घायल बारातियों के साथ नव-वधू कल्याणी को लेकर जयकृष्ण घर आए। दो दिन पहले कल्याणी के सौभाग्य पर बहुतों को ईर्ष्या हुई थी। आज घर-घर में उसके दुर्भाग्य की चर्चा थी। उसका मुँह देखता तो दूर, सौभाग्यवती स्त्रियाँ उसकी छाया से भी डरती थीं। वे सोचतीं, यह स्त्री कितनी अभागी है कि इसके परिवार में तो कोई था ही नहीं, विवाह का कंगन भी न छूट पाया था और वैधव्य मुँह बाए निगल जाने को खड़ा हो गया। वर्ना क्या उसी दिन, उसी ट्रेन में रेल दुर्घटना होनी थी? कुछ भी हो, घर-घर बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों में यही चर्चा थी कि यह अपने सत्यानाशी पैरों से जिस घर जाएगी, उसी घर में कोई दीया जलाने वाला न रह जाएगा।
धीरे-धीरे यह बात जयकृष्ण की पत्नी मालती ने भी सुनी। पति और संतान के लिए हिंदू नारी क्या नहीं कर लेती। उसके कल्याण के लिए अपना तन-मन सभी कुछ निछावर कर सकती है-प्रसन्नता से। और जिस बात में उनके किंचित् मात्र भी अहित की शंका होती है, वह काम हिंदू-नारी कभी कर ही नहीं सकती। मालती का जी अंदर-ही-अंदर घबरा उठा। वह क्या करे? उसे तो अभागिन कल्याणी पर भी दया आती थी। किंतु जिस दिन जयकृष्ण का जरा सिर दुःखता था, बच्ची उपमा जरा भी अनमनी हो जाती, उस दिन ऐसा जान पड़ता जैसे कल्याणो का दुर्भाग्य मुँह खोले उसे निगलने को दौड़ा आ रहा है।
पर उपमा को यह अपनी चाची कल्याणी बहुत अच्छी लगती थी। कल्याणी के आने के बाद उपमा सदा उसी के पास रहती-खेलती, उसी के हाथ से नहाती और दूध पीती। रात में सो जाने के वाद ही मालती उसे ले जा सकती थी। वह बालिका जागते में अपनी चाची को छोड़ना ही न चाहती थी।
मालती को यह बात पसंद नहीं थी। वह नहीं चाहती थी कि उपमा उससे इतनी हिल-मिल जाए। दबी जबान में उसने कई बार पति से कहा, कल्याणी को कहीं भेज दो; किसी की जवान विधवा आज छै-छै महीने से अपने घर में है, लोग क्या कहते होंगे? और जयकृष्ण सदा हँसी में टाल देते, तुम क्यों घबराती हो? कहने वाले मुझे ही तो कहेंगे। विधवा जवान हो या बूढ़ी? तुम्हें तो कोई कुछ भी न कहेगा । किंतु जिस बात से मालती सबसे अधिक डरती थी, वह बात जयकृष्ण से कभी न कह सकी । वह कैसे कहे कि वह भी इन बूढ़ियों की बात पर विश्वास करती है। उसे रात-दिन अपने पति और बच्ची के अमंगल की आशंका बनी रहती।
धीरे-धीरे सात महीने बीत गए और जयकृष्ण कुछ भी निश्चय न कर सके कि वे कल्याणी के लिए क्या करें। एक दिन नगर के किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के, मर जाने से ऑफिस बंद हो गया और वे समय से बहुत पहले घर आ गए। नीचे कोई न था। ऊपर उपमा की आवाज आ रही थी। सोचा वे लोग ऊपर होंगे। ऊपर गए। सीढ़ियों पर चढ़ते ही देखा, कल्याणी नहाकर बाल सुखा रही है। खूब लंबे, घने काले केशों के बीच गोरा-गोरा मुँह बिलकुल चाँद-सा लग रहा था। बड़ी-बड़ी आँखों में एक विशेष प्रकार का आकर्षण था। ऐसा सौंदर्य तो जयकृष्ण ने कभी देखा ही न था। अंग-प्रत्यंग से यौवन जैसे फूटा-सा पड़ता था। क्षण भर निहारने का लोभ जयकृष्ण संवरण न कर सके। और तभी कल्याणी की नजर जयकृष्ण पर पड़ी। उसने सिर ढँक लिया। लज्जा की लाली उसके चेहरे पर दौड़ गई। उसका सौंदर्य दूना हो गया।
इधर जयकृष्ण का अधीर मन बेकाबू हो चला। वे अब सीढ़ियों से ऊपर जाकर कुरसी पर बैठ गए। कल्याणी से बोले, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है कल्याणी।
कल्याणी मरी जा रही थी। वह नहीं चाहती थी कि जयकृष्ण उससे ऐसे समय में कोई भी बात करें, जब मालती घर में नहीं है। बात चाहे कुछ भी न हो, पर मालती को संदेह जरूर होगा, यह कल्याणी जानती थी। वह इसलिए चुप थी। पर जयकृष्ण फिर बोले, उनकी आवाज भारी और स्वर कांप रहा था, कल्याणी! मृत्यु के समय राधारमण तुम्हें मेरे हाथों सौंप गए हैं। मेरा कर्तव्य तुम्हें सुखी बनाना है। किंतु सुख का मार्ग तुम्हें ही निश्चित करना होगा।
कल्याणी ने आँखें उठाकर जयकृष्ण की तरफ देखा, किंतु देख न सकी। उनकी आँखों में उसने कुछ देखा, उसे अच्छी तरह न जान सकी कि क्या था। किंतु उस दृष्टि में कुछ था, जिससे कल्याणी सिहर उठी। एक प्रकार की बिजली-सी उसके सारे शरीर में दौड़ गई। यह उसका पहला अनुभव था।
कल्याणी ने कहा, आप जो ठीक समझें, करें, मैं कुछ नहीं जानती। अच्छा होता कि आप बहन जी के आने पर मुझसे बातें करते। वे सुशीला बहिन जी के घर गई हैं।
-अच्छा, उनके आने पर ही मैं बात करूँगा कल्याणी, कहते हुए जयकृष्ण बाहर चले गए।
मालती को यह बात मालूम होगी, या स्वयं कल्याणी कह देगी। किंतु अगर आते ही उपमा ने कह दिया कि बाबू चाची के पास ऊपर बैठे थे तो तुरंत तूफान खड़ा हो जाएगा। इसलिए कल्याणी उसे कहानी कहकर बहलाने लगी। कल्याणी को लेकर कभी घर में तूफान खड़ा हो जाता, तब उसका जी चाहता था कि धरती फटे और वह समा जाए। वह नहीं चाहती थी कि वह उनके सुखमय जीवन में विषाद का कारण बने। इसलिए सबसे छिपी-छिपी रहती थी। वह यही चाहती थी कि किसी को उसके अस्तित्व का पता न लगे। अभागिन नारी! जिसे परमात्मा ने सौंदर्य देते समय इतनी उदारता दिखलाई थी, उसके भाग्य में सुख का एक क्षण भी न लिखा धा।
सुशीला के यहाँ मालती को बहुत-सी बातें सुनने को मिलीं। सुशीला की सास ने यहाँ तक कहा, दुलहिन! तुम्हें तो अभी अच्छा लगता होगा, सहेली मिल गई है, पर वह कुलच्छनी है! तुम्हारा घर भी चौपट कर देगी! उस छूत को निकाल... बाहर करो।
मालती निश्चय करके लौटी थी कि आज वह जयकृष्ण से जरूर कहेगी कि अब वह कल्याणी को अपने घर में न रख सकेगी। बहुत दिन रह चुकी । लौटते ही उसने देखा कि जयकृष्ण कमरे में लेटे अख़बार पढ़ रहे हैं। उसने अंदर आकर घंटी की बटन दबा दी। उपमा सो गई थी। कल्याणी नीचे आई। मालती ने उसे चाय तैयार करने को कहा। सोचा चाय पीने के बाद कहूँगी, किंतु रहा न गया। दफ्तर पहुँची। जयकृष्ण ने अख़वार रख दिया, पत्नी का वे बहुत आदर करते थे। मालती पास जाकर बैठ गई, बोली, “मैं अभी सुशीला के घर गई थी। सब लोग इस बात से बहुत असंतुष्ट हैं कि हम लोग कल्याणी को अपने घर में रखे हुए हैं वे लोग कहते हैं कि उसे कहीं और भेज देना चाहिए ।
जयकृष्ण की भृकूटी टेढ़ी हो गई। उन्होंने कहा, तो जाकर उसे हाथ पकड़कर निकाल दो। उनके स्वर में रूख़ापन था। उन्होंने करवट बदल ली। मालती चुपचाप चली गई। उसने सोचा, जान पड़ता है कि यह जीवन भर के लिए यहाँ आई है।
कल्याणी चाय तैयार करके, चाय की मेज पर सजाकर, ऊपर चली गई। चाय पीते-पीते जयकृष्ण ने पत्नी से कहा, जिसे ईश्वर ने ही कष्ट देने में कोई कसर नहीं की, उसे हम और क्या कष्ट दें? मरते समय राधारमण उसे मेरे हाथों सौंप गए हैं। कुछ दिन और बीत जाने दो। एक साल के बाद वह जो चाहेगी वही कर देंगे। पढ़ना चाहती है तो वहाँ भेज दूँगा। चाहेगी तो उसका पुनर्विवाह भी कर सकते हैं। पर वह मुझे या तुम्हारी बच्ची को नहीं खा सकती। बेफिक्र रहो। लोग कहते हैं, बकने दो, दुनिया में हर किसी को प्रसन्न रखने की कोशिश करने वाला किसी को भी प्रसन्न नहीं रख सकता।
मालती बोली, मैं यह नहीं कहती कि उसे आज ही कहीं भेज दो। पर पंद्रह दिन बाद मुझे माँ के घर जाना पड़ेगा। मेरी भतीजी का व्याह है। कल्याणी यहाँ अकेली रहेगी?
जयकृष्ण बोले, अकेली क्यों रहेगी, उसे भी साथ ले जाना!
मालती ने उत्तर दिया, साथ कैसे ले जाऊँगी? सगुन-साइत के दिन लड़की पर इसकी छाया पड़ी तो? लोग तो बड़ी-बूढ़ी विधवा की छाया से भी हल्दी-चढ़ी लड़की को बचाते हैं! फिर जान न पहिचान, ऐसी स्त्री को जबरदस्ती उनका मेहमान क्यों बनाऊँ? उन्हें अच्छा न लगे तो?
जयकृष्ण खीझकर बोले, तो फिर कल्याणी यहीं रहेगी। बुधिया की माँ को दिनभर रहने को कह देना। उसे कुछ और पैसे दे दिए जाएँगे।
न चाहते हुए भी आखिर एक दिन कल्याणी को घर में अकेली छोड़कर, मालती को जाना पड़ा। जाते समय बुधिया की माँ को उसने अच्छी तरह समझा दिया कि बाबू जी को खाना वही परोसेगी | कल्याणी से भी कह दिया था, वह बाबू जी से जैसा परदा करती है, वैसे ही करती रहे, और बुधिया की मां रात-दिन यहीं रहे। मालती चली गई।
अब जयकृष्ण प्रायः देर से जाते और जल्दी लौट आते। कभी-कभी वे दफ्तर जाते ही नहीं, यह बात ध्यान देकर कल्याणी ने देखी। बुधिया की माँ, जो चौकीदारी पर नियुक्त थी, वह कुछ समझ न सकी। पहले ही दिन खाना परोसने गईं थी। जयकृष्ण की एक डाँट लगते ही लौटकर बोली, बहू, तुम्हीं परोसो, मुझसे न बनेगा। बाबू जी खुंसात हैं।
कल्याणी को खाना परोसकर खिलाना ही पड़ा | यही तो जयकृष्ण चाहते थे। खाना खाते-खाते जयकृष्ण बोले, कल्याणी! तुमने अपने भविष्य के विषय में क्या निश्चित किया है? कुछ कहोगी?
कल्याणी संकोच के साथ बोली, मैं क्या निश्चय करने लायक हूँ? मुझे दुनिया का अनुभव ही क्या है। गाँव में विधवा मौसी के साथ रहती थी। एक दिन वहीं सुना कि मेरा विवाह होने वाला है। किससे होने वाला है, नहीं जानती थी फिर आप लोग ब्याहने आए और जो कुछ हुआ सब आपके सामने है। तब से आपके ही आश्रय में हूँ। आपको छोड़कर आपके इस घर को छोड़कर कहीं कोई मेरा अपना नहीं है। सुना है, विधवा मौसी भी अब इस संसार में नहीं है। फिर मैं क्या निश्चय करूँ, आप ही कहिए।
जयकृष्ण बोले, शादी होना न होना दोनों बराबर हैं। पति की तुमने अच्छी तरह शायद शक्ल भी न देखी होगी। पुनर्विवाह करना चाहोगी?
कल्याणी बोली, पुनर्विवाह? विवाह से सुख मिलने वाला होता तो मेरे पति उसी दिन रेल से कटकर न मर जाते-कहकर ठंडी साँस ली।
जयकृष्ण ने कहा, तुम्हारा यह ख्याल गलत है, कल्याणी! जो कुछ होना होता है, होकर ही रहता है। इसमें न तुम्हारा दोष है, न तुम्हारे भाग्य का। मेरा तो विश्वास है कि जिस ईश्वर ने तुम्हें इतना रूप दिया है, वह सुख भी देगा। हाँ, मार्ग तुम्हें स्वयं निश्चित करना है। तुम चाहो तो मैं तुम्हें पढ़ने के लिए किसी पाठशाला में भेज दूँ।
कल्याणी को हँसी आ गई। बोली, अब मैं बूढ़ी होने जा रही हूँ। छोटी-छोटी लड़कियों के साथ बैठकर कैसे पढूँगी? और पढ़ना आएगा भी मुझे? मैं तो निरी मूर्ख हूँ।
यह हँसी न थी, बिजली कौंध गई थी। जयकृष्ण ने कल्याणी को आज तक कभी हँसते न देखा था। वे सिर से पैर तक सिहर उठे। बहुत संभलकर बोले, कोशिश करने से सब कुछ आता है कल्याणी, फिर भी तुम खूब सोच-विचारकर मुझसे शाम को अपना निश्चय कहना।
शाम को भोजन के बाद, रात को बहुत देर तक कल्याणी और जयकृष्ण बातें करते रहे। पहरे पर नियुक्त बुढ़िया पड़ी हुई खर्राटे भर रही थी।
कल्याणी ने कहा, पति को मैं प्रेम न कर सकी क्योंकि संयोग और वियोग में केवल दो ही दिन का तो अंतर था। हाँ, दयाभाव से ही प्रेरित होकर उन्होंने मेरा पाणिग्रहण किया था, इसलिए उन पर मेरी अपार श्रद्धा पहले से ही थी। वह अब भी है। किंतु प्रेम से तो मेरा प्रथम परिचय उसी दिन हुआ, जिस दिन आप सीढ़ियों पर चुपचाप खड़े थे। आप विश्वास मानिए कि आपको मैं जितने श्रद्धाभाव से देखती हैँ, उतना ही आपसे प्रेम भी करने लगी हूँ। फिर भी आपके साथ मेरा पुनर्विवाह असंभव है।
'क्यों कल्याणी, तुम्हें आपत्ति क्या है?” भर्राई हुई आवाज में जयकृष्ण ने पूछा और कल्याणी के हाथ अपने हाथ में ले लिए।
कल्याणी ने तुरंत अपना हाथ छुड़ा लिया और संदिग्ध दृष्टि से जयकृष्ण की ओर देखा । जयकृष्ण को अपनी भूल मालूम हो गई। दोनों कानों में हाथ लगाकर बोले, 'भूल स्वीकार करता हूँ, अब कभी न होगी। फिर कुछ रुककर कहा, “कल्याणी, तुम मुझसे कभी न डरना। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध मैं तुम्हें कभी न छूऊँगा। पर यह बताओ कि जब पुनर्विवाह करने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है, और तुम मुझे प्रेम भी करती हो, तब तुम्हारा पुनर्विवाह मेरे साथ क्यों असंभव है?”
“असंभव इसलिए है कि आप विवाहित हैं” कल्याणी ने निश्चय के स्वर में कहा।
जयकृष्ण ने कहा, 'पर हिंदू शास्त्र के अनुसार एक पुरुष कई विवाह कर सकता है, फिर तुम वह सौभाग्य मुझे ही क्यों नहीं दान करती जो किसी दूसरे को मिलने वाला है।”
'छिः छिः.' कल्याणी बोली, 'आप क्या समझते हैं कि मैं किसी और से विवाह करूँगी? यह कभी न होगा। मैंने एक बार जिससे प्रेम किया, उसी से प्रेम करती हुई मिट जाऊँगी। हिंदू नारी प्रेम करना जानती है। वह प्रेम का प्रतिदान नहीं चाहती! मैंने प्रेम किया, करती रहूँगी। यह बात दूसरी है कि प्रेम की प्रतिमा तक मेरी पहुँच न हो सकेगी। और यह तो अपना-अपना भाग्य है' कहती हुई, एक दीर्घ निःश्वास के साथ कल्याणी ने जयकृष्ण की ओर देखा।
जयकृष्ण ने कहा, कल्याणी! तुम अपना-ही-अपना देखोगी या मेरा कुछ ख़याल करोगी। मैं पागल हो जाऊँगा। तुम्हारे बिना अब तो मुझसे एक पल भी नहीं काटा जाता। किंतु फिर भी तुम निश्चिंत रहना। मैं तुम्हें कभी हाथ न लगाऊँगा, जब तक तुम्हारी आज्ञा न होगी। आधी रात को भी तुम मेरे पास उतनी ही सुरक्षित रह सकती हो, जैसे सगे भाई के पास, क्योंकि मैं अधम नहीं हूँ। तुमसे प्रेम करता हूँ। तुम्हें पाने का इच्छुक हूँ, पर सत्य मार्ग से, कुमार्ग से नहीं।
कल्याणी वोली, न में अपना कुछ देखती हूँ न आपका। सच यह है कि मैं मालती जीजी के सौभाग्व पर कुठाराघात न कर सकूँगी। उन्होंने मुझे कुसमय में आश्रय दिया है। जो कुछ बन सकेगा, भला करूँगी। उनकी बुराई मुझसे न हो सकेगी। उनके भले के लिए मुझे अपना बलिदान भी करना पड़े तो सहर्ष कर दूँगी। मगर उनकी जिंदगी में काँटा बनकर न रहूँगी।
पर मेरा जीवन कंटकमय बना दोगी, कहते जयकृष्ण ने ठंडी साँस ली और सतृष्ण नेत्रों से कल्याणी की ओर देखा।
कल्याणी ने कहा, यह सब मानसिक विकार है, कुछ दिनों में अपने आप दूर हो जाएगा। आप समझते हैं मुझे कम कष्ट हो रहा है। मैं नारी होकर भी सब कुछ सहने को तैयार हूँ। आप तो पुरुष हैं। कठिनाइयों से लड़ने के लिए ही आपका जीवन है। मैंने मालती जीजी को पत्र लिख दिया है। वे आती ही होंगी। उनके आते ही मैं आपसे विदा ले लूंगी। विदा से पहले एक भिक्षा माँगती हूँ, केवल आपके चरणों की धूलि, और मैं कुछ नहीं चाहती। आप मेरे देवता हैं!
जयकृष्ण के पैरों के नीचे से जैसे धरती खिसक गई हो, घबराकर बोले, तुमने मालती को पत्र कब लिखा और क्या लिखा? लिखने से पहले मुझसे पूछा क्यों नहीं?
कल्याणी बोली, मैंने और कुछ नहीं लिखा, यही लिखा है कि उपमा के बिना बहुत बुरा लगता है। तुम जल्द-से-जल्द चली आओ। और लिखती भी क्या? किंतु आपके साथ मेरा अकेला रहना उचित नहीं। हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। न जाने किस दिन क्या हो जाए और मैं नहीं चाहती कि हमारे बीच में कोई भी ऐसी बात हो जिसे कलंक का स्वरूप दिया जा सके।
'जो कुछ तुमने किया, ठीक ही किया कल्याणी! सो जाओ, रात बहुत हो चुकी है और उठते हुए कल्याणी ने झुककर जयकृष्ण के पैरों को माथे से लगा लिया । जयकृष्ण बहुत उद्विग्न थे। कल्याणी ने ऊपर जाकर दरवाजे बंद कर लिए। जयकृष्ण खाट पर पड़े करवटें बदलते रहे। उन्हें नींद न आई।
दूसरे ही दिन मालती दोपहर की ट्रेन से आ पहुँची। दफ्तर से लौटते ही जयकृष्ण ने देखा, उपमा खेल रही है। रात-भर सो न सकने के कारण उनका चेहरा उतरा हुआ था। मालती ने देखते ही पूछा, क्या तबीयत खराब थी, क्या हुआ?
जयकृष्ण ने कहा, कुछ नहीं, सिर में बहुत दर्द है!
अज्ञात आशंका से मालती सिहर उठी, कल्याणी तो अभी है न इस घर में? उसने पूछा, तुम तो अपनी बात के आगे किसी की भी नहीं सुनते। कितनी बार कहा, उसे कहीं भेज दो पर जब तुम मानो तब न । इस तरह तुम्हारे सिर में दर्द-वर्द होता है, तो मैं घबरा जाती हूँ। सभी लोग कहते हैं वह अभागिन है।
जयकृष्ण को दूसरा ही भय था। वे यही सोच रहे थे कि कौन जाने कल्याणी है भी कि नहीं। उसने कहा था कि मालती के आते ही वह विदा ले लेगी। विदा का अवसर कहीं आ तो नहीं गया। जयकृष्ण का हृदय धड़क रहा था। उन्होंने कहा, मैंने कल्याणी को एक पुत्रीशाला में पढ़ने के लिए भेजने का निश्चय किया है! यह बात उसे भी मंजूर होगी। जरा उसे बुलाओ तो।
मालती को इस बात से बड़ी शांति मिली। कल्याणी यहाँ से चली भर जाए। कहीं भी जाए इसकी उसे चिंता न थी। उसने घंटी बजाई। पर कोई ऊपर से न आया। तब उपमा को बुलाकर कहा, जा ऊपर से अपनी चाची को बुला ला।
उपमा ने कहा, चाची ऊपर नहीं है।
घबराकर मालती ने ऊपर-नीचे सभी कमरे खोज डाले, कल्याणी का पता नहीं लगा। जयकृष्ण पागल की तरह दौड़कर ऊपर गए। कल्याणी के बिस्तर पर उसके गहनों की पेटी रखी थी, उसके नीचे एक पत्र लिखा था-
'जाती हूँ। अपनी उपस्थिति से आप लोगों को जो कष्ट दिया, या मुझसे जो अपराध हुए, उनके लिए क्षमा कीजिएगा। मेरी खोज न कीजिएगा, व्यर्थ होगी। मेरे ये गहने उपमा के लिए हैं।'
-अभागिन कल्याणी
(यह कहानी ‘सीधे-साधे चित्र’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1947 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का तीसरा और अंतिम कहानी संग्रह है।)
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