Wednesday, September 14, 2022

कहानी | पाप | आचार्य चतुरसेन शास्त्री | Kahani | Paap | Acharya Chatursen Shastri



 दो स्त्रियां परस्पर बातें कर रही थीं। संध्या हो रही थी। अन्धकार कमरे में बढ़ रहा था, पर वे अपनी बातचीत में इतनी लीन थीं कि उन्होंने इसकी तनिक भी परवाह न की। एक की अवस्था छबीस वर्ष के लगभग थी और दूसरी की पन्द्रह वर्ष की। दोनों सम्भ्रान्त कुल की शिक्षित महिलाएं थीं। कमरा खूब सजा हुआ था, और ये दोनों सुन्दरियां एक तख्त पर, मसनद के सहारे अस्त-व्यस्त पड़ी अपनी बातों में दीन-दुनिया भुलाए बैठी थीं। बड़ी स्त्री अत्यन्त सुन्दर थी। उसकी खिली हुई आंखें और उभरे हुए होंठ प्रबल लालसा के द्योतक थे। खूब गहरे और खूब काले बालों से उत्कट वासना प्रकट हो रही थी। वह खूब मजबूत, मांसल और मुस्तैद औरत थी। दूसरी स्त्री अत्यन्त नाजुक बदन, अविकसित कली के समान अस्फुट, पीली, दुबली, पतली, किन्तु सुन्दरी थी। उसकी नासिका का मध्य भाग कुछ उभरा हुआ था, और आंखें कटाक्षयुक्त थीं। छिपी हुई वासना और चांचल्य उसमें फूटा पड़ता था। अभी कुछ मास में उसका विवाह होने वाला था। पति-सहवास की स्मृति की एकमात्र झलक ने उसे असंयत कर दिया था। अब स्त्री के लिए पति क्या वस्तु है, पति नहीं---पुरुष क्या वस्तु है? यही उसके विचार और कल्पना का विषय था। इस समय दोनों स्त्रियां बिल्कुल सटकर बैठी इसी विषय का चिन्तन कर रही थीं।


छोटी स्त्री ने कहा---'अरे मैं तुम्हें चाची कहूं, या बहनजी, या क्या? कुछ समझ में नहीं आता।'


'जी चाहे सो कहा कर।'


'अब ऐसी-ऐसी बातें करती हो, तो चाची कैसे हुई?'


'न सही, बहनजी सही।'


'अच्छी बात है, अब मैं बहनजी कहा करूंगी, पर बाबू साहब को क्या कहना होगा।'


'जीजाजी। अब तो वह तेरे जी जा जी हो गए।'


'नहीं नहीं, ऐसा नहीं, जीजाजी बहुत बुरे हुआ करते हैं।'


'बुरे क्या हुआ करते हैं?'


'सब भांति की हंसी-दिल्लगी करते हैं। मैं उनसे हंसी-दिल्लगी करती क्या सजूंगी, बोलूंगी ही कैसे?'


'क्या वह कोई बाघ हैं? जीजाजी की मरम्मत तो सालियां ही किया करती हैं।'


'ना भई, मुझसे ऐसा न होगा, उनके सामने से मैं भाग जाऊंगी।'


'भाग कैसे जाएगी। सालो बनना क्या हंसी-खेल है, इस बार होली खेलना होगा।'


'वाह, यह भी कहीं हो सकता है।' बालिका कुछ हंसकर गर्दन टेढ़ी करके बोली और दूसरी स्त्री की गोदी में सिर छिपा लिया।


'नहीं कैसे हो सकता, होली तो खेलना ही होगा।'


बाहर पद-ध्वनि सुनकर दोनों चौंकी। बालिका ने कहा--'लो जीजाजी आ रहे हैं, अब मैं जाती हूं।'


'वाह, जाएगी कैसे? आज उनसे बातें करनी पड़ेंगी।'


'नही, नहीं, मैं जाती हूं।' बालिका उठकर भागने लगी। दूसरी स्त्री ने उसे कसकर खींच लिया और कहा--'जाएगी कहां? जीजाजी से बातें करनी होंगी।'


कमरे में स्त्री के पास किसी और को बैठा देख राजेश्वर बाहर ही ठिठक गए, वह दूसरे कमरे में जाने लगे। पत्नी ने पुकारकर कहा--'चले आइए, यहां आपकी नई साली साहिबा हैं, और कोई नहीं।'


राजेश्वर ज़रा झिझकते हुए भीतर गए। बालिका सिकुड़कर गृहिणी की पीठ-पीछे छिप रही।


गृहिणी ने हंसकर कहा--'जीजाजी को प्रणाम भी नहीं!'


बालिका ने चुपके से हाथ जोड़कर प्रणाम किया।


राजेश्वर ने कहा--'कौन है?


'आप नहीं जानते, पड़ोस के प्रोफेसर साहब की कन्या किशोरी है, हम लोगों ने बहनापा जोड़ा है, अब यह आपकी साली और आप इसके जीजाजी हुए।'


राजेश्वर ज़रा मुस्कराए, फिर कहा--'इन्हें कुछ खिलाया-पिलाया भी है या नहीं, फल-मिठाई और लो।'


इतना कहकर राजेश्वर कमरे से बाहर निकल गए। उन्हें एक जरूरी मुकद्दमे की मिसल देखनी थी। मुवक्किल बैठक में बैठे थे। उन्होंने बालिका को देखा भी नहीं, उनके मन में कोई भाव भी उदय नहीं हुआ।


उनके जाने पर बालिका ने कहा--'बहनजी, ये तो बहुत मीठा बोलते हैं।'


'क्या रीझ गई?'


'हटो, ऐसो बातें न करो, मेरे यहां रहने से बाहर चले गए। मुझे जाने क्यों नहीं दिया, वे यहां बैठते।'


'तेरे सामने बैठने में क्या उन्हें डर लगता था?'


'मेरी वजह से तो चले ही गए।'


'चले जाने दे, जा कहां सकते हैं, नकेल नथी हुई है। बावी, वे एक क्षण तो मेरे बिना रह नहीं सकते।'


यह कहते हुए युवती के नथने फूल गए,आंखों में मद छा गया। बालिका ने सखी की ओर देखकर कहा--'सच कहना बहन, क्या वे तुम्हें इतना प्यार करते हैं।


'तू प्यार को क्या जाने पगली, अभी तो अल्हड़ बछुड़ी है, ससुराल का रस तूने देखा नहीं है।'


'अच्छा, सच कहो, ये तुम्हें कितना प्यार करते हैं?'


'जितना जगत् में किसी ने किसी को नहीं किया।'


'और तुम?' तुम भी प्यार करती हो या नहीं?'


'मैं क्यों करने लगी।' युवती ने दो धप्प बालिका को लगा दी। इसके बाद कहा--'अच्छा कह, कैसे हैं?'


'बहुत अच्छे हैं।'


'तुझे पसन्द आए?'


'हटो, कैसी बातें करती हो।'


'कह-कह, नहीं घूंसे मार-मारकर ढेर कर दूंगी।'


बालिका ने स्वीकार-सूचक सिर हिलाकर मुंह सखी के आंचल में छिपा लिया। युवती गर्व से फूल गई। उसने दो-चार घूंसे जमाकर कहा--'कहीं, आगे-पीछे बातें न करने लगना।'


'वाह, मैं बातें कैसे करूंगी? हां, सुनो, उन्हें नाश्ता तो करा दो। बेचारे हारे-थके कचहरी से आए हैं!'


गहिणी ने तीन तश्तरियों में नाश्ता सजाकर कहा--'लो, पहले उन्हें तुम्हीं दे आओ।'


बालिका ने कान पर हाथ धरकर कहा--'राम राम, मर जाऊं तब भी उनके सामने नहीं जाऊंगी।'


'तब साली क्या खाक बनी?'


'ऐसी साली नहीं बनती।'


'बस, इतने ही वह अच्छे लगे?'


'पर उनके सामने कैसे जा सकती हूं?'


'क्या वह तुझे हलवा समझकर गड़प कर जाएंगे?'


'नहीं, मैं नहीं जाऊंगी।'


'तुझे ही आज भेजूंगी।'


'बहन जी, हाथ जोड़ती हूं।'


'हाथ जोड़ चाहे पांव।'


'नहीं जीजी, नहीं।'


'तब मैं नाराज हो गई, ले।'


'बहनजी माफ करो, मुझे न भेजो।'


'बस, मैं बोलती नहीं।'


'अजी, वहां और भी आदमी हैं।'


'तुम क्या बहू हो ? बेटी हो, परदा क्या है।'


'तब तुम भी चलो।'


'मैं आदमियों में कहां जाऊं?'


'चिक के पास खड़ी रहना।'


'अच्छा, चल।'


दोनों स्त्रियां चलीं । बालिका के हाथ में नाश्ते की तश्तरी और पानी का गिलास था । द्वार पर जाकर गृहिणी ने उसे धकेल दिया। बालिका आंखें बन्द कर, गिलास और तश्तरी टेबल पर रख, सिर पर पैर रखकर भागी, तो अपने घर पर ही आकर दम लिया। गृहिणी कमरे में आकर पलंग पर लोट-पोट होकर हंसने लगी।


'जैसे बिजली कौंधा मार गई हो। राजेश्वर भौंचक-से रह गए। वह एक क्षण भी उस ज्वलंत चांचल्य को आंख भरकर न देख सके। मानो उनके शरीर का सारा रक्त दिमाग में इकट्ठा हो गया हो, और नसों में पारा भर गया हो। परन्तु वह शीघ्र ही संयत हो गए। वह चुपचाप अपने कागजात देखते रहे, पर उनका कलेजा धड़क रहा था। वह रह-रह कर सोच रहे थे, अजब लड़की रही यह। कैसे वह एकाएक आई, और भाग गई। क्या यह सब कुमुद की कारस्तानी नहीं थी? पर कैसी भद्दी, कैसी वाहियात बात है। ये लोग भी क्या कहेंगे। यह सोचते-सोचते उन्होंने आंख उठाकर दबी नजर से अपने मुवक्किलो को देखा, और फिर उनकी दृष्टि नाश्ते की तश्तरी पर जाकर अटक गई।


एक मुवक्किल ने कहा--'वकील साहब, आप पहले नाश्ता कर लीजिए, यह काम तो होता ही रहेगा।'


वकील साहब अब भी आपे से बाहर थे। उनके मन में एक द्वन्द्व मच रहा था। वह अकारण ही हंस पड़े, पीछे अपनी हंसी से स्वयं चौंक भी पड़े। उन्होंने नाश्ते की तश्तरी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा--'आप लोगों के लिए भी कुछ मंगवाया जाए?'


'जी नहीं, आपकी कृपा है।'


वकील साहब नाश्ता कर फिर कागज देखने-भालने लगे। पर उनका मन काम में लगा नहीं। वह मुवक्किलों को बिदा कर भीतर आए। देखा, कुमुद की आंखें चुपचाप हंस रहीं और होंठ रह-रहकर फड़क रहे हैं।


उन्हें देखते ही कुमुद खिलखिलाकर हंस पड़ी। राजेश्वर ने कहा--'यह क्या बेवकूफी की?'


'कहिए, नाश्ते में स्वाद आया?'


'उसे वहां भेजा क्यों?


'क्या वह अच्छी नहीं लगी?'


'पर वहां भेजना सरासर बेवकूफी थी।'


'पर थी मज़ेदार।' कुमुद फिर हंस दी।


वकील साहब कुर्सी पर बैठकर बोले--'यह ठीक नहीं किया, वहां बहुत लोग थे।'


'वे क्या उसके ससुर थे?


'हंसी की भी एक हद होती है, मर्यादा से बाहर जाना ठीक नहीं।'


'मर्यादा के बाहर क्या हुआ?'


'गैर लड़की को अकेला मर्दों में भेजना ठीक नहीं।'


'पर वह तो आपकी साली साहिबा है, गैर नहीं।'


'मुझे सालियों की जरूरत नहीं।'


'आपकी जरूरत को कौन पूछता है?'


'आइन्दा फिर ऐसा कभी न करना।'


'देखा जाएगा।'


'अभी तुम्हारा अल्हड़पन नहीं गया।'


'जी नहीं, मुझे वकीलों की तरह लम्बा मुंह बनाकर कानूनी बहस नहीं करनी पड़ती।'


'मैं तुमसे बहस नहीं करता, उस आफत को अब कभी घर न बुलाना, न उसकी चर्चा करना।'


'वह मारा! आफत, आफत, मन की बात तो मुंह से निकल गई। मालूम होता है, मन को भा गई।' वह हंसते-हंसते लोट गई। रावेश्वर झुंझलाकर घर से बाहर निकल गए।



वह सीधे क्लब गए। वहां जी न लगा, तो घूमने दूर तक निकल गए। वहां भी मन न लगा, तो एक दोस्त के घर जाकर शतरंज खेलने लगे। पर कहीं भी उनका मन नहीं लगा। वह अन्यमनस्क से घर लौटे, चुपके से खाना खाया, और अखबार ले बैठे। उनके मन में वही आफत रम रही थी। वह बिजली की तरह प्रकाश-पुंज को लपेटे कमरे में घुसना और तूफान की तरह निकल भागना, आंधी की भांति सब कुछ बखेर जाना, ये ही सब बातें उनके दिमाग में हलचल मचा रही थीं। वह इस बात पर हैरान थे कि कुमुद ने भोजन के समय न उसकी चर्चा की, न हंसी। उन्हें बहुत आशा थी कि उसकी बात सुनेंगे। वह, अखबार लिए आरामकुर्सी पर देर तक पड़े-पड़े ऊंघने लगे। झपकी लगते ही देखा, वही आफत उसी भांति झपटकर उनके सामने आ खड़ी हुई। वह हडबड़ाकर उठ बैठे, मानो उसे पकड़ लेंगे। पर खड़े होकर, आंख खोलकर देखा, कुमुद दूध का गिलास लिए खड़ी थी। वह खूब गम्भीर बनी खड़ी थी। उसे सामने देख राजेश्वर अपनी बेवकुफी पर झेंप गए। वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गए। फिर बेवकूफ की भांति हंसकर बोले--'मुझे नींद आ गई?'


'जी हां, उसी में कुछ सपना देखकर शायद हडबड़ाकर उठ पड़े, पर सामने कोई और ही खड़ा मिला। लीजिए, दूध पी लीजिए, और फिर आराम से रातभर सपने देखिए।' कुमुद ने अब भी अपनी गम्भीरता भंग न की।


राजेश्वर सोच ही न सके, क्या जवाब दें। वह चुपचाप दूध पीने लगे। कुमुद उन्हें एक पान देकर चली गई, तो राजेश्वर ने उसका हाथ पकड़कर कहा--'भागती कहां हो, अपनी उस नई सखी का सब हाल सुनाओ।'


'जी, उसकी बात न कीजिए।'


'नहीं नहीं, बताओ तो, तुमने क्या समझकर उसे वहां भेजा था?'


'जी नहीं श्रीमान् जी, उसकी बात करने का मुझे हुक्म नहीं है।'


राजेश्वर ने कुमुद को खींचकर कुर्सी पर गिरा दिया, और दोनों हाथों से गला दबाकर कहा--'बोलो, नहीं तो गला घोंट दूंगा।'


'घोंट दीजिए श्रीमान् जी, पर एक सांस ले लेने दें।'


'अच्छा, लो एक सांस।'


कुमुद झटका देकर उठी, और राजेश्वर को गिराती तथा कुर्सी में अटकी अपनी साड़ी फाड़ती और हंसती हुई वहां से भाग गई।


राजेश्वर बक-झक करते ही रह गए।


वकील साहब की उम्र चालीस को पार कर गई थी। वह बहुत गम्भीर और उदासीन प्रकृति के आदमी थे। अपने मुवक्किलों में रूखे और खरे तथा अदालत में तीखे आदमी प्रसिद्ध थे। बहुत कम उन्हें हंसी-दिल्लगी करते देखा गया था। उनके यार-दोस्त भी कम थे। रसिकता नाम की कोई वस्तु उनमें थी ही नहीं। परन्तु किशोरी जैसे उनकी आंखों मे तप्त सलाई की भांति घुस गई हो। उनका मन न कचहरी में लगता था, न मुवक्किलों में। वह कुमुद से उसकी चर्चा करते भय खाते थे। पर घर में आते ही चारों ओर आंखें फाड़-फाड़कर देखते कि क्या किशोरी कहीं दीवार के कोने में छिपी तो नहीं है। वह बड़ी सावधानी से घर में घुसते। वहां कुमुद किशोरी की कुछ चर्चा करती है या नहीं इस बात की वह बराबर टोह रखते। कुमुद उनकी सदैव ही, प्रतीक्षा करती मिलती। वह मानो मन-ही-मन पति की इस भावना को समझ गई थी, इसीलिए उन्हें देखते ही उसकी सदा की हंसती हुई आंखें और भी उत्फुल हो जाती थीं।


दोपहर का समय था। कचहरी की छुट्टी थी। वकील साहब भोजन कर चुपचाप पलंग पर पड़ें पान कचर रहे थे। कुमुद नीचे कालीन पर बैठी छालियां काट रही थी। पति-पत्नी दोनों के मन में एक ही बात थी, परन्तु दोनों ही वह बात कह नहीं सकते थे। कुमुद यह कठिनाई देख मुस्करा रही थी। वकील साहब झेंपकर छिपी नजरों से कुमुद को देख रहे थे।


उन्होंने साहस करके कहा--'हंस क्यों रही हो?'


'रोऊं क्या?'


'कुछ सोच रही हो, भला क्या बात तुम्हारे मन में है?'


'तुम्हीं बताओ, तुम तो अन्तर्यामी हो।'


'हूं तो, पर बताऊंगा नहीं।'


'जाने दो।' कुमुद फिर छालियां काटने में जुट गई। इस बार उसकी हंसी रुक न सकी। वह मुंह फेरकर हंसने लगी।


'तुम मुझे बेवकूफ समझती हो, क्यों?'


'बेशक, इसमें आपको कुछ आपत्ति है?'


'मैं बेवकूफ क्यों हूं?'


'यों कि बिना बात राड़ बढ़ाते हो, सो नहीं जाते।'


'तब मैं सोता हूं।' कहकर राजेश्वर करवट बदलकर सो गए।


कुमुद ने और बातें नहीं की, वह वहीं बैठी सरौता चलाती तथा धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाती रही। कुमुद से कुछ सुनने की आशा करते-करते राजेश्वर सो गए।


आंख खुलने पर उन्होंने सुना, कुछ लोग उनके पलंग के पास बैठकर धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं। क्षणभर बाद उन्होंने देखा कुमुद और किशोरी हैं। राजेश्वर को जागता देख वह सिकुड़कर उठ भागने की तैयारी करने लगी। कुमुद ने एक बार पति की ओर वक्र दृष्टि से देखा, जरा मुस्कराई, और किशोरी का हाथ पकड़कर गिरा दिया।


राजेश्वर ने रसिक की भांति कहा--'यह हाथापाई क्या हो रही है?'


'क्यों? आपको जामिन किसने बनाया? मेरा घर है, मैं जो चाहूंगी, करूंगी।'


'कभी नहीं, अपना घर होने से ही क्या हुआ, किसी पर अत्याचार न कर पाओगी, यह अंग्रेजी राज्य है, समझीं?'


'समझी, और आप हैं एक नामी-गिरामी वकील, परन्तु यहां कच्चे मुवक्किल नहीं। वकालत रहने दीजिए, धेला भी नहीं मिलेगा।'


राजेश्वर उठकर हंसते हुए बैठ गए। किशोरी ने लजाते हुए हाथ जोड़कर प्रणाम किया। राजेश्वर ने उसे आंख भरकर देखना चाहा, पर न देख सके। वह दूसरी ओर मुंह करके हंसने लगे।


कुमुद ने कहा--'अब आप खिसकिए। वहां मुवक्किल लोग बैठे हैं, मुन्शी कई बार आ चुका है।'


'किशोरी ने धीरे से कहा--'जीजी, उन्हें घर से क्यों भगाती हो?


कुमुद ने कहा--'यह वकीलों की वकालत होने लगी।'


राजेश्वर ने अब एक बार किशोरी को भली भांति देखा, वह लजाकर सिकुड़ गई।


राजेश्वर ने बातचीत का बहुत कुछ आयोजन किया, पर उन्हें कहने योग्य कोई बात ही न सूझ पड़ी। वह उठकर चलने लगे।


कुमुद ने इसी बीच उठते-उठते कहा--'आपके लिए नाश्ता लाती हूं। कुमुद उठ गई। किशोरी ने उठकर कुमुद के साथ जाना चाहा, पर वह उठ भी न सकी, और बैठना भी उसके लिए भार हो गया। फिर भी वह चुपचाप धरती पर बैठी रही। बहुत चेष्टा करने पर भी राजेश्वर उससे एक शब्द भी न कह सके, उसकी ओर देख न सके।


कुमुद दो तश्तरियों में नाश्ता सजा लाई। एक तश्तरी पति के आगे रखकर दूसरी किशोरी के आगे रख दी और मुस्कराकर उसे खाने का अनुरोध किया।


किशोरी वहां से भागने की कोशिश में थी, पर यही सबसे कठिन था। वह कुमुद से और भी अधिक सटकर बैठ गई। कुमुद ने बलपूर्वक उसके मुंह में इमरती ढूंस दी। उसने आंचल में मुंह छिपा लिया।


ये सभी दृश्य राजेश्वर के लिए असाधारण प्रभावशाली थे। किशोरी घबराकर वहां से उठकर जाने लगी। कुमुद ने बहुत रोका, पर वह चली गई।


राजेश्वर मन के उद्वेग को न रोककर बोले--'उसे नाराज क्यों कर दिया?'


'आपको क्या ज्यादा बुरा लगा?'


'उसे मनाना चाहिए।'


'तब मना लाइए।'


'मैं उससे क्या बोलूंगा, तुम उसे बुला लो।'


कुमुद ने बाहर आकर देखा, वह खड़ी हुई मिसरानी से बातें कर रही है। कुमुद ने भीतर पति की ओर ताककर कहा--'अब आप बाहर तशरीफ ले जाइए, तब वह आएगी।' राजेश्वर चले गए।


कुमुद ने किशोरी से कहा--'आ किशोरी, वह चले गए, अब क्यों भागती है!'


'किशोरी ने गर्दन टेढ़ी करके, ज़रा हंसकर कर कहा--'उन्हें क्यों भगा दिया?'


'तब बुलाऊं फिर?'


किशोरी हंसते-हंसते कुमुद से लिपट गई। उसने कहा--'जीजी यह तो बहुत अच्छे हैं।'


पति की इतनी मधुर आलोचना सुनकर कुमुद आनन्द-विभोर हो गई। उसने किशोरी के तड़ातड़ चुम्बन पर चुम्बन ले डाले।


उस दिन कोई पर्व था। कुमुद बहुत जल्दी उठकर यमुना स्नान को चली गई। महराजिन उसके साथ गई थी, घर में नौकर छोकरा झाड़ू लगा रहा था। राजेश्वर मीठी नींद में पड़े थे, कुमुद ने उन्हें जगाया भी न था, बताया भी न था। वह बहुधा ऐसा ही करती थी।


आंख खुलने पर राजेश्वर ने देखा बिस्तर पर कुमुद नहीं है। उन्होंने छोकरे को पुकारकर पूछा, तो मालूम हुआ वह महराजिन को साथ लेकर यमुना स्नान को गई हैं।


'गाड़ी ले गई है या नहीं?'


इसका अनुकूल उत्तर पाकर वह फिर आंख मूंदकर पड़े रहे।


छोकरा बाहर दफतर में झाड़ू लगा रहा था। राजेश्वर चुप-चाप पड़े थे। प्रात:काल का मधुमय समीर बह रहा था। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि घर में कोई घुसा है। उसके घुसने से घर में सौरभ का प्रसार हुआ है। उन्होंने समझा, कुमुद स्नान करके माथ में बहुत से फूल और चन्दन लेकर वापस आई है। उसके सामने अभी तक पड़े सोते रहने का स्वांग करके अहदीपन का खिताब तथा एक-आध जली-कटी सुननी चाहिए।


कुछ देर चुप पड़े रहने पर भी उन्हें कुछ खटका नहीं प्रतीत हुआ। उन्होंने मुंह उठाकर देखा, द्वार के पास किवाड़ से सटी हुई किशोरी खड़ी है। उसे भ्रम था कि कुमुद सो रही है, वह चुपचाप उसे जगाने की ताक में थी। पर निर्णय नहीं होता था। अब एकाएक राजेश्वर को सामने देखकर वह घबरा गई। पर वह भागी नहीं, उसने अपने को सम्भाला, और मुस्कराकर राजेश्वर को प्रणाम किया।


आज इस समय इस शून्य घर में किशोरी को इस अवस्था में देखकर राजेश्वर के शरीर में प्रसुप्त वासना का एकबारगी उदय हो ही गया। क्षणभर वह श्वास भी न ले सके। कुछ देर वह उसे देख न सके, न एक शब्द कह सके।


किशोरी यह देख वहां से खिसक चली। राजेश्वर ने कठिनाई से कहा--'जाती कहां हो किशोरी, कैसे आई थीं?'


'मैं बहिनजी को बुलाने आई थी, जमुना जाना था, रात उन्होंने कहला भेजा था, कहां हैं?'


राजेश्वर ने झूठ बोल दिया--'ठहरो, वह अभी आती है।' झूठ कहकर वह मानो थर-थर कांपने लगे। उनका कंठ सूख गया। उन्हें मानो ज्वर का वेग हो गया। उन्होंने सूखे कंठ से कहा--'बैठो किशोरी।'


किशोरी खड़ी ही रही। वह कुछ भी निर्णय न कर सकी। न वह जा ही सकी। इस बीच में राजेश्वर साहस करके उठकर उसके पास आए। उसने समझा, वह बाहर जा रहे हैं। वह द्वार से हटकर कमरे में एक ओर हो रही।


हठात् राजेश्वर ने उसका हाथ पकड़कर कहा--'किशोरी, क्या तुम मुझसे डरती हो?'


किशोरी के शरीर में रक्त की गति रुक गई। वह पीपल के पत्ते की भांति कांपने लगी। वह सिकुड़कर वहां से चलने लगी।


राजेश्वर ने उसका हाथ पकड़कर कहा--'किशोरी, मैं तुम्हें प्यार करता हूं। किसी से कहना नहीं, कुमुद से भी नहीं।'


'किशोरी ने थोड़ा बल किया पर जब वह हाथ न छुड़ा सकी तो उसने आर्तनाद करके कहा--'छोड़िए, मैं जाती हूं।'


'किशोरी जाओ नहीं, मैं तुम्हें देखने को सदैव पागल रहता हूं।'


किशोरी की आंखों में आंसू भर आए। उसने रोते-रोते कहा--'छोड़िए, छोड़िए, नहीं...छोड़िए।'


राजेश्वर धीरे-धीरे पाशविक वासना से ओत-प्रोत हो रहे थे। उन्होंने और भी कसकर उसका हाथ पकड़ लिया और सूखे गले तथा भराई आवाज में कहा--'किशोरी, मेरा प्राण निकल जाएगा, मैं तुम्हें प्राण से अधिक चाहता हूं।' उन्होंने उसे खींच कर अपने निकट कर लिया। किशोरी भयभीत होकर एकबारगी ही चिल्ला उठी। यह देखकर राजेश्वर ने अपने बलिष्ठ हाथों से उसका मुंह बड़े जोर से दबाकर उसे धरती पर पटक दिया।


अकस्मात् ऐसा पाशविक आक्रमण किशोरी न सह सकी। वह सकते की हालत में करुण दृष्टि से राजेश्वर को देखने लगी। उसके मुंह से शब्द भी न निकले। धीरे-धीरे वह बेहोश होने लगी। राजेश्वर ने उसे अपने हाथों ऊपर उठा लिया। उसका खुला मुख, अधखुली आंखें और शिथिल शरीर एवं विमुक्त अलका वलियां, प्रभात की उन्मुक्त वायु का झोंका, सभी ने राजेश्वर की पशु-वासना को अन्धा बना दिया। वह घोर अपवित्र भावना से उस महापवित्र कुमारी का मुख चुम्बन करने को नीचे झुके।


एक तीव्र झंकार से चौकन्ने होकर उन्होंने पीछे देखा। कुमुद द्वार पर भौंचक खड़ी है। उसके हाथ से फूल, चंदन और जल की झारी से भरा थाल छूटकर फर्श पर झन्न से गिर गया है। क्षण भर में ही वह सब कुछ समझ गई। वह अग्निमय नेत्रों से पति को देखती हुई भीतर चली आई। राजेश्वर से उसने एक शब्द भी न कहा। वह चुपचाप किशोरी को उसी अवस्था में छोड़कर बाहर चले गए।


कुमुद ने किशोरी को झटपट उठाकर पलंग पर सुलाया। परन्तु इससे प्रथम ही वह होश में आ गई। वह कुमुद को देखते ही 'जीजी, जीजी' कहकर उसके गले से लिपटकर रोने लगी।


कुमुद भी खूब रोई।


किशोरी ने अन्त में कहा--'जीजी, क्या वह ऐसे हैं?'


'किशोरी, मुझे इसका स्वप्न में भी संदेह न था। मैं पृथ्वी में सबसे अधिक गर्व अपने पति पर करती थी, और उन्हें अपने प्रेम के कवच से रक्षित समझती थी। आज मैंने उन्हें पहचाना। किशोरी, मैं बड़ी ही अभागिन और अधम नारी हूं।'


'नहीं जीजी, ऐसा न कहो, तुम्हारा इसमें क्या दोष है?'


'सब मेरा ही दोष है। मैंने ही तुझे उनके सामने भेजा, हंसी की, और उनमें साहस उत्पन्न किया। पर मुझे क्या मालूम था कि विनोद को भी पापी व्यक्ति पाप के रूप में काम में लाता है।'


किशोरी कुछ न कहकर उठ खड़ी हुई।


'कुमुद ने कहा--'क्या जाती हो? अभी न जाने पाओगी।'


'क्यों?'


'क्या तुम मुझसे भी घृणा करती हो?'


'नहीं जीजी।' किशोरी की आंखों में आंसू भर आए।


'वैसा ही समझती हो?


'वैसा ही।


'तब अभी ठहरो, मैं तुम्हें साथ चलकर पहुंचा दूंगी।'


'अभी चलो जीजी।'


'ज़रा ठहर, एक और वचन लूंगी।'


'क्या?


'यह बात कभी किसी से न कहेगी, कभी भी।'


'न कहूंगी।' किशोरी ने उदास स्वर में कहा।


'और यहां बराबर उसी भांति आती रहेगी।'


किशोरी ने कातर दृष्टि से कुमुद को देखकर कहा--न, यह न होगा जीजी।'


'तब में जहर खाकर प्राण त्याग दूंगी।'


'ना जीजी, यह क्या कहती हो?'


'तुझे नित्य इसी भांति आना पड़ेगा।'


'परन्तु....।'


'मेरे दम में दम है, वहां तक कोई तुझे छू भी न सकेगा आंख उठाकर भी न देख सकेगा।'


'मैं आऊंगी जीजी।' किशोरी जोर से रोकर कुमुद से लिपट गई। कुमुद रोई नहीं। वह कुछ देर चुपचाप उसे छाती से लगाए खड़ी रही। इसके बाद उसने, उसे कुर्सी पर बैठाकर कहा---'अब यहीं नहा लें, फिर भोजन कर घर चलेंगे। मैं माता जी को कहलाए देती हूं।'


कुमुद ने यही किया। वकील साहब बिना भोजन किए ही कचहरी में भाग गए। कुमुद ने भी कुछ भोजन नहीं किया। किशोरी ने नाममात्र को खाया। इसके बाद कुमुद किशोरी के घर जाकर उसे छोड़ आई। उस दिन संध्या तक वह वहीं रही। चलती बार एकांत पाकर उसने किशोरी के पैर छूकर कहा---'किशोरी, मेरी इज्जत तेरे हाथ है। तूने वचन दिया है, पूरा करना।'


किशोरी ने कुमुद की गोद में मुंह छिपाकर कहा---'यह क्या कहती हो जीजी, प्राण जाएं पर वह बात मुंह से न निकलेगी।'


कुमुद ने व्याकुल दृष्टि से उसे ताकते हुए कहा---'उनसे साक्षात् होने पर तुझे उसी भांति बोलना और व्यवहार करना पड़ेगा जिस भांति अब तक करती रही है।'


किशोरी ने आंखों में आंसू भरकर कहा---'मैं करूंगी जीजी।'


कुमुद उसे छाती से लगा और प्यार करके घर चली आई।


रात को राजेश्वर साहस करके घर में आए। कुमुद फर्श पर बैठी कुछ फटा वस्त्र सी रही थी। वह सामने कुर्सी पर बैठकर अकारण ही हंसने लगे।


कुछ ठहरकर कुमुद ने कहा--'भोजन हुआ या नहीं, मैं ज़रा किशोरी के घर गई थी।'


'भोजन कर लिया।' वह फिर हंसने लगे।


कुमुद अपना वस्त्र सीती रही। उसने सीते-सीते ही कहा--'आप सुबह खाना बिना खाए ही क्यों चले गए थे?'


'भूख ही नहीं थी, फिर तुम्हारे तीखे नयनों का भी भय था।' वह फिर ही-ही करके हंसने लगे।


कुमुद ने वस्त्र और सूई एक तरफ रख दी। वह एक कुर्सी पर पति के सामने बैठ गई। उसने कहा--'आज बहुत हंसी आ रही है, इसका कारण क्या है?'


कुछ भी जवाब न देकर राजेश्वर जोर-जोर से हंसने लगे। इसके बाद वह कचहरी, मुवक्किल आदि की बहुत-सी फालतू बातें बक गए। कुमुद ने सहज-गंभीर स्वर में कहा--'सुबह की घटना का क्या कारण था?'


राजेश्वर सहम गए, परन्तु वह फिर ही-ही करके हंस दिए। उन्होंने कहा--'उसीने छेड़-छाड़ की थी।'


'उसने क्या किया था?'


'छेड़-छाड़।'


'अच्छा, फिर आपने क्या किया?'


'मैंने भी वही किया।' वह फिर ही-ही करके हंसने लगे।


'अर्थात्?'


'अर्थात्?' वह फिर हंसने लगे।


कुमुद ने कहा--'आपने भी छेड़छाड़ की।'


'की तो।'


'क्यों?'


कुमुद के प्रश्न का लहजा देखकर वकील साहब जरा सिट पिटाए। पर फिर उन्होंने हंसकर कहा--'मेरा क्या कसूर है, वह क्यों आई थी मेरे पास?'


'क्या आप समझते हैं कि वह इसीलिए आई थी?'


'इसीलिए आई होगी।' राजेश्वर पत्नी की आंखों से दृष्टि न मिला सके, वह इधर-उधर देखने लगे। चाह कर भी वह हंस न सके।


कुमुद ने अपने वस्त्र से पिस्तौल निकालकर धीरे से उसका घोड़ा दबाया। यह देख राजेश्वर का रोम-रोम कांप गया। वह कुर्सी से उछलकर खड़े हुए। उन्होंने चीखकर कहा--'यह क्या? क्या तुम मुझे गोली मारोगी?'


'अभी नहीं, मैं यह देख तो लूं, कसूर किसका था। जिसका कसूर होगा उसे ही गोली मारी जाएगी। हां श्रीमान् जी, कहिए, वह क्या इसीलिए आई थी?'


'मैं कैसे कह सकता हूं।'


'तब आपने यह कहा कैसे?'


राजेश्वर कुछ भी जवाब न दे सके। वह इधर-उधर ताकने लगे।


कुमुद ने खड़े होकर कहा--'बैठ जाइए श्रीमान्, आप ठीक-ठीक बताइए कि वह क्यों आई थी?'


'यह मैं नहीं जानता।'


'आप अवश्य जानते हैं।'


'मैं नहीं जानता।' उन्होंने क्रोध के स्वर में कहा।


'आप क्या इस समय क्रोध भी करने की हैसियत रखते हैं? कहिए, वह क्यों आई थी, सत्य कहिए, आप मेरे पति हैं, मैंने आपको देवता समझा है।'


'वह तुम्हें यमुना ले जाने के लिए आई थी।'


'तब आपने उसे छेड़़ा।'


राजेश्वर ने नीची गर्दन किए धीमे स्वर में कहा--'हां।'


'उसने क्या किया?


'मिन्नतें कीं, फिर भय से बेहोश हो गई।'


'आपने यह कुकर्म क्यों किया स्वामी?'


राजेश्वर चुपचाप कुमुद के मुख को ताकते रहे। वह बोल न सके।


कुमुद ने कहा--मेरा जीवन, गृहस्थ धर्म, पुण्य, सभी अकारथ हुआ। जिसे मैंने देवता समझकर पूजा, वह अब इतने दिन बाद पशु प्रमाणित हुआ।


राजेश्वर चुप बैठे रहे।


'कहिए स्वामिन्, मेरे पूज्य देवता, क्या मैने नित्य आपके पैरों की धूल मस्तक तक नहीं लगाई?'


राजेश्वर चुप रहे।


'क्या मैंने सदा आपकी परछाई को अपने समस्त प्राण और शरीर से अधिक पवित्र नहीं समझा?'


राजेश्वर फिर भी नहीं बोले। कुमुद ने फिर कहा--'क्या मैंने अनगिनत व्रत उपवास करके आपके जीवन, आपके प्राण, आपके व्यक्तित्व की रक्षा के लिए देवताओं से याचना नहीं की? क्या इस पृथ्वी पर आपके समान पवित्र, महान् सद्गुण-युक्त पुरुष मेरी दृष्टि में दूसरा है?'


राजेश्वर की आंखों में आंसू आकर बहने लगे। उनके होंठ हिले, पर वह कुछ न कह सके।


कुमुद के स्वर में दृढ़ता थी। उसने कहा--'श्रीमान् जी, क्या आपके घर आने पर किसी भले घर की बेटी की इज्जत की रक्षा भी सम्भव नहीं हो सकती? आपकी धर्मपत्नी से मिलने क्या किसी की बहू-बेटी का यहां आना इतना भयानक है? आप वकील हैं, प्रतिष्ठित हैं, विद्वान् हैं। लोग आपको सलाम करते हैं, आपको हुजूर कहकर पुकारते हैं, आपको बड़ा समझते हैं। आप एक जिम्मेदार सद्गृहस्थ हैं, पर क्या इन सब उत्तरदायित्व की बातों को आप पहचानते हैं? क्या कुमारी कन्याओं की माताएं आपकी पत्नी की पवित्रता पर विश्वास करके अपनी पुत्रियों को भेज देती हैं, तो यह उनकी भारी भूल नहीं? क्या आपका यह घर अति अपवित्र और सामाजिक जीवन का दुर्घट स्थान नहीं?'


राजेश्वर ने आवेश में आकर कहा--'कुमुद, तुम मुझे गोली मार दो अथवा पिस्तौल मुझे दो, मै स्वयं इन पतित प्राणों का अपहरण करूंगा। मुझे अब लज्जित न करो।'


कुमुद ने अति गम्भीर वाणी में कहा--'स्वामी, क्या कभी और कहीं भी आपने ऐसा पाप किया था?'


'नहीं कुमुद।'


'मन, वचन, कर्म से?'


'कभी नहीं कुमुद, क्या तुम विश्वास न करोगी, मैं विश्वास के योग्य नहीं रहा।'


वह कुर्सी को छोड़कर धरती पर बैठ गए और दोनों हाथों से मुंह ढककर रोने लगे।


कुमुद ने पिस्तौल स्वामी के आगे रखकर कहा--'इसमें अपराध मेरा है, आप मुझे गोली मार दीजिए। मैं स्वयं आत्मघात न कर सकूंगी।'


'तुम्हारा क्या अपराध है कुमुद?'


'मैंने ही इस पाप का बीज बोया। मर्यादा के विपरीत उस कन्या को हास्य में तुमसे परिचित कराया। तुम्हारा और उसका भी साहस बढ़ाया। परन्तु मुझे यह स्वप्न में भी कल्पना न थी कि पुरुष इतने पतित होते हैं। स्वामी, स्त्री एक ऐसी कोमल लता है, जो पुरुष-रूपी दृढ़ वृक्ष के सहारे लिपटी रहती है। पुरुष स्त्री के लिए आदर्श वस्तु है। स्त्रियां हर बात में पुरुष को श्रेष्ठ और आदर्श मानती हैं। पर पुरुष यदि आदर्श से इतने गिर जाएं, तो फिर जीवन के एकांत क्षण भी विनोद और सरस जीवन से रहित हो जाएं।'


'तुम सच कहती हो कुमुद। परन्तु इसी युक्ति के आधार पर मैं कहता हूं कि तुम अपराधिनी नहीं। यदि तुमने अपने दाम्पत्य- परिधि के विनोद में उस बालिका को सम्मिलित किया, तो इसमें तुम्हारा दोष न था। तुम मेरी पत्नी हो, यह मुझे समझना चाहिए था। वह तुम्हारी सखी है--उसकी मर्यादा का पालन तो मुझे करना था। कुमुद, मैं समझ गया। पतित मैं हूं। पाप तो मैंने किया है, परन्तु वह तुम्हें पापिन समझेगी।


'वह यही समझेगी कि यह चरित्रहीन स्त्री परायी बहू-बेटियों को सहेली बनाकर अपने पति से संश्लिष्ट कराती है। हाय, मैं यह कैसे सुन, सह सकूंगा कुमुद?'


'वही तो स्वामी। उत्तम है, तुम मेरा प्राण हरण करके स्वयं भी आत्मघात कर लो। पिस्तौल में तीन गोलियां हैं।'


कुछ देर राजेश्वर स्तब्ध बैठे रहे। इसके बाद उन्होंने कहा-- 'नहीं कुमुद, यह ठीक दण्ड न होगा। हमें प्राणनाश न करना चाहिए। क्या तुम विश्वास करती हो कि मेरी प्रवृत्ति बदल गई है। तुम्हारी सखी के प्रति मेरे भाव अब क्या हैं, यह भी जानती हो?


'हां।'


'और सदैव आजन्म संसार-भर की स्त्रियों के प्रति मेरे क्या भाव रहेंगे, यह भी समझ गई?


'समझ गई।'


'प्रिये, इस पाप का हम दोनों ही को प्रायश्चित करना


पाप होगा?


'कौन प्रायश्चित?


'अब सो रहो, सुबह कहूंगा।


'अच्छी बात है, एक अनुष्ठान जोड़ देना होगा।'


'वह क्या ?


'तीन वर्ष तक हम दोनों पृथक् कमरे में शयन करेंगे।'


'अच्छी बात है


'कभी स्पर्श न करेंगे।'


'अच्छा।


'यह बात कभी किसी पर किसी भांति प्रकट न की जाएगी।


यदि प्रकट हो गई, तो उसी दिन से शुरू करके फिर तीन वर्ष गिने जाएंगे।'


'अच्छा, कुमुद यही होगा।'


'हम लोग भूमि पर सोएंगे, एक वक्त भोजन करेंगे।'


'मंजूर है।'


'तब स्वामी, आज के मेरे इस अप्रिय व्यवहार पर दया कीजिए। जाइए, बाहर आपके शयन की उचित व्यवस्था हो जाएगी।'


राजेश्वर चुचाप चले गए।


होली का दिन था। कुमुद रसोई बना रही थी। एक थाल को आंचल से छिपाए किशोरी वहां पहुंच गई। वह बहूमूल्य गुलाबी साड़ी पहने थी। कुमुद के सामने वह खड़ी-खड़ी हंसने लगी। कुमुद ने उसे भोजन का निमन्त्रण दिया था। इतनी जल्द उसे आया देखकर उसने कहा-'इतनी भूखी हो ? अभी से आ गईं। अभी तो कुछ बना भी नहीं।'


'मैं बना लूंगी। परन्तु पहले इधर देखो।' उसने थाल की ओर इशारा किया।


'यह क्या है री?'


उसने थाल पर से आंचल हटाया। उसमें रोली, गुलाल, रंग और मिठाई थी। उसने लज्जा से लाल चेहरे को ऊपर उठाकर कहा--'मैं जीजाजी से होली खेलने आई हूं।'


'पागल हुई है क्या?'


'जो समझो। उन्हें बुला दो न।'


'इसकी जरूरत नहीं है, तू बैठ।'


'मैं स्वयं बुला लाती हूं।'


'नहीं, वह नहीं हो सकता।' कुमुद ने अत्यन्त रूखे स्वर में कहा। किशोरी की आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे। वह उसी भांति थाल लिए खड़ी रही।


उसकी आंखों में आंसू देख कुमुद रसोई छोड़, उठकर उसके पास आई। इसके आंसू पोंछकर कहा--'अरे, रोती क्यों है री पगली!'


'मैं होली खेलकर जाऊंगी। उस दिन तुमने क्या कहा था, जानती हो?' कुमुद ने क्षणभर किशोरी की ओर देखा, उसकी आंखें भर आईं। वह बिना उससे कुछ कहे राजेश्वर को बुला लाई। भीतर आकर राजेश्वर ने देखा, किशोरी चुपचाप थाल गोद में लिए खड़ी है। उसको शोभा, ओस से भीगे गुलाब के समान थी। उन्होंने मुस्कराकर कहा--'मामला क्या है?' बेवक्त की तलबी क्यों?'


'आपकी साली साहिबा होली खेलने आई हैं। जूता उतारकर भीतर आइए।'


राजेश्वर भीतर आकर चौकी पर बैठ गए। किशोरी ने सामने बैठ, थाल चौकी पर रख उनके माथे पर गुलाल लगा, रोली का टीका किया, फूलों की माला पहनाई, और आंचल गले में लपेट झुककर राजेश्वर के पैर छुए। फिर मुस्कराकर धीमे स्वर में कहा--'इसमें से कुछ मिठाई खाइए।'


राजेश्वर ने बलपूर्वक आंसू रोककर मिठाई का एक टुकड़ा खाया। इसके बाद सौ रुपये का नोट किशोरी की गोद में डाल थाल से अंजलि भर फूल उठा किशोरी पर बरसा दिए।


वह चले गए।


उनके होंठों पर हास्य और आंखों में आंसू भरे थे।


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