजी इस भय की घड़ी में भी हंस पड़े। उन्होंने कहा-उस्ताद, तुम्हारी अक्ल को हम मान गए।


उन्होंने पिस्तौल ऊंचा करके चार-पांच फायर कर दिए। कमालुद्दीन ने मातादीन की पीठ पर हाथ मारकर कहा-देखते क्या हो, पूरव की ओर ही दौड़ जायो। हां, वर्दी को फाड़ दो। और दो-चार हवा में फायर कर दो। थोड़ी ही देर में बन्दूकों और पिस्तौलों की आवाज़ सुनकर गांव-भर में हलहल मच गई। दारोगाजी वर्दी फाड़े, नंगे सिर, कीचड़ में सने हुए दल-बलसहित लाला के घर पर आ धमके। साथ ही गांव के हजारों आदमी थे।


लाला नीचा सिर किए बाहर आए। दारोगाजी पलंग पर बैठ गए और बोले--रिपोर्ट लिखाओ लाला,आज जान हथेली पर करके डाकुओं का मुकाबिला किया गया। कहो क्या-क्या गया; क्या-क्या रहा।


लालाजी ने दबी ज़बान से कहा-हुजूर, आपकी दया से डाकू भाग गए। वे भाई की विदाई कुछ भी न ले जा सके।


दारोगाजी की बांछे खिल गईं। परन्तु कमालुद्दीन चक्कर में थे। उन्होंने संकेत से दारोगाजी से कहा यहां तो कुछ दाल में काला नज़र आता है।


'यह क्या?'


'यह नामुमकिन है कि डाकू बिना कुछ लिए भाग गए हों?'


'हां, यह तो साफ है?'


'फिर लाला ऐसा क्यों कहता है?'


'यही तो पूछना चाहिए।'


दारोगाजी ने डपटकर कहा-ठीक रिपोर्ट लिखानो जी! कमालुद्दीन, ले जाओ, ज़रा लाला के होश ठीक कर दो-यहां ये घबरा रहे हैं।


कमालुद्दीन लाला को एक तरफ ले गया। कुछ क्षण में वातचीत समाप्त हो गई।


मुनासिब रिपोर्ट लिखकर दारोगाजी दल-बलसहित वहीं सो रहे। सुबह उनके लिए पूरियां तली गईं। खूब डाटकर मुट्ठी गर्म करके दारोगाजी ने थाने की राह ली।


रोज़नामचे में लिखा गया:


'खादिम खुद मौके पर चन्द बहादुर सिपाहियों को लेकर पहुंचा। डाकू ४० के करीब थे। सब हथियारबन्द। रात-भर गोली चलती रही। यहां तक कि मेरी और सिपाहियों की वर्दियां भी फट गईं और चोट भी आई। मगर चूंकि डाकू बहुत ज्यादा थे और सब हथियारों से लैस थे-वे भाग गए। मगर डाका न पड़ सका-और एक पाई का माल भी नहीं लूटा गया।


कहना नहीं होगा कि दारोगाजी की कारसाज़ी की खूब तारीफें की गईं।


वैशाख कृष्णा तेरस थी। कृष्णा का आज ही विवाह था। घर में धूम थी। बरात आ गई थी। ज्यों-ज्यों दिन ढल रहा था कृष्णा का उद्वेग बढ़ता जाता था। वह प्रतिक्षण देवीसिंह के आने की प्रतीक्षा में थी। संध्या हो गई। दिये जल गए। द्वार पर बाजे बज रहे थे। बरात भोजन कर रही थी, लोग दौड़-धूप कर रहे थे। कृष्णा अब भी उस आगन्तुक की प्रतीक्षा में थी।


एक दुबला-पतला युवक आया और इधर-उधर देख घर में घुस गया। उसका वेश साधारण था। उसने गृहपति को पहचानकर कहा-लाला जी, मुझे आपसे कुछ कहना है।


देवीसिंह आज आएगा, लाला को भी उसकी प्रतीक्षा थी। उन्होंने सतर्क दृष्टि से युवक को देखकर कहा-तुम कौन हो?


'मैं देवीसिंह का सन्देश लाया हूं।'


'वे कहां हैं?'


'यह मैं नहीं बता सकता, कृपाकर क्षण-भर के लिए कृष्णा बहिन से मेरी मुलाकात करा दीजिए।'


लाला ने चुपचाप उसे गृहिणी के पास पहुंचा दिया। कृष्णा ने उसे देखा और कहा-क्या वे न आ सकेंगे?


'नहीं बहिन, यह संभव ही न रहा। उन्होंने क्षमा मांगी है और आशीष दी है।'


'वे हैं कहां?'


बालिका आशंका से पीली पड़ गई।


'निकट ही, पर देख न सकोगी!'


'क्या कैद हो गए?'


'सब कुछ हो गया, बहिन।'


'क्या हो गया? 'खुलासा कहो।'


'नहीं, आज इस समय वह बात कहने योग्य नहीं।' युवक ने बड़ी ही कठिनाई से उमड़ते हृदय को रोका।


बालिका सूख गई। उसने कहा--तुम्हें कहना होगा।


'नहीं बहिन, न कह सकूँगा।'


'कहो, कहो, मैं तुम्हें आज्ञा देती हूं।' वह रोने लगी।


युवक ने सिर झुकाकर कहा-तुम्हारी आज्ञा मैं टाल नहीं सकता बहिन, उन्हें फांसी की सजा हो गई है।


बालिका आंखें फाड़-फाड़कर देखने लगी। उसके मुंह से बोल न निकला। युवक ने दूसरी ओर मुंह फेरकर कहा:


'कल प्रातःकाल पांच बजे उन्हें फांसी होगी। आज का मंगल-कार्य समाप्त होने के ही लिए उन्होंने एक सप्ताह की अवधि ली थी।'


बालिका अब भी मुंह फाड़े खड़ी रही। वह बेंत की भांति कांपने लगी; वह मूर्छित-सी हो रही थी।


युवक ने गृहिणी की सहायता से उसे बिस्तर पर लिटा दिया। उसने कहा बहिन, मैंने समझा था तुम वीर भाई की वीर बहिन हो, सब सुनोगी?


'मुझमें साहस है, पर मैं विवाह नहीं करूंगी! मां.....'


'नहीं बहिन, अगर तुम विवाह नहीं करोगी तो वे कल हंसते और गीत गाते हुए फांसी पर न जाएंगे। वे विरोध करेंगे और उन्हें घसीटकर ले जाया जाएगा। यही उनका निर्णय है, क्या यह ठीक होगा बहिन?'


'उनकी आज्ञा क्या है?' बालिका ने रोते हुए कहा।


'तुम्हारा विवाह ठीक-ठीक सकुशल समाप्त हुआ है यह मैं अपनी आंखों से देखूं और समय पर उन्हें सूचना दे दूं।'


'विवाह हो जाएगा, तुम देख लेना।' बालिका के चेहरे पर मुर्दनी छा रही थी; पर आँसू न थे।


'उनका एक और भी सन्देश है।'


'वह क्या है?'


'उन्होंने कहा है, अब तुम्हारी जैसी वीर-बालाओं को देश के लिए बलिदान होने की जरूरत है।'


'उनसे कहना, मैंने आज से अपने प्राण और शरीर देश के लिए दिए, पर मैं उनका पथ न ग्रहण कर सकूँगी।' 'बहिन, प्रत्येक प्रतिभाशाली मस्तिष्क अपने पथ का निर्माता है।'


'एक निवेदन और है।'


युवक ने बगल से नोटों का एक बण्डल निकाला और कहा-कुल दस हज़ार हैं। जब तक हममें से एक भी जीवित है, आज से इसी समय प्रतिवर्ष इतनी ही रकम आपको इसी स्थान पर मिलती रहेगी। आप चाहे भी जहां रहें, आज के दिन इस समय यहीं उपस्थित रहें। उसने नोट बालिका के आगे बढ़ाए।


बालिका ने कहा-जबतक तुममें से एक भी जीवित है यह रकम तुम मेरी तरफ से देश के किसी अच्छे काम में लगाते रहो। पर प्रतिज्ञा करो कि भविष्य में यह रकम किसी अनुचित मार्ग द्वारा न प्राप्त की जाएगी और किसी भी हिंसक उपयोग में न लाई जाएगी।


'आपकी आज्ञा का यथावत् पालन होगा। और आपको उसकी कैफियत मिल जाएगी।'


इसके बाद बातचीत बन्द हुई। विवाह-मंडप में मंगल-वाद्य बज रहे थे। पुरोहित उपस्थित थे। बालिका चुपचाप विवाह-वेदी पर जा बैठी। विवाह-कार्य संपन्न हुआ। युवक उसी रात विदा हो गया।


वह जेल के फाटक पर उपस्थित थी। विवाह की हल्दी उसके शरीर पर थी और कंगना हाथ में। लाश उसने ले ली। उसने देर तक उस वीर युवक का तेजपूर्ण मुख देखा, अभी भी शरीर में कुछ गर्मी और चेहरे पर लाली थी। उसने अपने आँचल से उसका मुंह पोंछा, रोली का टीका लगाया, राखी भी बांधी और माथा टेककर प्रणाम किया। इसके बाद उसने वहीं खड़े होकर मन ही मन कुछ प्रण किया, और चल दी।


No comments:

Post a Comment

Short Story - At Christmas Time | Anton Chekhov

Anton Chekhov Short Story - At Christmas Time I "WHAT shall I write?" said Yegor, and he dipped his pen in the ink. Vasilisa had n...