Friday, September 23, 2022

उपन्यास | परीक्षा गुरू | लाला श्रीनिवास दास | Upanyas | Pareeksha Guru | Lala Shrinivas Das


 निवेदन

अबतक नागरी और उर्दू भाषामैं अनेक तरह की अच्छी, अच्छी पुस्तकें तैयार हो चुकी हैं परन्तु मेरे जान इसरीतिसे कोई नहीं लिखी गई इसलिये अपनी भाषामैं यह नई चालकी पुस्तक होगी परंतु नई चाल होनेंसै ही कोई चीज अच्छी नहीं हो सक्ती बल्कि साधारण रीतिसै तो नई चालमैं तरह, तरह की भूल होनेंकी संभावना रहती है और मुझको अपनी मन्द बुद्धिसै और भी अधिक भूल होनेंका भरोसा है इसलिए मैं अपनी अनेक तरह की भूलोंसै क्षमा मिलने का आधार केवल सज्जनोंकी कृपा दृष्टि पर रखता हूं।


यह सच है कि नई चालकी चीज देखनेंको सबका जी ललचाता है परंतु पुरानी रीतिके मनमैं समाये रहने और नई रीतिको मन लगाकरर समझनेमैं थोड़ी मेहनत होनेंसै पहले पहल पढ़नेवाले का जी कुछ उलझनें लगता है और मन उछट जाता है इस्सै उसका हाल समझमैं आनेंके लिये मैं अपनी तरफसे यहां कुछ खुलासा किया चाहता हूं:-


पहलै तो पढ़नेंवाले इस पुस्तकमैं सौदागरकी दुकानका हाल पढ़ते ही चकरावेंगे क्योंकि अपनी भाषामैं अबतक वार्तारूपी जो पुस्तकें लिखी गई हैं उन्मैं अक्सर नायक, नायका वगैरैका हाल ठेटसै सिलसिलेवार (यथाक्रम) लिखा गया है "जैसै कोई राजा, बादशाह, सेठ, साहूकारका लड़का था उसके मनमैं इस बातसै यह रुचि हुई और उस्का यह परिणाम निकला" ऐसा सिलसिला इसमैं कुछभी नहीं मालूम होता ‘लाला मदनमोहन एक अग्रेजी सौदागरकी दूकान मैं अस्वाब देख रहे हैं लाला ब्रजकिशोर, मुन्शीचुन्नीलाल और मास्टर शिंभूदयाल उनके साथ हैं ”इन्मैं मदनमोहन कौन, ब्रजकिशोर कौन, चुन्नीलाल कौन और शिंभूदयाल कौन है ? इन्का स्वभाव कैसा है? परस्पर-सम्बन्ध कैसा है ? हरेककी हालत क्या है ? यहां इस्समय किस लिये इकठ्ठे हुए हैं? यह बातें पहलैसै कुछ भी नहीं जताई गई ! हां पढने वाले धैर्यसे सब पुस्तक पढ लेंगे तो अपने-अपने मौकेपर सब भेद खुल्ता चला जायगा और आदिसै अन्त तक सब मेल मिल जायगा परन्तु जो साहब इतना धैर्य न रक्खेंगे वह इस्का मतलब भी नहीं समझ सकेंगे


अलबत्ता किसी नाटकमैं यहरीति पहलैसै पाई जातीहै परंतु उस्की इस्की लिखनेंकी रीति जुदी जुदी है। नाटकोंमैं जिस्का बचन होता है उस्का नाम आदिमैं लिख देते हैं और वह पैरेग्राफ1 उस्का बचन समझा जाता है परंतु इस्मैं ऐसा नहीं होता इस्मैं ऐसा " " चिन्ह ( अर्थात इन्वरटेडकोमा या कुटेशन ) के भीतर कहनेंवालेका का वचन लिखा जाता है और कहनेंवाले का नाम बचनके बीचमैं या अंतमैं जहां पुस्तक रचने वालेको जगह मिल्ती है, वह लिख देता है अथवा नाम लिखे बिना पढ़नेवालेको कहनेंवालेका बचन मालूम हो सके तो नहीं भी लिखता। एक आदमीका बचन बहुत करके एक पैरेग्राफमैं पूरा होता है परंतु कहीं, कहीं किसी, किसीके बचन में और विषय आ जाते हैं तो ऐसे “चिन्ह (इन्वरटेड-कोमा ) से पहला वचन पूरा किये बिना दूसरे पैराग्राफ के आदि से ऐसे"चिन्ह लगाकर उसी का वचन जारी रखा जाताहै और वचन के बीच में दूसरे का वचन आ जाता है तो वहां उस वचन को अलग दिखाने के लिये उसपर भी अक्सर इन्वरटेडकोमा लगा दिये जाते हैं परंतु जो वचन ऐसे“ ” चिन्हों के भीतर नहीं होते वह पुस्तक रचने वाले की तरफ से होते हैं।


(1पैरग्राफके प्रारंभमें हर जगह नएसिरेसै से जरासी लकीर छोड़कर लिखा जाता है और वह पूरा होताहै वहां बाकी लकीर खाली छोड़ दी जातीहै, जैसे यह पैरेग्राफ " "से प्रारम्भ होकर “होतेहैं" पर समाप्ति हुआ है।)


और चिन्हों में ऐसा , (कोमा) किंचित विश्राम,ऐसा;(सेमीकोलन) अथवा : (कोलन अर्ध बिश्राम,ऐसा।(फुलिस्टप) पूर्णविश्राम,ऐसा ? (इन्ट्रोगेशन) प्रश्न की जगह ऐसा ! (एक्सक्ल मेशन) आश्चर्य अथवा संबोधन वगैरे के जो शब्द जोर देकर बोलने चााहिए उन्के आगे ऐसा-चिन्ह बात अधूरी छोड़नें के समय लगाया जाता है और ऐसे () चिन्हों (पेरेन थिसेस) के भीतर पहले पद का खुलासा अर्थ या चलते प्रसंग में कोई दूतरफी अथवा विशेष बात जतानी होती है वह लिख देते हैं।


इस पुस्त्तक में दिल्ली के एक कल्पित (फर्जी) रईस का चित्र उतारा गया है और उस्को जैसे का तैसा (अर्थात्स्वा भाविक) दिखाने के लिये संस्कृत अथवा फारसी अरबी के कठिन कठिन,शब्दों की बनाई हुई भाषाके बदले दिल्लीके रहनेंवालोंकी साधारण बोलचाल पर ज्यादः दृष्टि रखी गई है। अलबत्ता जहां कुछ बिद्या- बिषय आ गया है वहां विवस होकर कुछ,कुछ शब्द संस्कृत आदि के लेने पड़े हैं परंतु जिनको ऐसी बातों समझने में कुछ झमेल मालूम हो उनकी सुगमता के लिये ऐसे प्रकरणों पर ऐसा[ 4 ]चिन्ह लगा दिया गया है जिस्सै उन प्रकरणों को छोड़कर हरेक मनुष्य सिलसिले वार वृतान्त पढ़ सक्ता है।


इस पुस्तक में संस्कृत, फारसी अंग्रेजी की कविता का तर्जुमा अपनी भाषा के छंदो में हुआ है परंतु छंदों के नियम और दूसरे देशों का चाल चलन जुदा होने की कठिनाई से पूरा तर्जुमा करने के बदले कहीं,कहीं भावार्थ ले लिया गया है।


अब इस पुस्तक गुणदोंषो पर विशेष विचार करने का काम बुद्धिमानों की बुद्घिपर छोड़कर मैं केवल इतनी बात निवेदन किया चाहता हूँ कि कृपा करके कोई महाशय पूरी पुस्तक बांचे बिना अपना विचार प्रकट करने की जल्दी न करैं और जो सज्जन इस विषय में अपना विचार प्रगट करैं बह कृपा करके उस्की एक नकल मेरे पास भी भेजदें ( यदी कोई अखबार वाला उस अंक की कीमत चाहेगा तो वह तत्काल उसके पास भेज दी जायगी ) जो सज्जन तरफदारी ( पक्षपात ) छोडकर इस विषय मैं , स्वतंत्रता से अपना विचार प्रगट करैंगे मैं उनका बहुत उपकार मानूंगा।


इस पुस्तक के रचनें मैं मुझको महाभारतदि संस्कृत, गुलिस्तां बगैरे फारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकल,गोल्डस्मिथ,विलियमकूपर आदि के पुराने लेखों और स्त्री बोध आदि के बर्तमान रिनालों से बड़ी सहायता मिली है इसलिये इन सबका मैं बहुत उपकार मानता हूं और दीनदयाल परमेश्वर की निर्हेतुक कृपा का सच्चे मन से अमित उपकार मानकर यह लेख समाप्त करता हूं।


सज्जनोंका कृपाभिलाषी


श्रीनिवासदास,दिल्ली।



परीक्षा गुरु (उपन्यास) : लाला श्रीनिवास दास

प्रकरण-1 : सौदागरकी दुकान


चतुर मनुष्‍य को जितनें खर्च मैं अच्‍छी प्रतिष्ठाअथवा धन मिल सक्ता है


मूर्ख को उस्‍सै अधिक खर्चनें पर भी कुछ नहीं मिलता।


लार्ड चेस्‍टरफील्‍ड।


लाला मदनमोहन एक अंग्रेजी सौदागर की दुकानमैं नई, नई फाशन का अंग्रेजी अस्‍बाब देख रहे हैं। लाला ब्रजकिशोर, मुन्शी चुन्‍नीलाल और मास्‍टर शिंभूदयाल उन्‍के साथ हैं।


"मिस्‍टर ब्राइट ! यह बड़ी काच की जोड़ी हमको पसंद है। इस्‍की क़ीमत क्‍या है ?" लाला मदनमोहन नें सौदागर सै पूछा।


"इस साथकी जोड़ी अभी तीन हजार रुपे मैं हमनें एक हिन्दुस्थानी रईस को दी है लेकिन आप हमारे दोस्‍त हैं आपको हम चारसौ रुपे कम कर दैंगे।"


"निस्‍सन्‍देह ये काच आपके कमरेके लायक है इन्के लगनें सै उस्‍की शोभा दुगुनी हो जायगी।" शिंभूदयाल बोले।


"आहा ! मैं तो इन्‍के चोखटोंकी कारीगरी देखकर चकित हूँ ! ऐसे अच्‍छे फूल पत्ते बनाये हैं कि सच्‍चे बेल बूटों को मात करते हैं। जी चाहता है कि कारीगर के हाथ चूम लूं" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।


"इन्‍के बिना आपका इस्‍समय कौन्सा काम अटक रहा है ?" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "खेल तमाशेकी चीजों सै भोलेभाले आदमियों का जी ललचाता है। वह सौदागर की सब दुकान को अपनें घर लेजाया चाहते हैं परन्तु बुद्धिमान अपनी ज़रुरी चीजोंके सिवाय किसी पर दिल नहीं दौड़ाते" लाला ब्रजकिशोर बोले।


"ज़रुरत भी तो अपनी, अपनी रुचि के समान अलग, अलग होती है" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।


"और जब दरिद्रियों की तरह धनवान भी अपनी रुचि के समान काम न कर सकैं तो फ़िर धनी और दरिद्रियों मैं अन्‍तर ही क्‍या रहा ?" मास्टर शिंभूदयालनें पूछा।


"नामुनासिब काम करके कोई नुक्‍सानसै नहीं बच सक्‍ता।"


"धनी दरिद्री सकल जन हैं जग के आधीन ।


चाहत धनी विशेष कछु तासों ते अति दीन ।।"


लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे, "मुनासिब रीति सै थोड़े खर्च मैं सब तरहका सुख मिल सक्ता है परन्तु इन्तज़ाम और कामके सिल्सिले बिना बड़ीसै बड़ी दौलत भी ज़रूरी खर्चों को पूरी नहीं हो सक्ती। जब थोथी बातों मैं बहुतसा रुपया खर्च हो जाता है तो ज़रूरी काम के लिये पीछेसै ज़रूर तकलीफ उठानी पड़ती है।"


"चित्त की प्रसन्नता के लिये मनुष्य सब काम करते हैं फ़िर जिन के देखनेंसै चित्त प्रसन्न हो उन्का खरीदना थोथी बातोंमैं कैसे समझा जाय ?" मुन्शी चुन्नीलालनें कहा।


"चित्त प्रसन्‍न रखनें की यही रीति नहीं है। चित्‍त तो उचित व्‍यवहारसै प्रसन्‍न रहता है" लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।


"परन्‍तु निरी फिलासफीकी बातोंसै भी तो दुनियादारीका काम नहीं चल सक्‍ता" लाला मदनमोहननें दुनियादार बन कर कहा।


"बलायत की सब उन्‍नति का मूल लार्ड बेकन की यह नीति है कि 'केवल बिचार ही बिचार मैं मकड़ी के जाले न बनाओ आप परीक्षा करके हरेक पदार्थ का स्‍वभाव जानों' मिस्‍टर ब्राइट नें कहा।


"क्‍यौं साहब ! ये काच कहां के बनें हुए हैं ?" मुन्शी चुन्‍नीलालनें सौदागरसै पूछा।


"फ्रान्स के सिवाय ऐसी सुडोल चीज कहीं नहीं बन सक्‍ती। जबसै ये काच यहां आए हैं हर वक्‍त देखनेंवालों की भीड़ लगी रहती है और कई कारीगर तो इन्‍का नक्‍शा भी खींच लेगये हैं"


"अच्‍छा जी ! इन्की कीमत हमारे हिसाब मैं लिखो और ये हमारे यहां भेज दो"


"मैंनें एक हिन्‍दुस्थानी सौदागर की दुकान मैं इसी मेल के काच देखे हैं। उन्‍के चोखटों मैं निस्‍सन्‍देह ऐसी कारीगरी नहीं है परन्तु कीमत मैं यह इन्‍सै बहुत ही सस्‍ते हैं" लाला ब्रजकिशोर बोले।


"मैं तो अच्‍छी चीज़ का गाहक़ हूँ। चीज़ पसंद आये पीछे मुझको कीमत की कुछ परवा नहीं रहती।"


"अंग्रेजों की भी यही चाल है" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"परन्तु सब बातों मैं अंग्रेजों की नकल करनी क्‍या ज़रूर है ?" लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।


"देखिये ! जबसै लाला साहब यह अमीरी चाल रखनें लगे हैं लोगों मैं इन्‍की इज्‍ज़त कितनी बढ़ती जाती है !" मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा।


"सर सामानसै सच्‍ची इज्‍ज़त नहीं मिल सक्‍ती। सच्‍ची इज्‍ज़त तो सच्‍ची लियाकतसै मिलती है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "और जब कोई मनुष्‍य बुद्धि के विपरीत इस रीतिसै इज्‍ज़त चाहता है तो उस्‍का परिणाम बड़ा ही भयंकर होता है।"


"साहब ! इतनी बात तो मैं हिम्‍मतसे कहता हूँ कि जो इस साथ की जोड़ी शहर में दूसरी जगह निकल आवेगी तो मैं ये काच मुफ्त नज़र करूँगा" मिस्‍टर ब्राइटनें जोर देकर कहा।


"कदाचित इस साथकी जोड़ी दिल्‍ली भरमैं न होगी परन्तु कीमतकी कम्‍ती बढ़ती भी तो चीजकी हैसियत के बमूजिब होनी चाहिये" लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।


"जिस तरह मोतियोंके हिसाब मैं किसी दानेंकी तोल ज़रा ज्‍याद: होनेंसै चौ बहुत ज्‍याद: बढ़ जाती है इसी तरह इन शीशोंकी कीमतका भी हाल है। मुझको लाला साहबसै ज्‍याद: नफ़ा लेना मंजूर न था इस वास्‍तै मैंनें पहले ही असली कीमत मैं चार सौ रूपे कम कर दिये इसपर भी आपको कुछ संदेह हो तो आप तीसरे पहर मास्‍टर साहब को यहां भेज दें। मैं बीजक दिखला कर इन्‍सै कीमत ठैरा लूंगा।"


"अच्‍छा ! मास्‍टर शिंभूदयाल मदरसेसै लोटती बार आपके पास आयेँगे पर ये काच हमसै पूछे बिना आप और किसीको न दैं" लाला मदनमोहननें कहा।


इस बातसै सब अपनें-अपनें जीमें राजी हुए, ब्रजकिशोर नें इतना अवकाश बहुत समझा, मदनमोहनके मनमैं हाथसे चीज निकल जानेंका खटका न रहा, चुन्‍नीलाल और शिंभूदयालका अपनें कमीशन सही करनें का समय हाथ आया और मिस्‍टर ब्राइटको लाला मदनमोहन की असली हालत जान्‍नेंके लिये फुरसत मिली।


"बहुत अच्‍छा" मिस्‍टर ब्राइटनें जवाब दिया "लेकिन आपको फुरसत हो तो आप एक बार यहां फ़िर भी तशरीफ लायं। हालमैं नई-नई तरहकी बहुतसी चीज़ैं वलायतसै ऐसी उम्‍दा आई हैं जिन्‍को देखकर आप बहुत खुश होंगे परन्तु अभी वह खोली नहीं गईं हैं और इस्‍समय मुझको रुपेकी कुछ ज़रूरत है। इन चीज़ोंकी कीमतके बिलका रुपया देना है। आप मेहरबानी करके अपनें हिसाब मैंसै थोड़ा रुपया मुझको इस्समय भेज दें तो बड़ी इनायत हो।"


इस बचनमैं मिस्‍टर ब्राइट अपनें अस्वाबकी खरीदारीके लिये लाला मदनमोहन को ललचाता है परन्तु अपनें रुपेके वास्‍तै मीठा तकाज़ा भी करता है। चुन्‍नीलाल और शिंभूदयालके कारण उस्‍को मदनमोहन के लेन-देनमें बहुत कम फायदा हुआ परन्तु उसके पचास हजार रुपे इस समय मदनमोहनकी तरफ़ बाकी हैं और शहरमैं मदनमोहनकी बाबत तरह, तरहकी चर्चा फैल रही हैं बहुत लोग मदनमोहन को फ़िजूल खर्च, दिवालिया बताते हैं और हकीकत मैं मदनमोहन का खर्च दिन पर दिन बढ़ता जाता है। इस्‍सै मिस्टर ब्राइट को अपनी रकम का खटका है इसीलिये उस्‍नें इन काचों का सौदा इस्‍समय अटकाया है और तीसरे पहर मास्‍टर शिंभूदयाल को अपनें पास बुलाया है।


"रुपया ! ऐसी जल्‍दी !" लाला ब्रजकिशोरनें मिस्‍टर ब्राइट को वहम मैं डालनें के लिये आश्‍चर्यसै इतनी बात कहक़र मनमैं कहा "हाय ! इन् कारीगरी की निरर्थक चीजोंके बदले हिंदुस्थानी अपनी दौलत वृथा खोये देते हैं"


"सच है पहले आप अपना हिसाब तैयार करायँ, उस्‍को देखकर अंदाजसै रुपे भेजे जायंगे" मुन्शी चुन्‍नीलालनें बात बनाकर कहा।


"और बहुत जल्दी हो तो बिल करके काम चला लीजिये, जब तक कागज के घोड़े दौड़ते हैं रुपे की क्‍या कमी है ?" ब्रजकिशोर बीच मैं बोल उठे।


"अच्‍छा ! मैं हिसाब अभी उतरवाकर भेजता हूँ मुझको इस्समय रुपे की बहुत ज़रूरत है" मिस्‍टर ब्राइटनें कहा।


"आपनें साढ़े नौ बजे मिस्‍टर रसल को मुलाकातके लिये बुलयाहै। इस वास्‍ते अब वहां चलना चाहिये" मास्‍टर शिंभूदयाल नें याद दिवाई।


"अच्‍छा मिस्‍टर ब्राइट ! इन् काचों की याद रखना और नया अस्वाब खुलै जब हम को ज़रूर बुला लेना" यह कह कर लाला मदनमोहन नें मिस्टर ब्राइट सै हाथ मिलाया और अपनें साथियों समेत जोड़ी की एक निहायत उम्‍दा वलायती फिटन मैं सवार होकर रवानें हुए।


जब बग्‍गी कंपनी बाग मैं पहुँची तो सवेरे का सुहावना समय देखकर सब का जी हरा हो गया। उस्‍समयकी शीतल, मंद, सुगंधित हवा बहुत प्‍यारी लगती थी। वृक्षों पर हर तरहके पक्षी मीठे मीठे सुरों सैं चहचहा रहे थे ! नहरके पानी की धीरी, धीरी आवाज कानको बहुत अच्‍छी मालूम होती थी ! पन्‍ने सी हरी घास की भूमिपर मोतीसी ओस की बूंदे बिखर रहीं थी ! और तरह, तरहकी फुलवाड़ी हरी मखमल मैं रंग-रंगके बूंटों की तरह बड़ी बहार दिखा रही थी। इस स्‍वाभाविक शोभाको देखकर लाला ब्रजकिशोरनें मदनमोहन सै थोड़ी देर वहां ठैरनें के वास्‍ते कहा।


इस्‍समय मुन्शीचुन्‍नीलाल नें जेबसै निकालकर घड़ी मैं चाबी दी और घड़ी देखकर घबराहटसै कहा "ओ ! हो ! नौपर बीस मिनिट चले गए तो अब मकान को जल्‍दी चलना चाहिये"


निदान लाला मदनमोहन की बग्‍गी म‍कानपर पहुँची और ब्रजकिशोर उन्‍सै रुखसत् होकर अपनें घर गए।


प्रकरण-2 : अकालमैं अधिकमास


अप्रापति के दिनन मैं खर्च होत अबिचार


घर आवत है पाहुनो बणिज न लाभ लगार


बृन्द।


"हैं अभी तो यहां के घन्टे मैं पौनें नौ ही बजे हैं तो क्‍या मेरी घड़ी आध घन्टे आगे थी ?" मुन्शीचुन्‍नीलालनें मकान पर पहुँचते ही बड़े घन्टे की तरफ़ देखकर कहा। परन्तु ये उस्‍की चालाकी थी उसनें ब्रजकिशोर सै पीछा छुड़ानें के लिये अपनी घड़ी चाबी देनें के बहानें सै आध घन्टे आगे कर दी थी !


"कदाचित् ये घन्टा आध घन्टे पीछे हो" मास्‍टर शिंभूदयाल नें बात साध कर कहा।


"नहीं, नहीं ये घन्टा तोप सै मिला हुआ है" लाला मदनमोहन बोले।


"तो लाला ब्रजकिशोर साहब की लच्‍छेदार बातैं नाहक़ अधूरी रह गईं ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"लाला ब्रजकिशोर की बातें क्‍या हैं चकाबू का जाल है। वह चाहते हैं कि कोई उन्‍के चक्‍कर सै बाहर न निकालनें पाय" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"मैं यों तो ये काच लेता या न लेता पर अब उन्‍की ज़िद सै अदबद कर लूंगा"


"निस्सन्देह जब वे अपनी जिद नहीं छोड़ते तो आपको अपनी बात हारनी क्‍या ज़रूर है ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें छींटा दिया।


हितोपदेश मैं कहा है "आज्ञालोपी सुतहु कों क्षमैं न नृपति विनीत ।।

को बिशेष नृप, चित्र जो न गहे यहरीति"2।।


(2आज्ञा भङ्गकरान राजा न क्षमेत सुतानपि । विशेष: कौन राज्ञय राज्ञ श्चित्नगतस्य च ।।)


पंडित पुरुषोत्तमदासनें मिल्‍तीमैं मिलाकर कहा।


"बहुत पढ़नें लिखनें सै आदमी की बुद्धि कुछ ऐसी निर्बल हो जाती है कि बड़े, बड़े फिलासफर छोटी, बातों मैं चक्‍कर खानें लगते हैं" मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे, "सर आईजिक न्‍यूटन कितनी बार खाना खाकर भूल जाते थे, जरमन का प्रसिद्ध विद्वान लेसिंग एक बार बहुत रात गए अपनें घर आया और कुन्दा खड़कानें लगा, नोकर नें गैर आदमी समझ कर भीतर सै कहाकि "मालिक घर मैं नहीं हैं कल आना" इस्‍पर लेसिंग सचमुच लौट चला ! ! ! इटली का मारीनी नामी कवि एक दिन कविता बनानेंमैं ऐसा मग्‍न हुआ कि अंगीठी सै उस्‍का पैर जल गया तोभी उसै कुछ खबर न हुई!"


"लाला ब्रजकिशोर साहब का भी कुछ, कुछ ऐसा ही हाल है। यह सीधी, सीधी बातों को बिचार ही बिचार मैं खेंच तान कर ऐसी पेचीदा बनालेते हैं कि उन्‍का सुलझाना मुश्किल पड़ जाता है" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।


"मैंनें तो मिस्‍टर ब्राइट के रोबरू ही कह दिया था कि कोरी फिलासोफी की बातौं सै दुनियादारी का काम न‍हीं चलता" लाला मदनमोहननें अपनी अकल मंदी ज़ाहर की।


इतनेंमैं मिस्‍टर रसल की गाड़ी कमरे के नीचे आ पहुँची और मिस्‍टर रसल खट, खट करते हुए कमरे मैं दाखिल हुए। लाला मदनमोहन नें मिस्‍टर रसल सै शेकिग्हैंड करके उन्‍हें कुर्सी पर बिठाया और मिज़ाज की खैरोआफियत पूछी।


मिस्‍टर रसल नील का एक होसले मंद सौदागर है परन्तु इस्‍के पास रुपया नहीं है। यह नील के सिवाय रुई और सन वगैरे का भी कुछ, कुछ व्‍यापार कर लिया करता है। इस्‍का लेन देन डेढ़, पौनें दो बरस सै एक दोस्‍तकी सिफारस पर लाला मदनमोहन के यहां हुआ है। पहले बरसमैं लाला मदनमोहन का जितना रुपया लगा था माल की बिक्री सै ब्‍याज समेत वसूल होगया, परन्तु दूसरे साल रुई की भरती की जिस्मैं सात आठ हजार रुपे टूटते रहे इस्का घाटा भरनेंके लिये पहले सै दुगनी नील बनवायी जिस्‍मैं एक तो परता कम बैठा दूसरे माल कलकत्‍ते पहुँचा उस्‍समय भाव मंदा रह गया जिस्‍मैं नफे के बदले दस, बारह हजार इस्‍मैं टूटते रहे। लाला मदनमोहन के लेन देन सै पहले मिस्‍टर रसल का लेन देन रामप्रसाद बनारसीदास सै था। उन्के आठ हजार रुपे अबतक इस्‍की तरफ़ बाकी थे जब उन्‍की मयाद जानें लगी तो उन्‍होंनैं नालिश करके साढ़ेग्‍यारह हजारकी डिक्री इस्‍पर कराली अब उन्‍की इजराय डिक्री मैं इस्का सब कारखाना नीलाम पर चढ़ रहा है और नीलाम की तारीखमैं केवल चार दिन बाकी हैं इस लिये यह बड़े घबराहट मैं रुपे का बंदोबस्‍त करनें के लिये लाला मदनमोहन के पास आया है।


"मेरे मिज़ाज का तो इस्‍समय कोसों पता नहीं लगता परन्तु उस्‍को ठिकानें लाना आपके हाथ है" मिस्‍टर रसल नें मदनमोहन के कुशलप्रश्‍न (मिज़ाजपुर्सी) पर कहा "जो आफत एकाएक इस्‍समय मेरे सिर पर आपड़ी है उस्‍को आप अच्‍छी तरह जान्‍ते हैं। इस कठिन समय मैं आपके सिवाय मेरा सहायक कोई नहीं है। आप चाहैं तो दम भर मैं मेरा बेड़ा पार लगा सक्‍ते हैं नहीं तो मैं तो इस तूफान मैं ग़ारत हो चुका।"


"आप इतनें क्‍यों घबराते हैं ?" ज़रा धीरज रखिये" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पहले की मिलावट के अनुसार सहारा लगाकर कहा "लाला साहब के स्‍वभाव को आप अच्‍छी तरह जान्ते हैं जहां तक हो सकेगा यह आप की सहायता मैं क़भी कसर न करेंगे।"


"पहले आप मुझे यह तो बताइये कि आप मुझसै किस तरह की सहायता चाहते हैं ?" लाला मदनमोहन नें पूछा।


"मैं इस्‍समय सिर्फ इतनी सहायता चाहता हूँ कि आप रामप्रसाद बनारसीदास की डिक्री का रुपया चुका दें। मुझसै हो सकेगा जहां तक मैं आपका सब कर्जा एक बरसके भीतर चुका दूंगा" मिस्‍टर रसल नें कहा "मुझको अपनी बरबादी का इतना खयाल नहीं है जितनी आपके कर्जे की चिन्‍ता है। रामप्रसाद बनारसीदास की डिक्रीमैं मेरी जायदाद बिक गई तो और लेनदार कोरे रह जायंगे और मैंनें इन्‍सालवन्‍ट होनें की दरखास्‍त की तो आप लोगों के पल्‍ले रुपे मैं चार आनें भी न पड़ेंगे।


"अफ्सोस ! आपकी यह हकीकत सुन् कर मेरा दिल आप सै आप उम्ड़ा आता है" लाला मदनमोहन बोले।


"सच है महा कवि शेक्‍सपीअर नें कहा है" मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे :-


कोमल मन होत न किये होत प्रकृति अनुसार ।


जों पृथ्वी हित गगन ते वारिद द्रवित फुहार ।।


वारिद द्रवित फुहार द्रवहि मन कोमलताई ।


लेत, देत शुभ हेत दोउनको मन हरषाई ।।


सब गुनते उतकृष्‍ट सकल बैभव को भूषन ।


राजहु ते कछु अधिक देत शोभा कोमलमन ।।3


3The quality of mercy is not strained;

It droppeth as the gentle rain from heaven

Upon the place beneath. It is twice blest;

It blesseth him that gives and him that takes:

'T is mightiest in the mightiest; it becomes

The throned monarch better than his crown:


William Shakespeare


"हजरत सादी कहते हैं कि "दुर्बल तपस्‍वी सै कठिन समय मैं उस्‍के दु:ख का हाल न पूछ और पूछै तो उस्‍के दु:ख की दवा कर"4


(4दरवेशजईफ़े हालरा दरखुशकी तङ्गेसाल मपुर्सके चुनी इल्ला बशर्त आंकि मरहमे बरेंशनिही)


मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"अच्‍छा इस रुपे के लिये ये हमारी दिल जमई क्‍या कर देंगे ?" लाला मदनमोहन नें बड़ी गम्‍भीरता सै पूछा।


"हां हां लाला साहब सच कहते हैं आप इस रुपये के लिये हमारी दिल जमई क्‍या कर देंगे ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें दिल-जमई की चर्चा हुए पीछे अपनी सफाई जतानें के लिये मिस्‍टर रसल सै पूछा।


"मैं थोड़े दिन मैं शीशे बरतन का एक कारखाना यहां बनाया चाहता हूँ। अबतक शीशे बरतन की सब चीजें वलायत सै आती हैं इसलिये खर्च और टूट फूट के कारण उन्‍की लागत बहुत बढ़ जाती है। जो वह चीजे यहां तैयार की जायंगी तो उन्‍मैं ज़रूर फायदा रहेगा और खुदा नें चाहा तो एक बरस के भीतर भीतर आपकी सब रकम जमा हो जायगी परन्तु आपको इस्‍समय इस बात पर पूरा भरोसा नहीं तो मेरा नील का कारखाना आपकी दिलजमईके वास्तै हाजिर है" मिस्‍टर रसल नें जवाब दिया।


"हिन्‍दुस्‍थान मैं अब तक कलों के कारखानें नहीं हैं इस्‍सै हिंदुस्‍थानियों को बड़ा नुक्सान उठाना पड़ता है। मैं जान्‍ता हूँ कि इस्‍समय हिम्‍मत करके जो कलों के कारखानें पहले जारी करेगा उस्‍को ज़रूर फायदा रहेगा" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"आपको रामप्रसाद बनारसीदास के सिवाय किसी और का रुपया तो नहीं देना !" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पूछा।


"रामप्रसाद बनारसीदास की डिक्री का रुपया चुके पीछै मुझको लाला साहब के सिवाय किसी की फूटी कौड़ी नहीं देनी रहैगी" मिस्‍टर रसल नें जवाब दिया।


परन्‍तु काच का कारखाना बनानें के लिये रुपे कहां सै आयंगे ? और लाला मदनमोहन के कर्जे लायक नील के कारखानें की हैसियत कहां है ? इन्‍सालवेन्ट होनें सै लेनदारों के पल्‍ले चार आनें भी न पड़ेंगे यह बात मिस्‍टर रसल अपनें मुंह सै अभी कह चुका है पर यहां इन् बातोंकी याद कौन दिलावै ?


"इस सूरत मैं रामप्रसाद बनारसीदास की डिक्री का रुपया न दिया जायगा तो उन्‍की डिक्री मैं इस्‍का कारखाना बिकजायगा और अपनी रकम वसूल होनें की कोई सूरत न रहैगी" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें लाला मदनमोहन के कान मैं झुक कर कहा।


"परन्तु इस्समय इस्‍को देनें के लिये अपनें पास नकद रुपया कहां है ?" लाला मदनमोहन नें धीरे सै जवाब दिया।


"अब मेरी शर्म आप को है 'वक्‍त निकल जाता है बात रह जाती है' जो आप इस्‍समय मुझको सहारा देकर उभार लोगे तो मैं आपका अहसान जन्‍म भर नहीं भूलूंगा" मिस्‍टर रसल नें गिड़ गिड़ा कर कहा।


"मैं मनसै तुम्‍हारी सहायता किया चाहता हूँ परन्‍तु मेरा रुपया इस्‍समय और कामों मैं लग रहा है इस्‍सै मैं कुछ नहीं कर सक्ता" लाला मदनमोहन नें शर्माते, शर्माते कहा।


"अजीहुजूर ! आप यह क्‍या कहते हैं ?" आपके वास्तै रुपे की क्‍या कमी है ? आप कहें जितना रुपया इसी समय हाजिर हो" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले ।


"अच्‍छा ! मुझसै होसकेगा जिस तरह दस हजार रुपे का बंदोबस्‍त करके मैं कल तक आपके पास भेजदूंगा आप किसी तरह की चिन्‍ता न करैं" लाला मदनमोहननें कहा।


"आपनें बड़ी महरबानी की मैं आपकी इनायत सै जी गया अब मैं आपके भरोसे बिल्‍कुल निश्चिन्‍त रहूँगा" मिस्‍टर रसल नें जाते, जाते बड़ी खुशी सै हाथ मिला कर कहा। और मिस्‍टर रसल के जाते ही लाला मदनमोहन भी भोजन करनें चले गए।


प्रकरण-3 : संगतिका फल


सहबासी बसहोत नृप गुण कुल रीति विहाय


नृप युवती अरु तरुलता मिलत प्राय संग पाय5


हितोपदेशे


(5आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्य विद्याविहीन मकुलीन मसङ्गतं वा


प्रायेण भूमिपतय:प्रमदा लता श्च, या: पार्श्व तो वसति तं परिवेष्टयन्ति ।।)


लाला मदनमोहन भोजन करके आए उस्‍समय सब मुसाहब कमरे में मौजूद थे। मदनमोहन कुर्सी पर बैठ कर पान खानें लगे और इन् लोगों नें अपनी, अपनी बात छेड़ी।


हरगोविंद (पन्सारी के लड़के) नें अपनी बगल सै लखनऊ की बनी टोपियें निकाल कर कहा "हजूर ये टोपियें अभी लखनऊसै एक बजाज के यहां आई हैं सोगात मैं भेजनें के लिये अच्‍छी हैं। पसंद हों तो दो, चार ले आऊं ?"


"कीमत क्‍या है ?"


"वह तो पच्‍चीस, पच्‍चीस रुपे कहता है परन्तु मैं वाजबी ठैरा लूंगा"


"बीस, बीस रुपे मैं आवें तो ये चार टोपियें ले आना।"


"अच्‍छा ! मैं जाता हूँ अपनें बस पड़ते तोड़ जोड़ मैं कसर नहीं रक्खूंगा" यह कह कर हरगोविंद वहां सै चल दिया।


"हुजूर ! यह हिना का अतर अजमेर सै एक गंधी लाया है वह कहता है कि मैं हुजूर की तारीफ सुनकर तरह, तरह का निहायत उम्‍दा अतर अजमेर सै लाता था परन्तु रस्‍ते मैं चोरी होगई सब माल अस्‍बाब जाता रहा सिर्फ यह शीशी बची है वह आपकी नजर करता हूँ" यह कह कर अहमद हुसेन हकीमनें वह शीशी लाला साहब के आगे रखदी।


"जो लाला साहब को मंजूर करनें मैं कुछ चारा बिचार हो तो हमारी नज़र करो हम इस्‍को मंजूर करके उस्‍की इच्‍छा पूरी करेंगे" पंडित पुरुषोत्‍तमदास नें बड़ीवजेदारी सै कहा।


"आपकी नज़र तो सिवाय करेले के और कुछ नहीं हो सक्ता मरज़ी हो; मंगवांय ?" हकीमजीनें जवाब दिया।


"करेले तुम खाओ, तुम्‍हारे घरके खांय हमको मुंह कड़वा करनें की क्‍या ज़रूरत है ? हम तो लाला साहब के कारण नित्‍य लड्डू उड़ाते हैं और चैन करते हैं" पंडित जी नें कहा।


"लड्डू ही लड्डूओं की बातें करनी आती हैं या कुछ और भी सीखे हो ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें छेड़ की।


"तुम सरीखे छोकरे मदरसे मैं दो एक किताबें पढ़ कर अपनें को अरस्‍तातालीस (Aristotle) समझनें लगते हैं परन्‍तु हमारी विद्या ऐसी नहीं है। तुम को परीक्षा करनी होतो लो इस कागज पर अपनें मन की बात लिखकर अपनें पास रहनें दो जो तुमनें लिखा होगा हम अपनी विद्या सै बता देंगे" यह कह कर पंडितजी नें अपनें अंगोछे मैं सै कागज पेनसिल और पुष्‍टीपत्र निकाल दिया।


मास्‍टर शिंभूदयालनें उस कागज पर कुछ लिखकर अपनें पास रख लिया और पंडितजी अपना पुष्‍टीपत्र लेकर थोड़ी देर कुंडली खेंचते रहे फ़िर बोले "बच्‍चा तुमको हर बात मैं हंसी सूझती है तुमनें कागज मैं 'करेला' लिखा है परन्तु ऐसी हंसी अच्‍छी नहीं"


लाला मदनमोहन के कहनें से मास्‍टर शिंभूदयाल नें कागज खोलकर दिखाया तो हकीकत मैं 'करेला' लिखा पाया अब तो पंडितजी की खूब चढ़ बनी मूछों पर ताव दे, दे कर खखारनें लगे।


परन्तु पंडितजी नें ये 'करेला' कैसे बता दिया ? लाला मदनमोहनके रोबरू आपस की मिलावट सै बकरी का कुत्‍ता बना देना सहजसी बात थी परन्तु पंडित जी का चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल सै ऐसा मेल न था और न पंडितजी को इतनी विद्या थी कि उस्‍के बल सै करेला बता देते। असल बात यह थी कि पंडित जीनें कागज पर काजल लगा कर पुष्टिपत्र मैं रख छोड़ा था जिस्‍समय पुष्टिपत्र पर कागज रख कर कोई कुछ लिखता था कलम के दबाव सै काजलके अक्षर दूसरे कागज पर उतर आते थे फ़िर पंडितजी कुंडली खेंचती बार किसी ढब सै उस्‍को देखकर थोड़ी देर पीछे बता देते थे।


"तो हुजूर ! उस गंधीके वास्तै क्‍या हुक्म है ?" हकीमजीनें फ़िर याद दिलाई।


अतर मैं चंदनके तैल की मिलावट मालूम होती है और मिलावट की चीज बेचनें का सरकार सै हुक्म नहीं है इस वास्तै कह दो शीशी जप्त हुई वह अपना रस्‍ता ले" पंडितजी शीशी सूंघ कर बीच मैं बोल उठे।


"हां हकीम जी ! आपकी राय मैं गन्धी का कहना सच है ?" लाला मदनमोहननें पूछा।


"बेशक, अंदाज सै तो ऐसा ही मालूम होता है आगे खुदा जानें" हकीमजी बोले।


"तो लो यह पच्‍चीस रुपे के नोट इस्‍समय उस्‍को खर्च के वास्‍तै दे दो। बिदा पीछे सै सामनें बुलाकर की जायगी" लाला मदनमोहन नें पच्‍चीस रुपे के नोट पाकट सै निकाल दिये।


"उदारता इस्‍का नाम है", "दयालुता इसे कहते हैं", "सच्‍चे यश मिलनेंकी यह राह है", "परमेश्‍वर इस्‍सै प्रसन्‍न होता है", चारों तरफ़ सै वाह-वाह की बोछार होनें लगी।


"ये बहियाँ मुलाहजे के वास्‍तै हाजिर हैं और बहुत सी रकमों का जमाखर्च आपके हुक्‍म बिना अटक रहा है जो अवकाश हो तो इस्‍समय कुछ अर्ज करूं ?" लाला जवाहरलाल नें आते ही बस्‍ता आगे रखकर डरते, डरते कहा।


"लाला जवाहरलाल इतनें बरस सै काम करते हैं परन्तु लाला साहब की तबियत, और कागज दिखानें का मोका अबतक नहीं पहचान्ते" लाला मदनमोहन को सुनाकर चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आपसमैं कानाफूसी करनें लगे।


"भला इस्‍समय इन्बातोंका कौन प्रसंग हैं ? और मुझको बार, बार दिक करनें सै क्‍या फायदा है ? मैं पहले कह चुका हूँ कि तुम्‍हारी समझमैं आवै जैसे जमा खर्च करलो। मेरा मन ऐसे कामों मैं नहीं लगता" लाला मदनमोहन नें झिड़ककर कहा और जवाहरलाल वहां सै उठकर चुपचाप अपनें रस्‍ते लगे।


"चलो अच्‍छा हुआ ! थोड़े ही मैं टल गई। मैं तो बहियोंका अटंबार देखकर घबरा गया था कि आज उस्‍तादजी घेरे बिना न रहैंगे" जवाहरलाल के जाते ही लाला मदनमोहन खुश हो, हो कर कहनें लगे।


"इन्‍का तो इतना होसला नहीं है परन्तु ब्रजकिशोर होते तो वे थोड़े बहुत उलझे बिना क़भी न रहते" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"जब तक लाला साहब लिहाज करते है तब ही तक उन्‍का उलझना उलझाना बन रहा है नहीं तो घड़ी भर मैं अकल ठिकानें आजायगी" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।


"हुजूर ! मैं लाला हरदयाल साहब के पास हो आया उन्‍होंनें बहुत, बहुत करकै आपकी खैरोआफ़ियत पूछी है। और आज शामको आपसै बागमैं मिलनें का करार किया है" हरकिसन दलाल नें आकर कहा।


"तुम गये जब वो क्‍या कर रहे थे ?" लाला मदनमोहन नें खुश होकर पूछा।


"भोजन करके पलंग पर लेटे ही थे आपका नाम सुनकर तुर्त उठ आए और बड़े जोश सै आपकी खैरोआफ़ियत पूछनें लगे"


"मैं अच्‍छी तरह जानता हूँ वे मुझको प्राण सै भी अधिक समझते हैं" लाला मदनमोहननें पुलकित होकर कहा।


"आपकी चाल ही ऐसी है जो एक बार मिल्‍ता है हमेशेके लिये चेला बन् जाता है" मुन्शी चुन्‍नीलालनें बढ़ावा देकर कहा।


"परन्तु क़ानूनीबंदे इस्‍सै अलग हैं" मास्‍टर शिंभूदयाल ब्रजकिशोर की तरफ़ इशारा करके बोले।


"लीजिये ये टोपियां अठारह, अठारह रूपमैं ठैरा लाया हूँ" हरगोविंदनें लाला मदनमोहनके आगे चारों टोपियें रखकर कहा।


"तुमनें तो उसकी आंखोंमैं धूल डालदी ! अठारह, अठारह रूपे मैं कैसे ठैरालाये ? मुझको तो बाईस, बाईस रुपे सै कमकी किसी तरह नहीं जंचती" लाला मदनमोहननें हरगोविंद का हाथ पकड़कर कहा।


"मैनें उस्‍को आगेका फायदा दिखाकर ललचाया और बड़ी बड़ी पट्टियें पढाईं तब उस्‍नें लागत मैं दो, दो रुपे कम लेकर आपके नाम ये टोपियें दीं हैं"।


"अच्‍छा ! यह लाला हरकिशोर आते हैं इन्‍सै तो पूछिये ऐसी टोपी कितनें, कितनें मैं लादेंगे ?" दूरसै हरकिशोर बज़ाज को आते देखकर पंडित पुरुषोत्तमदासनें कहा।


"ये टोपियें हरनारायण बज़ाज के हां कल लखनऊ सै आई हैं और बाजार मैं बारह, बारह रुपे को बिकी हैं पर यहां तो तेरह तेरह मैं आई होंगी" हरकिशोर नें जवाब दिया।


"तुम हमें पंदरह, पंदरह रुपे मैं लादो" हरगोविंद नें झुंझला कर कहा।


"मैं अभी लाता हूँ। तुम्‍हारे मनमैं आवै जितनी लेलेना"


"ला चुके, लाचुके लानें की यही सूरत है ?" हरगोविंद नें बात उड़ानें के वास्तै कहा।


"क्‍यों ? मेरी सूरत को क्‍या हुआ ? मैं अभी टोपियां लाकर तुम्‍हारे सामनें रखेदेता हूँ" हरकिशोर नें हिम्‍मत सै जवाब दिया।


"तुम टोपियें क्‍या लाओगे ? तुम्‍हारी सूरत पर तो खिसियानपन अभी सै छा गया !" हरगोविंद नें मुस्‍कराकर कहा।


"मुझको नहीं मालूम था कि मेरी सूरत मैं दर्पण की खासियत है" हरकिशोरनें हँसकर जवाब दिया।


"चलो चुप रहो क्‍यों थोथी बातें बनाते हो ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल रोकनें के वास्‍तै भरम मैं बोले।


"बहुत अच्‍छा ! मैं टोपी लाये पीछे ही बात करूंगा" य‍ह कह कर हरकिशोर वहां सै चल दिये।


"यहां के दुकानदारों मैं यह बड़ा ऐब है कि जलन के मारे दूसरेके माल को बारह आनेंका जांच देते हैं" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"और किसी समय मुकाबला आपड़े तो अपनी गिरह सै घाटा भी दे बैठते हैं" मास्टर शिंभूदयाल बोले।


"न जानें लोगों को अपनी नाक कटा कर औरों की बदशगूनी करनें मैं क्‍या मजा आता है" हकीमजीनें कहा।


"और जो हरगोविंद कुछ ठगा आया होगा तो क्‍या मैं इन्‍के पीछे उस्‍का मन बिगाडूंगा" लाला मदनमोहन बोले।


"आपकी ये ही बातैं तो लोगों को बेदाम गुलाम बना लेती हैं" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।


"कुछ दिन सै यहां ग्वालियर के दो गवैये निहायत अच्छे आए हैं मरजी हो दो घड़ी के वास्‍तै आज की मजलिस मैं उन्‍‍हें बुला लिया जाय" हरकिसन दलालनें पूछा।


"अच्‍छा ! बुलाओ तुम्‍हारी पसंद हैं यो ज़रूर अच्‍छे होंगे" मदनमोहननें कहा।


"लखनऊ की अमीरजान भी इन दिनों यहीं है इस्‍के गानें की बड़ी तारीफ सुनी गई है पर मैंनें अपनें कान सै अब तक उस्‍का गाना नहीं सुना" हकीमजी बोले।


"अच्‍छा ! आपके सुन्ने को हम उसे भी यहां बुलाये लेते हैं पर उस्‍के गानें मैं समा न बंधा तो उस्के बदले आपको गाना पड़ेगा !" लाला मदनमोहन नें हंस कर कहा।


"सच तो ये है कि आपके सबब सै दिल्‍ली की बात बन रही है जो गुणी यहां आता है कुछ न कुछ ज़रूर ले जाता है आप ना होते तो उन बिचारों को यहां कौन पूछता ? आपकी इस उदारता सै आपका नाम बिक्रम और हातम की तरह दूर दूर, तक फैल गया है और बहुत लोग आपके दर्शनोंकी अभिलाषा रखते हैं" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें छींटा दिया।


इतनें मैं हरकिशोर टोपी लेकर आ पहुँचे और बारह, बारह रुपे मैं खुशी सै देनें लगे।


"सच कहो तुमनें इस्‍मैं अपनी गिरह का पलोथन क्‍या लगाया है ?" शिंभूदयाल नें पूछा।


"पलोथन लगानें की क्‍या जरुरत थी मैं तो इस्मैं लाला साहब सै कुछ इनाम लिया चाहता हूँ" हरकिशोर नें जवाब दिया।


"मुझको टोपियें लेनी होती तो मैं किसी न किसी तरह सै आपही तुम्‍हारा घाटा निकालता पर मैं तो अपनी ज़रूरतके लायक पहलै ले चुका" लाला मदनमोहन नें रूखाई सै कहा।


"आपको इस्की कीमत मैं कुछ संदेह हो तो मैं असल मालिक को रोबरू कर सक्ता हूँ ?"


"जिस गाँव नहीं जाना उस्का रास्‍ता पूछना क्‍या ज़रूर"


"तो मैं इन्‍हें ले जाउं ?"


"मैंनें मंगाई कब थी जो मुझसै पूछते हो" यह कहक़र लाला मदनमोहननें कुछ ऐसी त्‍योरी बदली कि हरकिशोर का दिल खट्ठा हो गया और लोग तरह, तरह की न‍कलै करके उस्‍का ठट्ठा उड़ानें लगे।


हरकिशोर उस्‍समय वहां सै उठकर सीधा अपनें घर चला गया पर उस्के मन मैं इन् बातोंका बड़ा खेद रहा।


प्रकरण-4 : मित्रमिलाप (!)


दूरहिसों करबढ़ाय, नयननते जलबहाय,


आदरसों ढिंगबूलाय, अर्धासन देतसो ।।


हितसोंहियमैं लगाय, रुचिसमबाणी बनाय,


कहत सुनत अति सुभाय, आनंदभरि लेत जो ।।


ऊपरसों मधु समान, भीतर हलाहल जान,


छलमैं पंडितमहान् कपटको निकेतवो।।


ऐसो नाटक विचित्र, देख्‍यो न कबहु मित्र,


दुष्‍टनकों यह चरित्र, सिखवे को हेतको6


(6दूरा दुछ्रितपाणिं रार्द्रनयन: प्रात्सारिताङ्घसिनो


गाढ़लिङ्गनतत्पर: प्रिवक्ककथाद्रत्रेषु दत्तादर: ।।


अन्तर्भूतविषी वहिर्मघुमयश्चातीव मायापटु ।


कोनामायमपूर्वनाटकविधिर्य: शिक्षितोदुर्जन: ।। 1।।)


लाला मदनमोहन को हरदयाल सै मिलनें की लालसा मैं दिन पूरा करना कठिन होगया वह घड़ी, घड़ी घन्टे की तरह देखते थे और उखताते थे, जब ठीक चार बजे अपनें मकान सै सवार होकर मिस्‍तरीखानें मैं पहुँचै यहां तीन बग्गियें लाला मदनमोहन की फर्मायश सै नई चाल की बन रही थीं उन्‍के लिये बहुतसा सामान वलायत सै मंगवाया गया था और मुंबई के दो कारीगरों की राह सै वह बनाई जाती थीं। लाला मदनमोहन नें कह रक्‍खा था कि "चीज़ अच्‍छी बनें खर्च की कुछ नहीं अटकी जो होगा हम करेंगे" निदान लाला मदनमोहन इन बग्गियों को देख भाल कर वहां सै आगा हसनजान के तबेले में गये और वहां तीन घोड़े पांच हजार, पांच सो रुपे मैं लेनें करके वहां सै सीधे अपनें बाग 'दिलपसंद' को चले गये।


यह बाग सबजी मंडी सै आगे बढ़ कर नहर की पटड़ी के किनारे पर था इस्‍की रविशों के दोनों तरफ़ रेलिया की कतार, सुहावनी क्‍यारियों मैं रंग, रंग के फूलों की बहार, कहीं हरी, हरी घासका सुहावना फर्श, कहीं घनघोर वृक्षों की गहरी छाया, कहीं बनावट के झरनें, और बेट, कहीं पेढ़ और टट्टियों पर बेलों की लपेट। एक तरफ़ को संगमरमर के एक कुंड मैं तरह, तरह के जलचर अपना रंग ढंग दिखा रहे थे बाग के बीच मैं एक बड़ा कमरा हवादार बहुत अच्‍छा बना हुआ था उस्‍के चारों तरफ़ संगमरमर का साईवान और साईवान के गिर्द फव्वारों की कतार लगी थी। जिस समय ये फव्वारे छुटते थे जेठ बैसाख को सावन भादों समझ कर मोर नाच उठते थे। बीच के कमरे मैं रेशमी गलीचे की बड़ी उम्‍दा बिछायत थी और बढिया साठन की मडी हुई सुनहरी कौंच, कुर्सियाँ जगह, जगह मोके सै रक्‍खी थीं। दीवार के सहारे संगमरमर की मेजोंपर बड़े, बड़े आठ काच आम्‍नें-साम्‍नें लगे हुए थे। छत मैं बहुमूल्‍य झाड़ लटक रहे थे, गोल बैजई और चौखूटी मेजों के गुलदस्‍ते, हाथीदांत, चंदन, आबनूस, चीनी, सीप और काच वगैरेके के उम्‍दा, उम्दा खिलौनें मिसल सै रक्‍खे थे, चांदी की रकेबियों मैं इलायची, सुपारी चुनी हुई थी। समय, तारीख, बार, महीना बतानें की घड़ी, हारमोनियम बाजा, अंटा खेलनें की मेज, अलबम्, सैरबीन, सितार और शतरंज बगैरे मन बहलानें का सब सामान अपनें, अपनें ठिकानें पर रक्‍खा हुआ था। दिवारों पर गच के फूल पत्तों का सादा काम अबरख की चमक सै चाँदी के डले की तरह चमक रहा था और इसी मकान के लिये हजारों रुपे का सामान हर महीनें नया खरीदा जाता था।


इस्‍समय लाला मदनमोहन को कमरे मैं पांव रखते ही बिचार आया कि इस्‍के दरवाजों पर बढिया साठन के पर्दे अवश्‍य होनें चाहियें उसी समय हरकिशोर के नाम हुक्‍म गया कि तरह, तरह की बढिया साठन लेकर अभी चले आओ, हरकिशोर समझा कि "अब पिछली बातों के याद आनें सै अपनें जी मैं कुछ लज्जित हुए होंगे चलो सवेरे का भूला सांझ को घर आजाय तो भूला नहीं बाजता" यह बिचार कर हरकिशोर साठन इकट्ठी करनें लगा पर यहां इन्बातों की चर्चा भी न थी। यहां तो लाला मदनमोहन को लाला हरदयाल की लौ लगरही थी। निदान रोशनी हुए पीछे बड़ी देर बाट दिखाकर लाला हरदयाल आये। उन्को देखकर मदनमोहन की खुशी की कुछ हद न‍हीं रही। बग्गी के आनें की आवाज सुनते ही लाला मदनमोहन बाहर आकर उन्‍को लिवा लाए और दोनों कौंच पर बैठ कर बड़ी प्रीति सै बातैं करनें लगे।


"मित्र तुम बड़े निष्ठुर हो मैं इतनें दिनसै तुम्‍हारी मोहनी मुर्ति देखनें-के लिये तरस रहा हूँ पर तुम याद भी नहीं करते" लाला मदनमोहन नें सच्‍चे मन सै कहा।


"मुझको एक पल आपके बिना कल नहीं पड़ती पर क्‍या करूं ? चुगलखोरों के हाथसै तंग हूँ जब कोई बहाना निकालकर आनें का उपाय करता हूँ वे लोग तत्‍काल जाकर लालाजी (अर्थात् पिता) सै कह देते हैं और लालाजी खुलकर तो कुछ नहीं कहते पर बातों ही बातों मैं ऐसा झंझोड़ते हैं कि जी जलकर राख हो जाता है। आजतो मैंनें उन्‍सै भी साफ कह दिया कि आप राजी हों, या नाराज हों मुझसें लाला मदनमोहन की दोस्ती नहीं छूट सकती" लाला हरदयालनें यह बात ऐसी गर्मा गर्मी से कही कि लाला मदनमोहन के मनपर लकीर होगई। पर यह सब बनावट थी। उस्नें ऐसी बातें बना, बना कर लाला मदनमोहन सै "तोफा तहायफ़" मैं बहुत कुछ फायदा उठाया था इस लिये इस सोनें की चिड़िया को जाल मैं फसानें के लिये भीतर पेटे सबघर के शामिल थे और मदनमोहन के मनमैं मिलनें की चाह बढ़ानें के लिये उसनें अब की बार आनें मैं जान बूझ कर देर की थी।


"भाई ! लोग तो मुझे भी बहुत बहकाते हैं। कोई कहता है "ये रुपे के दोस्‍त हैं," कोई कहता है "ये मतलब के दोस्‍त हैं" पर मैं उनको जरा भी मुंह नहीं लगाता क्‍योंकि मुझ को ओथेलो की बरबादी का हाल अच्‍छी तरह मालूम है" लाला मदनमोहन नें साफ मन सै कहा पर हरदयाल के पापी मन को इतनी ही बात सै खटका हो गया।


"दुनिया के लोगों का ढंग सदा अनोखा देखनें मैं आता है उन्‍मैं सै कोई अपना मतलब दृष्‍टांत और कहावतों के द्वारा कह जाता है, कोई अपना भाव दिल्लगी और हंसी की बातों मैं जता जाता है, कोई अपना प्रयोजन औरों पर रखकर सुना जाता है, कोई अपना आशय जताकर फ़िर पलट जानें का पहलू बनायें रखता है, पर मुझको ये बातें नहीं आतीं। मैं तो सच्‍चा आदमी हूँ जो मनमैं होती है वह ज़बान सै कहता हूँ जो जबान से कहता हूँ वह पूरी करता हूँ" लाला हरदयाल नें भरमा भरमी अपना संदेह प्रगट करके अन्त मैं अपनी सचाई जताई।


"तो क्‍या आपको इस्‍समय यह संदेह हुआ कि मैंनें बहकानें वालों पर रख कर अपनी तरफ़ सै आपको "रुपेका दोस्‍त" और "मतलब का दोस्‍त" ठैराया है ?" लाला मदनमोहन गिड़ गिड़ा कर कहनें लगे "हाय ! आपनें मुझको अबतक नहीं पहचाना। मैं अपनें प्राणसै अधिक आपको सदा समझता रहा हूँ। इस संसार मैं आपसै बढ़कर मेरा कोई मित्र नहीं है जिस्‍पर आपको मेरी तरफ़ सै अबतक इतना संदेह बन रहा है मुझको आप इतना नादान समझते हैं। क्‍या मैं अपनें मित्र और शत्रु को भी नहीं पहचान्‍ता ? क्‍या आप सै अधिक मुझको संसार मैं कोई मनुष्‍य प्‍यारा है ? मैं कलेजा चीरकर दिखाऊं तों आपको मालूम हो कि आपकी प्रीति मेरे हृदय मैं कैसी अंकित हो रही है !"


"आप वृथा खेद करते हैं। मैं आपकी सच्‍ची प्रीति को अच्‍छी तरह जान्ता हूँ और मुझको भी इस संसार मैं आप सै बढ़कर कोई प्यारा नहीं है। मैंनें दुनिया का यह ढङ्ग केवल चालाक आदमियों की चालाकी जतानें के लिये आपसै कहा था आप वृथा अपनें ऊपर ले दोड़े। मुझको तो आपकी प्रीति का यहां तक विश्‍वास है कि सूर्य चन्‍द्रमा की चाल बदल जायगी तो भी आप की प्रीति मैं क़भी अन्तर न आयगा" लाला हरदयालनें मदनमोहन के गले मैं हाथ डाल कर कहा।


"प्रीति के बराबर संसार मैं कौन्‍सा पदार्थ है ?" लाला मदनमोहन कहनें लगे "और सब तरह के सुख मनुष्‍य को द्रव्‍य सै मिल सक्ते हैं पर प्रीति का सुख सच्‍चे मित्र बिना किसी तरह नहीं मिल्‍ता जिस्‍नें संसार मैं जन्‍म लेकर प्रीति का रस नहीं लिया उसका जन्‍म लेना बृथा है इसी तरह जो लोग प्रीति करके उस्‍पर द्रढ़ नहीं वह उस्‍के रस सै नावाफिक है।"


"निस्सन्देह ! प्रीति का सुख ऐसा ही अलौकिक है। संसार मैं जिन लोगों को भोजन के लिये अन्‍न और पहन्ने के लिये वस्‍त्र तक नहीं मिल्‍ता उन्‍को भी अपनें दु:ख सुख के साथी प्राणोपम मित्र के आगे अपना दु:ख रोकर छाती का बोझ हल्‍का करनें पर, अपनें दुखों को सुन, सुन कर उस्‍के जी भर आनें पर, उस्‍के धैर्य देनें पर, उस्‍के हाथ सै अपनी डबडबाई हुई आंखों के आंसू पुछ जानें पर, जो संतोष होता है वह किसी बड़े राजा को लाखों रुपे खर्च करनें सै भी नहीं होसक्ता" लाला हरदयाल नें कहा।


"निस्सन्देह ! मित्रता ऐसीही चीज है पर जो लोग प्रीति का सुख नहीं जान्‍ते वह किसी तरह का इस्‍का भेद नहीं समझ सक्ते" लाला मदनमोहन कहनें लगें।


"दुनियां के लोग बहुत करके रुपे के नफे नुक्‍सान पर प्रीति का आधार समझते हैं। आज हरगोविंद नें लखनऊ की चार टोपियां मुझको अठारह रुपेमैं ला दी थीं इस्‍पर हरकिशोर जल गये और मेरी प्रीति बढ़ानें के लिये बारह रुपे में वैसी ही टोपियां देनें लगे। इन्‍के निकट प्रीति और मित्रता कोई ऐसी चीज है जो दस पांच रुपे की कसर खानें सै बातों मैं हाथ आसक्ती है !"


"हरकिशोरनें हरगोविंद की तरफ़सै आपका मन उछांटनें के लिये यह तद्वीर की हो तो भी कुछ आश्‍चर्य नहीं।" हरदयाल बोले "मैं जान्ता हूँ कि हरकिशोर एक बड़ा"-


इतनेंमैं एकाएक कमरे का दरवाजा खुला और हरकिशोर भीतर दाखल हुआ। उसको देखतेही हरदयाल की जबान बंद हो गई और दोनों नें लजाकर सिर झुका लिया।


"पहलै आप अपनें शुभ चिन्‍तकों के लिये सजा तजवीज कर लीजिये फ़िर मैं साठन मुलाहजें कराऊंगा। ऐसे वाहियात कामौं के वास्‍ते इस जरूरी काम मैं हर्ज करना मुनासिब नहीं। हां लाला हरदयाल साहब क्‍या फरमा रहे थे "हरकिशोर एक बड़ा-" क्‍या है ?" हरकिशोरनें कमरे मैं पांव रखते ही कहा।


"चलो दिल्‍लगी की बातैं रहनें दो लाओ, दिखलाओ तुम कैसी साठन लाए हो ? हम अपनी निज की सलाह के वास्‍ते औरों का काम हर्ज नहीं किया चाहते" लाला हरदयाल नें पहली बात उड़ाकर कहा।


"मैं और नहीं हूँ पर अब आप चाहे जो बना दैं मुझको अपना माल दिखानें मैं कुछ उज्र नहीं पर इतना बिचार है कि आजकल सच्‍चे माल की निस्‍बत नकली या झूंटे माल पर ज्‍याद: चम‍क दमक मालूम होती है। मोतियों को देखिये चाहै मणियों को देखिये, कपड़ों को देखिये, चाहै गोटे किनारी को देखिये, जो सफाई झूंटे पर होगी वो सच्‍चे पर हरगिज न होगी इस लिये मैं डरता हूँ कि शायद मेरा माल पसन्द न आय" हरकिशोरनें मुस्कराकर कहा।


"तुम कपड़ा दिखानें आए हो या बातोंकी दुकानदारी लगानें आए हो ? जो कपड़ा दिखाना हो तो झट पट दिखा दो नहीं तो अपना रस्‍ता लो। हमको थोथी बातों के लिए इस्‍समय अवकाश नहीं है" लाला मदनमोहननें भौं चढ़ा कर कहा।


"यह तो मैंनें पहले ही कहा था अच्‍छा ! अब मैं जाता हूँ फ़िर किसी वक्‍त हाजिर होऊंगा"


"तो तुम कल नो, दस बजे मकान पर आना" यह कह कर लाला मदनमोहन नें उसै रूख़सत किया।


"आपस मैं क्‍या मजे की बातैं हो रही थीं न जानें यह हत्‍या बीच मैं कहां सै आगई" लाला हरदयाल बोले।


"खैर अब कुछ दिल्‍लगी की बात छेडिये !" लाला मदनमोहन नें फरमायश की।


निदान बहुत देर तक अच्‍छी तरह मिल भेट कर लाला हरदयाल अपनें मकान को गए और लाला मदनमोहन अपनें मकान को गए।


प्रकरण-5 : विषयासक्त


इच्‍छा फलके लाभसों कबहुंन पूरहि आश


जैसे पावक घृत मिले बहु विधि करत प्रकाश7


हरिवंश ।


(7नजातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति ।। हविषा कृष्णवर्त्मैव भूय एवावभिर्द्धते ।।)


लाला मदनमोहन बाग सै आए पीछे ब्‍यालू करके अपनें कमरे मैं आए उस्समय लाला ब्रजकिशोर, मुन्शी चुन्‍नीलाल, मास्‍टर शिंभूदयाल, बाबू बैजनाथ, पंडित पुरुषोत्तमदास, हकीम अहमदहुसैन वगैरे सब दरबारी लोग मौजूद थे। लाला साहब के आते ही ग्‍वालियर के गवैयों का गाना होनें लगा।


"मैं जान्ता हूँ कि आप इस निर्दोष दिल्‍लगी को तो अवश्‍य पसंद करते होंगे। देखिये इस्‍सै दिन भर की थकान उतर जाती है और चित्त प्रसन्‍न हो जाता है" लाला मदनमोहन नें थोडी देर पीछै ब्रजकिशोर सै कहा।


"सब बातें काम के पीछे अच्‍छी लगती हैं। जो सब तरह का प्रबंध बन्ध रहा हो, काम के उसूलों पर दृष्टि हो, भले बुरे काम और भले बुरे आदमियों की पहचान हो, तो अपना काम किये पीछै घड़ी, दो घड़ी की दिल्‍लगी मैं कुछ बिगाड़ नहीं है पर उस्‍समय भी इस्‍का व्‍यसन न होना चाहिये" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।


"अमीरौं को ऐश के सिवाय और क्‍या काम है ?" मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।


"राजनीति मैं कहा है "राजा सुख भोगहि सदा मंत्री करहि सम्‍हार ।। राजकाज बिगरे कछू तो मंत्री सिर भार ।।"8


(8भोगस्य भाजनं राजा मन्त्री कार्य्यस्य भाजनम् ।। राजकार्य्यपरिध्वंसी मन्त्री दोषेण लिप्यते ।।)


पंडित पुरुषोत्तमदास बोले।


"हां यहां के अमीरों का ढंग तो यही है। पर यह ढंग दुनियां सै निराला है। जो बात सब संसार के लिये अनुचित गिनी जाती है वही उन्‍के लिये उचित समझी जाती है ! उन्‍की एक, बात पर सुननें वाले लोट पोट हो जाते हैं ! उन्की कोई बात हिकमत सै खाली नहीं ठैरती ! जिन बातों को सब लोग बुरी जान्‍ते हैं, जिन बातों को करनें मैं कमीनें भी लजाते हैं, जिन बातों के प्रगट होनें सै बदचलन भी शर्माते हैं, उन्‍का करना यहां के धनवानों के लिये कुछ अनुचित नहीं हैं ! इन् लोगों को न किसी काम के प्रारंभ की चिन्‍ता होती है ! न किसी काम के परिणाम का बिचार होता है ! यहां के धनपति तो अपनें को लक्ष्‍मी पति समझते हैं परन्तु ईश्‍वर के हां का यह नियम नहीं है। उस्‍ने अपनी सृष्टि मैं सब गरीब अमीरों को एकसा बनाया है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "जो मनुष्‍य ईश्‍वर का नियम तोड़ेगा उस्‍को अपनें पाप का अवश्‍य दंड मिलैगा। जो लोग सुख भोग मैं पड़ कर अपनें शरीर या मन को कुछ परिश्रम नहीं देते प्रथम तो असावधान्‍ता के कारण उन्‍का वह बैभव ही नहीं रहता और रहा भी तो कुदरती कायदे के मूजिब उन्‍का शरीर और मन क्रम सै दुर्बल होकर किसी काम का नहीं रहता। पाचन शक्तिके घटनें सै तरह, तरह के रोग उत्‍पन्‍न होते हैं और मानसिक शक्तिके घटनें सै चित्त की बिकलता, बुद्धि की अस्थिरता, और काम करनें की अरुचि उत्‍पन्‍न हो जाती है जिस्‍सै थोड़े दिन मैं संसार दु:खरूप मालूम होनें लगता है।"


"परन्‍तु अत्‍यन्‍त महनत करनें सै भी तो शिथिलता हो जाती है" बाबू बैजनाथनें कहा।


"इस्‍सै वह बात नहीं निकलती कि बिल्कुल महनत न करो सब काम अंदाजसिर करनें चाहियें" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "लिडिया का बादशाह कारून साईरस सै हारा उस्‍समय साईरस उस्‍की प्रजा को दास बनानें लगा तब कारूननें कहा "हमको दास किस लिये बनाते हो ? हमारे नाश करनें का सीधा उपाय यह है कि हमारे शस्‍त्र लेलो, हम को उत्तमोत्तम वस्‍त्र भूषण पहननें दो, नाच रंग देखनें दो, श्रृंगार रसका अनुभव करनें दो, फ़िर थोड़े दिन मैं देखोगे कि हमारे शूरबीर अबला बन जायंगे और सर्वथा तुम सै युद्ध न कर सकेंगे" निदान ऐसाही हुआ। पृथ्‍वीराज का संयोगिता सै विवाह हुए पीछै वह इसी सुख मैं लिपट कर हिन्‍दुस्‍थान का राज खो बैठा और मुसल्मानों का राज भी अन्त मैं इसी भोग बिलास के कारण नष्‍ट हुआ"


"आप तो जिस्‍बात को कहते हैं हद्द के दरजे पर पहुँचा देते हैं भला ! पृथ्‍वीराज और मुसल्मानों की बादशाहत का लाला साहब के काम काज सै क्‍या सम्बन्ध है ? उन्‍का द्रव्‍य बहुत कर के अपनें भोग विलास मैं खर्च होता था परन्तु लाला साहब का तो परोपकार मैं होता है" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"देखिये लाला साहब का मन पहले नाच तमाशे मैं बिल्‍कुल नहीं लगता था पर इन्हों नें चार मित्रों का मेल मिलाप बढ़ानें के लिये अपना मन रोक कर उन्‍की प्रसन्‍नता की।" पंडित पुरुषोत्तमदास बोले।


"बुरे कामों के प्रसंग मात्र सै मनुष्‍य के मन मैं पाप की ग्‍लानि घटती जाती है। पहले लाला साहब को नाच रंग अच्‍छा नहीं लगता था पर अब देखते, देखते व्‍यसन हो गया। फ़िर जिन् लोगों की सोहबत सै यह व्‍यसन हुआ उन्‍को मैं लाला साहबका मित्र कैसे समझूं ? मित्रता का काम करे वह मित्र समझा जाता है अपनें मतलब के लिये लंबी, लंबी बातैं बनानें सै कोई मित्र नहीं हो सक्ता" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे" सादी नें कहा है "एक दिवस मैं मनुज की विद्या जानी जाय ! पै न भूल, मन को कपट बरसन लग न लखाय"9।।


(9तवां शनाख्त बयकरोज दर शमायल मरद ।

किता कुजाश रसीदस्त पायगाह उलूम ।

वले ज बातिनश एमन मवाशो गर्रा मशो ।

के खुब्स नफ़्स नगदर्द बसालहा मालूम ।)


"तो क्‍या आप इन् सब को स्‍वार्थपर ठैराकर इन्‍का अपमान करते हैं ?" लाला मदनमोहन नें जरा तेज होकर कहा।


"नहीं, मैं सबको एकसा नहीं ठैराता परन्तु परीक्षा हुए बिना किसी को सच्‍चा मित्र भी नहीं कह सक्ता" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। "केलीप्‍स नामी एक एथीनियन सै साइराक्‍यूस के बादशाह डिओन की बड़ी मित्रता थी। डिओन बहुधा केलीप्‍स के मकान पर जाकर महीनों रहा करता था एक बार डिओन को मालूम हुआ कि केलीप्‍स उस्‍का राज छीन्ने के लिये कुछ उद्योग कर रहा है। डिओन नें केलीप्‍स सै इस्‍का वृत्तान्त पूछा। तब वह डिओन के पांव पकड़कर रोनें लगा और देवमंदिर मैं जाकर अपनी सच्‍ची मित्रता के लिये कठिन सै कठिन सौगंध खा गया पर असल मैं यह बात झूंटी न थी। अन्त मैं केलीप्‍स नें साइराक्‍यूस पर चढ़ाई की और डिओन को महल ही मैं मरवा डाला ! इसलिये मैं कहता हूँ कि दूसरे की बातों मैं आकर अपना कर्तव्‍य भूलना बड़ी भूल की बात है"


"अच्‍छा ! फ़िर आप खुलकर क्‍यों नहीं कहते आपके निकट लाला साहब को बहकानें वाला कौन, कौन है ?" पंडितजी नें जुगत सै पूछा।


"मैं यह नहीं कह सक्‍ता जो बहकाते होंगे; अपनें जीमैं आप समझते होंगे मुझको लाला साहब के फ़ायदे सै काम है और लोगों के जी दुखानें सै कुछ काम नहीं है। मनुस्‍मृति मैं कहा है "सत्‍य कहहु अरु प्रिय कहहु अप्रिय सत्‍य न भाख ।। प्रियहु असत्‍य न बोलिये धर्म्म सनातन राख।"10


(10सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।।


प्रियं च नानृतं ब्रूया देशधर्मस्सनातन: ।।)


"इस लिये मैं इस्‍समय इतना ही कहना उचित समझता हूँ" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।


और इस्पर थोड़ी देर सब चुप रहे।


प्रकरण-6 : भले बुरे की पहचान


धर्म्म, अर्थ शुभ कहत कोउ काम, अर्थ कहिं आन


कहत धर्म्म कोउ अर्थ कोउ तीनहुं मिल शुभ जान11


मनुस्मृति।


(11धर्म्मार्थाकुच्येते श्रेय: कामर्थों धर्म एव च ।।


अर्थ एवेह वा श्रेय स्विवर्ग इति तू स्थिति: ।।)


"आप के कहनें मूजब किसी आदमी की बातों सै उस्‍का स्‍वभाव नहीं जाना जाता फ़िर उस्‍का स्‍वभाव पहचान्‍नें के लिये क्‍या उपाय करैं ?" लाला मदनमोहननें तर्क की।


"उपाय करनें की कुछ जरुरत नहीं है, समय पाकर सब अपनें आप खुल जाता है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "मनुष्‍य के मन मैं ईश्‍वरनें अनेक प्रकार की वृत्ति उत्‍पन्‍न की हैं जिन्‍मैं परोपकारकी इच्‍छा, भक्ति और न्‍याय परता धर्म्‍मप्रवृत्ति मैं गिनी जाती हैं; दृष्‍टांत और अनुमानादि के द्वारा उचित अनुचित कामों की विवेचना, पदार्थज्ञान, और बिचारशक्ति का नाम बुद्धिबृत्ति है। बिना बिचारे अनेकबार के देखनें, सुन्‍नें आदि सै जिस काम मैं मन की प्रबृत्ति हो, उसै आनुसंगिक प्रवृत्ति कहते हैं। काम, सन्तानस्‍नेह, संग्रह करनें की लालसा, जिघांसा और आत्‍मसुख की अभिरुचि इत्‍यादि निकृष्‍ट प्रवृत्ति मैं शामिल हैं और इन् सब के अविरोध सै जो काम किया जाय वह ईश्वर के नियमानुसार समझा जाता है परन्तु किसी काम मैं दो बृत्तियों का विरोध किसी तरह न मिट सके तो वहां ज़रूरत के लायक आनुसंगिक प्रबृत्ति और निकृष्‍ट प्रबृत्ति को धर्मप्रबृत्ति और बुद्धि बृत्ति सै दबा देना चाहिये जैसे श्रीरामचन्‍द्रजी नें राज पाट छोड़ कर बन मैं जानें सै धर्म्म प्रबृत्ति को उत्तेजित किया था।"


"यह तो सवाल और जवाब और हुआ मैंनें आपसै मनुष्‍य का स्‍वभाव पहिचान्‍नें की राय पूछी थी आप बीच मैं मन की बृत्तियों का हाल कहनें लगे" लाला मदनमोहन नें कहा।


"इसी सै आगे चलकर मनुष्‍य के स्‍वभाव पहचान्‍नें की रीति मालूम होगी-"


"पर आप तो काम सन्‍तानस्‍नेह आदि के अविरोध सै भक्ति और परोपकारादि करनें के लिये कहते हैं और शास्‍त्रों मैं काम, क्रोध, लोभ, मोहादिक की बारम्बार निन्‍दा की है फ़िर आप का कहना ईश्‍वर के नियमानुसार कैसै हो सक्ता है ?" पंडित पुरूषोत्तमदास बीच मैं बोल उठे।


"मैं पहले कह चुका हूँ कि धर्म्मप्रबृत्ति और निकृष्‍टप्रबृत्ति मैं विरोध हो वहां ज़रूरत के लायक धर्म्मप्रबृत्ति को प्रबल मान्ना चाहिये परन्तु धर्म्मप्रबृत्ति और बुद्धिप्रबृत्ति का बचाव किए पीछै भी निकृष्‍टप्रबृत्ति का त्‍याग किया जायगा तो ईश्‍वर की यह रचना सर्वथा निरर्थक ठैरेगी पर ईश्‍वर का कोई काम निरर्थक नहीं है। मनुष्‍य निकृष्‍टप्रबृत्ति के बस होकर धर्म्मप्रबृत्ति और बुद्धिबृत्ति की रोक नहीं मान्‍ता इसी सै शास्‍त्र मैं बारम्‍बार उस्‍का निषेध किया है। परन्तु धर्म्मप्रबृत्ति और बुद्धि को मुख्‍य मानें पीछै उचित रीति सै निकृष्‍टप्रबृत्ति का आचरण किया जाये तो गृहस्‍थ के लिये दूषित नहीं हो सक्ता। हां उस्‍का नियम उल्‍लंघन कर किसी एक बृत्ति की प्रबलता सै और, और बृत्तियों के विपरीत आचरण कर कोई दु:ख पावै तो इस्‍मैं किसी बस नहीं। सबसै मुख्‍य धर्म्मप्रबृत्ति है परन्तु उस्‍मैं भी जबतक और बृत्तियों के हक़ की रक्षा न की जायगी अनेक तरह के बिगाड़ होनें की सम्‍भावना बनी रहैगी।"


"मुझको आपकी यह बात बिल्कुल अनोखी मालूम होती है भला परोपकारादि शुभ कामों का परिणाम कैसै बुरा हो सक्‍ता है ?" पंडित पुरुषोत्तमदास नें कहा।


"जैसे अन्‍न प्राणाधार है परन्तु अति भोजन सै रोग उत्‍पन्‍न होता है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "देखिये परोपकार की इच्‍छा ही अत्‍यन्‍त उपकारी है परन्तु हद्द सै आगे बढ़नें पर वह भी फ़िजूलखर्ची समझी जायगी और अपनें कुटुंब परवारादि का सुख नष्‍ट हो जायगा जो आलसी अथवा अधर्म्मियों की सहायता की तो उस्‍सै संसार मैं आलस्‍य और पाप की बृद्धि होगी इसी तरह कुपात्र मैं भक्ति होनें सै लोक, परलोक दोनों नष्‍ट हो जायंगे। न्‍यायपरता यद्यपि सब बृत्तियों को समान रखनें वाली है परन्तु इस्‍की अधिकता सै भी मनुष्‍य के स्‍वभाव मैं मिलनसारी नहीं रहती, क्षमा नहीं रहती। जब बुद्धि बृत्ति के कारण किसी वस्‍तु के बिचार मैं मन अत्‍यन्‍त लग जायगा तो और जान्‍नें लायक पदार्थों की अज्ञानता बनी रहैगी मन को अत्‍यन्‍त परिश्रम होनें सै वह निर्बल हो जायगा और शरीर का परिश्रम बिल्कुल न होनें के कारण शरीर भी बलहीन हो जायगा। आनुसंगिक प्रबृत्ति के प्रबल होनें सै जैसा संग होगा वैसा रंग तुरत लग जाया करेगा। काम की प्रबलता सै समय असमय और स्‍वस्‍त्री परस्‍त्री आदि का कुछ बिचार न रहैगा। संतानस्‍नेह की बृत्ति बढ़ गई तो उस्‍के लिये आप अधर्म्म करनें लगेगा, उस्को लाड, प्‍यार मैं रखकर उस्‍के लिये जुदे कांटे बोयेगा। संग्रह करनें की लालसा प्रबल हुई तो जोरी सै, चोरी सै, छल सै, खुशामद सै, कमानें की डिढ्या पड़ैगी और खानें खर्चनें के नाम सै जान निकल जायगी। जिघांसा बृत्ति प्रबल हुई तो छोटी, छोटी सी बातों पर अथवा खाली संदेह पर ही दूसरों का सत्‍यानाश करनें की इच्‍छा होगी और दूसरों को दंड देती बार आप दंड योग्‍य बन जायगा। आत्‍म सुख की अभिरुचि हद्द सै आगे बढ़ गई तो मन को परिश्रम के कामों सै बचानें के लिये गानें बजानें की इच्‍छा होगी, अथवा तरह, तरह के खेल तमाशे हंसी चुहल की बातें, नशेबाजी, और खुशामद मैं मन लगैगा। द्रब्‍य के बल सै बिना धर्म्म किये धर्मात्मा बना चाहैंगे, दिन रात बनाव सिंगार मैं लगे रहैंगे। अपनी मानसिक उन्‍नति करनें के बदले उन्‍नति करनें वालों सै द्रोह करैंगे, अपनी झूंटी ज़िद निबाहनें मैं सब बढ़ाई समझैंगे, अपनें फ़ायदे की बातों मैं औरों के हक़ का कुछ बिचार न करेंगे। अपनें काम निकालनें के समय आप खुशामदी बन जायंगे, द्रब्य की चाहना हुई तो उचित उपायों सै पैदा करनें के बदले जुआ, बदनी धरोहड़, रसायन, या धरी ढकी दोलत ढूंडते फिरैंगे।"


"आप तो फ़िर वोही मन की बृत्तियों का झगड़ा ले बैठे। मेरे सवाल का जवाब दीजिये या हार मानिये" लाला मदनमोहन उखता कर कहनें लगे।


"जब आप पूरी बात ही न सुनें तो मैं क्‍या जवाब दूं ? मेरा मतलब इतनें बिस्‍तार सै यह था कि बृत्तियों का सम्बन्ध मिला कर अपना कर्तव्‍य कर्म निश्‍चय करना चाहिये। किसी एक बृत्ति की प्रबलता सै और बृत्तियों का बिचार किया जायगा तो उस्‍में बहुत नुक्‍सान होगा" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे:-


"वाल्‍मीकि रामायण मैं भरत सै रामचन्‍द्र नें और महाभारत मैं नारदमुनि नें राजायुधिष्ठिर सै ये प्रश्‍न किया है "धर्महि धन, अर्थहिधरम बाधक तो कहुं नाहिं ?।। काम न करत बिगार कछु पुन इन दोउन मांहिं ?12।।"


(12कच्चिदर्थेन वा धर्म धर्मेणार्थे मथा पिवा ।।


उभी वा प्रीतिसारेण न कामेन प्रबाधसे ।।)


"बिदुरप्रजागर मैं बिदुरजी राजाधृतराष्‍ट्र सै कहते हैं धर्म अर्थ अरु काम, यथा समय सेवत जु नर ।। मिल तीनहुँ अभिराम, ताहि देत दुहुंलोक सुख ।।"13


(13योधर्म मर्थ कामं च यथा कालं निषेवते ।।


धर्मार्थ काम संयोगं सोमुत्नेहच विन्‍दति ।।)


"बिष्णु पुराण मैं कहा है "धर्म बिचारै प्रथम पुनि अर्थ, धर्म अविरोधि ।। धर्म, अर्थ बाधा रहित सेवै काम सुसोधि ।।"14


(14विबुद्धश्चिन्तयेद्धर्मं मर्थं चास्या विरोधीनम् ।।


अपीडया तयो: काम मुभयोरपि चिन्तयेत् ।।)


"रघुबंश मैं अतिथि की प्रशंसा करतीबार महाकवि कालिदास नें कहा है "निरीनीति कायरपनो केवल बल पशुधर्म्म ।। तासों उभय मिलाय इन सिद्ध किये सब कर्म्म ।।"15


(15कातर्यं केवलानीति: शौर्यंश्वापदचेष्टितम् ।।)


"हीन निकम्‍मे होत हैं बली उपद्रववान ।। तासों कीन्‍हें मित्र तिन मध्‍यम बल अनुमान16 ।।"


(16हीनान्यनुपकर्तृणि प्रवृद्धानि विकुर्वते ।।


तेन मध्यमशक्तिनी मित्राणि स्थापितान्यत:)


"चाणक्‍य मैं लिखा है "बहुत दान ते बलि बँध्‍यो मान मरो कुरुराज ।। लंपट पन रावण हत्‍यो अति वर्जित सब काज17 ।।"


(17अतिदानाद् वलिर्बद्धो नष्टो मानात् सुयोधन ।।


विनष्टो रावणो लौल्या अतिसर्वत्र वजयेत्)


"फ्रीजिया के मशहूर हकीम एपिक्‍टेट्स की सब नीति इन दो बचनों मैं समाई हुई है कि "धैर्य सै सहना" और "मध्‍यम भाव सै रहना" चाहिये।


"कुरान मैं कहा है कि "अय (लोगों) ! खाओ, पीओ परन्तु फ़िजूलखर्ची न करो18 ।।"


(18कुलू वश्रबू न ला तुस्त्रिफू)


"बृन्‍द कहता है "कारज सोई सुधर है जो करिये समभाय ।। अति बरसे बरसे बिना जों खेती कुम्‍हलाय ।।"


"अच्छा संसार मैं किसी मनुष्‍य का इसरीति पर पूरा बरताव भी आज तक हुआ है ?" बाबू बैजनाथ नें पूछा।


"क्‍यों नहीं देखिये पाईसिस्‍ट्रेट्रस नामी एथीनियन का नाम इसी कारण इतिहास मैं चमक रहा है। वह उदार होनें पर फ़िजूलखर्च न था और किसी के साथ उपकार कर के प्रत्‍युपकार नहीं चाहता था बल्कि अपनी मानवरी की भी चाह न रखता था। वह किसी दरिद्र के मरनें की खबर पाता तो उस्‍की क्रिया कर्म के लिये तत्‍काल अपनें पास सै खर्च भेज देता, किसी दरिद्र को बिपद ग्रस्थ देखता तो अपनें पास सै सहायता कर के उस्‍के दु:ख दूर करनें का उपाय करता, पर क़भी किसी मनुष्‍य को उस्‍की आवश्‍यकता सै अधिक देकर आलसी और निरूद्यमी नहीं होनें देता था। हां सब मनुष्‍यों की प्रकृति ऐसी नहीं हो सक्ती, बहुधा जिस मनुष्‍य के मन मैं जो वृत्ति प्रबल होती है वह उस्‍को खींच खांच कर अपनी ही राह पर ले जाती है जैसे एक मनुष्‍य को जंगल मैं रुपों की थैली पड़ी पावै और उस्‍समय उस्‍के आस पास कोई न हो तब संग्रह करनें की लालसा कहती है कि "इसै उठा लो" सन्‍तानस्‍नेह और आत्‍म सुख की अभिरुचि सम्‍मति देती है कि "इस काम सै हम को भी सहायता मिलेगी" न्‍याय परता कहती है कि "न अपनी प्रसन्‍नता सै यह किसी नें हमको दी न हमनें परिश्रम करके यह किसी सै पाई फ़िर इस पर हमारा क्‍या हक़ है ? और इस्‍का लेना चोरी सै क्‍या कम है ? इसै पर धन समझ कर छोड़ चलो" परोपकार की इच्‍छा कहती है कि "केवल इस्‍का छोंड़ जाना उचित नहीं, जहां तक हो सके उचित रीति सै इस्‍को इस्‍के मालिक के पास पहुँचानें का उपाय करो" अब इन् बृत्तियों सै जिस बृत्ति के अनुसार मनुष्‍य काम करे वह उसी मेल मैं गिना जाता है यदि धर्म्मप्रबृत्ति प्रबल रही तो वह मनुष्‍य अच्‍छा समझा जायगा, और इस रीति सै भले बुरे मनुष्‍यों की परीक्षा समय पाकर अपनें आप हो जायगी बल्कि अपनी बृत्तियों को पहचान कर मनुष्‍य अपनी परीक्षा भी आप कर सकेगा, राजपाट, धन दौलत, शिक्षा, स्‍वरूप, बंश मर्यादा सै भले बुरे मनुष्‍य की परीक्षा नहीं हो सक्ती। बिदुरजी नें कहा है, "उत्तमकुल आचार बिन करे प्रमाण न कोई ।। कुलहीनो आचारयुत लहे बड़ाई सोइ ।।"


प्रकरण-७ 19: सावधानी (होशयारी)

सब भूतनको तत्‍व लख कर्म योग पहिचान ।।


मनुजनके यत्‍नहि लखहिं सो पंडित गुणवान20 ।।


बिदुर प्रजागरे


(19न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाण मिति मे मति: ।।


अन्तेष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते ।।)


(20तत्वज्ञ: सर्वभूतानां योगज्ञ: सर्वकर्मणाम् ।।


उपायज्ञो मनुष्याणां नर: पंडित उच्यते ।।)


"यहां तो आप अपनें कहनें पर खुद ही पक्‍के न रहें, आपनें केलीप्‍स और डिओन का दृष्‍टांत देकर यह बात साबित की थी कि किसी की जाहिरी बातों सै उस्‍की परीक्षा नहीं हो सक्ती परन्‍तु अन्‍त मैं आप नें उसी के कामों सै उस्‍को पहचान्‍नें की राय बतलाई" बाबू बैजनाथ नें कहा।


"मैंनें केलीप्‍सके दृष्‍टांत मैं पिछले कामों सै पहली बातों का भेद खोल कर उस्‍का निज स्‍वभाव बता दिया था इसी तरह समय पाकर हर आदमी के कामों सै मन की बृत्तियों पर निगाह करकै उस्‍की भलाई बुराई पहचान्‍नें की राह बतलाई तो इस्‍सै पहली बातों सै क्‍या बिरोध हुआ ?" लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे।


"अच्‍छा ! जब आप के निकट मनुष्‍य की परीक्षा बहुत दिनों मैं उस्‍के कामों सै हो सक्ती है तो पहले कैसा बरताव रक्‍खैं ? क्या उस्‍की परीक्षा न हो जब तक उस्‍को अपनें पास न आनें दें ?" लाला मदनमोहन नें पूछा।


"नहीं, केवल संदेह सै किसी को बुरा समझना, अथवा किसी का अपमान करना सर्वथा अनुचित है परन्तु किसी की झूंटी बातों मैं आकर ठगा जाना भी मूर्खता सै खाली नहीं।" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "महाभारत मैं कहा है "मन न भरे पतियाहु जिन पतियायेहु अति नाही।। भेदी सों भय होत ही जर उखरे छिन माहिं ।।" 21


(21न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नाति विश्वसेत् ।।


विश्वासाद् भयमुत्पन्न सूलान्यपी निकृन्तति ।।)


इस्‍कारण जब तक मनुष्‍य की परीक्षा न हो साधारण बातों मैं उस्‍के जाहिरी बरताव पर दृष्टि रखनी चाहिये परन्तु जोखों के काम मैं उस्‍सै सावधान रहना चाहिये। उस्‍का दोष प्रगट होनें पर उस्‍को छोड़नें मैं संकोच न हो इस लिये अपना भेदी बना कर, उस्‍का अहसान उठाकर, अथवा किसी तरह की लिखावट और जबान सै उस्‍के बसवर्ती होकर अपनी स्‍वतन्त्रता न खोवै यद्यपि किसी, किसी के बिचार मैं छल, बल की प्रतिज्ञाओं का निबाहना आवश्‍यक नहीं है परन्तु प्रतिज्ञा भंग करनें की अपेक्षा पहले बिचार कर प्रतिज्ञा करना हर भांत अच्‍छा है"


"ऐसी सावधानी तो केवल आप लोगों ही सै हो सक्ती है जो दिन रात इन्‍हीं बातों के चारा बिचार मैं लगे रहैं" लाला मदनमोहन नें हँसकर कहा।


मैं ऐसा सावधान नहीं हूँ परन्तु हर काम के लिये सावधानी की बहुत जरुरत है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "मैं अभी मन की बृत्तियों का हाल कहक़र अच्‍छे बुरे मनुष्‍यों की पहचान बता चुका हूँ परन्तु उन मैं सै धर्म्मप्रबृत्ति की प्रबलता रखनें वाले अच्छे आदमी भी सावधानी बिना किसी काम के नहीं हैं क्‍योंकि वे बुरी बातों को अच्‍छा समझ कर धोखा खा जाते हैं आपनें सुना होगा कि हीरा और कोयला दोनों मैं कार्बोन है और उन्‍के बन्नें की रसायनिक क्रिया भी एक सी है और दोनों मैं कार्बोन रहता है केवल इतना अन्तर है हीरे मैं निरा कार्बोन जमा रहता है और कोयले मैं उस्‍की कोई खास सूरत नहीं होती जो कार्बोन जमा हुआ, दृढ़ रहनें सै बहुत कठोर, स्‍वच्‍छ, स्‍वेत और चमकदार होकर हीरा कहलाता है वही कार्बोन परमाणुओं के फैल फुट और उलट पुलट होनें के कारण काला, झिर्झिरा, बोदा और एक सूरत मैं र‍हकर कोयला कहलाता है ! येही भेद अच्‍छे मनुष्‍यों मैं और अच्‍छी प्रकृतिवाले सावधान मनुष्यों मैं है कोयला बहुतसी जहरीली और दुर्गंधित हवाओं को सोख लेता है अपनें पास की चीजों को गलनें सड़नें की हानि सै बचाता है। और अमोनिया इत्‍यादि के द्वारा वनस्‍पति को फ़ायदा पहुँचाता है इसी तरह अच्‍छे आदमी दुष्‍कर्मों सै बचते हैं परन्तु सावधानी का योग मिले बिना हीरा की तरह कीमती नहीं हो सक्ते"


"मुझे तो यह बातें मन: कल्पित मालूम होती हैं क्‍योंकि संसार के बरताव सै इन्‍की कुछ बिध नहीं मिल्‍ती संसार मैं धनवान् कुपढ़, दरिद्री, पंडित, पापी सुखी, धर्मात्‍मा दुखी, असावधान अधिकारी, सावधान आज्ञाकारी, भी देखनें में आते हैं" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"इस्‍के कई कारण हैं" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "मैं पहले कह चुका हूँ कि ईश्‍वर के नियमानुसार मनुष्‍य जिस विषय मैं भूल करता है बहुधा उस्‍को उसी विषय मैं दंड मिलता है। जो बिद्वान दरिद्री मालूम होतें हैं वह अपनी विद्या मैं निपुण हैं परन्तु सांसारिक व्‍यवहार नहीं जान्‍ते अथवा जान बूझ कर उस्‍के अनुसार नही बरतते। इसी तरह जो कुपढ़ धनवान दिखाई देते हैं वह विद्या नहीं पढ़े परन्तु द्रव्‍योपार्जन करनें और उस्‍के रक्षा करनें की रीति जान्‍ते हैं। बहुदा धनवान रोगी होते हैं और गरीब नैरोग्‍य रहते हैं इस्‍का यह कारण है कि धनवान द्रव्‍योपार्जन करनें की रीति जान्‍ते हैं परन्तु शरीर की रक्षा उचित रीति सै नहीं करते और गरीबों की शरीर रक्षा उचित रीति सै बन् जाती है परन्तु वे धनवान होनें की रीति नहीं जान्‍ते। इसी तरह जहां जिस बात की कसर होती है वहां उसी चीज की कमी दिखाई देती है। परन्तु कहीं, कहीं प्रकृति के विपरीत पापी सुखी, धर्मात्‍मा दुखी, असावधान अधिकारी, सावधान आज्ञाकारी दिखाई देते हैं। इस्‍के दो कारण हैं। एक यह है कि संसार की बर्तमान दशा के साथ मनुष्‍य का बड़ा दृढ़ सम्बन्ध रहता है इस लिये क़भी, क़भी औरों के हेतु उस्‍का विपरीत भाव हो जाता है जैसे मा बाप कें विरसे सै द्रव्‍य, अधिकार या ऋण रोगादि मिल्‍ते हैं, अथवा किसी और की धरी हुई दौलत किसी और के हाथ लगजानें सै उस्‍का मालिक बन बैठता है, अथवा किसी अमीर की उदारता सै कोई नालायक धनवान बन जाता है, अथवा किसी पास पड़ौसी की गफ़लत सै अपना सामान जल जाता है, अथवा किसी दयालु बिद्वान के हितकारी उपदेशों सै कुपढ़ मनुष्‍य विद्या का लाभ ले सक्ते हैं, अथवा किसी बलवान लुटेरे की लूट मार सै कोई गृहस्‍थ बेसबव धन और तन्दुरस्‍ती खो बैठता है और ये सब बात लोगों के हक़ मैं अनायास होती रहती हैं इसलिये इनको सब लोग प्रारब्‍ध फल मान्‍ते हैं परन्तु ऐसे प्रारब्‍धी लोगों मैं जिस्को कोई वस्‍तु अनायास मिल गई पर उस्‍के स्थिर रखनें के लिये उस्‍के लायक कोई बृत्ति अथवा सब बृत्तियों की सहायता स्‍वरूप सावधानी ईश्‍वर नें नहीं दी तो वह उसचीज़ को अन्त मैं अपनी स्‍वाभाविक बृत्तियों की प्रबलता सै वह वस्तु अधिक हुई तो उस्मैं उन बृत्तियों का नुक्सान गुप्‍त रहक़र समय पर ऐसे प्रगट होता है जैसे बचपन की बेमालूम चोट बड़ी अवस्‍था मैं शरीर को निर्बल पाकर अचानक कसक उठे, या शतरंज मैं किसी चाल की भूल का असर दसबीस चाल पीछै मालूम हो। पर ईश्‍वर की कृपा सै किसी को कोई बस्‍तु मिलती है तो उस्‍के साथ ही उस्‍के लायक बुद्धि भी मिल जाती है या ईश्‍वर की कृपा सैकिसी कायम मुकाम (प्रतिनिधि) वगैरे की सहायता पाकर उस्‍के ठीक, ठीक‍ काम चलनें का बानक बन जाता है जिस्‍सै वह नियम निभे जाते हैं परन्तु ईश्‍वर के नियम मनुष्‍य सै किसी तरह नहीं टूट सक्ते।"


"मनुष्‍य क्‍या मैं तो जान्‍ता हूँ ईश्‍वरसे भी नहीं टूट सक्‍ते" बाबू बैजनाथनें कहा।


"ऐसा बिचारना अनुचित है ईश्‍वर को सब सामर्थ्‍य है देखो प्रकृतिका यह नियम सब जगह एकसा देखा जाता है कि गर्म होनें से हरेक चीज फैलती है और ठंडी होनें सै सिमट जाती है यही नियम 212 डिक्री तक जल के लिये भी है परन्तु जब जल बहुत ठंडा होकर 32 डिक्री पर बर्फ बन्‍ने लगता है तो वह ठंड सै सिमटनें केबदले फैलता जाता और हल्‍का होनें के कारण पानी के ऊपर तैरता रहता है इसमैं जल जंतुओंकी प्राणरक्षा के लिये यह साधारण नियम बदल दिया गया ऐसी बातों सै उस्‍की अपरिमित शक्ति का पूरा प्रमाण मिलता है उसनें मनुष्‍य के मानसिक भावादि सै संसार के बहुतसे कामोंका गुप्त सम्बन्ध इस तरह मिला रक्‍खा है कि जिस्के आभास मात्र सै अपना चित्त चकित होजाता है। यद्यपि ईश्‍वर के ऐसे बहुतसे कामोंकी पूरी थाह मनुष्‍य की तुच्‍छ बुद्धि को नहीं मिली तथापि उसनें मनुष्य को बुद्धि दी है। इस लिये यथाशक्ति उस्‍के नियमों का बिचार करना, उन्‍के अनुसार बरतना और बिपरीत भावका कारण ढूंढना उस्‍को उचित है, सो मैं अपनी तुच्‍छ बुद्धि के अनुसार एक कारण पहले कह चुकाहूँ। दूसरा यह मालूम होता है कि जैसे तारों की छांह चंद्रमा की चांदनी मैं और चंद्रमाकी चांदनी सूर्य्य की धूपमैं मिलकर अपनें आप उस्‍का तेज बढ़ानें लगती है इसी तरह बहुत उन्‍नति मैं साधारण उन्नति अपनें आप मिल जाती है। जबतक दो मनुष्‍यों का अथवा दो देशों का बल बराबर रहता है कोई किसी को नहीं हरा सक्ता, परन्तु जब एक उन्‍नतिशाली होता है, आकर्षणशक्ति के नियमानुसार दूसरे की समृद्धि अपनें आप उसकी तरफ़को खिचनें लगती है देखिये जबतक हिन्दुस्थान मैं और देशों सै बड़कर मनुष्‍य के लिये वस्‍त्र और सब तरह के सुख की सामग्री तैयार होती थी, रक्षाके उपाय ठीक, ठीक बनरहे थे, हिन्दुस्थान का वैभव प्रतिदिन बढ़ता जाता था परन्तु जबसै हिन्दुस्थान का एका टूटा और और देशोंमैं उन्‍नति हुई बाफ और बिजली आदि कलोंके द्वारा हिन्दुस्थान की अपेक्षा थोड़े खर्च थोड़ी महनत, और थोड़े समय मैं सब काम होनें लगा हिन्दुस्थान की घटती के दिन आगए; जब तक हिन्दुस्थान इन बातों मैं और देशों की बराबर उन्‍नति न करेगा यह घाटा क़भी पूरा न होगा। हिन्दुस्थान की भूमि मैं ईश्‍वर की कृपा सै उन्‍नति करनें के लायक सब सामान बहुतायतसे मौजूद हैं केवल नदियों के पानी ही सै बहुत तरह की कलैं चल सक्ती हैं परन्तु हाथ हिलाये बिना अपनें आप ग्रास मुख मैं नहीं जाता नई, नई युक्तियों का उपयोग किये बिना काम नहीं चलता। पर इन बातों सै मेरा यह मतलब हरगिज नहीं है कि पुरानी, पुरानी सब बातैं बुरी और नई, नई सब बातें एकदम अच्‍छी समझ ली जायं। मैंनें यह दृष्‍टांत केवल इस बिचार सै दिया है कि अधिकार और व्‍यापारादि के कामों मैं कोई, कोई युक्ति किसी समय कामकी होती है वह भी कालान्‍तर मैं पुरानी रीति भांत पलटजानें पर अथवा किसी और तरह की सूधी राह से निकल आनें पर अपनें आप निरर्थक हो जाती है और संसार के सब कामों का सम्बन्ध परस्‍पर ऐसा मिला रहता है कि एक की उन्‍नति अवनति का असर दूसरों पर तत्‍काल हो जाता है इस कारण एक सावधानी बिना मनकी बृत्तियों के ठीक होनें पर भी जमानें के पीछै रह जानें सै क़भी, क़भी अपनें आप अवनति हो जाती है और इन्हीं कारणों सै कहीं, कहीं प्रकृति के विपरीत भाव दिखाई देता है।"


"इस्‍सै तो यह बात निकली की हिन्दुस्थान मैं इस्‍समय कोई सावधान नहीं है" मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।


"नहीं यह बात हरगिज नहीं है, परन्तु सावधानी का फल प्रसंग के अनुसार अलग, अलग होता है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "तुम अच्‍छी तरह बिचार कर देखोगे तो मालूम हो जायगा कि हरेक समाजका मुखिया कोई निरा विद्वान अथवा धनवान नहीं होता, बल्कि बहुधा सावधान मनुष्‍य होता है और जो खुशी बड़े राजाओंको अपनें बराबर वालों मैं प्रतिष्‍ठा लाभ सै होती है वही एक गरीब सै गरीब लकड़हारे को भी अपनें बराबर वालोंमैं इज्‍जत मिलनें सै होती है और उन्‍नति का प्रसंग हो तो वह धीरै, धीरै उन्‍नति भी करता जाता है परन्तु इन दोनों की उन्‍नतिका फल बराबर नहीं होता क्‍योंकि दोनोंको उन्‍नति करनें के साधन एकसे नहीं मिलते। मनुष्‍य जिन कामोंमैं सदैव लगा रहता है अथवा जिन बातों का बारबार अनुभव करता है बहुधा उन्‍हीं कामोंमैं उस्‍की बुद्धि दौड़ती है और किसी सावधान मनुष्‍यकी बुद्धि किसी अनूठे काममैं दौड़ी भी तो उसै काममैं लानें के लिये बहुत करकै मौका नहीं मिलता। देशकी उन्‍नति अवनतिका आधार वहां के निवासियों की प्रकृति पर है। सब देशोंमैं सावधान और असावधान मनुष्‍य र‍हते हैं परन्तु जिस देशके बहुत मनुष्‍य सावधान और उद्योगी होते हैं उस्‍की उन्‍नति होती जाती है और जिस देशमैं असावधान और कमकस विशेष होते हैं उस्‍की अवनति होती जाती है। हिन्दुस्थान मैं इस समय और देशों की अपेक्षा सच्‍चे सावधान बहुत कम हैं और जो हैं वे द्रव्‍य की असंगति सै, अथवा द्रव्यवानों की अज्ञानता सै, अथवा उपयोगी पदार्थों की अप्राप्तिसै, अथवा नई, नई युक्तियों के अनुभव करनें की कठिनाइयोंसै, निरर्थक से हो रहे हैं और उन्‍की सावधानता बनके फूलोंकी तरह कुछ उपयोग किये बिना बृथा नष्ट हो जाती है परन्तु हिन्दुस्थान मैं इस समय कोई सावधान न हो यह बात हर‍गिज नहीं है"


"मेरे जान तो आजकल हिन्दुस्थान मैं बराबर उन्‍नति होती जाती है, जगह, जगह पढ़नें लिखनें की चर्चा सुनाई देती है, और लोग अपना हक़ पहचान्नें लगे हैं" बाबू बैजनाथनें कहा।


"इन सब बातों मैं बहुत सी स्‍वार्थपरता और बहुत सी अज्ञानता मिली हुई है परन्तु हकीकत मैं देशोन्‍नति बहुत थोड़ी है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "जो लोग पढ़ते हैं वे अपनें बाप दादोंका रोजगार छोड़कर केवल नौकरींके लिये पढ़ते हैं और जो देशोन्‍नतिके हेतु चर्चा करते हैं उनका लक्ष अच्‍छा नहीं है वे थोथी बातों पर बहुत हल्‍ला मचाते हैं परन्तु विद्याकी उन्‍नति, कलोंके प्रचार, पृथ्‍वीके पैदावार बढ़ानें की नई, नई युक्ति और लाभदायक व्‍यापारादि आवश्‍यक बातों पर जैसा चाहिये ध्‍यान नहीं देते जिस्‍सै अपनें यहांका घाटा पूरा हो। मैं पहले कह चुका हूँ कि जिन मनुष्‍यों की जो बृत्तियाँ प्रबल होती हैं वह उनको खींच खांचकर उसी तरफ़ ले जाती हैं सो देख लीजिए कि हिन्दुस्थान मैं इतनें दिन सै देशोन्‍नति चर्चा हो रही है परन्तु अबतक कुछ उन्‍नति नहीं हुई और फ्रांसवालों को जर्मनीवालों सै हारे अभी पूरे दस बर्ष नहीं हुए जिस्‍मैं फ्रांसवालों नें सच्ची सावधानी के कारण ऐसी उन्‍नति करली कि वे आज सब सुधरी हुई बलायतों सै आगै दिखाई देते हैं"


"अच्‍छा ! आपके निकट सावधानी की पहचान क्‍या है ?" लाला मदनमोहन नैं पूछा।


"सुनिये" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "जिस तरह पांच, सात गोलियें बराबर बराबर चुन्दी जायं और उन्‍मैं सै सिरे की एक गोली को हाथ सै धक्‍का देदिया जाय तो हाथ का बल, पृथ्वी की आकर्षणशक्ति, हवा आदि सब कार्य कारणों के ठीक, ठीक जान्‍नेसै आपस्‍मैं टकरा कर अन्त की गोली कितनी दूर लुढ़कैगी इस्‍का अन्दाज़ हो सक्ता है इसी तरह मनुष्यों की प्रकृति और पदार्थों की जुदी, जुदी शक्ति का परस्‍पर सम्बन्ध बिचार कर दूर और पास की हरेक बात का ठीक परिणाम समझ लेना पूरी सावधानी है परन्तु इन बातों को जान्‍नें के लिये अभी बहुत से साधनों की कसर है और किसी समय यह सब साधन पा कर एक मनुष्‍य बहुत दूर, दूर की बातों का परिणाम निकाल सकै यह बात असम्‍भव मालूम होती है तथापि अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार जो मनुष्‍य इस राह पर चलै वह अपनें समाज मैं साधारण रीति सै सावधान समझा जाता है। एक मोमबत्ती एक तरफ़ सै जल्‍ती हो और दूसरी दोनों तरफ़ जलती हो तो उस्‍के बर्तमान प्रकाश पर न भूलना परिणाम पर दृष्टि करना सावधानी का साधारण काम है और इसी सै सावधानता पहचानी जाती है।"


"आपनें अपनी सावधानता जतानें के लिये इतना परिश्रम करके सावधानी का वर्णन किया इस लिये मैं आपका बहुत उपकार मान्ता हूँ" लाला मदनमोहन नें हंस कर कहा।


"वाजबी बात कहनें पर मुझको आप सै ये तो उम्‍मेद ही थी।" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया, और लाला मदनमोहन सै रुख़सत होकर अपनें मकान को रवानें हुए।


प्रकरण-8 : सबमैं हां (!)


एकै साधे सब सधै सब साधे सब जाहिं


जो गहि सींचै मूलकों फूलैं फलैं अघाहिं


कबीर।


"लाला ब्रजकिशोर बातें बनानेंमैं बड़े होशियार हैं परन्तु आपनें भी इस्‍समय तो उन्‍को ऐसा मंत्र सुनाया कि वह बंद ही होगए" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।


"मुझको तो उन्‍की लंबी चोड़ी बातोंपर लुक्‍मानकी वह कहावत याद आती है जिस्‍मैं एक पहाड़के भीतरसै बड़ी गड़-गड़ाहट हुए पीछै छोटीसी मूसी निकली थी" मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा।


"उन्‍की बातचीतमैं एक बड़ा ऐब यह था कि वह बीचमैं दूसरे को बोलनें का समय बहुत कम देते थे जिस्‍सै उन्‍की बात अपनें आप फीकी मालूम होनें लगती थी" बाबू बैजनाथनें कहा।


"क्‍या करें ? वह वकील हैं और उन्‍की जीविका इन्हीं बातों सै है" हकीम अहमदहुसेन बोले।


"उन् पर क्‍या है अपना, अपना काम बनानें मैं सब ही एकसे दिखाई देते हैं" पंडित पुरुषोत्तमदासनें कहा।


"देखिये सवेरे वह काचोंकी खरीदारी पर इतना झगड़ा करते थे परन्तु मन मैं कायल हो गए इस्‍सै इस्‍समय उन्‍का नाम भी न लिया" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें याद दिलाई।


"हां; अच्‍छी याद दिलाई, तुम तीसरे पहर मिस्‍टर ब्राइट के पास गये थे ? काचोंकी कीमत क्‍या ठैरी ?" लाला मदनमोहन नें शिंभूदयाल सै पूछा।


"आज मदरसे सै आनें मैं देर हो गई इस्सै नहीं जासका" मास्‍टर शिंभूदयाल नें जवाब दिया। परन्तु यह उस्‍की बनावट थी असल मैं मिस्‍टर ब्राइट नें लाला मदनमोहन का भेद जान्‍नें के लिये सौदा अटका रक्‍खा था।


"मिस्‍टर रसलको दस हजार रुपे भेजनें हैं उन्का बंदोबस्त हो गया।" मुन्शी चुननीलाल नें पूछा।


"हां लाला जवाहरलाल सै कह दिया है परन्तु मास्‍टर साहब भी तो बंदोबस्‍त करनें कहते थे इन्होंनें क्‍या किया ?" लाला मदनमोहन नें उलट कर पूछा।


"मैंनें एक, दो जगह चर्चा की है पर पर अब तक किसी सै पकावट नहीं हुई" मास्‍टर शिंभूदयाल नें जवाब दिया।


"खैर ! यह बातैं तो हुआ ही करैंगी मगर यह लखनऊ का तायफा शाम सै हाजिर है उस्‍के वास्‍तै क्‍या हुक्‍म होता है ?" हकीम अहमदहुसेन नें पूछा।


"अच्‍छा ! उस्‍को बुलवाओ पर उस्‍के गानें मैं समा न बँधा तो आपको वह शर्त पूरी करनी पड़ेगी" लाला मदनमोहन नें मुस्कराकर कहा।


इस्‍पर लखनऊ का तायफा मुजरे के लिये खड़ा हुआ और उस्‍नें मीठी आवाज़ सै तालसुर मिलाकर सोरठ गाना शुरू किया।


निस्सन्देह उस्‍का गाना अच्‍छा था परन्तु पंडितजी अपनी अभिज्ञता जतानें के लिये बे समझे बूझे लट्टू हुए जाते थे। समझनेंवालों का सिर मोके पर अपनें आप हिल जाता है परन्तु पंडितजी का सिर तो इस्‍समय मतवालों की तरह घूम रहा था। मास्‍टर शिंभूदयाल को दुपहर का बदला लेनें के लिये यह समय सब सै अच्‍छा मिला। उस्‍नें पंडितजी को आसामी बनानें के हेतु और लोगों सै इशारों मैं सलाह कर ली और पंडितजी का मन बढ़ानें के लिये पहलै सब मिलकर गानें की वाह, वाह करनें लगे अन्त मैं एकनें कहा "क्‍या स्‍यामकल्‍याण है" दूसरेनें कहा "नहीं, ईमन है" तीसरे नें कहा "वाह झंझौटी है" चौथा बोला "देस है" इस्‍पर सुनारी लड़ाई होनें लगी।


"पंडितजी को सब सै अधिक आनंद आरहा है इस लिये इन्‍सै पूछना चाहिये" लाला मदनमोहन नें झगड़ा मिटानें के मिस सै कहा।


"हां, हां पंडितजी नें दिन मैं अपनी विद्या के बल सै बेदेखे भाले करेला बता दिया था सो अब इस प्रत्‍यक्ष बात के बतानें मैं क्‍या संदेह है ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें शै दी और सब लोग पंडितजी के मुंहकी तरफ़ देखनें लगे।


"शास्‍त्र सै कोई बात बाहर नहीं है जब हम सूर्य चन्‍द्रमा का ग्रहण पहले सै बता देते हैं तो पृथ्वी पर की कोई बात बतानी हमको क्‍या कठिन है ?" पंडित पुरुषोत्तमदास नें बात उड़ानें के वास्‍तै कहा।


"तो आप रेल और तार का हाल भी अच्‍छी तरह जान्‍ते होंगे ?" बाबू बैजनाथ नें पूछा।


"मैं जान्‍ता हूँ कि इन सब का प्रचार पहले हो चुका है क्‍योंकि "रेल पेल" और "एकतार" होनें की कहावत अपनें यहां बहुत दिन सै चली आती है" पंडितजी नें जवाब दिया।


"अच्‍छा महाराज ! रेल शब्‍द का अर्थ क्‍या है ? और यह कैसे चल्‍ती है ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें पूछा।


"भला यह बात भी कुछ पूछनें के लायक है ! जिस तरह पानी की रेल सब चीजों को बहा ले जाती है उसी तरह यह रेल भी सब चीजों को घसीट ले जाती है इस वास्तै इस्‍को लोग रेल कहते हैं और रेल धुएँ के जोर सै चल्ती है यह बात तो छोटे, छोटे बच्‍चे भी जान्‍ते हैं" 22


(22देशभाषा मैं बाफ और बिजली की शक्ति के वृत्तान्त न प्रकाशित होनें का यह फल है कि अब तक सर्व -साधारण रेल और तार का भेद कुछ नहीं जान्ते।)


पंडित पुरुषोत्तमदास नें जवाब दिया, और इस्‍पर सब आपस मैं एक दूसरे की तरफ़ देखकर मुस्‍करानें लगे।


"और तार ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें रही सही कलई खोलनें के वास्‍ते पूछा।


"इस्‍मैं कुछ योग विद्या की कला मालूम होती है।"23


(23गैस से भरा हुआ उड़नें का गुबारा)


इतनी बात कह कर पंडित पुरुषोत्तमदास चुप होते थे परन्तु लोगों को मुस्‍कराते देखकर अपनी भूल सुधारनें के लिये झट पट बोल उठे कि "कदाचित् योगविद्या न होगी तो तार भीतर सै पोला होगा जिस्‍मैं होकर आवाज जाती होगी या उस्‍के भीतर चिट्ठी पहुँचानें के लिये डोर बंध रही होगी"


"क्‍यों दयालु ! बैलून कैसा होता है ?" बाबू बैजनाथ नें पूछा।


"हम सब बातें जान्‍ते हैं परन्तु तुम हमारी परीक्षा लेनें के वास्‍तै पूछते हो इस्‍सै हम कुछ नहीं बताते" पंडितजी नें अपना पीछा छुड़ानें के लिये कहा। परन्तु शिंभूदयाल नें सब को जता कर झूंठे छिपाव सै इशारे मैं पंडितजी को उड़नें की चीज बताई इस्‍पर पंडितजी तत्‍काल बोल उठे "हम को परीक्षा देनें की क्‍या जरुरत है ? परन्तु इस समय न बतावेंगे तो लोग बहाना समझैंगे। बैलून पतंग को कहते हैं।"


"वाह, वा, वाह ! पंडितजी नें तो हद कर दी इस कलि काल मैं ऐसी विद्या किसी को कहां आ सक्‍ती है !" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"हां पंडितजी महाराज ! हुलक किस जानवर को कहते हैं ?" हकीम अहमदहुसेन नें नया नाम बना कर पूछा।


"एक चौपाया है" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें बहुत धीरी आवज सै पंडितजी को सुना कर शिंभूदयाल के कान मैं कहा।


"और बिना परों के उड़ता भी तो है" मास्‍टर शिंभूदयाल नें उसी तरह चुन्‍नीलाल को जवाब दिया।


"चलो चुप रहो देखें पंडितजी क्‍या कहते हैं" चुन्‍नीलाल नें धीरे से कहा।


"जो तुम को हमारी परीक्षा ही लेनी है तो लो, सुनो हुलक एक चतुष्‍पद जंतु विशेष है और बिना पंखों के उड़ सक्‍ता है" पंडितजी नें सब को सुनाकर कहा।


"यह तो आपनें बहुत पहुँच कर कहा परन्तु उस्‍की शक्‍ल बताइये" हकीमजी हुज्‍जत करनें लगे।


"जो शक्‍ल ही देखनी हो तो यह रही" बाबू बैजनाथ नें मेजपर सै एक छोटासा कांच उठाकर पंडितजी के सामनें कर दिया।


इस्‍पर सब लोग खिल खिलाकर हँस पड़े।


"यह सब बातें तो आपनें बता दीं परन्तु इस रागका नाम न बताया" लाला मदनमोहन नें हँसी थमे पीछै कहा।


"इस्‍समय मेरा चित्त ठिकान नहीं है मुझको क्षमा करो" पंडित पुरुषोत्तमदास नें हार मान कर कहा।


"बस महाराज ! आपको तो करेला ही करेला बताना आता है और कुछ भी नहीं आता" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।


"नहीं साहब ! पंडितजी अपनी विद्यामैं एक ही हैं" रेल और तारकी हाल क्‍या ठीक, ठीक बताया है !" "और बैलूनमैं तो आप ही उड़ चले !" "हुलककी सूरत भी तो आप ही नें दिखाई थी !" "और सब सै बढ़कर राग का रस भी तो इनही नें लिया है" चारों तरफ़ लोग अपनी अपनी कहनें लगे।


पंडित जी इन लोगोंकी बातैं सुन, सुनकर लज्‍जाके मारे धरतीमैं गढ़े चले जाते थे पर कुछ बोल नहीं सक्ते थे।


आखिर यह दिल्‍लगी पूरी हुई तब बाबू बैजनाथ लाला मदनमोहनको अलग ले जाकर कहनें लगे "मैंनें सुना है कि लाला ब्रजकिशोर दो, चार आदमियों को पक्‍का कर कै यहां नए सिरे सै कालिज स्‍थापना करनें के लिये कुछ उद्योग कर रहे हैं यद्यपि सब लोगोंके निरुत्‍साह सै ब्रजकिशोर के कृतकार्य होनें की कुछ आशा नहीं है यद्यपि लोगों को देशोपकारी बातौं मैं अपनी रुचि दिखानें और अग्रसर बन्‍नें के लिये आप इस्‍मैं ज़रूर शामिल हो जायं अख़बारों मैं धूम मैं मचा दूंगा। यह समय कोरी बातोंमैं नाम निकालनें का आ गया है क्‍योंकि ब्रजकिशोर नामवरी नहीं चाहते इसी लिये मैं चलकर आपकौ चेतानें के लिये इस्‍समय आप के पास आया था"


"आप‍ की बड़ी महरबानी हुई। मैं आपके उपकारोंका बदला किसी तरह नहीं दे सक्‍ता। किसीनें सच कहा है "हितहि परायो आपनो अहित अपनपोजाय ।। बनकी ओषधि प्रिय लगत तनको दुख न सुहाय"24।।


(24परोपि हितवान् बन्धुर्बन्धु रप्यहित: पर: ।


अहितो देहजो व्याधि हिमारण्यमोषधम् ।।)


ऐसा हितकारी उपदेश आपके बिना और कौन दे सक्‍ता है" लाला मदनमोहननें बड़ी प्रीति सै उन्‍का हाथ पकड़कर कहा।


और इसी तरह अनेक प्रकार की बातोंमैं बहुत रात चली गई, तब सब लोग रुख़सत होकर अपनें, अपनें घर गए।


प्रकरण-9 : सभासद


धर्मशास्‍त्र पढ़,वेद पढ़ दुर्जन सुधरे नाहिं


गो पय मीठी प्रकृति ते, प्रकृति प्रबल सब माहिं 25


हितोपदेश।


(25न धर्म्मशास्त्रं पठतीति कारणं न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मन: ।


स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ।।)


इस्‍समय मदनमोहनके बृत्तान्‍त लिखनें सै अवकाश पाकर हम थोड़ा सा हाल लाला मदनमोहन के सभासदोंका पाठक गण को विदित करते हैं, इन्‍मैं सब सै पहले मुन्शी चुन्‍नीलाल स्‍मर्ण योग्य हैं,


मुन्शी चुन्नीलाल प्रथम ब्र‍जकिशोर के यहां दस रुपे महीनें का नौकर था। उन्‍होंनें इस्को कुछ, कुछ लिखना पढ़ना सिखाया था, उन्‍हींकी संगति मैं रहनें सै इसे कुछ सभाचातुरी आ गई थी, उन्‍हींके कारण मदनमोहन से इस्की जान पहचान हुई थी। परन्तु इस्‍के स्‍वभाव मैं चालाकी ठेठ सै थी इस्‍का मन लिखनें पढ़नें मैं कम लगता था पर इस्‍नें बड़ी, बड़ी पुस्‍तकों मैं सै कुछ, कुछ बातें ऐसी याद कर रक्‍खी थी कि नये आदमी के सामनें झड़ बांध देता था। स्‍वार्थ परता के सिवाय परोपकार की रुचि नाम को न थी पर जबानी जमा खर्च करनें और कागज के घोड़े दौड़ानें मैं यह बड़ा धुरंधर था। इस्‍की प्रीति अपना प्रयोजन निकालनें के लिये, और धर्म्म लोगों को ठगनें के लिये था। यह औरों सै बिवाद करनें मैं बड़ा चतुर था परन्तु इस्‍को अपना चाल चलन सुधारनें की इच्‍छा न थी। यह मनुष्‍यों का स्‍वभाव भली भांत पहचान्‍ता था, परन्तु दूर दृष्टि सै हरेक बात का परिणाम समझ लेनें की इस्‍को सामर्थ्‍य न थी। जोड़ तोड़ की बातों मैं यह इयागो (शेक्‍सपियर कृत ऑथेलो नाम का नाटक का खलनायक) का अवतार था। कणिक की नीति पर इस्‍का पूरा विश्‍वास था। किसी बड़े काम का प्रबंध करनें की इस्को शक्ति न थी परन्तु बातों मैं धरती और आकाश को एक कर देता था। इस्‍के काम निकालनें के ढंग दुनियासै निराले थे। यह अपनें मतलब की बात बहुधा ऐसे समय करता था जब दूसरा किसी और काम मैं लग रहा हो जिस्‍सै इसकी बात का अच्छी तरह बिचार न कर सके अथवा यह काम की बात करती बार कुछ, कुछ साधारण बातों की ऐसी चर्चा छेड़ देता था जिस्सै दूसरे का मन बटा रहै अथवा कोई बात रुचि के बिपरीत अंगीकार करानी होती थी तो यह अपनी बातों मैं हर तरह का बोझ इस ढबसै डाल देता था कि दूसरा इन्कार न कर सके क़भी, क़भी यह अपनी बातों को इस युक्ति सै पुष्‍ट कर जाता कि सुन्‍नें वाले तत्‍काल इस्‍का कहना मान लेते, जो काम यह अपनें स्‍वार्थ के लिये करता उस्‍का प्रयोजन सब लोगों के आगे और ही बताता था और अपनी स्‍वार्थ परता छिपानें के लिये बड़ी आना कानी सै वह बात मंजूर करता था यह अपनें बैरी की ब्याजस्‍तुति इस ढब सै करता था कि लोग इस्‍का कहना इसकी दयालुता और शुभचिन्‍तकता सै समझनें लगते थे। जिस्‍बात के सहसा प्रगट करनें मैं कुछ खटका समझता उस्‍का प्रथम इशारा कर देता था और सुन्‍नें वाले के आग्रह पर रुक, रुक कर वह बात कहता था। जोखों की बात लोगों पर ढाल कर कहता था वह अथवा शिंभूदयाल वगेरे के मुख सै कहवा दिया करता था और आप साधनें को तैयार रहता था। तुच्‍छ बातों को बढ़ा कर, बड़ी बातों को घटा कर, अपनी तरफ़ सै नोन मिर्च लगाकर, क़भी प्रसन्‍न, क़भी उदास, क़भी क्रोधित, क़भी शांत होकर यह इस रीति सै बात कहता था कि जो कहता था उस्‍की मूर्ति बन जाता था, इस्‍के मन मैं संग्रह करनें की बृत्ति सब सै प्रबल थी।


मुन्शी चुन्‍नीलाल ब्रजकिशोर के यहां नोकर था। जब अपनी चालाकी सै बहुधा मुकद्दमें वालों को उलट-पुलट समझा कर अपना हक़ ठैरा लिया करता था। स्‍टांप, तल्‍बानें वगैरे के हिसाब मैं उन लोगों को धोका दे दिया करता था बल्कि क़भी, क़भी प्रतिपक्षी सै मिल्‍कर किसी मुकद्दमेंवाले का सबूत वगैरे भी गुप चुप उस्‍को दिया करता था। ब्रजकिशोर नें ये भेद जान्‍ते ही पहले उसै समझाया फ़िर धमकाया जब इस्‍पर भी राह मैं न आया तो घर का मार्ग दिखाया। इस्‍नें पहले ही सै ब्रजकिशोर का मन देख कर लाला मदनमोहन के पास अपनी मिसल लगा ली थी। हरकिशोर को अपना सहायक बना लिया था। लाला ब्रजकिशोर के पास सै अलग होते ही लाला मदनमोहन के पास रहनें लगा।


मुन्शी चुन्‍नीलाल नें लाला मदनमोहन के स्‍वभाव को अच्‍छी तरह पहचान लिया था। लाला मदनमोहन को हाकमों की प्रसन्‍नता, लोगों की वाह, वाह, अपनें शरीर का सुख, और थोड़े ख़र्च मैं बहुत पैदा करनें के लालच के सिवाय किसी और काम मैं रुपया ख़र्च करना अच्छा नही लगता था पर रुपया पैदा करनें अथवा अपनें पास की दौलत को बचा रखनें के ठीक रस्‍ते नहीं मालूम थे इसलिये मुन्शी चुन्‍नीलाल उन्‍को उन्‍की इच्‍छानुसार बातें बनाकर खूब लूटता था।


मास्‍टर शिंभूदयाल प्रथम लाला मदनमोहन को अंग्रेजी पढ़ानें के लिए नोकर रक्खा गया था पर मदनमोहन का मन बचपन सै पढ़नें लिखनें की अपेक्षा खेल कूद मैं अधिक लगता था। शिंभूदयाल नें लिखनें पढ़नें की ताकीद की तो मदनमोहन का मन बिगड़नें लगा। मास्‍टर शिंभूदयाल खानें, पहन्‍नें, देखनें, सुन्‍नें का रसिक था और लाला मदनमोहन के पिता अंग्रेजी नहीं पढ़े थे इसलिये मदनमोहन सै मेल करनें मैं इस्‍नें हर भांत अपना लाभ समझा। पढ़ानें लिखानें के बदले मदनमोहन बालक रहा जितनें अलिफ़लैलामैं सै सोते जागते का किस्‍सा, शेक्सपियर के नाटकों मैं सै कोमडी आफ़ एर्रज़, ट्वेलफ्थनाइट, मचएडू एबाउट नथिंग, बेनजान्‍सन का एव्‍रीमैन इनहिज ह्यूमर; स्विफ्टके ड्रपीअर्सलेटर्स, गुलिबर्सट्रैवल्‍स, टेल आफ़ ए टब आदि सुनाकर हँसाया करता और इस युक्ति सै उस्‍को टोपी, रूमाल, घड़ी, छड़ी आदि का बहुधा फायदा हो जाता था। जब मदनमोहन तरुण हुआ तो अलिफ़लैला मैं सै अबुल हसन, और शम्सुल्निहार का किस्सा, शेक्सपियर के नाटकों मैं सै रोमियों ऐन्‍ड जुलियट आदि सुनाकर आदि रस का रसिक बनानें लगा और आप भी उस्‍के साथ फूलके कीड़े की तरह चैन करनें लगा, परन्तु यह सब बातें मदनमोहन के पिता के भय सै गुप्‍त होती थीं इसी सै शिंभूदयाल आदि का बहुत फायदा था वह पहाड़ी आदमियों की तरह टेढ़ी राह मैं अच्छी तरह चल सक्ता था परन्तु समभूमि पर चलनेंकी उस्‍को आदत न थी जब चुन्‍नीलाल मदनमोहन के पास आया कुछ दिन इन दोनों की बड़ी खटपट रही परन्तु अन्त मैं दोनों अपना हानि लाभ समझ कर गरम लोहे की तरह आपस मैं मिल गए। शिंभूदयाल को मदनमोहन नें सिफ़ारस करके मदरसे मैं नोकर रख दिया था इस्‍कारण वह मदनमोहन की अहसानमंदी के बहानें सै हर वक्‍त वहां रहता था।


पंडित पुरूषोत्तमदास भी बचपन सै लाला मदनमोहन के पास आते जाते थे। इन्कों लाला मदनमोहन के यहां सै इन्के स्‍वरूपानुरूप अच्‍छा लाभ हो जाता था परन्तु इन्कें मन मैं औरों की डाह बड़ी प्रबल थी। लोगों को धनवान, प्रतापवान, विद्वान, बुद्धिमान, सुन्‍दर, तरुण, सुखी और कृतिकार्य देखकर इन्‍हैं बड़ा खेद होता था। वह यशवान मनुष्‍यों सै सदा शत्रुता रखते थे औरों को अपनें सुख लाभ का उद्योग करते देखकर कुढ़ जाते थे अपनें दुखिया चित्त को धैर्य देनें के लिये अच्‍छे, अच्छे मनुष्यों के छोटे, छोटे दोष ढूंढा करते थे किसी के यश मैं किसी तरह का कलंक लग जानें सै यह बड़े प्रसन्‍न होते थे। पापी दुर्योधन की तरह संसार के बिनाश होनें मैं इन्‍की प्रसन्‍नता थी और अपनी सर्वज्ञता बतानें के लिये जानें बिना जानें हर काम मैं पांव अड़ाते थे। मदनमोहन को प्रसन्‍न करनें के लिये अपनी चिड़ करेले की कर रक्‍खी थी। चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आदि की कटती कहनें मैं कसर न रखते थे परन्तु अकल मोटी थी इस लिये उन्‍होंनें इन्‍हें खिलोना बना रक्‍खा था। और परकैच कबूतर की तरह वह इन्‍हें अपना बसबर्ती रखते थे।


हकीम अहमदहुसेन बड़ा कम हिम्‍मत मनुष्य था। इस्‍को चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल सै कुछ प्रीति न थी परन्तु उन्‍को कर्ता समझ कर अपनें नुक्‍सान के डर सै यह सदा उन्‍की खुशामद किया करता था उन्‍हीं को अपना सहायक बना रक्‍खा था उन्‍के पीछै बहुधा मदनमोहन के पास नहीं जाता आताथा और मदनमोहन की बड़ाई तथा चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल की बातों को पुष्‍ट करनें के सिवाय और कोई बात मदनमोहन के आगे मुखसै नहीं निकालता था। मदनमोहन के लिये ओषधि तक मदनमोहन के इच्‍छानुसार बताई जाती थी। मदनमोहन का कहना उचित हो, अथवा अनुचित हो यह उस्‍की हांमैं हां मिलानें को तैयार था मदनमोहन की राय के साथ इस्‍को अपनी राय बदलनें मैं भी कुछ उज्र न था ! "यह लालाजी का नोकर था कुछ बैंगनों का नोकर नहीं था" परन्तु इन लोगों की प्रसन्‍न्नता मैं कुछ अन्तर न आता हो तो यह ब्रजकिशोर की कहन मैं भी सम्‍मति करनें को तैयार रहता था। इस्को बड़े, बड़े कामों के करनें की हिम्‍मत तो कहांसै आती छोटे, छोटे कामों सै इस्का जी दहल जाता था, अजीर्ण के डर सै भोजन न करनें और नुक्‍सान के डर सै व्‍यापार न करनें; की कहावत यहां प्रत्‍यक्ष दिखाई देती थी। इसको सब कामों मैं पुरानी चाल पसंद थी।


बाबू बैजनाथ ईस्‍ट इन्डियन रेलवे कम्‍पनी मैं नौकर था अंग्रेजी अच्‍छी पढ़ा था। यूरुप के सुधरे हुए विचारों को जान्‍ता था परन्तु स्वार्थपरतानें इस्‍के सब गुण ढक रक्खे थे। विद्या थी पर उसके अनुसार व्‍यवहार न था "हाथी के दांत खानें के और दिखानें के और थे" इस्के निर्वाह लायक इस्समय बहुत अच्छा प्रबंध हो रहा था परन्तु एक संतोष बिना इस्के जीको जरा भी सुख न था। लाभ सै लोभ बढ़ता जाता था और समुद्र की तरह इस्‍की तृष्‍णा अपार थी। लोभसै धर्म्म का कुछ बिचार न रहता था। बचपन मैं इस्को इल्‍ममुसल्लिम, तहरीरउक्‍लेकदस और जब्रमुकाबले वगैरे के सीखनें मैं परीक्षा के भयसै बहुत परिश्रम करना पड़ा था परन्तु इस्‍के मनमैं धर्म्म प्रवृत्तिके उत्तेजित करनें के लिये धर्म्‍म नीति आदि के असरकारक उपदेश अथवा देशोन्‍नति के हेतु बाफ, (भाप) और बिजली आदि की शक्ति, नई, नई कलोंका भेद, और पृथ्वी की पैदावार बढ़ानें के हेतु खेती बाड़ी की बिद्या, अथवा स्‍वछंदतासै अपना निर्वाह करनें के लिये देश-दशा के अनुसार जीविका करनें की रीति और अर्थ बिद्या, तंदुरुस्‍ती के लिये देह रक्षाके तत्‍व, द्रव्‍यादिकी रक्षा और राजाज्ञा भंग के अपराधसै बचनें को राजाज्ञा का तात्‍पर्य, अथवा बड़े और बराबर वालोंसै यथायोग्‍य व्‍यवहार करनें के लिये शिष्‍टाचार का उपदेश बहुत ही कम मिला था, बल्कि नहीं मिलनें के बराबर था। इसके कई वर्ष, तो केवल, अंग्रेजी भाषा सीखनें मैं बिद्या के द्वार पर खड़े, खड़े बीत गये जो अंग्रेजों की तरह ये शिक्षा अपनी देश भाषा मैं होती अथवा काम, कामकी पुस्तकों का अपनी भाषा मैं अनुवाद हो गया होता तो कितना समय व्‍यर्थ नष्‍ट होनेंसै बचता ? और कितनें अधिक लोग उस्‍सै लाभ उठाते ? परन्तु प्रचलित रीति के अनुसार इस्‍को सच्‍ची हितकारी शिक्षा नहीं हुई थी जिस्‍पर अभिमान इतना बढ़ गया था कि बड़े बूढ़े मूर्ख मालूम होनें लगे और उन्‍के कामसै ग्‍लानि हो गई। पर इस बिद्वत्ता मैं भी सिवाय नोकरी के और कहीं ठिकाना न था। भाग्‍यबल सै मदरसा छोड़ते ही रेलवे की नोकरी मिल गई पर बाबूसाहब को इतनें पर संतोष न हुआ वह और किसी बुर्दकी ताक झाँक मैं लगरहे थे, इतनें मैं लाला मदनमोहन सै मुलाकात हो गई। एक बार लाला मदनमोहन आगरे लखनऊकी सैर को गए। उस्समय इसनें उन्‍की स्‍टेशन पर बड़ी खातिर की थी। उसी समयसै इन्‍की जानपहचान हुई यह दूसरे तीसरे दिन लाला मदनमोहन के यहां जाता था और समा बाँध कर तरह, तरह की बातें सुनाया करता था। इस्‍की बातोंसै मदनमोहन के चित्त पर ऐसा असर हुआ कि वह इस्को सबसै अधिक चतुर और विश्‍वासी समझनें लगा, इस्‍नें अपनी युक्ति सै चुन्‍नीलाल वगैरे को भी अपना बना रक्‍खा था पर अपनें मतलब सै निश्चिन्‍त न था। यह सब बातें जानबूझ कर भी धृतराष्‍ट्रकी तरह लोभसै अपनें मन को नहीं रोक सक्ता था।


खेद है कि लाला ब्रजकिशोर और हरकिशोर आदि के वृत्तान्त लिखनें का अवकाश इस्‍समय नहीं रहा। अच्‍छा फ़िर किसी समय बिदित किया जाएगा। पाठकगण धैर्य रक्‍खें।


प्रकरण-10 : प्रबन्ध (इन्तज़ाम)


कारजको अनुबंध लख अरु,उत्‍तरफल चाहि


पुन अपनी सामर्थ्‍य लख करै कि न करे ताहि26


बिदुरप्रजागरे।


(26अनुबंध छ संप्रेक्ष्य विपाकं चैंवकर्म्मणाम् ।।


उत्थान मात्मन श्चैव धीर: कुर्वीत वा नवा ।।)


सवेरे ही लाला मदनमोहन हवा खोरी के लिये कपड़े पहन रहे थे। मुन्शी चुन्‍नीलाल और मास्‍टर शिंभूदयाल आ चुके थे।


"आजकल मैं हमको एक बार हाकिमों के पास जाना है" लाला मदनमोहन नें कहा।


"ठीक है, आपको म्‍यूनिसिपेलीटी के मेम्‍बर बनानें की रिपोर्ट हुई थी। उस्‍की मंजूरी भी आ गई होगी" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।


"मंजूरी मैं क्‍या संदेह है ? ऐसे लायक आदमी सरकार को कहां मिलेंगे ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"अभी तो (खुशामदमैं) बहुत कसर है ! साइराक्‍यूस के सभासद डायोनिस्‍यसका थूक चाट जाते थे और अमृतसै अधिक मीठा बताते थे" लाला ब्रजकिशोर नें कमरे मैं आते, आते कहा।


"यों हर काम मैं दोष निकालनें की तो जुदी बात है पर आप ही बताइए इस्‍मैं मैंनें झूठ क्‍या कहा ?" मास्‍टर शिंभूदयाल पूछनें लगे।


"लाला साहब नें म्‍यूनिसिपेलीटी का सालानः आमद खर्च अच्‍छी तरह समझ लिया होगा ? आमदनी बढ़ानें के रस्‍ते अच्‍छी तरह बिचार लिये होंगे ? शहर की सफाई के लिये अच्‍छे, अच्‍छे उपाय सोच लिये होंगे ?" लाला ब्रजकिशोर नें पूछा।


"नहीं, इन बातों मैं सै अभी तो किसी बात पर दृष्टि नहीं पहुँचाई गई परन्तु इन बातों का क्‍या है ? ये सब बातें तो काम करते, करते अपनें आप मालूम हो जायेंगी" लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।


"अच्‍छा आप अपनें घर का काम तो इतनें दिनसै करते हो उस्‍के नफे नुक्‍सान और राह बाट सै तो आप अच्‍छी तरह वाकिफ हो गए होंगे ?" लाला ब्रजकिशोर नें पूछा।


इस्‍समय लाला मदनमोहन नावाकिफ नहीं बनाना चाहते थे। परन्तु वाकिफकार भी नहीं बन सकते थे इसलिये कुछ जवाब न देसके।


"अब आप घर की तरह वहां भी औरों के भरोसे रहे तो काम कैसे चलेगा ? और अब बातौं सै वाकिफ होनें का बिचार किया तो वाकिफ होंगे जितनें आपके बदले काम कौन करैगा ?" लाला ब्रजकिशोर नें पूछा।


"अच्‍छा मंजूरी आवैगी जितनें मैं इन् बातों सै कुछ, कुछ वाकिफ हो लूंगा।" लाला मदनमोहन नें कहा।


"क्‍या इन बातों सै पहले आपको अपनें घर के कामों सै वाकिफ़ होनें की ज़रूरत नहीं है ? जब आप अपनें घर का प्रबन्ध उचित रीति सै कर लेंगे तो प्रबन्‍ध करनें की रीति आ जायेगी और हरेक काम का प्रबन्‍ध अच्‍छी तरह कर सकेंगे, परन्तु जब तक प्रबन्‍ध करनें की रीति न आवेगी कोई काम अच्‍छी तरह न हो सकेगा ?" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। "हाकमों की प्रसन्‍नता पर आधार रख; अपनें मुख सै अधिकार मांगनें मैं क्‍या शोभा है ? और अधिकार लिये पीछै वह काम अच्‍छी तरह पूरा न हो सकै तो कैसी हँसी की बात है ? और अनुभव हुए बिना कोई काम किस तरह भली भांति हो सक्ता है ? महाभारत मैं कौरवों के गौ घेरनें पर बिराट का राजकुमार उत्‍तर बड़े अभिमान सै उन्‍को जीतनें की बातैं बनाता था, परन्तु कौरवों की सेना देखते ही रथ छोड़कर उघाड़े पांव भाग


निकला ! इसी तरह सादी अपनें अनुभव सै लिखते हैं कि "एकबार मैं बलख सै शामवालों के साथ सफ़र को चला मार्ग भयंकर था। इसलिये एक बलवान पुरुष को साथ ले लिया, वह शस्‍त्रों सै सजा रहता था और उस्‍की प्रत्‍यंचा को दस आदमी भी नहीं चढ़ा सकते थे वह बड़े, बड़े बृक्षों को हाथ सै उखाड़डाल्‍ता परन्तु उस्‍नें क़भी शत्रु सै युद्ध नहीं किया था एक दिन मैं और वो आपस मैं बातैं करते चले जाते थे। उस्‍समय दो साधारण मनुष्‍य एक टीले के पीछै सै निकल आए और हम को लूटनें लगे उस्मैं एक के पास लाठी थी और दूसरे के हाथ मैं एक पत्‍थर था। परन्तु उन्‍को देखते ही उस बलवान पुरुष के हाथ पांव फूल गए ! तीर कमान छूट पड़ी ! अन्त मैं हमको अपनें सब बस्‍त्र शस्‍त्र देकर उन्‍सै पीछा छुड़ाना पड़ा, बहुधा अब भी देखनें मैं आता है कि अच्छे प्रबन्‍ध बिना घर मैं माल होनें पर किसी, साहूकार का दिवाला निकल जाता है रुपे का माल दो, दो आनें को बिकता फ़िरता है"


"परन्तु काम किये बिना अनुभव कैसे हो सक्ता है ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पूछा।


"सावधान मनुष्‍य काम करनें सै पहले औरों की दशा देखकर हरेक बात का अनुभव अच्‍छी तरह कर सक्ता है और अनायास कोई नया काम भी उस्‍को करना पड़े तो साधारण भाव सै प्रबन्‍ध करनें की रीति जानकर और और बातों के अनुभव का लाभ लेनें सै काम करते, करते वह मनुष्‍य उस बिषय मैं अपना अनुभव अच्‍छी तरह बढ़ा सक्ता है। सो मैं प्रथम कह चुका हूँ कि लाला साहब प्रबन्‍ध की रीति जान जायंगे तो हरेक काम का प्रबन्‍ध अच्‍छी तरह कर सकैंगे" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।


"आप के निकट प्रबन्ध करनें की रीति क्या है ?" लाला मदनमोहन नें पूछा।


"हरेक काम के प्रबन्‍ध करनें की रीति जुदी, जुदी हैं परन्तु मैं साधारण रीति सै सब का तत्‍व आप को सुनाता हूँ" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। "सावधानी की सहायता लेकर हरेक बात का परिणाम पहले सै सोच लेना, और उन सब पर एक बार दृष्टि कर के जितना अवकाश हो उतनें ही मैं सब बातों का ब्योंत बना लेना निरर्थक चीजों को काम मैं लानें की युक्ति सोचते रहना और जो, जो बातें आगै होनें वाली मालूम हों उन्‍का प्रबन्‍ध पहलै ही सै दूर दृष्टि पहुँचा कर धीरे, धीरे इस भांत करते जाना कि समय पर सब काम तैयार मिलें, किसी बात का समय न चूकनें पावै, कोई काम उलट पुलट न होनें पावै, अपनें आस पास बालों की उन्नति से आप पीछे न रहें, किसी नोकर का अधिकार स्‍वतन्त्रता की हद सै आगे न बढ़नें पावै, किसी पर जुल्‍म न होनें पावै, किसी हक़ मैं अन्तर न आनें पावैं, सब बातों की सम्‍हाल उचित समय पर होती रहे, परन्तु ये सब काम इन्‍की बारीकियों पर दृष्टि रखनै सै कोई नहीं कर सक्ता बल्कि इस रीति सै बहुत महनत करनें पर भी छोटे, छोटे कामौं मैं इतना समय जाता रहता है कि उस्‍के बदले बहुत सै जरूरी काम अधूरे रह जाते हैं और तत्‍काल प्रबन्‍ध बिगड़ जाता है इसलिये बुद्धिमान मनुष्‍य को चाहिये कि काम बांट कर उन्‍पर योग्‍य आदमी मुकर्रर कर दे और उन्‍की काररवाईपर आप दृष्टि रक्‍खे पहले अन्‍दाज सै पिछला परिणाम मिलाकर भूल सुधारता जाय एक साथ बहुत काम न छेड़े, काम करनें के समय बटे रहैं, आमद सै थोड़ा ख़र्च हो और कुपात्र को कुछ न दिया जाय। महाराज रामचन्‍द्रजी भरत सै पूछते हैं "आमद पूरी होत है ? खर्च अल्पदरसाय ।। देत न-कबहुँ कुपात्रकों कहहुँ भरत समुजाय27।।"


(27आयस्ते विपुल: कच्चित्कच्चिदल्पतरो व्यय: ।।


अपात्नेपुनते कच्चित्कोषो गच्छतिराघव ।।)


इसी तरह इन्‍तज़ाम के कामौं मैं क-रिआयत सै बिगाड़ होता है, हज़रत सादी कहते हैं "जिस्सै तैनें दोस्‍ती की उस्‍सै नोंकरीकी आशा न रख"28 ।


(28चूं इकरारे दोस्ती कर दी तबक्के खिदमत मदार ।)


"लाला ब्रजकिशोर साहब आजकल की उन्‍नति के साथी हैं तथापि पुरानी चालके अनुसार रोचक और भयानक बातोंको अपनी कहन मैं इस तरह मिला देते हैं कि किसीको बिल्‍‍कुल खबर नहीं होनें पाती" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"नहीं मैं जो कुछ कहता हूँ अपनी तुच्‍छ बुद्धि के अनुसार यथार्थ कहता हूँ" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "चीनके शहनशाह होएन नें एकबार अपनें मंत्री टिचीसै पूछा कि "राज्‍य के वास्‍ते सब सै अधिक भयंकर पदार्थ क्‍या है ?" मंत्रीनें कहा "मूर्तिके भीतरका मूसा" शहनशाहनें कहा "समझाकर कह" मंत्री बोला "अपनें यहां काठकी पोली मूर्ति बनाई जाती है और ऊपर सै रंग दी जाती है अब दैवयोग सै कोई मूसा उस्‍के भीतर चला गया तो मूर्ति खंडित होनें के भयसै उस्‍का कुछ नहीं कर सक्ते। इसी तरह हरेक राज्‍य मैं बहुधा ऐसे मनुष्‍य होते हैं जो किसी तरह की योग्‍यता और गुण बिना केवल राजा की कृपा के सहारे सै सब कामों मैं दखल देकर सत्‍यानास किया करते हैं परन्तु राजा के डर सै लोग उन्‍का कुछ नहीं कर सक्ते" हां जो राजा आप प्रबन्‍ध करनेंकी रीति जान्‍ते हैं वह उनलोगों के चक्‍कर सै खूबसूरती के साथ बचे रहते हैं जैसे ईरान का बादशाह आरटाजरकसीस सै एक बार उस्‍के किसी कृपापात्रनें किसी अनुचित काम करनें के लिये सवाल किया। बादशाह नें पूछा कि "तुमको इस्‍सै क्‍या लाभ होगा ?" कृपा पात्रनें बता दिया तब बादशाहनें उतनी रकम उस्‍को अपनें ख़जानें सै दिवा दी और कहा कि "ये रुपे ले इनके देनें सै मेरा कुछ नहीं घटता परन्तु तैनें जो अनुचित सवाल किया था उस्‍के पूरा करनें सै मैं निस्सन्देह बहुत कुछ खो बैठता" उचित प्रबन्‍ध मैं जरासा अन्तर आनेंसै कैसा भयंकर परिणाम होता है इस्‍पर बिचार करिये कि इसी दिल्‍ली तख्‍त बाबत दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच युद्ध हुआ। उस्‍समय औरंगजेब की पराजय मैं कुछ संदेह न था परन्तु दाराशिकोह हाथीसै उतरतेही मानों तख्‍त सै उतर गया मालिक का हाथी खाली देखते सब सेना तत्‍काल भाग निकली।"


"महाराज ! बग्‍गी तैयार है।" नोकरनें आकर रिपोर्ट की।


"अच्‍छा चलिये रस्‍ते मैं बतलाते चलेंगे" लाला ब्रजकिशोर नें कहा। निदान सब लोग बग्‍गी मैं बैठकर रवानें हुए।


प्रकरण-11 : सज्जनता


सज्‍जनता न मिलै किये जतन करो किन कोय


ज्‍यों कर फार निहारियेलोचन बड़ो न होय


बृन्‍द


"आप भी कहां की बात कहां मिलानें लगे ! म्‍यूनिसिपेलीटी के मेम्‍बर होनें सै और इंतज़ाम की इन बातों सै क्‍या सम्बन्ध है ? म्‍यूनिसिपेलीटी के कार्य निर्बाह का बोझ एक आदमी के सिर न‍हीं है उसमैं बहुत सै मेम्‍बर होते हैं और उन्‍मैं कोई नया आदमी शामिल हो जाय तो कुछ दिन के अभ्‍यास सै अच्‍छी तरह वाकिफ़ हो सक्ता है, चार बराबरवालों सै बातचीत करनें मैं अपनें बिचार स्‍वत: सुधर जाते हैं और आज कल के सुधरे बिचार जान्‍नें का सीधी रास्‍ता तो इस्‍सै बढ़कर और कोई नहीं हैं" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"जिस तरह समुद्र मैं नोका चलानेंवाले केवल समुद्र की गहराई नहीं जान सक्‍ते इसी तरह संसार मैं साधारण रीति सै मिलनें भेटनेंवाले इधर-उधर की निरर्थक बातों सै कुछ फायदा नहीं उठा सक्‍ते बाहर की सज धज और जाहिर की बनावट सै सच्‍ची सज्‍जनताका कुछ सम्बन्ध नहीं है वह तो दरिद्री-धनवान ओर मूर्ख-विद्वान का भेद भाव छोड़ कर सदा मन की निर्मलता के साथ रहती है और जिस जगह रहती है उस्‍को सदा प्र‍काशित रखती है" लाला ब्रजकिशोर नें कहा।


"तो क्‍या लोगों के साथ आदर सत्‍कार सै मिलना जुलना और उन्‍का यथोचित शिष्‍टाचार करना सज्‍जनता नहीं है ?" लाला मदनमोहन नें पूछा।


"सच्‍ची सज्‍जनता मन के संग है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। कुछ दिन हुए जब अपनें गवर्नर जरनल मारक्विस आफ रिपन साहब नें अजमेर के मेयो कालिज मैं बहुत सै राजकुमारों के आगे कहा था कि "**हम चाहे जितना प्रयत्‍न करैं परन्तु तुम्‍हारी भविष्‍यत अवस्‍था तुम्‍हारे हाथ है। अपनी योग्‍यता बढ़ानी, योग्‍यता की कदर करनी, सत्‍कर्मों मैं प्रवृत्त रहना, असत्‍कर्मों सै ग्‍लानि करना तुम यहां सीख जाओगे तो निस्सन्देह सरकार मैं प्रतिष्‍ठा, और प्रजा की प्रीति लाभ कर सकोगे। तुम मैं सै बहुत सै राजकुमारोंको बड़ी जोखोंके काम उठानें पड़ेंगे और तुम्‍हारी कर्तव्यता पर हजारों लाखों मनुष्‍योंके सुख दु:ख का बल्कि जीनें मरनें का आधार रहैगा। तुम बड़े कुलीन हो और बड़े विभववान हो। फ्रेंच भाषा मैं एक कहावत है कि जो अपनें सत्‍कुल का अभिमान रखता हो उस्‍को उचित है कि अपनें सत्‍कर्मों सै अपना बचन प्रमाणिक कर दे। तुम जान्‍ते हो कि अंग्रेज लोग बड़े, बड़े खिताबों के बदले सज्‍जन (Gentleman) जैसे साधारण शब्‍दोंको अधिक प्रिय समझते हैं इस शब्‍द का साधारण अर्थ ये है कि मर्यादाशील, नम्र और सुधरे बिचार का मनुष्‍य हो, निस्सन्देह ये गुण यहांके बहुत सै अमीरों मैं हैं परन्तु इस्‍के अर्थपर अच्‍छी तरह दृष्टि की जाय तो इस्‍का आशय बहुत गंभीर मालूम देता है। जिस मनुष्‍य की मर्यादा, नम्र और सुधरे बिचार केवल लोगों को दिखानें के लिये न हों बल्कि मन सै हो-अथवा जो सच्‍चा प्रतिष्ठित, सच्‍चा बीर और पक्षपात रहित न्‍याय-परायण हो, जो अपनें शरीर को सुख देनें के लिये नहीं बल्कि धर्म सै औरों के हक़ मैं अपना कर्तव्य सम्पादन करनें के लिये जीता हो; अथवा जिसका आशय अच्‍छा हो, जो दुष्‍कर्मों सै सदैव बचता हो वह सच्‍चा सज्‍जन है **"


"निस्सन्देह सज्‍जनता का यह कल्पित चित्र अति बिचित्र है परन्तु ऐसा मनुष्‍य पृथ्‍वी पर तो क़भी कोई काहेको उत्‍पन्‍न हुआ होगा" मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा।


हम लोग जहां खड़े हों वहां सै चारों तरफ़ को थोड़ी-थोड़ी दूर पर पृथ्‍वी और आकाश मिले दिखाई देते हैं परन्तु हकीकत मैं वह नहीं मिले इसी तरह संसार के सब लोग अपनी, अपनी प्रकृतिके अनुसार और मनुष्‍यों के स्‍वभाव का अनुमान करते हैं परन्तु दर असल उन्मैं बड़ा अन्तर है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "देखो:-


"एथेन्‍स का निवासी आरिस्‍टाईडीज एक बार दो मनुष्‍यों का इन्साफ़ करनें बैठा तब उन्‍मैं सै एकनें कहा, "प्रतिपक्षीनें आप को भी प्रथम बहुत दु:ख दिया है," आरिस्‍टाईडीज नें जवाब दिया कि "मित्र ! इस्‍नें तुमको दुख दिया हो वह बताओ क्योंकि इस्‍समय मैं अपना नहीं; तुम्‍हारा इन्साफ़ करता हूँ"


"प्रीवरनमके लोगोंनें रूमके बिपरीत बलवा उठाया उस्‍समय रूमकी सेना नें वहांके मुखिया लोगोंको पकड़कर राज सभामैं हाजिर किया उस्‍समय प्‍लाटीनियस नामी सभासदनें एक बंधुए सै पूछा कि "तुम्‍हारे लिये कौन्सी सजा मुनासिब है ?" बंधुएनें जवाब दिया कि "जो अपनी स्‍वतन्त्रता चाहनें वालोंके वास्‍ते मुनासिब हो" इस उत्‍तरसै और सभासद अप्रसन्‍न हुए पर प्‍लाटीनियस प्रसन्‍न हुआ और बोला "अच्‍छा ! राजसभा तुम्‍हारा अपराध क्षमा कर दे तो तुम कैसा बरताव रक्‍खो ?" "जैसा हमारे साथ राजसभा ररक्खे" बंधुआ कहनें लगा "जो राजसभा हमसे मानपूर्वक मेल करेगी तो हम सदा ताबेदार बनें रहैंगे परन्तु हमारे साथ अन्‍याय और अपमान सै बरताव होगा तो हमारी वफादारी पर सर्वथा विश्‍वास न रखना" इस जवाब सै और सभासद अधिक चिड़ गए और कहनें लगे कि "इस्‍मैं राजसभा को धमकी दी गई है" प्‍लाटीनियसनें समझाया कि "इस्‍मैं धमकी कुछ नहीं दी गई। यह एक स्‍वतन्त्र मनुष्‍य का सच्‍चा जवाब है" निदान प्‍लाटीनियस के समझानें सै राजसभा का मन फ़िर गया और उस्‍नें उन्‍हें कैदसै छोड़ दिया।


"मेसीडोनके बादशाह पीरसनें कैदियोंको छोड़ा उस्‍समय फ्रेबीशियस नामी एक रूमी सरदारको एकांतमैं लेजा कर कहा "मैं जान्‍ता हूँ कि तुम जैसा बीर, गुणवान स्‍वतन्त्र, और सच्‍चा मनुष्‍य रूमके राजभरमैं दूसरा नहीं है जिस्‍पर तुम ऐसे दरीद्री बनरहे हो यह बड़े खेदकी बात है ! सच्‍ची येग्‍यताकी कदर करना राजाऔं का प्रथम कर्तव्‍य है इस लिये मैं तुमको तुम्‍हारी पदवी के लायक धनवान बनाया चाहता हूँ परन्तु मैं इस्मैं तुम्‍हारे ऊपर कुछ उपकार नहीं करता अथवा इसके बदले तुमसै कोई अनुचित काम नहीं लिया चाहता। मेरी केवल इतनी प्रार्थना है कि उचित रीति सै अपना कर्तव्‍य सम्पादन किये पीछे न्‍यायपूर्वक मेरी सहायता होसके सो करना।" फ्रेबीशियसनें उत्‍तर दिया कि "निस्सन्देहमैं धनवान नहीं हूँ। मैं एक छोटे से मकान मैं रहता हूँ और जमीन का एक छोटासा किता मेरे पास है परन्तु ये मेरी ज़रूरत के लिये बहुत है और ज़रूरत सै ज्‍यादा लेकर मुझको क्‍या करना है ? मेरे सुखमैं किसी तरह का अन्तर नहीं आता मेरी इज्‍जत और धनवानों सै बढ़कर है, मेरी नेकी मेरा धन है मैं चाहता तो अबतक बहुतसी दौलत इकट्ठी करलेता परन्तु दौलतकी अपेक्षा मुझको अपनी इज्‍जत प्‍यारी है इस लिये तुम अपनी दौलत अपनें पास रक्‍खो और मेरी इज्‍जत मेरे पास रहनें दो।"


"नोशेरवां अपनी सेना का सेनापति आप था। एकबार उस्‍की मंजूरी सै खजान्चीनें तन्‍ख्‍वाह बांटनें के वास्‍तै सब सेना को हथियार बंद होकर हाजिर होनें का हुक्‍म दिया पर नोशेरवां इस हुक्‍मसै हाजिर न हुआ इस लिये खजान्चीनें क्रोध करके सब सेनाको उलटा फेर दिया और दूसरी बार भी ऐसा ही हुआ तब तीसरी बार खजान्चीनें डोंड़ी पिटवाकर नोशेरवांको हाजिर होनें का हुक्म दिया। नोशेरवां उस हुक्म के अनुसार हाजिर हुआ परन्तु उस्की हथियार बंदी ठीक न थी। खजान्चीनें पूछा "तुम्‍हारे धनुषकी फाल्‍तू प्रत्‍यंचा कहां है ?" नोशेरवांनें कहा "महलोंमैं भूल आया" खजान्चीनें कहा "अच्‍छा ! अभी जा कर ले आओ" इस्‍पर नोशेरवां महलोंमैं जाकर प्रत्‍यंचा ले आया तब सब की तनख्‍वाह बटी परन्तु नोशेरवां खजान्चीके इस अपक्षपात काम सै ऐसा प्रसन्‍न हुआ कि उसे निहाल कर दिया। इस प्रकार सच्‍ची सज्‍जनता के इतिहासमैं सैकड़ों दृष्‍टांत मिल्ते हैं परन्तु समुद्रमैं गोता लगाए बिना मोती नहीं मिलता"


"आप बार, बार सच्‍ची सज्‍जनता कहते हैं सो क्‍या सज्‍जनता सज्‍जनतामैं भी कुछ भेदभाव है ?" लाला मदनमोहननें पूछा।


'हां सज्‍जनता के दो भेद हैं एक स्‍वाभाविक होती है जिस का वर्णन मैं अब तक करता चला आया हूँ। दूसरी ऊपरसै दिखानें की होती है जो बहुधा बड़े आदमियों मैं उन्‍के पास रहनें वालों मैं पाई जाती है बड़े आदमियों के लिये वह सज्‍जनता सुंदर वस्‍त्रों के समान समझनी चाहिए जिस्‍को वह बाहर जाती बार पहन जाते हैं और घर मैं आते ही उतार देते हैं। स्‍वाभाविक सज्‍जनता स्‍वच्‍छ स्‍वर्ण के अनुसार है जिस्‍को चाहे जैसे तपाओ, गलाओ परन्तु उस्‍मैं कोई अन्तर नहीं आता। ऊपर सै दिखानें वालों की सज्‍जनता गिल्‍टी के समान है जो रगड़ लगते ही उतर जाती है ऊपर के दिखानें वाले लोग अपना निज स्‍वभाव छिपाकर सज्‍जन बन्‍नें के लिये सच्‍चे सज्‍जनों के स्‍वभाव की नकल करते हैं परन्तु परीक्षा के समय उन्‍की कलई तत्‍काल खुल जाती है, उन्‍के मन मैं बिकास के बदले संकुचित भाव, सादगी के बदले बनावट, धर्म्‍म प्रबृत्ति के बदले स्‍वार्थपरता और धैर्य के बदले घबराहट इत्‍यादि प्रगट दिखनें लगते हैं। उन्का सब सदभाव अपनें किसी गूढ़ प्रयोजन के लिये हुआ करता है परन्तु उन्‍के मन को सच्‍चा सुख इस्‍सै सर्वथा नहीं मिल सक्‍ता।


प्रकरण-12 : सुख दु:ख


आत्‍मा को आधार अरु साक्षी आत्‍मा जान


निज आत्माको भूलहू करियेनहिंअपमान29


(29आत्मैव ह्यात्मन: साक्षी गति रात्मा तथात्मन:


भाव संस्था: स्वमात्मानं नृणां साक्षिण मुत्तमम् ।।)


मनुस्‍मृति।


"सुख दु:ख तो बहुधा आदमी की मानसिक बृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन हैं।एक बात सै एक मनुष्‍य को अत्‍यन्त दु:ख और क्‍लेश होता है वही बात दूसरे को खेल तमाशे की सी लगती है इस लिये सुख दु:ख होनें का कोई नियम नहीं मालूम होता" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"मेरे जान तो मनुष्‍य जिस बात को मन सै चाहता है उस्‍का पूरा होना ही सुख का कारण है और उस्‍मैं हर्ज पड़नें ही सै दुःख होता है" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"तो अनेक बार आदमी अनुचित काम करके दुःख मैं फँस जाता है और अपनें किये पर पछताता है इस्‍का क्‍या कारण ? असल बात यह है कि जिस्‍समय मनुष्‍य के मन मैं जो बृत्ति प्रबल होती है वह उसी के अनुसार काम किया चाहता है और दूरअंदेशी की सब बातों को सहसा भूल जाता है परन्तु जब वो बेग घटता है तबियत ठिकानें आती है तो वो अपनी भूल का पछतावा करता है और न्‍याय बृत्ति प्रबल हुई तो सब के साम्‍हनें अपनी भूल अंगीकार करकै उस्‍के सुधारनें का उद्योग करता है पर निकृष्‍ट प्रबृत्ति प्रबल हुई तो छल करके उस्‍को छिपाया चाहता है अथवा अपनी भूल दूसरे के सिर रक्‍खा चाहता है और एक अपराध छिपानें के लिये दूसरा अपराध करता है परन्तु अनुचित कर्म्‍म सै आत्‍मग्‍लानि और उचित कर्म्‍म सै आत्‍मप्रसाद हुए बिना सर्बथा नहीं रहता" लाला ब्रजकिशोर बोले।


"अपना मन मारनें सै किसी को खुशी क्‍यों कर हो सक्ती है ?" लाला मदनमोहन आश्‍चर्य सै कहनें लगे।


"सब लोग चित्तका संतोष और सच्‍चा आनन्‍द प्राप्‍त करनें के लिये अनेक प्रकार के उपाय करते हैं परन्तु सब बृत्तियों के अबिरोध सै धर्म्‍मप्रबृत्ति के अनुसार चलनेंवालों को जो सुख मिल्‍ता है और किसी तरह नहीं मिल सक्ता" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे मनुस्‍मृति मैं लिखा है "जाको मन अरु बचन शुचि बिध सों रक्षित होय ।। अति दुर्लभ वेदान्‍त फल जगमैं पावत सोय"30


(30यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग्गुपते च सर्वदा ।


सनै सर्व मवाप्नोति वेदान्तोपगतम्फलम् ।।)


जो लोग ईश्‍वर के बांधे हुए नियमों के अनुसार सदा सत्कर्म्‍म करते रहते हैं उन्‍को आत्‍मप्रसाद का सच्‍चा सुख मिल्ता है उन्‍का मन वि‍कसित पुष्‍पों के समान सदा प्रफुल्लित रहता है जो लोग कह सक्‍ते हैं कि हम अपनी सामर्थ्‍य भर ईश्‍वर के नियमों का प्रतिपालन करते हैं, यथा शक्ति परोपकार करते हैं, सब लोगों के साथ अनीत छोड़कर नीति पूर्वक सुहृद्भाव रखते हैं, अतिशय भक्ति और विश्‍वासपूर्वक ईश्‍वर की शरणागति हो रहे हैं वही सच्‍चे सुखी हैं। वह अपनें निर्मल चरित्रों को बारम्‍बार याद करके परम संतोष पाते हैं। यद्यपि उन्‍का सत्‍कर्म्‍म मनुष्‍य मात्र न जान्‍ते हों इसी तरह किसी के मुख सै एक बार भी अपनें सुयश सुन्‍नें की संभावना न हो, तथापि वह अपनें कर्तव्‍य काम मैं अपनें को कृत कार्य देखकर अद्वितीय सुख पाते हैं उचित रीति सै निष्‍प्रयोजन होकर किसी दुखिया का दु:ख मिटानें की, किसी मूर्ख को ज्ञानोंपदेश करनें की एक बात याद आनें से उन्को जो सुख मिलता है वह किसी को बड़े सै बड़ा राज मिलनें पर भी नहीं मिल सक्ता। उन्‍का मन पक्षपात रहित होकर सबके हितसाधन मैं लगा रहता है, इस्‍कारण वह सबके प्‍यारे होनें चाहिए। परन्तु मूर्ख जलन सै, हटसै, स्‍वार्थपरता सै अथवा उन्‍का भाव जानें बिना उन्सै द्वेषकरै। उन्‍का बिगाड़ करना चाहें तो क्‍या कर सक्ते हैं ? उन्‍का सर्वस्‍व नष्‍ट होजाय तो भी वह नहीं घबराते; उन्‍के ह्रदय में जो धर्म्म का ख़ज़ाना इकट्ठा हो रहा है उस्‍के छूनें की किस को सामर्थ्‍य है। आपनें सुना होगा कि:-


"महाराज रामचन्‍द्रजी को जब राजतिलक के समय चौदह वर्ष का बनवास हुआ उस्‍समय उन्‍के मुखपर उदासी के बदले प्रसन्‍नता चमकनें लगी।


"इंगलेण्ड की गद्दी बाबत एलीज़ाबेथ और मेरी के बीच विवाद हो रहा था उस्‍समय लेडी जेनग्रेको उस्‍के पिता, पति और स्‍वसुरनें गद्दीपर बिठाना चाहा परन्तु उस्‍को राज का लोभ न था वह होशियार, बिद्वान और धर्मात्‍मा स्‍त्री थी। उस्‍नें उन्‍को समझाया कि मेरी "निस्बत मेरी और एलीज़ाबेथ का ज्‍याद: हक़ है और इस काम सै तरह, तरह के बखेड़े उठनें की संभावना है। मैं अपनी वर्तमान अवस्‍था मैं बहुत प्रसन्‍न हूँ इस लिये मुझको क्षमा करो" पर अन्त मैं उस्‍को अपनी मरज़ी के उपरांत बड़ों की आज्ञासै राजगद्दी पर बैठना पड़ा परन्तु दस दिन नहीं बीते इतनेंमैं मेरी नें पकड़ कर उसै कैद किया और उस के पति समेत फांसी का हुक्‍म दिया। वह फांसी के पास पहुँची उस्‍समय उस्‍नें अपनें पति को लटकते देखकर तत्‍काल अपनी याददाश्‍त मैं यह तीन बचन लाटिन, यूनानी और अंग्रैजी मैं क्रम सै लिखे कि "मनुष्‍य जाति के न्‍याय नें मेरी देह को सजा दी परन्तु ईश्‍वर मेरे ऊपर कृपा करेगा, और मुझको किसी पाप के बदले यह सजा मिली होगी तो अज्ञान अवस्‍था के कारण मेरे अपराध क्षमा किए जायेंगे। और मैं आशा रखती हूँ कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और भविष्‍य काल के मनुष्‍य मुझ पर कृपा दृष्टि रक्‍खेंगे" उस्‍नें फांसी पर चढ़कर सब लोगों के आगे एक वक्‍तृता की जिस्‍मैं अपनें मरनें के लिये अपनें सिवाय किसी को दोष न दिया वह बोली कि "इंगलेण्ड की गद्दी पर बैठनें के वास्‍तै उद्योग करनें का दोष मुझ पर कोई नहीं लगावेगा परन्तु इतना दोष अवश्‍य लगावेगा कि "वह औरों के कहनें सै गद्दी पर क्‍यों बैठी ? उस्‍नें जो भूल की वह लोभ के कारण नहीं, केवल बड़ों के आज्ञावर्ती होकर की थी" सो यह करना मेरा फर्ज था परन्तु किसी तरह करो जिस्‍के साथ मैंनें अनुचित व्‍यवहार किया उस्के साथमैं प्रसन्‍नतासै अपनें प्राण देनें को तैयार हूँ" यह कहक़र उस्‍नें बड़े धैर्यसै अपनी जान दी"


"दुखिया अपनें मनको धैर्य देनेंके लिये चाहे जैसे समझा करैं परन्तु साधारण रीति तो यह है कि उचित उपायसै हो अथवा अनुचित उपायसै हो जो अपना काम निकाल लेता है वही सुखी समझा जाता है, आप बिचार कर देखेंगे तो मालूम हो जायगा कि आज भूमंडल मैं जितनें अमीर और रहीस दिखाई देते हैं उन्‍के बड़ोंमैं सै बहुतों नें अनुचित कर्म करकै यह वैभव पाया होगा" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।


"क़भी अनुचित कर्म करनेंसै सच्‍चा सुख नहीं मिलता-प्रथम तो मनु महाराज और लोमेश ऋषि एक स्‍वरसै कहते हैं कि "कर अधर्म पहले बढ़त सुख पावत बहुत भांत ।। शत्रु न जय कर आप पुन मूलसहित बिनसात।।"31


(31अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।।


तत: सपत्नाम् जयतिस मुलस्तूविनस्यति ।।


वर्द्धत्य धर्मेण नरस्ततोभद्राणि पश्यति ।।


तत: मपत्नान् जयति समूलस्तू विनश्यति ।।)


फ़िर जिस तरह सत्‍कर्म का फल आत्‍म-प्रसाद है इसी तरह दुष्‍कर्म का फल आत्‍मग्‍लानि, आंतरिक दुःख अथवा पछतावा हुए बिना सर्वथा नहीं रहता मनुस्‍मृति मैं लिखा है "पापी समुझत पाप कर काहू देख्‍यो नाहिं ।। पैसुर अरुनिज आतमा निस दिन देखत जाहिं।।"32


(32मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश् यतीतिन: ।।


तांस्तु देवा: पप्रश्यन्ति स्वस्यै वान्तर पूरुष: ।।)


लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "जिस्‍समय कोई निकृष्‍ट प्रबृत्ति अत्यन्त प्रबल होकर धर्म्‍मप्रबृत्ति की रोक नहीं मान्‍ती उस्‍समय हम उस्‍की इच्‍छा पूरी करनेंके लिये पाप करते हैं परन्तु उस काम सै निवृत्ति होते ही हमारे मनमैं अत्यन्त ग्‍लानि होती है हमारी आत्‍मा हमको धिक्‍कारती है और लोक परलोकके भय सै चित्त बिकल रहता है जिस्‍नें अपनें अधर्म्‍म सै किसी का सुख हर लिया है अथवा स्‍वार्थपरता के बसवर्ती होकर उपकार के बदले अपकार किया है, अथवा छल बलसै किसी का धर्म्‍म भ्रष्‍ट कर दिया है, जो अपनें मन मैं समझता है कि मुझसे फलानें का सत्‍यानाश हुआ, अथवा मेरे कारण फलानें के निर्मल कुल मैं कलंक लगा, अथवा संसार मैं दु:ख के सोते इतनें अधिक हुए मैं उत्‍पन्‍न न हुआ होता तो पृथ्‍वी पर इतना पाप कम होता, केवल इन बातों की याद उस्‍का हृदय विदीर्ण करनें के लिये बहुत है और जो मनुष्‍य ऐसी अवस्‍था मैं भी अपनै मनका समाधान रख सकै उस्‍को मैं बज्रहृदय समझता हूँ जिस्नें किसी निर्धन मनुष्‍य के साथ छल अथवा विश्‍वासघात करके उस्की अत्यन्त दुर्दशा की है उस्‍की आत्‍मग्‍लानि और आंतरिक दु:ख का बरणन् कोन कर सक्ता है ? अनेक प्रकार के भोगविलास करनेंवालों को भी समय पाकर अवश्‍य पछतावा होता है। जो लोग कुछ काल श्रद्धा और यत्‍नपूर्वक धर्म्मका आनन्‍द लेकर इस दलदल मैं फस्‍ते हैं उन्‍सै आत्‍मग्‍लानि और आंतरिक दाहका क्‍लेश पूछना चाहिये।"


"टरकी का खलीफ़ा मौन्‍तासर अपनें बापको मरवाकर उस्के महल का कीमती सामान देख रहा था उस्‍समय एक उम्‍दा तस्‍वीर पर उस्‍की दृष्टि पड़ी जिस्‍मैं एक सुशोभित तरुण पुरुष घोड़े पर सवार था और रत्‍नजटित "ताज" उस्‍के सिर पर शोभायमान था। उस्‍के आसपास फारसी मैं बहुतसी इबारत लिखी थी ख़लीफ़ा नें एक मुन्शी को बुलाकर वह इबारत पढ़वाई। उस्‍मैं लिखा था कि "मैं सीरोज़ खुसरोका बेटा हूँ मैंनें अपनें बापका ताज़ लेनेंके वास्‍तै उसे मरवाडाला पर उस्‍के पीछें वह ताज मैं सिर्फ छ: महीनें अपनें सिर पर रखसका" यह बात सुन्‍तेही ख़लीफ़ा मौन्‍तासर के दिल पर चोट लगी और अपनें आंतरिक दु:खसै वह केवल तीन दिन राज करकै मर गया।"


"यह आत्‍मग्‍लानि अथवा आंतरिक क्‍लेश किसी नए पंछी को जाल मैं फसनैसै भलेही होता हो पुरानें खिलाड़ियों को तो इस्‍की ख़बर भी नहीं होती। संसार मैं इस्‍समय ऐसे बहुत लोग मौजूद हैं जो दूसरे के प्राण लेकर हाथ भी नहीं धोते" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"यह बात आपनें दुरूस्‍त कही। नि:संदेह जो लोग लगातार दुष्‍कर्म करते चलेजाते हैं और एक अपराधी सै बदला लेनें के लिये आप अपराधी बनजाते हैं अथवा एक दोष छिपानें के लिये दूसरा दूषितकर्म करनें लगते हैं या जिन्‍को केवल अपनें मतलब सै ग़र्ज रहती है उन्‍के मन सै धीरे, धीरे अधर्म की अरुचि उठती जाती हैं" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे जैसे दुर्गन्‍ध मैं रहनें वाले मनुष्‍यों के मस्‍तक मैं दुर्गंध समा जाती है तब उन्‍को वह दुर्गंध नहीं मालूम होती अथवा बार, बार तरवार को पत्‍थर पर मारनें सै उस्‍की धार अपनें आप भोंटी हो जाती है इसी तरह ऐसे मनुष्‍यों के मन सै अभ्‍यास बस अधर्म की ग्‍लानि निकल कर उन्‍के मन पर निकृष्‍टप्रबृत्तियों का पूरा अधिकार हो जाता है। बिदुरजी कहते हैं "तासों पाप न करत बुध किये बुद्धि कौ नाश ।।बुद्धि नासते बहुरि नर पापै करत प्रकाश ।।33


(33तस्मात् पापं न कुर्वीत पुरुष: शसितव्रत ।।


पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमार्ण पुन: पुन: ।।


वेदात्यागश्चयज्ञाथ नियमाश्च तपांसिच ।।


नविप्रभावदुष्टस्य सिद्धि गच्छन्ति कर्हिचित् ।।)


यह अवस्‍था बड़ी भयंकर है सन्निपात के समान इस्‍सै आरोग्‍य होनें की आशा बहुत कम रहती हैं। ऐसी अवस्‍था मैं निस्सन्देह शिंभूदयाल के कहनें मूजब उन्को अनुचित रीति सै अपनी इच्‍छा पूरी करनें मैं सिवाय आनन्‍द के कुछ पछतावा नहीं होता परन्तु उन्कों पछतावा हो या न हो ईश्‍वर के नियमानुसार उन्‍हैं अपनें पापों का फल अवश्‍य भोगना पड़ता है। मनुस्‍मृति मैं लिखा है "बेद, यज्ञ, तप, नियम अरु बहुत भांति के दान ।। दुष्‍ट हृदय को जगत मैं करत न कुछ कल्‍यान।। 34


(34अकस्मा देव कुप्यंति प्रसीदंत्यंनिमित्तज्ञ: ।।


शीलमेतदसाधूनामभ्रं पारिप्लवं यथा ।।)


"ऐसे मनुष्‍यों को समाज की तरफ़ सै, राज की तरफ़ सै अथवा ईश्‍वर की तरफ़ सै अवश्‍य दंडमिल्ता है और बहुधा वह अपना प्राण देकर उस्‍सै छुट्टी पाते हैं इसलिये सुख-दु:खका आधार इच्‍छा फल की प्राप्ति पर नहीं बल्कि सत्‍कर्म और दुष्‍कर्म पर है।


इस्तरह अनेक प्रकार की बातचीत करते हुए लाला मदनमोहन की बग्‍गी मकान पर लौटआई और लाला ब्रजकिशोर वहां सै रुख़सत होकर अपनें घर गए।


प्रकरण-13 : बिगाड़का मूल-बिवाद


कोपैबिन अपराध । रीझै बिन कारन जुनर ।।


ताकोज्ञील असाध । शरदकालके मेघ जों ।।


बिदुरप्रजागरे।


लाला मदनमोहन हवा खाकर आए उस्समय लाला हरकिशोर साठन की गठरी लाकर कमरे मैं बैठे थे।


"कल तुमनें लाला हरदयाल साहब के साम्ने बड़ी ढिठाई की परन्तु मैं पुरानी बातोंका बिचार करके उस्‍समय कुछ नहीं बोला" लाला मदनमोहन नें कहा।


"आपनें बड़ी दया की पर अब मुझको आपसै एकान्‍त मैं कुछ कहना है, अवकाश हो तो सुन लीजिये" लाला हरकिशोर बोले।


"यहां तो एकांत ही है तुमको जो कुछ कहना हो निस्सन्देह कहो" लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।


"मुझको इतना ही कहना है कि मैंनें अब तक अपनी समझ मुजिब आपको अप्रसन्‍न करनें की कोई बात नहीं की परन्तु मेरी सब बातें आपको बुरी लगती हैं तो मैं भी ज्‍याद: आवा जाई रखनें मैं प्रसन्‍न नहीं हूँ। किसी नें सच कहा है "जब तो हम गुल थे मियां लगते हजारों के गले ।। अब तो हम खार हुए सब सै किनारे ही भले ।।" संसार मैं प्रीति स्‍वार्थ परता का दूसरा नाम है। समय निकले पीछै दूसरे सै मेल रखनें की किसी को क्‍या गरज़ पड़ी है ? अच्‍छा ! महरबानी करके मेरे माल की कीमत मुझको दिलवा दें" हरकिशोर नें रूखाई सै कहा।


"क्या तुम कीमत का तकाजा करके लाला साहब को दबाया चाहते हो ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।


"हरगिज़ नहीं मेरी क्‍या मजाल ?" हरकिशोर कहनें लगे - "सब जान्‍ते हैं कि मेरे पास गांठ की पूंजी नहीं है, मैं जहां तहां सै माल लाकर साहब के हुक्‍म की तामील कर देता था परन्तु अबकी बार रुपे मिलनें मैं देर हुई। कई एकरार झूठै हो गए इसलिये लोगों का विश्‍वास जाता रहा अब आज कल मैं उन्‍के माल की कीमत उन्के पास न पहुँचेगी तो वे मेरे ऊपर नालिश कर देंगे और मेरी इज्‍जत धूल मैं मिल जायगी।"


"तुम कुछ दिन धैर्य धरो तुम्‍हारे रुपे का भुगतान हम बहुत जल्‍दी कर देंगे" लाला मदनमोहन नें कहा।


जब मेरे ऊपर नालिश हो गई और मेरी साख जाती रही तो फ़िर रुपे मिलनें सै मेरा क्‍या काम निकला ? "देखो अवसर को भलो जासों सुधरे काम । खेती सूखे बरसवो धन कौ निपट निकाम ।।" मैं जानाता हूँ कि आप को अपनें कारण किसी गरीब की इज्‍जत मैं बट्टा लगाना हरगिज मंजूर न होगा" लाला हरकिशोर नें कुछ नरम पड़कर कहा।


"तुम्‍हारा रुपया कहां जाता है ? तुम जरा धैर्य रक्‍खो। तुमनें यहां सै बहुत कुछ फायदा उठाया है, फ़िर अबकी बार रुपे मिलनें मैं दो, चार दिनकी देर हो गई तो क्‍या अनर्थ हो गया ? तुमको ऐसा कड़ा तक़ाज़ा करनें मैं लाज नहीं आती ? क्‍या संसार सै मेल मुलाहजा बिल्‍कुल उठगया ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"मैंभी इसी चारा बिचार मैं हूँ" हरकिशोर नें जवाब दिया "मैं तो माल देकर मोल चाहता हूँ। ज़रुरत के सबब सै तक़ाज़ा करता हूँ पर न जानें और लोगों को क्‍या होगया जो बेसबब मेरे पीछै पड़ रहे हैं ? मुझसै उन्‍को बहुत कुछ लाभ हुआ होगा परन्तु इस्‍समय वे सब 'तोता चश्‍म' होगए। उन्‍हीं के कारण मुझको यह तक़ाजा करना पड़ता है। जो आजकल मैं मेरे लेनदारोंका रुपया न चुका, तो वे निस्सन्देह मुझपर नालिश कर देंगे और मैं ग़रीब, अमीरोंकी तरह दबाव डालकर उन्‍को किसी तरह न रोक सकूंगा ?


"तुम्‍हारी ठगविद्या हम अच्छी तरह जान्ते हैं, तुम्‍हारी जिद सै इस्‍समय तुमको फूटी कौड़ी न मिलेगी, तुम्‍हारे मन मैं आवे सो करो।" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"जनाब जबान सम्‍हाल कर बोलिये। माल देकर कीमत मांगना ठगविद्या है ?" गिरधर सच कहता है "साईं नदी समुद्रसों मिली बड़प्‍पन जानी ।। जात नास भयो आपनो मान महत की हानि ।। मान महत की हानि कहो अब कैसी कीजै ।। जलखारी ह्यै गयो ताहि कहो कैसैं पीजै ।। कह गिरधर कबिराय कच्‍छ मच्‍छ न सकुचाई ।। बड़ो फ़जीहत चार भयो नदियन को साईं ।।"


"बस अब तुम यहां सै चल दो। ऐसे बाजारू आदमियोंका यहां कुछ काम नहीं है" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"मैंनें किसी अमीर के लड़केको बहका कर बदचलनी सिखाई ? या किसी अमीर के लड़केको भोगबिलास मैं डाल कर उस्‍की दौलत ठग ली जो तुम मुझे बाजारू आदमी बताते हो ?"


"तुम कपड़ा बेचनें आएहो या झगड़ा करनें आएहो ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल पूछनें लगे।


"न मैं कपड़ा बेचनें आया न मैं झगड़ा करनें आया। मैंतो अपना रुपया वसूल करनें आया हूँ। मेरा रुपया मेरी झोली मैं डालिये फ़िर मैं यहां क्षण भर न ठैरूंगा"


"नहीं जी, तुमको जबरदस्ती यहां ठैरनें का कुछ अखत्‍यार नहीं है, रुपे का दावा हो तो जाकर अदालत मैं नालिश करो।" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।


"तुम लोग अपनी गलीके शेरहो- यहां चाहे जो कहलो परन्तु अदालत मैं तुम्‍हारी गीदड़ भपकी नहीं चल सक्ती। तुम नहीं जान्‍ते कि ज्‍याद: घिस्‍नें पर चंदन सै भी आग निकलती है। अच्‍छे आदमी को ख़ातर शिष्‍टाचारी सै चाहे जितना दबालो परन्तु अभिमान और धमको सै वह क़भी नहीं दबता"


"तो क्‍या तुम हमको इन बातों सै दबा लोगे ?" लाला मदनमोहन नें त्‍योरी चढ़ाकर कहा।


"नहीं साहब, मेरा क्‍या मकदूर है ? मैं ग़रीब, आप अमीर। मुझको दिनभर रोज़गार धंधा करना पड़ता है, आपका सबदिन हँसी दिल्‍लगी की बातों मैं जाता है। मैं दिनभर पैदल भटकता हूँ, आप सवारी बिना एक कदम नहीं चल्‍ते। मेरे रहनें की ए‍क झोंपड़ी, आप के बड़े बड़े महल। मुल्‍क मैं अकालहो, ग़रीब बिचारे भूखों मरतेहों, आप के यहां दिन रात ये ही हाहा, हीहो, रहैगी। सच है आप पर उन्‍का क्‍या हक़ है ? उन्‍सै आपका क्‍या सम्बन्ध है ? परमेश्‍वर नें आपको मनमानी मोज करनें के लिये दौलत देदी फ़िर औरों के दु:ख दर्द मैं पड़नें की आपको क्‍या ज़रूरत रही ? आपके लिये नीति अनीति की कोई रोक नहीं है आप-"


"क्‍यों जी ! तुम अपनी बकवाद नहीं छोड़ते-अच्‍छा जमादार इन्‍को हाथ पकड़ कर यहां सै बाहर निकालदो और इन्‍की गठरी उठाकर गलीं में फेंकदो" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें हुक्‍म दिया।


"मुझको उठानें की क्‍या जरुरत है ? मैं आप जाता हूँ परन्तु तुमनें बेसबब मेरी इज्‍ज़त ली है इस्का परिणाम थोड़े दिन मैं देखोगे। जिस तरह राजा द्रुपद नें बचपन मैं द्रोणाचार्य सै मित्रता करके राज पानें पर उन्‍का अनादर किया तब द्रोणाचार्य नें कौरव पांडवों को चढ़ा ले जाकर उस्‍की मुश्‍कें बंधवा ली थीं और चाणक्‍यनें अपनें अपमान होनें पर नन्‍दबंश का नाश करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दिखाई थी। पृथ्‍वीराज नें संयोगता के बसवर्ती होकर चन्‍द और हाहुली राय को लोंडियों के हाथ पिटवाया तब हाहुली राय नें उस्‍का बदला पृथ्‍वीराज सै लिया था, इसी तरह परमेश्‍वर नें चाहा तो मैं भी इस्‍का बदला आपसै लेकर रहूँगा" यह कहक़र हरकिशोर नें तत्‍काल अपनी गठरी उठाली और गुस्‍सै मैं मूछोंपर ताव देता चला गया।


"ये बदला लेंगे ! ऐसे बदला लेनेंवाले सैकड़ों झकमारते फ़िरते हैं" हरकिशोर के जाते ही मुन्शी चुन्‍नीलाल नें मदनमोहन को दिलासा देनें के लिये कहा।


"जो यौं किसी के बैर भाव सै किसी का नुक्सान होजाया करै तो बस संसार के काम ही बन्द होजायं" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।


"सूर्य चंद्रमा की तरफ़ धूल फैंकनें वाले अपनेंही सिर पर धूल डालते हैं" पंडित पुरुषोत्तमदास नें कहा। पर इनबातों सै लाला मदनमोहन को संतोष न हुआ।


"मैं हरकिशोर को ऐसा नहीं जान्‍ता था, वह तो आज आपे सै बाहर होगए। अच्‍छा ! अब वह नालिश कर दैं तो उन्की जवाब दिही किस तरह करनी चाहिये ? मैं चाहता हूँ कि चाहे जितना रुपया खर्च होजाय परन्तु हरकिशोर के पल्‍लै फूटी कौड़ी न पड़े" लाला मदनमोहन नें अपनें स्‍वभावानुसार कहा।


मदनमोहन के निकटबर्ती जान्‍ते थे कि मदनमोहन जैसे हठीले हैं वैसे ही कमहिम्‍मत हैं, जिस्‍समय उन्‍को किसी तरह का घबराहट हो हरेक आदमी दिलजमई की झूंटी सच्‍ची बातैं बना कर उन्‍को अपनें काबू पर चढ़ा सक्‍ता है और मन चाहा फायदा उठासक्‍ता है इस लिये अब चुन्‍नीलाल नें वह चाल डाली।


"यह मुकद्दमा क्‍या चीज है ! ऐसे सैंकड़ों मुकद्दमें आपके पुन्‍य प्रताप सै चुटकियों मैं उड़ा सक्‍ता हूँ परन्तु इस्‍समय मेरे चित्त को जरा उद्वेग होरहा है इसी सै अकल काम नहीं देती" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"क्‍यों तुम्‍हारे चित्त के उद्वेग का क्‍या कारण है ? क्‍या हरकिशोर की धमकी सै डर गए ? ऐसा हो तो विश्‍वास रक्‍खो कि मेरी सब दौलत खर्च होजायगी तो भी तुम्‍हारे ऊपर आंच न आनें दूंगा" लाला मदनमोहन नें कहा।


"नहीं, महाराज ! ऐसी बातोंसै मैं कब डरता हूँ ? और आपके लिये जो तकलीफ मुझको उठानी पड़े उस्‍मैं तो और मेरी इज्‍जत है। आपके उपकारोंका बदला मैं किस तरह नहीं दे सक्ता, परन्तु लड़कीके ब्‍याहके दिन बहुत पास आ गये, तयारी अबतक कुछ नहीं हुई, ब्‍याह आपकी नामवरीके मूजिब करना पड़ेगा, इस्‍सै इन दिनों मेरी अकल कुछ गुमसी हो रही है" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।


"तुम धैर्य रक्‍खो तुम्‍हारी लड़कीके ब्‍याहका सब खर्च हम देंगे" लाला मदनमोहन नें एकदम हामी भर ली।


"ऐसी सहायता तो इस सरकार सै सब को मिलती ही है परन्तु मेरी जीविका का वृत्तान्त भी आप को अच्‍छी तरह मालूम है और घर का गृहस्‍थका खर्च भी आपसै छिपा नहीं है, भाई खाली बैठे हैं जब आपके यहांसै कुछ सहायता होगी तो ब्‍याहका काम छिड़ैगा कपड़े लत्ते वगैरे की तैयारी मैं महीनों लगते हैं" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।


"लो; ये दो सौ रुपेके नोट लेकर इस्समय तो काम चल्‍ता करो, और बातोंके लिये बंदोबस्‍त पीछेसै कर दिया जायगा" लाला मादनमोहननें नोट देकर कहा।


"जी नहीं हुजूर ! ऐसी क्‍या जल्‍दी थी" मुन्शी चुन्‍नीलाल नोट जेब मैं रखकर बोले,


"यह भी अच्‍छी बिद्या है" पंडितजीनें भरमा भरमी सुनाई।


"मैं जान्‍ता हूँ कि प्रथम तो हरकिशोर नालिश ही नहीं करेंगे और की भी तो दमभर मैं खारिज कर दी जायगी" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।


निदान लाला मदनमोहन बहुत देरतक इस प्रकारकी बातों सै अपनी छातीका बोझ हल्‍का करके भोजन करनें गए और गुपचुप बैजनाथके बुलानेंके लिये एक आदमी भेज दिया।


प्रकरण-14 : पत्रव्यवहार


अपनें अपनें लाभकों बोलतबैन बनाय


वेस्‍या बरस घटावही, जोगी बरस बढ़ाय।


बृन्‍द।


लाला मदनमोहन भोजन करके आए उस्‍समय डाकके चपरासीनें लाकर चिट्ठीयां दीं।


उन्‍मैं एक पोस्टकार्ड महरोलीसै मिस्‍टर बेलीनें भेजा था। उस्‍मैं लिखा था कि "मेरा बिचार क‍ल शामको दिल्‍ली आनेंका है आप महरबानी करके मेरे वास्‍तै डाकका बंदोबस्‍त कर दें और लोटती डाकमैं मुझको लिख भेजैं" लाला मदनमोहननें तत्‍काल उस्‍का प्रबंध कर दिया।


दूसरी चिट्ठी कलकत्ते सै हमल्‍टीन कंपनी जुएलर (जोहरी) की आई थी उस्‍मैं लिखा था "आपके आरडरके बमूजिब हीरोंकी पाकट चेन बनकर तैयार हो गई है, एक दो दिनमैं पालिश करके आपके पास भेजी जायगी और इस्‍पर लागत चार हजार अंदाज रहैगी। आपनें पन्‍नेकी अंगूठी और मोतियोंकी नेकलेसके रुपे अब तक नहीं भेजे सो महरबानी करके इन तीनों चीजोंके दाम बहुत जल्‍द भेज दीजिये"


तीसरा फारसी ख़त अल्‍लीपूरसे अब्‍दुर्रहमान मेटका आया था। उस्‍मैं लिखा था कि "रुपे जल्‍दी भेजिये नहीं तो मेरी आबरूमैं फर्क आ जायगा और आपका बड़ा हर्ज होगा। कंकरवाले का रुपया बहुत चढ़ गया इस लिये उस्‍नें खेप भेजनी बंद कर दी। मज्दूरोंका चिट्ठा एक महीनेंसै नहीं बंटा इस लिये वह मेरी इज्‍जत लिया चाहते हैं, इस ठेके बाबत पांच हजार रुपे सरकारसै आपको मिलनें वाले थे वह मिले होंगे, महरबानी करके वह कुल रुपे यहां भेज दीजिये जिस्सै मेरा पीछा छूटे। मुझको बड़ा अफसोस है कि इस ठेकेमैं आपको नुक्‍सान रहैगा परन्तु मैं क्‍या करूं ? मेरे बसकी बात न थी। जमीन बहुत ऊंची नीची निकली, मज्दूर दूर, दूरसै दूनी मज्दूरी देकर बुलानें पड़े, पानी का कोसों पता न था मुझसै हो सका जहांतक मैंनें अपनी जान लड़ाई, खैर इस्‍का इनाम तो हुजूर के हाथ है परन्तु रुपे जल्‍दी भेजिये, रुपयों के बिना यहांका काम घड़ी भर नहीं चल सक्‍ता"


लाला मदनमोहन नोकरोंको काम बतानें, और उन्‍की तन्‍ख्‍वाहका खर्च निकालनेंके लिये बहुधा ऐसे ठेके वगैरा ले लिया करते थे। नोकरोंके विषयमैं उन्‍का बरताव बड़ा बिलक्षण था, जो मनुष्‍य एक बार नोकर हो गया वह हो गया। फ़िर उस्‍सै कुछ काम लिया जाय या न लिया जाय। उस्‍के लायक कोई काम हो या न हो। वह अपना काम अच्‍छी तरह करे या बुरी तरह करे, उस्‍के प्रतिपालन करनेंका कोई हक़ अपनें ऊपर हो या न हो, वह अलग नहीं हो सक्‍ता और उस्पर क्या है ? कोई खर्च एक बार मुकर्रर हुए पीछै कम नहीं हो सक्ता, संसारके अपयश का ऐसा भय समा रहा है कि अपनी अवस्‍थाके अनुसार उचित प्रबंध सर्वथा नहीं होनें पाता। सब नोकर सब कामोंमैं दखल देते हैं परन्तु कोई किसी कामका जिम्‍मेवार नहीं है, और न कोई संभाल रखता है, मामूली तनख्‍वाह तो उन लोगों नें बादशाही पेन्‍शन समझ रक्‍खी है, दस पंदरह रुपे महीनेंकी तनख्‍वाहमैं हजार पांच सो रुपे पेशगी ले रखना, दो, चार हजार पैदा कर लेना कौन बड़ी बात है ? पांच रुपे महीनेंके नोकर हों, या तीन रुपे महीनेंके नोकर हो विवाह आदिका खर्च लाला साहब के जिस्में समझते हैं, और क्‍यों न समझें ? लाला साहब की नोकरी करें तब विवाह आदिका खर्च लेनें कहां जायं ? मदत का दारोगा मदत मैं, चीजबस्‍त लानें वाले चीजबस्‍त मैं, दुकान के गुमाश्‍ते दुकान मैं, मनमाना काम बनारहे हैं जिसनें जिसकाम के वास्‍तै जितना रुपया पहले ले लिया वह उस्‍के बाप दादे का होचुका, फ़िर हिसाब कोई नहीं पूछता। घाटे नफे और लेन देन की जांच परताल करनें के लिये कागज कोई नहीं देखता। हाल मैं लाला मदनमोहन नें अपनें नोकरों के प्रतिपालन के लिये अल्‍लीपुर रोड का ठेका ले रक्‍खा था जिस्‍मैं सरकार सै ठेका लिया उस्‍सै दूनें रुपे अब तक खर्च हो चुके थे पर काम आधा भी नहीं बना था और खर्च के वास्‍तै वहां सै ताकीद पर ताकीद चली आती थी परमेश्‍वर जानें अब्‍दुर्रहमान को अपनें घर खर्चके वास्‍तै रुपे की ज़रूरत थी या मदद के वास्‍तै रुपे की ज़रूरत थी।


चोथा खत एक अखबार के एडीटर का था। उस्‍मैं लिखा था कि "आपनें इस महीनें की तेरहवीं तारीख का पत्र देखा होगा, उस्‍मैं कुछ वृत्तान्त आपका भी लिखा गया है। इस्‍समय के लोगों को खुशामद बहुत प्‍यारी हैं और खुशामदी चैन करते हैं परन्तु मेरा यह काम नहीं। मैंनें जो कुछ लिखा वह सच, सच लिखा है, आप से बुद्धिमान, योग्‍य, सच्‍चे, अभिज्ञ, उदार और देशहितैषी हिन्दुस्थान मैं बहुत कम हैं इसी सै हिन्दुस्थान की उन्‍नति नहीं होती, विद्याभ्‍यास के गुण कोई नहीं जान्‍ता, अखबारों की कदर कोई न‍हीं करता, अखबार जारी करनें वालों को नफेके बदले नुक्‍सान उठाना पड़ता है। हम लोग अपना दिमाग खिपा कर देश की उन्‍नति के लिये आर्टिकल लिखते हैं। परन्तु अपनें देश के लोग उस्‍की तरफ़ आंख उठाकर भी नहीं देखते इस्‍सै जी टूटा जाता है। देखिये अखबार के कारण मुझ पर एक हजार रुपे का कर्ज होगया और आगे को छापे खानें का खर्च निकालना भी बहुत कठिन मालूम होता है। प्रथम तो अखबार के पढ़नेंवाले बहुत कम, और जो हैं उन्‍मैं भी बहुधा कारस्पोन्डेन्ट बनकर बिना दाम दिये पत्र लिया चाहते हैं और जो गाहक़ बनते हैं उन्‍मैं भी बहुधा दिवालिये निकल जाते हैं। छापेखानें का दो हजार रुपया इस्‍समय लोगों मैं बाकी है परन्तु फूटी कौड़ी पटनें का भरोसा नहीं। कोई आपसा साहसी पुरुष देश का हित बिचार कर इस डूबती नाव को सहारा लगावे तो बेड़ा पार होसक्ता है नहीं तो खैर जो इच्‍छा परमेश्‍वर की।"


एक अखबार के एडीटर की इस लिखावट सै क्‍या, क्‍या बातें मालूम होती हैं ? प्रथम तो यह है कि हिन्दुस्थान मैं बिद्या का, सर्व साधारण की अनुमति जान्‍नें का, देशान्तर के वृत्तान्त जान्नें का, और देशोन्‍नति के लिये देश हितकारी बातों पर चर्चा करनें का व्यसन अभी बहुत कम है। बलायत की आबादी हिन्दुस्थान की आबादी सै बहुत ही थोड़ी है तथापि वहां अखबारों की इतनी बृद्धि है कि बहुत से अखबारों की डेढ़, डेढ़ दो, दो लाख कापियां निकलती हैं। वहां के स्‍त्री, पुरुष, बूढ़े, बालक, गरीब, अमीर, सब अपनें देश का वृत्तान्त जान्‍ते हैं और उस्‍पर वाद-विवाद करते हैं। किसी अखबार मैं कोई बात नई छपती है तो तत्काल उस्‍की चर्चा सब देश मैं फैल जाती हैं और देशान्‍तर को तार दौड़ जाते हैं। परन्तु हिन्दुस्थान मैं ये बात कहां ? यहां बहुत से अखबारों की पूरी दो, दो सौ कापियां भी नहीं निकलतीं ! और जो निकलती हैं उन्‍मैं भी जान्‍नें के लायक बातैं बहुत ही कम रहती हैं क्‍योंकि बहुतसे एडीटर तो अपना कठिन काम सम्‍पादन करनें की योग्‍यता नहीं रखते और बलायत की तरह उन्को और बिद्वानों की सहायता नहीं मिल्‍ती, बहुतसे जान बूझकर अपना काम चलानें के लिये अजान बनजाते हैं इस लिये उचित रीति सै अपना कर्तव्य सम्‍पादन करनें वाले अखबारों की संख्‍या बहुत थोड़ी है पर जो है उस्‍को भी उत्तेजन देनें वाला और मन लगाकर पढ़नें वाला कोई नहीं मिल्ता। बड़े, बड़े अमीर, सौदागर, साहूकार, जमींदार, दस्तकार, जिन्की हानि लाभ का और देशों सै बड़ा सम्बन्ध है वह भी मन लगाकर अखबार नहीं देखते बल्कि कोई, कोई तो अखबार के एडीटरों को प्रसन्‍न रखनें के लिये अथवा गाहकों के सूचीपत्र मैं अपना नाम छपानें के लिये अथवा अपनी मेज को नए, नए अखबारों सै सुशोभित करनें के लिये अथवा किसी समय अपना काम निकाललेनें के लिये अखबार खरीदते हैं ! जिस्‍पर अखबार निकालनेंवालों की यह दशा है ! लाला मदनमोहन इस खत को पढ़ कर सहायता करनें के लिये बहुत ललचाये परन्तु रुपे की तंगी के कारण तत्‍काल कुछ न कर सके।


"हुजूर ! मिस्‍टर रसलके पास रुपे आज भेजनें चाहियें" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें डाक देख पीछै याद दिवाई।


"हां ! मुझको बहुत खयाल है परन्तु क्‍या करूं ? अबतक कोई बानक नहीं बना" लाला मदनमोहन बोले।


"थोड़ी बहुत रकमतो मिस्‍टर ब्राइट के यहां भी ज़रूर भेजनी पड़ेगी" मास्‍टर शिंभूदयाल नें अवसर पाकर कहा।


"हां और हरकिशोर नें नालिश करदी तो उस्सै जवाब दिही करनें के लिये भी रुपे चाहियेंगे" लाला मदनमोहन चिंता करनें लगे।


"आप चिन्ता न करें, जोतिष सै सब होनहार मालूम हो सक्ता है। चाणक्‍य नें कहा है "का ऐश्‍वर्य बिशाल मैं का मोटेदुख पाहिं । रस्‍सी बांध्‍यो होय जों पुरुष दैव बस माहिं ।।"35


(35ऐश्वर्यें वासुविरतीर्णे व्यसनें वापि दारुणे ।।


रज्जेव पुरुषो बद्ध: क्वतांतेनोपनीयते ।।)


इस लिये आपको कुछ आगे का बृतान्‍त जान्‍ना हो तो आप प्रश्‍न करिये, जोतिष सै बढ़कर होनहार जान्‍नें का कोई सुगम मार्ग नहीं है" पंडित पुरुषोत्तमदास नें लाला मदनमोहन को कुछ उदास देख कर अपना मतलब गांठनें के लिये कहा।वह जान्‍ता था कि निर्बल चित्त के मनुष्य सुखमैं किसी बात की गर्ज नहीं रखते परन्तु घबराहट के समय हर तरफ़ को सहारा तकते फ़िरते हैं।


"बिद्या का प्रकाश प्रतिदिन फैल्‍ता जाता है इसलिये अब आपकी बातों मैं कोई नहीं आवेगा" मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा।


"यह तो आजकलके सुधरे हुओं की बात है परन्तु वे लोग जिस बिद्याका नाम नहीं जान्‍ते उस्‍मैं उन्‍की बात कैसे प्रमाण हो ?" पंडितजीनें जवाब दिया।


"अच्‍छा आप करेलेके सिवा और क्‍या जान्‍ते हैं ? आपको मालूम है कि नई तहकीकात करनें वालोंनें कैसी, कैसी दूरबीनें बनाकर ग्रहोंका हाल निश्‍चय किया है ?" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।


"किया होगा, परन्तु हमारे पुरुखोंनें भी इस विषयमैं कुछ कसर नहीं रक्‍खी" पंडित पुरुषोत्तमदास कहनें लगे। "इस समय के बिद्वानोंनें बड़ा खर्च करके जो कलें ग्रहों का बृतान्‍त निश्‍चय करनें के लिये बनाई हैं हमारे बड़ों नें छोटी, छोटी नालियों और बांसकी छड़ियों के द्वारा उन्सै बढ़कर काम निकाला था। संस्‍कृत की बहुतसी पुस्‍तकें अब नष्‍ट हो गईं, योगाभ्‍यास आदि बिद्याओं का खोज नहीं रहा परन्तु फ़िर भी जो पुस्‍तकें अब मौजूद हैं उन्‍मैं ढूंढ़नें वालों के लिये कुछ थोड़ा ख़जाना नहीं है। हां आप की तरह कोई कुछ ढूंढ़भाल करे बिना दूर ही सै "कुछ न‍हीं" "कुछ नहीं" कहक़र बात उड़ा दे तो यह जुदी बात है"


"संस्‍कृत बिद्या की तो आजकल के सब बिद्वान एक स्‍वर होकर प्रशंसा करते हैं परन्तु इस्‍समय जोतिष की चर्चा थी सो निस्सन्देह जोतिष मैं फलादेश की पूरी बिध नहीं मिल्‍ती शायद बतानेंवालों की भूल हो। तथापि मैं इस विषय मैं किसी समय तुमसै प्रश्‍न करूंगा और तुम्‍हारी बिध मिल जायगी तो तुम्‍हारा अच्‍छा सत्‍कार किया जायगा" लाला मदनमोहन नें कहा और यह बात सुनकर पंडितजी के हर्ष की कुछ हद न रही।


प्रकरण-15 : प्रिय अथवा पिय् ?


दमयन्ति बिलपतहुती बनमैं अहि भयपाइ


अहिबध बधिक अधिक भयो ताहूते दुखदाइ


नलोपाख्‍याने।


"ज्‍योतिष की बिध पूरी नहीं मिल्‍ती इसलिये उस्‍पर बिश्‍वास नहीं होता परन्तु प्रश्‍न का बुरा उत्‍तर आवे तो प्रथम हीसै चित्त ऐसा व्‍याकुल हो जाता है कि उस काम के अचानक होंनें पर भी वैसा नहीं होता, और चित्त का असर ऐसा प्रबल होता है कि जिस वस्‍तु की संसार मैं सृष्टि ही न हो वह भी वहम समाजानें सै तत्‍काल दिखाई देनें लगती है। जिस्‍पर जोतिषी ग्रहों को उलट पुलट नहीं कर सक्ते, अच्‍छे बुरे फल को बदल नहीं सक्ते, फ़िर प्रश्‍न करनें सै लाभ क्‍या ? कोई ऐसी बात करनी चाहिये जिस्‍सै कुछ लाभ हो" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"आप हुक्‍म दें तो मैं कुछ अर्ज करूं ?" बिहारी बाबू बहुत दिन सै अवसर देख रहे थे वह धीरे सै पूछनें लगे।


"अच्‍छा कहो" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें मदनमोहन के कहनें सै पहले ही कह दिया।


"भोजला पहाड़ी पर एक बड़े धनवान जागीरदार रहते हैं। उन्‍को ताश खेलनें का बड़ा व्‍यसन है। वह सदा बाजी बद कर खेल्‍ते हैं और मुझको इस खेल के पत्ते ऐसी राह सै लगानें आते हैं कि जब खेलैं तब अपनी ही जीत हो। मैंनें उन्‍को कितनी ही बार हरादिया इसलिये अब वह मुझको नहीं पतियाते परन्तु आप चाहैं तो मैं वह खेल आपको सिखा दूं फ़िर आप उन्‍सै निधड़क खेलैं। आप हार जायंगे तो वह रकम मैं दूंगा और जीतें तो उस्‍मैं सै मुझको आधी ही दें" बिहारी बाबू नें जुए का नाम छिपा कर मदनमोहन को आसामी बनानें के वास्ते कहा।


"जीतेंगे तो चौथाई देंगे, परन्तु हारनें केलिये रक़म पहले जमा करा दो" मुन्शी चुन्‍नीलाल मदनमोहन की तरफ़ सै मामला करनें लगें।


"हारनें के लिये पहले पांच सौ की थैली अपनें पास रख लीजिये परन्तु जीत मैं, आधा हिस्‍सा लूंगा" बिहारी बाबू हुज्‍जत करनें लगे।


"नहीं, जो चुन्‍नीलाल नें कह दिया वह हो चुका, उस्‍सै अधिक हम कुछ न देंगे" लाला मदनमोहन नें कहा।


और बड़ी मुश्किल सै बिहारी बाबू उस्‍पर कुछ, कुछ राजी हुए परन्तु सौभाग्‍य बस उस्‍समय बाबू बैजनाथ आ गए इस्सै सब काम जहां का तहां अटक गया।


"बिहारी बाबू सै किस बात का मामला हो रहा है ?" बाबू बैजनाथ नें पहुँचते ही पूछा।


"कुछ नहीं, यह तो ताश के खेल का जिक्र था" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें साधारण रीति सै कहा।


बिहारी बाबू कहते हैं कि "मैं पत्ते लगानें सिखा दूं जिस्‍तरह पत्ते लगाकर आप एक धनवान जागीरदार सै ताश खेलैं, और बाजी बद लें। जो हारेंगे तो सब नुक्‍सान मैं दूंगा। और जीतेंगे तो उस्‍मैं सै चौथाई ही मैं लूंगा" लाला मदनमोहन नें भोले भाव सै सच्‍चा वृत्तान्त कह दिया।


"यह तो खुला जुआ है और बिहारी बाबू आपको चाट लगानें के लिये प्रथम यह सब्‍ज बाग दिखाते हैं" बाबू बैजनाथ कहनें लगे "जिस तरह सै पहलै एक मेवनें, आपको गड़ी दौलत का तांबेपत्र दिखाया था, और वह सब दौलत गुप चुप आपके यहां ला डालनें की हामी भरता था परन्तु आपसै खोदनें के बहानें सौ, पचास रुपे मार लेगया तब सै लौट कर सूरत तक न दिखाई ! आपको याद होगा कि आपके पास एक बदमाश स्‍याम का शाहजादा बनकर आया था, और उस्‍नें कहा था कि "मैं हिन्दुस्थान की सैर करनें आया हूँ मेरे जहाज़ नें कलकत्ते मैं लंगर कर रक्‍खा है मुझ को यहां खर्च की ज़रूरत है आप अपनें आढ़तिये का नाम मुझे बता दें मैं अपनें नोकरों को लिखकर उस्‍के पास रुपे जमा कर दूंगा जब उस्‍की इत्तला आप के पास आजाय तब आप रुपे मुझे देदें" निदान आप के आढ़तिये के नाम सै तार आप के पास आगया और आपनें रुपे उस्‍को दे दिये, परन्तु वह तार उन्हीं के किसी साथी नें आपके आढ़तिए के नाम सै आपको दे दिया था इसलिये यह भेद खुला उस्‍समय शाहज़ादे का पता न लगा ! एक बार एक मामला करानेंवाला एक मामला आपके पास लाया था जब उस्‍नें कहा था कि "सरकार मैं रसद के लिये लकड़ियों की खरीद है और तहसील मैं ढाई मन का भाव है। मैं सरकारी हुक्‍म आप को दिखा दूंगा आप चार मन के भाव मैं मेरी मारफ़त एक जंगलवाले की लकड़ी लेनी कर लें" यह कहक़र उस्‍नें तहसील सै निर्खनामे की दस्‍तख़ती नक़ल लाकर आपको दिखा दी पर उस भाव मैं सरकार की कुछ खरीददारी न थी ! इन्के सिवाय जिस्‍तरह बहुत से रसायनी तरह, तरह का धोखा देकर सीधे आदमियों को ठगते फ़िरते हैं इसी तरह यह भी जुआरी बनानें की एक चाल है, जिस काम मैं बे लागत और बे महनत बहुतसा फ़ायदा दिख़ाई दे उस्मैं बहुधा कुछ न कुछ धोकेबाज़ी होती है। ऐसे मामलेवाले ऊपर सै सब्‍जबाग दिखाकर भीतर कुछ न कुछ चोरी ज़रूर रखते हैं"


"बाबू साहब ! मैंनें जिस तरह राह सै ताश खेलनें के वास्ते कहा था वह हरगिज जुए मैं नहीं गिनी जा सकती परन्तु आप उस्‍को जुआ ही ठैराते हैं तो कहिये जुए मैं क्‍या दोष है ?" बिहारी बाबू मामला बिगड़ता देखकर बोले "दिवाली के दिनों मैं सब संसार जुआ खेल्‍ता है और असल मैं जुआ ए‍क तरह का व्यापार है जो नुकसान के डर सै जुआ बर्जित हो तो और सब तरहके व्यापार भी बर्जित होनें चाहियें। और व्‍यापार मैं घाटा देनें के समय मनुष्‍य की नीयत ठिकानें नहीं रहती परन्तु जुए के लेन देन बाबत अदालत की डिक्री का डर नहीं है तोभी जुआरी अपना सब माल अस्‍बाब बेचकर लेनदारों की कौड़ी, कौड़ी चुका देता है। उस्‍के पास रुपया हो तो वह उस्‍के लुटानें मैं हाथ नहीं रोकता और अपनें काम मैं ऐसा निमग्‍न हो जाता है कि उसै खानें पीनें तक की याद नहीं रहती, उस्‍के पास फूटी कौड़ी न रहै तोभी वह भूखों नहीं मरता फडपर जातें ही जीते जुआरी दो, चार गंडे देकर काम अच्‍छी तरह चला देते हैं।"


"राम ! राम ! दिवाली पर क्‍या ? समझवार तो स्‍वप्‍न मैं भी जुए के पास नहीं जाते जुए सै व्यापार का क्‍या सम्बन्ध ? उस्‍की कुछ सूरत मिल्‍ती है तो बदनी सै मिल्‍ती है पर उस्‍को जुए से अलग कौन समझता है ? उस्‍को प्रतिष्ठित साहूकार कब करते हैं ? सरकार मैं उस्‍की सुनाई कहां होती है ? निरी बातों का जमा खर्च व्‍यापार मैं सर्वथा नहीं गिना जाता। व्‍यापार के तत्‍व ही जुदे हैं। भविष्‍यत काल की अवस्‍था पर दृष्टि पहुँचाना, परता लगाना, माल का खरीदना, बेचना या दिसावरको बीजक भेजकर माल मंगाना और माल भेजकर बदला भुगताना, व्‍यापार है परन्तु जुए में यह बातें कहां ? जुआ तो सब अधर्मों की जड़ है। मनु और बिदुरजी एक स्‍वर सै कहते हैं "सुनो पुरातन बात, जुआ कलह को मूल है ।। हाँसीहूँ मैं तात, तासों नहीं खेलैं चतुर।। "36


(36द्यूतमेत्तपुराकल्पे दृश्टं बैरकरम् महत ।।


तस्मात् द्यूतन्नसेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान ।।)


बाबू बैजनाथ नें कहा।


"आप वृथा तेज होते हैं। मैं खुद जुए का तरफ़दार नहीं हूँ परन्तु विवाद के समय अच्‍छी, अच्‍छी युक्तियों सै अपना पक्ष प्रबल करना चाहिये। क्रोध करके गाली देनें सै जय नहीं होती। आप की दृष्टि मैं मैं झूंठा हूँ परन्तु मेरी सदुक्तियों को आप झूंठा नहीं ठैरा सक्ते। मुझ पर किस तरह का दोषारोपण किया जाय तो उस्‍को युक्ति पूर्वक साबित करना चाहिये और और बातों मैं मेरी भूल निकालनें सै क्‍या वह दोष साबित हो जायगा ?"


"जुए का नुक्सान साबित करनें के लिये विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। देखो नल और युधिष्ठिरादि की बरबादी इस्का प्रत्‍यक्ष प्रमाण है" बाबू बैजनाथ बोले।


"मैं आप सै कुछ अर्ज नहीं कर सक्‍ता परन्तु-"


"बस जी ! रहनें दो बाबू साहब कुछ तुम सै बहस करनें के लिये इस्‍समय यहां नहीं आए" यह कहक़र लाला मदनमोहन बाबू बैजनाथ को अलग लेगए और हरकिशोर की तकरार का सब वृतान्त थोड़े मैं उन्हैं सुना दिया।


"मैं पहले हरकिशोर को अच्‍छा आदमी समझता था। परन्तु कुछ दिन सै उस्‍की चाल बिल्‍कुल बिगड़ गई। उस्‍को आप की प्रतिष्‍ठा का बिल्‍कुल बिचार नहीं रहा और आज तो उस्‍नें ऐसी ढिठाई की कि उस्‍को अवश्‍य दंड होना चाहिये था सो अच्‍छा हुआ कि वह अपनें आप यहां सै चला गया, उस्के चले जानें सै उस्के सब हक़ जाते रहे। अब कुछ दिन धक्के खानें सै उस्‍की अकल अपनें आप ठिकानें आ जायगी"


"और उसनें नालिश कर दी तो ?" लाला मदनमोहन घबराकर बोले।


"क्‍या होगा ? उस्‍के पास सबूत क्‍या है ? उस्‍का गबाह कौन है ? वह नालिश करैगा तो हम क़ानूनी पाइन्‍ट सै उस्‍को पलट देंगे परन्तु हम जान्‍ते हैं कि यहांतक नोबत न पहुँचेगी अच्‍छा ! उस्‍के पास आप की कोई सनद है ?"


"कोई नहीं"


"तो फ़िर आप क्‍यों डरते हैं ? वह आप का क्‍या कर सक्ता है ?"


"सच है उस्‍को रुपे की गर्ज होगी तो वह नाक रगड़ता आप चला जायगा हम उस्‍के नीचे नहीं दबे वही कुछ हमारे नीचे दब रहा है"


"आप इस विषय मैं बिल्‍कुल निश्चिन्‍त रहैं"


"मुझको थोड़ासा खटका लाला ब्रजकिशोर की तरफ़ का है यह हरबात मैं मेरा गला घोटते हैं और मुझको तोतेकी तरह पिंजरे मैं बंद रक्खा चाहते हैं"


"वकीलों की चाल ऐसीही होती हैं। वह प्रथम धरती आकाशके कुल्‍लाबे मिलाकर अपनी योग्‍यता जताते हैं फ़िर दूसरे को तरह, तरह का डर दिखाकर अपना आधीन बनाते हैं और अन्त मैं आप उस्के घरबार के मालक बन बैठते हैं परन्तु चाहे जैसा फ़ायदा हो मैंतो ऐसी परतन्‍त्रता सै रहनें को अच्‍छा नहीं समझता"


"मेरा भी यही बिचार है मैं जोंजों दबता हूँ वह ज्‍याद: दबाते जाते हैं इसलिये अब मैं नहीं दबा चाहता"


"आपको दबनें की क्‍या ज़रूरत है ? जबतक आप इनको मुंहतोड़ जवाब न देंगे यह सीधे न होंगे, लाला ब्रजकिशोर आपके घर के टुकड़े खाखा कर बड़े हुए थे वह दिन भूल गए !"


लाला मदनमोहन नें बाबू बैजनाथ की नेकसलाहों का बहुत उपकार माना और वह लाला मदनमोहन सै रुख़सत होकर अपनें घर गए।


प्रकरण-१६ : सुरा (शराब)


जेनिंदितकर्मंनडरहिं करहिंकाज शुभजान ।।


रक्षैं मंत्र प्रमाद तज करहिं न ते मदपान ।।37


बिदुरनीति।


(37अकार्य कारणा द्वौतः कार्याणांच विवर्जनात् ।।


अकाले मंत्र भेदाच्च येनमाद्येन्नतत्पिबेत् ।।)


"अब तो यहां बैठे, बैठे जी उखताता है चलो कहीं बाहर चलकर दस, पांच दिन सैर कर आवैं" लाला मदनमोहन नें कमरे मैं आकर कहा।


"मेरे मन मैं तो यह बात कई दिन सै फ़िर रही थी परन्तु कहनें का समय नहीं मिला" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।


"हुजूर ! आजकल कुतब मैं बड़ी बहार आ रही है, थोड़े दिन पहलै एक छींटा होगया था इस्सै चारों तरफ़ हरियाली छागई है। इस्‍समय झरनें की शोभा देखनें लायक है" मुन्शी चुन्‍नी लाल कहनें लगे।


"आहा ! वहां की शोभाका क्‍या पूछना है ? आमके मौर की सुगंधी सै सब अमरैयें महक़ रही हैं। उन्‍की लहलही लताओं पर बैठकर कोयल कुहुकती रहती है। घनघोर वृक्षों की घटासी छटा देखकर मोर नाचा करते हैं। नीचै झरनाझरता है ऊपर बेल और लताओं के मिलनें सै तरह, तरह की रमणीक कुंजै और लता मंडप बन गये है रंग, रंग के फूलों की बहार जुदी ही मनकों लुभाती है। फूलों पर मदमाते भौरों की गुंजार और भी आनंद बढ़ाती है। शीतल मंद सुगन्धित हवा सै मन अपनें आप खिला जाता है निर्मल सरोवरों के बीच बारहदरी मैं बैठकर चद्दर और फुआरों की शोभा देखनैं सै जी कैसा हरा हो जाता है ? बृक्षों की गहरी छाया मैं पत्‍थर के चटानों पर बैठकर यह बहार देखनें सै कैसा आनंद आता है ?" पंडित पुरुषोत्तमदास नें कहा।


"पहाड़ की ऊंची चोटियों पर जानें सै कुछ और विशेष चमत्‍कार दिखाई देता है जब वहां सै नीचे की तरफ़ देखते हैं कहीं बर्फ, कहीं पत्‍थर की चटानें, कहीं बड़ी बड़ी कंदराएँ, कहीं पानी बहनें के घाटों मैं कोसोंतक बृक्षों की लंगतार, कहीं सुअर, रीछ, और हिरनों के झुंड कहीं जोर सै पानी का टकराकर छींट, छींट हो जाना और उन्मैं सूर्य की किर्णों के पड़नें सै रंग, रंग के प्रतिबिंबों का दिखाई देना, कहीं बादलों का पहाड़ सै टकराकर अपनें आप बरस जाना, बरसा की झड़ अपनें आस पास बादलों का झूम झूम कर घिर आना अति मनोहर दिखाई देखा है" मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।


"कुतब मैं ये बहार नहीं हो तोभी वो अपनी दिल्‍लगी के लिये बहुत अच्‍छी जगह है" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।


"रात को चांद अपनी चांदनी सै सब जगत को रुपहरी बना देता है उस्‍समय दरिया किनारे हरियाली के बीच मीठी तान कैसी प्‍यारी लगती है ?" हकीम अहमदहुसैन नें कहा, "पानी के झरनें की झनझनाहट; पक्षियों की चहचहाहट, हवा की सन् सनाहट, बाजे के सुरों सै मिलकर गानेंवाले की लय को चौगुना बढ़ा देते हैं। आहा ! जिस्‍समय यह समा आंख के साम्नें हो स्‍वर्ग का सुख तुच्‍छ मालूम देता है"


"जिस्‍मैं यह बसंतऋतु तो इसके लिए सब सै बढ़कर है" पंडितजी कहनें लगे, "नई कोंपल, नयै पत्ते, नई कली, नए फूलों सै सज सजाकर वृक्ष ऐसे तैयार हो जाते हैं जैसे बुड्ढ़ों मैं नए सिर सै जवानी आजाय"


"निस्सन्देह वहां कुछ दिन रहना हो, सुख भोग की सब सामग्री मौजूद हो, और भीनी-भीनी रात मैं तालसुर के साथ किसी पिकबयनी की आवाज आकर कान मैं पड़े तो पूरा आनंद मिले" मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा।


"शराब की चसबिना यह सब मज़ा फ़ीका है" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।


"इसमैं कुछ संदेह नहीं" मास्टर शिंभूदयाल नें सहारा लगाया। "मन की चिन्‍ता मिटानें के लिये तो ये अक्‍सीर का गुण रखती है। इस्की लहरों के चढ़ाव उतार मैं स्‍वर्ग का सुख तुच्‍छ मालूम होता है। इस्‍के जोश मैं बहादुरी बढ़ती है बनावट और छिपाव दूर हो जाता है हरेक काम मैं मन खूब लगता है।"


"बस; विशेष कुछ न कहो ऐसी बुरी चीज की तुम इतनी तारीफ करते हो इस्सै मालूम होता है कि तुम इस्‍समय भी उसी के बसवर्ती हो रहे हो" बाबू बैजनाथ कहनें लगे। "मनुष्‍य बुद्धि के कारण और जीवों सै उत्तम है फ़िर भी जिस्के पान सै बुद्धि मैं विकार हो, किसी काम के परिणाम की खबर न रहैं हरेक पदार्थ का रूप और सै और जाना जाय। स्‍वेच्‍छाचार की हिम्‍मत हो, काम-क्रोधादि रिपु प्रबल हों, शरीर जर्जर हो, यह कैसे अच्‍छी समझी जाय ?"


"यों तो गुणदोष सै खाली कोई चीज नहीं है परन्‍तु थोड़ी शराब लेनें सै शरीर मैं बल और फुर्ती तो ज़रूर मालूम होती है" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"पहले थोड़ी शराब पीनें सै नि:संदेह रुधिर की गति तेज होती है, नाड़ी बलवान होती है और शरीर मैं फुर्ती पायी जाती है परन्‍तु पीछै उतनी शराब का कुछ असर नहीं मालूम होता इसलिये वह धीरे, धीरे बढ़ानी पड़ती है। उस्‍के पान किये बिना शरीर शिथिल हो जाता है, अन्‍न हजम नहीं होता। हाथ-पांव काम नहीं देते। पर बढ़ानें सै बढ़ते, बढ़ते वोही शराब प्राण घातक हो जाती है। डाक्‍टर पेरेरा लिखते हैं कि शराब सै दिमाग और उदर आदि के अनेक रोग उत्‍पन्‍न होते हैं डाक्‍टर कार्पेन्‍टर नें इस बाबत एक पुस्‍तक रची है जिस्‍मैं बहुत सै प्रसिद्ध डाक्‍टरों की राय सै साबित किया कि शराब सै लक़वा, मंदाग्नि, बात, मूत्ररोग, चर्मरोग, फोड़ाफुन्सी, और कंपवायु आदि अनेक रोग उत्‍पन्‍न होते हैं, शराबियों की दुर्दशा प्रतिदिन देखी जाती है, क़भी, क़भी उनका शरीर सूखे काठ की तरह अपनें आप भभक उठता है, दिमाग मैं गर्मी बढ़नें सै बहुधा लोग बावले हो जाते हैं।"


"शराब मैं इतनें दोष होते तो अंग्रेजों मैं शराब का इतना रिवाज़ हरगिज न पाया जाता" मास्टर शिंभूदयाल बोले।


"तुम को मालूम नहीं है। वलायत के सैकड़ों डाक्‍टरों नें इस्‍के बिपरीत राय दी है और वहां सुरापान निवारणी सभा के द्वारा बहुत लोग इसे छोड़ते जाते हैं परन्‍तु वह छोड़ें तो क्‍या और न छोड़ें तो क्‍या ? इन्‍द्र के परस्‍त्री (अहिल्‍या) गमन सै क्‍या वह काम अच्‍छा समझ लिया जायगा ? अफसोस ! हिन्‍दुस्‍थान मैं यह दुराचार दिन दिन बढ़ता जाता है यहां के बहुत सै कुलीन युवा छिप छिपकर इस्‍मैं शामिल होनें लगे हैं पर जब इङ्गलैंड जैसे ठंडे मुल्‍क मैं शराब पीनें सै लोगों की यह गत होती हैं तो न जानें हिन्‍दुस्‍थानियों का क्‍या परिणाम होगा और देश की इस दुर्दशा पर कौन्‍सै देश हितैषी की आंखों सै आंसू न टपकैंगे।"


"अब तो आप ह्यदसै आगे बढ़ चले" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"नहीं, हरगिज नहीं मैं जो कुछ कहता हूँ यथार्थ कहता हूँ देखो इसी मदिरा के कारण छप्‍पन कोटि यादवों का नाश घड़ी भर मैं हो गया, इसी मदिरा के कारण सिकंदर नें भर जवानी मैं अपनें प्राण खो दिये। मनुस्‍मृति मैं लिखा है "द्विजघाती, मद्यप बहुरि चोर, गुरु, स्‍त्री, मीत ।। महापातकी है सोउ जाकी इनसों प्रीति ।। × इसी तरह कुरान मैं शराब के स्‍पर्शतक का महा दोष लिखा है।"


"आज तो बाबू साहब नें लाला ब्रजकिशोर की गद्दी दबा ली" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें मुस्‍करा कर कहा।


"राम, राम उन्‍का ढंग दुनिया सै निराला है। वह क्‍या अपनी बात चीत मैं किसी को एक अक्षर बोलनें देते हैं" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।


"उन्‍की कहन क्‍या है अर्गन बाजा है। एक बार चाबी दे दी घन्‍टों बजता रहा," मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"मैंनें तो कल ही कह दिया था कि ऐसे फ़िलासफर विद्या सम्‍बन्‍धी बातों मैं भलेही उपकारी हों संसारी बातों मैं तो किसी काम के नहीं होते" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।


"मुझ को तो उन्का मन भी अच्‍छा नहीं मालूम देता" लाला मदनमोहन आप ही बोल उठे।


"आप उन्सै जरा हरकिशोर की बाबत बातचीत करैंगे तो रहासहा भेद और खुल जायगा देखैं इस विषय मैं वह अपनें भाई की तरफ़दारी करते हैं या इन्‍साफ़ पर रहते हैं" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पेच सै कहा।


"क्‍या कहैं ? हमारी आदत निन्‍दा करनें की नहीं है। परसों शाम को लाला साहब मुझ सै चांदनीचौक मैं मिले थे आंख की सैन मारकर कहनें लगे "आजकल तो बड़े गहरों मैं हो, हम पर भी थोड़ी कृपादृष्टि रक्‍खा करो" मास्‍टर शिंभूदयाल नें मदनमोहन का आशय जान्‍ते ही जड़ दी।


"हैं ! तुम सै ये बात कही ?" लाला मदनमोहन आश्‍चर्य सै बोले।


"मुझ सै तो सैंकड़ों बार ऐसी नोंक झोंक हो चुकी है परन्‍तु मैं क़भी इन्‍बातो का बिचार नहीं करता" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें मिल्‍ती मैं मिलाई।


"जब वह मेरे पीछे मेरा ठट्टा उड़ाते हैं तो मेरे मित्र कहां रहे ? जब तक वह मेरे कामों के लिये केवल मुझ सै झगड़ते थे मुझ को कुछ बिचार न था परन्तु जब वह मेरे पासवालों को छेड़नें लगे तो मैं उन्को अपना मित्र क़भी नहीं समझ सकता" लाला मदनमोहन बोल उठे।


"सच तो ये है कि सब लोग आप की इस बरदास्त पर बड़ा आश्चर्य करते हैं" मुन्शी चुन्‍नीलालनें अवसर पाकर बात आगै बढ़ाई।


"आपको लाला ब्रजकिशोर का इतना क्‍या दबाव है ? उन्सै आप इतनें क्यों दबते हैं ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"सच है मैं अपनी दौलत खर्च करता हूँ इस्‍मैं उन्‍की गांठ का क्‍या जाता है ? और वह बीच, बीच मैं बोलनेंवाले कौन हैं ?" लाला मदनमोहन तेज होकर कहनें लगे।


"इस्‍तरह पर हर बात मैं रोक टोक होनें सै बात का गुमर नहीं रहता; नोकरों को मुक़ाबला करनें का होसला बढ़ता जाता है और आगै चलकर कामकाज मैं फ़र्क आनें की सूरत हो चली है" मुन्शी चुन्नीलाल लै बढ़ानें लगे।


"मैं अब उन्‍सै हरगिज नहीं दबूंगा। मैंनें अब तक दब, दब कर वृथा उन्‍को सिर चढ़ा लिया" लाला मदनमोहन नें प्रतिज्ञा की।


"जो वह झरनें के सरोवरों मैं अपना तैरना और तिवारी के ऊपर सै कलामुंडी खा खाकर कूदना देखेंगे तो फ़िर घंटों तक उन्‍का राग काहेको बन्‍द होगा ?" पंडित पुरुषोत्तमदास बड़ी देर सै बोलनें के लिये उमाह रहै थे, वह झट पट बोल उठे।


"उन्का वहां चलनें का क्‍या काम है ? उन्कों चार दोस्‍तों मैं बैठ कर हंसनें बोलनें की आदतही नहीं है। वह तो शाम सबेर हवा खा लेते हैं और दिन भर अपनें काम मैं लगे रहते हैं या पुस्‍तकों के पन्‍ने उलट पुलट किया करते हैं ! वह संसारका सुख भोगनें के लिये पैदा नहीं हुए। फ़िर उन्‍हें लेजाकर हम क्‍या अपना मज़ा मट्टी करैं ?" लाला मदनमोहन नें कहा।


"बरसात में तो वहां झूलों की बड़ी बहार रहती है" हकीम अहमदहुसैन बोले।


"परन्‍तु यह ऋतु झूलों की नहीं है आज कल तो होली की बहार है" पंडित पुरुषोत्तमदास नें जवाब दिया।


"अच्‍छा फ़िर कब चलनें की ठैरी और मैं कितनें दिन की रुख़सत ले आऊं" मास्‍टर शिंभूदयाल नें पूछा।


"बृथा देर करनें सै क्‍या फ़ायदा है ? चलनाही ठैरा तो कल सबेरे यहां सै चलदैंगे और कम सै कम दस बारह दिन वहां रहैंगे" लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।


लाला मदनमोहन केवल सैर के लिये कुतब नहीं जाते। ऊपर सै यह केवल सैर का बहाना करते हैं परन्‍तु इन्‍के जीमैं अब तक हरकिशोर की धमकी का खटका बनरहा है। मुन्शी चुन्‍नीलाल और बाबू बैजनाथ वगैरै इन्‍को हिम्‍मत बंधानें मैं कसर नहीं रक्‍खी परन्‍तु इन्‍का मन कमजोर है इस्‍सै इन्‍की छाती अब तक नहीं ठुकती, यह इस अवसर पर दस पांच दिन के लिये यहां सै टलजाना अच्‍छा समझते हैं इन्‍का मन आज दिन भर बेचैन रहा है इसलिये और कुछ फायदा हो या न हो यह अपना मन बहला नें के लिये, अपनें मनसै यह डरावनें बिचार दूर करनें के लिये दस पांच दिन यहां सै बाहर चले जाना अच्‍छा समझते हैं और इसी बास्‍तै ये झट पट दिल्‍ली सै बाहर जानें की तैयारी कर रहे हैं।


प्रकरण-17 : स्वतन्त्रता और स्वेच्छाचार


जो कंहु सब प्राणीन सों होय सरलता भाव।


सब तीरथ अभिषेक ते ताको अधिक प्रभाव 38


बिदुरप्रजागरे।


(38सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्व भूतेषू चार्जवम् ।।


उभे त्वेते सने स्याता मार्जवं वा विशिष्यते ।।)


लाला मदनमोहन कुतब जानें की तैयारी कर रहे थे इतनें मैं लाला ब्रजकिशोर भी आ पहुँचे।


"आपनें लाला हरकिशोर का कुछ हाल सुना ?" ब्रजकिशोर के आते ही मदनमोहन नें पूछा।


"नहीं ! मैं तो कचहरी सै सीधा चला आया हूँ"


"फ़िर आप नित्‍य तो घर होकर आते थे आज सीधे कैसे चले आए ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें संदेह प्रगट करके कहा।


"इस्‍मैं कुछ दोष हुआ ? मुझको कचहरी मैं देर होगई थी इस्‍वास्‍तै सीधा चला आया तुम अपना मतलब कहो"


"मतलब तो आपका और मेरा लाला साहब खुद समझते होंगे परन्तु मुझको यह बात कुछ नई, नईसी मालूम होती है" मास्‍टर शिंभूदयाल नें संदेह बढ़ानें के वास्‍तै कहा।


"सीधी बात को बे मतलब पहेली बनाना क्‍या ज़रूर है ? जो कुछ कहना हो साफ़ कहो।"


"अच्‍छा ! सुनिये" लाला मदनमोहन कहनै लगे "लाला हरकिशोर के स्‍वभाव को तो आप जान्‍तेही हैं आपके और उन्के बीच बचपन सै झगड़ा चला आता है-"


"वह झगड़ा भी आपही की बदौलत है परन्‍तु खैर ! इस्‍समय आप उस्‍का कुछ बिचार न करें अपना बृतान्त सुनाएँ और औरों के काम मैं अपनी निजकी बातोंका सम्‍बन्‍ध मिलाना बड़ी अनुचित बात है ?" लाला ब्रजकिशोर नें कहा।


"अच्‍छा ! आप हमारा बृतान्‍त सुनिये" लाला मदनमोहन कहनें लगे। "कई दिन सै लाला हरकिशोर रूठे रूठेसे रहते थे। कल बेसबब हरगोविंद सै लड़ पड़े। उस्‍की जिदपर आप पांच, पांच रुपये घाटेसै टोपियें देनें लगे। शामको बाग मैं गए तो लाला हरदयाल साहब सै वृथा झगड़ पड़े, आज यहां आए तो मुझको और चुन्‍नीलाल को सैकड़ों कहनी न कहनी सुनागए !"


"बेसबब तो कोई बात नहीं होती आप इस्‍का अस्‍ली सबब बताइये ? और लाला हरकिशोर पांच, पांच रुपेके घाटेपर प्रसन्‍नता सै आपको टोपियां देते थे तो आपनें उन्‍मैं सै दस पांच क्‍यों नहीं लेलीं ? इन्‍मैं आप सै आप हरकिशोर पर बीस-पच्‍चीस रुपे का जुर्माना हो जाता" लाला ब्रजकिशोर नें मुस्करा कर कहा।


"तो क्‍या मैं हरकिशोर की जिदपर उस्‍की टोपियें लेलेता और दसबीस रुपेके वास्‍तै हरगोविंद को नीचा देखनें देता ? मैं हरगोविंद की भूल अपनें ऊपर लेनेंको तैयार हूँ परन्‍तु अपनें आश्रितुओं की ऐसी बेइज्‍जती नहीं किया चाहता" लाला मदनमोहन नें जोर देकर कहा।


"यह आपका झूंठा पक्षपात है" लाला ब्रजकिशोर स्‍वतन्त्रता सै कहनें लगे "पापी आप पाप करनें सै ही नहीं होता। पापियों की सहायता करनें वाले, पापियों को उत्तेजन देनेंवाले, बहुत प्रकार के पापी होते हैं; कोई अपनें स्‍वार्थ सै, कोई अपराधी की मित्रता सै, कोई औरोंकी शत्रुता सै, कोई अपराधी के संबंधियों की दया सै, कोई अपनें निजके सम्बन्ध सै, कोई खुशामद सै महान् अपराधियों का पक्ष करनेंवाले बन जाते हैं, परन्तु वह सब पापी समझे जाते हैं और वह प्रगट मैं चाहे जैसा धर्मात्‍मा, दयालु, कोमल चित्त हों, भीतर सै वह भी बहुधा वैसे ही पापी और कुटिल होते हैं"


"तो क्‍या आपकी राय मैं किसी की सहायता नहीं करनी चाहिये ?" लाला मदनमोहन नें तेज होकर पूछा।


"नहीं, बुरे कामोंके लिये बुरे आदमियों की सहायता क़भी नहीं करनी चाहिये" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। "रशिया का शहन्शाह पीटर एक बार भरजवानी मैं ज्‍वर सै मरनें लायक हो गया था। उस्‍समय उस्‍के वजीर नें पूछा कि "नो अपराधियों को अभी लूट, मार के कारण कठोरदंड दिया गया है क्‍या वह भी ईश्‍वर प्रार्थना के लिये छोड़ दिये जायँ ?" पीटर नें निर्बल आवाज सै कहा "क्‍या तुम यह समझते हो कि इन अभागों को क्षमा करनें और इन्साफ़ की राह मैं कांटे बोनें सै मैं कोई अच्‍छा काम करूंगा ? और जो अभागे माया जाल मैं फंसकर उस सर्व शक्तिमान ईश्‍वर कोही भूल गए हैं मेरे फ़ायदे के लिये ईश्‍वर उन्‍की प्रार्थना अंगीकार करैगा ? नहीं हरगिज नहीं; जो कोई काम मुझ सै ईश्‍वर की प्रसन्‍नता लायक बन पड़े तो वह यही इन्साफ़ का शुभ काम है"


"मैं तो आप के कहनें सै इन्साफ़ के लिये परमार्थ करना क़भी नहीं छोड़ सक्‍ता" लाला मदनमोहन तमक कर कहनें लगे।


"जो जिस्के लिये करना चाहिये सो करना इन्साफ़ मैं आ गया परन्तु स्‍वार्थ का काम परमार्थ कैसे हो सक्‍ता है ? एक के लाभ के लिये दूसरों की अनुचित हानि परमार्थ मैं कैसे समझी जा सक्ती है ? किसी तरह के स्‍वार्थ बिना केवल अपनें ऊपर परिश्रम उठाकर, आप दु:ख सहक़र, अपना मन मारकर औरों को सुखी करना सच्‍चा धर्म समझा जाता है जैसे यूनान मैं कोडर्स नामी बादशाह राज करता था उस्‍समय यूनानियों पर हेरेकडिली लोगों नें चढ़ाई की। उस्‍समय के लोग ऐसे अवसर पर मंदिर मैं जाकर हार जीत का प्रश्‍न किया करते थे। इसी तरह कोडर्सनें प्रश्‍न किया तब उसै यह उत्‍तर मिला कि "तू शत्रु के हाथ सै मारा जायेगा तो तेरा राज स्‍वदेशियोंके हाथ बना रहेगा और तू जीता रहैगा तो शत्रु प्रबल होता जायगा" कोडर्स देशोपकार के लिये प्रसन्‍नता सै अपनें प्राण देनेंको तैयार था परन्तु कोडर्स के शत्रु को भी यह बात मालूम हो गई इसलिये उसनें अपनी सेनामैं हुक्‍म दे दिया कि कोडर्स को कोई न मारे। तथापि कोडर्स नें य‍ह बात लोग दिखाईके लिये नहीं की थी इससै वह साधारण सिपाही का भेष बनाकर लड़ाई में लड़ मरा परन्‍तु अपनें देशियों की स्‍वतन्‍त्रता शत्रु के हाथ न जानें दी।"


"जब आप स्‍वतन्‍त्रता को ऐसा अच्‍छा पदार्थ समझते हैं तो आप लाला साहब को इच्‍छानुसार काम करनें सै रोककर क्‍यों पिंजरेका पंछी बनाया चाहते हैं ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।


"यह स्‍वतन्‍त्रता नहीं स्‍वेच्‍छाचार है; और इन्‍कों एक समझनें सै लोग बारम्‍बार धोखा खाते हैं" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे 'ईश्‍वर नें मनुष्‍यों को स्‍वतन्त्र बनाया है पर स्‍वेच्‍छाचारी नहीं बनाया क्‍योंकि उस्‍को प्रकृति के नियमों मैं अदलबदल करनें की कुछ शक्ति नहीं दी गई वह किसी पदार्थ की स्‍वाभाविक शक्ति मैं तिलभर घटा बढ़ी नहीं करसक्‍ता जिन पदार्थो मैं अलग, अलग रहनें अथवा रसायनिक संयोग होनें सै जो, जो शक्ति उत्‍पन्‍न होनें का नियम ईश्‍वर नें बना दिया है बुद्धि द्वारा उन पदार्थों की शक्ति पहचानकर केवल उन्‍सै लाभ लेनें के लिये मनुष्‍य को स्‍वतन्‍त्रता मिली है इसलिये जो काम ईश्‍वर के नियमानुसार स्‍वाधीन भाव सै किया जाय वह स्वतन्त्रता मैं समझा जाता है और जो काम उस्के नियमों के विपरीत स्वाधीन भाव सै किया जाय वह स्वेच्छाचार और उस्‍का स्‍पष्ट दृष्‍टांत यह है कि शतरंज के खेल मैं दोनों खिलाडि़यों को अपनी मर्जी मूजब चाल चलनें की स्‍वतन्‍त्रता दी गई है परन्तु वह लोग घोड़े को हाथी की चाल या हाथी को घोड़े की चाल नहीं चल सक्‍ते और जौ वे इस्‍तरह चलैं तो उन्‍का चलना शतरंज के खेल सै अलग होकर स्‍वेच्‍छाचार समझा जायगा यह स्‍वेच्‍छाचार अत्यन्त दूषित है और इस्‍का परिणाम महा भयंकर होता है इसलिये वर्तमान समय के अनुसार सब के फ़ायदे की बातों पर सत् शास्‍त्र और शिष्‍टाचार की एकता सै बरताव करना सच्‍ची स्‍वतन्‍त्रता है और बड़े लोगों नें स्‍वतन्‍त्रता की यह हद बांध दी है। मनुमहाराज कहते हैं "बिना सताए काहु के धीरे धर्म्‍म बटोर।। जों मृत्तिका दीमक हरत क्रम क्रमसों चहुं ओर।।" [1]


महाभारत कर्णपर्व मैं युधिष्ठर और अर्जुन का बिगाड़ हुआ उस्‍समय श्रीकृष्‍णनें अर्जुन सै कहा कि "धर्म ज्ञान अनुमानते अतिशय कठिन लखाय ।। एक धर्म्म है बेद यह भाषत जनसमुदाय ।।[2]1 कोमैं कछु संशय नहीं पर लख धर्म्म अपार ।। स्‍पष्‍टकरन हित कहुँ, कहूँ पंडित करत बिचार ।। [3] 2


जहां न पीडि़त होय कोउ सोसुधर्म्‍म निरधार ।। हिंसक हिंसा हरनहित भयो सुधर्म्‍म प्रचार ।। [4]3 प्राणिनकों धारण करे ताते कहियत धर्म्म ।। जासो जन रक्षित रहैं सो निश्‍चय शुभकर्म ।।[5]4 जे जन परसंतोष हित करैं पाप शुभजान ।। तिनसो कबहुं न बोलिये श्रुति विरुद्ध पहिचान ।। [6]5" इसलिये दूसरेकी प्रसन्‍नता के हेतु अधर्म्‍म करनें का किसी को अधिकार नहीं है इसी तरह अपनें या औरों के लाभ के लिये दूसरे के वाजबी हकों मैं अन्‍तर डालनें का भी किसी को अधिकार नहीं है जिस्‍समय महाराज रामचन्‍द्रजी नें निर्दोष जनकनंदनी का परित्‍याग किया जानकीजी को कुछ थोड़ा दु:ख था ? परन्तु वह गर्भनाश के भय सै अपना शरीर न छोड़ सकीं। हां जिस्‍तरह उन्‍नें अकारण अत्यन्त दु:ख पानें पर भी क़भी रघुनाथजी के दोष नहीं विचारे थे, इस तरह सब प्राणियों को अपनें विषय मैं अपराधी के अपराध क्षमा करनें का पूरा अधिकार है और इस तरह अपनें निज के अपराधों का क्षमा करना मनुष्‍यमात्र के लिये अच्‍छे सै अच्‍छा गुण समझा जाता है परन्‍तु औरों को किसी तरह की अनुचित हानि हो वहां यह रीति काम मैं नहीं लाई जा सक्‍ती"


"मैं तो यह समझता हूँ कि मुझसै एक मनुष्‍य का भी कुछ उपकार हो सके तो मेरा जन्‍म सफल है" लाला मदनमोहन नें कहा।


"जिस्‍मैं नामवरी आदि स्‍वार्थका कुछ अंश हो वह परोपकार नहीं और परोपकार करनें मैं भी किसी खास मनुष्‍य का पक्ष किया जाय तो बहुधा उस्‍के पक्षपात सै औरों की हानि होनें का डर रहता है इसलिये अशक्‍त अपाहजों का पालन पोषण करना, इन्साफ़ का साथ देना और हर तरह का स्‍वार्थ छोड़कर सर्व साधारण के हित मैं तत्‍पर रहना मेरे जान सच्‍चा परोपकार है" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।


प्रकरण-18 : क्षमा


नरको भूषण रूप है रूपहुको गुणजान।


गुणको भूषण ज्ञान है क्षमा ज्ञान को मान ।। 1 ।।[7]


सुभाषितरत्‍नाकरे।


"आप चाहे स्‍वार्थ समझैं चाहे पक्षपात समझैं हरकिशोर नें तो मुझे ऐसा चिढ़ाया है कि मैं उस्‍सै बदला लिये बिना क़भी नहीं रहूँगा" लाला मदनमोहन नें गुस्से सै कहा।


"उस्‍का कसूर क्‍या है ? हरेक मनुष्‍य सै तीन तरह की हानि हो सक्ती है। एक अपवाद करके दूसरे के यश मैं धब्‍बा लगाना, दूसरे शरीर की चोट, तीसरे माल का नुकसान करना। इन्मैं हरकिशोर नें आप की कौनसी हानि की ?" लाला ब्रजकिशोर नें कहा।


लाला मदनमोहन के मन मैं यह बात निश्‍चय समा रही थी कि हरकिशोर नें कोई बड़ा भारी अपराध किया है परन्‍तु ब्रजकिशोर नें तीन तरह के अपराध बताकर हरकिशोर का अपराध पूछा तब वह कुछ न बता सके क्‍योंकि मदनमोहन की वाकफ़ियत मैं ऐसा कोई अपराध हरकिशोर का न था। मदनमोहन को लोगों नें आस्‍मान पर चढ़ा रक्‍खा था इसलिये केवल हरकिशोर के जवाब देनें सै उस्‍के मन मैं इतना गुस्‍सा भर रहा था।


"उस्‍नें बड़ी ढिटाई की। वह अपनें रुपे तत्‍काल मांगनें लगा और रुपया लिये बिना जानें सै साफ इन्‍कार किया" लाला मदनमोहन नें बड़ी देर सोच बिचार कर कहा।


"बस उस्‍का यही अपराध है ? इस्‍मैं तो उस्‍नें आप की कुछ हानि नहीं की। मनुष्‍य को अपना सा जी सबका समझना चाहिये। आपका किसी पर रुपया लेना हो और आप को रुपे की ज़रूरत हो अथवा उस्‍की तरफ़ सै आप के जीमैं किसी तरहका शक आजाय अथवा आप के और उस्‍के दिल मैं किसी तरह का अन्‍तर आजाय तो क्‍या आप उस्‍सै ब्यवहार बन्‍द करनें के लिये अपनें रुपेका तकाजा न करेंगे ? जब ऐसी हालातों मैं आप को अपनें रुपे के लिये औरों पर तकाजा करनें का अधिकार है तो औरों को आप पर तकाजा करनें का अधिकार क्‍यों न होगा ? आप बेसबब जरा, जरासी बातों पर मुंह बनायं, वाजबी राह सै जरासी बात दुलख देनें पर उस्‍को अपना शत्रु समझनें लगें और दूसरे को वाजबी बात कहनें का भी अधिकार न हो !" लाला ब्रजकिशोर नें जोर देकर कहा।


"लाला साहब को उस्‍का स्‍वभाव पहचान्‍कर उस्‍सै व्‍यवहार डालना चाहिये था अथवा उस्‍का रुपया बाकी न रखना चाहिए था। जब उस्‍का रुपया बाकी है तो उस्‍को तकाज़ा करनें का निस्सन्देह अधिकार है और उस्‍नें कड़ा तकाज़ा करनें मैं कुछ अपराध भी किया हो तो उस्‍के पहले कामोंका सम्बन्ध मिलाना चाहिये" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। प्रल्‍हादजीनें राजा बलिसै कहा है "पहलो उपकारी करै जो कहुँ अतिशय हान।। तोहू ताकों छोडि़ये पहले गुण अनुमान।। [8]1।। "बिना समझे आश्रित करै सोऊ क्षमिये तात।। सब पुरुषनमैं सहज नहिं चतुराई की बात ।।[9]2।।


×यह सब सच है कि छोटे आदमी पहले उपकार करकै पीछे उस्‍का बदला बहुधा अनुचित रीतिसै लिया चाहतें हैं परन्तु यहां तो कुछ ऐसा भी नहीं हुआ।"


"उपकार हो या न हो ऐसे आदमियोंको उन्‍की करनी का दंड तो अवश्‍य मिलना चाहिये" मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे। जो उन्‍को उन्‍की करनी का दंड न मिलेगा तो उन्‍की देखा देखी और लोग बिगड़ते चले जायंगे और भय बिना किसी बात का प्रबन्‍ध न रह सकेगा। सुधरे हुए लोगों का यह नियम है कि किसीको कोई नाहक़ न सतावै और सतावै तो दंड पावै। दंडका प्रयोजन किसी अपराधी सै बदला लेनें का नहीं है बल्कि आगेके लिये और अपराधों सै लोगों को बचानें का है"


"इस वास्‍तै मैं चाहता हूँ कि मेरा चाहै जितना नुकसान हो जाय परन्‍तु हरकिशोर के पल्‍ले फूटी कौड़ी न पड़नें पावै" लाला मदनमोहन दांत पीसकर कहनें लगे।


"अच्‍छा ! लाला साहबनें कहा, इस रीति सै क्‍या मास्‍टर साहब के कहनें का मतलब निकल आवैगा ?" लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे। आप जान्‍ते हैं कि दंड दो तरह का है एक तो उचित रीति सै अपराधी को दंड दिवाकर औरों के मनमैं अपराधकी अरुचि अथवा भय पैदा करना, दूसरे अपराधी सै अपना बैर लेना और अपनें जी का गुस्‍सा निकालना। जिस्‍नें झूठी निंदा करके मेरी इज्‍जत ली उस्‍को उचित रीति सै दंड करानेंमैं अपनें देशकी सेवा करता हूँ परन्‍तु मैं यह मार्ग छोड़कर केवल उस्की बरबादी का बिचार करूं अथवा उस्का बैर उस्‍के निर्दोष सम्‍बन्धियों सै लिया चाहूँ, आधीरात के समय चुपके सै उस्‍के घर मैं आग लगा दूं और लोगों को दिखानें के लिये हाथ मैं पानी लेकर आग बुझानें जाऊं तो मेरी बराबर नीच कौन होगा ? बिदुरजी नें कहा है "सिद्ध होत बिनहू जतन मिथ्‍या मिश्रित काज। अकर्तव्‍यते स्‍वप्‍नहू मन न धरो महाराज।।[10]1" ऐसी कारवाई करनेंवाला अपनें मनमैं प्रसन्‍न होता है कि मैंनें अपनें बैरीको दुखी किया परन्‍तु वह आप महापापी बन्‍ता है और देश का पूरा नुकसान करता है। मनु महाराज नें कहा है "दुखित होय भाखै न तौ मर्म बिभेदक बैन।। द्रोह भाव राखै न चित करै न परहि अचैन।। [11]2"


"जो अपराध केवल मन को सतानें वाले हों और प्रगट मैं साबित न हों सकैं तो उन्‍का बदला दूसरे सै कैसे लिया जाय ?" लाला मदनमोहन नें कहा।


"प्रथम तो ऐसा अपराध हो हीं नहीं सक्ता और थोड़ा बहुत हो भी तो वह ख़याल करनें लायक नहीं है क्‍योंकि संदेह का लाभ सदा अपराधी को मिल्‍ता है इस्के सिवाय जब कोई अपराधी सच्‍चे मन सै अपनें अपराध का पछताव कर ले तो वह भी क्षमा करनें योग्‍य हो जाता है और उस्‍सै भी दंड देनें के बराबर ही नतीजा निकल आता है:"


"पर एक अपराधी पर इतनी दया करनी क्‍या जरूरी है ?" लाला मदनमोहन नें ताज्‍जुब सै पूछा।


"जब हम लोग सर्व शक्तिमान परमेश्‍वर के अत्यन्त अपराधी होकर उस्‍सै क्षमा करनें की आशा रखते हैं तो क्‍या हम को अपनें निज के कामों के लिये, अपनें अधिकार के कामों के लिये, आगे की राह दुरुस्‍त हुए पीछै, अपराधी के मन मैं शिक्षा के बराबर पछतावा हुए पीछै क्षमा करना अनुचित है ? यदि मनुष्‍य के मन मैं क्षमा और दया का लेश भी न हो तो उस्‍मैं और एक हिंसक जन्‍तु मैं क्‍या अन्‍तर है ? पोप कहता है "भूल करना मनुष्‍य का स्‍वभाव है परन्‍तु उस्‍को क्षमा करना ईश्‍वर का गुण है[12]"× एक अपराधी अपना कर्तव्य भूल जाय तो क्‍या उस्‍की देखा देखी हमको भी अपना कर्तव्य भूल जाना चाहिये। सादीनें कहा है "होत हुमे या‍ही लिये सब पक्षिन को राय।।अस्थिभक्ष रक्षे तनहि काहू कों न सताय।।[13]" दूसरे का उपकार याद रखना वाजबी बात है परन्‍तु अपकार याद रखनें मैं या यों कहो कि अपनें कलेजे का घाव हरा रखनें मैं कौन-सी तारीफ है ? जो दैव योग सै किसी अपराधी को औरों के फ़ायदे के लिये दंड दिवानें की ज़रूरत हो तो भी अपनें मन मैं उस्की तरफ़ दया और करुणा ही रखनी चाहिये"


"ये सब बातें हँसी खुशी मैं याद आती हैं। क्रोध मैं बदला लिये बिना किसी तरह चित्त को सन्‍तोष नहीं होता" लाला मदनमोहन नें कहा।


"बदला लेनें का तो इस्‍सै अच्‍छा दूसरा रास्‍ता ही नहीं है कि वह अपकार करे और उस्‍के बदले आप उपकार करो" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "जब वह अपनें अपराधों के बदले आप की महेरबानी देखेगा तो आप लज्जित होगा और उस्‍का मन ही उस्‍को धि:कारनें लगेगा। बैरी के लिये इस्‍सै कठोर दंड दूसरा नहीं है परन्‍तु यह बात हर किसी सै नहीं हो सक्ती। तरह, तरह का दु:ख नुक्‍सान और निन्‍दा सहनें के लिये जितनें साहस, धैर्य और गम्‍भीरता की जरुरत है बैरी सै बैर लेनें के लिये उन्‍की कुछ भी जरुरत नहीं होती। यह काम बहुत थोड़े आदमियों सै बन पड़ता है पर जिनसै बन पड़ता है वही सच्‍चे धर्मात्‍मा हैं:-


"जिस्‍समय साइराक्‍यूजवालों नें एथेन्‍स को जीत लिया साइराक्‍यूज की कौन्सिल मैं एथीनियन्‍स को सजा देनें की बावत बिबाद होनें लगा। इतनें मैं निकोलास नामी एक प्रसिद्ध गृहस्‍थ बुढ़ापे के कारण नौकरों के कंधेपर बैठकर वहां आया और कौन्सिल को समझाकर कहनें लगा "भाइयों ! मेरी ओर दृष्टि करो मैं वह अभागा बाप हूँ जिस्की निस्‍बत ज्‍याद: नुक्‍सान इस लड़ाई मैं शायद ही किसी को हुआ होगा। मेरे दो जवान बेटे इस लड़ाई मैं देशोपकार के लिये मारे गए। उन्सै मानो मेरे सहारे की लकड़ी छिन गई मेरे हाथपांव टूट गए, जिन एथेन्‍सवालों नें यह लड़ाई की उन्‍को मैं अपनें पुत्रों के प्राणघातक समझ कर थोड़ा नहीं धिक्‍कारता तथापि मुझको अपनें निज के हानि लाभ के बदले अपनें देश की प्रतिष्‍ठा अधिक प्‍यारी है, बैरियों सै बदला लेनें के लिये जो कठोर सलाह इस्‍समय हुई है वह अपनें देश के यश को सदा सर्वदा के लिये कलंकित कर देगी, क्‍या अपनें बैरियों को परमेश्‍वर की ओर सै कठिन दण्ड नहीं मिला ? क्‍या उन्‍के युद्ध मैं इस तरह हारनैं सै अपना बदला नहीं भुगता ? क्‍या शत्रुओं नें अपनी प्राणरक्षा के भरोसे पर तुमको हथियार नहीं सोंपें ? और अब तुम उन्‍सै अपना वचन तोड़ोगे तो क्‍या तुम विश्बासघाती न होगे ? जीतनें से अविनाशी यश नहीं मिल सक्ता परन्‍तु जीते हुए शत्रुओं पर दया करनें सै सदा सर्वदा के लिये यश मिलता है" साइराक्‍यूज की कौन्सिल के चित्त पर निकोलास के कहनें का ऐसा असर हुआ कि सब एथीनियन्‍स तत्‍काल छोड़ दिये गए"


"आप जान्‍ते हैं कि शरीर के घाव औषधि सै रुज जाते हैं परन्‍तु दुखती बातों का घाव कलेजे पर सै किसी तरह नहीं मिटता" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।


"क्षमाशील के कलेजे पर ऐसा घाव क्‍यों होनें लगा है ? वह अपनें मन मैं समझता है कि जो किसी नें मेरा सच्‍चा दोष कहा तो बुरे मान्‍नें की कौन्‍सी बात हुई ? और मेरे मतलब को बिना पहुँचे कहा तो नादान के कहनें सै बुरा मान्‍नें कि कौन्‍सी बात रही ? और जानबूझ कर मेरा जी दुखानें के वास्तै मेरी झूंटी निन्‍दा की तो मैं उचित रीति सै उस्‍को झूंटा डाल सक्ता हूँ ? सजा दिवा सक्ता हूँ फ़िर मन मैं द्वेष और प्रगट मैं गाली गलौज लड़नें की क्‍या ज़रूरत है ? आप बुरा हो और लोग अच्‍छा कहैं इस्‍की निस्‍बत आप अच्‍छा हो और लोग बुरा कहैं यह बहुत अच्‍छा है" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।


प्रकरण-19 : स्वतन्त्रता


"स्‍तुति निन्‍दा कोऊ करहि लक्ष्‍मी रहहि की जाय


मरै कि जियै न धीरजन ध रै कू मारग पाय ।।[14]


प्रसंगरत्‍नावली।


"सच तो यह है कि आज लाला ब्रजकिशोर साहब नें बहुत अच्‍छी तरह भाईचारा निभाया। इन्‍की बातचीत मैं यह बड़ी तारीफ है कि जैसा काम किया चाहते हैं वैसा ही असर सब के चित्त पर पैदा कर देते हैं" मास्‍टर शिंभूदयाल नें मुस्‍करा कर कहा।


"हरगिज नहीं, हरगिज नहीं, मैं इन्साफ़ के मामले मैं भाई चारे को पास नहीं आनें देता जिस रीति सै बरतनें के लिये मैं और लोगों को सलाह देता हूँ उस रीति बरतना मैं अपनें ऊपर फर्ज समझता हूँ। कहना कुछ और, करना कुछ और नालायकों का काम है और सचाई की अमिट दलीलों को दलील करनेंवाले पर झूंटा दोषारोपण करके उड़ा देनें वाले और होते हैं" लाला ब्रजकिशोर नें शेर की तरह गरज कर कहा और क्रोध के मारे उन्‍की आंखें लाल होगईं।


लाला ब्रजकिशोर अभी मदनमोहन को क्षमा करनें के लिये सलाह देरहे थे इतनें मैं एका एक शिंभूदयाल की ज़रासी बात पर गुस्‍से मैं कैसे भर गए ? शिंभूदयाल नें तो कोई बात प्रगट मैं ब्रजकिशोर के अप्रसन्‍न होनें लायक नहीं कही थी ? निस्सन्देह प्रगट मैं नहीं कही परन्‍तु भीतर सै ब्रजकिशोर का ह्रदय विदीर्ण करनें के लिये यह साधारण बचन सबसै अधिक कठोर था। ब्रजकिशोर और सब बातों में निरभिमानी परन्‍तु अपनी ईमानदारी का अभिमान रखते थे इस लिये जब शिंभूदयाल नें उन्‍की ईमानदारी मैं बट्टा लगाया तब उन्को क्रोध आये बिना न रहा। ईमानदार मनुष्‍य को इतना खेद और किसी बात सै नहीं होता जितना उस्‍को बेईमान बतानें सै होता है।


"आप क्रोध न करें। आपको यहां की बातों मैं अपना कुछ स्‍वार्थ नहीं है तो आप हरेक बात पर इतना जोर क्‍यों देते हैं ? क्‍या आप की ये सब बातें किसी को याद रह सक्ती हैं ? और शुभचिन्‍तकी के बिचार सै हानि लाभ जतानें के लिये क्‍या एक इशारा काफ़ी नहीं है ?" मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें मास्‍टर शिंभूदयाल की तरफ़दारी करके कहा।


"मैंनें अबतक लाला साहब सै जो स्‍वार्थ की बात की होगी वह लाला साहब और तुम लोग जान्‍ते होगे। जो इशारे मैं काम होसक्ता तो मुझको इतनें बढ़ा कर कहनें सै क्‍या लाभ था ? मैंनें कहीं हैं वह सब बातें निस्‍सन्‍देह याद नहीं रह सक्तीं परन्‍तु मन लगा कर सुन्‍नें सै बहुधा उन्का मतलब याद रह सक्ता है और उस्‍समय याद न भी रहै तो समय पर याद आ जाता है। मनुष्‍य के जन्‍म सै लेकर वर्तमान समय तक जिस, जिस हालत मैं वह रहता है उस सब का असर बिना जानें उस्‍की तबियत मैं बना रहता है इस वास्‍ते मैंनें ये बातें जुदे, जुदे अवसर पर यह समझ कर कह दीं थीं कि अब कुछ फायदा न होगा तो आगे चल कर किसी समय काम आवेंगी" लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।


"अपनी बातोंको आप अपनें पास ही रहनें दीजिये क्‍योंकि यहां इन्‍का कोई ग्राहक़ नहीं है" लाला मदनमोहन कहनें लगे आपके कहनेंका आशय यह मालूम होता है कि आपके सिवाय सब लोग अनसमझ और स्‍वार्थपर हैं।"


"मैं सबके लिये कुछ नहीं कहता परन्‍तु आपके पास रहनें वालों मैं तो निस्‍सन्‍देह बहुत लोग नालायक और स्‍वार्थपर हैं" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "ये लोग दिनरात आपके पास बैठे रहते हैं, हरबात मैं आपकी बड़ाई किया करते हैं, हर काम मैं अपनी जान हथेली पर लिये फ़िरते हैं पर यह आपके नहीं; आप के रुपे के दोस्‍त हैं। परमेश्‍वर न करे जिस दिन आपके रुपे जाते रहेंगे इन्‍का कोसों पता न लगेगा। जो इज्‍जत, दौलत और अधिकार के कारण मिल्‍ती है वह उस मनुष्‍य की नहीं होती। जो लोग रुपेके कारण आपको झुक, झुक कर सलाम करते हैं वही अपनें घर बैठकर आपकी बुद्धिमानीका ठट्टा उड़ाते हैं ! कोई काम पूरा नहीं होता जबतक उस्‍मैं अनेक प्रकारके नुक्‍सान होनें की सम्‍भावना रहती है पूरे होनें की उम्‍मेद पर दस काम उठाये जाते हैं जिस्मैं मुश्किल सै दो पूरे पड़ते हैं परन्‍तु आपके पास वाले खाली उम्‍मेद पर बल्कि भीतरकी नाउम्मेदी पर भी आपको नफेका सब्ज बाग़ दिखा कर बहुतसा रुपया खर्च करा देते हैं ! मैं पहले कह चुका हूँ कि आदमी की पहचान जाहिरी बातों सै नहीं होती उस्के बरतावसै होती है। इस्‍मैं आपका सच्‍चा शुभचिंतक कौन है ? आपके हानि लाभका दर्सानें वाला कौन है ? आपके हानिलाभ का बिचार करनें वाला कौन है ? क्‍या आपकी हांमैं हां मिलानै सै सब होगया ? मुझको तो आपके मुसाहिबों मैं सिवाय मसख़रापनके और किसी बातकी लियाक़त नहीं मालूम होती। कोई फबतियां कहक़र इनाम पाता है, कोई छेड़ छाड़कर गालियें खाता है, कोई गानें बजानें का रंग जमाता है, कोई धोलधप्‍पे लड़ाकर हंसता हंसाता है पर ऐसे अदमियोंसै किसी तरह की उम्‍मेद नहीं हो सक्ती।"


"मेरी दिल्‍लगी की आदत है। मुझसै तो हंसी दिल्‍लगी बिना रोनी सूरत बनाकर दिनभर नहीं रहा जाता परन्‍तु इन बातोंसै काम की बातों मैं कुछ अन्‍तर आया हो बताईये" लाला मदनमोहननें पूछा।


"आपके पिताका परलोक हुआ जबसै आपकी पूंजीमैं क्‍या घटा-बढ़ी हुई ? कितनी रकम पैदा हुई ? कितनी अहंड (बर्बाद) हुई कितनी ग़लत हुई, कितनी खर्च हुई इन बातोंका किसीनें बिचार किया है ? आमदनीसै अधिक खर्च करनें का क्‍या परिणाम है ? कौन्‍सा ख़र्च वाजबी है, कौन्‍सा गैरवाजबी है, मामूली खर्चके बराबर बंधी आमदनी कैसे हो सक्‍ती है ? इन बातों पर कोई दृष्टि पहुँचाता है ? मामूली आमदनी पर किसीकी निगाह है ? आमदनी देखकर मामूली खर्चके वास्‍ते हरेक सीगेका अन्‍दाजा पहलेसै क़भी किया गया है, गैर मामूली खर्चोंके वास्‍ते मामूली तौरपर सीगेवार कुछ रक़म हरसाल अलग रक्‍खी जाती है ? बिनाजानें नुक्‍सान, खर्च और आमदनी कमहोनें के लिये कुछ रकम हरसाल बचाकर अलग रक्‍खी जाती है ? पैदावार बढ़ानें के लिये वर्तमान समयके अनुसार अपनें बराबर वालों की कारवाई देशदेशान्‍तर का बृतान्‍त और होनहार बातों पर निगाह पहुँचाकर अपनें रोज़गार धंदेकी बातोंमैं कुछ उन्‍नति की जाती है ? व्‍यापारके तत्‍व क्‍या हैं। थोड़े खर्च, थोड़ी महनत और थोड़े समयमैं चीज़ तैयार होनेंसै कितना फायदा होता है, इन बातोंपर किसीनें मन लगाया है ? उगाहीमैं कितनें रुपे लेनें हैं, पटनें की क्‍या सूरत है, देनदारों की कैसी दशा है। मियादके कितनें दिन बाकी हैं इन बातों पर कोई ध्‍यान देता है ? व्‍योपार सिगा के मालपर कितनी रकम लगती है, माल कितना मोजूद है किस्‍समय बेचनेंमें फायदा होगा इन बातों पर कोई निगाह दौड़ाता है ? ख़र्च सीगाके मालकी क़भी बिध मिलाई जाती है ? उस्‍की कमी बेशीके लिये कोई जिम्‍मेदार है ? नौकर कितनें हैं, तनख्‍वाह क्‍या पाते हैं, काम क्‍या करते हैं, उन्‍की लियाक़त कैसी है, नीयत कैसी है, कारवाई कैसी है, उन्‍की सेवाका आप पर क्‍या हक़ है, उन्‍के रखनें न रखनेंमैं आपका क्‍या नफ़ा नुक्‍सान है इनबातों को क़भी आपनें मन लगा कर सोचा है ?"


"मैं पहले ही जान्‍ता था कि आप हिर फ़िरकर मेरे पासके आदमियों पर चोट करेंगे परन्‍तु अब मुझको यह बात असह्य है। मैं अपना नफ़ा नुक्‍सान समझता हूँ आप इस विषय मैं अधिक परिश्रम न करै" लाला मदनमोहननें रोककर कहा।


"मैं क्‍या कहूँगा पहलेसै बुद्धिमान कहते चले आये हैं" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "विलियम कूपर कहता है :-


जिन नृपनको शिशुकालसै सेवहिं छली तनमन दिये।।


तिनकी दशा अबिलोक करुणाहोत अति मेरे हिये।।


आजन्मों अभिषेकलों मिथ्‍या प्रशंसा जानकरैं।।


बहु भांत अस्‍तुति गाय, गाय सराहि सिर स्‍हेरा धरैं।।


शिशुकालते सीखत सदा सजधज दिखावन लोक मैं।।


तिनको जगावत मृत्‍यु बहुतिक दिनगए इहलोक मैं।।


मिथ्‍या प्रशंसी बैठ घुटनन, जोड़ कर, मुस्‍कावहीं।।


छलकी सुहानी बातकहि पापहि परम दरसावहीं।।


छबिशालिनी, मृदुहासिनी अरु धनिक नितघेरैं रहैं।।


झूंटी झलक दरसाय मनहि लुभाय कुछ दिनमैं लहैं।।


जे हेम चित्रित रथन चढ़, चंचल तुरंग भजावहीं।।


सेना निरख अभिमानकर, यों ब्यर्थ दिवस गमावहीं।।


तिनकी दशा अबिलोक भाखत फरेहूँ मनदुख लिये।।


नृपकी अधमगति देख करुणा होत अति मेरे हिये।।[15]


"लाला साहब अपनें सरल स्वभाव सै कुछ नहीं कहते इस वास्ते आप चाहे जो कहते चले जांय परन्तु कोई तेज़ स्वभाव का मनुष्य होता तो आप इस तरह हरगिज न कहनें पाते" मास्टर शिंभूदयाल नें अपनी जात दिखाई।


सच है ! बिदुरजी कहते हैं "दयावन्त लज्जा सहित मृदु अरु सरल सुभाई।। ता नर को असमर्थ गिन लेत कुबुद्धि दबाइ।। [16]" इस लिये इन गुणों के साथ सावधानी की बहुत ज़रूरत है। सादगी और सीधेपन सै रहनें में मनुष्य की सच्ची अशराफत मालूम होती है। मनुष्य की उन्नति का यह सीधा मार्ग है परन्तु चालाक आदमियोंकी चालाकी सै बचनें के लिये हर तरह की वाकंफ़ियत भी ज़रूर होनी चाहिये" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।


"दोषदर्शी मनुष्यों के लिये सब बातों मैं दोष मिल सक्ते हैं क्योंकि लाला साहबके सरल स्वभाव की बड़ाई सब संसार मैं हो रही है परन्तु लाला ब्रजकिशोर को उस्मैं भी दोष ही दिखाई दिया !" पंडित पुरुषोत्तमदास बोले।


"द्रब्य के लालचियों की बड़ाई पर मैं क्या विश्वास करूं ? बिदुरजी कहते हैं कि "जाहि सराहत हैं सब ज्वारी। जाहि सराहत चंचल नारी।। जाहि सराहत भाट बृथा ही। मानहु सो नर जीवत नाही।।[17]" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।


"मैं अच्छा हूँ या बुरा हूँ आपका क्या लेता हूँ ? आप क्यों हात धोकर मेरे पीछे पड़े हैं ? आपको मेरी रीति भांति अच्छी नहीं लगती तो आप मेरे पास न आय" लाला मदनमोहन नें बिगड़ कर कहा।


"मैं आपका शत्रु नहीं; मित्र हूँ परन्तु आपको ऐसा ही जचता है तो अब मैं भी आपको अधिक परिश्रम नहीं दिया चाहता। मेरी इतनी ही लालसा है कि आपके बड़ों की बदौलत मैंनें जो कुछ पाया है वह मैं आपकी भेंट करता जाऊं" लाला ब्रजकिशोर लायकी सै कहनें लगे "मैंनें आपके बड़ों की कृपा सै विद्या धन पाया है जिस्का बड़ा हिस्सा मैं आपके सन्मुख रख चुका तथापि जो कुछ बाकी रहा है उस्को आप कृपा करके और अंगीकार कर लें। मैं चाहता हूँ कि मुझसै आप भले ही असप्रन्न रहें, मुझको हरगिज़ अपनें पास न रक्खें परन्तु आपका मंगल हो। यदि इस बिगाड़ सै आपका कुछ मंगल हो तो मैं इसै ईश्वर की कृपा समझूंगा। आप मेरे दोषोंकी ओर दृष्टि न दें। मेरी थोथी बातों मैं जो कुछ गुण निकलता हो उसे ग्रहण करें। हज़रत सादी कहते हैं "भींत लिख्यो तिख्यो उपदेशजू कोऊ ।। सादर ग्रहण कीजिये सोऊ।। [18]" इस लिये आप स्वपक्ष और विपक्ष का बिचार छोड़कर गुण संग्रह करनें पर दृष्टि रक्खैं। आपका बरताव अच्छा होगा तो मैं क्या हूँ ? बड़े-बड़े लायक आदमी आपको सहज मैं मिल जायंगे। परन्तु आपका बरताव अच्छा न हुआ तो जो होंगे वह भी जाते रहेंगे। एक छोटेसे पखेरू की क्या है ? जहां रात हो जाय वहीं उस्का रैन बसेरा हो सक्ता है परन्तु वह फलदार वृक्ष सदा हरा भरा रहना चाहिये जिस्के आश्रय से पक्षी जीते हों।"


बहुत कहनें सै क्या है ?आपको हमसै सम्बन्ध रखना हो तो हमारी मर्जी के मूजिब बरताब रक्खो, नहीं तो अपना रस्ता लो। हमसै अब आपके तानें नहीं सहे जाते" लाला मदनमोहन नें ब्रजकिशोर को नरम देख कर ज्याद: दबानें की तजबीज़ की।


"बहुत अच्छा ! मैं जाता हूँ। बहुत लोग जाहरी इज्जत बनानें के लिये भीतरी इज्जत खो बैठते हैं परन्तु मैं उन्मैं का नहीं हूँ। तुलसीकृतरामायण मैं रघुनाथजीनें कहा है "जो हम निदरहि बिप्रवद्ध सत्यसुनहु भृगुनाथ ।। तो अस को जग सुभटतिहिं भाय बस नावहिं मांथ ।।" सोई प्रसंग इस्समय मेरे लिये वर्तमान है। एथेन्समैं जिन दिनों तीस अन्याइयोंकी कौन्सिल का अधिकार था, एकबार कौन्सिलनें सेक्रिटीज़ को बुलाकर हुक्म दिया कि तुम लिओ नामी धनवान को पकड़ लाओ जिस्सै उस्का माल जब्त किया जाय।" सेक्रिटीज़ नें जवाब दिया कि "एक अनुचित काममैं मैं अपनी प्रसन्नतासै क़भी सहायता न करूंगा" कौन्सिल के प्रेसिन्डेन्टनें धमकी दी कि "तुम को आज्ञा उल्लंघन करनें के कारण कठोर दंड मिलेगा" सेक्रिटीज़नें कहा कि "यह तो मैं पहले हीसै जान्ता हूँ परन्तु मेरे निकट अनुचित काम करनें के बराबर कोई कठोर दंड नहीं है" लाला ब्रजकिशोर बोले।


"जब आप हमको छोड़नें का ही पक्‍का बिचार कर चुके तो फ़िर इतना बादबिवाद करनेंसै क्‍या लाभ ? हमारे प्रारब्धमैं होगा वह हम भुगतलेंगे, आप अधिक परिश्रम न करैं" लाला मदनमोहननें त्‍योरीं बदलकर कहा।


"अब मैं जाता हूँ। ईश्‍वर आपका मंगल करे। बहुत दिन पास रहनें के कारण जानें बिना जानें अबतक जो अपराध हुए हों वह क्षमा करना" यह कह कर लाला ब्रजकिशोर तत्‍काल अपनें मकानको चले गए।


"लाला ब्रजकिशोर के गए पीछै मदनमोहनके जीमैं कुछ, कुछ पछतावा सा हुआ। वह समझे कि "मैं अपनें हठसै आज एक लायक आदमीको खो बैठा परन्‍तु अब क्‍या ? अब तो जो होना था हो चुका। इस्‍समय हार माननें सै सबके आगे लज़्जित होना पड़ेगा और इस्‍समय ब्रजकिशोरके बिना कुछ हर्ज भी नहीं, हां ब्रजकिशोरनें हरकिशोरको सहायता दी तो कैसी होगी ? क्‍या करैं ? हमको लज़्जित होना न पड़े और सफाई की कोई राह निकल आवे तो अच्‍छा हो" लाला मदनमोहन इसी सोच बिचार मैं बड़ी देर बैठे रहे मन की निर्बलता सै कोई बात निश्‍चय न कर सके।


प्रकरण-20 : कृतज्ञता


तृणहु उतारे जनगनत कोटि मुहर उपकार


प्राण दियेहू दुष्‍टजन करत बै र व्‍यवहार।।[19]


भोजप्रबंधसार।


लाला ब्रजकिशोर मदनमोहन के पास सै उठकर घर को जानें लगे उस्‍समय उन्‍का मन मदनमोहन की दशा देखकर दु:ख सै बिबस हुआ जाता था। वह बारम्बार सोचते थे कि मदनमोहन नें केवल अपना ही नुक्सान नहीं किया अपनें बाल बच्‍चों का हक़ भी डबो दिया। मदनमोहन नें केवल अपनी पूंजी ही नहीं खोई अपनें ऊपर क़र्ज भी कर लिया।


भला ! लाला मदनमोहनको क़र्ज करनें की क्‍या ज़रूरत थी ? जो यह पहलै ही सै प्रबंध करनें की रीति जान्‍कर तत्‍काल अपनें आमद खर्च का बंदोबस्‍त कर लेते तो इन्‍को क्‍या, इन्‍के बेटे पोतों को भी तंगी उठानें की कुछ ज़रूरत न थी। मैं आप तकलीफ़ सै रहनें को, निर्लज्जता सै रहनें को, बदइन्तज़ामी सै रहनें को, अथवा किसी हक़दार के हक़ मैं कमी करनें को पसंद नहीं करता, परन्‍तु इन्‍को तो इन्‍बातों के लिये उद्योग करनें की भी कुछ ज़रूरत न थी। यह तो अपनी आमदनी का बंदोबस्त करके असल पूंजी के हाथ लगाए बिना अमीरी ठाठ सै उमरभर चैन कर सक्ते थे। बिदुरजी नें कहा है "फल अपक्क जो बृक्ष ते तोर लेत नर कोय।। फल को रस पावै नहीं नास बीजको होय।। नासबीज को होय यहै निज चित्‍त विचारै।। पके, पके फललेई समय परिपाक निहारै।।पके, पके फललेई स्‍वाद रस लहै बुद्धिबल।। फलते पावै बीज, बीजते होइ बहुरिफल।।"[20] यह उपदेश सब नीतिका सार है परन्‍तु जहां मालिक को अनुभव न हो, निकटवर्ती स्‍वार्थपर हों वहां यह बात कैसे हो सक्ती है ? "जैसे माली बाग को राखत हितचित चाहि।। तैसै जो कोला करत कहा दरद है ताहि ?"


लाला मदनमोहन अबतक क़र्जदारी की दुर्दशा का बृतान्‍त नहीं जान्‍ते।


जिस्‍समय क़र्जदार वादे पर रुपया नहीं दे सक्ता उसी समय सै लेनदार को अपनें कर्ज के अनुसार क़र्जदार की जायदाद और स्‍वतन्‍त्रता पर अधिकार हो जाता है। वह क़र्जदार को कठोर से कठोर वाक्य "बेईमान" कह सक्ता है, रस्‍ता चलते मैं उस्‍का हाथ पकड़ सक्ता है। यह कैसी लज्जा की बात है कि एक मनुष्य को देखते ही डर के मारे छाती धड़कनें लगे और शर्म के मारे आंखें नीची हो जायें, सब लोग लाला मदनमोहन की तरह फ़िजूल खर्ची और झूंठी ठसक दिखानें मैं बरबाद नहीं होते सौ मैं दो, एक समझवार भी किसीका काम बिगड़ जानें सै, या किसी की जामनी कर देनें सै या किसी और उचित कारण सै इस आफ़त मैं फंस जाते हैं परन्‍तु बहुधा लोग अमीरों की सी ठसक दिखानेंमैं और अपनें बूते सै बढ़कर चलनें मैं क़र्जदार होते हैं।


क़र्जदारी मैं सबसै बड़ा दोष यह है कि जो मनुष्‍य, धर्मात्‍मा होता है वह भी क़र्जमैं फंसकर लाचारी सै अधर्म की राह चलनें लगता है। जब सै कर्ज़ लेनें की इच्‍छा होती है तब ही सै कर्ज़ लेनेंवाले को ललचानें, ओर अपनी साहूकारी दिखानें के लिये तरह, तरह की बनावट की जाती हैं। एकबार कर्ज़ लिये पीछै कर्ज़ लेनें का चस्‍का पड़ जाता है और समय पर कर्ज़ नहीं चुका सक्ता तब लेनदार को धीर्य देनें और उस्‍की दृष्टि मैं साहूकार दीखनें के लिये ज्‍यादा: ज्‍यादा: कर्ज़ मैं जकड़ता जाता है और लेनदार का कड़ा तकाज़ा हुआ तो उस्का कर्ज चुकानें के लिये अधर्म करनें की रुचि हो जाती है। कर्ज़दार झूठ बोलनें सै नहीं डरता और झूठ बोले पीछै उस्‍की साख नहीं रहती। वह अपनें बाल बच्‍चों के हक़ मैं दुश्‍मन सै अधिक बुराई करता है। मित्रों को तरह, तरह की जोखों मैं फंसाता है अपनी घड़ी भर की मौज के लिये आप जन्‍मभर के बंधन मैं पड़ता है और अपनी अनुचित इच्‍छा को सजीवन करनें के लिये आप मर मिटता है।


बहुत सै अबिचारी लोग कर्ज़ चुकानें की अपेक्षा उदारता को अधिक समझते हैं। इस्‍का कारण यह है कि उदारता सै यश मिल्‍ता है, लोग जगह, जगह उदार मनुष्य की बड़ाई करते फ़िरते हैं परन्‍तु कर्ज़ चुकाना केवल इन्साफ़ है इसलिये उस्‍की तारीफ़ कोई नहीं करता। इन्साफ़ को लोग साधारण नेंकी समझते हैं, इस कारण उस्‍की निस्‍बत उदारता की ज्‍याद: कदर करते हैं जो बहुधा स्‍वभाव की तेजी और अभिमान सै प्रगट होती है परन्‍तु बुद्धिमानी सै कुछ सम्‍बन्‍ध नहीं रखती। किसी उदार मनुष्‍य सै उस्‍का नौकर जाकर कहैकि फलाना लेनदार अपनें रुपेका तकाजा करनें आया है और आप के फलानें गरीब मित्र अपनें निर्बाह के लिये आप की सहायता चाहते हैं तो वह उदार मनुष्‍य तत्‍काल कह देगा कि लेनदार को टाल दो और उस गरीब को रुपे देदो क्‍योंकि लेनदार का क्‍या ? वह तो अपनें लेनें लेता इस्‍के देनें सै वाह वाह होगी।


परन्‍तु इन्साफ़ का अर्थ लोग अच्‍छी तरह नहीं समझते क्‍योंकि जिस्‍के लिये जो करना चाहिए वह करना इन्साफ़ है इसलिये इन्साफ़ मैं सब नेंकियें आगईं। इन्साफ़ का काम वह है जिस्‍मैं ईश्‍वर की तरफ़ का कर्तव्य, संसार की तरफ़ का कर्तव्य, और अपनी आत्‍मा की तरफ़ का कर्तव्य अच्‍छी तरह सम्‍पन्‍न होता हो। इन्साफ़ सब नेंकियों की जड़ है और सब नेंकियां उस्‍की शाखा-प्रशाखा हैं इन्साफ़ की सहायता बिना कोई बात मध्‍यम भाव सै न होगी तो सरलता अविवेक, बहादुरी, दुराग्रह, परोपकार, अन्समझी और उदारता फिजूलखर्ची हो जायँगी।


कोई स्‍वार्थ रहित काम इन्साफ़ के साथ न किया जाय तो उस्‍की सूरत ही बदल जाती है और उसका परिणाम बहुधा भयंकर होता है। सिवाय की रकम मैं सै अच्‍छे कामों मैं लगाए पीछै कुछ रुपया बचै और वो निर्दोष दिल्‍लगी की बातों मैं खर्च किया जाय तो उस्‍को कोई अनुचित नहीं बता सक्ता परन्‍तु कर्तव्य कामों को अटका कर दिल्‍लगी की बातों मैं रुपया या समय खर्च करना अभी अच्‍छा नहीं हो सक्ता। अपनें बूते मूजब उचित रीति सै औरों की सहायता करनी मनुष्‍य का फर्ज है परन्‍तु इस्‍का यह अर्थ नहीं है कि अपनें मन की अनुचित इच्‍छाओं को पूरा करनें का उपाय करै अथवा ऐसी उदारता पर कमर बांधे कि आगै को अपना कर्तव्य सम्‍पादन करनें के लिये और किसी अच्‍छे काम मैं खर्च करनें के लिये अपनें पास फूटी कौड़ी न बचे बल्कि सिवाय मैं कर्ज़ होजाय।


अफसोस ! लाला मदनमोहन की इस्‍समय ऐसी ही दशा हो रही है। इन्पर चारों तरफ़ सै आफत के बादल उमड़े चले आते हैं परन्‍तु इन्‍हैं कुछ खबर नहीं है


विदुर जी नें सच कहा है :-


"बुद्धिभ्रंशते लहत बिनासहि।।ताहि अनीति नीतिसी भासहि।।" [21]


इस तरह सै अनेक प्रकार के सोच बिचार में डूबे हुए लाला ब्रजकिशोर अपनें मकान पर पहुंचे परन्‍तु उन्‍के चित्त को किसी बात सै जरा भी धैर्य न हुआ।


लाला ब्रजकिशोर कठिन सै कठिन समय मैं अपनें मन को स्थिर रख सक्ते थे परन्तु इस्‍समय उन्का चित्त ठिकानें न था। उन्‍नें यह काम अच्‍छा किया कि बुरा किया ? इस बात का निश्‍चय वह आप नही कर सक्ते थे। वह कहते थे कि इस दशा मैं मदनमोहन का काम बहुत दिन नहीं चलेगा और उस्‍समय ये सब रुपे के मित्र मदनमोहन को छोड़कर अपनें, अपनें रस्‍ते लेगेंगे परन्‍तु मैं क्‍या करूँ ? मुझको कोई रास्‍ता नहीं दिखाई देता और इस्‍समय मुझ सै मदनमोहन की कुछ सहायता न हो सकी तो मैंनें संसार मैं जन्‍म लेकर क्‍या किया ?


फ्रांस के चौथे हेन्‍री नें डी ला ट्रेमाइल को देशनिकाला दिया था और काउन्‍ट डी आविग्‍नी उस्‍सै मेल रखता था। इस्‍पर एक दिन चौथे हेन्‍री नें डी आविग्‍नी सै कहा कि "तुम अबतक डी ला ट्रेमाइल की मित्रता कैसे नहीं छोड़ते ?" डी आविग्‍नी नें जवाब दिया कि मैं ऐसी हालत मैं उस्‍की मित्रता नहीं छोड़ सक्ता क्‍योंकि मेरी मित्रता के उपयोग करनें का काम तो उस्को अभी पड़ा है।"


पृथ्‍वीराज महोबेकी लड़ाई मैं बहुत घायल होकर मुर्दों के शामिल पड़े थे और संजमराय भी उन्‍के बराबर उसी दशा मैं पड़ा था। उस्‍समय एक गिद्ध आके पृथ्‍वीराज की आंख निकालनें लगा। पृथ्‍वीराज को उस्के रोकनें की सामर्थ्‍य न थी इसपर संजमराय पृथ्‍वीराजको बचानें के लिये अपनें शरीर का माँस काट, काट कर गिद्धके आगे फैकनें लगा जिस्‍सै पृथ्‍वीराजकी आंखैं बच गईं और थोड़ी देर मैं चन्‍द वगैर आ पहुंचें।


हेन्‍री रिचमन्‍ड, पीटरके भय सै ब्रीटनी छोड़ कर फ्रान्सको भागनें लगा उस्‍समय उस्के सेवक सीमारनें उस्‍के वस्‍त्र पहन कर उस्‍की जोखों अपनें सिर ली और उस्‍को साफ निकाल दिया।


क्‍या इस्सतरहसै मैं मदनमोहन की कुछ सहायता इस्‍समय नहीं कर सक्ता ! यदि हम इस काम मैं मेरी जान भी जाती रहै तो कुछ चिन्ता नहीं। जब मैं उन्‍को अनसमझ जान कर उन्‍के कहनें सै उन्‍हैं छोड़ आया तो मैंनें कौन्‍सी बुद्धिमानी की ? पर मैं रह कर क्‍या करता ? हां मैं हां मिला कर रहना रोगी को कुपथ्‍य देनें सै कम न था और ऐसे अवसर पर उन्‍का नुक्‍सान देख कर चुप हो रहना भी स्‍वार्थपरता सै क्‍या कम था ? मेरा बिचार सदेव सै यह रहता है कि काम रहता तो विधि पूर्वक करना। न होसके तो चुप हो रहना, बेगार तक को बेगार न समझना परन्‍तु वहां तो मेरे वाजबी कहनें सै उल्‍टा असर होता था और दिनपर दिन जिद बढ़ती जाती थी। मैंनें बहुत धैर्य सै उन्‍को राह पर लानें के उपाय किये पर उन्‍नें किसी हालत मैं अपनी हद्द सै आगै बढ़ना मंजूर न किया।


असल तो ये है कि अब मदनमोहन बच्‍चे नहीं रहे। उन्‍की उम्रपक गई। किसी का दबाब उन्‍पर नहीं रहा, लोगोंनें हां मैं हां मिला कर उन्‍की भूलों को और दृढ़ कर दिया। रुपे के कारण उन्‍को अपनी भूलों का फल मिला और संसारके दु:ख सुखका अनुभव न होनें पाया बस रंग पक्‍का हो गया। बिदुरजी कहते हैं कि "सन्‍त असन्‍त तपस्‍वी चोर। पापी सुकृति ह्रदय कठोर।। तैसो होय बसे जिहि संग। जैसो होत बसन मिल रंग।।" [22]


यदि सावधान हों तो अंगद हनुमान की तरह उन्‍की आज्ञा पालन करनें मैं सब कर्तव्‍य संपादन हो जाते हैं परन्‍तु जहां ऐसा होता वहीं बड़ी कठिनाई पड़ती है। सकड़ी गली मैं हाथी नहीं चल्‍ता तब महावत कूढ़ बाजता है। वृन्‍द कहता है कि "ताकों त्‍यों समझाइये जो समझे जिहिं बानि।। बैन कहत मग अन्‍धकों अरु बहरेको पानि।।" जिस तरह सुग्रीव भोग विलास मैं फंस गया तब रघुनाथ जी केवल उस्‍को धमकी देकर राह पर ले आए थे इस तरह लाला मदनमोहन के लिये क्‍या कोई उपाय नहीं होसक्ता ? हे जगदीश ! इस कठिन काम मैं तू मेरी सहायता कर।


लाला ब्रजकिशोर इन्‍बातों के बिचार मैं ऐसे डूबे हुए थे कि उन्‍को अपना देहानुसन्‍धान न था। एक बार वह सहसा कलम उठा कर कुछ लिखनें लगे और किसी जगह को पूरा महसूल देकर एक जरूरी तार तत्‍काल भेज दिया। परन्‍तु फ़िर उन्‍हीं बातों के सोच बिचार मैं मग्‍न होगए। इस्‍समय उन्के मुखसै अनायास कोई, कोई शब्‍द बेजोड़ निकल जाते थे जिन्‍का अर्थ कुछ समझ मैं नहीं आता था। एक बार उन्‍नें कहा "तुलसीदासजी सच कहते हैं " षटरस बहु प्रकार ब्यंजन कोउ दिन अरु रैन बखानें।। बिन बोले सन्‍तोष जनित सुख खाय सोई पै जानें।।" थोड़ी देर पीछै कहा "मुझको इस्‍समय इस बचन पर बरताव रखना पड़ेगा (वृन्‍द) झूंटहु ऐसो बोलिये सांच बराबर होय।। जो अंगुरी सों भीत पर चन्द्र दिखावे कोए।।" परन्‍तु पानी जैसा दूध सै मिल जाता है तेल सै नहीं मिल्‍ता। विक्रमोर्बशी नाटक मैं उर्वशी के मुख सै सच्‍ची प्रीति के कारण पुरुषोत्‍तम की जगह पुरूरवा का नाम निकल गया था इसी तरह मेरे मुख सै कुछका कुछ निकल गया तो क्‍या होगा ? थोड़ी देर पीछै कहा "लोक निन्‍दा सै डरना तो वृथा है जब वह लोग जगत जननी जनक नन्दिनी की झूंटी निन्‍दा किये बिना नहीं रहे ! श्रीकृष्‍णचन्‍द्र को जाति वालों के अपवाद का उपाय नारदजी सै पूछना पड़ा ! तो हम जैसे तुच्‍छ मनुष्‍यों की क्‍या गिन्‍ती है ? सादीनें लिखा है "एक विद्वान सै पूछा गया था कि कोई मनुष्‍य ऐसा होगा जो किसी रूपवान सुन्‍दरी के साथ एकांत मैं बैठा हो दरवाजा बन्‍द हो, पहरे वाला सोता हो मन ललचा रहा हो काम प्रबल हो++ और वह अपनें शम दम के बल सै निर्दोष बच सकै ?" उसनें कहा कि "हां वह रूपवान सुन्‍दरी सै बच सक्ता है परन्‍तु निन्‍दकों की निन्दा सै नहीं बच सक्ता" फ़िर लोक निन्‍दा के भय सै अपना कर्तव्‍य न करना बड़ी भूल है धर्म्म औरों के लिये नहीं अपनें लिये और अपनें लिये भी फल की इच्‍छा सै नहीं, अपना कर्तव्‍य पूरा करनें के लिये करना चाहिये परन्‍तु धर्म्म अधर्म होजाय, नेंकी करते बुराई पल्‍ले पड़े, औरों को निकालती बार आप गोता खानें लगें तो कैसा हो ? रूपेका लालच बड़ा प्रबल है और निर्धनोंको तो उन्‍के काम निकालनें की चाबी होनें के कारण बहुत ही ललचाता है" थोड़ी देर पीछै कहा "हलधरदास नें कहा है "बिन काले मुख नहिं पलाश को अरुणाई है।। बिन बूड़े न समुद्र काहु मुक्‍ता पाई है।।" इसी तरह गोल्‍ड स्मिथ कहता है कि "साहस किये बिना अलभ्‍य वस्‍तु हाथ नहीं लग सक्ती" इसलिये ऐसे साहसी कामों मैं अपनी नीयत अच्‍छी रखनी चाहिये यदि अपनी नीयत अच्‍छी होगी तो ईश्‍वर अवश्‍य सहायता करैगा और डूब भी जायंगे तो अपनी स्‍वरूप हानि न होगी।"


प्रकरण-21 : पतिब्रता


पतिके संग जीवन मरण पति हर्षे हर्षाय


स्‍नेहम ई कुलनारि की उपमा लखी न जाय[23]


शारंगधरे।


लाला ब्रजकिशोर न जानें कब तक इसी भँवर जाल मैं फंसे रहते परन्तु मदनमोहन की पतिब्रता स्‍त्री के पास सै उस्‍के दो नन्‍हें, बच्‍चों को लेकर एक बुढि़या आ पहुँची इस्‍सै ब्रजकिशोर का ध्‍यान बट गया।


उन बालकों की आंखों मैं नींद घुलरही थी उन्‍को आतेही ब्रजकिशोर नें बड़े प्‍यार सै अपनी गोद मैं बिठा लिया और बुढि़या सै कहा "इन्को इस्‍समय क्‍यों हैरान किया ? देख इन्‍की आंखों मैं नींद घुल रही है जिस्‍सै ऐसा मालूम होता है कि मानो यह भी अपनें बाप के काम काज की निर्बल अवस्‍था देखकर उदास हो रहे हैं" उन्‍को छाती सै लगाकर कहा "शाबास ! बेटे शाबास ! तुम अपनें बाप की भूल नहीं समझते तोभी उदास मालूम होते हो परन्‍तु वह सब कुछ समझता है तोभी तुम्‍हारी हानि लाभ का कुछ बिचार नहीं करता। झूंटी जिद अथवा हठधर्मी सै तुम्‍हारा वाजबी हक़ खोए देता है। तुम्‍हारे बाप को लोग बड़ा उदार और दयालु बताते हैं परन्‍तु वह कैसा कठोर चित्‍त है कि अपनें गुलाब जैसे कोमल, और गंगाजल जैसे निर्मल बालकों के साथ विश्‍वासघात करके उन्‍को जन्‍म भर के लिये दरिद्री बनाए देता है वह नहीं जान्‍ता कि एक हक़दार का हक़ छीनकर मुफ्तखोरों को लुटा देनेंमैं कितना पाप है ! कहो अब तुम्‍हारे बास्‍तै क्‍या मंगवायें ?"


"खिनोंनें" (खिलौनें) छोटे नें कहा "बप्‍फी" (बर्फी) बड़े बोले और दोनों ब्रजकिशोर की मूंछें पकड़ कर खेलनें लगे। ब्रजकिशोर नें बड़े प्‍यार सै उन्‍के गुलाबी गालों पर एक, एक मीठी चूमी लेली और नौकरों को आवाज देकर खिलौनें और बरफी लानें का हुक्‍म दिया।


"जी ! इन्की माँ नें ये बच्‍चे आप के पास भेजे हैं" बुढि़या बोली "और कह दिया है कि इन्कौ आप के पांओं मैं डालकर कह देना कि मुझ को आप के क्रोधित होकर चले जानें का हाल सुन्‍कर बड़ी चिन्ता हो रही है, मुझ को अपनें दु:ख सुख का कुछ बिचार नहीं मैं तो उन्‍के साथ रहनें मैं सब तरह प्रसन्‍न हूँ परन्‍तु इन छोटे, छोटे बच्‍चों की क्‍या दशा होगी ? इन्‍को विद्या कौन पढ़ायगा ? नीति कौन सिखायगा ? इन्‍की उमर कैसे कटेगी ? मैं नहीं जान्‍ती कि आपको इस कठिन समय मैं अपना मन मार कर उन्‍की बुद्धि सुधारनी चाहिये थी अथवा उन्‍को अधर धार मैं लटका कर चले जाना चाहिये था ? खैर ? आप उन्‍पर नहीं तो अपनें कर्तव्‍य पर दृष्टि करें, अपनें कर्तव्‍य पर नहीं तो इन छोटे, बच्‍चों पर दया करें ये अपनी रक्षा आप नहीं कर सक्‍ते। इन्‍का बोझ आपके सिर है आप इन्‍की खबर न लेंगे तो संसार मैं इन्‍का कहीं पता न लगेगा और ये बिचारे योंही झुर कर मर जायेंगे ?"


यह बात सुनकर ब्रजकिशोर की आंखें भर आईं। थोड़ी देर कुछ नहीं बोला गया फ़िर चित्‍त स्थिर कर के कहनें लगे "तुम बहन सै कह देना कि मुझको अपना कर्तव्‍य अच्‍छी तरह याद है परन्‍तु क्‍या करूं ? मैं बिबस हूँ। काल की कुटिल गति सै मुझको अपनें मनोर्थ के विपरीत आचरण (बरताव) करना पड़ता है तथापि वह चिन्‍ता न करे। ईश्‍वर का कोई काम भलाई सै खाली नहीं होता। उस्‍नें इस्‍मैं भी अपना कुछ न कुछ हित ही सोचा होगा" लड़कों की तरफ़ देखकर कहा "बेटे ! तुम कुछ उदास मत हो जिस तरह सूर्य चन्‍द्रमा को ग्रहण लग जाता है इसी तरह निर्दोष मनुष्‍यों पर भी क़भी, क़भी अनायास विपत्ति आ पड़ती है परन्‍तु उस समय उन्‍हें अपनी निर्दोषता का बिचार करके मनमैं धैर्य रखना चाहिये।"


उन अनसमझ बच्‍चों को इन बातों की कुछ परवा न थी बरफी और खिलोनों के लालच सै उन्‍की नींद उड़ गई थी इस वास्‍तै वह तो हरेक चीज की उठाया धरी मैं लग रहे थे और ब्रजकिशोर पर तकाजा जारी था।


थोड़ी देर में बरफी और खिलोनें भी आ पहुंचे। इस्‍समय उन्‍की खुशी की हद न रही। ब्रजकिशोर दोनों को बरफी बांटा चाहते थे इतनें मैं छोटा हाथ मार कर सब ले भागा और बड़ा उस्‍सै छीन्‍नें लगा तो सब की सब एक बार मुंह मैं रख गया। मुंह छोटा था इसलिये वह मुंह मैं नहीं समाती थी परन्‍तु यह खुशी भी कुछ थोड़ी न थी कनअंखियों से बड़े की तरफ़ देखकर मुस्‍कराता जाता था और नाचता जाता था वह। भोलीभोली सूरत ठुमक, ठुमक कर नाचना, छिप-छिप कर बड़े की तरफ़ देखना, सैन मारना उस्‍के मुस्‍करानें मैं दूध के छोटे, छोटे दांतों की मोती की सी झलक देखकर थोड़ी देर के लिये ब्रजकिशोर अपनें सब चारा बिचार भूल गए। परन्‍तु इस्‍को नाचता कूदता देखकर अब बड़ा मचल पड़ा। उस्‍नें सब खिलोनें अपनें कब्‍जे मैं कर लिये और ठिनक, ठिनक कर रोनें लगा। ब्रजकिशोर उस्‍को बहुत समझाते थे कि "वह तुम्‍हारा छोटा भाई है तुम्‍हारे हिस्‍से की बरफी खाली तो क्‍या हुआ ? तुम ही जानें दो" परन्‍तु यहां इन्‍बातों की कुछ सुनाई न थी। इधर छोटे खिलोनों की छीना झपटी मैं लग रहे थे ! निदान ब्रजकिशोर को बड़े के वास्‍तै बरफी छोटे के वास्‍तै खिलोनें फ़िर मंगानें पड़े। जब दोनों की रजामन्‍दी हो गई तो ब्रजकिशोर नें बड़े प्‍यार से दोनों की एक मिठ्ठी (मीठी चूमी) लेकर उन्‍हें बिदा किया और जाती बार बुढि़या को समझा दिया कि "बहन को अच्‍छी तरह समझा देना वह कुछ चिन्‍ता न करे।"


परन्‍तु बुढि़या मकान पर पहुंची जितनें वहां की तो रंगत ही बदल गई थी। मदनमोहन के साले जगजीवनदास अपनी बहन को लिवा लेजानें के लिये मेरठ सै आए थे। वह अपनी मां (अर्थात् मदनमोहन की सास) की तबियत अच्‍छी नहीं बताते थे और आज ही रात की रेल मैं अपनी बहन को मेरठ लिवा ले जानें की तैयारी करा रहे थे। मदनमोहन की स्‍त्री के मनमैं इस्‍समय मदनमोहन को अकेले छोड़ कर जानें की बिल्‍कुल न थी परन्‍तु एक तो वह अपनें भाई सै लज्‍जा के मारे कुछ नहीं कह सक्ती थी दूसरे मां की मांदगीका मामला था तीसरे मदनमोहन हुक्‍म दे चुके थे इसलिये लाचार होकर उस्‍नें दो, एक दिन के वास्‍तै जानें की तैयारी की थी।


मदनमो‍हन की स्‍त्री अपनें पतिकी सच्‍ची प्रीतिमान, शुभचिंतक दु:ख सुखकी साथन, और आज्ञा मैं रहनेंवाली थी और मदनमोहन भी प्रारंभ मैं उस्‍सै बहुत ही प्रीति रखता था परन्‍तु जब सै वह चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आदि नए मित्रोंकी संगति मैं बैठनें लगा, नाचरंग की धुनलगी, बेश्‍याओंके झूंठे हावभाव देखकर लोट पोट होगया ? "अय ! सुभानअल्‍लाह ! क्‍या जोबन खिल रहा है !" "वल्‍लाह ! क्‍या बहार आ रही है ?" "चश्‍म बद्ददूर क्‍या भोली, भोली सूरत है !" "अय ! परे हटो !" "मैं सदकै ! मैं कुर्बान ! मुझे न छेड़ो !" "खुदाकी कसम ! मेरी तरफ़ तिरछी नजर सै न देखो !" बस यह चोचलेकी बातें चित्‍तमैं चुभ गईं। किसी बात का अनुभव तो था ही नहीं। तरुणाई की तरंग, शिंभूदयाल और चुन्‍नीलाल आदिकी संगति, द्रव्‍य और अधिकार के नशे मैं ऐसा चकचूर हुआ कि लोक- परलोक की कुछ खबर न रही।


यह बिचारी सीधी सादी सुयोग्‍य स्‍त्री अब गंवारी मालूम होनैं लगी। पहले-पहले कुछ दिन यह बात छिपी रही परन्‍तु प्रीति के फूलमैं कीड़ा लगे पीछै वह रस कहां रहसक्ता है ? उस्‍समय परस्‍पर के मिलाप सै किसी का जी नहीं भरताथा, बातों की गुलझटी क़भी सुलझनें नहीं पातीथी, आधी बात मुख मैं और आधी बात होठोंही मैं हो जाती थी, आँख सै आँख मिल्तेही दोनोंको अपनें आप हँसी आ जाती थी केवल हँसी नहीं उस हँसी मैं धूप छाया की तरह आधी प्रीति और आधी लज्‍जा की झलक दिखाई देती थी और सही प्रीति के कारण संसार की कोई वस्‍तु सुन्‍दरता मैं उस्‍सै अधिक नहीं मालूम होती थी। एक की गुप्‍त दृष्टि सदा दूसरे की ताक झाँक में लगी रहती थी। क्‍या चित्रपट देखनें मैं, क्‍या रमणीक स्‍थानों की सैर करनें मैं, क्‍या हँसी दिल्‍लगी की बातों मैं कोई मौका नोक झोंक सै खाली नहीं जाता था और संसार के सब सुख अपनें प्राण जीवन बिना उन्‍को फीके लगते थे परन्‍तु अब वह बातें कहां हैं ? उस्‍की स्‍त्री अबतक सब बातों मैं वैसी ही दृढ़ है बल्कि अज्ञान अवस्‍था की अपेक्षा अब अधिक प्रीति रखती है परन्‍तु मदनमोहन का चित्त वह न रहा। वह उस बिचारी सै कोसों भागता है उस्‍को आफत समझता है क्‍या इन बातों सै अनसमझ तरुणों की प्रीति केवल आंखों मैं नहीं मालूम होती ? क्‍या यह उस्‍की बेकदरी और झूंठी हिर्सका सबसै अधिक प्रमाण नहीं है ? क्‍या यह जानें पीछै कोई बु‍द्धिमान ऐसे अनसमझ आदमियों की प्रतिज्ञाओं का विश्‍वास कर सक्ता है ? क्‍या ऐसी पवित्र प्रीति के जोड़े मैं अन्‍तर डालनें वालों को बाल्‍मीकि ऋषि का शाप [24] भस्‍म न करेगा ? क्‍या एक हक़दार की सच्‍ची प्रीति के ऐसे चोरों को परमेश्‍वर के यहां सै कठिन दंड न होगा ?


मदनमोहन की पतिब्रता स्‍त्री अपनें पति पर क्रोध करना तो सीखी ही नहीं है। मदनमोहन उस्की दृष्टि मैं एक देवता है। वह अपनें ऊपर के सब दु:खों को मदनमोहन की सूरत देखते ही भूल जाती है और मदनमोहन के बड़े सै बड़े अपराधों को सदा जाना न जाना करती रहती है। मदनमोहन महीनों उस्‍की याद नहीं करता परन्‍तु वह केवल मदनमोहन को देखकर जीती है। वह अपना जीवन अपनें लिये नहीं; अपनें प्राणपति के लिये समझती है। जब वह मदनमोहन को कुछ उदास देखती है तो उस्‍के शरीर का रुधिर सूख जाता है। जब उस्‍को मदनमोहन के शरीर मैं कुछ पीड़ा मालूम होती है तो वह उस्‍की चिन्‍ता मैं बावली बन जाती है। मदनमोहन की चिन्‍ता सै उस्‍का शरीर सूखकर कांटा हो गया है। उस्‍को अपनें खानें पीनें की बिल्‍कुल लालसा नहीं है परन्‍तु वह मदनमोहन के खानें पीनें की सब सै अधिक चिन्‍ता रखती है। वह सदा मदनमोहन की बड़ाई करती रहती है और जो लोग मदनमोहन की ज़रा भी निन्‍दा करते हैं वह उन्‍की शत्रु बन जाती है। वह सदा मदनमोहन को प्रसन्‍न रखनें के लिये उपाय करती है उस्‍के सम्‍मुख प्रसन्‍न रहती है अपना दु:ख उस्‍को नहीं जताती और सच्‍ची प्रीति सै बड़प्‍पन का बिचार रखकर भय और सावधानी के साथ उस्की आज्ञा प्रतिपालन करती रहती है।


थोड़े खर्च मैं घर का प्रबन्‍ध ऐसी अच्‍छी तरह कर रक्‍खा है कि मदनमोहन को घर के कामों मैं ज़रा परिश्रम नहीं करना पड़ता। जिस्‍पर फुर्सत के समय खाली बैठकर और लोगों की पंचायत और स्त्रियों के गहनें गांठे की थोथी बातों के बदले कुछ कुछ लिखनें पढ़नें, कसीदा काढ़नें और चित्रादि बनानें का अभ्‍यास रखती है। बच्‍चे बहुत छोटे हैं परन्‍तु उन्को खेल ही खेल मैं अभी से नीति के तत्‍व समझाए जाते हैं और बेमालूम रीति सै धीरे, धीरे हरेक बस्‍तु का ज्ञान बढ़ाकर ज्ञान बढ़ानें की उन्‍की स्‍वाभाविक रुचि को उत्तेजत दिया जाता है परन्‍तु उन्‍के मन पर किसी तरह का बोझ नहीं डाला जाता उन्के निर्दोष खेलकूद और हंसनें बोलनें की स्‍वतन्‍त्रता मैं किसी तरह की बाधा नहीं होनें पाती।


मदनमोहन की स्‍त्री अपनें पतिको किसी समय मौकेसै नेंक सलाह भी देती है परन्‍तु बड़ोंकी तरह दबाकर नहीं: बराबर वालों की तरह झगड़ कर नहीं। छोटों की तरह अपनें प‍तिकी पदवीका बिचार करके, उन्‍के चित दु:खित होनें का बिचार करके, अपनी अज्ञानता प्रगट करके, स्त्रियोंकी ओछी समझ जता कर धीरजसै अपना भाव प्रगट करती है परन्‍तु क़भी लोटकर जवाब नहीं देती, बिवाद नहीं करती। वह बुद्धिमती चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल इत्‍यादि की स्‍वार्थपरतासै अच्‍छी तरह भेदी है परन्‍तु पति की ताबेदारी करना अपना कर्तव्‍य समझ कर समयकी बाट देख रही है और ब्रजकिशोर को मदनमोहनका सच्‍चा शुभचिंतक जान्‍कर केवल उसीसै मदनमोहनकी भलाईकी आशा रखती है। वह क़भी ब्रजकिशोर सै सन्मुख होकर नहीं मिली परन्‍तु उसको धर्म्मका भाई मान्‍ती हैं और केवल अपनें पतिकी भलाईके लिये जो कुछ नया वृत्तान्त कहलानें के लायक मालूम होता है वह गुपचुप उस्‍सै कहला भेजती है। ब्रजकिशोर भी उस्‍को धर्म्म की बहन समझता है इस कारण आज ब्रजकिशोरके अनायास क्रोध करके चले जानें पर उस्‍नें मदनमोहनके हक़मैं ब्रजकिशोर की दया उत्‍पन्‍न करनें के लिये इस्‍समय अपनें नन्हें बच्‍चों को टहलनीके साथ ब्रजकिशोरके पास भेज दिया था परन्‍तु वह लोटकर आए इतनें में अपनी ही मेरठ जानें की तैयारी होगई और रातों रात वहां जाना पड़ा।


प्रकरण-22 : संशय


अज्ञपुरुष श्रद्धा रहित संशय युत बिनशाय।।


बि ना श्रद्धा दुहुं लोकमैं ताकों सुख न लखाय।। [25]


श्रीमद्भगवद्गीता।।


लाला ब्रजकिशोर उठकर कपड़े भी नहीं उतारनें पाए थे इतनें मैं हरकिशोर आ पहुँचा।


"क्यों ! भाई ! आज तुम अपनें पुरानें मित्र सै कैसै लड़ आए ?" ब्रजकिशोर नें पूछा।


"इस्‍सै आपको क्‍या ? आपके हां तो घीके दिए जल गए होंगे" हरकिशोरनें जवाब दिया।


"मेरे हां घीके दिये जलनें की इस्‍मैं कौन्‍सी बात थी ?" ब्रजकिशोर नें पूछा।


"आप हमारी मित्रता देखकर सदैव जला करते थे आज वह जलन मिट गई"


"क्‍या तुम्‍हारे मनमैं अब तक यह झूंटा बहम समा रहा है ?" ब्रजकिशोरनें पूछा।


"इस्‍मैं कुछ संदेह नहीं" हरकिशोर हुज्‍जत करनें लगा। मैं ठेठसै देखता आता हूँ कि आप मुझको देखकर जल्‍ते हैं। मेरी और मदनमोहन की मित्रता देखकर आपकी छाती पर सांप लोटता है। आपनें हमारा परस्‍पर बिगाड़ करनेंके लिये कुछ थोड़े उपाय किये ? मदनमोहनके पिताको थोड़ा भड़काया ? जिस दिन मेरे लड़के की बारातमैं शहरके सब प्रतिष्ठित मनुष्‍य आये थे उन्‍को देखकर आपके जीमैं कुछ थोड़ा दु:ख हुआ ? शहरके सब प्रतिष्ठित मनुष्‍योंसै मेरा मेल देखकर आप नहीं कुढ़ते ? आप मेरी तारीफ सुनकर क़भी अपनें मनमैं प्रसन्‍न हुए ? आपनें किसी काममैं मुझको सहायता दी। जब मैंनै अपनें लड़के के बिबाहमैं मजलिस की थी आपनें मजलिस करनेंसै मुझे नहीं रोका ? लोगोंके आगे मुझको बावला नहीं बताया ? बहुत कहनें सै क्‍या है ? आज ही मदनमोहन का मेरा बिगाड़ सुन्‍कर कचहरीसै वहां झटपट दोड़गए और दो घण्‍टे एकांतमैं बैठकर उस्‍को अपनी इच्‍छानुसार पट्टी पढ़ा दी परन्‍तु मुझको इन बातोंकी क्‍या परवा है ? आप और वह दोनों मिल्‍कर मेरा क्‍या करसक्ते हो ? मैं सब समझलूंगा।"


लाला ब्रजकिशोर ये बातें सुन, सुनकर मुस्‍कराते जाते थे। अब वह धीरज सै बोले "भाई ! तुम बृथा बहम का भूत बनाकर इतना डरते हो। इस बहमका ठिकाना है ? तुम तत्‍काल इन बातोंकी सफाई करते चलेजाते तो मनमैं इतना बहम सर्वथा नहीं रहता। क्‍या स्‍वच्‍छ अन्त:करण का यही अर्थ है ? मुझको जलन किस बात पर होती ? तुम अपना सब काम छोड़कर दिन भर लोगोंकी हाज़री साधते फ़िरोगे, उन्‍की चाकरी करोगे, उन्‍को तोहफा तहायफ दोगे ? दस, दस बार मसाल लेकर उन्‍के घर बुलानें जाओगे तो वह क्‍या न आवेंगे ? अपनें गांठ की दौलत खर्च करके उन्‍को नाच दिखाओगे तो वह क्‍यों न तारीफ़ करेंगे ? परन्‍तु यह तारीफ़ कितनी देरकी, वाह वाह कितनी देर की ? क़भी तुम पर आफत आ पड़ेगी तो इन्‍मैंसै कोई तुम्‍हारी सहायता को आवेगा ? इस खर्चसै देशका कुछ भला हुआ ? तुम्‍हारा कुछ भला हुआ ? तुम्‍हारी संतान का कुछ भला हुआ ? यदि इस फ़िज़ूल ख़र्ची के बदले लड़के के पढ़ानें लिखानें मैं यह रुपया लगाया जाता, अथवा किसी देश हितकारी काममैं ख़र्च होता तो निस्सन्देह बड़ाई की बात थी परन्‍तु मैं इस्‍मैं क्‍या तारीफ करता, क्‍या प्रसन्‍न होता, क्‍या सहायता करता। मुझको तुम्‍हारी भोली -भोली बातोंपर बड़ा आश्चर्य था, इसी वास्तै मैंनें तुमको फ़िज़ूल ख़र्ची सै रोका था, तुमको बावला बताया था परन्‍तु तुम्‍हारी तरफ़की मेरी मनकी प्रीतिमैं कुछ अन्‍तर क़भी नहीं आया, क्‍या तुम यह बिचारते हो कि जिस्‍सै सम्बंध हो उस्‍की उचित अनुचित हरेक बातका पक्षपात करना चाहिये ? इन्साफ़ अपनें वास्‍ते नहीं केवल औरोंके वास्‍ते है ? क्‍या हाथ मैं डिम-डिम लेकर सब जगह डोंडी पीटे बिना सच्‍ची प्रीति नहीं मालूम होती ? इन सब बातों मैं कोई बात तुम्‍हारी बड़ाईके लायक न हो तो भी तुम को प्रसन्‍न देखकर प्रसन्‍न होना तो घर फूंक तमाशा देखना है। मैं यह नहीं कहता कि मनुष्‍य ऐसे कुछ काम न करे। समय, समय पर अपनें बूते मूजिब सबकाम करनें योग्‍य हैं परन्‍तु यह मामूली कारवाई है। जितना वैभव अधिक होता है उतनी ही धूमधाम बढ़ जाती है इस लिये इस्‍मैं कोई खास बात नहीं पाई जाती है। मैं चाहता हूँ कि तुम सै कोई देश ‍हितैषी ऐसा काम बनें जिस्मैं मैं अपनें मनकी उमंग निकाल सकूं। मनुष्‍य को जलन उस मौकेपर हुआ करती है जब वह आप उस लायक न हो परन्‍तु तुम को जो बड़ाई बड़े परिश्रम से मिली है वह ईश्‍वर की कृपा सै मुझ को बेमहनत मिल रही हैं। फ़िर मुझको जलन क्‍यों हो ? तुम्‍हारी तरह खुशामद कर के मदनमोहन सै मेल किया चाहता तो मैं सहज मैं करलेता। परन्‍तु मैंनें आप यह चाल पसन्‍द न की तो अपनी इच्‍छा सै छोड़ी हुई बातों के लिये मुझ को जलन क्‍यों हो ? जलन की वृत्ति परमेश्‍वर नें मनुष्‍य को इस लिये दी है कि वह अपनें सै ऊंची पदवी के लोगों को देखकर उचित रीति सै अपनी उन्‍नति का उद्योग करे परन्‍तु जो लोग जलन के मारे औरों का नुक्‍सान करके उन्‍हें अपनी बराबर का बनाया चाहते हैं, वह मनुष्‍य के नाम को धब्‍बा लगाते हैं, मुझ को तुम सै केवल यह शिकायत थी और इसी विषय मैं तुम्हारे विपरीत चर्चा करनी पड़ी थी कि तुमनें मदनमोहन सै मित्रता करके मित्र के करनें का काम न किया। तुमको मदनमोहन के सुधारनें का उपाय करना चाहिये था, परन्‍तु मैंनें तुम्‍हारे बिगाड़ की कोई बात नहीं की। हां इस बहम का क्‍या ठिकाना है ? खाते, पीते, बैठते, उठते, बिना जानें ऐसी सैंकड़ों बातें बन जाती हैं कि जिन्का बिचार किया करें तो एक दिन मैं बावले बन जायं। आए तो आए क्‍यों, बैठे तो बैठे क्‍यों, हँसे तो हँसे क्‍यों, फलानें सै क्‍या बात की। फलानें सै क्‍यों मिले ? ऐसी निरर्थक बातों का बिचार किया करें तो एक दिन काम न चले। छुटभैये सैंकड़ों बातें बीच की बीच मैं बनाकर नित्य लड़ाई करा दिया करें। पर नहीं अपनें मन को सदैव दृढ़ रखना चाहिये। निर्बल मन के मनुष्‍य जिस तरह की जरा जरासी बातों मैं बिगड़ खड़े होते हैं दृढ़ मन के मनुष्‍य को वैसी बातों की खबर भी नहीं होती इसलिये छोटी, छोटी बातों पर बिशेष बिचार करना कुछ तारीफ की बात नहीं है और निश्‍चय किए बिना किसी की निंदित बातों पर विश्‍वास न करना चाहिये। किसी बात मैं संदेह पड़ जाय तो स्‍वच्‍छ मन सै कह सुनकर उस्‍की तत्‍काल सफाई कर लेनी अच्छी है क्‍योंकि ऐसे झूंटे, झूंटे वहम संदेह और मन:कल्पित बातों सै अबतक हज़ारों घर बिगड़ चुके हैं।"


"खैर ! और बातों मैं आप चाहैं जो कहें परन्‍तु इतनी बात तो आप भी अंगीकार करते हैं कि मदनमोहन की और मेरी मित्रता के विषय मैं आपनें मेरे बिपरीत चर्चा की। बस इतना प्रमाण मेरे कहनें की सचाई प्रगट करनें के लिये बहुत है" हरकिशोर कहनें लगा "आप का यह बरताव केवल मेरे संग नहीं बल्कि सब संसार के संग है। आप सबकी नुक्तेचीनी किया करते हैं"


"अब तो तुम अपनी बात को सब संसारके साथ मिलानें लगे। परन्‍तु तुम्‍हारे कहनें सै यह बात अंगीकार नहीं हो सक्ती। जो मनुष्‍य आप जैसा होता है वैसाही संसार को समझता है। मैंनें अपना कर्तव्‍य समझकर अपनें मन के सच्‍चे, सच्‍चे बिचार तुम सै कह दिए। अब उन्‍को मानों या न मानों तुम्‍हैं अधिकार है" लाला ब्रजकिशोर नें स्‍वतन्‍त्रता सै कहा।


"आप सच्‍ची बात के प्रगट होनें सै कुछ संकोच न करैं। सम्‍बन्‍धी हो अथवा बिगाना हो जिस्‍सै अपनी स्‍वार्थ हानि होती है उस्‍सै मनमैं अन्‍तर तो पड़ही जाता है" हरकिशोर कहनें लगा "स्‍यमन्‍तक मणि के संदेह पर श्रीकृष्‍ण-बलदेव जैसे भाईयों मैं भी मन चाल पड़ गई। ब्रह्मसभा मैं अपमान होनें पर दक्ष और महादेव (ससुर-जंवाई) के बीच भी बिरोध हुए बिना न रहा।"


"तो यों साफ क्‍यों नहीं कहते कि मेरी तरफ़ सै अब तक तुम्‍हारे मन मैं वही बिचार बन रहे हैं। मुझको कहना था वह कह चुका अब तुम्‍हारे मन मैं आवे जैसे समझते रहो" लाला ब्रजकिशोर नें बेपरवाई सै कहा।


"चालाक आदमियों की यह तो रीति ही होती है कि वह जैसी हवा देखते हैं वैसी बात करते हैं। अबतक मदनमोहन सै आपकी अनबन रहती थी अब मुकदमों का समय आते ही मेल हो गया ! अबतक आप मदनमोहन सै मेरी मित्रता छुड़ानें का उपाय करते थे अब मुझको मित्रता रखनें के लिये समझानें लगे ! सच है। बुद्धिमान मनुष्‍य जो करना होता है वही करता है परन्‍तु ओरों का ओलंभा मिटानें के लिये उन्‍के सिर मुफ्त का छप्‍पर ज़रूर धर देता है। अच्‍छा आपको लाला मदनमोहन की नई मित्रता के लिये बधाई है और आपके मनोर्थ सफल करनें का उपाय बहुत लोग कर रहे हैं" हरकिशोर नें भरमा भरमी कहा।


"यह तुम क्‍या बक्‍ते हो मेरा मनोर्थ क्‍या है ? और मैंनें हवा देखकर कौन्‍सी चाल बदली ?" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "जैसे नावमैं बैठनें वाले को किनारे के बृक्ष चल्‍ते दिखाई देते हैं इसी तरह तुम्‍हारी चाल बदल जानें सै तुमको मेरी चाल मैं अन्‍तर मालूम पड़ता है। तुम्‍हारी तबियत को जाचनें के लिये तुमनें पहले सै कुछ नियम स्थिर कर रक्‍खे होते तो तुमको ऐसी भ्रांति क़भी न होती। मैं ठेठ सै जिस्‍तरह मदनमोहन को चाहता था, जिस तरह तुमको चाहता था, जिस्‍तरह तुम दोनों की परस्‍पर प्रीति चाहता था उसी तरह अब भी चाहता हूँ परन्‍तु तुम्‍हारी तबियत ठिकानें नहीं है इस्‍सै तुम को बारबार मेरी चाल पर संदेह होता है सौ खैर ! मुझै तो चाहै जैसा समझते रहो परन्‍तु मदनमोहन के साथ बैर भाव मत रक्‍खो। तुच्‍छ बातों पर कलह करना अनुचित है और बैरी सै भी बैर बढ़ानें के बदले उस्‍के अपराध क्षमा करनें मैं बड़ाई मिलती है।"


"जी हां ! पृथ्‍वीराज नें शहाबुद्दीन गोरीको क्षमा करके जैसी बड़ाई पाई थी वह सब को प्रगट है" हरकिशोर नें कहा।


"आगे को हानि का संदेह मिटे पीछे पहले के अपराध क्षमा करनें चाहियें परन्‍तु पृथ्‍वीराज नें ऐसा नहीं किया था इसी सै धोखा खाया और………"


"बस, बस यहीं रहनें दीजिये। मेरा मतलब निकल आया। आप अपनें मुख से ऐसी दशा मैं क्षमा करना अनुचित बता चुके उस्‍सै आगै सुन्‍कर मैं क्‍या करूंगा ?" यह कह कर हरकिशोर, ब्रजकिशोर के बुलाते, बुलाते उठ कर चला गया।


और ब्रजकिशोर भी इनहीं बातों के सोच बिचार मैं वहां सै उठ कर पलंगपर जा लेटे।


प्रकरण-23 : प्रामाणिकता


"एक प्रामाणिक मनुष्‍य परमेश्‍वर की सर्वोत्‍कृष्‍ट रचना है" [26]


पोप।


ब्रजकिशोर कौन् हैं ? मदनमोहन की क्‍यों इतनी सहानुभूति (हमदर्दी) करते हैं ?


अच्‍छा ! अब थोड़ी देर और कुछ काम नहीं है जितनें थोड़ा सा हाल इन्‍का सुनिये।


लाला ब्रजकिशोर गरीब माँ बाप के पुत्र हैं परन्‍तु प्रामाणिक, सावधान, विद्वान और सरल स्‍वभाव हैं। इन्‍की अवस्‍था छोटी है तथापि अनुभव बहुत है। यह जो कहते हैं उसी के अनुसार चलते हैं। इन्‍की बहुत सी बातें अब तक इस पुस्‍तक मैं आचुकी हैं इसलिये कुछ विशेष लिखनें की ज़रूरत नहीं है तथापि इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि यह परमेश्‍वर की सृष्टि का एक उत्तम पदार्थ है। यह वकील हैं परन्तु अपनी तरफ़ के मुकद्दमेवालों का झूंटा पक्षपात नहीं करते। झूंटे मुकद्दमे नहीं लेते। बूते सै ज्‍याद: काम नहीं उठाते, परन्‍तु जो मुकद्दमे लेते हैं उन्‍की पैरवी वाजबी तौर पर बहुत अच्‍छी तरह करते हैं और बहुधा अन्‍याय सै सताए हुए गरीबों के मुकद्दमों मैं बे महन्‍ताना लिये पैरवी किया करते हैं। हाकिम और नगरनिवासियों को इन्‍की बात पर बहुत विश्वास है। यह स्‍वतन्त्र मनुष्‍य हैं परन्‍तु स्‍वेच्‍छाचारी और अहंकारी नहीं हैं। अपनी स्‍वतन्त्रता को उचित मर्यादा सै आगे नहीं बढ़नें देते। परमेश्‍वर और स्‍वधर्म पर दृढ़ विश्‍वास रखते हैं। बात सच कहते हैं परन्‍तु ऐसी चतुराई सै कहते हैं कि इन्‍का कहना किसी को बुरा नहीं लगता और किसी की हक़तल्‍फी भी नहीं होनें पाती। यह थोथी बातों पर विवाद नहीं करते और इन्‍के कर्तव्‍य मैं अन्‍तर न आता हो तो ये दूसरे की प्रसन्‍नता के लिये अकारण भी चुप हो रहते हैं अथवा केवल संकेत सा कर देते हैं। जहां तक औरों के हक़मैं अन्‍तर न आया ये अपनें ऊपर दु:ख उठा कर भी परोपकार करते हैं; बैरी सै सावधान रहते हैं परन्तु अपनें मन मैं उन्की तरफ़ का बैर भाव नहीं रखते। अपनी ठसक किसी को नहीं दिखलाया चाहते, यह मध्‍यम भाव सै रहनें को पसन्‍द करते हैं और इन्‍की भलमनसात सै सब लोग प्रसन्‍न हैं। परन्‍तु मदनमोहन को इन्‍की बातें अच्‍छी नहीं लगतीं। और लोगों सै यह केवल इतनी बात करते हैं जिस्‍मैं वह प्रसन्‍न रहैं और इन्‍हें झूंट न बोलनी पड़े परन्‍तु मदनमोहन सै ऐसा सम्‍बन्‍ध नहीं है। उस्‍की हानि लाभ को यह अपनी हानि लाभ सै अधिक समझते हैं इसी वास्‍तै इन्‍की उस्सै नहीं बन्‍ती। यह कहते हैं कि "जब तक कुछ काम न हो; अपनें पल्‍ले मैं किसी तरह का दाग लगाए बिना हर हरह के आदमी सै अच्‍छी तरह मित्रता निभ सक्‍ती है परन्तु काम पड़े पर उचित रीति बिना काम नहीं चलता"


"यह अपनी भूल जान्‍ते ही प्रसन्‍नता सै उस्‍को अंगीकार करके उस्‍के सुधारनें का उद्योग करते हैं इसी तरह जो बात नहीं जान्‍ते उस्मैं अपनी झूंटी निपुणता दिखानें पर काम पड़नें पर उस्‍का अभ्‍यास करके जेम्‍सवाट की तरह अपनी सच्ची सावधानी सै लोगों को आश्‍चर्य मैं डालते हैं।


(बहुधा लोग जान्‍ते होंगे कि जेम्सवाट कलों के काम मैं एक प्रसिद्ध मनुष्‍य हो गया है उस्‍के समान काल मैं उस्‍की अपेक्षा बहुत लोग अधिक विद्वान थे परन्‍तु अपनें ज्ञान को काम मैं लानें के वास्‍ते जेम्‍सवाट नें जितनी महनत की उतनी और किसी नें नहीं की। उस्नें हरेक पदार्थ की बारीकियों पर दृष्टि पहुँचानें के लिये खूब अभ्‍यास बढ़ाया। वह बढई का पुत्र था जब वह बालक था तब ही अपनें खिालोनों मैं सै बिद्या विषय ढूंढ निकालता था। उस्के बाप की दुकान मैं ग्रहोंके देखनें की कलें रक्‍खी थीं जिस्‍सै उस्‍को प्रकाश और ज्‍योतिष बिद्या का ब्यसन हुआ। उस्‍के शरीर मैं रोग उत्‍पन्‍न होनें सै उस्‍को बैद्यक सीखनें की रुचि हुई। और बाहर गांव मैं एकांत फ़िरनें की आदत सै उस्‍नें बनस्‍पति बिद्या और इतिहास का अभ्‍यास किया। गणित शास्‍त्र के औज़ार बनाते बनाते उस्‍को एक आर्गन बाजा बनानें की फर्मायश हुई। परन्तु उस्‍को उस्‍समय तक गाना नहीं आता था इसलिये उस्‍नें प्रथम संगीत बिद्या का अभ्‍यास करके पीछे सै एक आर्गन बाजा बहुत अच्‍छा बना दिया। इसी तरह एक बाफ की कल उस्‍की दुकान पर सुधरनें आई तब उस्‍नें गर्मी और बाफ बिषयक बृतान्त् सीखनें पर मन लगाया और किसी तरह की आशा अथवा किसी के उत्तेजन बिना इस काम मैं दस बरस परिश्रम करके बाफ की एक नई कल ढूंढ निकाली जिस्‍सै उस्‍का नाम सदा के लिये अमर हो गया।)


लाला ब्रजकिशोर को संसारी सुख भोगनें की तृष्‍णा नहीं है और द्रव्‍य की आवश्‍यकता यह केवल सांसारिक कार्य निर्वाह के लिये समझते हैं। इस्‍वास्‍तै संसारी कामों की ज़रूरत के लायक परिश्रम और धर्म्म सै रुपया पैदा किये पीछै बाकी का समय यह विद्याभ्‍यास और देशोपकारी बातों मैं लगाते हैं।


इन्‍के निकट उन गरीबों की सहायता करनें मैं सच्‍चा पुन्‍य है। जो सचमुच अपना निर्वाह आप नहीं कर सक्‍ते, या जिन रोगियोंके पास इलाज करानें के लिये रुपया अथवा सेवा करनें के लिये कोई आदमी नहीं होता, ये उन अन्समझ बच्‍चों को पढ़ानें लिखानें मैं अथवा कारीगरी इत्‍यादि सिखा कर कमानें खानें के लायक बना देनें मैं सच्‍चा धर्म समझते हैं जिन्‍के मां बाप दरिद्रता अथवा मूर्खता सै कुछ नहीं कर सक्‍ते। ये अपनें देश मैं उपयोगी विद्याओं की चर्चा फैलनें, अच्‍छी, पुस्‍तकों का और भाषाओं सै अनुवाद करवा कर अथवा नई बनवा कर अपनें देश मैं प्रचार करनें, और देश के सच्‍चे शुभचिन्‍तक और योग्‍य पुरुषों को उत्तेजन देनें, और कलों की अथवा खेती आदि की सच्‍ची देश हितकारी बातों के प्रचलित करनें मैं सच्‍चा धर्म्म समझते हैं। परन्‍तु शर्त यह है कि इन सब बातों मैं अपना कुछ स्‍वार्थ न हो, अपनी नामवरी का लालच न हो, किसी पर उपकार करनें का बोझ न डाला जाय बल्कि किसी को खबर ही न होनें पाय।


इन्‍नें थोड़ी आमद मैं अपनें घरका प्रबन्‍घ बहुत अच्‍छा बांध रक्‍खा है। इन्‍की आमदनी मामूली नहीं है तथापि जितनी आमदनी आती है उस्‍सै खर्च कम किया जाता है और उसी खर्च मैं भावी विवाह आदि का खर्च समझ कर उनके वास्‍तै क्रम सै सीगेवार रकम जमा होती जाती है। बिवाहादि के खर्चों का मामूल बन्ध रहा है उन्‍मैं फिजूल खर्ची सर्वथा नहीं होनें पाती परन्‍तु वाजबी बातोंमैं कसर भी नहीं रहती, इन्‍के सिवाय जो कुछ थोड़ा बहुत बचता है वह बिना बिचारे खर्च और नुक्‍सानादि के लिये अमानत रक्‍खा जाता है और विश्‍वास योग्‍य फ़ायदे के कामों मैं लगानें सै उस्‍की वृद्धि भी की जाती है।


इन्‍के दो छोटे भाइयों के पढ़ानें-लिखानें का बोझ इन्‍के सिर है, इसलिये ये उन्‍को प्रचलित बिद्याभ्‍यास की रूढ़ी के सिबाय उन्‍के मानसिक बिचारोंके सुधारनें पर सब सै अधिक दृष्टि रखते हैं। ये कहते हैं कि "मनुष्‍य के मनके बिचार न सुधरे तो पढ़नें-लिखनें सै क्‍या लाभ हुआ ?" इन्‍नें इतिहास और वर्तमान काल की दशा दिखा, दिखा कर भले बुरे कामों के परिणाम और उन्‍की बारीकी उन्‍के मन पर अच्‍छी तरह बैठा दी तथापि ये अपनी दूर दृष्टि सै अपनी सम्‍हाल मैं गफलत नहीं करते उन्हैं कुसंगति मैं नहीं बैठनें देते। यह उन्‍के संग ऐसी युक्ति सै बरतते हैं जिस्‍मैं न वो उद्धत होकर ढिठाई करनें योग्‍य होनें पावैं न भय सै उचित बात करनें मैं संकोच करें। ये जान्‍ते हैं कि बच्‍चों के मनमैं गुरु के उपदेश सै इतना असर नहीं होता जितना अपनें बड़ों का आचरण देखनें सै होता है इस लिये उन्को मुखसैं उपदेश देकर उतनी बात नहीं सिखाते जितनी अपनी चालचलन सै उनके मन पर बैठाते हैं।


ब्रजकिशोर को सच्‍ची सावधानी सै हरेक काममैं सहायता मिल्‍ती है। सच्‍ची सावधानी मानों परमेश्वरकी तरफ़सै इन्‍को हरेक काम की राह बतानें वाली उपदेष्‍टा है परन्‍तु लोग सच्‍ची सावधानी और चालाकीका का भेद नहीं समझते। क्‍या सच्‍ची सावधानी और चालाकी एक है ?


मनुष्‍यकी प्रकृतिमैं बहुतसी उत्तमोत्तम वृत्ति मोजूद हैं परन्‍तु सावधानीके बराबर कोई हितकारी नहीं है। सावधान मनुष्‍य केवल अपनी तबियत पर ही नहीं औरोंकी तबियत पर भी अधिकार रखसक्ता है। वह दूसरेसै बात करते ही उसका स्‍वभाव पहचान जाता है और उस्‍सै काम निकालनें का ढंग जान्‍ता है यदि मनुष्‍यमैं और गुण साधारण हों और सावधानी अधिक हो तो वह अच्‍छी तरह काम चला सक्‍ता है परन्‍तु सावधानी बिना और गुणोंसे काम निकालना बहुत कठिन है।


जिस्‍तरह सावधानी उत्तम पुरुषोंके स्‍वभावमैं होती है इसी तरह चालाकी तुच्‍छ और कमीनें आदमियोंकी तबियतमैं पाई जाती है। सावधानी हमको उत्तमोत्तम बातें बताती है और उन्‍के प्राप्‍त करनेंके लिये उचित मार्ग दिखाती है। वह हर कामके परिणाम पर दृष्टि पहुंचाती है और आगे कुछ बिगाड़की सूरत मालूम हो तो झूंटे लालचके कामों को प्रारंभ सैं पहले ही अटका देती है परन्तु चालाकी अपनें आसपास की छोटी, छोटी चीजों को देख सक्‍ती है और केवल वर्तमान समय के फायदोंका बिचार रखती है, यह सदा अपनें स्वार्थ की तरफ़ झुकती है और जिस तरह हो सके, अपनें काम निकाल लेनें पर दृष्टि रखती है। सावधानी, आदमी की दृढ़ बुद्धिको कहते हैं और वह जों, लोगोंमैं प्रगट होती जाती है, सावधान मनुष्‍यकी प्रतिष्‍ठा बढ़ती जाती है परन्‍तु चालाकी प्रगट हुए पीछै उसकी बातका असर नहीं रहता। चालाकी होशियारीकी नकल है और वह बहुधा जान्‍वरों की सी-प्रकृतिके मनुष्योंमैं पाई जाती है इस लिये उस्‍मैं मनुष्‍य जन्‍मको भूषित करनें के लायक कोई बात नहीं है। वह अज्ञानियोंके निकट ऐसी समझी जाती है जैसे ठट्टेबाजी, चतुराई और भारी भरकमपना बुद्धिमानी समझे जायं।


लाला ब्रजकिशोर सच्‍ची सावधानी के कारण किसी के उपकार का बोझ अपनें ऊपर नहीं उठाया चाहते, किसी सै सिफारश आदि की सहायता नहीं लिया चाहते, कोई काम अपनें आग्रह सै नहीं कराया चाहते, किसी को कच्‍ची सलाह नहीं देते, ईश्‍वर के सिवाय किसी भरोसे पर काम नहीं उठाते, अपनें अधिकार सै बढ़कर किसी काम मैं दस्तंदाजी नहीं करते। औरों की मारफत मामला करनें के बदले रोबरू बातचीत करनें को अधिक पसंद करते हैं। वह लेनदेन मैं बड़े खरे हैं परन्‍तु ईश्‍वर के नियमानुसार कोई मनुष्‍य सबके उपकारों सै उऋण नहीं हो सक्ता। ईश्वर, गुरु और माता पितादि के उपकारों का बदला किसी तरह नहीं दिया जा सकता परन्‍तु ब्रजकिशोर पर केवल इन्‍हीं के उपकार का बोझ नहीं है वह इस्सै सिवाय एक और मनुष्‍य के उपकार मैं भी बँध रहे हैं।


ब्रजकिशोर का पिता अत्यन्त दरिद्री था। अपनें पास सै फीस देकर ब्रजकिशोर की मदरसे मैं पढ़ानें की उस्‍की सामर्थ्‍य न थी और न वह इतनें दिन खाली रखकर ब्रजकिशोर को विद्या मैं निपुण किया चाहता था। परन्‍तु मदनमोहन के पिता नें ब्रजकिशोर की बु‍द्धि और आचरण देखकर उसै अपनी तरफ़ सै ऊंचे दर्जे तक विद्या पढ़ाई थी, उस्‍की फीस अपनें पास सै दी थी। उस्की पुस्‍तकैं अपनें पास सै ले दी थीं बल्कि उस्‍के घर का खर्च तक अपनें पास सै दिया था और यह सब बातैं ऐसी गुप्‍त रीति सै हुईं कि इन्‍का हाल स्‍पष्‍ट रीति सै मदनमोहन को भी मालूम न होनें पाया था। ब्रजकिशोर उसी उपकार के बन्‍धन सै इस्‍समय मदनमोहन के लिये इतनी कोशिश करते हैं।


प्रकरण-२४ : (हाथसै पैदा करनें वाले)

(और पोतड़ों के अमीर)


अमिल द्रव्‍यहू यत्‍नते मिलै सु अवसर पाय ।


संचित हू रक्षाबिना स्‍वत: नष्‍ट होजाय ।। [27]


हितोपदेशे


मदनमोहन का पिता पुरानी चाल का आदमी था। वह अपना बूतादेखकर काम करता था और जो करता था वह कहता नहीं फ़िरता था। उस्नें केवल हिन्‍दी पढ़ी थी। वह बहुत सीधा सादा मनुष्‍य था परन्‍तु व्‍यापार मैं बड़ा निपुण था, साहूकारे मैं उस्‍की बड़ी साख थी। वह लोगों की देखा-देखी नहीं अपनी बुद्धि सै व्‍यापार करता था। उस्नें थोड़े व्‍यापार मैं अपनी सावधानी सै बहुत दौलत पैदा की थी। इस्‍समय जिस्‍तरह बहुधा मनुष्‍य तरह, तरह की बनावट और अन्‍याय सै औरों की जमा मारकर साहूकार बन बैठते हैं, सोनें चान्दी के जगमगाहट के नीचे अपनें घोर पापों को छिपाकर सज्‍जन बन्नें का दावा करते हैं, धनको अपनी पाप वासना पूरी करनें का एक साधन समझते हैं ऐसा उस्‍नें नहीं किया था। वह व्‍यापार मैं किसी को कसर नहीं देता था पर आप भी किसी सै कसर नहीं खाता था। उन दिनों कुछ तो मार्ग की कठिनाई आदि के कारण हरेक धुनें जुलाहे को व्‍यापार करनें का साहस न होता था इसलिये व्‍यापार मैं अच्‍छा नफा था दूसरे वह वर्तमान दशा और होनहार बातों का प्रसंग समझकर अपनी सामर्थ्य मूजिब हरबार नए रोजगार पर दृष्टि पहुँचाया करता था इसलिये मक्‍खन उस्‍के हाथ लग जाता था, छाछ मैं और रह जाते थे। कहते हैं कि एकबार नई खानके पन्‍नेंकी खड़ बाजार मैं बिकनें आई परन्‍तु लोग उस्‍की असलियत को न पहचान सके और उस्‍सै खरीद कर नगीना बनवानें का किसी को हौसला न हुआ परन्‍तु उस्की निपुणाई सै उस्‍की ष्टि मैं यह माल जच गया था इसलिये उस्‍नें बहुत थोड़े दामों मैं खरीद लिया और उस्‍के नगीनें बनवाकर भली भांत लाभ उठाया। उसी समय सै उस्‍की जड़जमी और पीछै वह उसै और, और व्‍यापार मैं बढ़ाता गया। परन्‍तु वह आप क़भी बढ़कर न चला। वह कुछ तकलीफ सै नहीं रहता था परन्‍तु लोगों को झूंटी भड़क दिखानें लिये फिजूलखर्ची भी नहीं करता था उस्‍की सवारीमैं नागोरी बैलोंका एक सुशोभित तांगा था। और वह खासे मलमल सै बढ़कर क़भी वस्‍‍त्र नहीं पहनता था। वह अपनें स्‍थान को झाड़ पोंछकर स्‍वच्‍छ रखता था परन्तु झाड़फानूस आदि को फिज़ूलखर्ची मैं समझता था। उस्‍के हां मकान और दुकानपर बहुत थोड़े आदमी नोकर थे परन्तु हरेक मनुष्य का काम बटा रहता था इसलिये बड़ी सुगमता सै सब काम अपनें, अपनें समय होता चला जाता था, वह अपनें धर्म्म पर दृढ़ था। ईश्‍वर मैं बड़ी भक्ति रखता था। प्रतिदिन प्रात:- काल घन्टा डेढ़ घन्टा कथा सुन्‍ता था और दरिद्री, दुखिया, अपहाजों की सहायता करनें मैं बड़ी अभिरुचि रखता था परन्‍तु वह अपनी उदारता किसी को प्रगट नहीं होनें देता था। वह अपनें काम धंधे मैं लगा रहता था इसलिये हाकिमों और रहीसों सै मिलनें का उसे समय नहीं मिल सक्ता था परन्तु वह वाजबी राह सै चल्‍ता था इसलिये उसै बहुधा उन्सै मिलनें की कुछ अवश्‍यकता भी न थी क्‍योंकि देशोन्‍नतिका भार पुरानी रूढि़ के अनुसार केवल राजपुरुषों पर समझा जाता था। वह महनती था इसलिये तन्दुरुस्‍त था वह अपनें काम का बोझ हरगिज औरों के सिर नहीं डालता था; हां यथाशक्ति वाजबी बातों मैं औरों की सहायता करनें को तैयार रहता था।


परन्‍तु अब समय बदल गया इस्‍समय मदनमोहन के बिचार और ही होरहे हैं, जहां देखो; अमीरी ठाठ, अमीरी कारखानें, बाग की सजावट का कुछ हाल हम पहले लिख चुके हैं मकान मैं कुछ उस्‍सै अधिक चमत्‍कार दिखाई देता है, बैठक का मकान अंग्रेजी चाल का बनवाया गया है उस्‍मैं बहुमूल्‍य शीशे बरतन के सिवाय तरह, तरह का उम्‍दा सै उम्‍दा सामान मिसल सै लगा हुआ है। सहन इत्‍यादि मैं चीनी की ईंटों का सुशोभित फर्श कश्‍मीर के गलीचों को मात करता है। तबेलेमैं अच्‍छी सै अच्‍छी विलायती गाड़ियें और अरबी, केप, बेलर, आदिकी उम्‍दा उम्दा जोड़ियें अथवा जीनसवारी के घोड़े बहुतायत सै मौजूद हैं। साहब लोगों की चिट्ठियें नित्‍य आती जाती हैं। अंग्रेज़ी तथा देसी अखबार और मासिकपत्र बहुतसे लिये जाते हैं और उन्‍मैं सै खबरें अथवा आर्टिकलों को कोई देखे ना न देखे परन्‍तु सौदागरों के इश्‍तहार अवश्‍य देखे जाते हैं, नई फैशन की चीज़ें अवश्‍य मंगाई जाती हैं, मित्रोंका जलूसा सदैव बना रहता है और क़भी क़भी तो अंग्रेजों को भी बाल दिया जाता है, मित्रोंके सत्‍कार करनें मैं यहां किसी तरह की कसर नहीं रहती और जो लोग अधिक दुनियादार होते हैं उन्‍की तो पूजा बहुतही विश्‍वासपूर्वक की जाती है ! मदनमोहन की अवस्था पच्‍चीस, तीस बरस सै अधि‍क न होगी। वह प्रगट मैं बड़ा विवेकी और बिचारवान मालूम होता है। नए आदमियों सै बड़ी अच्‍छी तरह मिल्‍ता उस्‍के मुखपर अमीरी झलकती है। वह वस्त्र सादे परन्तु बहुमूल्य पहनता है। उस्के पिता को व्‍यापारी लोगों के सिवाय कोई नहीं जान्‍ता था परन्‍तु उस्‍की प्रशंसा अखबारों मैं बहुधा किसी न किसी बहानें छपती रहती है और वह लोग अपनी योग्‍यता सै प्रतिष्ठित होनें का मान उसे देते हैं।


अच्‍छा ! मदनमोहन नें उन्‍नति की अथवा अवनति की इस विषय मैं हम इस्‍समय विशेष कुछ नहीं कहा चाहते परन्‍तु मदनमोहन नें यह पदवी कैसे पाई ? पिता पुत्र के स्‍वभाव मैं इतना अन्‍तर कैसे होगया ? इसका कारण इस्समय दिखाया चाहते हैं।


मदनमोहन का पिता आप तो हरेक बात को बहुत अच्‍छी तरह समझता था परन्‍तु अपनें विचारों को दूसरे के मन मैं (उस्‍का स्वभाव पहिचान कर) बैठादेनें की सामर्थ्‍य उसे न थी। उस्‍नें मदनमोहन को बचपन मैं हिन्‍दी, फारसी और अंग्रेजी भाषा सिखानें के लिये अच्‍छे, अच्‍छे उस्‍ताद नौकर रख दिये थे परन्‍तु वह क्‍या जान्‍ता था कि भाषा ज्ञान विद्या नहीं, विद्या का दरवाजा है। विद्या का लाभ तो साधारण रीति सै बु्द्धि के तीक्ष्‍ण होनें पर और मुख्‍य करके विचारों के सुधरनें पर मिल्‍ता है। जब उस्‍को यह भेद प्रगट हुआ उस्‍नें मदनमोहन को धमका कर राह पर लानें की युक्ति विचारी परन्‍तु वह नहीं जान्‍ता था कि आदमी धमकानें सै आंख और मुख बन्‍द कर सक्ता है, हाथ जोड़ सक्ता है, पैरों मैं पड़ सक्ता है, कहो जैसे कह सक्ता है, परन्‍तु चित्त पर असर हुए बिना चित्त नहीं बदलता और सत्‍संग बिना चित्त पर असर नहीं होता जब तक अपनें चित्त मैं अपनी हालत सुधारनें की अभिलाषा न हो औरों के उपदेश सै क्‍या लाभ हो सक्ता है ? मदनमोहन का पिता मदनमोहन को धमका कर उस्‍के चित्तका असर देखनें के लिये कुछ दिन चुप हो जाता था परन्तु मदनमोहन के मन दुखनें के बिचार सै आप प्रबन्ध न करता था और इस देरदार का असर उल्‍टा होना था। हरकिशोर, शिंभूदयाल, चुन्‍नीलाल, वगैरे मदनमोहन की बाल्‍यावस्‍था को इसी झमेले मैं निकाला चाहते थे क्‍योंकि एक तो इस अवकाश मैं उन लोगों के संग का असर मदनमोहन के चित्त पर दृढ़ होता जाता था दूसरे मदनमोहन की अवस्‍था के संग उस्‍की स्‍वतन्त्रता बढ़ती जाती थी इसलिये मदनमोहन के सुधरनें का यह रस्‍ता न था। मदनमोहन के बिचार प्रतिदिन दृढ़ होते जाते थे परन्‍तु वह अपनें पिता के भय सै उन्‍हैं प्रगट न करता था। खुलासा यह है कि मदनमोहन के पितानें अपनी प्रीति अथवा मदनमोहन की प्रसन्‍नता के बिचार सै मदनमोहन के बचपन मैं अपनें रक्षक भाव पर अच्‍छी तरह बरताव नहीं किया अथवा यों कहो कि अपना कुछरती हक़ छोड़ दिया इस‍लिये इन्‍के स्‍वभाव मैं अन्‍तर पड़नें का मुख्‍य ये ही कारण हुआ।


ब्रजकिशोर ठेठ सै मदनमोहन के विरुद्ध समझा जाता था। ब्रजकिशोर को वह लोग कपटी, चुगलखोर, द्वेषी और अभिमानी बताते थे। उन्‍के निकट मदनमोहन के पिता का मन बिगाड़नें वाला वह था। चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल उस्‍की सावधानी सै डर कर मदनमोहन का मन उस्‍की तरफ़ सै बिगाड़ते रहते थे और मदनमोहन भी उस्‍पर पिता की कृपा देख कर भीतर सै जल्‍ता था। हरकिशोर जैसे मुंह फट तो कुछ, कुछ भरमा भरमी उस्‍को सुना भी दिया करते थे परन्‍तु वह उचित जवाब देकर चुप हो जाता था। और अपनी निर्दोष चाल के भरोसे निश्चिन्‍त रहता था। हां उस्‍को इन्‍की चाल अच्‍छी नहीं लगती थी और इन्‍के मन का पाप भी मालूम था इसलिये वह इन्‍सै अलग रहता था इन्‍का बृतान्‍त जान्‍नें सै जान बूझकर बेपरवाई करता था उस्‍नें मदनमोहन के पिता सै इस विषय मैं बात -चीत करना बिल्‍कुल बन्‍द कर दिया था मदनमोहन के पिता का परलोक हुए पीछै निस्‍सन्‍देह उस्‍को मदनमोहन के सुधारनें की चटपटी लगी। उस्‍नें मदनमोहन को राह पर लानें के लिये समझानें मैं कोई बात बाकी नहीं छोड़ी परन्‍तु उस्‍का सब श्रम व्‍यर्थ गया उस्‍के समझानें सै कुछ काम न निकला।


अब आज हरकिशोर और ब्रजकिशोर दोनों इज्‍जत खोकर मदनमोहन के पास सै दूर हुए हैं। इन्‍मैं सै आगे चलकर देखैं कोन् कैसा बरताव करता है ?


प्रकरण-25 : साहसी पुरुष


सानु ब न्‍ध कारज करे सब अनुबन्‍ध निहार


करै न साहस, बुद्धि बल पंडित करै बि चार[28]


विदुरप्रजागरे।


हम प्रथम लिख चुके हैं कि हरकिशोर साहसी पुरुष था और दूर के सम्बन्ध मैं ब्रजकिशोर का भाई लगता था। अब तक उस्के काम उस्की इच्छानुसार हुए जाते थे वह सब कामों मैं बड़ा उद्योगी और दृढ़ दिखाई देता था। उस्का मन बढ़ता जाता था और व‍ह लड़ाई झगड़े वगैरे के भयंकर और साहसिक कामों मैं बड़ी कारगुजारी दिखलाया करता था। वह हरेक काम के अंग प्रत्यंग पर दृष्टि डालनें या सोच बिचार के कामों मैं माथा खाली करनें और परिणाम सोचनें या कागजी और हिसाबी मामलों मैं मन लगनें के बदले ऊपर, ऊपर सै इन्को देख भाल कर केवल बड़े, बड़े कामों मैं अपनें तांई लगाये रखनें और बड़े आदमियों सैं प्रतिष्ठा पानें की विशेष रुचि रखता था। उस्नें हरेक अमीर के हां अपनी आवा-जाई कर ली थी और वह सबसै मेल रखता था। उस्के स्वभाव मैं जल्दी होनें के कारण वह निर्मूल बातों पर सहसा बिश्वास कर लेता था और झट पट उन्का उपाय करनें लगता था। उस्के बिना बिचारे कामों सै जिस्तरह बिना विचारा नुक्सान हो जाता था इसी तरह बिना बिचारे फ़ायदे भी इतनें हो जाते थे जो बिचार कर करनें सै किस प्रकार सम्भव न थे। जब तक उस्के काम अच्छी तरह सम्पन्न हुए जाते थे, उस्को प्रति दिन अपनी उन्नति दिखाई देती थी, सब लोग उसकी बात मान्ते थे। उस्का मन बढ़ता जाता था और वो अपना काम सम्पन्न करनें के लिये अधिक, अधिक परिश्रम करता था। परन्तु जहां किसी बात मैं उस्का मन रुका उसकी इच्छानुसार काम न हुआ। किसीनें उस्‍की बात दुलख दी अथवा उस्‍को शाबासी न मिली वहां वह तत्‍काल आग हो जाता था। हरेक काम को बुरी निगाह सै देखनें लगता था। उस्‍की कारगुजारी मैं फर्क आ जाता था और वह नुकसान सै खुश होनें लगता था इसलिये उस्‍की मित्रता भय सै खाली न थी।


कोई साहसी पुरुष स्‍वार्थ छोड़ कर संसार के हितकारी कामों मैं प्रबृत्त हो तो कोलम्‍बसकी तरह बहुत उपयोगी हो सक्ता है और अब तक संसार की बहुत कुछ उन्‍नति ऐसे ही लोगों सै हुई है इस लिये साहसी पुरुष परित्‍याग करनें के लायक नहीं हैं परन्‍तु युक्ति सै काम लेनें के लायक हैं हां ! ऐसे मनुष्‍यों सै काम लेनें मैं उन्‍का मन बराबर बढ़ाते जांय तो आगै चल कर काबू सै बाहर हो जानें का भय रहता है इसलिये कोई बुद्धिमान तो उन्‍का मन ऐसी रीति सै घटाते-बढ़ाते रहते हैं कि उन्‍का मन बिगड़नें पावै न हद्दसै आगै बढ़नें पावै कोई अनुभवी मध्‍यम प्रकृति के मनुष्‍य को बीच मैं रखते हैं कि वह उन्‍को वाजबी राह बताते रहैं। परन्‍तु लाला मदनमोहन के यहां ऐसा कुछ प्रबन्‍ध न था। दूसरे उस्‍के बिचार मूजिब मदनमोहननें अपनें झूंटे अभिमान सै भलाई के बदले जान-बूझकर उस्‍की इज्‍जत ली थी इस्‍कारण हरकिशोर इस्‍समय क्रोध के आवेश मैं लाल हो रहा था और बदला लेनें के लिये उस्‍के मनमैं तरंगैं उठतीं थीं उस्नें मदनमोहन के मकान सै निकलते ही अपनें जी का गुबार निकालना आरंभ किया।


पहलै उस्‍को निहालचंद मोदी मिला। उस्नें पूछा "आज कितनें की बिक्री की ?"


"खरीदारी की तो यहां कुछ हद ही नहीं है परन्‍तु माल बेच कर दाम किस्‍सै लें ? जिस्‍को बहुत नफे का लालच हो वह भले ही बेचे मुझको तो अपनी रकम डबोनी मंजूर नहीं" हरकिशोरनें जवाब दिया।


"हैं ! यह क्‍या कहते हो ? लाला साहब की रकम मैं कुछ धोका है ?"


"धोके का हाल थोड़े दिन मैं खुल जायगा मेरे जान तो होना था वह हो चुका।"


"तुम यह बात क्‍या समझ कर कहते हो ?" मोदीनें घबरा कर पूछा "कम सै कम लाख, पचास हजार का तो शीशा बर्तन इस्‍समय इन्‍के मकान मैं होगा।"


"समय पर शीशे बर्तन को कोई नहीं पूछता। उस्‍की लागत मैं रुपे के दो आनें नहीं उठते। इन्‍हीं चीजों की खरीदारी मैं तो सब दौलत जाती रही। मैंनें निश्‍चय सुना है कि इन चीजों की कीमत बाबत पचास हजार रुपे तो ब्राइट साहबके देनें हैं और कल एक अंग्रेज दस हजार रुपे मागनें आया था न जानें उस्‍के लेनें थे कि कर्ज मांगता था परन्‍तु लाला साहब नें किसी सै उधार मांग कर देनें का करार किया है ? फ़िर जहां उधार के भरोसे सब काम भुगतनें लगा वहां बाकी क्‍या रहा ? मैंनें अपनी रकम के लिये अभी बहुत तकाजा किया पर वे फूटी कौड़ी नहीं देते इसलिये मैं तो अपनें रुपों की नालिश अभी दायर करता हूं तुम्‍हारी तुम जानों"


यह बात सुन्‍ते ही मोदी के होश उड़ गये। वह बोला "मेरे भी पांच हजार लेनें हैं मैंनें कई बार तगादा किया पर कुछ सुनाई न हुई मैं अभी जाकर अपनी रकम मांगता हूं जो सूधी तरह देदेंगे तो ठीक है नहीं तो मैं भी नालिश कर दूंगा। ब्योहार मैं मुलाहिजा क्‍या ?"


इस्‍तरह बतला कर दोनों अपनें, अपनें रस्‍ते लगै। आगै चल कर हरकिशोर को मिस्‍टर ब्राइट का मुन्‍शी मिला। वह अपनें घर भोजन करनें जाता था उसै देखकर हरकिशोर अपनें आप कहनें लगा "मुझै क्‍या है ? मेरे तो थोड़ेसे रुपे हैं मैं तो अभी नालिश करके पटा लूंगा। मुश्किल तो पचास, पचास हजार वालों की है देखैं वह क्‍या करते हैं ?"


"लाला हरकिशोर किस्‍पर नालिश की तैयारी कर रहे हैं ?" मुन्‍शी नें पूछा।


"कुछ नहीं साहब ! मैं आप सै कुछ नहीं कहता। मैं तो बिचारे मदनमोहन का बिचार कर रहा हूँ। हां ! उस्‍की सब दौलत थोड़े दिन में लुट गई अब उस्‍के काम मैं हलचल हो रही है, लोग नालिश करनें को तैयार हैं। मैंनें भी कम्‍बख्‍ती के मारे हजार दो एक का कपड़ा दे दिया था इसलिये मैं भी अपनें रुपे पटानें की राह सोच रहा हूँ। बिचारा मदनमोहन कैसा सीधा आदमी था ?"


"क्‍या सचमुच उस्‍पर तकाजा हो गया ? उस्‍पर तो हमारे साहब के भी पचास हजार रुपये लेनें हैं। आज सबेरे तो लाला मदनमोहन की तरफ़ सै बड़े काचों की एक जोड़ी खरीदनें के लिये मास्‍टर शिंभूदयाल हमारे साहब के पास गए थे फ़िर इतनी देर मैं क्‍या हो गया ? तुमनें यह बात किस्‍सै सुनी ?"


"मैं आप वहां सै आता हूँ। कल सै गड़बड़ हो रही है कल एक साहब दस हजार रुपे मांगनें आए थे। इस्‍पर मदनमोहननें स्‍पष्‍ट कह दिया कि मेरे पास कुछ नहीं हैं मैं कहीं सै उधार लेकर दो एक दिन मैं आपका बंदोबस्‍त कर दूंगा। मैंनें अपनें रुपे के लिये बहुत ताकीद की पर मुझको भी कोरा जवाब ही मिला। अब मैं नालिश करनें जाता हूँ और निहालचंद मोदी अभी पांच हजार के लिये पेट पकड़े गया है वह कहता था कि मेरे रुपे इस्समय न देंगे तो मैं भी अभी नालिश कर दूंगा जिस्‍की नालिश पहलै होगी उस्‍को पूरे रुपे मिलैंगे।"


"तो मैं भी जाकर साहब सै यह हाल कह दूं तुम्‍हारी रकम तो खेरीज है परन्‍तु साहब का कर्जा बहुत बड़ा है। जो साहब की इस रकम मैं कुछ धोका हुआ तो साहब का काम चलना कठिन हो जायगा।" ये कहक़र मिस्‍टर ब्राइट का मुन्‍शी घर जानें के बदले साहब के पास दौड़ गया।


लाला हरकिशोर आगे बढ़े तो मार्ग मैं लाला मदनमोहन की पचपनसो की खरीद के तीन घोड़े लिये हुए आगाहसनजान लाला मदनमोहन के मकान की तरफ़ जाता मिला। उस्‍को देखकर हरकिशोर कहनें लगे "ये ही घोड़े लाला मदनमोहन नें कल खरीदे थे। माल तो बड़े फ़ायदे सै बिका पर दाम पट जायं तब जानिये।"


"दामों की क्‍या है ? हमारा हजारों रुपे का काम पहलै पड़ चुका है" आगाहसनजान नें जवाब दिया और मन मैं कहा "हमारी रकम तो अपनें लालच सै चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल घर बैठे पहुँचा जायंगे"


"वह दिन गए। आज लाला मदनमोहन का काम डिगमिगा रहा है। उस्‍के ऊपर लोगों का तगादा जारी है जो तुम किसी के भरोसे रहोगे तो धोका खाऔगे जो काम करो : अच्‍छी तरह सोच समझकर करना।"


"कल शाम को तो लाला साहब नें हमारे यहां आकर ये घोड़े पसंद किये थे फ़िर इतनी देर मैं क्‍या होगया ?"


"जब तेल चुक जाता है तो दिये बुझनें मैं क्‍या देर लगती है ? चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल सब तेल चाट गए। ऐसे चूहों की घात लगे पीछै भला क्‍या बाकी रह सक्‍ता था ?"


"मैं जान्‍ता हूँ कि लाला साहब का बहुतसा रुपया लोग खागए परन्तु उन्‍के काम बिगड़नें की बात मेरे मन मैं अबतक नहीं बैठती। तुमनें यह हाल किस्से सुना है ?"


"मैं आप वहां सै आया हूँ। मुझको झूंट बोलनें सै क्‍या फायदा है ? मैं तो अभी जाकर नालिश करता हूँ। निहालचंद मोदी नालिश करनें को तैयार है ? ब्राइट साहब का मुन्‍शी अभी सब हकीकत निश्‍चय करके साहब के पास दौड़ा गया है। तुमको भरोसा न हो, निस्सन्देह न मानो। तुम न मानोगे इस्‍सै मेरी क्‍या हानि होगी" यह कहक़र हरकिशोर वहां सै चल दिया।"


पर अब मदनमोहन की तरफ़ सै आगाहसनजान को धैर्य न रहा। असल रुपे का लालच उस्‍को पीछे हटाता था और नफै का लालच आगे बढ़ाता था। पहले रुपे के बिचार से तबियत और भी घबराई जाती थी निदान यह राह ठैरी कि इस्‍समय घोड़ों को फेर ले चलो। मदनमोहन का काम बना रहैगा तो पहले रुपे वसूल हुए पीछे ये घोड़े पहुंचा देंगे, नहीं तो कुछ काम नहीं।"


इधर हरकिशोर को मार्गमैं जो मिल्ता था उस्‍सै वह मदनमोहन के दिवाले का हाल बराबर कहता चला जाता था और यह सब बातैं बाजार मैं होती थीं इसलिये एक सै कहनें मैं पांच और सुन लेते थे और उन पांच के मुख से पचासों को यह हाल तत्‍काल मालूम हो जाता था फ़िर पचास से पांच सौ मैं और पांच सौ से पांच हजार मैं फैलते क्‍या देर लगती थी ? और अधिक आश्‍चर्य की बात यह थी कि हरेक आदमी अपनी तरफ़ से भी कुछ, न कुछ नोंन मिर्च लगा ही देता था। जिस्‍को एक के कहनें से भरोसा न आया दो के कहनें से आगया। दो कहनेंसे न आया चार के कहनें से आगया मदनमोहन के चाल चलन से अनुभवी मनुष्‍य तो यह परिणाम पहले ही से समझ रहे थे जिस्‍पर मास्‍टर शिंभूदयाल नें मदनमोहन की तरफ़ से एक दो जगह उधार लेनें की बात चीत की थी इसलिये इस चर्चा मैं किसी को संदेह न रहा। बारूद बिछ रही थी बत्ती दिखाते ही तत्‍काल भभक उठी।


परन्‍तु लाला मदनमोहन या ब्रजकिशोर वगैरे को अबतक इस्‍का कुछ हाल मालूम न था।


प्रकरण-26 : दिवाला


कीजै समझ, न कीजिए बिना बि चार व्‍यवहार।।


आय रहत जानत नहीं ? सिरको पायन भार ।।


बृन्‍द।


लाला मदनमोहन प्रात:काल उठते ही कुतब जानें की तैयारी कर रहे थे। साथ जानेंवाले अपनें, अपनें कपड़े लेकर आते जाते थे, इतनें मैं निहालचंद मोदी कई तकाजगीरों को साथ लेकर आ पहुँचा।


इस्‍नें हरकिशोर से मदनमोहन के दिवाले का हाल सुना था। उसी समय से इस्को तलामली लग रही थी। कल कई बार यह मदनमोहन के मकान पर आया, किसी नें इस्‍को मदनमोहन के पास तक न जानें दिया और न इस्‍के आनें इत्तला की। संध्‍या समय मदनमोहन के सवार होनें के भरोसे वह दरवाजे पर बैठा रहा परन्‍तु मदनमोहन सवार न हुए इस्‍से इस्‍का संदेह और भी दृढ़ होगया। शहर मैं तरह-तरह की हजारों बातें सुनाई देती थी इस्‍से वह आज सवेरे ही कई लेनदारों को साथ लेकर एकदम मदनमोहन के मकान मैं घुस आया और पहुंचते ही कहनें लगा "साहब ! अपना हिसाब करके जितनें रुपे हमारे बाकी निकलें हमको इसी समय दे दीजिये। हमें आप का लेन-देन रखना मंजूर नहीं है। कल सै हम कई बार यहां आए परन्‍तु पहरे वालों नें आप के पास तक नहीं पहुँचनें दिया।"


"हमारा रुपया खर्च करके हमारे तकाजे से बचनें के लिये यह तो अच्‍छी युक्ति निकाली !" एक दूसरे लेनदार नें कहा "परन्‍तु इस्‍तरह रकम नहीं पच सक्‍ती। नालिश करके दमभर मैं रुपया धरा लिया जायगा।"


"बाहर पहरे चौकी का बंदोबस्‍त करके भीतर आप अस्‍बाब बांध रहे हैं !" तीसरे मनुष्‍य नें कहा "जो दो, चार घड़ी हम लोग और न आते तो दरवाजे पर पहरा ही पहरा रह जाता लाला साहब का पता भी न लगता।"


"इस्‍मैं क्‍या संदेह है ? कल रात ही को लाला साहब अपनें बाल बच्‍चों को तो मेरठ भेज चुके हैं" चोथे नें कहा "इन्‍सालवन्‍सी के सहारे से लोगों को जमा मारनें का इन दिनों बहुत होसला होगया है"


"क्‍या इस जमानें मैं रुपया पैदा करनें का लोगों नें यही ढंग समझ रक्‍खा है" एक और मनुष्‍य कहनें लगा "पहले अपनी साहूकारी, मातबरी, और रसाई दिखाकर लोगों के चित्त मैं बिश्‍वास बैठाना, अन्‍त मैं उन्की रकम मारकर एक किनारे हो बैठना"


"मेरी तो जन्‍म भर की कमाई यही है। मैंनें समझा था कि थोड़ीसी उमर बाकी रही है सो इस्मैं आराम सै कट जायगी परन्‍तु अब क्‍या करूं ?" एक बुड्ढा आंखों मैं आंसू भरकर कहनें लगा "न मेरी उमर मेहनत करनें की है न मुझको किसी का सहारा दिखाई देता है जो तुम से मेरी रकम न पटेगी तो मेरा कहां पता लगेगा ?"


"हमारे तो पांच हजार रुपे लेनें हैं परन्‍तु लाओ इस्‍समय हम चार हजार मैं फैसला करते हैं" एक लेनदार नें कहा।


"औरों की जमा मारकर सुख भेगनें मैं क्‍या आनन्‍द आता होगा ?" एक और मनुष्‍य बोल उठा।


इतनें में और बहुतसे लोगों की भीड़ आगई। वह चारों तरफ़ मदनमोहन को घेरकर अपनी, अपनी कहनें लगे। मदनमोहन की ऐसी दशा क़भी काहे को हुई थी ? उस्‍के होश उड़ गए। चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल वगैरे लोगों को धैर्य देनें की कोशिश करते थे परन्‍तु उन्‍को कोई बोलनें ही नहीं देता था। जब कुछ देर खूब गड़बड़ हो चुकी लोगों का जोश कुछ नरम हुआ तब चुन्‍नीलाल पूछनें लगा "आज क्‍या है ? सब के सब एका एक ऐसी तेजी मैं कैसे आ गए ? ऐसी गड़बड़ सै कुछ भी लाभ न होगा। जो कुछ कहना हो धीरे सै समझा कर कहो"


"हम को और कुछ नहीं कहना हम तो अपनी रकम चाहते हैं" निहालचंद नें जवाब दिया।


"हमारी रकम हमारे पल्‍ले डालो फ़िर हम कुछ गड़बड़ न करेंगे" दूसरे नें कहा।


"तुम पहले अपनें लेनें का चिट्ठा बनाओ। अपनी, अपनी दस्‍तावेज दिखाओ, हिसाब करो, उस्‍समय तुम्‍हारा रुपया तत्‍काल चुका दिया जायगा" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें जवाब दिया।


"यह लो हमारे पास तो यह रुक्‍का है" हमारा हिसाब यह रहा" "इस रसीद को देखिये" हमनें तो अभी रकम भुगताई है" यह तरह पर चारों तरफ़ सै लोग कहनें लगे।


"देखो जी ! तुम बहुत हल्‍ला करोगे तो अभी पकड़ कर कोतवाली मैं भेज दिए जाओगे और तुम पर हतक इज़्जत की नालिश की जायगी नहीं तो जो कुछ कहना हो धीरज से कहो" मास्‍टर शिंभूदयाल नें अवसर पाकर दबानें की तजवीज की।


"हमको लड़नें झगड़नें की ज़रूरत है ? हम तो केवल जवाब चाहते हैं। जवाब मिले पीछे आप सै पहले हम नालिश कर देंगे" निहालचंद नें सबकी तरफ़ सै कहा।


"तुम बृथा घबराते हो। हमारा सब माल मता तुम्हारे साम्हनें मौजूद है। हमारे घर मैं घाटा नहीं है ब्याज समेत सबको कौड़ी, कौड़ी चुका दी जायगी" लाला मदनमोहन नें कहा।


"कोरी बातों से जी नहीं भरता" निहालचंद कहनें लगा "आप अपना बही खाता दिखादें, क्‍या लेना है ? क्या देना है ? कितना माल मौजूद है ? जो अच्‍छी तरह हमारा मन भर जायगा तो हम नालिश नहीं करेंगे"


"कागज तो इस्‍समय तैयार नहीं है" लाला मदनमोहन नें लजा कर कहा।


"तो खातरी कैसे हो ? ऐसी अँधेरी कोठरी मैं कौन रहै ? (ब्रंद) जो पहल करिये जतन तो पीछे फल होय । आग लगे खोदे कुआ कैसे पावे तोय ।। इस काठ कबाड़ के तो समय पर रुपे मैं दो आनें भी नहीं उठते" एक लेनदार नें कहा।


"ऐसे ही अनसमझ आदमी जल्‍दी करके बेसबब दूसरों का काम बिगाड़ दिया करते हैं" मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे।


इतनें मैं हरकिशोर अदालत के एक चपरासी को लेकर मदनमोहन के घर पर आ पहुँचे और चपरासी नें सम्‍मन पर मदनमोहन सै कायदे मूजिब इत्तला लिखा ली। उस्‍को गए थोड़ी देर न बीतनें पाई थी कि आगाहसनजान के वकील की नोटिस आ पहुँची। उस्‍मैं लिखा था कि "आगाहसनजान की तरफ़ सै मुझको आपके जतानें के लिये यह फ़र्मायश हुई है कि आप उस्‍के पहले की ख़रीद के घोड़ों की कीमत का रुपया तत्‍काल चुका दैं और कल की खरीद के तीन घोड़ों की कीमत चौबीस घन्टे के भीतर भेजकर अपनें घोड़े मंगवालें जो इस मयाद के भीतर कुल रुपया न चुका दिया जायगा तो ये घोड़े नीलाम कर दिये जायंगे और इन्‍की क़ीमत मैं जो कमी रहैगी पहले की बाकी समेत नालिश करके आप सै वसूल की जायगी"


थोड़ी देर पीछे मिस्‍टर ब्राइट का सम्‍मन और कच्‍ची कुरकी एक साथ आ पहुँची इस्‍सै लोगों के घरबराहट की कुछ हद न रही। घर मैं मामला हल होनें की आशा जाती रही। सबको अपनी, अपनी रक़म ग़लत मालूम होनें लगी और सब नालिश करनें के लिये कचहरी को दौड़ गए।


"यह क्‍या है ? किस दुष्ट की दुष्‍टता सै हम पर यह ग़जब का गोला एक साथ आ पड़ा ?" लाला मदनमोहन आंखों मैं आंसू भर कर बड़ी कठिनाई से इतनी बात कह सके।


"क्‍या कहूँ ? कोई बात समझ मैं नहीं आती" मुन्‍शी चुन्‍नीलाल कहनें लगे "कल लाला ब्रजकिशोर यहां से ऐसे बिगड़ कर गए थे कि मेरे मन मैं उसी समय खटका हो गया था शायद उन्‍हीं नें यह बखेड़ा उठाया हो। बाजे आदमियों को अपनी बात का ऐसा पक्ष होता कि वह औरों की तो क्‍या ? अपनी बरबादी का भी कुछ बिचार नहीं करते। परमेश्‍वर ऐसे हठीलों से बचाय। हरकिशोर का ऐसा होसला नहीं मालूम होता और वह कुछ बखेड़ा करता तो उस्‍का असर कल मालूम होना चा‍हिये था अब तक क्‍यों न हुआ ?"


प्र‍थम तो निहालचंद कल से अपनें मन मैं घबराट होनें का हाल आप कह चुका था, दूसरे हरकिशोर की तरफ़ से नालिश दायर होकर सम्‍मन आगया, तीसरे चुन्‍नीलाल ब्रजकिशोर के स्‍वभाव को अच्‍छी तरह जान्‍ता था इस्लिये उस्‍के मन मैं ब्रजकिशोर की तरफ़ से जरा भी संदेह न था परन्‍तु वह हरकिशोर की अपेक्षा ब्रजकिशोर से अधिक डरता था इसलिये उस्‍नें ब्रजकिशोर ही को अपराधी ठैरानें का बिचार किया। अफ़सोस ! जो दुराचारी अपनें किसी तरह के स्‍वार्थ से निर्दोष और धर्मात्‍मा मनुष्‍यों पर झूंटा दोष लगाते हैं अथवा अपना कसूर उन्‍पर बरसाते हैं उन्‍के बराबर पापी संसार मैं और कौन होगा ?


लाला मदनमोहन के मन मैं चुन्‍नीलाल के कहनें का पूरा विश्‍वास होगया। उस्‍नें कहा "मैं अपनें मित्रों को रुपे की सहायता के लिये चिट्ठी लिखता हूँ। मुझको विश्‍वास है कि उन्‍की तरफ़ से पूरी सहायता मिलेगी परन्‍तु सबसे पहले ब्रजकिशोर के नाम चिट्ठी लिखूंगा कि वह मुझको अपना काला मुंह जन्‍म भर न दिखलाय" यह कह कर लाला मदनमोहन चिट्ठियां लिखनें लगे।


प्रकरण-27 : लोक चर्चा (अफ़वाह)


निन्‍दा, चुगली, झूंठ अरु पर दुखदायक बात ।


जे न कर हिं तिन पर द्रवहिं स र्बे श्‍वर बहुभांत ।।[1]


विष्‍णुपुराणों।


उस तरफ़ लाला ब्रजकिशोर नें प्रात:काल उठ कर नित्‍य नियम से निश्चिन्‍त होते ही मुन्‍शी हीरालाल को बुलानें के लिये आदमी भेजा।


हीरालाल मुन्‍शी चुन्‍नीलाल का भाई है। यह पहले बंदोबस्‍त के महक़मे मैं नौकर था। जब से वह काम पूरा हुआ इस्‍की नौकरी कहीं नहीं लगी थी।


"तुमनें इतनें दिन से आकर सूरत तक नहीं दिखाई। घर बैठे क्‍या किया करते हो ?" हीरालाल के आते ही ब्रजकिशोर कहनें लगे "दफ्तर मैं जाते थे जब तक खैर अवकाश ही न था परन्‍तु अब क्यों नहीं आते ?"


"हुज़ूर ! मैं तो हरवक्त हाजिर हूँ परन्तु बेकाम आनें मैं शर्म आती थी। आज आपनें याद किया तो हाजिर हुआ। फरमाइये क्या हुक्म है ?" हीरालाल नें कहा।


"तुम ख़ाली बैठे हो इस्‍की मुझे बड़ी चिन्‍ता है। तुम्‍हारे बिचार सुधरे हुए हैं इस्‍सै तुमको पुरानें हक़ का कुछ ख़याल हो या न हो (!) परन्‍तु मैं तो नहीं भूल सक्‍ता। तुम्‍हारा भाई जवानी की तरंग में आकर नौकरी छोड़ गया परन्‍तु मैं तो तुम्हैं नहीं छोड़ सक्ता। मेरे यहां इन दिनों एक मुहर्रिर की चाह थी। सब से पहले मुझको तुम्‍‍हारी याद आई। (मुस्‍करा कर) तुम्‍हारे भाई को दस रुपे महीना मिल्‍ता था परन्‍तु तुम उस्सै बड़े हो इसलिये तुम को उस्से दूनी तनख्‍वाह मिलेगी"


"जी हां ! फ़िर आप को चिन्‍ता न होगी तो और किस्‍को होगी ? आपके सिवाय हमारा सहायक कौन है ? चुन्‍नीलाल नें निस्सन्देह मूर्खता की परन्‍तु फ़िर भी तो जो कुछ हुआ आप ही के प्रताप ही से हुआ।"


"नहीं मुझको चुन्‍नीलाल की मूर्खता का कुछ बिचार नहीं है मैं तो यही चाहता हूँ कि वह जहां रहै प्रसन्‍न रहै। हां मेरी उपदेश की कोई, कोई बात उस्को बुरी लगती होगी। परन्‍तु मैं क्‍या करूं ? जो अपना होता है उस्‍का दर्द आता ही है।"


"इस्मैं क्‍या संदेह है ? जो आपको हमारा दर्द न होता तो आप इस समय मुझको घर सै बुलाकर क्या इतनी कृपा करते ? आपका उपकार मान्‍नें के लिये मुझ को कोई शब्‍द नहीं मिल्‍ते। परन्तु मुझको चुन्‍नीलाल की समझ पर बड़ा अफसोस आता है कि उस्‍नें आप जैसे प्रतिपालक के छोड़ जानें की ढिठाई की। अब वह अपनें किये का फल पावेगा तब उस्की आंखें खुलेंगी।"


"मैं उस्‍के किसी-किसी काम को निस्‍सन्‍देह नापसन्‍द करता हूँ परन्‍तु यह सर्बथा नहीं चाहता कि उस्‍को किसी तरह का दु:ख हो।"


"यह आपकी दयालुता है परन्‍तु कार्य कारण के सम्‍बन्‍ध को आप कैसे रोक सक्‍ते हैं ? आज लाला मदनमोहन पर तकाज़ा हो गया। जो ये लोग आपका उपदेश मान्‍ते तो ऐसा क्‍यों होता ?"


"हाय ! हाय ! तुम यह क्‍या कहते हो ? मदनमोहन पर तकाज़ा होगया ! तुमनें यह बात किस्‍सै सुनी ? मैं चाहता हूँ कि परमेश्‍वर करे यह बात झूंट निकले" लाला ब्रजकिशोर इतनी बात कह कर दु:ख सागर मैं डूब गये। उन्‍के शरीर मैं बिजली का सा एक झटका लगा, आंसू भर आए, हाथ पांव शिथिल हो गये। मदनमोहन के आचरण से बड़े दु:ख के साथ वह यह परिणाम पहले ही समझ रहे थे इसलिये उन्‍को उस्‍का जितना दु:ख होना चाहिए पहले होचुका था। तथापि उन्‍को ऐसी जल्‍दी इस दुखदाई ख़बर के सुन्‍नें की सर्बथा आशा न थी इस लिये यह ख़बर सुन्‍ते ही उन्‍का जी एक साथ उमड़ आया परन्‍तु वह थेड़ी देर में अपनें चित्त का समाधान करके कहनें लगे :-


"हा ! कल क्‍या था ! आज क्‍या हो गया ! ! ! श्रृंगाररसका सुहावनां समां एका एक करुणा से बदल गया ! बेलजिअम की राजधानी ब्रसेलस पर नैपोलियन नें चढ़ाई की थी उस्‍समय की दुर्दशा इस्‍समय याद आती है, लार्डबायरन लिखता है:-


"निशि मैं बरसेलस गाजि रह्यो ।।


बल, रूप बढ़ाय बिराजि रह्यो


अति रूपवती युवती दरसैं ।।


बलवान सुजान जवान लसैं


सब के मुख दीपनसों दमकैं ।।


सब के हिय आनन्‍द सों धमकैं


बहुभांति बिनोद प्रमोद करैं ।।


मधुर सुर गाय उमंग भरैं


जब रागन की मृदु तान उड़ैं ।।


प्रियप्रीतम नैनन सैन जुडै


चहुँओर सुखी सुख छायरह्यो ।।


जनु ब्‍यहान घंट निनाद भयो


पर मौनगहो ! अबिलोक इतै ।।


यह होत भयानक शब्‍द कितै ?


डरपौ जिन चंचल बायु बहै ।।


अथवा रथ दौरत आवत है


प्रिय ! नाचहु, नाचहु ना ठहरो ।।


अपनें सुख की अवधी न करो


जब जोबन और उमंग मिलैं ।।


सुख लुटन को दुहु दोर चलै


तब नींद कहूँ निशआवत है ? ।।


कुछ औरहु बात सुहावत है ?


पर कान लगा; अब फेर सुनो ।।


वह शब्‍द भयानक है दुगुनो !


घनघोरघटा गरजी अब ही ।।


तिहँ गूंज मनो दुहराय रही


यह तोप दनादन आवत हैं ।।


ढिंग आवत भूमि कँपावत हैं


"सब शस्‍त्रसजो, सबशस्‍त्रसजो" ।।


घबराहट बढ़ो सुख दूर भजो


दुखसों बिलपै कलपैं सबही ।।


तिनकी करूणा नहिं जाय कही


निज कोमलता सुनि लाज गए ।।


सुकपोल ततक्षण पीत भए


दुखपाय कराहि बियोग लहैं ।।


जनु प्राण बियोग शरीर सहैं


किहिं भाति करों अनुमान यहू ।।


प्रिय प्रीतम नैन मिलैं कबहू ?


जब वा सुख चैनहि रात गई ।।


इहिं भांत भयंकर प्रात भई !!!"[2]


हां यह खबर तुमनें किस्सै सुनी ?"


"चुन्‍नीलाल अभी घर भोजन करनें आया था वह, कहता था"


"वह अबतक घर हो तो उसे एक बार मेरे पास भेज देना। हम लोग खुशी प्रसन्‍नता मैं चाहें जितनें लड़ते झगड़ते रहें परन्‍तु दु:ख दर्द सब मैं एक हैं। तुम चुन्‍नीलाल सै कह देना कि मेरे पास आनेंमैं कुछ संकोच न करे मैं उस्‍सै जरा भी अप्रसन्‍न नहीं हूँ"


"राम, राम ! यह हजूर क्‍य