Wednesday, September 14, 2022

कहानी | बड़नककी | आचार्य चतुरसेन शास्त्री | Kahani | Badankaki | Acharya Chatursen Shastri


 
(प्राचीन वेश्याओं का जीवन आधुनिक वेश्या-जीवन से सर्वथा भिन्न था। उस जीवन में वेश्याएं अपने ग्राहकों को आत्मिक, शारीरिक एवं पारिवारिक सुख की सभी चेष्टाओं में सक्रिय थीं। स्वार्थान्धता की दुष्ट प्रकृति से वे दूर यीं। उनकी सत्प्रवृत्तियां अपने प्रेमियों के लिए उन्मुख रहती थीं। बड़नककी एक ऐसा ही चरित्र है। यह कहानी 1928 में लिखी गई थी। और इसके प्रकाशित होने पर लेखक के पास जिज्ञासु पत्रों का तांता लग गया था।)


अजमेर तो बहुतों ने देखा होगा, उसके जैसी ऊबड़-खाबड़ गन्दी गलियां और सड़कें और किस शहर को नसीब हैं। वैसे मैले तोंदल, थलथल, हलवाई मिट्टी के रंग की धोती कमर में बांधे, लोहे के थालों में तेल और गुड़ की मिठाइयां, भुंजे सेव लिए किस तरह चुन्धी आंखों से ग्राहक के ऊपर शुभ दृष्टि डालते हैं, इसे बताकर कैसे कहा जाए। अजी वैसी कुंजड़नें धरती के छोर पर कहीं मिल जाएं, तो नाम। मदारगेट के शैतान की प्रांत की तरह ऊंची-नीची और रेखागणित की तमाम शक्लों की मुरक्काबञ्चली को पार करते ही फिर कुंजड़न ही कुंजड़न हैं। सभी नमूनों की देख लीजिए। नवेलियां महीन झिलमिल चूंघट से और प्रौढ़ाएं कटाक्ष की खुली दुधारी तलवार से एवं वृद्धाएं अधनंगे सिर, हाथ-भर लम्बी जुबान से जिस खुशी से सौदा पटाती हैं और उनके मर्दुए जिस सन्तोष से इस सौदे को नयन भरकर देखते हुए मीठी तमाखू का दम पर दम चुपचाप लगाया करते हैं, इसे जिसने न देखा, उसकी आंखें, चाहे जैसे बढ़िया चश्मे से ढकी रहें, व्यर्थ हैं। इन कुंजड़ों की उर्दू-मारवाड़ी मिश्रित तीखी मीठी बोली, ठठोली, कलेजे के आर-पार जानेवाले व्यंग्य-बाण झेलने की अपेक्षा लोग चार पैसे झाड़ देने में जो स्वाद पाते हैं, उसे अजमेर के भाग्यवान ही जान सकते हैं।


इतना होने पर भी आज अजमेर में कुछ तत्त्व नहीं है। सेठों के नये-नये बंगलों ने शून्य पहाड़ी टेकरियों को एक शोभा ज़रूर प्रदान की है। चीफ कमिश्नर साहेब का फरफराता झण्डा जब अभागे आना सागर के हिलोरें मारते जल में प्रतिबिम्बित होता है और स्वच्छ खालिस संगमरमर की बनी शाहजहां की विधवा बारादरी पर खड़े होकर जब दो-चार भद्रजन उसे निहारते हैं तो समझिए अजमेर में सब कुछ है। गलियां गन्दी हैं, तो हुआ करें। महल, मकानात, हवेलियां किस शान की बनी हैं। दुःख तो यही है कि उनमें रहनेवाला आज नहीं है। अजमेर में नर हैं, नारी हैं, बाज़ार हैं, गलियां हैं, मुहल्ले हैं, पर नहीं है प्राण। वह प्राण, जिसके लिए अजमेर से महामायावी अंग्रेजों ने विवाह किया था। अजमेर मुर्दा है, वह राजपूताना की एक महानगरी का श्मशान है।


पर सदा ही ऐसा न था। एक समय था जबकि अजमेर में ढड्डा परिवार प्रोज पर था। सारे राजपूताने में इसकी तूती बोल रही थी। सूरत की आढ़त के द्वारा योरोप तक उनकी हुंडी चलती थी। चांदी के बाज़ार में अमेरिका तक उनकी प्रामाणिकता थी। सेठ चांदमल छगनमल का नाम समस्त भारत के प्रमुख सेठों में था। सोनियों का आज-जैसा दौर-दौरा न था। अलबत्ता लढ़ा-परिवार तब भी ओज पर था। सोनियों और लढ़ाओं में लाग-डाट चलती रहती थी। गोटा और जवाहरात एवं हुंडी-पर्चे की अजमेर एक भारत-प्रसिद्ध मण्डी थी। उस समय आठ सौ दुकानें तो सिर्फ गोटे की थीं।


सन् 1857 के गदर के बाद अंग्रेज़ों ने अनुभव किया कि राजपूताना हमारी सबसे बड़ी ढाल है। साधारण प्रजा की अपेक्षा रईस और रजवाड़े अधिक आसानी से हमारी गुलामी पसन्द करेंगे; इसके सिवा इन्हें सर्वथा बधिया बनाए रखने ही में कल्याण है। इसलिए उन्होंने राजपूताने के लिए अपनी खास नीति निर्धारित की; खास-खास सभी ठिकानों ने अंग्रेजों से सन्धियां कर ली थीं। मारवाड़ ने नवीन सन्धि द्वारा अपने-आपको ब्रिटेन की कृपा पर छोड़ दिया था। निदान अजमेर में अंग्रेजी साम्राज्य का सौभाग्य-सिंदूर लालबिन्दु लगा दिया गया। अजमेरसा सम्पन्न नगर उस समय था नहीं। इसके सिंवा यदि वर्षा ठीक हो जाए तो कश्मीर को छोड़कर अजमेर की सुषमा को धारण करनेवाला नगर भारत में नहीं।


अजमेर कमिश्नरी बन गया। आज तक वह भारत के रजवाड़ों के प्रभु का स्थान है। छोटी-छोटी शक्तियां, जिनका सम्बन्ध राठौर से अधिक है, अजमेर के चारों तरफ छाई हुई हैं। इसके सिवा मेवाड़ का प्रतापी नाम उस समय तक सर्वथा निस्तेज न हुआ था, मेवाड़ का मानो अजमेर सिंहद्वार है। उधर गुजरात का 'फाटक भी यहां से ही खुलता है।


उन्हीं दिनों की बात है। लाखन कोठरी के इस तरफ जहां आजकल धानमण्डी का मोड़ हैं और इस समय जहां सड़े हुए अन्न की दुर्गन्ध सदा बनी रहती है तथा टूटी हुई सड़क और टूटी-सी एक दुमंजिला इमारत खड़ी है, वहां एक तिखण्डा आलीशान महल था, जिसके द्वार पर सदैव श्रीमन्तों और उमरावों की सवारियों का तांता बंधा रहता था। यह आलीशान महल एक वेश्या का था। और उसका नाम था-बड़नककी।


बड़नककी अपने ज़माने में समस्त राजपूताने में प्रख्यात वेश्या थी। उस समय वेश्याओं से सम्बन्ध रखना रईसों और उमराओं के लिए एक शान की बात समझी जाती थी। जातीय सुधारक युवक-दल तब कहां था, खद्दर और स्वराज्य के नारे सोए पड़े थे। उत्थान और नव्य जीवन राजपूताने को त्याग चुका था। तब थी एक मूर्छा की बदमस्ती। उसमें समस्त मारवाड़ सो रहा था और प्रतापी ब्रिटेन का यूनियन जैक हवा में लहराकर उस बदमस्त सोते हुए मारवाड़ रसिया को ठंडे थपेड़ों से सुला रहा था।


वेश्या और मद्य उस समय के जीवन की आवश्यक सामग्री थी। घर-घर भट्टियां थीं और अनेक जाति की सुवासित मदिरा घरों में ही तैयार होती और 'पानी की तरह पी जाती थी।


बड़नककी की आयु चालीस को पार कर गई थी, उसकी नाक अपेक्षाकृत कुछ बड़ी था, उसीने उसे इस नाम से प्रसिद्ध भी किया था। चालीस वर्ष की आयु तक उसने बड़े-बड़े घरवाले, बड़े-बड़े मार्के जीते, बड़े-बड़े मूंछ-मरोड़ों को ढीला किया। सरदारों को भिखारी बनाना और सेठों के दिवाले निकलवाना बड़नककी के बाएं हाथ का खेल था। प्रतिवर्ष सुन्दर बालिकाएं देहात से संग्रह करके उन्हें पहनने, प्रोढ़ने, अदब-कायदे की तालीम देकर रईसों और सेठों को बेचना उसके व्यापार का एक खास अङ्ग था। श्रीमन्त, साहूकार और सरदारों को दूसरे धन'पति मित्रों से कर्जा दिलाना, जायदाद गिरवी रखाना, सुलह और विग्रह कराना, बड़े घराने की बहू-बेटियों को अनायास ही उड़ा लेना बड़नककी के व्यवसाय का विस्तार था। उसकी शाखाएं-बीकानेर, जयपुर, उदयपुर, कोटा, बूंदी, जोधपुर आदि सर्वत्र फैली हुई थीं। इन सब धन्धों में लाखों रुपयों की सम्पत्ति उसके पास उमड़ी चली आती थी। इस सघन व्यापार को करते बड़नककी अपने यौवन का पूरा मोल-तोल ले-लिवाकर प्रौढ़ा बनी थी। पर उसका धंधा वैसे ही जोरों पर था। दस-बारह अनिंद्य सुन्दरियां सभी नमूनों की उसके महल में सजीव पुतलियों की भांति बनी रहती थीं-मारवाड़ का कोई भी रईस छैला उन ड्योढ़ियों में घुसकर बिना दिए और बिना छके बाहर न निकल सकता था।


शीतकाल की सन्ध्या थी। सात बज चुके थे। धुंधला अंधकार सर्वत्र व्याप्त हो गया था। बड़नककी स्नान-उवटन करके बन-ठनकर बैठी थी। उसका रंग गौरवर्ण, शरीर मांसल, त्वचा साफ और चमकीली, आंखें अनीदार, होठ उत्फुल्ल और खड़ी होने की धज निराली थी। स्वास्थ्य भी उसका खूब था, चालीस वर्ष की उम्र होने पर भी उसमें सिवा कुछ स्थूलता उत्पन्न हो जाने के उसके रूप में अन्तर नहीं पड़ा था। वह एक हलकी दुलाई ओढ़े हुक्के की नली मुंह में दबाए, गद्दे पर मसनद के सहारे बैठी थी। नौकर-चाकर बड़े यत्न से कमरे को सजा रहे थे। रंगीन हांडियों में काफ़री बत्तियां जल रही थीं। धीमी और सुगन्धित वायु से कमरा महक रहा था। सब कुछ ठीक-ठाक करके उसने नौकर को आवाज देकर कहा-वसन्ती यदि कपड़े बदल चुकी हो तो उसे ज़रा यहां भेज दो।


वसन्ती ने सहमते-सहमते कमरे में प्रवेश किया। बड़े दुलार से बड़नककी ने कहा-बेटी, देखो, इस पोशाक में तुम कितनी अच्छी लगती हो। पर देखो, बण्डी इस तरह नहीं पहना करते। तुमने तमाम गर्दन और कान ही ढक लिया। वाह, यह कैसा भद्दापन है। सिर का पल्ला जरा पीछे रखा करो। चूंघट का इस घर में काम नहीं। और हां देखो, वह मेरा कश्मीरी नया शाल निकाल लो। वह तुम्हारा हुआ। पर इतनी सुस्त क्यों हो? क्या पराए घर हो? घर तो तुम्हारा है। खुश रहो, खाओ, खेलो, मौज करो। औरों को नहीं देखतीं क्या? अच्छा देखो, उस मसनद पर बैठो तो सही। नहीं, इस तरह नहीं, सिकुड़ती क्यों हो? हां, अब ठीक है। अच्छा ज़रा इस बोतल और गिलास को तो उठा लाओ।


बालिका ने विनम्र भाव से बोतल-गिलास बड़नककी के सामने धर दिए। बड़नककी ने अधिकार के स्वर में कहा-गिलास भरो बेटी!


बालिका ने गिलास भरा। बड़नककी ने उसे हाथ में लेकर पी लिया और कहा--एक गिलास तुम भी पियो।


'जी नहीं, मैं नहीं पिया करती।'


'यह क्यों, तुम्हारे ठाकुर साहब तो सदा पीते हैं।'


'जी हां, पर मैं नहीं पीती।'


'पगली बेटी, ऐसी नियामत पिए बिना रहा जा सकता है।'


बड़नककी ने गिलास भरा। बालिका के होंठों से लगा दिया, बालिका पी गई। इसके बाद बालिका को प्यार से चूमकर बड़नककी ने कहा-वसन्ती, तुम किसी दिन बड़ा नाम कमाओगी। अच्छा, अब काम की बात सुनो। देखो यह कसबन का घर है। अपना-अपना कर्म अपना-अपना धर्म। मैं चाहती हूं कि किसी लखपती को तुम्हें सौंपकर तुम्हें खुश देखूं। अभी जो सरदार आनेवाले हैं, अजमेर तो क्या, मारवाड़ में उनके सा सुन्दर जवान नहीं है। कैसे वांके जवान हैं कि वाह! उम्र भी बीस-इक्कीस के इतनी ही है। रंग जैसा कुन्दन का, वाणी जैसे फूल बरसते हैं, दांत जैसे मोती, छरहरा बदन, कैसा प्यारा जवान है। तुझे बेटी, उनकी सब तरह खातिर करनी होगी। लजाने-शर्मा ने से काम नहीं चलेगा। समझी? अच्छा, ऊपर जाकर जरा देख पाओ, नाश्ता और खाने-पीने का सब सामान तैयार है न? पर देखना, जो वे बहुत इसरार करें तो पी लेना। ज्यादा ना नूं इन रईसों को पसन्द नहीं। जाओ, उस कमरे में शराब, गिलास और नाश्ता सब ठीक-ठीक चुनवा दो।


बालिका नीची गर्दन किए सुनती रही और फिर धीरे से चली गई।


बड़नककी ने उसकी ओर देखा और धीरे-धीरे सिर हिलाकर मुस्कराई। इतने में एक सेवक ने चिट्ठी लाकर दी। उसमें लिखा था : प्रिये!


खेद है, मैं न आ सकूँगा। आज तुम्हारी बात रखना असम्भव है। ऐसा भी विश्वास नहीं होता कि फिर कभी तुमसे मुलाकात होगी। बहूजी आ गई हैं, और उनकी पवित्रता, भोलापन और सौंदर्य देखकर मैंने मन में कुकर्म त्यागने और चरित्र सुधारने का दृढ़ संकल्प कर लिया है। कृपाकर अब उस भोली मूर्ति को दिखाकर ही मुझे लालच में न फंसाना। मैं तुम्हारा प्रतिपालन वैसे ही करता रहूंगा। पर देखना, ऐसा काम कोई न करना कि मेरा नाम तुम्हारे घर के साथ लिया जा सके।


यह स्वप्न में भी न सोचना कि मैं तुमसे नाराज हूं। तुम्हारे द्वारा जीवन में जो सुख मिला है, वह जीवन में कभी भूलने की वस्तु नहीं। अब से हम दोनों विशुद्ध मित्र रहे। प्रिये विदा!


पत्र बड़नककी के हाथ से गिर गया। उसने पत्र से ज्योंही दृष्टि उठाई, दासी ने सेठ को सम्मुख ला खड़ा किया। बड़नककी हड़बड़ाकर उठ बैठी और बोली ओफ, आज इतने दिन बाद अचानक पधारे, हमारे अहोभाग्य! मैं तो समझी, हुजूर ने मुझे भुला दिया। कमला ने कितनी बार याद किया। मैंने कहा, बेटी, सब्र कर। रईस कब किसके होते हैं! यहां तो एक पाते और एक जाते हैं। पर सुनती ही नहीं, तभी से उदास रहती है। मैंने सोचा कि आपको लिखू, पर कुछ सोचकर रह गई। हां, यह तो कहिए, हुजूर का मिजाज़ तो अच्छा है?


'बहुत अच्छा हूं। मैं जोधपुर चला गया था। एक गंभीर मामला हो रहा है। अब तुमसे तो कुछ छिपा नहीं है। 'खानदान को तुम जानती ही हो, अब या तो अजमेर में वे नहीं या मैं नहीं। मैंने वह हाथ धरा है कि कल दस बजे दुनिया जानेगी कि सेठ'..."का टाट उलट गया।'


बड़नककी ने पास खसककर कहा--आखिर तुमने ऐसी कारस्तानी क्यों की है? कुछ सुनूं भी। मुझसे क्या छिपा रहे हो, सभी धन्धे तो मेरी मार्फत होते हैं।


‘पर यह धन्धा कुछ और ही है। (धीरे से) कल पचास लाख की हुंडियों का भुगतान सेठजी को करना पड़ेगा। (मुस्कराकर) हुंडियां ये जेब में पड़ी हैं, वहां रुपया है नहीं। मैं जोधपुर, बीकानेर, जयपुर सभी जगह से उनकी हुंडियां खरीद लाया हूं।'


बड़नककी ने मन का भाव दबाकर कहा-गजब करोगे। खैर, तो यह कहिए कि सैकड़ों वर्ष के पुराने घराने को बर्बाद कर देंगे? आपने बड़ा भारी परिश्रम किया।


'क्या पूछती हो? कई महीने दौड़धूप करनी पड़ी है। नहीं तो क्या मैं बिना आपके और कमला के रह सकता था? हां, कमला कहां है?"


'आठ दिन के लिए जयपुर भेज दिया है। बड़ी उदास रहने लगी थी।'


'वाह, यह तो बुरी सुनाई।'


'क्यों कमला न सही, मैं तो हाज़िर हूं।'


'आप अपनी जगह और कमला कमला की जगह है।'


'मेरे पास एक ही कमला नहीं है।'


क्षण-भर में वसन्ती ने कमरे में प्रवेश किया। एक अपरिचित अधेड़ व्यक्ति को देख वह ठिठक रही। ओस के भीगे हुए गुलाब की कान्ति के समान लज्जा की लाली और सौन्दर्य के निखार का साथ-साथ उद्गम देखकर कामुक सेठ सकते की हालत में हो गए।


बड़नककी ने कहा-बेटी संकोच न करो। अभी तो मैं तुमसे इनका जिक्र कर रही थी। आपको ऊपर ले जाओ, खातिर-तवाजा करो।


बालिका चुपचाप खड़ी रही। इसी अधेड़ पुरुष की रूपरेखा क्या उस तरह बयान की गई थी? पर अभागिन वेश्या की लड़की को यह सोचने का क्या अधिकार? उसने एक ही क्षण में देख लिया कि यह पुरुष न सुन्दर है, न सुडौल, बल्कि एक चालीस-साला अधेड़ मोटा बदरंग आदमी है।


उसके होंठ घृणा से सिकुड़ गए। सेठजी ने उस सौन्दर्य-मूर्ति को पाकर मानो आसमान छुआ। वे बड़े चाव से उठे और उसका हाथ पकड़ ऊपर ले चले। बालिका मन्त्रबद्ध की तरह चुपचाप चल दी।


अंधेरी रात में सिर्फ तारों की परछाईं थी। उसमें काले वस्त्र से शरीर को ढके एक व्यक्ति टेढ़ी-मेढ़ी गलियों को पार करता तेज़ी से जा रहा था। एक विशाल अट्टालिका पर जाकर उसने ऊंघते हुए द्वारपाल का कंधा पकड़कर हिलाकर कहा-सुनो, ज़रा देखो, सेठजी सोते हैं या जाग रहे हैं। सोते हों तो भी उन्हें जगा दो, काम बहुत ज़रूरी है।


द्वारपाल ने हड़बड़ाकर सावधान होकर कहा--पर तुम हो कौन?


आगन्तुक ने मुख पर का प्रावरण उतार डाला। टिमटिमाते दीपक के धुंधले प्रकाश में द्वारपाल ने देखा। वह अकचका गया और शीघ्र ही भीतर ड्योढ़ियों में चला गया।


सेठजी की उम्र साठ को पार कर गई थी। वे घबड़ाकर बोले-बड़नककी, तुम इस वक्त?


'दिल न माना, सेठजी, बुढ़ापे में दिल ज्यादा बेकाबू हो जाता है।'


'हंसी रहने दो, खैर तो है?'


'खैर होती तो इस वक्त मुझे पाना पड़ता?'


'बात क्या है, सो तो कहो।'


'घर में रुपया कितना है?'


'तुम्हें कितना चाहिए?'


'पचास लाख नकद।'


'पचास लाख और इस वक्त? पागल हो गई हो क्या?'


'बिना पागल हुए घर से निकल सकती थी?'


'आखिर मामला तो बताओ, क्या है?'


'कह दिया न, रुपये की ज़रूरत है। घर में कितना होगा?'


'दो-तीन लाख।'


'कल कुछ देना है?'


'कुछ नहीं।'


बड़नककी क्षण-भर खड़ी रही। उसने एकाएक सेठजी का हाथ पकड़ लिया, और कहा--मेरे साथ अभी आदमी भेज दीजिए, जो कुछ भी होगा, भेज दूंगी। आपको कल पचास लाख की हुण्डी भुगतान करनी पड़ेगी। तैयार रहिए, सर्वनाश की दुश्मनों ने पूरी तैयारी कर ली है। इतना कहकर बड़नककी ने कान में कुछ कहा।


सेठजी ने एक भेद-भरी दृष्टि से वेश्या को देखा। उन्होंने बड़े ज़ोर से उसका हाथ दबाकर कहा-बड़नककी, तुम्हारा एहसान अब इस बुढ़ापे में नहीं उतार सकता। जाओ, उस जन्म में उतारूंगा। तुम आराम करो, मैं सब भुगत लूंगा। तुम्हें रुपये के लिए तकलीफ करने की ज़रूरत नहीं।


सेठजी ने एक नौकर को पुकारकर बड़नककी को उसके मकान तक छोड़ आने का आदेश किया।


बड़नककी विशेष आग्रह न कर एक दृष्टि सेठ के वृद्ध, किन्तु स्निग्ध नेत्रों में फेंककर चल दी।


'अभी साहेब सोते हैं, मुलाकात नहीं होगी।'


'मगर मेरा काम बहुत ज़रूरी है।'


'मुझे जगाने का हुक्म नहीं है।'


'मैं बिना मिले जा नहीं सकता।'


गुस्से से लाल मुंह किए चीफ कमिश्नर साहब ने बराण्डे में आकर गुर्रा कर कहा:


'वेल बेरा, क्या गुल है?'


'हुजूर, सेठ साहब.....'


'ओह, रायबहादुर...'आप इस वक्त कैसे?'


'हुजूर! बहुत ज़रूरत होने पर आया हूं।'


'क्या बात है?'


'भीतर चलिए तो कहूं।'


भीतर आकर सेठजी ने पगड़ी साहब के पैरों पर धर दी और सारा मामला सुनाकर कहा-कल भुगतान करना या मरना-एक काम मुझे करना होगा। सिर्फ तीन दिन के लिए दस लाख रुपया सरकारी खजाने से मिलना चाहिए।


साहब ने गम्भीर होकर कहा-मगर यह तो कानून नहीं है।


'साहब, मैं कानून नहीं जानता। सरकार के लिए हम जान देने के लिए तैयार हैं। क्या सरकार हमारी इतनी मदद भी न करेगी?'


साहब ने पुर्जा लिख दिया।


अंग्रेज़ी अमलदारी के प्रारम्भिक दिन थे। कानून आवश्यकतानुसार काम में आता था। रातोंरात सेठजी के घर में रुपया पहुंच गया। रातोंरात कोठे में भर दिया गया। रातोंरात दीवार चुन दी गई और सफेदी कर दी गई। दस बज गए थे। सेठजी गम्भीर मुद्रा में गद्दी पर बैठे थे। मुनीम-गुमाश्ते अपनेअपने धन्धे में लगे थे। सेठ 'अपना भारी शरीर गाड़ी से उतारकर मुस्कराते हुए भीतर चले पाए। सेठजी ने हंसकर आदरपूर्वक उन्हें बैठाया, कुशल पूछी और आने का कारण पूछा। सेठजी ने ज़रा हंसकर कहा-सेठ साहब, आप पर थोड़ी-सी हुंडियां हैं, इन्हें सकार दें। रुपये की इस वक्त ज़रूरत आ पड़ी है।


सेठज़ी से संकेत पाकर मुनीमजी ने हुंडियां लेने को हाथ बढ़ाया।


हुंडियां देखते ही मुनीमजी का मुंह पीला पड़ गया।


सेठजी ने कहा-क्या बात है मुनीमजी?


'रुपया नकद घर में है नहीं। हुंडियों की रकम बहुत है।' मुनीमजी ने धीरे से कहा।


सेठजी ने ज़रा उच्च स्वर में कहा-तो क्या हर्ज है, सेठ साहव कोई गैर थोड़े ही हैं। दो-चार दिन के आगे-पीछे रुपये भेज देना।


'सेठ साहेब, आज रुपया मिल जाता तो ठीक था। आज रुपये की ज़रूरत है। वरना वैसे तो कोई बात न थी।'


'आप जानते हैं, रुपया नकद रोककर हमेशा रखा नहीं जाता। हां, दो-चार दिन में मिल जाएगा, यह तो व्यवहार की बात है।'


'व्यवहार की बात तो यह है कि हुंडी फौरन सकार दी जाएं।'


'पर हमारा-आपका वैसे भी तो एक मामला है।'


'यह तो ठीक है, पर रुपया तो आज ही चाहिए।'


'आज रुपया नहीं दिया. जा सकता।'


'रुपया आज ही मिलना चाहिए।'


'आज रुपया नहीं मिलेगा।'


'तब हुंडियां नहीं सकारी जाएंगी?'


'क्यों नहीं!'


'तब रुपया अभी दीजिए।'


'अभी?'


'जी हां, अभी।'


'दो-चार दिन भी न ठहरेंगे?'


'दो-चार मिनट भी नहीं!'


सेठजी हंस दिए। मुनीमजी का मुंह फीका हो रहा था। वे थरथर कांप रहे थे। सेठजी की हंसी का रहस्य नहीं समझे। मुंह ताकने लगे।


सेठजी ने कहा- मुनीमजी, बेलदारों को तो बुलायो। बेलदारों के आने पर सेठजी ने हुक्म दिया, इस दीवार को तोड़ तो दो।


दीवार पर घन पड़ने लगे। ईंटों के गिरते ही छनाछन रुपयों का ढेरा पड़ा। लोग हैरान थे। सेठजी ने गरजकर कहा--मुनीमजी, कह दो इस कंगले से, अपने हाथ से रुपया गिनकर ले जाए।


आगन्तुक सेठ धरती में गड़ गए। वे हुंडियां वहीं छोड़कर चुपचाप चल दिए।


उसी दिन रात्रि को बड़नककी के पास उसके सच्चे प्रेम का उपयुक्त उपहार भेज दिया गया।


हीरे के उस हार को, जो सेठजी ने उपहार भेजा था, बड़नककी पहनकर कद्देआदम आईने में अपने ढलते यौवन को निहारकर सेठजी की कुछ मधुर स्मृतियों में लीन हो रही थी। एक दूसरे बड़े रईस की उसके यहां आज आमद थी। वह सजधजकर बैठी थी। दासी सफाई कर रही थी, करीने से सामान सजाया जा रहा था। एक व्यक्ति धीरे-धीरे चुपचाप ऊपर चढ़ गया। बड़नककी को अपने ध्यान में कुछ सुध न थी। जब उसने एकाएक गर्दन उठाकर उसके भयानक मुख को देखा तो वह सहम गई।


आगन्तुक ने कहा-बी साहबा, घबराओ नहीं, उम्मीद है मुझे पहचान गई होंगी। नजफखां पठान हूं। यहां के अमीरों से मैं खिदमत ले चुका हूं, अब उन्हें सताना नहीं चाहता। अब मैं आपकी खिदमत में आया हूं, दस हज़ार रुपयों की सख्त ज़रूरत है। कल रात को आठ बजे लूणिया मसाणावाले पीपल के नीचे दक्षिण की तरफ गड़ा हुआ मिले। वरना खैर न होगी। अच्छी तरह समझ लो, लूणिया मसाणा के पीपल के नीचे दक्षिण की तरफ रात को आठ बजे तक समझी। मैं तुम्हें हरगिज़ तकलीफ न देता। पर क्या करूं, बात ही ऐसी आ पड़ी है। अब ज्यादा बातचीत की फुर्सत नहीं। मैं जा रहा हूं। यह कहकर वह बिना उत्तर पाए ही गद-गद करके जीने से उतर गया। बड़नककी सहमी रह गई।


नजफखां पठान कौन था। वास्तव में यह कोई न जानता था, पर उसकी धाक बड़ी थी। छोटे-छोटे सभी अमीर उसका लोहा मानते थे। वह बहुत डाके वगैरह न डालता था और न चोरी करता था। जब उसे ज़रूरत पड़ती, वह किसी अमीर से कहता-देखो जी, दस या पांच हजार रुपये उस दरख्त के नीचे गाड़ आना। अमुक समय तक। यदि वहां रुपये न हुए तो याद रखो, जहन्नुम रसीद कर दिए जाओगे।


अगर ठीक समय पर वहां रुपया गड़ा मिल गया तो ठीक, वरना अगले ही दिन वह रईस सचमुच जहन्नुम रसीद कर दिया जाता था। या तो उसका कहीं पता ही न लगता था या पलंग पर सिर धड़ से अलग, या कहीं जंगल में कुचली खोपड़ी, फटा सीना, कटा पेट कुत्ते और कौवों के जमघट में पड़ा मिलता। ये नक्शे देखकर लोग नजफखां पठान की ताकत को समझ गए थे और जब हुक्म होता, जितने रुपयों के लिए होता, जिस दरख्त या मुकाम का पता होता, रुपया वहां गड़ा हुआ तैयार मिलता। इस तरह नजफखां मुद्दतों अमीरों के रुपयों पर आनन्द करता रहा। उसे पकड़ने में कोई समर्थ न था। पुलिस सिर फोड़कर मर गई। सिपाहियों और इंस्पेक्टरों की तो बात ही क्या, पुलिस-सुपरिटेण्डेण्ट तक उससे पिट चुके थे। और बन्दूक तथा घोड़ा छिनवा चुके थे।


बड़नककी गाल पर हाथ धरे बड़ी देर तक इस मामले पर विचार करती रही। अन्त में उसने निश्चय किया कि पुलिस-सुपरिटेंडेंट से इस घटना की इत्तिला करनी चाहिए। भला वेश्या का माल एक डाकू गुण्डा इस तरह हजम कर जाए--जैसे कि बनियों का खाता है। दुनिया को हम लूटती हैं और यह हमें लूटने चल पड़ा। यह कदापि न हो सकेगा। यह इरादा पक्का करके जैसे-तैसे बड़नककी ने रात काटी। सुबह वह मुलाकात की पोशाक पहन गाड़ी मंगा साहब के बंगले को रवाना हो गई।


डिप्टी सुपरिटेंडेंट भी उसके चेले थे। जूतियां सीधी कर चुके थे। खबर पाते ही फौरन बाहर निकल पाए। मुलाकात के कमरे में ले गए और खैरियत पूछने लगे।


बड़नककी-हुजूर, खैरियत कहां? वह मुया नजफखां कल आया था। कह गया है कि या तो दस हजार कल मसाणिया पीपल के नीचे रख पायो नहीं तो खैर नहीं। और उस बदमाश से कुछ बईद भी नहीं है। वह ज़रूर मुझे मार डालेगा, अगर रुपये न गए तो। और आप देखते हैं, रुपये मुझ गरीब के पास कहां हैं। गनीमत है, खुदा का शुक्र है, तिस पर...।


बीच ही में डिप्टी साहब बोल उठे-बी साहबा, रुपये-पैसे की तो आपके पास कुछ कमी नहीं है। मगर वह क्या ऐसे बदमाशों के लिए है? आखिर आपने भी तो उसे अपना तन-बदन दिखाकर किन-किन मुश्किलात से पैदा किया है। वह क्या इस तरह बर्बाद करने के लिए? ऐसा हर्गिज़ नहीं हो सकता।


बड़नककी ने ज़रा भंपकर कहा-हां, हां, हुजूर परवर। यही तो---यही तो मैं अर्ज कर रही थी। मगर हमारी ऐसी कमाई, अगर वह कुछ भी हो, तो क्या इन बदमाशों के लिए है? हर्गिज नहीं। हुजूर, इसका कुछ बन्दोबस्त तो होना ही चाहिए, वरना मैं मारी जाऊंगी।


डिप्टी साहब कुछ सोचकर बोले-बेशक, अच्छा आप मेरे साथ सुपरिटेंडेंट साहब के बंगले पर चलिए। उनकी जैसी राय होगी, वैसा बन्दोबस्त कर दिया जाएगा। वह बदमाश मुद्दत से पुलिस को झांसा दे रहा है। अच्छी बात है, देखा जाएगा। चलिए, आपकी गाड़ी तो बाहर है न?


डिप्टी साहब कोट-पैट से लैस होकर और हैट सिर पर रखकर सुपरिटेंडेंट साहब के बंगले की तरफ चले। चपरासी ने फौरन खबर दी और साहब ने डिप्टी साहब को भीतर बुला लिया।


साहब-हलो मिस्टर सिन्हा, आज क्या खबर है?


डिप्टी-हुजूर, और तो सब ठीक है, मगर आज वह मशहूर बदमाश नजफखां फंसनेवाला है।


साहब-अच्छा, अच्छा, वह कैसे फंसाया जाएगा? क्या तरकीब सोची है आपने?


डिप्टी साहब ने बड़नककी का सब किस्सा सुनाकर कहा-हुजूर, वह वेश्या भी गाड़ी में है, उसके मुंह से सब दास्तान सुन लीजिए।


साहब-हां, अच्छा उसे बुला लो।


बड़नककी ने भीतर प्रवेश करके साहब को फर्शी सलाम झुकाया।


साहब-(नीचे से ऊपर तक देखकर) तुम्हारा ही नाम बड़नककी है?


बड़नककी-हुजूर, गरीब-परवर, इसी नाचीज़ को बड़नककी कहते हैं।


'क्या तुम्हारे यहां वह बदमाश डाकू कल आया था?'


'जी हां हुजूर।'


'क्या मांगता था?


'हुजूर, दस हजार रुपये लूणिया मसाणा के पीपल के नीचे आज रात को आठ बजे तक दबा देने के लिए कह गया है। अगर उस वक्त तक वे रुपये वहां नहीं पहुंचे तो वह ज़रूर-बिल-ज़रूर मेरा खून कर देगा। कल ही मेरे मकान में घुस जाएगा, ज़िन्दा न छोड़ेगा।'


'हां, ऐसा?'


बड़नककी-हां हुजूर, गरीब-परवर!


साहब-अच्छा, डरने की कोई बात नहीं। वेल डिप्टी साहब, अभी पुलिस का पूरा दस्ता इसके मकान पर चुपचाप लगा दो और मैं कमांडिंग आफिसर अजमेर और ए० जी० जी० को लिखकर कुछ फौजी सिपाही भिजवाए देता हूं। पांच सौ की जमात काफी होगी, क्यों?


डिप्टी-बेशक हुजूर, पांच सौ काफी हैं। मैं सब ठीक कर लूंगा।


साहब-मगर देखो, मकान पर घेरा उस वक्त डाला जाए, जबकि वह मकान में घुस जाए।


डिप्टी-जो हुक्म साहब-वेल डिप्टी साहब, सलाम।


ढड्डों के घर में आज बहार थी। कंवर साहेब की सगाई चढ़ रही थी। हाथी, घोड़े, रथ, मझोलियों का तांता लग रहा था, शहनाई बज रही थी। बड़नककी की तबीयत ठीक न थी, उसने बहुत-बहुत माफी मांगी थी। मगर उसकी अप्सरा वसंती महफिल में दिप रही थी। हीरों और मोतियों से खचाखच पेशबाज़ पहनकर वह अतुलनीय सुन्दरी दीख रही थी, फिर भी वेश्या की दृष्टि अभी उसमें नहीं पैदा हुई थी। वह इतनी भीड़ में संकोच के मारे मरी जा रही थी। कुछ गाने के बाद ज्योंही वह बैठने लगी, एक नौकर ने उसके कान में कुछ कहा। वसन्ती वहां से दूसरे कमरे में चली गई। कमरे में एक सुन्दर युवक अकेला बैठा था। उसने दौड़कर वसन्ती का आलिंगन किया।


उसने गद्गद कण्ठ से कहा-वसन्ती, मैं नहीं जानता, तुम्हें मेरा यह व्यवहार पसन्द होगा या नहीं। सुना है, वेश्याओं को धन पाकर अपना शरीर चाहे भी जिसे अर्पण करने में ज़रा भी संकोच नहीं होता। पर उस तरह नहीं, मैं सच्चे दिल से तुमपर मुग्ध हूं। अगर मेरा वश होता तो मैं तुमसे ब्याह करता। पर क्या परमेश्वर के सम्मुख तुम मुझे पति समझ सकती हो? ठहरो, मैं शपथ खाता हूं कि मैं ऐसा समझूँगा। मगर तुम, तुम कह दी। फिर मैं लोक-लाज की परवाह नहीं करूंगा।


वसन्ती विह्वल हो गई। इस एकाएक आक्रमण को वह सह गई। उसने मदभरी आंखों से एक बार युवक को देखा, फिर खेद और विषाद ने उसे अवनतमुखी बना दिया।


युवक ने उसे बैठाकर पूछा-वसन्ती, मैंने सुना है कि तुम वेश्या की पुत्री नहीं हो, क्या यह सच है?


'कुँवर साहब, मैं वेश्या हूं। आप दिल-बहलाव चाहे जिस तरह मेरे साथ कर लें; मुझे उज्र नहीं। मेरा वेश्या-शरीर उज्र कर ही नहीं सकता, फिर आपके प्रति तो मन भी खिंचता है परन्तु कृपाकर प्रेम की बात न कहें। भगवान आपकी उम्र बढ़ावे, आपका विवाह अभी हुआ है। आप बड़े घर के नौनिहाल हैं। बहूजी देवी हैं, वे आपके लिए पुत्र-रत्न जनेंगी। आप मेरी जैसी अपवित्र नारी के लिए यह सब सौभाग्य छोड़ देंगे? आप जैसा विवेकी...'


वसन्ती कह रही थी, युवक भौंचक सुन रहा था। वह सोच रहा था, यह वेश्या है या कोई महान देवी। उसने उसका हाथ पकड़कर कहा-वसन्ती, मैं अपना सन्देश कितनी ही बार भेज चुका हूं। आज मैंने मिलने का सुयोग पाया। तुम यदि मुझे वचन न दोगी तो मैं मर जाऊंगा। जल्दी करने को मैं नहीं कहता, मैं कल तुमसे उत्तर लेने को आऊंगा। ओह, अब तुम बाहर जाकर मेरे लिए सितार पर एक गत तो बजा देना। और देखो, कुछ और न समझकर, केवल यादगार के तौर पर ये तो तुम्हें लेनी पड़ेंगी। यह कहकर युवक ने चार मोहरें उसके हाथ पर धर दी और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए ही बाहर निकल गया।


वसन्ती अपने छोटे-से एकान्त कमरे में बैठी उस कोमल सुन्दर युवक का चिन्तन कर रही थी। कैसी सुन्दर दन्त पंक्ति, कैसा गौर वर्ण, कैसी स्वच्छ आंखें। हे परमेश्वर, इस पापी जीवन में यह रस देना भी तेरा काम है! क्या सचमुच वे आएंगे? उनकी विवाहिता पत्नी क्या उन्हें आने देगी? हाय रीअधम नारी जाति, क्या मैं 'पत्नी' शब्द की अधिकारिणी बन सकती हूं? परन्तु जाति, लोकमत और धर्म-बन्धन की अटूट दीवारें कैसे सामने खड़ी हैं। खैर जाने दो। मैं अधम वेश्या होकर भी यदि समाज के सामने न सही, परमेश्वर के सामने उनकी पत्नी हो सकूँ, वे मुझे प्यार कर सकें, अपना सकें, कभी न त्यागें, तो बहुत है, मेरे लिए बहुत है। इतना कहकर उसने वक्षःस्थल पर यत्ल से छिपाई हुई वे चारों मोहरें निकालकर हाथ में लीं। उन्हें बार-बार चूमा और फिर वह उनको छिपाने के यत्न में एक बार कमरे के चारों ओर देख गई। उसने उन्हें पलंग के चारों पायों के नीचे छिपा दिया।


अभी वह यह सब काम करके निश्चिन्त भी न हुई थी कि सीढ़ियों पर पदध्वनि सुनकर चौंकी। उसके रक्त की एक-एक बूंद नाचने लगी। वह मन ही मन बोली, अभी से आ गए? अभी तो आधे घण्टे का समय हुआ है। क्या उन्हें भी मेरे समान चैन नहीं पड़ता। ओह!-वह आनन्द से विह्वल हो गई।


परन्तु यह क्या! उसने दृष्टि उठाकर अन्दर प्रवेश करते हुए आगन्तुक को देखा। एक भीमकाय, बलिष्ठ अधेड़ पुरुष सामने खड़ा है। खून के समान नेत्र जल रहे हैं। धनी काली दाढ़ी के भीतर कुटिल प्रोष्ठ स्तब्ध दांतों से चिपक रहे हैं। भय से वसन्ती की चीख निकल गई। वह उठ खड़ी हुई और दीवार से चिपक गई।


आगन्तुक ने आगे बढ़कर कहा-डरो मत, मैं तुमसे प्रेम करने आया हूं, तकलीफ देने नहीं। बैठ जाओ, शराब की बोतल और गिलास आ रहे होंगे, मैं नीचे तुम्हारी लायक अम्मा से कह आया हूं। वह सितार उठा लो, एकाध गत बजाओ, एकाध चीज़ इस सुरीले गले से गाओ। मैं कुछ देर यहां तफरीह करूंगा, क्योंकि आज मेरी तबियत नासान है। तुम्हारी अम्माजान ने मेरे साथ सलूक तो बुरा किया है, मगर उसका बदला उसीको दिया जाएगा। तुमको नहीं। तुम्हारा जैसा सलूक मेरे साथ होगा, वैसा मेरा तुम्हारे साथ होगा। उसे भी मैं माफ कर दूंगा क्योंकि उसने आध घण्टे में वादा पूरा करने को कहा है। आध घण्टा मैं तुम्हारी सोहबत में सर्फ करूंगा। तुम्हारे गाने-बजाने और रूप की तारीफ वह साला बनिये का बच्चा करता था, जिसे मैंने कल हलाल कर दिया है। देखता हूं, देखने में बुरी नहीं हो।


इतना कहकर वह दुर्दान्त डाकू एकाकी वसन्ती के सिर पर आ खड़ा हुआ और उसकी कमर में हाथ डालकर उसे अधर उठा लिया। इसके बाद धीरे से फर्श पर रखकर खिलखिलाकर कहने लगा-खुदा की कसम, तुम फूल के बराबर हलकी हो, नाजुकी तुम पर खत्म है, ओह! तुम वाकई एक प्यारी चीज़ हो। लो यह कबूल फरमानो।


इतना कहकर उसने जेब से मुट्ठी-भर अशर्फियाँ उसके ऊपर उड़ेल दीं। वसंती को होश न था। मानो किसी विषधर काल सर्प ने उसे जकड़ लिया हो। वह बेंत की तरह कांपने लगी। उसके होंठ नीले पड़ गए। उसने अशर्फियाँ छुईं भी नहीं, वह कुछ बोली भी नहीं।


डाकू बैठ गया और घूर-घूरकर उसे देखने लगा। वसन्ती का भय कूछ कम हुआ। वह साहस बटोरकर बोली-मेरी तबियत इस वक्त खराब हो गई है, अगर आप मुझे माफ कर दें तो बड़ा अहसान हो। वैसे मैं भी इस वक्त हुजूर की खिदमत के लायक नहीं।


'बेवकूफ, तू सिर्फ मुझसे डर गई है। मगर मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि तेरे साथ कोई बुरा सलूक नहीं किया जाएगा। तुम्हारा फर्ज है तुम मुझे खुश करो। तुम्हारा नजराना मैं पहले ही दे चुका हूं। तुम रण्डी हो या और कुछ? समझ लो, मैं ज्यादा लल्लो-चप्पो नहीं पसन्द करता। या तो गाओ, वरना में तुम्हारे टुकड़े कर दूंगा।' यह कहकर उसने तलवार म्यान से खींच ली। वसन्ती पीली पड़ गई। उसके मुंह से बात न निकली। वह सकते की हालत में डाकू का मुंह देखती रही।


डाकू ने तलवार धरती पर फेंककर चीते की तरह झपटकर और उसे उठाकर भरपूर ज़ोर से पलंग पर फेंक दिया। उसका इरादा पाशविक था, परन्त इसी समय बहुत-से मनुष्यों का शोर सुनकर वह चौंका। उसने खिड़की का पर्दा उठाकर देखी-सैकड़ों पुलिस के और फौज के सिपाहियों ने मकान घेर रखा है। उसने दांत मिसमिसाकर कहा-उफ, दगा-दगा!-इतना कहकर उसने सिंह की तरह हुंकार भरी। बिजली की तरह लपककर उसने बालिका के शरीर पर के आभूषण उतार लिए, इसके बाद वह आंधी की तरह कोठरी से बाहर निकल गया। जीना भीतर से बंद किया। बड़नककी उसे देखकर थरथर कांप रही थी। मीरा सी और नौकर दीवारों से चिपक रहे थे। उसने रस्सी से सबको जकड़ दिया। और मकान की तलाशी लेनी शुरू की। रुपया-पैसा-जेवर जो मिला गांठ बांधी। सब सन्दूक तोड़ डाले। जड़ाऊ ज़ेवर और जवाहरात कब्जे में किए। बांध-बूंधकर वह छत पर चढ़ गया।


इसके बाद उसने तेज़ आवाज़ में डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट को लक्ष्य करके कहा आदाबर्ज़ है डिप्टी साहब!


डिप्टी साहब-अब आप नीचे तशरीफ ले आइए। आदाब-कोनिश सब यहीं हो जाएगा।


डाकू-आप ही आए हैं या हमारे साले साहब बेजबर (मेजर वेजवुड, पुलिससुपरिण्टेण्डेण्ट) भी हाज़िर हैं?


'वे भी हैं जनाब! अब आप ज़रा जल्दी इधर तशरीफ ले आइए। सभी लोग आपकी तवाजे के लिए मुन्तज़िर खड़े हैं।'


'बहुत अच्छा, यह लीजिए', यह कहकर उसने एक बड़ा-सा टोकरा जो कूड़ाकचरा, राख, टूटी चिमनी आदि से भरा छत पर धरा था, झपाक से उठाकर सुपरिटेण्डेण्ट के सिर पर पटक दिया।


सिपाही लपके, परन्तु नजफखां सुयोग पाकर दूसरी तरफ कूदकर नौ-दो ग्यारह हुआ।


डिप्टी साहब ने मकान में घुसकर देखा, बड़नककी मकान में टुकड़े-टुकड़े हुई पड़ी है। खून में घर डूब रहा है। नौकर-चाकर-दाई आदि बंधे खड़े हैं और नजफखां का पता नहीं।


आज तक वह बेपता है।


बड़नककी के कुछ श्रीमान मित्र अभी जिन्दा हैं। वे जब अपनी जवानी के उन रसीले गुप्त दिनों की याद करते हैं तो उनकी सफेद मूंछों में हास्य की रेखा दौड़ जाती है और जब वे लाखन कोठरी में सड़क के नुक्कड़ पर पहुंचते हैं, जहां बड़नककी की वह रहस्यमयी हवेली थी, तब एक ठण्डी सांस छोड़ते हैं। नजफखां सुना गया, अजमेर में ही उसके बाद शान्त जीवन व्यतीत करता रहा और हाल ही में उसकी मृत्यु हुई। वह दरगाह शरीफ के पीछे एक गली में तस्वीह लिए चुपचाप पड़ा रहता था।


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