Friday, September 23, 2022

कहानी | थाती | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Thati | Subhadra Kumari Chauhan

(1)

क्यों रोती हूँ। इसे नाहक पूँछ कर जले पर नमक न छिड़को ! जरा ठहरो ! जी भर कर रो भी तो लेने दो, न जाने कितने दिनों के बाद आज मुझे खुलकर रोने का अवसर मिला है। मुझे रोने में सुख, मिलता है; शान्ति मिलती है। इसीलिए मैं रोती हूँ । रहने दो, इसमें बाधा न डालो रोने दो ।

क्या कहा ? 'किसके लिए. रोती हूँ' ? आह !! उसे सुनकर क्या करोगे ? उससे तुम्हें कुछ लाभ न होगा; पूछो ही न तो अच्छा है। मेरी यह पीड़ा ही तो मेरी सम्पत्ति है, जिसे मैं बड़ी सावधानी से अपने हृदय में छिपाए हूँ । इतने पर भी सुनना ही चाहते हो तो लो कहती हूँ, किन्तु देखो ! जो कहूँ वही सुनना और कुछ न पूछना ।


वे एक धनवान माता-पिता के बेटे थे। ईश्वर ने उन्हें अनुपम रूप दिया था। जैसा उनका कलेवर सुन्दर था, उससे कहीं अधिक सुन्दर था उनका हृदय । वे बड़े ही नेक, दयालु और उदार प्रकृति के पुरुष थे । गाँव के बच्चे उन्हें देखते ही खुश हो जाते, बूढ़े आशीर्वाद की वर्षा करते, स्त्रियाँ उन्हें अपना सच्चा भाई और हितू समझतीं और नवजवान उनके इशारे पर नाचते थे। तात्पर्य यह कि वे सभी के प्यारे थे और सभी पर उनका स्नेह था ।

मैं उन्हीं के गाँव की बहू थी। मेरे पति वहीं प्राइमरी पाठशाला में मास्टर थे । घर में बूढ़ी सास थीं, मेरे पति थे और मैं थी। मंहगी का ज़माना था; 28।।) में मुश्किल से गुजर होती थी ! घर के प्रायः सभी छोटे-मोटे काम हाथ से ही करने पड़ते थे।


एक दिन की बात है, मैं वैसे ही व्याह कर आई थी। मैं थी शहर की लड़की; वहाँ तो नलों से काम चलता था; भला कुएं से पानी भरना मैं क्या जानती ? मेरी सास मुझे अपने साथ कुएँ पर पानी भरना सिखा रही थीं । अचानक वे न जाने कहाँ से आ गए, हँसकर बोले- “क्या पानी भरने की शिक्षा दे रही हो, माँ जी ? आपने ऐसी अल्हड़ लड़की व्याही ही क्यों, जिसे पानी भरना भी नहीं आता ।” मैने घूँघट के भीतर ही ज़रा सा मुस्कुरा दिया ।

सास ने कहा-"बेटा ! इसे कुछ नहीं आता ! बस रोटी भर अच्छा बनाती है, न पीसना जाने न कूटना। गोबर से तो इसे जैसे घिन आती है, बड़ी मुश्किल से कहीं कंडे थापती है, तो उसके बाद दस बार हाथ धोती है। हम तो बेटा! गरीब आदमी हैं। हमारे घर में तो सभी कुछ करना पड़ेगा।"


(2)

दूसरे दिन मुझे अकेली ही पानी भरने जाना पड़ा। मैं रस्सी और घड़ा लेकर पानी भरने गई तो ज़रूर, पर दिल धड़क रहा था कि बनता है या नहीं। न सास साथ थीं, और न कोई कुएँ पर ही था। मैंने घूँघट खोल लिया और रस्सी को अच्छी तरह घड़े के मुँह पर बांधकर कुएँ में डाल दिया। 'डब' 'डब' करके बड़ी देर में कहीं घड़े में पानी भरा-उसे खींचने लगी। किसी प्रकार खिंचता ही न था। ज्यों-त्यों करके आधी रस्सी खींच पायी थी कि वे सामने से आते हुए दिखायी दिए। कुआँ उनके अहाते के ही अंदर था और बंगले में जाने का रास्ता भी वहीं से था। सामने से वे आते हुए दिखे, लाज के मारे ज्यों ही मैंने घूँघट सरकाने के लिए एक हाथ से रस्सी छोड़ी, त्यों ही अकेला दूसरा हाथ पानी से भरे हुए घड़े का वजन न संभाल सका। झटके के साथ रस्सी समेत घड़ा कुएँ में जा गिरा। मैं भी गिरते-गिरते बची। एक मिनट में यह, सब कुछ हो गया। वे बंगले से कुएँ के पास आ चुके थे। मैं बड़ी घबराई, घूँघट-ऊँघट सरकाना तो भूल गई, झुककर कुएँ में देखने लगी। मेरे पास तो रस्सी और घड़ा निकालने का कोई साधन ही न था। निरुपाय हो कातर दृष्टि से उनकी ओर देखा। मेरी अवस्था पर शायद उन्हें दया आई। वे पास आकर बोले, “आप घबराइए नहीं, मैं अभी घड़ा निकलवाए देता हूँ” फिर कुछ ठहरकर मुस्कराते हुए बोले, “किंतु आपने यह साबित कर दिया कि आप शहर की एक अल्हड़ लड़की हैं।”


मैं जरा हंसी और अपना घूँघट सरकाने लगी । मुझे घूँघट सरकाते देख वे जरा मुस्कराए, मैं भी जरा हंस पड़ी पर कुछ बोली नहीं। उनके नौकर आए और देखते-ही-देखते रस्सी समेत घड़ा निकाल लिया गया। मैं घड़ा उठाकर अपने घर की तरफ चली। शब्दों में नहीं, किंतु कृतज्ञता भरी आँखों से मैंने उनसे कहा, “मैं आपके इस उपकार का बदला जीवन में कभी न चुका सकूँगी।” करीब पौन घंटा कुएँ पर लग गया। अम्मा जी की घुड़कियों का डर तो लगा ही था। जल्दी-जल्दी आई, घड़े को घिनौची पर रख, रस्सी को खूँटी पर टाँगने के लिए मैंने ज्योंही हाथ ऊपर उठाया, देखा कि एक हाथ का सोने का कंगन नहीं है। तुम कहोगी कि पानी भरने वाली और सोने के कंगन, यह कैसा मेल! यह भी बताती हूँ, यह कंगन मेरी माँ का था। मरते समय उन्होंने अनुरोध किया था कि यह कंगन व्याह के समय मुझे पैर-पुजाई में दिया जाए। इस प्रकार यह कंगन मुझे मिला था। रस्सी टाँगकर मैं फिर कुँए की तरफ़ भागी, देखा तो वे सामने से आ रहे थे। उन्होंने यह कहकर कि “यह तुम्हारे अल्हड़पन की दूसरी, निशानी है” कंगन मेरी तरफ़ बढ़ा दिया । कंगन लेकर चुपचाप मैंने जेब में रख लिया और जल्दी ज़ल्दी घर आई।


घर आकर देखा, पतिदेव स्कूल से लौटे थे । 'अम्मा जी बड़े क्रोध में उनसे कह रहीं थीं-


देखा नई बहू के लच्छन । एक घड़ा पानी भरने गई तो घंटे भर बाद लौटी, और यहाँ पानी रख कर फिर दीवानी की तरह कुएँ की तरफ़ भागी । मैंने तो पहले ही कहा था कि शहर की लड़की न व्याहो, पर तुम न माने । बेटा ! भला यह हमारे घर निभने के लच्छन हैं ? और सब तो सब, पर ज़मीदार के लड़के से बात किये बिना इसकी क्या अटकी थी ? यह इधर से भागी जा रही थी वह सामने से आ रहा था। उसने जाने क्या इसे दिया और इसने लेकर जेब में रख लिया। मुझे तो यह बातें नहीं सुहाती! फिर तुम्हारी बहू है; तुम जानो; बिगाड़ो चाहे बनाओ। मेरी तरफ उन्होंने गुस्से से देखकर पूँछा-- क्या है तुम्हारी जेब में बतलाओ तो !

मैंने कंगन निकालकर उनके सामने रख दिया। वे फिर डाँट कर बोले-“यह उसके पास कैसे पहुँचा”?

मैंने डरते-डरते अपराधिनी की तरह आदि से लेकर अंत तक कुएँ पर का सारा क़िस्सा उन्हें सुना दिया। इस पर अम्मा जी और पतिदेव दोनों ही की झिड़कियां मुझे सहनी पड़ीं। साथ ही ताक़ीद भी कर दी गई कि मैं अब 'उनसे' कभी न बोलूं ।


****

क्या पूछते हो ? उनका नाम ? हाय !! रहने दो; मुझसे नाम न पूछो । उनका नाम जुबान पर लाने का मुझे अधिकार ही क्या है ? तुम्हें तो मेरी कहानी से मतलब है न ? हाँ, तो मैं क्या कह रही थी ?--मुझसे कहा गया कि मैं उनसे कभी न बोलूं । यदि यह लोग फिर कभी मुझे उनसे बोलते देख लेंगे तो फिर कुशल नहीं । मैंने दीन भाव से कहा, “मुझसे घर के सब काम करवा लो; परन्तु कल से मैं पानी भरने न जाऊंगी।”

इस पर पतिदेव बिगड़ कर बोले-तुम पानी भरने न जाओगी तो मैं तुम्हें रानी बना कर नहीं रख सकता । यहाँ, तो जैसा हम कहेंगे वैसा करना पड़ेगा ।


उसके बाद क्या बतलाऊँ कि क्या-क्या हुआ ? ज्यों- ज्यों मुझे उनसे बोलने को रोका गया, त्यों-त्यों एक बार जी भर कर उनसे बात करने के लिए मेरी उत्कंठा प्रबल होती गई। किन्तु मेरी यह साध कभी पूरी न हुई। वे जाते-जाते एक-दो बातें बोल दिया करते, जिसके उत्तर में मैं केवल हँस दिया करती थी, लेकिन लोग यह भी ने सह सके और तिल का ताड़ बन गया ।


अब मुझ पर घर में अनेक प्रकार के अत्याचार होने लगे। हर दो-चार दिन बाद मुझ पर मार भी पड़ती; परंतु मैं कर ही क्या सकती थी? मैं तो उनसे बोलती भी न थी। और उनका बोलना बाद करना मेरी शक्ति से परे था। उन्होंने मुझसे कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कही जो अनुचित कही जा सके। उन्हें तो शायद विधाता ने ही रोते हुओं को हँसा देने की कला सिखाई थी। वे ऐसी मीठी चुटकी लेते, कभी हँसी की बात भी करते तो इतनी सभ्यता से, इतनी नपी-तुली, कि मैं चाहे कितनी दुखी होऊँ, चाहे जितने रंज में होऊँ, हँसी आ ही जाती थी।

किंतु धीरे-धीरे मुझ पर होने वाले अत्याचारों का पता उन्हें लग ही गया। उनके दयालु हृदय को इससे गहरी चोट पहुँची । उस दिन, अंतिम दिन जब पैं पानी भरने गई, वे कुएँ पर आए और मुझसे बोले, "मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।"


उनके स्वर में पीड़ा थी, शब्दों में माधुर्य, और आँखों में न जाने कितनी करुणा का सागर उमड़ रहा था। मैंने आश्चर्य के साथ उनकी ओर देखा। आज पहिली ही बार तो इस प्रकार वे मेरे पास आकर बोले थे। उन्होंने कहा, "पहली बात जो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ वह यह कि मेरे कारण तुम पर इतने अत्याचार हो रहे हैं। यदि मुझे पता चल जाता तो वे अत्याचार कब के बंद हो चुके होते। दूसरी बात जो मैं तुमसे कहने आया हूँ वह यह कि आज से मैं तुम पर होते अत्याचार की जड़ उखाड़कर फेंके देता हूँ। तुम खुश रहना, मेरी अल्हड़ रानी! (वे मुझे इसी नाम से पुकारते थे) यदि मैं तुम्हें भूल सका तो फिर यहाँ लौटकर आऊँगा, नहीं तो आज ही सदा के लिए विदा होता हूँ।"


मुझ पर बिजली-सी गिरी। मैं कुछ बोल भी न पाई थी कि वे मेरी आँखों से ओझल हो गए। अब मेरी हालत पहिले से ज्यादा ख़राब थी। मेरा किसी काम में जी न लगता था। कलेजे में सदा एक आग-सी सुलगा करती। परंतु मुझे खुलकर रोने का अधिकार न था। अब तो सभी लोग मुझे पागल कहते हैं। मैं कुछ भी करूँ करने देते हैं। इसीलिए तो आज खुलकर रो सकती हूँ और तुम्हें भी अपनी कहानी सुना सकती हूँ। किंतु क्या तुम यह बता सकोगे कि वे कहाँ हैं? मैं एक बार उन्हें और देखना चाहती हूँ। मेरी यह पीड़ा, मेरा यह उन्माद उन्हीं का दिया हुआ तो है। यदि कोई सहदय उनका पता बता दे तो मैं उनकी थाती उन्हीं को सौंप दूँ।


(यह कहानी ‘बिखरे मोती’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1932 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का पहला कहानी संग्रह था।)


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