Wednesday, September 14, 2022

कहानी | रानी रासमणि | आचार्य चतुरसेन शास्त्री | Kahani | Rani Raasmani | Acharya Chatursen Shastri


 
(जिसकी चरण-रज ने ब्राह्मणों के ललाट को भी पावन किया, उसी 'शूद्रा' रानी रासमणि की पनीत और रोमांचक गाथा।


सन् 1857 की बात है। उन दिनों कलकत्ता के दक्षिण अंचल में जानबाज़ार की एक बस्ती थी। जानबाज़ार में महारानी रासमणि दासी रहती थीं। रानी रासमणि बड़ी धनी और धर्मात्मा प्रसिद्ध थीं। उनकी दानशीलता की बड़ी धूम थी। उनके श्वसुर वारेन हेस्टिग्स के दाहिने हाथ थे। राजा नन्दकुमार को फांसी दिलाने में उनका बड़ा हाथ था। वारेन हेस्टिग्स की कृपा से उन्होंने बहुत धन-सम्पत्ति एकत्र कर ली थी तथा उन्हें महाराज का खिताब भी मिल गया था। उनकी मृत्यु पर उनके पुत्र महाराज रामचन्द्र बसु ने कम्पनी सरकार की अथक सेवा करके बहुत सम्पत्ति एकत्र की थी। उनकी मृत्यु को भी अब चार साल बीत चुके थे। इस समय रानी रासमणि दासी ही पति की सम्पूर्ण सम्पत्ति की अधिकारिणी थीं। इस समय उनकी अवस्था चालीस बरस की थी। उनकी संतति में चार कन्याएं थीं। तीन कन्याओं का विवाह हो चुका था, किन्तु तीसरी बेटी का प्रसव वेदना में देहान्त हो गया था, रानी ने सोचा कि अब उनके एकमात्र आधार दामाद मथुरानाथ कदाचित् उनसे नाता तोड़कर अपने घर को चले जाएं, इसलिए उन्होंने अपनी कनिष्ठा कन्या जगदम्बा का विवाह उनके साथ कर दिया था।


रानी जाति की केवट थीं। अंग्रेजों की कृपा से बहुत केवट, ग्वाले, वाग्दी आदि उन दिनों राजाबहादुर और महाराज हो गए थे। परन्तु बंगाल में ब्राह्मणों का श्रेष्ठत्व और जात-पांत का अहंकार अभी भी बहुत था। रानी रासमणि को देवी का इष्ट था। उनकी ज़मींदारी के कागज़ों पर उनकी जो मुहर लगाई जाती थी, उसमें-'कालीपद अभिलाषी श्रीमती रासमणि दासी' अंकित रहता था। रानी की बड़ी अभिलाषा थी कि वह काशी जाकर श्री विश्वनाथ को दर्शन करें। इसके लिए उन्होंने भारी रकम पृथक् रख छोड़ी थी। परन्तु उस समय बंगाल का कोई निष्ठावान ब्राह्मण उनके साथ जाकर उन्हें विश्वनाथजी के दर्शन कराने को राजी नहीं हुआ। इससे हताश होकर उन्होंने कलकत्ताही में गंगा तट पर विश्वनाथ बाबा की प्रतिष्ठा करके भोग-पूजा के बन्दोबस्त करने का इरादा किया। रानी ने गंगा के पश्चिम तट को वाराणसी तुल्य समझ मन्दिर के लिए जमीन की तलाश की और उत्तरपाड़ा के गांवों में स्थान ढूंढ़वाया। वे उचित से अधिक मूल्य भी देने को राजी हो गईं। परन्तु वहां के ज़मींदारों ने यह कहकर जमीन बेचने से इन्कार कर दिया कि हम लोग अपने इलाके में केवट के धनसे बने घाट पर पैर नहीं रखेंगे। तब लाचार हो रानी को दूसरे किनारे पर दक्षिणेश्वर में ही ज़मीन लेनी पड़ी। जमीन पर भव्य मन्दिर बनने लगा, बगीचा भी लगने लगा। कई साल तक काम चला। अभी वहुत काम शेष था कि रानी ने अपने जीवन की क्षणभंगुरता पर विचार करके प्रथम देवता की प्रतिष्ठा करने का निश्चय किया। परन्तु वे जाति की केवट थीं, इसलिए प्रतिष्ठा और पूजा के लिए कोई ब्राह्मण नहीं मिला। रानी मन्दिर में देवता की प्रतिष्ठा करा सकती हैं, इसकी किसी भी पण्डित ने व्यवस्था नहीं की। बड़ी दौड़-धूप और मिन्नत-चिरौरी करने से झामापुकुर की पाठशाला के पण्डितजी ने यह व्यवस्था दी कि रानी यदि प्रतिष्ठा से पहले ही देवालय और सम्पत्ति किसी ब्राह्मण को दान में दे, दें, फिर वह ब्राह्मण मन्दिर की प्रतिष्ठा कराके भोग-राग की व्यवस्था करे तो शास्त्र की मर्यादा भी रह जाएगी और मन्दिर में ब्राह्मण आदि उच्चवर्ण के लोगों को प्रसाद ग्रहण करने में कुछ दोष भी न लगेगा।


निरुपाय रानी ने अपने कुलगुरु को वह मन्दिर और सम्पत्ति दान कर दी, और उनकी अनुमति से उनकी कर्मचारी की हैसियत से मन्दिर-निर्माण तथा प्रतिष्ठा का प्रबन्ध करने लगी। परन्तु इतने पर भी बंगाल के पण्डितों का विरोध कम न हुआ। उन्होंने कहा-शास्त्र-विरुद्धता की कठिनाई तो दूर हो गई, परन्तु फिर भी कोई ब्राह्मण यहां न आएगा। निदान कोई ब्राह्मण शूद्र द्वारा प्रतिष्ठित देवी-देवता को हाथ जोड़ने तथा पूजा करने को राजी नहीं हुआ। रानी के गुरुवंशों को भी दूसरे ब्राह्मण एक प्रकार से शूद्र ही मानते थे। इसके अतिरिक्त उस वंश में कोई ऐसा विद्वान ब्राह्मण न था जो प्रतिष्ठा और पूजा का कार्य सम्पन्न करा सके। रानी ने अधिक वेतन और बहुत-सा पारितोषिक देना स्वीकार करके पुजारी और भण्डारी के पद के लिए ब्राह्मण की तलाश की। परन्तु कोई कुलीन ब्राह्मण राज़ी न हुआ। बड़ी कठिनाई से अपनी पदवृद्धि की प्राशा से रानी की कचहरी के कारकुन महेशचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने बड़े भाई क्षेत्रनाथ को राधागोविन्द की मूर्ति का पुजारी नियत किया, किन्तु काली की पूजा करने के लिए पुजारी नहीं मिला। परन्तु अब ब्राह्मणों की भर्ती का मार्ग खुल गया था। झामापुकुर की पाठशाला के अध्यापक रामकुमार भट्टाचार्य महेशचन्द्र के परिचित थे, उनमें परस्पर कुछ गांव का रिश्ता भी था। भट्टाचार्य शाक्त थे, और उन्होंने कभी-कभी चोरी-छिपे कलकत्ता के कायस्थों के यहां पुजारी का काम किया भी था। परन्तु भरोसा न था कि वह शूद्रारानी के यहां आकर भी काम स्वीकार कर लेंगे। फिर भी महेशचन्द्र के कहने से रानी ने बड़ी दीनता से रामकुमार के पास, पत्र द्वारा प्रार्थना की कि-जगन्माता की प्रतिष्ठा का कार्य आपकी ही दी हुई व्यवस्था के अनुसार हो रहा है, सारी तैयारी हो चुकी है। राधागोविन्द की पूजा के लिए पुजारी मिल चुका है परन्तु काली की पूजा के लिए ब्राह्मण नहीं मिल रहा है। इसलिए आप इस कार्य में सहायता करें।


महेशचन्द्र ने रानी का पत्र रामकुमार को देकर और समझा-बुझाकर तथा लोभ-लालच से वश करके अन्त में उन्हें इस बात पर राजी कर लिया कि जब तक दूसरा उपयुक्त ब्राह्मण न मिले, तब तक काली के पुजारी-पद का भार वे ही ग्रहण करें। अन्ततः राज़ी होकर वे दक्षिणेश्वर चले आए। रामकुमार भट्टाचार्य की असम्भावित कृपा से रानी को बड़ी प्रसन्नता हुई और फिर बड़ी धूम-धाम से जगदम्बा काली की प्रतिष्ठा की गई। बड़े भारी दान, भोज का आयोजन हुआ। कन्नौज, काशी, सिलहट, उड़ीसा आदि दूर-दूर से पण्डित लोग उस उत्सव में निमन्त्रित हुए। उन सबको रेशमी धोती, दुपट्टा और एक-एक मोहर बिदाई में मिली। अनगिनत अतिथि-अभ्यागत और दीन-दुखी जनों को रानी ने मुक्तहस्त दान दिया। मन्दिर बनवाने और प्रतिष्ठा कराने में रानी ने ६ लाख रुपया खर्च किया और दो लाख छब्बीस हज़ार में त्रैलोक्यनाथ ठाकुर से उनका दीनाजपुर जिले का इलाका खरीदकर राग-भोग के लिए मन्दिर को दे दिया।


मन्दिर की प्रतिष्ठा होने से प्रथम ही रानी विधि से कठोर तपस्या करने लग गई थीं। वे तीन वार स्नान करतीं, हविष्य भोजन करती, भूमि पर सोतीं, और हर समय जप-पूजन करती रहती थीं। परन्तु कैसी अद्भुत बात थी कि इस धर्मभीरु, चरित्रवती रानी का शूद्रत्व तनिक भी कम न होता था। शूद्रा थीं, अछूत थीं। उनके प्रतिष्ठित देवता भी ब्राह्मणों के लिए अस्पृश्य थे। उन दिनों बंगाल में छुआछूत और जात-पात का ऐसा ही असाध्य रोग चल रहा था।


दक्षिणेश्वर के बगीचे में उत्तर की ओर गंगा-किनारे एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ है। इसका तना और प्रशाखाएं कोई बीघे-भर भूमि में फैली हुई हैं। बीचबीच में जो बरोहैं लटककर जमीन में पा लगी हैं वे उसके लिए थूनी का काम देती हैं। इसके दक्षिण में एक छोटी-सी फूस की कुटिया थी, अब उसकी जगह पक्का ईंटों का घर बन गया है। उसी कुटिया के आगे एक ब्राह्मण चुपचाप कहीं सें आकर बैठ गया था। तेजस्वी और गम्भीर था, वह न किसी से कुछ बोलता था, न किसी ओर देखता था। वह शान्त मुद्रा में चुपचाप बैठा मन्दिर की प्रतिष्ठा के समारोह की धूमधाम देख रहा था। हजारों नर-नारियों की भीड़ उस समय मन्दिर में भरी थी। ब्रह्मभोज हो रहा था। भांति-भांति के पकवान ढेर के ढेर तैयार होते और भण्डार से बाहर आते जा रहे थे। बड़े-बड़े चोटीवाले ब्राह्मण भोजन करके पेट पर हाथ फेरते और मुहर दक्षिणा में लेते जा रहे थे। परन्तु यह ब्राह्मण चुपचाप सबको देख रहा था। उसने यहां भोजन भी ग्रहण नहीं किया था।


एक और बारह बरस का बालक उस दिन बड़ी दौड़-धूप कर रहा था। उसका निवास इसी कुटिया में था। वह बारम्बार.वहां पाता और तेजी से चला जाता। उस बालक की प्राकृति और रूप-रंग तो साधारण था, पर उसके व्यवहार में बड़ा आकर्षण था। जब-जब वह बालक उधर से गुज़रता या कुटिया में माताजाता तो यह ब्राह्मण बड़े ध्यान से उसको देखता, पर बालक इतना व्यस्त था और उसकी चेतना कुछ ऐसी तल्लीन थी कि उसका इस बात पर ध्यान ही नहीं गया कि कोई आगन्तुक यहां बैठा है। ब्राह्मण ने भी उसे टोका नहीं। पर वह बड़े ध्यान से उसे देख रहा था।


दोपहर ढल गई और अतिथियों की भीड़-भाड़ छंट गई। बालक की व्यस्तता कुछ कम हुई तो कुटी की ओर पाते हुए उसका ध्यान इस ब्राह्मण पर गया। बालक ने ब्राह्मण के पास आकर कहा:


'आप कौन हैं?'


'एक अभ्यागत अतिथि।


'क्या आप ब्राह्मण हैं?'


'जन्म तो ब्राह्मण के घर ही हुआ था, पर उसका मुझे अभिमान नहीं है।'


'भोजन हुआ?'


'न।'


'क्यों? सब ब्राह्मण तो भोजन कर गए।'


'तो इससे मुझे क्या?'


'आप भी भोजन कीजिए, दक्षिणा लीजिए, रानी मोहर दक्षिणा दे रही हैं।'


'मैं भिक्षुक ब्राह्मण नहीं हूं। भोजन और दक्षिणा के लिए यहां नहीं आया।'


'तो किसलिए आए हैं?'


'दर्शन करने के लिए।


'तो चलिए-देवदर्शन कीजिए।'


'मैं देवीदर्शन करने आया हूं।'


'उधर कालीमाई का दर्शन है। चलकर उन्हींके दर्शन कीजिए।'


'काली मां के दर्शन की मुझे उत्सुकता नहीं है। मैं बड़ी मां के दर्शन करना चाहता हूं।'


'बड़ी मां कौन?'


"जिनके पुण्य-प्रताप का यह सुफल दीख रहा रहा है। जिनके हृदय की उदारता, पवित्रता, सौजन्य तथा साधुता का सौरभ इस भूमि में व्याप्त हो रहा है। मैं उन्हीं धर्मात्मा रानी माता के दर्शन करना चाहता हूं।'


'रानी मां पूजा में हैं। तीन दिन से वे निराहार हैं। जब तक सब ब्राह्मण भोजन नहीं कर लेंगे वे जल भी ग्रहण नहीं करेंगी। अतः अभी उनका दर्शन नहीं हो सकता।


'तो जब हो सकता है, तभी सही।'


'क्या आप उनसे कुछ मांगना चाहते हैं?'


'मैं उन्हें कुछ भेंट अर्पण किया चाहता हूं।'


'कैसी भेंट?'


'यह उन्हींको बताई जा सकती है।'


'अच्छी बात है, मैं अवसर पाते ही उनसे कहूंगा। किन्तु आप भोजन तो कीजिए।'


'उनके दर्शन के बाद भोजन भी हो जाएगा।' बालक जाने लगा तो ब्राह्मण ने पूछा-तुम्हारा नाम क्या है भैया?


'मैं रामकृष्ण हूं। और यहां दक्षिणेश्वर में राधामाधव के शृंगार करने के कार्य पर नियुक्त हूं।'


'तुम्हारे भीतर तो भैया कोई महान आत्मा बास कर रही है। क्या तुमने भोजन किया?'


'नहीं,' कहकर बालक तेज़ी से भाग गया।


सूर्यास्त से कुछ पहले ही वह बालक रानी रासमणि को लेकर ब्राह्मण के पीस आया। रानी ने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण को प्रणाम किया। पर इससे प्रथम ही ब्राह्मण ने धरती में लोटकर रानी को साष्टांग प्रणाम किया।


रानी ने दोनों कानों पर हाथ धरकर कहा:


'यह आपने क्या किया देवता? मैं शूद्रा हूं, अस्पृश्या हूं। आपने मुझे प्रणाम किया, मुझपर पातक चढ़ाया।'


'पाप दिव्यरूपा हैं, सर्व मनुष्यों में श्रेष्ठ और पूज्या हैं। आपके दर्शन से मनुष्य की मुक्ति हो सकती है। मैं प्रातःकाल ही से आपके दर्शन करने की अभिलाषा से यहां बैठा हूं।'


'आपने भोजन नहीं किया?'


'नहीं।' '


तो भोजन कीजिए।'


'आप अपने हाथ से रांधकर भात दें तो भोजन कर सकता हूं।'


'किन्तु यह कैसे हो सकता है?


मैं जाति की केवट हूं।'


'तो इससे क्या? मैं ब्राह्मण हूं। परन्तु जो आत्मा मेरे अन्तर में वास करती है वही आपके अन्तर में भी है। भेद इतना ही है कि आप धर्मात्मा और पवित्र हैं, और मैं अधम हं।'


'शिव! शिव!! यह आप कैसी बात कहते हैं? आप ब्राह्मण हैं!'


'ब्राह्मण तो सदा सत्य बोलता है। मैंने भी सत्य कहा है। मैंने आपके सम्बन्ध में सब बातें सुनीं। ब्राह्मणों ने आपका कितना तिरस्कार किया, यह भी सुना। जाति-अभिमान में ये मूढ़ अच्छे-बुरे और धर्माधर्म का विचार भी खो बैठे हैं। फिरंगी लोग इनके सिर पर पैर रखकर जो शासन चला रहे हैं वहां इन ब्राह्मणों की चाल नहीं चलती। उन्हें माई-बाप बनाते इनको लज्जा नहीं आती। जिस दिन नैष्ठिक ब्राह्मण नन्दकुमार को कलकत्ता में फांसी दी गई, तब ये ब्राह्मण और इनके शास्त्र कहां चले गए थे? इन्होंने शाप देकर अंग्रेजों को क्यों नहीं भस्म कर दिया? ये ढोंगी, पाखण्डी, मूर्ख, घमण्डी ब्राह्मण एक धर्मात्मा रानी का ही नहींदेवता का भी तिरस्कार करने में नहीं शर्माये। आप जाति से शूद्र हैं, इसलिए आपके द्वारा प्रतिष्ठित देवता का पूजन-नमन भी ये नहीं करेंगे? मैं चाहता हूं कि इन सब ब्राह्मणों को गोली से उड़ा दूं, और हिन्दू-धर्म को इनकी दासता से मुक्त करा दूं।'


रानी ने हाथ जोड़कर कहा-आप तेजस्वी ब्राह्मण हैं। जो चाहे कहें पर मैं, स्त्री हूं, शूद्र हूं, असहाय हूं, मैं कुछ नहीं कह सकती। मैं तो यही समझती हैं कि मेरा पुण्य सफल हो गया। देवता की प्रतिष्ठा हो गई, और मेरा धन सत्कर्म में लग गया। अब मैं प्रसन्न हूं।


'आप शरीर से ही शूद्रा नहीं हैं, आपका मन भी इन ब्राह्मणों की दासता में फंसा है। आप आत्म-सम्मान खो चुकी हैं। नहीं तो इतना अपमान करनेवाले इन ब्राह्मणों का तो आपको मुंह भी न देखना चाहिए था।'


'ऐसा मत कहिए। ब्राह्मण पृथ्वी का स्वामी हैं। वह भूसुर हैं।'


'पर वह ब्राह्मण हो भी तो? जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में करके वासना से मुक्ति पा ली हो, और जो सब बन्धनों से मुक्त वीतराग-शान्त महात्मा होवही तो ब्राह्मण है। ये दक्षिणा के लोभ में निमन्त्रण खानेवाले पेटू ब्राह्मण के रूप में बैल हैं।'


'आप समर्थ हैं जो चाहे कहिए, परन्तु कृपाकर भोजन कर लीजिए। आप भोजन कर लें तो मैं भी ठाकुर का चरणामृत लूं।'


'कह तो चुका, अपने हाथों से भात रांधकर देंगी तो ही भोजन करूंगा, नहीं तो नहीं।'


'मैं ब्राह्मण को अपने हाथ का भात कैसे खिला सकती हूं?'


'विश्वास रखिए महारानी, आपका भात खाकर भी मैं ऐसा ही ब्राह्मण रहूंगा। मैं कच्चा ब्राह्मण नहीं हूं। मेरा ब्राह्मणत्व खूब पक्का है।'


'परन्तु ब्राह्मण सुनेंगे तो आपको जातिच्युत कर देंगे।'


'मैं तो प्रथम ही इन सब भोजन-भट्टों को जातिच्युत कर चुका हूं। वे अब मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।'


'मैं ब्राह्मण के हाथ से पृथक् भोजन आपके लिए बनवा देती हूं।'


'ब्राह्मण के हाथ का भात तो मैं खोऊंगा नहीं। आप ही के हाथ का भात खाऊंगा। आप मातृरूपा हैं। जगद्धात्री का स्वरूप हैं। तन-मन से शुद्ध हैं। आपके हाथ का भात खाकर मैं उन सव ब्राह्मणों के कुकृत्य का परिशोध करूंगा, जिन्होंने शूद्र कहकर अपका अपमान किया है।'


'तो फिर मेरे महल में पधारिए।'


'न, न, यहीं भात रांधिए। यहीं सब ब्राह्मणों के सामने खाऊंगा।'


रानी ने फिर आग्रह नहीं किया। उसने बालक से कहा-रामकृष्ण भैया, त इसी वटवृक्ष के नीचे सब सामग्री जुटा दे। मैं अभी गंगा-स्नान करके आती हूँ।


बालक ने आनन्दातिरेक से ताली पीटकर कहा-मां, मैं भी तुम्हारा भात खाऊंगा।


रानी ने जवाब नहीं दिया। वह आंचल से आंखें पोंछती हई घाट की ओर चली गई। बालक भी तेजी से भण्डार की ओर चला। ब्राह्मण पत्थर की मूर्ति की भांति बैठा रहा।


आग की भांति सर्वत्र दक्षिणेश्वर में यह खबर फैल गई कि एक ब्राह्मण शूद्रा रानी के हाथ का भात खाएगा। रानी उसके लिए भात रांध रही है। नैष्ठिक ब्राह्मण भीत-चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे। उनका अभिप्राय यह था कि घोर कलियुग आ गया है; अब धर्म नहीं बच सकता।


बहुत ब्राह्मण वटवृक्ष के नीचे जमा हो गए, जहां रानी भात रांध रही थी और वह ब्राह्मण पत्थर की मूर्ति की भांति निश्चल बैठा था। एक ब्राह्मण ने कहाः


'तुम ब्राह्मण हो कि चमार?'


'मैं ब्राह्मण हूं।'


'कौन ब्राह्मण हो?'


'पाण्डे हूं। बीस विश्वे का।'


'नाम क्या है तुम्हारा ?'


'गोपाल पाण्डे मेरा नाम है।'


'काम क्या करते हो?'


'पाखण्ड और अत्याचार का विरोध करता हूं।'


'रहते कहां हो?'


'बारह बरस से देश-भर में घूम रहा हूं।'


'तो तुम शूद्रा के हाथ का भात क्यों खाते हो?


'मैं साक्षात् जगद्धात्री अन्नपूर्णा के हाथ का भात ग्रहण कर रहा हूं, इससे मेरा और सब ब्राह्मणों का भी कल्याण होगा।'


'तुम चमार हो!'


'चमार तो वे हैं जो चमड़े की परख कर जाति का पता लगाते हैं।'


'और तुम?'


'मैं ब्रह्मज्ञानी हूं। मैं ब्रह्म की एकता को जानता हूं।'


विवाद होता रहा, और ब्राह्मण शान्त भाव से उन सभी का उत्तर देता रहा। उसने राम और शिव के उदाहरण दिए। धर्मशास्त्र और महाभारत के प्रमाण दिए, और जात-पांत की कट्टरता का पूरा विरोध किया।


अन्त में केले के पत्ते पर रानी ने भात परसा। ब्राह्मणों के देखते ही देखते वह बालक भी भात खाने आ बैठा। राधामाधव के शृंगारकर्ता को रानी के हाथ का भात खाते देखकर ब्राह्मण बौखला गए। वे बड़ी देर तक गर्जन-तर्जन करते रहे, और फिर चले गए।


ब्राह्मण ने भोजन करके कहा-बस मां, अब मैं जाऊंगा। आपसे एक अनुरोध करता हूं, आप मानेंगी?


'आप जो कहेंगे वही मैं करूंगी।'


'तो सुनिए। बारकपुर की छावनी में जो बड़े साहब हैं कमांडिंग जनरल, उनकी स्त्री का नाम शुभदा देवी है। वह ब्राह्मण कन्या है। वह आप ही की भांति निष्ठावाली स्त्री है। भारत में शीघ्र ही एक महा उत्पात उठेगा। एक ज्वालामुखी का विस्फोट होगा, जिनमें सब अंग्रेज फिरंगी भस्म हो जाएंगे। मेरा आपसे अनुरोध है, कि आप उनसे जाकर मिलें। उन्हें अपनी सखी और मित्र बनाएं, और विपत्ति के समय उन्हें अपने यहां रक्षण दें। मैंने उसे सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद दिया है। मेरे इस आशीर्वाद को आप सफल कीजिए। सम्भव है मैं समय पर उन तक न पहुंच सकूँ इसीसे यह भार आपको सौंपता हूं।'


इतना कहकर वह ब्राह्मण तेजी से वहां से चल दिया। उसने मुंह फेरकर भी नहीं देखा। रानी एक मुहूर्त तक उसी ओर देखती रही जिस ओर वह अद्भुत ब्राह्मण गया था।


जानबाज़ार की रानी रासमणि मुलाकात के लिए आई हैं, यह सूचना पाते ही शुभदा एकबारगी ही व्यस्त हो उठी और बंगले के बाहर चली आई। बाहर आकर देखा-बहुमूल्य कमखाब से ढकी एक पालकी सहन में लगी थी, और लकदक सुनहरी पोशाक पहने पाठ कहार उसकी बगल में खड़े थे। उनके पीछे पन्द्रह-बीस सवार बन्दूकें लिए लाल और हरी बानात के अंगे पहने, साफे बांधकर खड़े थे। सहन से बाहर मैदान में एक हाथी सुनहरी झूल से सुसज्जित संड हिला रहा था। फाटक से सटकर रानी के दीवान महेशचन्द्र चट्टोपाध्याय मूल्यवान रेशमी चादर कन्धे पर डाले खड़े थे। उनके पीछे आठ बहेंगी रखी थीं, उनपर बहुत-से थाल, झाबे भौर सन्दूक थे। थालों और झाबों में मिठाइयां, पकवान और बक्सों में कीमती वस्त्र भरे थे।


शुभदा देवी को देखते ही रानी रासमणि पालकी से निकल आईं, उन्होंने शुभदा की चरणरज ली। शुभदा देवी ने उन्हें रोककर कहा-हैं, हैं, यह आप क्या कर रही हैं?


रानी ने हंसते हुए कहा-आप उम्र में मेरी बेटी के बराबर हैं, पर आप ब्राह्मण की बेटी हैं, मैं शूद्र हूं। आपकी चरण-रज लेना मेरा धर्म है। मैं जानबाजार की रानी रासमणि हूं। आपके पिता का गांव मेरी ही ज़मींदारी में है। आपके पिता मेरे पति के विद्यागुरु थे। आपके सम्बन्ध में बहुत दिन हुए मैंने सुना था। पर आप यहां हैं, यह नहीं जानती थी। अब जाना तो दर्शन करने चली आई।


'मेरा बड़ा भाग्य जो आपने दर्शन दिए। बड़ी कृपा की आपने। आपका शुभ नाम और धवल यश मैं सुन चुकी हूं-आप तो पुण्य-दर्शना हैं। दक्षिणेश्वर भी मैं देख आई हूं-बड़ा सुन्दर देवधाम बनाया है आपने। किन्तु आप मुझे बेटी कहती हैं, फिर भी 'आप' कहकर क्यों बोलती हैं तथा दर्शन करने आई हैं, यह क्यों? दर्शन देने आई हैं, यह क्यों नहीं कहतीं?'


रानी ने हंसकर शुभदा देवी की ठोड़ी उंगली से छूकर उंगलियों की पोर चूमकर कहा- अच्छा, बेटी, तुम कहती ही हो तो 'आप' नहीं कहूंगी। पर तुम ब्राह्मण हो, ब्राह्मण की बेटी हो, हमारी पूज्य हो।


'ब्राह्मण हूं, ब्राह्मण की बेटी हूं, पर यह सब ऊंच-नीच के और जात-पात के ढकोसले मैं नहीं मानती। आप तो जानती हैं कि मैं एक क्रिस्तान अंग्रेज अफसर की पत्नी हूं। आइए, भीतर आइए।' रानी ने भीतर आकर बैठते हुए कहा:


'अब तो आ ही गई हूँ, बेटी। परन्तु अनुमति दो-बिटिया के लिए जो ही कुछ थोड़ा फल-मूल ले आई हूं, उन्हें यहां मंगा लूं।' उन्होंने महेशचन्द्र को संकेत किया। महेशचन्द्र बहेंगियों को लिए हुए दालान तक चले आए। इतनी सामग्री देख शुभदा देवी हक्का-बक्का रह गईं। उनके दिल में सन्देह हुआ कि जैसी भारतीयों की आदत है, रानी इतनी भारी डाली लेकर किसी मतलब से तो या नहीं आई हैं? उन्होंने कहा-यह सब आप क्यों ले आई हैं। मेरे पति तो यह स्वीकार नहीं करेंगे?


'दूसरी बात क्यों सोचती हो बेटी, मैं तुम्हारे पति से बात कर लूंगी। वे भला बेटी और मां के बीच क्या बोल सकते हैं? कहां हैं तुम्हारे पति बेटी?'


'छावनी में बहुत गड़बड़ी हो गई है। एक सिपाही ने मस्तिष्क का सन्तुलन खो दिया है, उसने अपने अफसरों को मार डाला है और स्वयं भी गोली मारकर आत्मघात करने की केष्टा की-पर वह मरा नहीं। आज उसका कोर्ट मार्शल है। मेरे पति वहीं गए हैं।'


'वह सिपाही कौन है?'


'एक ब्राह्मण है, बनारस की ओर का पाण्डे है।'


'तो बेटी, ब्राह्मण की प्राण-रक्षा अवश्य होनी चाहिए। तुम्हारे पति भी क्या उसके विरुद्ध हैं?'


'नहीं, वे भरसक उसके जीवन की रक्षा का उपाय करेंगे। परन्तु सेना की दशा बहुत खराब है। ये अपढ़ मूढ़ सिपाही झूठी-सच्ची बातों पर विश्वास करके व्यर्थ ही उत्तेजित हो रहे हैं। सब लोग कहते हैं कि देश में एक ऐसा आन्दोलन चल रहा है कि सब अंग्रेजों को मार डाला जाएगा। कारतूस की बात तो आपने सुनी ही होगी?'


'कारतूस की बात कैसी?'


'कि नये कारतूसों में सुअर और गाय की चरबी लगी है। इस बात की झूठ-सच की जांच किए बिना ही सिपाही उत्तेजित हो रहे हैं।'


'कुछ और भी तो कारण हो सकता है वेटी। खैर, मैं तो तुमसे इसी मामले में बातें करने आई हूं।'


'क्या आप मेरे पति से कोई अनुरोध करेंगी?'


'नहीं बेटी, मैं तो तुम्हींसे बात करूंगी।'


'तो कहिए, क्या आज्ञा है?'


रानी ने ब्राह्मण पण्डित का हवाला देते हुए शुभदा की सुहाग-रक्षा के अपने उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में उसे बता दिया।


'बड़ी विचित्र बात है! क्या आप उसकी बात पर विश्वास करती हैं?' शुभदा ने पूछा।


'विश्वास करके ही यहां आई हूं बेटी। मेरा तो वैसे भी तन-मन ब्राह्मण ही की सेवा-चाकरी के लिए है। तो मैं तुमसे और तुम्हारे पति से यह अनुरोध करने आई" हूं कि यदि भगवान न करे कभी ऐसा दुर्दिन आए तो तुम जानबाज़ार के महल को अपना ही समझना। मेरे महल में दो सौ सिपाही हैं। और भी आदमी हैं। वहां कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकेगा। तुम अपने पति और इष्टमित्रों सहित वहीं आ जाना।'


'आपका आश्वासन और कृपा असाधारण है। मैं अपनी ओर से तथा अपने पति की ओर से आपको धन्यवाद देती हूं।'


'बेटी होकर मां को धन्यवाद देती हो? कलियुगी बेटी हो तुम बिटिया," रानी यह कहकर हंस दी। फिर उसने कहा-इस समय तुम्हारे पति से भेंट न हो सकी, पर मेरा सन्देश तुम उनसे कह देना। अथवा यह अधिक ठीक होगा कि एक बार तुम उन्हें लेकर जानबाज़ार आ ही जाओ, तो आवश्यकता होने पर क्या-क्या प्रबन्ध-व्यवस्था करनी होगी, इसका ठीक-ठिकाना कर लिया जाए।'


'मैं ज़रूर उनसे कहूंगी।'


'मुझे पत्र लिखोगी या मैं चट्टोपाध्याय महाशय को तुम्हारे पास भेजूं?'


'मैं ही आदमी भेजूंगी।'


'तो बेटी, भूल न करना। कहीं ऐसा न हो ब्राह्मण की आज्ञापालन में मुझसे चूक हो जाए और मेरा धर्म-कर्म सब नष्ट हो जाए।'


'नहीं, महारानी, ऐसा नहीं होगा। किन्तु आप क्या इस भ्रष्ट ब्राह्मणी के यहां कुछ भी खाएं-पिएंगी नहीं?'


'नहीं बेटी। नाराज़ मत होना। मैं तीसरे प्रहर गंगा-जल से स्नान करके केवल एक जून हविष्यान्न भोजन करती हूं तथा केवल गंगाजल को छोड़ और कुछ ग्रहण नहीं करती, शूद्रा हूं बेटी, गत ग्यारह बरस से मेरा यही नियम चल रहा है। स्वार्थवश ही यह कर रही हूं। इससे कदाचित् मेरा शूद्र योनि से उद्धार हो जाए।' यह कहकर रानी आसन छोड़ उठ खड़ी हुई।


शुभदा ने कहा-मां, आप दिव्यरूपिणी हैं। कौन आपको शूद्र कहता है? जहां आप जैसी साध्वी की चरणरज पड़ेगी वह भूमि तो एक योजन तक पवित्र होजाएगी। इतना कहकर हठात् शुभदादेवी ने गले में आंचल डालकर भू-पतित हो, रानी के चरणों में मस्तक टेक दिया।


'यह क्या किया, यह क्या किया बेटी-गोविन्द, गोविन्द, तुमने जो मुझे पातक लगा दिया। ब्राह्मण की कन्या होकर मेरे पैरों में सिर दे दिया! छी, छी!!'


'मां, अपने सारे जीवन में आज मुझसे एक पुण्य कार्य हुआ। मेरा जीवन धन्य हुआ।'


शुभदा की आंखों से आंसू बह चले। रानी ने फिर उसकी ठोड़ी छूकर अपनी उंगलियां चूमी, और आकर पालकी में बैठ गई।


No comments:

Post a Comment

Short Story - At Christmas Time | Anton Chekhov

Anton Chekhov Short Story - At Christmas Time I "WHAT shall I write?" said Yegor, and he dipped his pen in the ink. Vasilisa had n...