नाटक के पात्र
पुरुष
हुसैन-हज़रत अली के बेटे और हज़रत मोहम्मद के नवासे । इन्हें फ़र्ज़न्दे-रसूल,शब्बीर,भी कहा गया है।
अब्बास-हज़रत हुसैन के चचेरे भाई ।
अली अकबर-हजरत हुसैन के बड़े बेटे ।
अली असगर-हजरत हुसैन के छोटे बेटे ।
मुस्लिम-हज़रत हुसैन के चचेरे भाई ।
जुबेर-मक्का का एक रईस ।
वलीद-मदीना का नाज़िम ।
मरवान-वलीन का सहायक अधिकारी ।
हानी-कूफ़ा का एक रईस ।
यजीद-खलीफा ।
नुहाक,शम्स,सरजन रूमी-यजीद के मुसाहिन ।
जियाद-बसरे और कू के का नाज़िम ।
साद-यज़ीद की सेना का सेनापति ।
अब्दुल्लाह,वहब,कसीर,मुख्तार,हुर,जहीर,हबीब आदि हजरत हुसैन के सहायक ।
हज्जाज, हारिस, अशअस, कीसे, वलाल आदि यज़ीद के सहायक ।
साहसराय-अरब-निवासी एक हिन्दू ।
मुआबिया-यज़ीद का बेटा ।
स्त्रियाँ
जैनब-हुसैन की बहन ।
शहरबानू-हुसैन की स्त्री।
सकीना-हुसैन की बेटी।
क़मर-अब्दुल्लाह की स्त्री।
तौबा-फा की एक वृद्धा स्त्री।
हिन्दा-यजीद की बेगम ।
क़ासिद-सिपाही, जल्लाद आदि ।
पहला अंक
पहला दृश्य
{समय-नौ बजे रात्रि। यजीद, जुहाक, शम्स और कई दरबारी बैठे हुए हैं। शराब की सुराही और प्याला रखा हुआ है।}
यजीद– नगर में मेरी खिलाफ़त का ढिंढोरा पीट दिया गया?
जुहाल– कोई गली, कूचा, नाका, सड़क, मसजिद, बाजार, खानक़ाह ऐसा नहीं है, जहां हमारे ढिंढोरे की आवाज न पहुंची हो। यह आवाज़ वायुमंडल को चीरती हुई हिजाज, यमन, इराक, मक्का-मदीना में गूंज रही है और, उसे सुनकर शत्रुओं के दिल दहल उठे हैं।
यजीद– नक्क़ार्ची को खिलअत दिया जाये।
जुहाक– बहुत खूब अमीर!
यजीद– मेरी बैयत लेने के लिए सबको हुक्म दे दिया गया?
जुहाक– अमीर के हुक्म देने की जरूरत न थी। कल सूर्योदय से पहले सारा शाम बैयत लेने को हाजिर हो जायेगा।
यजीद– (शराब का प्याला पीकर) नबी ने शराब को हराम कहा है। यह इस अमृत-रस के साथ कितना घोर अन्याय है! उस समय के लिये निषेध सर्वथा उचित था, क्योंकि उन दिनों किसी को यह आनंद भोगने का अवकाश न था। पर अब वह हालत नहीं है। तख्त पर बैठे हुए खलीफ़ा के लिए ऐसी नियामत हराम समझने से तो यह कहीं अच्छा है कि वह खलीफ़ा ही न रहे। क्यों जुहाक, कोई कासिद मदीने भेजा गया?
जुहाक– अमीर के हुक्म का इंतजार था।
यजीद– जुहाक, कसम है अल्लाह की; मैं इस विलंब को कभी क्षमा नहीं कर सकता। फौरन कासिद भेजो और वलीद को सख्त ताकीद लिखो कि वह हुसैन से मेरे नाम पर बैयत ले। अगर वह इनकार करें, तो उन्हें कत्ल कर दे। इनमें जरा भी देर न होनी चाहिए।
जुहाक– या मौला! मेरी अर्ज़ है कि हुसैन क़बूल भी कर लें, तो भी उनका जिंदा रहना अबूसिफ़ियान के खानदान के लिये उतना ही घातक है, जितना किसी सर्प को मारकर उसके बच्चे को पालना। हुसैन जरूर दावा करेंगे।
यजीद– जुहाक, क्या तुम समझते हो कि हुसैन कभी मेरी बैयत क़बूल कर सकते हैं? यह मुहाल है, असंभव है। हुसैन कभी मेरी बैयत न लेगा, चाहे उसकी बोटियां काट-काटकर कौवों को खिला दी जाये। अगर तक़दीर पलट सकती है, अगर दरिया का बहाव उलट सकता है, अगर समय की गति रुक जाये पर हुसैन दावा नहीं कर सकता। उसके बैयत लेने का मतलब ही यही है कि उसे इस जहान से रूखसत कर दिया जाये। हुसैन ही मेरा दुश्मन है। मुझे और किसी का खौफ़ नहीं, मैं सारी दुनिया की फ़ौजों से नहीं डरता, मैं डरता हूं इसी निहत्थे हुसैन से। (प्याला भरकर पी जाता है) इसी हुसैन ने मेरी नींद, मेरा आराम हराम कर रखा है। अबूसिफ़ियान की संतान हाशिम के बेटों के सामने सिर न झुकाएगी। खिलाफ़त को मुल्लाओं के हाथों में फिर न जाने देंगे। इन्होंने छोटे-बड़े की तमीज उठा दी। हरएक दहकान समझता है कि मैं खिलाफ़त की मसनद पर बैठने लायक हूं, और अमीरों के दस्तर्खान पर खाने का मुझे हक है। मेरे मरहूम बाप ने इस भ्रांति को बहुत कुछ मिटाया, और आज खलीफ़ा शान व शौकत में दुनिया के किसी ताजदार से शर्मिंदा नहीं हो सकता। जूते सीनेवाले और रूखी रोटियां खाकर खुदा का शुक्रिया अदा करने वाले खलीफों के दिन गए।
जुहाक– खुदा न करे, वह दिन फिर आए।
अब्दुलशम्स– इन हाशिमियों से हमें उस्मान के खून का बदला लेना है।
यजीद– ख़जाना खोल दो और रियाया का दिल अपनी मुट्ठी में कर लो। रुपया खुदा के खौंफ को दिल से दूर कर देता है। सारे शहर की दावत करो। कोई मुज़ायका नहीं, अगर ख़जाना खाली हो जाये। हर एक सिपाही को निहाल कर दो और, अगर रियायतें करने पर भी कोई तुमसे खिंचा रहे, तो उसे कत्ल कर दो। मुझे इस वक्त रुपए की ताकत से धर्म और भक्ति को जीतना है।
{हिंदा का प्रवेश}
यजीद– हिंदा, तुमने इस वक्त कैसे तकलीफ की?
हिंदा– या अमीर! मैं आपकी खिदमत में सिर्फ इसलिए हाज़िर हुई हूं कि आपको इस इरादे से बाज़ रखूं। आपको अमीर मुआविया की कसम, अपने दीन की, अपनी नजात को, अपने ईमान को यों न खराब कीजिए। जिस नवी से आपने इस्लाम की रोशनी पाई, जिसकी जात से आपको यह रुतबा मिला, जिसने आपकी आत्मा को अपने उपदेशों से जगाया, जिसने आपको अज्ञान के गढ्ढे से निकालकर आफ़ताब के पहलू में बिठा दिया, उसी खुदा के भेजे हुए बुजुर्ग के नवासे का खून बहाने के लिए आप आमादा है!
यजीद– हिंदा, खामोश रहो।
हिंदा– कैसे खामोश रहूं। आपको अपनी आंखों से जहन्नुम के गार में गिरते देखकर खामोश नहीं रह सकती। आपको मालूम नहीं रसूल की आत्मा स्वर्ग में बैठी हुई आपके इस अन्याय को देखकर आपको लानत दे रही होगी और, हिसाब के दिन आप अपना मुंह उन्हें न दिखा सकेंगे। क्या नहीं जानते, आप अपनी नजात का दरवाजा बंद कर रहे हैं।
यजीद– हिंदा, ये मजहब की बातें मजहब के लिये हैं, दुनिया के लिये नहीं। मेरे दादा इस्लाम इसलिये कबूल किया था कि इससे उन्हें दौलत और इज्जत हाथ आती थी। नजात के लिये वह इस्लाम पर ईमान नहीं लाए थे, और न मैं ही इस्लाम को नजात का जामिन समझने को तैयार हूं।
हिंदा– अमीर, खुदा के लिये यह कुवाक्य मुंह से न निकालो। आपको मालूम है, इस्लाम ने अरब से अधर्म के अंधेरे को कितनी आसानी से दूर कर दिया। अकेले एक आदमी ने काफ़िरों का निशान मिटा दिया। क्या खुदा की मरजी बिना यह बात हो सकती थी? कभी नहीं। तुम्हें मालूम है कि रसूल हुसैन को कितना प्यार करते थे? हुसैन को वह कंधों पर बिठाते और अपनी नूरानी डाढ़ी को उनके हाथों से नुचवाते थे। जिस माथे को तुम अपने पैरों पर झुकाना चाहती हो, उसके रसूल बोसे लेते थे। हुसैन से दुश्मनी करके तुम अपने हक़ में कांटे बो रहो हो। खिलाफत उसकी है, जिसे पंच दे; यह किसी की मीरास नहीं है। तुम खुद मदीने जाओ, और देखो, कौन किस पर खिलाफ़त का बार रखती है। उसके हाथों पर बैयत लो। अगर कौम तुमको इन रुतबे पर बैठा दे, तो मदीने में रहकर शौक से इस्लाम का खिदमत करो। मगर खुदा के वास्ते यह हंगामा न उठाओ। (जाती है।)
यजीद– सरजून रूमी की बुला लो।
{ सरजून आकर आदाब बजा लाता है। }
यजीद– आपके वालिद मरहूम की खिदमत जितनी वफ़ादारी के साथ की, उसके लिये मैं आपका शुक्रगुजार हूं। मगर इस वक्त मुझे आपकी पहले से कहीं ज्यादा जरूरत है। बसरे की सूबेदारी के लिए आप किसे तजबीज करते हैं?
रूमी– खुदा अमीर, को सलामत रखे। मेरे खयाल में अब्दुल्लाह बिन जियाद से ज्यादा लायक आदमी आपको मुश्किल से मिलेगा। जियाद ने अमीर मुआविया की जो खिदमत की, वह मिटाई नहीं जा सकती। अब्दुल्लाह उसी बाप का बेटा और खानदान का उतना ही सच्चा गुलाम है। उसके पास फ़ौरन कासिद भेज दीजिए।
यजीद– मुझे जियाद के बेटे से शिकायत है कि उसने बसरेवालों के इरादों की मुझे इत्तिला नहीं दी और मुझे यकीन है कि बसरेवाले मुझसे बग़ावत कर जायेंगे।
रूमी– या अमीर, आपका जियाद पर शक करना बेज़ा है। आपके मददगार आपके पास खुद-ब-खुद न आएंगे। वह तलाश करने से, मिन्नत करने से रियासत करने से आएंगे। आप ही आप वे लोग आएंगे, जो आपकी जात से खुद फायदा उठाना चाहते हैं। इस मंसब के लिये जियाद से बेहतर आदमी आपको न मिलेगा।
यजीद– सोचूंगा। (शराब का प्याला उठाता है।) जुहाक! कोई गीत तो सुनाओ। जिसकी मिठास उस फ़िक्र को मिटा दे, जो इस वक्त मेरे दिल और जिगर पर पत्थर की चट्टान की तरह रखी हुई है।
जुहाक– जैसा हुक्म।
{ डफ बजाकर गाता है। }
गाना
सफ़ी थक के बैठे दवा करनेवाले,
उठे हाथ उठाकर दुआ, करनेवाले।
वफ़ा पर हैं। मरते वफ़ा करनेवाले।
ज़फ़ा कर रहे हैं ज़फ़ा करनेवाले।
बचाकर चले खाक से अपना दामन,
लहद पर जो गुजरी हवा करनेवाले।
किसी बात भी तक कायम नहीं है,
ये जालिम, सितमगर, दगा करनेवाले।
तअज्जुब नहीं है, जो अब जहन दे दें,
ये जिच हो गए हैं दवा करनेवाले।
समझ ले कि दुश्वार है राजदारी,
किसी का किसी से गिला करनेवाले
अभी है बुतों को खुदाई का दावा,
खुदा जाने और क्या करनेवाले।
दूसरा दृश्य
{ रात का समय– मदीने का गवर्नर वलीद अपने दरबार में बैठा हुआ है। }
वलीद– (स्वागत) मरवान कितना खुदगरज आदमी है। मेरा मातहत होकर भी मुझ पर रोब जमाना चाहता है। उसकी मर्जी पर चलता, तो आज सारा मदीना मेरा दुश्मन होता। उसने रसूल के खानदान से हमेशा दुश्मनी की है।
{कासिद का प्रवेश}
कासिद– या अमीर, यह खलीफ़ा यजीद का खत है।
वलीद– (घबराकर) खलीफ़ा यजीद! अमीर मुआविया को क्या हुआ?
कासिद– आपको पूरी कैफ़ियत इस खत से मालूम होगी।
(खत वलीद के हाथ में देता है।)
वलीद– (खत पढ़कर) अमीर मुआविया की रूह को खुदा जन्नत में दाखिल करे। मगर समझ में नहीं आता कि यजीद क्योंकर खलीफ़ा हुए। क़ौम के नेताओं की कोई की कोई मजलिस नहीं हुई, और किसी ने उनके हाथ पर बैयत नहीं ली। महीने-भर में यह खबर फैलेगी तो गजब हो जायेगा। हुसैन यजीद को कभी खलीफ़ा न मागेंगे।
कासिद– (दूसरा खत देकर) हुजूर इसे भी देख ले।
वलीद– (खत लेकर पढ़ता है) ‘‘वलीद, हाकिम मदीना को ताक़ीद की जाती है कि इस खत को देखते ही हुसैन मेरे नाम पर बैयत न ले, तो उन्हें कत्ल कर दें, और उनका सिर मेरे पास भेज दें।’’ (सर्द सांस लेकर फ़र्श पर लेट जाता है।)
कासिद– मुझे क्या हुक्म होता है?
वलीद– तुम जाकर बाहर ठहरो (दिल में) खुदा वह दिन न लाए कि मुझे रसूल के नवासे के साथ यह घृणित व्यवहार करना पड़े। वलीद इतना बेदीन नहीं है। खुदा रसूल को इतना नहीं भूला है मेरे हाथ गिर पड़े इसके पहले कि मेरी तलवार हुसैन की गर्दन पर पड़े। काश, मुझे मालूम होता है अमीर मुआविया की मौत इतनी नज़दीक है, उसकी आंखें बंद होते ही मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा, तो पहले ही इस्तीफा देकर चला जाता। मरवान की सूरत देखने को जी नहीं चाहता, मगर इस वक्त उसकी मर्जी के खिलाफ। काम करना अपनी मौत को बुलाना है। वह रत्ती-रत्ती खबर यजीद के पास भेजेगा। उसके सामने मेरी कुछ भी न सुनी जायेगी। ऐसा अफ़सर, जो मातहतों से डरे, मातहत से भी बदतर है। जिस वजीर का गुलाम बादशाह का विश्वासपात्र हो, उसके लिये जंगल से ऊँट चराना उससे हजार दर्जे बेहतर है कि वह वजीर की मसनद पर बैठे।
(गुलाम को बुलाता है)
गुलाम– अमीर क्या हुक्म फ़र्माते हैं?
वलीद– जाकर मरवान को बुला ला।
गुलाम– जो हुक्म।
(जाता है।)
वलीद– (दिल में) हुसैन कितना नेक आदमी है। उसकी जबान से कभी किसी की बुराई नहीं सुनी। उसने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। उससे मैं क्योंकर बैयत लूंगा।
(मरवान का प्रवेश)
मरवान– इतनी रात गए मुझे आप न बुलाया करें। मेरी जान इतनी सस्ती नहीं है कि बागियों को इस पर छिपकर हमला करने का मौका दिया जाये।
वलीद– तुम्हारा बर्ताव ही क्यों ऐसा हो कि तुम्हारे ऊपर किसी कातिल की तलवार उठे। अभी-अभी कासिद मुआबिया की मौत की खबर लाया है, और यजीद का यह खत भी आया है। मुझे तुमसे इसकी बाबत सलाह लेनी है।
(खत देता है)
मरवान– (खत पढ़कर) आह! मुआबिया, तुमने बेवक्त वफ़ात पाई। तुम्हारा नाम तारीख में हमेशा रोशन रहेगा। तुम्हारी नेकियों को याद करके लोग बहुत दिनों तक रोएंगे। यजीद ने खिलाफत अपने हाथ में ले ली, यह बहुत ही मुनासिब हुआ। मेरे ख़याल में हुसैन को इसी वक्त बुलाना चाहिए।
वलीद– तुम्हारे खयाल में बैयत ले लेंगे?
मरवान– गैरमुमकिन। उनसे बैयत लेना उन्हें कत्ल करने को कहना है। मगर अभी मुआबिया के मरने की खबर मशहूर न होनी चाहिए।
वलीद– इस मामले पर गौर करो।
मरवान– गौर की जरूरत नहीं, मैं आपकी जगह होता, तो बैयत का जिक्र ही न करता। फौरन कत्ल कर डालता। हुसैन के जिंदा रहते हुए यजीद को कभी इतमीनान नहीं हो सकता। यह भी याद रखिए कि मुआबिया के मरने की खबर फैल गई, तो न हमारी जान सलामत रहेगी, न आपकी। हुसैन से आपका कितना ही दोस्ताना हो, लेकिन वही हुसैन आपका जानी दुश्मन हो जायेगा।
वलीद– तुम्हें उम्मीद है कि वह इस वक्त यहाँ आएंगे। उन्हें शुबहा हो जायेगा।
मरवान– आपके ऊपर हुसैन का इतना भरोसा है, तो इस वक्त भी आएंगे। मगर आपकी तलवार तेज और खून गर्म रहना चाहिए। यही कारगुजारी का मौका है। अगर हम लोगों ने इस मौके पर यजीद की मदद की, तो कोई शक नहीं कि हमारे इक़बाल का सितारा रोशन हो जायेगा।
वलीद– मरवान, मैं यजीद का गुलाम नहीं, खलीफ़ा का नौकर हूं, और खलीफ़ा वही है, जिसे क़ौम चुनकर मसनद पर बिठा दे। मैं अपने दीन और ईमान का खून करने से यह कही बेहतर समझता हूं कि कुरान पाक की नकल करके जिंदगी बसर करूं।
मरवान– या अमीर, मैं आपको यजीद के गुस्से से होशियार किए देता हूं। मेरी और आपकी भलाई इसी मैं है कि यजीद का हुक्म बजा लाएं। हमारा काम उनको बंदगी करना है, आप दुविधा में न पड़ें। इसी वक्त हुसैन को बुला भेजें।
(गुलाम को पुकारता है)
गुलाम– या अमीर, क्या हुक्म है?
मरवान– जाकर हुसैन बिन अली को बुला ला। दौड़ते जाना और कहना कि अमीर आपके इंतजार में बैठे हैं।
(गुलाम चला जाता है)
तीसरा दृश्य
(रात का वक्त– हुसैन अब्बास मसजिद में बैठे बातें कर रहे हैं। एक दीपक जल रहा है।)
हुसैन– मैं जब ख़याल करता हूं कि नाना मरहूम ने तनहा बड़े-बड़े सरकश बादशाहों को पस्त कर दिया, और इतनी शानदार खिलाफत कायम कर दी, तो मुझे यकीन हो जाता है कि उन पर खुदा का साया था। खुदा की मदद के बग़ैर कोई इंसान यह काम न कर सकता था। सिकंदर की बादशाहत उसके मरते ही मिट गई, क़ैसर को बादशाहत उसकी जिंदगी के बाद बहुत थोड़े दिनों तक कायम रही, उन पर खुदा का साया न था, वह अपनी हवस की धुन में क़ौमों को फ़तह करते हैं। नाना ने इस्लाम के लिए झंड़ा बुलंद किया, इसी से वह कामयाब हुआ।
अब्बास– इसमें किसको शक हो सकता है कि वह खुदा के भेजे हुए थे। खुदा की पनाह, जिस वक्त हज़रत ने इस्लाम की आवाज उठाई थी, इस मुल्क में अज्ञान का कितना गहरा अंधकार छाया हुआ। वह खुदा की ही आवाज़ थी, जो उनके दिल में बैठी हुई बोल रही थी, जो कानों में पड़ते ही दिलों में गुजर जाती थी। दूसरे मजहब वाले कहते है, इस्लाम ने तलवार की ताकत से अपना प्रचार किया। काश, उन्होंने हज़रत की आवाज सुनी होती! मेरा तो दावा है कि कुरान में एक आयत भी ऐसी नहीं है, जिसकी मंशा तलवार से इस्लाम का फैलाना हो।
हुसैन– मगर कितने अफ़सोस की बात है कि अभी से कौम ने उनकी नसीहतों को भूलना शुरू किया, और वह नापाक, जो उनकी मसनद पर बैठा हुआ है, आज खुले बंदो शराब पीता है।
(गुलाम का प्रवेश)
गुलाम– नबी के बेटे पर खुदा की रहमत हो। अमीर ने आपको किसी बहुत जरूरी काम के लिये तलब किया है।
अब्बास– यह वक्त वलीद के दरबार का नहीं है।
गुलाम– हुजूर, कोई खास काम है।
हुसैन– अच्छा तू जा। हम घर जाने लगेंगे तो उधर से होते हुए जायेगें।
(गुलाम चला जाता है)
अब्बास– भाई! मुझे तो इस बेवक्त की तलबी से घबराहट हो गई है। यह वक्त वलीद के इजलास का नहीं है। मुझे दाल में कुछ काला नजर आता है। आप कुछ कयास कर सकते हैं कि किसलिये बुलाया होगा।
हुसैन– मेरा दिल तो गवाही देता है कि मुआबिए ने वफ़ात पाई।
अब्बास– तो वलीद ने आपको इसलिए बुलाया होगा कि आपसे यजीद की बैयत ले।
हुसैन– मैं यजीद की बैयत क्यों करने लगा। मुआबिया ने भैया इमाम हसन के साथ कसम खाकर शर्त की थी कि वह अपने मरने के बाद अपनी औलाद में किसी को खलीफ़ा न बनायेगा। हुसैन के बाद खिलाफत पर मेरा हक है। अगर मुआबिया मर गया है, और यजीद को खलीफ़ा बनाया गया है, तो उसने मेरे साथ और इस्लाम के साथ दग़ा की है। यजीद शराबी है, बदकार है, झूठा है, बेदीन है, कुत्तों को गोद में लेकर बैठता है। मेरी जान भी जाये, तो क्या, पर मैं उसकी बैयत न अख्तियार करूंगा।
अब्बास– मामला नाजुक है। यजीद की जात से कोई बात बईद नही। काश, हमें मुआबिया की बीमारी और मौत की खबर पहले ही मिल गई होती!
(गुलाम का फिर प्रवेश)
गुलाम– हुजूर तशरीफ नहीं लाए, अमीर आपके इंतजार में बैठे हुए हैं।
हुसैन– तुफ़ है मुझ पर! तू वहां पर गया भी कि रास्ते से ही लौट आया? चल, मैं अभी आता हूं। तू फिर न आना।
गुलाम– हुजूर, अमीर से जाकर जब मैंने कहा कि वह अभी आते हैं, तो वह चुप हो गए, लेकिन मरवान ने कहा कि वह कभी न आएंगे, आपसे दावा कर रहे हैं। इस पर अमीर उनसे बहुत नाराज हुए और कहा– हुसैन कौल के पक्के हैं, जो कहते हैं, उसे पूरा करते हैं।
हुसैन– वलीद शरीफ़ आदमी है। तुम जाओ, हम अभी आते हैं।
(गुलाम चला जाता है।)
अब्बास– आप जायेंगे?
हुसैन– जब तक कोई सबब न हो, किसी की नीयत पर शुबहा करना मुनासिब नहीं।
अब्बास– भैया, मेरी जान आप पर फ़िदा हो। मुझे डर है कि कहीं वह आपको कैद न कर ले।
हुसैन– वलीद पर मुझे एतबार है। आबूसिफ़ियान की औलाद होने पर भी वह शरीफ और दीनदार है।
अब्बास– आप एतबार करें, लेकिन मैं आपको वहां जाने की हरगिज सलाह न दूंगा। इस सन्नाटे में अगर उसने कोई दग़ा की, तो कोई फर्याद भी न सुनेगा। आपको मालूम है कि मरवान कितना दग़ाबाज और हरामकार है। मैं उसके साए से भी भागता हूं। जब तक आप मुझे, यह इतमीनान न दिला दीजिएगा कि दुश्मन यहां आपका बाल बांका न कर सकेगा, मैं आपका दामन न छोड़ूगा।
हुसैन– अब्बास, तुम मेरी तरफ से बेफ़िक्र रहो, मुझे हक़ पर इतना यकीन है, और मुझमें हक की इतनी ताकत है कि मेरी बात और वलीद तो क्या, यजीद की सारी फ़ौज भी मुझे नुकसान नहीं पहुंचा सकती। यकीन है कि मेरी एक आवाज पर हजारों खुदा के बंदे और रसूल के नाम पर मिटने वाले दौड़ पड़ेंगे और, अगर कोई मेरी आवाज न सुने, तो भी मेरी बाजुओं में इतना बल है कि मैं अकेले उनमें से एक सौ को जमीन पर सुला सकता हूं। हैदर का बेटा ऐसे गीदड़ों से नहीं डर सकता। आओ, जरा नाना की कब्र की जियारत कर लें।
(दोनों हज़रत मुहम्मद की कब्र के सामने खड़े हो जाते हैं, हाथ बांधकर दुआ पढ़ते हैं, और मसजिद से निकलकर घर की तरफ चलते हैं।)
चौथा दृश्य
(समय– रात। वलीद का दरबार। वलीद और मरवान बैठे हुए हैं।)
मरवान– अब तक नहीं आए! मैंने आपसे कहा न कि वह हरगिज नहीं आएंगे।
वलीद– आएंगे, और जरूर आएंगे। मुझे उनके कौल पर पूरा भरोसा है।
मरवान– कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि उन्हें अमीर की वफ़ात की खबर लग गई हो, और वह अपने साथियों को जमा करके हमसे जंग करने आ रहे हों।
(हुसैन का प्रथम वलीद सम्मान के भाव से खड़ा हो जाता है, और दरवाजे पर आकर हाथ मिलाता है। मरवान अपनी जगह पर बैठा रहता है।)
हुसैन– खुदा की तुम पर रहमत हो। (मरवान को बैठे देखकर) मेल फूट और प्रेम द्वेष से बहुत अच्छा है। मुझे क्यों याद किया हैं?
वलीद– इस तकलीफ के लिये माफ़ कीजिए, आपको यह सुनकर अफ़सोस होगा कि अमीर मुआबिया ने वफ़ात पाई।
मरवान– और खलीफ़ा यजीद ने हुक्म दिया है कि आपसे उनके नाम की बैयत ली जाये।
हुसैन– मेरे नजदीक यह मुनासिब नहीं है कि मुझ-जैसा आदमी छुपे-छुपे बैयत ले। यह न मेरे लिए मुनासिब है, और न यजीद के लिए काफी। बेहतर है, आप एक आम जलसा करें, और शहर के सब रईसों और आलिमों को बुलाकर यजीद की बैयत का सवाल पेश करें। मैं भी उन लोगों के साथ रहूंगा, और उस वक्त सबके पहले जवाब देने वाला मैं हूंगा।
वलीद– मुझे आपकी सलाह माकूल होता है। बेशक, आपके बैयत लेने से वह नतीजा न निकलेगा, जो यजीद की मंशा है। कोई कहेगा कि आपने बैयत ली, और कोई कहेगा कि नहीं। और, इसकी तसदीक करने में बहुत वक्त लगेगा। तो जलसा करूं?
मरवान– अमीर, मैं आपको खबरदार किए देता हूं कि इनकी बातों में न आइए। बग़ैर बैयत लिए इन्हें यहां से न जाने दीजिए, वरना इनसे उस वक्त तक बैयत न ले सकेंगे, जब तक खून की नदी न बहेगी। यह चिनगारी की तरह उड़कर सारी खिलाफ़त में आग लगा देंगे।
वलीद– मरवान, मैं तुमसे मिन्नत करता हूं, चुप रहो।
मरवान– हुसैन, मैं खुदा को गवाह करके कहता हूं कि मैं आपका दुश्मन नहीं हूं। मेरी दोस्ताना सलाह यह है कि आप यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए ताकि आपको कोई नुकसान न पहुंचे। आपस का फ़साद मिट जाये और हजारों खुदा के बंदो की जानें बच जाएं। खलीफ़ा आपके बैयत की खबर सुनकर बेहद खुश होंगे, और आपके साथ ऐसे सलूक करेंगे कि खिलाफ़त में कोई आदमी आपकी बराबरी न कर सकेगा। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि आपकी जागीरें और वजीफ़े दोचंद करा दूंगा और आप मदीने में इज्जत के साथ रसूल के कदमों से लगे हुए दीन और दुनिया में सुर्खरू होकर जिंदगी बसर करेंगे।
हुसैन– बस करो मरवान, मैं तुम्हारी दोस्ताना सलाह सुनने के लिए नहीं आया हूं। तुमने कभी अपनी दोस्ती का सबूत नहीं दिया, और इस मौके पर तुम्हारी सलाह को दोस्ताना न समझकर दगा समझू, तो मेरा दिल और मेरा खुदा मुझसे नाखुश न होगा। आज इस्लाम इतना कमजोर हो गया है कि रसूल का बेटा यजीद को बैयत लेने के लिए मजबूर हो!
मरवान– उनकी बैयत से आपको क्या एतराज है!
हुसैन– इसलिए कि वह शराबी झूठा, दग़ाबाज, हरामकार और जालिम है। वह दीन के आलिमों की तौहीन करता है। जहां जाता है, एक गधे पर एक बंदर को आलिमों के कपड़े पहनकर साथ ले जाता है। मैं ऐसे आदमी की बैयत अख्तियार नहीं कर सकता।
मरवान– या अमीर, आप इनसे बैयत लेंगे या नहीं?
हुसैन– मेरी बैयत किसी के अख्तियार में नहीं है।
मरवान– कसम खुदा की, आप बैयत कबूल किए बिना नहीं जा सकते। मैं तुम्हें यहीं कत्ल कर डालूंगा। (तलवार खींचकर बढ़ता है)
हुसैन– (डपटकर) तू मुझे कत्ल करेगा, तुझमें इतनी हिम्मत नहीं है! दूर रह। एक कदम भी आगे रखा, तो तेरा नापाक सिर जमीन पर होगा।
(अब्बास ३० सशस्त्र आदमियों के साथ तलवार खींचे हुए घुस आते हैं।)
अब्बास– (मरवान की तरफ झपटकर) मलऊन, यह ले; तेरे लिए दोज़ख का दरवाजा खुला हुआ है।
हुसैन– (मरवान के सामने खड़े होकर) अब्बास, तलवार म्यान में करो। मेरी लड़ाई मरवान से नहीं, यजीद से है। मैं खुश हूं कि यह अपने आका का ऐसा वफ़ादार ख़ादिम है।
अब्बास– इस मरदूद की इतनी हिम्मत कि आपके मुबारक जिस्म पर हाथ उठाए! क़सम खुदा की, इसका खून पी जाऊंगा।
हुसैन– मेरे देखते ही नहीं, मुसलमान पर मुसलमान का खून हराम है।
वलीद– (हुसैन से) मैं सख्त नादिम हूं कि मेरे सामने आपकी तौहीन हुई। खुदा इसका अंजाम मुझे दे।
हुसैन– वलीद, मेरी तक़दीर में अभी बड़ी-बड़ी सख्तियां झेलनी बदी हैं। यह उस माके की तमहीद है, जो पेश आने वाला है। हम और तुम शायद फिर न मिलें इसलिए रुखसत। मैं तुम्हारी मुरौवत और भलमनसी को कभी न भूलूंगा। मेरी तुमसे सिर्फ इतनी अर्ज है कि मेरे यहां से जाने में जरा भी रोकटोक न करना।
(दोनों गले मिलकर विदा होते हैं। अब्बास और तीसों आदमी बाहर चले जाते हैं।)
मरवान– वलीद, तुम्हारी बदौलत मुझे यह जिल्लत हुई।
वलीद– तुम नाशुक्र हो। मेरी बदौलत तुम्हारी जान बच गई, वरना तुम्हारी लाश फर्श पर तड़पती नज़र आती।
मरवान– तुमने यजीद की खिलाफत यजीद से छीनकर हुसैन को दे दी। तुमने आबूसिफ़ियान की औलाद होकर उसके खानदान से दुश्मनी की। तुम खुदा की दरगाह में उस क़त्ल और खून के जिम्मेदार होगे, जो आज को ग़फलत या नरमी का नतीजा होगा।
(मरवान चला जाता है)
पाँचवाँ दृश्य
(समय– आधी रात। हुसैन और अब्बास मसजिद के सहन में बैठे हुए हैं।)
अब्बास– बड़ी ख़ैरियत हुई, वरना मलऊन ने दुश्मनों का काम ही तमाम कर दिया था।
हुसैन– तुम लोगों की जतन बड़े मौक़े पर आई। मुझे गुमान न था कि ये सब मेरे साथ इतनी दगा करेंगे। मगर यह जो कुछ हुआ, आगे चलकर इससे भी ज्यादा होगा। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि हमें अब चैन से बैठना नसीब न होगा। मेरा भी वही हाल होनेवाला है, जो भैया इमाम हसन का हुआ।
अब्बास– खुदा न करे, खुदा न करे।
हुसैन– अब मदीने में हम लोगों का रहना कांटे पर पांव रखना है। भैया; शायद नबियों की औलाद शहीद होने ही के लिये पैदा होती है। शायद नबियों को भी होनहार की खबर नहीं होती, नहीं तो क्या नाना की मसनद पर वे लोग बैठते, जो इस्लाम के दुश्मन हैं, और जिन्होंने सिर्फ अपनी ग़रज पूरी करने के लिये इस्लाम का स्वांग भरा है। मैं रसूल ही से पूछता हूं कि वह मुझे क्या हुक्म देते हैं? मदीने ही में रहूं या कहीं और चला जाऊँ? (हज़रत मुहम्मद की कब्र पर आकर) ऐ खुदा, यह तेरे रसूल मुहम्मद की खाक है, और मैं उनकी बेटी का बेटा हूं। तू मेरे दिल का हाल जानता है। मैंने तेरी और तेरे रसूल की मर्जी पर हमेशा चलने की कोशिश की है। मुझ पर रहम कर और उस पाक नबी के नाते, जो इस कब्र में सोया हुआ है, मुझे हिदायत कर कि इस वक्त मैं क्या करूं?
(रोते हैं, और क़ब्र पर सिर रखकर बैठ जाते हैं। एक क्षण में चौंककर उठ बैठते हैं।)
अब्बास– भैया, अब यहां से चलो। घर के लोग घबरा रहे होंगे।
हुसैन– नहीं अब्बास, अब मैं लौटकर घर न जाऊंगा। अभी मैंने ख्वाब देखा कि नाना आए हैं, और मुझे छाती से लगाकर कहते है– ‘‘बहुत थोड़े दिनों में तू ऐसे आदमियों के हाथों शहीद होगा, जो अपने को मुसलमान कहते होंगे, और मुसलमान न होंगे। मैंने तेरी शहादत के लिये कर्बला का मैदान चुना है, उस वक्त तू प्यासा होगा, पर तेरे दुश्मन तुझे एक बूंद पानी न देंगे। तेरे लिये यहां बहुत ऊंचा रुतबा रखा गया है, पर वह रुतबा शहादत के बग़ैर हासिल नहीं हो सकता।’’ यह कहकर नाना गायब हो गए।
अब्बास– (रोकर) भैया, हाय भैया, यह ख्वाब या पेशीनगोई?
(मुहम्मद हंफ़िया का प्रवेश)
मुहम्मद– हुसैन, तुमने क्या फ़ैसला किया?
हुसैन– खुदा की मर्जी है कि मैं कत्ल किया जाऊं।
मुहम्मद– खुदा की मरजी खुदा ही जानता है। मेरी सलाह तो यह है कि तुम किसी दूसरे शहर चले जाओ, और वहां से अपने कासिदों को उस जवार में भेजो। अगर लोग तुम्हारी बैयत मंजूर कर लें, तो खुदा का शुक्र करना, वरना यों भी तुम्हारी आबरू क़ायम रहेगी। मुझे खौफ़ यही है कि कहीं तुम ऐसी जगह न जा फंसो, जहां कुछ लोग तुम्हारे दोस्त हों, और कुछ तुम्हारे दुश्मन। कोई चोट बगली घूंसों की तरह नहीं होती, कोई सांप इतना कातिल नहीं होता, जितना आस्तीन का, कोई कान इतना तेज नहीं होता, जितना दीवार का, और कोई दुश्मन इतना ख़ौफनाक नहीं होता, जितनी दग़ा। इससे हमेशा बचते रहना।
हुसैन– आप मुझे कहां जाने की सलाह देते हैं?
मुहम्मद– मेरे ख़याल में मक्का से बेहतर कोई जगह नहीं है। अगर क़ौम ने तुम्हारी बैयत मंजूर की, तो पूछना ही क्या? वर्ना पहाड़ियों की घाटियां तुम्हारे लिये क़िलों का काम देंगी, और थोडे-से मददगारों के साथ तुम आजादी से जिंदगी बसर करोगे। खुदा चाहेगा, तो लोग बहुत जल्द यजीद के बेजार होकर तुम्हारी पनाह में आएंगे।
हुसैन– अजीजों को यहां छोड़ दूं?
मुहम्मद– हरगिज नहीं। सबको अपने साथ ले जाओ।
हुसैन– यहां की हालत से मुझे जल्द-जल्द इत्तिला देते रहिएगा।
मुहम्मद– इसका इतमीनान रखो।
(मुहम्म्द हुसैन से गले मिलकर जाते हैं।)
अब्बास– भैया, अब तो घर चलिए, क्या सारी रात जागते रहिएगा?
हुसैन– अब्बास, मैं पहले ही कह चुका कि लौटकर घर न जाऊंगा।
अब्बास– अगर आपकी इजाज़त हो, तो मैं भी कुछ अर्ज करूं: आप मुझे अपना सच्चा दोस्त समझते हैं या नहीं?
हुसैन– खुदा पाक की क़सम, तुमसे ज्यादा सच्चा दोस्त दुनिया में नहीं है।
अब्बास– क्यों न आप इस वक्त यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए? खुदा कारसाज है, मुमकिन है, थोड़े दिनों में यजीद खुद ही मर जाये, तो आपको खिलाफत आप-ही-आप मिल जायेगी। जिस तरह आपने मुआबिया के जमाने में सब्र किया, उसी तरह यजीद को भी सब्र के साथ काट दीजिए। यह भी मुमकिन है कि थोड़े ही दिनों में यजीद से तंग लोग बगावत कर बैठे, और आपके लिये मौका निकल आए। सब्र सारी मुश्किलों को आसन कर देता है।
हुसैन– अब्बास, यह क्या कहते हो? अगर मैं खौफ़ से यजीद को बैयत क़बूल कर लूं, तो इस्लाम का मुझसे बड़ा दुश्मन और कोई न होगा। मैं रसूल को, वालिद को, भैया हसन को क्या मुंह दिखाऊंगी! अब्बाजान ने शहीद होना कबूल किया, पर मुआबिया की बैयत न मंजूर की। भैया ने भी मुआबिया की बैयत को हराम समझा, तो मैं क्यों खानदान में दाग़ लगाऊं? इज्जत की मौत बेइज्जती की जिंदगी से कहीं अच्छी है।
अब्बास– (विस्मित होकर) खुदा की कसम, यह हुसैन की आवाज नहीं रसूल की आवाज़ है, और ये बातें हुसैन की नहीं, अली की हैं। भैया! आपको खुदा ने अक्ल दी है, मैं तो आपका खादिम हूं, मेरी बातें आपको नागवार हुई हों, तो माफ़ करना।
हुसैन– (अब्बास को छाती से लगाकर) अब्बास, मेरा खुदा मुझसे नाराज हो जाये, अगर मैं तुमसे जरा भी मलाल रखूं। तुमने मुझे जो सलाह दी, वह मेरी भलाई के लिये दी। इसमें मुझे जरा भी शक नहीं। मगर तुम इस मुग़ालते में हो कि यजीद के दिल की आग मेरे बैयत ही से ठंडी हो जायेगी, हालांकि यजीद ने मुझे कत्ल करने का यह हीला निकाला है। अगर वह जानता कि मैं बैयत ले लूंगा, तो वह कोई और तदबीर सोचता।
अब्बास– अगर उसकी यह नीयत है, तो कलाम पाक की कसम, मैं आपके पसीने की जगह अपना खून बहा दूंगा, और आपसे आगे बढ़कर इतनी तलवारें चलाऊंगा कि मेरे दोनों हाथ कटकर गिर जायें।
(जैनबू, शहरबानू और घर के अन्य लोग आते हैं।)
जैनब– अब्बास, बातें न करो। (हुसैन से) भैया, मैं आपके पैरों पड़ती हूं। आप यह इरादा तर्क कर दीजिए, और मदीने में रसूल की कब्र से लगे हुए जिंदगी बसर कीजिए, और अपनी गर्दन पर इस्लाम की तबाही का इल्जाम न लीजिए।
हुसैन– जैनब ऐसी बातों पर तुफ़ है। जब तक ज़मीन और आसमान कायम है, मैं यजीद की बैयत नहीं मंजूर कर सकता। क्या तुम समझती हो कि मैं गलती पर हूं?
जैनब– नहीं भैया, आप ग़लती पर नहीं है। अल्लाहताला अपने रसूल के बेटे को गलत रास्ते पर नहीं ले जा सकता, अगर आप जानते हैं कि ज़माने का रंग बदला हुआ है। ऐसा न हो, लोग आपके खिलाफ़ उठ खड़े हों।
हुसैन– बहन, इंसान सारी दुनिया के ताने बर्दाश्त कर सकता है, पर अपने ईमान का नहीं। अगर तुम्हारा यह ख़याल है कि मेरी बैयत न लेने से इस्लाम में तफ़र्खा पड़ जायेगा, तो यह समझ लो कि इत्तिफ़ाक कितनी ही अच्छी चीज़ हो, लेकिन रास्ती उससे कहीं अच्छी है। रास्ती को छोड़कर मेल को कायम रखना वैसा ही है, जैसा जान निकल जाने के बाद जिस्म क़ायम रखना। रास्ती क़ौम की जान है, उसे छोड़कर कोई क़ौम बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह सकती। इस बारे में मैं अपनी राय कायम कर चुका, अब तुम लोग मुझे रुखसत करो। जिस तरह मेरी बैयत से इस्लाम का बक़ार मिल जायेगा, उसी तरह मेरी शहादत से उसका बक़ार कायम रहेगा। मैं इस्लाम की हुरमत पर निसार हो जाऊंगा।
शहरबानू– (रोकर) क्या आप हमें अपने कदमों से जुदा करना चाहते हैं?
अली अकबर– अब्बाजान, अगर शहीद ही होना है, तो हम भी वह दर्जा क्यों न हासिल करें?
मुस्लिम– या अमीर, हम आपके क़दमों पर निसार होना ही अपनी जिंदगी का हासिल समझते हैं। आप न ले जायेंगे, तो हम जबरन आपके साथ चलेंगे।
अली असगर– अब्बा, मैं आपके पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़ता था। आप यहां छोड़ देंगे, तो मैं नमाज कैसे पढ़ूंगा?
जैनब– भैया, क्या कोई उम्मीद नहीं? क्या मदीने में रसूल के बेटे पर हाथ रखनेवाला, रसूल की बेटियों की हुरमत पर जान देनेवाला, हक़ पर सिर काटने वाला कोई नहीं है? इसी शहर से वह नूर फैला, जिससे सारा जहान रोशन हो गया। क्या वह हक़ की रोशनी इतनी जल्द गायब हो गई? आप यहीं से हिजाज़ और यमन की तरफ़ कासिदों को क्यों नहीं रवाऩा फ़रमाते?
हुसैन– अफ़सोस है जैनब, खुदा को कुछ और ही मंजूर है। मदीने में हमारे लिये अब अमन नहीं है। यहां अगर हम आजादी से खड़े हैं, तो यह वलीद की शराफत है; वरना यजीद की फ़ौजों में हमको घेर लिया होता। आज मुझे सुबह होते-होते यहां से निकल जाना चाहिए। यजीद को मेरे अजीजों से दुश्मनी नहीं, उसे खौफ़ सिर्फ़ मेरा है। तुम लोग मुझे यहां से रुखसत करो। मुझे यकीन है कि यजीद तुम लोग को तंग न करेगा। उसके दिल में चाहे न हो, मगर मुसलमान के दिल में ग़ैरत बाकी है। वह रसूल की बहू-बेटियों की आबरू लुटते देखेंगे, तो उनका खून जरूर गर्म हो जायेगा।
जैनब– भैया, यह हरगिज़ न होगा। हम भी आपके साथ चलेंगी। अगर इस्लाम का बेटा अपनी दिलेरी से इस्लाम का वकार कायम रखेगा, तो हम अपने सब्र से, जब्त से और बरदाश्त से उसकी शान निभाएंगे। हम पर जिहाद हराम है, लेकिन हम मौका पड़ने पर मरना जानती हैं। रसूल पाक की कसम, आप हमारी आँखों में आँसू न देखेंगे, हमारे लबों से फ़रियाद न सुनेंगे, और हमारे दिलों से आह न निकलेगी। आप हक़ पर जान देकर इस्लाम की आबरू रखना चाहते हैं, तो हम भी एक बेदीन और बदकार की हिमायत में रहकर इस्लाम के नाम पर दाग़ लगाना नहीं चाहती।
(सिपाहियों का एक दस्ता सड़क पर आता दिखाई पड़ता है)
हुसैन– अब्बास, यजीद के आदमी हैं। वलीद ने भी दगा दी। आह! हमारे हाथों में तलवार भी नहीं! ऐ खुदा मदद!
अब्बास– कलाम पाक की क़सम, ये मरदूद आपके करीब न पाएंगे।
जैनब– भैया, तुम सामने से हट जाओ।
हुसैन– जैनब घबराओ मत, आज मैं दिखा दूंगा कि अली का बेटा कितनी दिलेरी से जान देता है।
(अब्बास बाहर निकल कर फ़ौज के सरदार से)
ऐ सरदार, किसकी बदनसीबी है कि तू उसके नज़दीक जा रहा है?
सरदार– या हज़रत, हमें शहर में गश्त लगाने का हुक्म हुआ है कि कहीं बाग़ी तो जमा नहीं हो रहे हैं।
हुसैन– अब देर करने का मौका नहीं है। चलूं, अम्माजान से रुखसत हो लूं। (फ़ातिमा की क़ब्र पर जाकर) ऐ मादरेजान, तेरा बदनसीब बेटा– जिसे तूने गोद में प्यार से खिलाया था, जिसे तूने सीने से दूध पिलाया था– आज तुझसे रुखसत हो रहा है, और फिर शायद उसे तेरी जियारत नसीब न हो (रोते हैं।)
(मदीने के सब नगरवासियों का प्रवेश)
सब०– ऐ अमीर, आप हमें कदमों से क्यों जुदा करते है? हम आपका दामन न छोड़ेंगे। आपके कदमों से लगे हुए गुरबत की खाक छानना इससे कहीं अच्छा है कि एक बदकार और जालिम खलीफ़ा सख्तियां झेले। आप नबी के खानदान के आफ़ताब हैं। उसकी रोशनी से दूर होकर हम अंधेरे में खौफ़नाक जानवरों से क्योंकर अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें हक़ और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें एक और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी नसीहतों का अमृत पिलाएगा? हमें अपने कदमों से जुदा न कीजिए।
(रोते है।)
हुसैन– मेरे प्यारे दोस्तों, मैं यहां से खुद नहीं जा रहा हूं। मुझे तकदीर लिए जा रही है। मुझे वह दर्दनाक नजारा देखने की ताब नहीं है कि मदीने की गलियां इस्लाम और रसूल के दोस्तों के खून से रंगी जायें। मैं प्यारे मदीने को उसे उस तबाही और खून से बचाना चाहता हूं। तुम्हें मेरी यही आखिरी सलाह है कि इस्लाम की हुरमत क़ायम रखना, माल और जर के लिये अपनी कौम और अपनी मिल्लत से बेवफाई न करना, खुदा के नज़दीक इससे बड़ा गुनाह नहीं है। शायद हमें फिर मदीने के दर्शन न हों, शायद हम फिर सूरतों को देख न सकें। हां, शायद फिर हमें बुजुगों की सूरत देखनी नसीब न हो, जो हमारे नाना के शरीक और हमदर्द रहें, जिनमें से कितनों ही ने मुझे गोद में खेलाया है। भाइयों, मेरी जबान में इतनी ताकत नहीं है कि उस रंज और ग़म को जाहिर कर सकूं, जो मेरे सीने में दरिया की लहरों की तरह उठ रहा है। मदीने की तरह उठा रहा है। मदीने की खाक से जुदा होते हुए जिगर के टुकड़े हुए जाते हैं। आपसे जुदा होते आँखों में अँधेरा छा जाता है, मगर मजबूर हूं। खुदा की और रसूल की यह मंशा है कि इस्लाम का पौधा मेरे खून से सींचा जाये, रसूल की खेती रसूल की औलाद के खून से हरी हो, और मुझे उनके सामने सिर झुकाने के सिवा और कोई चारा नहीं।
नागरिक– या अमीर, हमें अपने क़दमों से जुदा न कीजिए। हाय अमीर, हाय रसूल के बेटे, हम किसका मुंह देखकर जिएंगे। हम क्योंकर सब्र करें, अगर आज न रोएं तो फिर किस दिन के लिये आंसुओं को उठा रखे? आज से ज्यादा मातम का और कौन दिन होगा?
हुसैन– (मुहम्मद की क़ब्र पर जाकर) ऐ रसूल-खुदा, रुखसत। आपका नवासा मुसीबत में गिरफ्तार है। उसका बेड़ा पार कीजिए।
सब लोग छोड़के पहले ही सिधारे;
मिलता नहीं आराम नवासे को तुम्हारे।
खादिम को कोई अमन की अब जा नहीं मिलती;
राहत कोई साहत मेरे मौला, नहीं मिलती।
दुख कौन-सा और कौन-सी ईज़ा नहीं मिलती;
है आप जहां, राय वह मुझको नहीं मिलती;
दुनिया में मुझे कोई नहीं और ठिकाना;
आज आखिरी रुखसत को गुलाम आया है नाना!
बच जाऊं जो, पास अपने बुला लीजिए नाना;
तुरबत में नवासे को छिपा लीजिए नाना!
(भाई की क़ब्र पर जाकर)
सुन लीजिए शब्बीर की रुखसत है बिरादर,
हज़रत को तो पहलू हुआ अम्मा का मयस्सर।
कब्र भी जुदा होंगी यहां अब तो हमारी;
दखें हमें ले जाये कहां खाक हमारी!
मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ एक चिउंटी की भी जान खतरे में पड़े। अपने अजीजों से, अपनी मस्तूरात से, अपने दोस्तों से यही सवाल है कि मेरे लिये जरा भी गम न करो, मैं वहीं जाता हूं, जहां खुदा की मर्जी लिए जाती है।
अब्बास– या हज़रत, ख़ुदा के लिये हमारे ऊपर यह सितम न कीजिए। हम जीते-जी आपसे जुदा न होंगे।
जैनब– भैया, मेरी जान तुम पर फिदा हो। अगर औरतों को तुमने छोड़ दिया, तो लौटकर उन्हें जीता न पाओगे। तुम्हारी तीनों फूल-सी बेटियां ग़म से मुरझाई जा रही है। शहरबानू का हाल देख ही रहे हो। तुम्हारे बगैर मदीना सूना हो जायेगा, और घर की दीवारें हमें फाड़ खायेंगी। हमारे ऊपर इस बदनामी का दाग़ न लगाओ कि मुसीबत में रसूल की बेटियों ने अपने सरदार से बेवफ़ाई की। तुम्हारे साथ के फ़ाके यहां के मीठे लुकमों से ज्यादा मीठे मालूम होंगे। जिस्म को तकलीफ़ होगी, पर दिल को तो इतमीनान रहेगा।
अली अक०– अब्बा, मैं इस मुसीबत का सारा मजा आपको अकेले न उठाने दूंगा। इसमें मेरा भी हिस्सा है। कौन हमारे नेत्रों की चमक देखेगा? किसे हम अपनी दिलेरी के ज़ौहर दिखाएंगे? नहीं, हम यह ग़म की दावत अकेले न खाने देंगे।
अली अस०– अब्बा, मुझे अपने आगे घोड़ों पर बिठाकर रास मेरे हाथों में दे दीजियेगा। मैं उसे ऐसा दौड़ाऊँगा कि हवा भी हमारी गर्द को न पहुंचेगी।
हुसैन– हाय, अगर मेरी तक़दीर की मंशा है कि मेरे जिगर के टुकड़े मेरी आंखों के सामने तड़पें, तो मेरा क्या बस है। अगर खुदा को यही मंजूर है कि मेरा बाग मेरी नज़रों के सामने उजाड़ा जाये, तो मेरा क्या चारा है। खुदा गवाह रहना कि इस्लाम की इज्जत पर रसूल की औलाद कितनी बेदरदी से कुरबान की जा रही है!
छठा दृश्य
(समय– संध्या। कूफ़ा शहर का एक मकान। अब्दुल्लाह, कमर, वहब बातें कर रहे हैं।)
अब्दु०– बड़ा गजब हो रहा है। शामी फौज के सिपाही शहरवालों को पकड़-पकड़ जियाद के पास ले जा रहे हैं, और वहां जबरन उनसे बैयत ली जा रही है।
कमर– तो लोग क्यों उसकी बैयत कबूल करते हैं?
अब्दु०– न करें, तो करें। अमीरों और रईसों को तो जागीर और मंसब की हवस ने फोड़ लिया। बेचारे गरीब क्या करें। नहीं बैयत लेते, तो मारे जाते हैं, शहरबदर किए जाते हैं। जिन गिने-गिनाए रईसों ने बैयत नहीं ली, उन पर भी संख्ती करने की तैयारियां हो रही हैं। मगर जियाद चाहता है कि कूफ़ावाले आपस ही में लड़ जाएं। इसीलिए उसने अब तक कोई सख्ती नहीं की है।
कमर– यजीद को खिलाफ़त का कोई हक तो है नहीं,
महज तलवार का जोर है। शरा के मुताबिक हमारे खलीफ़ा हुसैन हैं।
अब्दु०– वह तो जाहिर ही है, मगर यहां के लोगों को जो जानते हो न। पहले तो ऐसा शोर मचाएंगे, गोया जाने देने पर आमादा हैं, पर ज़रा किसी ने लालच दिखलाया, और सारा शोर ठंडा हो गया! गिने हुए आदमियों को छोड़कर सभी बैयत ले रहे हैं।
कमर– तो फिर हमारे ऊपर भी तो वहीं मुसीबत आनी है।
अब्दु०– इसी फिक्र में तो पड़ा हूं। कुछ सूझता ही नहीं।
कमर– सूझता ही क्या है। यजीद की बैयत हर्गिज मत कबूल करो।
अब्दु०– अपनी खुशी की बात नहीं है।
कमर– क्या होगा?
अब्द०– वजीफ़ा बन्द हो जायेगा।
कमर– ईमान के सामने वजीफ़े की कोई हस्ती नहीं।
अब्दु०– जागीर ज्यादा नहीं, तो परवरिश तो हो ही जाती है। वह फौरन छिन जाएंगी। कितनी मेहनत से हमने मेवों का बाग लगाया है। यह कब गंवारा होगा कि हमारी मेहनत का फल दूसरे खायें। कलाम पाक की कलम, मेरे बाग पर बड़ों-बड़ों को रश्क है।
कमर– बाग के लिए ईमान बेचना पड़े, तो बाग की तरफ़ आंख उठाकर देखना भी गुनाह है।
अब्दु०– क़मर, मामला इतना आसान नहीं है, जितना तुमने समझ रखा है। जायदाद के लिए इंसान अपनी जान देता है, भाई-भाई दुश्मन हो जाते हैं, बाप-बेटों में, मियां बीवी में तिफ़ाक पड़ जाता है। अगर उसे लोग इतनी आसानी से छोड़ सकते, तो दुनिया जन्नत बन जाती है।
कमर– यह सही है, मगर ईमान के मुकाबले जायदाद ही की नहीं, जिंदगी की भी कोई हस्ती नहीं। दुनिया की चीजें एक दिन छूट जाएंगी, मगर ईमान हो हमेशा साथ रहेगा।
अब्दु०– शहरबदर होना पड़ा। तो यह मकान हाथ से निकल जाएगा। अभी पिछले साल बनकर तैयार हुआ है। देहातों में, जंगल में बुद्दुओं की तरह मारे-मारे घूमना पड़ेगा। क्या जला-वतनी कोई मामूली चीज है?
कमर– दीन के लिए लोगों से सल्तनतें तर्क कर दी हैं, सिर कटाए हैं, और हंसते-हंसते सूलियों पर चढ़ गए हैं। दीन की दुनिया पर हमेशा जीत रही है, और रहेंगी।
अब्दु०– वहब अपनी अम्माजान की बातें सुन रहे हो?
वहब– जी हां, सुन रहा हूं, और दिल में फ़ख्र कर रहा हूँ कि मैं ऐसी दीन-परवर मां का बेटा हूं। मैं आपसे सच अर्ज करता हूं कि कीस, हज्जाज, हुर, अशअस जैसे रऊसा को बेयत क़बूल करते देखकर मैं भी नीम राजी हो गया था, पर आपकी बातों ने हिम्मत मजबूत कर दी। अब मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूं।
अब्दु०– वहब, दीन हम बूढ़ों के लिए है, जिन्होंने दुनिया के मज़े उठा लिए। जवानों के लिए दुनिया है। तुम अभी शादी करके लौटे हो, बहू की चूड़िया भी मैली नहीं हुई। जानते हो, वह एक रईस की बेटी है। नाजों में पली है, क्या उसे भी खानावीरानी की मुसीबतों में डालना चाहते हो? हम और कमर को हज करने चले जायेंगे। तुम मेरी जायदाद के वारिस हो, मुझे यह तसकीन रहेगा कि मेरी मिहनत रायगां नहीं हुई। तुमने मां को नसीहत पर अमल किया, तो मुझे बेहद सदमा होगा। पहले जाकर नसीमा से पूछो तो?
वहब– मुझे अपने ईमान के मामले में किसी से पूछने की जरूरत नहीं। मुझे यकीन है कि खिलाफत के हकदार हज़रत हुसैन हैं। यजीद की बायत कभी न कबूल करूंगा, जायदाद रहे या न रहे, जान रहे या न रहे।
कमर– बेटा, तेरी माँ तुझ पर फिदा ही, तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया। आज मेरी जैसी खुशनसीब मां दुनिया में न होगी। मगर बेटा, तुम्हारे अब्बाजान ठीक कहते हैं, नसीमा से पूछ लो, देखो, वह क्या कहती है। मैं नहीं चाहती कि हम लोगों की दीन-परवरी के वाइस उसे तकलीफ ही, और जंगलों की खाक छाननी पड़े। उसकी दिलजोई करना तुम्हारा फ़र्ज है।
वहब– आप फरमाती हैं, तो मैं उससे भी पूछ लूंगा। मगर में साफ़ कहें देता हूं कि उसकी रजा का गुलाम न बनूंगा। अगर उसे दीन के मुकाबले में ऐश व आराम ज्यादा पसन्द है, तो शौक से रहे, लेकिन मैं बैयत की जिल्लत न उठाऊंगी।
(दरवाजा खोलकर बाहर चला जाता है।)
सातवां दृश्य
(अरब का एक गांव– एक विशाल मंदिर बना हुआ है, तालाब है, जिसके पक्के घाट बने हुए हैं, मनोहर बगीचा, मोर, हिरण, गाय आदि पशु-पक्षी इधर-उधर विचर रहे हैं। साहसराय और उनके बंधु तालाब के किनारे संध्या-हवन, ईश्वर-प्रार्थना कर रहे हैं।)
गाना (स्तुति)
हरि, धर्म प्राण से प्यार हो।
अखिलेष, अनंत विधाता हो, मंगलमय, मोहप्रदाता हो;
भय-भंजन शिव जन-त्राता हो, अविनाशी अद्भुत ज्ञाता हो।
तेरा ही एक सहारा हो;
हरि धर्म प्राण से प्यारा हो।
बल, वीर्य, पराक्रम त्वेष रहे, सद्धर्म धरा पर शेष रहे;
श्रुति-भानु, एकांत-वेश रहे, धन-ज्ञान-कला-युत देश रहे।
सर्वत्र प्रेम की धारा हो;
हरि, धर्म प्राण से प्यारा हो।
भारत तन-मन-धन से सारा हो, उसकी सेवा सब द्वारा हो;
निज मान-सम्मान दुलारा हो, सबकी आंखों का तारा हो।
जीवन-सर्वस्व हमारा हो;
हरि, धर्म प्राण से प्यारा हो।
(साहसराय प्रार्थना करते हैं।)
भगवान्, हमें शक्ति प्रदान कीजिए कि सदैव अपने व्रत का पालन करें। अश्वत्थामा की संतान का, निरंतर सेवामार्ग का अवलंबन करें, उनका रक्त सदैव दोनों की रक्षा में बहता रहे, उनके सिर सदैव न्याय और सत्य पर बलिदान होते रहें। और, प्रभो! वह दिन आए कि हम प्रायश्चित-संस्कार से मुक्त होकर तपोभूमि भारत को पयाम करें, और ऋषियों के सेवा-सत्कार में मग्न होकर अपना जीवन सफल करें। हे नाथ, हमें सद्भुद्धि दीजिए कि निरंतर कर्म-पथ पर स्थिर रहें, और उस कलंक-कालिमा को, जो हमारे आदि पुरुष ने हमारे मुख पर लगा दी है, अपनी सुकीर्ति से धोकर अपना मुख उज्जवल करें। जब हम स्वदेश यात्रा करें, तो हमारे मुख पर आत्मगौरव का प्रकाश हो, हमारे स्वदेश-बंधु सहर्ष हमारा स्वागत करें, और हम वहां पतित बनकर नहीं, समाज के प्रतिष्ठित अंग बनकर जीवन व्यतीत करें।
(सेवक का प्रवेश)
सेवक– दीनानाथ, समाचार आया है, अमीर मुआबिया के बेटे यजीद ने खिलाफ़त पर अधिकार कर लिया।
साहस०– यजीद ने खिलाफत पर अधिकार कर लिया! यह कैसा! उसका खिलाफ़त पर क्या स्वत्व था? खिलाफ़ात तो हज़रत अली के बेटे इमाम हुसैन को मिलनी चाहिए थी।
हरजसराय– हां, हक तो हुसैन ही का है। मुआबिया से पहले से इसी शर्त पर संधि हुई थी।
सिंहदत्त– यजीद की शरारत है। मुझे मालूम है, वह अभिमानी, तामसी और विलासी-भोगी मनुष्य है। विषय वासना में मग्न रहता है। हम ऐसे दुर्जन की खिलाफ़त कदापि स्वीकार नहीं कर सकते।
पुण्यराय– (सेवक से) कुछ मालूम हुआ, हुसैन क्या कर रहे हैं?
सेवक– दीनबंधु, वह मदीना से भागकर मक्का चले गए हैं।
सिंह०– यह उनकी भूल है, तुरंत मदीनावासियों को संगठित करके यजीद के नाजिम का वध कर देना चाहिए था, इसके पश्चात अपनी खिलाफत की घोषणा कर देनी थी। मदीना को छोड़कर उन्होंने अपनी निर्बलता स्वीकार कर ली।
रामसिंह– हुसैन धर्मनिष्ठ पुरुष है। अपने बंधुओं का रक्त नहीं बहाना चाहते।
ध्रुवदत्त– जीव हिंसा महापाप है। धर्मात्मा पुरुष कितने ही संकट में पड़े, किन्तु अहिंसा-व्रत को नहीं त्याग सकता।
भीरुदत्त– न्याय-रक्षा के लिये हिंसा करना पाप नहीं। जीव-हिंसा न्याय हिंसा से अच्छी है।
साहस०– अगर वास्तव में यजीद ने खिलाफ़त का अपहरण कर लिया है, तो हमें अपने व्रत के अनुसार न्याय-पक्ष ग्रहण करना पड़ेगा। यजीद शक्तिशाली है, इसमें संदेह नहीं, पर हम न्याय-व्रत का उल्लंघन नहीं कर सकते। हमें उसके पास दूत भेजकर इसका निश्चय कर लेना चाहिए कि हमें किस पथ पर अनुसरण करना उचित है।
सिंहदत्त– जब यह सिद्ध है कि उसने अन्याय किया, तो उसके पास दूत भेजकर विलंब क्यों किया जाये? हमें तुरंत उससे संग्राम करना चाहिए। अन्याय को भी अपने पक्ष का समर्थन करने के लिये युक्तियों का अभाव नहीं होता।
हरजसराय– मैं पूछता हूं, अभी समर की बात क्यों की जाये। राजनीति के तीनों सिद्धांतो की परीक्षा कर लेने के पश्चात् ही शस्त्र ग्रहण करना चाहिए। विशेषकर इन समय हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हम आत्मगौरव की दुहाई देते हुए रण-क्षेत्र में कूद पड़े। शस्त्र-ग्रहण सर्वदा अंतिम उपाय होना चाहिए।
सिहदत्त– धन आत्मा की रक्षा के लिये ही है।
हरजसराय– आत्मा बहुत ही व्यापक शब्द है। धन केवल धर्म की रक्षा के लिये है।
रामसिंह– धर्म की रक्षा रक्त से नहीं होती शील, विनय, सदुपदेश, सहानुभूति, सेवा, ये सब उसके परीक्षित साधन हैं, और हमें स्वयं इन साधनों की सफलता का अनुभव हो चुका है।
सिंहदत्त– राजनीति के क्षेत्र में ये साधन उसी समय होते हैं, जब शस्त्र उनके सहायक हों। अन्यथा युद्ध-लाभ से अधिक उनका मूल्य नहीं होता।
साहसराय-– हमारा कर्त्तव्य अपनी वीरता का प्रदर्शन अथवा राज्य प्रबन्ध की निपुणता दिखाना नहीं, न हमारा अभीष्ट अहिंसा-व्रत का पालन करना है। हमने केवल अन्याय को दमन करने का व्रत धारण किया है, चाहे उसके लिये किसी उपाय का आलंबन करना पड़े। इसलिए सबसे पहले हमें दूतों द्वारा यजीद के मनोभाव का परिचय प्राप्त करना चाहिए। उसके पश्चात् हमें निश्चय करना होगा कि हमारा कर्त्तव्य क्या है। मैं रामसिंह और भीरुदत्त से अनुरोध करता हूँ कि ये आज ही शाम को यात्रा पर अग्रसर हो जायें।
दूसरा अंक
पहला दृश्य
(हुसैन का क़ाफ़िला मक्का के निकट पहुंचता है। मक्का की पहाड़ियां नजर आ रही हैं। लोग काबा की मसजिद द्वार पर स्वागत करने को खड़े हैं।)
हुसैन– यह लो, मक्का शरीफ़ आ गया। यही वह पाक मुकाम है, जहां रसूल ने दुनिया में क़दम रखे। ये पहाड़ियां रसूल के सिजदों से पाक और उनके आंसुओं से रोशन हो गई हैं। अब्बास, काबा को देखकर मेरे दिल में अजीब-सी धड़कन हो रही है, जैसे कोई गरीब मुसाफिर एक मुद्दत के बाद अपने वतन में दाखिल हो।
(सब लोग घोड़ों से उतर पड़ते हैं।)
जुबेर– आइए हज़रत हुसैन, हमारे शहर को अपने क़दमों से रौशन कीजिए।
(हुसैन सबसे गले मिलते हैं।)
हुसैन– मैं इस मेहमानबाजी के लिए आपका मशकूर हूं।
जुबेर– हमारी जानें आप पर निसार हों। आपको देखकर हमारी आंखों में नूप आ गया है, और हमारे कलेजे ठंडे हो गए है। खुदा गवाह है, आपने रसूल पाक की का हुलिया पाया है। आइए, काबा हाथ फैलाए आपका इंतजार कर रहा है।
(सब लोग मसजिद में दाखिल होते हैं। स्त्रियां हरम में जाती हैं।)
अली असगर– अब्बा, इन पहाड़ों पर से तो हमारा घर दिखाई देता होगा?
हुसैन– नहीं बेटा, हम लोग घर से बहुत दूर आ गए हैं। तुमने कुछ नाश्ता नहीं किया?
अली अ०– मुझे भूख नहीं है। पहले मालूम होती थी, लेकिन अब गायब हो गई।
हुसैन– तो तुम यहीं रहो कि तुम्हें भूख ही न लगे।
हबीब– या हजरत, आप भी जरा आराम फ़रमा लें। हमारी बहुत दिनों से तमन्ना है कि आपके पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़े।
(जुबेर और अब्बास को छोड़कर सब लोग वजू करने चले जाते हैं।)
हुसैन– क्यों जुबेर, यहां के लोगों के क्या खयालात हैं?
जुबेर– कुछ न पूछिए, मुझे यहां की क़ैफियत बयान करते शरम आती है। यो जाहिर में तो सब-के-सब आप पर निसार होने के लिए कसम खाएंगे, बैयत लेने को भी तैयार नजर आएंगे, मगर दिल किसी का भी साफ़ नहीं।
हुसैन– क्या दग़ा का अंदेशा है?
जुबेर– यह तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि कोई ऐसी बात देखने में नहीं आई, लेकिन इधर-उधर की बातों में पता चलता है कि इनकी नीयत साफ नहीं अजब नहीं कि यजीद दौलत और जागीर का लालच देकर इन्हें मिला ले। उस वक्त ये जरूर आपके साथ दगा कर जायेंगे। मैं तो आपको यही सलाह दूंगा कि आप मदीने वापस जाएं।
हुसैन– मुझे तो इनकी तरफ़ से दग़ा का गुमान नहीं होता। दग़ा में एक झिझक होती है, जो यहां किसी के चेहरे पर नज़र नहीं आती। दग़ा उसी तरह शक पैदा कर देती है, जैसे हमदर्दी एतबार पैदा करती है।
जुबेर– मगर आपको यह भी मालूम होगा कि दग़ा गिरगिट कभी अपने असली रंग में नहीं दिखाई देती। वह हाथों का बोसा लेती हैं, पैरों-तले आंखें बिछाती है और बातों से शक्कर बरसाती है।
अब्बास– दोस्त बनकर सलाह देती है, खुद किनारे पर रहती हैं, पर दूसरों को दरिया में ढकेल देती है। आप हंसती हैं, पर दूसरों को रुलाती है, और अपनी सूरत को हमेशा जाहिद के लिबास में छिपाए रहती हैं।
जुबेर– खुदा पाक की कसम, आप मेरी तरफ इशारा कर रहे है। अगर आप जानते कि मैं हज़रत हुसैन की कितनी इज्जत करता हूं, तो मुझ पर दगा का शक न करते। अगर मैं यजीद का दोस्त होता, तो अब तक दौलत से माला-माल हो जाता। अगर खुद बैयत की नीयत रखता, तो अब तक खामोश न बैठा रहता। आप मुझ पर यह शुबहा करके बड़ा सितम कर रहे हैं।
हुसैन– अब्बास, मुझे तुम्हारी बातें सुनकर बड़ी शर्म आती हैं। जुबेर सबसे अलग विलग रहते हैं। किसी के बीच में नहीं पड़ते। एकांत में बैठने वाले आदमियों पर अक्सर लोग शुबहा करने लगते हैं। तुम्हें शायद यह नहीं मालूम है कि दग़ा गोशे से सोहबत को कहीं ज्यादा पसंद करती है।
(हबीब का प्रवेश)
हबीब– या हज़रत, मुझे अभी मालूम हुआ कि आपके यहां तशरीफ लाने की खबर यजीद के पास भेज दी गई है, और मरवान यहां का नाजिम बनाकर भेजा जा रहा है।
हुसैन– मालूम होता है, मरवान हमारी जान लेकर ही छोड़ेगा। शायद हम जमीन के पर्दे में चले जाएं, तो वहां भी हमें आराम न लेने देगा।
अब्बास– यहां उसे उसकी शामत ला रही है। कलाम पाक की कसम, वह यहां से जान सलामत न ले जाएगा। काबा में खून बहाना हराम ही क्यों न हो, पर ऐसे रूह-स्याह का खून यहां भी हलाल है।
हबीब– वलीद माजूल कर दिया गया। यहां का आलिम मदीने जा रहा है।
हुसैन– वलीद की माजूली का मुझे सख्त अफ़सोस है। वह इस्लाम का सच्चा दोस्त था। मैं पहले ही समझ गया था कि ऐसे नेक और दीनदार आदमी के लिये यजीद के दरबार में जगह नहीं है। अब्बास, वलीद की माजूली मेरी शहादत की दलील है।
हबीब– यह भी सुना गया है कि यजीद ने अपने बेटे को, जो आपका खैर-ख्वाह है, नज़रबंद कर दिया है। उसने खुल्लम-खुल्ला यजीद की बेइंसाफ़ी पर एतराज़ किया था। यहां तक कहा था कि खिलाफत पर कोई हक नहीं है। यजीद यह सुनकर आग-बबूला हो गया। उसे कत्ल करना चाहता था, लेकिन सभी रूमी ने बचा लिया।
अब्बास– ऐसे जालिम का कत्ल कर देना ऐन सबाब है।
हुसैन– अब्बास, यह खुदा की मंशा की दूसरी दलील है। यह उसकी बदनसीबी है कि तकदीर ने उसे मेरी शहादत का वसीला बनाया है। अपने बेटे को क़ैद करने से किसी को खुशी नहीं हो सकती। जो आदमी अपने बेटे की जबान से अपनी तौहीन सुने, उससे ज्यादा बदनसीब दुनिया में कौन होगा?
जुबेर– मेरे खयाल में अगर आप कूफ़े की तरफ जायें, तो वहां आपको मददगारों की कमी न रहेगी।
हबीब– या हज़रत, मैं कूफ़ा के करीब का रहने वाला हूं, और कूफियों की आदत से खूब वाकिफ़ हूं। दग़ा उनकी ख़मीर में मिली हुई है। आप उनसे बचे रहिएगा। वे आपके पास अपनी बैयत के पैगाम भेजेंगे। उनके क़ासिद-पर-कासिद आएंगे, और आपको चैन न लेने देंगे। उनके खतों से ऐसा मालूम होगा कि सारा मुल्क आप पर फ़िदा होने के लिए तैयार है। पर आप उनकी बातों में हर्गिज नहीं आइएगा। भूलकर भी कूफ़ा की तरफ़ रूख न कीजिएगा। मेरी आपसे यही अर्ज है कि काबा से बाहर क़दम न रखिएगा, जब तक आप यहां रहेंगे, आप सब बलाओं से बचें रहेंगे, कूफ़ावाले वफ़ादारी से उतना ही महरूम हैं, जैसे चिड़ियां दूध से।
हुसैन– मैं कूफ़ावालों से खूब वाकि़फ हूं। तुमने और भी ख़बरदार कर दिया, इसके लिए मैं तुम्हारा मशकूर हूं।
हबीब– मैं यही अर्ज करने के लिए आपकी खिदमत में हाज़िर हुआ हूं। अगर वे लोग रोते हुए आकर आपके पैरों पर गिर पड़े तो भी आप ठुकरा दीजिएगा। इसमें शक नहीं कि वे दिलेर हैं, दीनदार हैं, मेहमानेबाज है, पर दौलत के गुलाम हैं। इस ऐब ने उनकी सारी खूबियों पर परदा डाल दिया है। वज़ीफे और जागीर के लालच और वजीफ़े तथा जागीर की जब्ती का खौफ़ उनसे ऐसे क़ौल करा सकता है जिसकी इंसान से उम्मीद नहीं की जा सकती।
हुसैन– हबीब, मैं तुम्हारी सलाह को हमेशा याद रखूंगा।
जुबेर– हबीब, तुमने कूफ़ियों के बारे में जो कुछ कहा, वह बहुत कुछ दुरुस्त है, लेकिन तुम हज़रत हुसैन के दोस्त हो, तुमने कहने में कोई खौफ़ नहीं कि मक्कावाले भी इस मामले में कूफ़ावालों ही के भाई-बंद है। इसके क़ौल और फ़ेल का भी कोई ऐतबार नहीं। कूफ़े की आबादी ज्यादा है, वे अगर दिल से किसी बात पर आ जायें, तो यजीद के दांत खट्टे कर सकते हैं। मक्का की थोड़ी सी आबादी वफ़ादार भी रहे, तो उससे भलाई की उम्मीद नहीं हो सकती। शाम की दो हज़ार फौज़ इन्हें घेर लेने को काफ़ी है। भलाई या बुराई किसी खास मुल्क या कौम का हिस्सा नहीं होती। वही सिपाही जो एक बार मैदान में दिलेरी के जौहर दिखाती हैं, दूसरी बार दुश्मन को देखते ही भाग खड़ी होती है। इसमें सिपाही की खता नहीं; उसके फ़ेल की जिम्मेदारी उसके सरदार पर है। वह अगर दिलेर है, तो सिपाही में दिलेरी की रूह फंक सकता है; कम-हिम्मत है, तो सिपाही की हिम्मत को पस्त कर देगा। आप रसूल के बेटे हैं, आपको भी खुदा ने वही अक्ल और कमाल अता किया है। यह क्योंकर मुमकिन है कि आपकी सोहबत का उन पर असर पड़े। कूफ़ा तो क्या, आप हक को भी रास्ते पर ला सकते हैं। मेरे खयाल में आपको किसी से बदगुमान होने की ज़रूरत नहीं।
अब्बास– जुबेर, सलाह कितनी माकूल हो, लेकिन उसमें गरज की बू आते ही उसकी मंशा फ़ौत हो जाती है।
हुसैन– अगर तुम्हारा इरादा यहां लोगों से बैयत लेने का ही, तो शौक से लो, मैं ज़रा भी दखल न दूंगा।
जुबेर– या हज़रत, मेरा खुदा गवाह है कि मैं आपके मुकाबले में अपने ख़िलाफ़त के लायक नहीं समझता। मैं यदीज की बैयत न करूंगा। लेकिन खुदा मुझे नजात न दे, अगर मेरे दिल में आपका मुक़ाबला करने का ख्याल भी आया हो।
हबीब– या इमाम, अगर तकलीफ न हो, तो सहन में तशरीफ़ लाइए। अजान हो चुकी। लोग आपकी राह देख रहे हैं।
(सब लोग नमाज पढ़ने जाते हैं।)
दूसरा दृश्य
(यजीद का दरबार– यजीद, जुहाक़, मुआबिया, रूमी, हुर और अन्य सभासद् बैठे हुए हैं। दो वेश्याएँ शराब पिला रही हैं।)
यजीद– तुममें से कोई बता सकता है, जन्नत कहां है?
हुर– रसूल ने तो चौथे आसमान पर फ़रमाया।
शम्स– मैं चौथें-पांचवें आसमान का क़ायल नहीं? ख़ुदा का फ़जल और करम ही जन्नत है।
रूमी– खुदा ही निगाह कबरिस्तान नहीं है कि वहां मुर्दे दफ़न हो। जन्नत वहीं होगी, जहां लाशें दफ़न की जाती होंगी।
यजीद– उस्ताद, तुम भी चूक गए, फिर जोर लगाना। अब की जुहाक़ की बारी है। कहिए शेखजी, जन्नत कहां है?
जुहाक– बतलाऊं? इस शराब के प्याले में।
यजीद– पते पर पहुंचे, पर अभी कुछ कसर है। जरा और जोर लगाओ।
जुहाक– उस प्याले में, जो किसी नाज़नीन के हाथ में मिले।
यदीज– लाना हाथ। बस, वही जन्नत है। मए-गुलफाम हो, और किसी नाजनीन का पंजए– मरजान हो। इस एक जन्नत पर रसूल की हजारों जन्नतें कुर्बान है। अच्छा, बताओ, दोजख कहां हैं?
हुर– या खलीफ़ा, आपको दीन-हक की तौहीन मुनासिब नहीं।
यदीज– हुर, तुमने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया। आंखों की कसम है, तुम मेरी मजलिस में बैठने के काबिल नहीं हो। सारा मज़ा खाक में मिला दिया। यजीद के सामने दीन का नाम लेना मना है। दीन उन मुल्लाओं के लिए है, जो मसजिदों में पड़े हुए गोस्त की हड़्डियों को तरसते हैं; दीन उनके लिए है, जो मुसीबतों के सबब से जिंदगी से बेज़ार है, जो मुहताज है, बेबस है, भूखों मरते हैं, जो गुलाम हैं, दुर्रे खाते हैं। दीन बूढ़े मरदों के लिए, रांड औरतों के लिये, दिवालिए सौदागरों के लिये हैं। इस ख़याल से उनके आँसू पोंछते हैं, दिल को तसकीन होती है। बादशाहों के लिए दीन नहीं है। उनकी नजात रसूल और खुदा के निगाह– करम की मुहताज नहीं। उनकी नजात उनके हाथों में है। दोस्तों, बतलाना, हमारा पीर कौन है?
जुहाक– पीर मुगां (साकी)
यजीद– लाना हाथ। हमारा पीर साकी है, जिसके दस्तेकरम से हमें यह नियामत मयस्सर हुई है। अच्छा, कौन मेरे ख़याल के जवाब देता है, दोखज कहां है?
शम्स– किसी सूदखोर की तोंद में।
यजीज– बिलकुल ग़लत।
रूमी– खलीफ़ा के गुस्से में।
यजीद– (मुस्कराकर) इनाम के क़ाबिल जवाब है, मगर गलत।
कीस– किसी मुल्ला की नमाज में, जो जमीन पर माथा रगड़ते ताकता रहता है कि कहीं से रोटियां आ रही है या नहीं।
यजीद– वल्ला, खूब जवाब है, मगर ग़लत।
जुहाक– किसी नाजनीन के रूठने में।
यजीद– ठीक-ठीक, बिल्कुल ठीक। लाना हाथ। दिल खुश हो गया– (वेश्याओं से) नरगिस, इस जवाब की दाद तो, जुहरा, शेखजी के हाथों में बोसा दो। वह गीत गाओ, जिसमें शराब की बू हो, शराब का नशा हो, शराब की गर्मी हो।
नरगिस– आज खलीफ़ा से कोई बड़ा इनाम लूंगी। (गाती है)
हां खुले साक़ी दरे-मैखाना आज,
खैर हो, भर दे मेरा पैमाना आज।
नाज करता झूमता मस्ताना बार,
अब आता है, सूए-मैखाना आज।
बोसए-लब हुस्न के सदके में दे,
ओ बुते तरसा हमें तरसा न आज।
इश्के-चश्मे-मस्त का देखो असर,
पांव पड़ता है मेरा मस्ताना आज।
मेरे सीरो की इलाही खैर हो,
है बहुत मुजतर दिले दीवाना आज।
मुहतसिब काडर नहीं, ‘बिस्मिल’ तुम्हें,
सूए-मसजिद जाते ही रंदाना आज।
[एक कासिद का प्रवेश]
क़ासिद– अस्सलाम अलेक या इनाम, बिन जियाद ने मुझे कूफ़ा से आपकी खिदमत में भेजा है।
यजीद– खत लाया है?
क़ासिद– खत इस खौफ से नहीं लाया कि कहीं रास्ते में बाग़ियों के हाथ गिरफ्तार न हो जाऊं।
यज़ीद– क्या पैगाम लाया है?
क़ासिद– बिन जियाद ने गुजारिश की है कि यहां के लोग हुजूर की बैयत कबूल नहीं करते, और बगावत पर आमादा हैं। हुसैन बिन अली को अपनी बैयत लेने को बुला रहे हैं। तीन क़ासिद जा चुके हैं मगर अभी तक हुसैन आने पर रजामंद नहीं हुए, अब शहर के कई रऊसा खुदा जा रहे हैं।
यजीद– बिन जियाद से कहो, जो आदमी मेरी बैयत न मंजूर करे, उसे कत्ल कर दें। मुझसे पूछने की जरूरत नहीं।
रूमी– दुश्मन के साथ मुतलिक रियायत की जरूरत नहीं। जियाद को चाहिए कि तलवार का इस्तेमाल करने में दरेग़ न करे।
हुर– मुझे खौफ़ है कि बगावत हो जायेगी।
रूमी– सजा और सख्ती यही हुकूमत के दो गुर हैं। मेरी उम्र बादशाहत के इंतजाम ही में गुजरी है, इससे बेहतर ओर कारगर कोई तदवीर न नज़र आई। खुदा को भी अपना निज़ाम क़ायम रखने के लिए दोज़ख की जरूरत पड़ी। दोज़ख का ख़ौफ ही दुनिया को आबाद रखे हुए है। उसका रहम और इंसाफ फ़कीरों और बेकसों की तसक़ीन के लिए है। ख़ौफ की सल्तनत की बुनियाद है। नरमी से सल्तनत को बक़ार मिट जाता है। जियाद से कहना, कत्ल करो, और इस तरह कत्ल करो कि देखने वालों के दिल थर्रा जाये। तीरों से छिदवाओ, कुत्तों से नुचवाओ, जिंदा खाल खिंचवाओ, लाल लोहे से दाग़ दो। जो हुसैन का नाम ले, उसकी ज़बान तालू से खींच ली जाये। वह सजा नहीं, जो सख्त न हो।
यजीद– मैं इस हुक्म की ताईद करता हूं। जा, और फिर ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिये मेरे आराम में बाधा न डालना।
[कासिद का प्रस्थान]
हुसैन का कूफ़ा आना मेरे लिए मौत के आने से कम नहीं। क़सम है आंखों की, वह कूफ़ा न आने पाएगा, अगर मेरा बस है।
शम्स– ताज्जुब यही है कि कूफ़ावालों ने तीन क़ासिद भेजे, और हुसैन जाने पर राजी नहीं हुए।
यजीद– तैयारियां कर रहा होगा। वलीद अगर मेरे चाचा का बेटा न होता, तो मैं अपने हाथों से उसकी आँखें निकाल लेता। उसने जानबूझकर हुसैन को मक्का जाने दिया। मदीना ही में कत्ल कर देता, तो मुझे आज इतनी परेशानी क्यों होती? कौन जाकर उसे गिरफ्तार कर सकता है?
हुर– मैं इस खिदमत के लिये हाजिर हूं।
यजीद– अगर तुम यह काम पूरा कर दिखाओ, तो इसके लिए मैं तुम्हें एक सूबा दूंगा, जिस पर जन्नत भी फ़िदा हो। मेरी फ़ौज से एक हज़ार चुने हुए आदमी ले लो, और आफ़ताब निकले, तो तुम्हें यहां से बीस फुर्सख पर देखे।
हुर– इंशाअल्लाह?
यज़ीद– जैसे शिकारी शिकार की तलाश करता है, उसी तरह हुसैन की तलाश करना। बीहड़ रास्ते, अंधेरी घाटियां, घने जंगल, रेतीले मैदान, सब छान डालना। दिल फ़िक्र नहीं, पर रात को अपनी आँखों से नींद को यों भगा देना, जैसा कोई दीनदार आदमी अपने दरवाजे से कुत्ते को भगाता है।
हुर– हुक्म की तामील करूंगा। (स्वगत) यजीद बदकार, बेदीन है, शराबी है; मगर खिलाफत को संभाले हुए तो है। हुसैन की बैयत मुसलमानों में दुश्मनी पैदा कर देगी, खून का दरिया बहा देगी और खिलाफ़त का निशान मिटा देगी। खिलाफ़त क़ायम करना व देखना मेरा पहला फ़र्ज है, खलीफ़ा कौन और कैसा हो, यह बाद को देखा जाएगा।
[हुर का प्रस्थान]
यजीद– नरगिस, रिंदों में एक जाहिद था, वह जिसका, अब कोई मस्त करने वाली गज़ल गाओ। काश सल्तनत की फिक्र न होती, तो तुम्हारे हाथों शराब के प्याले पीता उम्र गुजार देता।
नर०– खौफ़ से कांपती हुई बुलबुल मस्ताना ग़जलें नहीं गा सकती। शाख पर है, तो उड़ जाएगी, क़फस में है, तो मर जाएगी। मैंने खौफ़ से गुलशन को आबाद होते नहीं, वीरान देखा है। मेरा वतन कूफ़ा है और मैं कूफियों को खुद जानती हूँ। उन पर सख्तियां करके आप हुसैन को बुला रहे हैं। हुसैन कूफ़े में दाखिल हो गए, तो फिर आप हमेशा के लिए इराक से हाथ धो बैठेंगी। कूफ़ा वाले रियासतों से, जागीरों से, वजीफों से, थपकियों से काबू में आ सकते है। सख्ती से नहीं। अगर एतबार न हो, तो मुझ पर अपनी ताकत आजमा लो। अगर तुम्हारी दसों उंगलियां दस तलवारें हो जायें, तो भी आप मेरे मुंह से एक सुर भी नहीं निकलवा सकते। कूफ़ा मुसीबत में मुब्तिला है, मैं यहां नहीं रह सकती।
[प्रस्थान]
तीसरा दृश्य
[कूफ़ा की अदालत– क़ाजी और अमले बैठे हुए है। काज़ी के सिर पर अमामा है, बदन पर कबा, कमर में कमरबंद, सिपाही नीचे कुरते पहने हुए हैं। अदालत से कुछ दूर पर मसजिद है मुकद्दमें में पेश हो रहे हैं। कई आदमी एक शरीफ़ आदमी की मुश्कें कसे लाते हैं।]
क़ाज़ी– इसने क्या खता की है?
ए० सि०– हुजूर, यह आदमी मसजिद में खड़ा लोगों से कह रहा था कि किसी को फौज में न दाखिल होना चाहिए।
क़ाज़ी– गवाह है?
ए० आ०– हुजूर, मैंने अपने कानों सुना है।
का०– इसे ले जाकर कत्ल कर दो।
मुल०– हुजूर, बिलकुल बेगुनाह हूं। ये दोनों सिपाही मेरी दुकान से कपड़े उठाए लाते थे। मैंने छीन लिया, इस पर इन्होंने मुझे पकड़ लिया। हुजूर मेरे पड़ोस के दुकानदारों से पूछ लें। बेगुनाह मारा जा रहा हूं। मेरे बाल-बच्चे तबाह हो जायेंगे।
का०– इसे यहां से हटाओ।
मुल०– (चिल्लाकर) या रसूल, तुम कयामत के लिये मेरा और इस कातिल का फैसला करना।
[दोनों सिपाही उसे ले जाते हैं। मसजिद की तरफ़ से आवाज़ आती है।]
‘‘या खुदा, हम बेकस तेरी बारगाह में फ़रियाद करने आए हैं। हमें जालिम के फंदे से आजाद कर।’’
[चार सिपाही १५-२० आदमियों की मुश्कें कसे कोड़े मारते हुए लाते हैं।]
का०– इन पर क्या इंलजाम है?
ए० सि०– हुजूर, ये उन आदमियों में से हैं, जिन्होंने हुसैन के पास क़ासिद भेजे थे।
का०– संगीन जुर्म है। कोई गवाह?
ए० सि०– हुजूर, कोई गवाह नहीं मिलता। शहरवालों के डर के मारे कोई गवाही देने पर राजी नहीं होता।
का०– इन्हें हिरासत में रखो, और जब गवाह मिल जायें, तो फिर पेश करो।
(सिपाही उन आदमियों को ले जाते हैं। फिर दो सिपाही एक औरत की दोनों कलाइयां बांधे हुए लाते हैं।)
का०– इस पर क्या इलजाम है?
ए० सि०– हुजूर, जब हम लोग मुलजिमों को गिरफ्तार कर रहे थे, जो अभी गए हैं, तो इसने खलीफ़ा को जालिम कहा था।
का०– गवाह?
ए० औरत– हुजूर खुदा इसका मुंह न दिखाए, बड़ी बदजबान है।
का०– इसका मकान जब्त कर लो, और इसके सर के बाल नोच लो।
मु०औ०– खुदाबंद, मेरी आंखें फुट जायें, जो मैंने किसी को कुछ कहा हो। यह औरत मेरी सौत है। इसने डाह से मुझे फंसा दिया है। खुदा गवाह है कि मैं बेक़सूर हूं।
का०– इसे फौरन् ले जाओ।
एक युवक– (रोता हुआ) या क़ाजी, मेरी मां पर इतना जुल्म न कीजिए। आप भी तो किसी मां के बच्चे हैं। अगर कोई आपकी मां के बाल नोंचवाता, तो आपके दिल पर क्या गुजरती?
का०– इस मलऊन को पकड़कर दो सौ दुर्रे लगाओ।
[कई सिपाही आदमियों के गोल बांधे हुए लाते हैं।]
का०– इन्होंने खुदा के किस हुक्म को तोड़ा है?
ए० सि०– हुजूर, ये सब आदमी सामनेवाली मसजिद में खड़े होकर रो रहे थे।
का०– रोना कुफ्र है, इन सबों की आँखें फोड़ डाली जाये।
[सैकड़ों आदमी मसजिद की तरफ से तलवारें और भाले लिए दौड़े आते हैं, और अदालत को घेर लेते हैं।]
सुलेमान– कत्ल कर दो इस मरदूद मक्कार को, जो अदालत के मसनद पर बैठा हुआ अदालत का खून कर रहा है।
भूसा– नहीं, पकड़ लो। इसे जिंदा जलाएंगे।
[कई आदमी क़ाजी पर टूट पड़ते हैं।]
का०– शरा के मुताबिक मुसलमान पर मुसलमान का खून हराम है।
सुले०– तू मुसलमान नहीं! इन सिपाहियों में से एक भी न जाने पाए।
ए० सि०– या सुलेमान, हमारी क्या खता है! जिस आक़ा के गुलाम हैं, उसका हुक्म न मानें, तो रोटियां क्योंकर चलें?
भूसा– जिस पेट के लिए तुम्हें खुदा के बंदों का ईजा पहुंचानी पड़े, उसको चाक कर देना चाहिए।
[सिपाहियों और बागियों में लड़ाई होने लगती है।]
सुले०– भाइयों, आपने इन जालिमों के साथ वहीं सलूक किया, जो वाजिब था, मगर भूल न जाइए कि जियाद इसकी इत्तला यजीद को जरूर देगा, और हमें कुचलने के लिए शाम से फ़ौज आएगी। आप लोग उसका मुकाबला करने को तैयार है?
[एक आवाज]
‘‘अगर तैयार नहीं हैं तो हो जायेंगे।’’
सुले०– हमने अभी तक यजीद की बैयत नहीं कबूल की, और न करेंगे। इमाम हुसैन की खिदमत में बार-बार क़ासिद भेजे गए, मगर वह तशरीफ नहीं लाए। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिए?
हानी– इसमें चंद खास आदमी खुद जायें और उन्हें साथ लाएं।
मुख्तार– हम लोगों ने रसूल की औलाद के साथ बार-बार ऐसी दगा की है कि हमारा एकबार उठ गया। मुझे खौफ़ है कि हज़रत हुसैन यहां हर्गिज न आएंगे।
सुले०– एक बार आखिरी कोशिश करना हमारा फर्ज है। हम लोग चल कर उनसे अर्ज करें कि हम कत्ल किए जा रहे हैं, लूटे जा रहे हैं, हमारी औरतों की आबरू भी सलामत नहीं। हमारी मुसीबत की कहानी सुनकर हुसैन को जरूर तरस आएगा, उनका दिल इतना सख्त नहीं हो सकता।
मुख्तार– मगर वह आपकी मुसीबतों पर तरस खाकर आएं, और तुमने उनकी मदद न की, तो सब-के-सब रूस्याह कहलाओगे। हमने पहले जो दवाएं की हैं, उनका फल पा रहे हैं, और फिर वही हरकत की, तो हम दुनिया और दीन में कहीं भी मुंह न दिखा सकेंगे। खूब सोच लो, आखिर तक तुम अपने इरादे पर क़ायम रह सकोगे। अगर तुम्हारे दिल हामी भरे, तो मैं दावे से कह सकता हूँ कि उन्हें खींच लाऊंगा। लेकिन अगर तुम्हारे दिल कच्चे हैं, तो तुम अपनी जानें निसार करने को तैयार नहीं हो, अगर तुम्हें खौफ़ है कि तुम लालच के शिकार बन जाओगे, तो तुम उन्हें मक्के में पड़े रहने दो।
हज्जाम– खुदा की कसम, हम उनके पैरों पर अपनी जानें निछावर कर देंगे।
हारिस– हम अपनी बदनामी का दाग़ मिटा देंगे।
मुख्तार– खुदा की हाजिर जानकार वादा करो कि अपने कौल पर क़ायम रहोगे।
[कई आदमी एक साथ]
‘‘अल्लाहोअकबर! हम हुसैन पर फ़िदा हो जायेंगे।’’
सुले०– तो मैं उनकी खिदमत में खत लिखता हूं।
[खत लिखता है।]
हज्जाज– इतना जरूर लिख देना कि हम आपके नाना मुहम्मद मुस्तफा का वास्ता देकर आपसे अर्ज़ करते हैं कि हमारे ऊपर कीजिए।
हारिस– यह और लिख देना कि हम बेशुमार अर्ज़िया आपकी खिदमत में भेज चुके, और आप तशरीफ न लाए। अगर आप अब भी न आए, तो हम कल कयामत के रोज़ रसूल के हुजूर में आपका दामन पकड़ेंगे।
हज्जाम– और कहेंगे या ख़ुदा, हुसैन ने हम पर फिर जुल्म किया था। क्योंकि हम पर जुल्म होते देखकर वह खामोश बैठे रहे, तो उसे वक्त आप क्या जवाब देंगे, और रसूल को क्या मुंह दिखाएंगे।
कीस– मेरी क़बीले में एक हज़ार जवान हैं, जो हुसैन के इंतजार में बैठे हुए हैं।
हज्जाम– शायद शाम तक जियाद कुछ आदमी जमा कर ले।
हारिस– अभी वह खामोश रहेगा। यजीद की फ़ौज आ जायेगी, तब हमारे ऊपर हमला करेगा।
शिमर– क्यों न लगे हाथ उसका भी खातमा कर दें, किस्सा पाक हो।
हारिस– वाह, अब तक यहां बैठा होगा?
सुले०– मैंने सारी दास्तान लिख दी। कौन इस खत को ले जायेगा।
शिमर– मैं हाजिर हूं।
सुले०– किसके पास ऐसी सांड़नी है, जो थकान न जानती हो, जो इस तरह दौड़ सकती हो, जैसे जियाद लूट के माल की तरफ?
एक युवक– मेरे पास एक सांड़नी है, जो तीन दिन में इस खत का जवाब ला सकती है। वह खिदमत बजा लाने का हक मेरा है, क्योंकि मुझसे ज्यादा मजलूम और कोई न होगा, जिसकी मां के बाल काजी के हुक्म से अभी-अभी नीचे गए हैं।
सुले०– बेशक, तुम्हारा हक सबसे ज्यादा है। यह खत लो, और इसके पहले कि हमारा पसीना ठंडा हो, मक्का की तरफ़ रवाना हो जाओ।
[युवक चला जाता है।]
आइए, हम लोग मस्जिद में नमाज अदा कर लें। खत का जवाब तीन दिन में आएगा। हज़रत हुसैन के आने में अभी एक महीने की देर है। जियाद भी शायद उसके पहले नहीं लौट सकता। ये दिन हमें तैयारियों में सर्फ़ करने चाहिए, क्योंकि यजीद की खिलाफत का फैसला कूफ़ा में होगा या तो वह खिलाफत के मसनद पर बैठेगा, या जाहिलों की इबादत का मजार बनेगा। अगर कूफ़ा ने खिलाफ़त को नबी के खानदान में वापस कर दिया, तो उसका नाम हमेशा रोशन रहेगा।
[सब जाते है।]
चौथा दृश्य
[स्थान– काबा, मरदाना बैठक। हुसैन, जुबेर, अब्बास मुसलिम अली असगर आदि बैठे दिखाई देते हैं।]
हुसैन– यह पांचवी सफ़ारत है। एक हज़ार से ज्यादा खतूत आ चुके हैं। उन पर दस्तखत करने वालों की तादाद पन्द्रह हजार से कम नहीं है।
मुस०– और सभी बड़े-बड़े कबीलों के सरदार है। सुलेमान, हारिस, हज्जाज, शिमर, मुख्तार, हानी, ये मामूली आदमी नहीं हैं।
जुबेर– मैं तो अर्ज कर चुका कि मुसल्ल ईराक आपकी बैयत कबूल करने के लिये बेकरार है।
हुसैन– मुझे तो अभी तक उनकी बातों पर एतबार नहीं होता। खुदा जाने, क्यों मेरे दिल में उनकी तरफ से दग़ा का शुबहा घुसा हुआ है। मुझे हबीब की बातें नहीं भूलती, जो उसने चलते-चलते कही थी।
मुस०– गुस्ताखी तो है, पर आपका उन पर शक करना बेजा है। आखिर आप उनकी वफ़ादारी का और क्या सबूत चाहते हैं? वे कसमें खाते हैं, वादे करते हैं, साफ़ लिखते हैं कि आपकी मदद के लिये बीस हज़ार सूरमा तैयार बैठे हैं। अब और क्या चाहिए?
जुबेर– कम-से-कम मैं तो ऐसे सबूत पाकर पल की भी देर न करता।
अब्बास– मुझे तो इन कूफ़ियों पर उस वक्त भी एतबार न आएगा, अगर उनके बीसों हजार आदमी यहाँ आकर आपकी बैयत की कसम खा लें। अगर वह कुरान शरीफ़ हाथ में लेकर कसमें खायें, तो भी मैं उनसे दूर भागूं।
[तारिक आता है।]
तारिक– अस्सलाम अलेक या हुसैन।
हुसैन– खुदा तुम पर रहमत करे। कहां से आ रहे हो?
तारिक– कूफ़ा के मजमूलों ने अपनी फ़रियाद सुनाने के लिये आपकी खिदमत में भेजा है। आफ़ताब डूबते चला था, और आफ़ताब डूबते आया हूं, और आफ़ताब निकलने के पहले यहां से जाना है।
मुस०– हवा पर आए हो या तख्तए-सुलेमान पर? कसम है पाक रसूल की कि मैं उस घोड़े के लिये पांच हज़ार दीनार पेश करता हूं।
तारिक– हुजूर, घोड़ी नहीं, सांड़नी है, जो सफ़र में खाना और थकना नहीं जानती।
(हुसैन के हाथ में खत देता है)
हुसैन– (खत पढ़कर) आह, कितना दर्दभरा खत है। जालिमों ने दिल निकालकर रख दिया है। यह कितना गजब का जुमला है कि अगर आप न आएंगे, तो हम आक़वत में आपसे इंसाफ़ का दावा करेंगे। आह! उन्होंने नाना का वास्ता दिया है। मैं नाना के नाम पर अपनी जान को यों फ़िदा कर सकता हूं, जैसे कोई हरीस अपना ईमान फ़िदा कर देता है। इतना जुल्म! इतनी सख्ती! दिन-दहाड़े लूट! दिन-दहाड़े औरतों की बेआबरूई! जरा-जरा-सी बातों पर लोगों का कत्ल किया जाना! अब्बास, अब मुझे सब्र की ताब नहीं है। मैं अपनी बैयत के लिये हर्गिज न जाता, पर मुसीबतजदों की हिमायत के लिये न जाऊं, यह मेरी ग़ैरत गंवारा नहीं करती।
मुस०– या बिरादर, आप इसका कुछ ग़म न करें, मैं इसी कासिद के साथ जाऊंगा और वहां की कैफ़ियत की इत्तिला दूंगा। मेरा खत देखकर आप मुनासिब फ़ैसला कीजिएगा।
हुसैन– तब तक यजीद उन गरीबों पर खुदा जाने क्या-क्या सितम ढाए। उसका अजाब मेरी गर्दन पर होगा। सोचो, जब कयामत के दिन वे लोग फ़रियादी होंगे, तो मैं नाना को क्या मुंह दिखाऊंगा। जब वह मुझसे पूछेंगे कि तुझे जान इतनी प्यारी थी कि तूने मेरे बंदों पर जुल्म होते देख, और खामोश बैठा रहा, उस वक्त मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा। मुसलिम, मेरा जी चाहता है कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूं।
मुस०– मुझे तो इसका यक़ीन है कि सुलेमान– जैसा आदमी कभी दग़ा नहीं कर सकता।
जुबेर– हर्गिज़ नहीं।
मुस०– पर मैं यही मुनासिब समझता हूं कि पहले वहां जाकर अपनी इत्मीनान कर लूं।
मुस०– बच्चों को ग़ैव का इल्म होता है। इसका फैसला अली असगर पर छोड़ दिया जाये। क्यों बेटा, मैं भी मुसलिम के साथ जाऊं, या उनके खत का इंतजार करूं।
अली अस०– नहीं अब्बाजान, अभी मुसलिम चाचा ही को जाने दाजिए। आप चलेंगे, तो कई दिन तैयारियों में लग जायेंगे। ऐसा न हो, इतने दिनों में वे बेचारे निराश हो जायें।
अब्बास– बेटा, तेरी उम्र दराज हो। तूने खूब फैसला किया। खुदा तुझे बुरी नजर से बचाए।
हुसैन– अच्छी बात है, मुसलिम, तुम सबेरे रवाना हो जाओ। अपने साथ गुलाम लेते जाओ। रास्ते में शायद इनकी ज़रूरत पड़े। मैं कूफ़ावालों के नाम यह खत लिख देता हूं, उन्हें दिखा देना। इंशा अल्लाह, हम तुमसे जल्दी ही मिलेंगे। वहां बड़े एहतियात से काम लेना, अपने को छिपाए रखना, और किसी ऐसे आदमी के घर उतरना, जो सबसे एतबार के लायक हो। मेरे पास एक खत रोजाना भेजना।
मुस०– खुदा से दुआ कीजिए कि वह मेरी हिदायत करे। मैं बड़ी भारी जिम्मेदारी लेकर जा रहा हूं। सुबह की नमाज पढ़कर मैं रवाना हो जाऊंगा। तब तक तारिक की सांड़नी भी आराम कर लेगी।
[हुसैन खत लिखकर मुसलिम को देते हैं। मुसलिम दरवाजे की तरफ़ चलते हैं।]
हुसैन– (मुसलिम के साथ दरवाजे तक आकर) रात तो अंधेरी है।
मुस०– उम्मीद की रोशनी तो दिल में है।
हुसैन– (मुसलिम से बगलगीर होकर) अच्छा भैया, जाओ, मेरा दिल तुम्हारे साथ रहेगा। जो कुछ होने वाला है, जानता हूं। इसकी खबर मिल चुकी है। तकदीर से कोई चारा नहीं, नहीं जानता, यह तकदीर क्या है! अगर खुदा का हुक्म है, तो छुपकर, सूरत बदलकर, दग़ाबाजों की तरह क्यों आती है। खुदा क्या साफ़ और खुले एक अल्फाज़ में अपना हुक्म नहीं भेजता। अपने बेकस बच्चों का शिकार टट्टी की आड़ से क्यों करता है। जाओ, कहता हूं, पर जी चाहता है, न जाने दूं। काश, तुम कह देते कि मैं न जाऊंगा। मगर तक़दीर ने तुम्हारी जबान बन्द कर रखी है। अच्छा, रूखसत। उम्मीद है कि अल्लाह हम दोनों को एक साथ शहादत का दर्जा देगा।
[मुसलिम बाहर चला जाता है। हुसैन आंखें पोंछते हुए हरम में दाखिल होते हैं।]
जैनब– भैया, आज फिर कोई क़ासिद आया था क्या?
हुसैन– हां जैनब, आया था। यजीद कूफ़ावालों पर बड़ा जुल्म कर रहा है। मेरा वहां जाना लाजिमी है। अभी तक मैंने मुसलिम को वहां भेज दिया है, पर खुद भी बहुत जल्द आना चाहता हूं।
जैनब– आपके एकाएक क्यों अपनी राय बदल दी? कम-से-कम मुसलिम के खत के आने का इंतजार कीजिए। मैं तो आपको हरगिज न जाने दूंगी। आपको वह ख्याब याद है, जो आपने रसूल की कब्र पर देखा था?
हुसैन– हां, जैनब, खूब याद है, इसी वजह से मैं जाने की जल्दी कर रहा हूं। उस ख्वाब ने मेरी तक़दीर को मेरे सामने खोलकर रख दिया। तक़दीर से बचने की भी कोई तकबीर है? ख़ुदा का हुक्म भी टल सकता है। खिलाफ़त की तमन्ना को दिल से मिटा सकता हूं, पर ग़ैरत को तो नहीं मिटा सकता, बेकसों की इमदाद से तो मुंह नहीं मोड़ सकता।
शहर०– आप जो कुछ करते हैं, इसमें खुदा और तक़दीर को क्यों खींच लाते हैं। जब आपको मालूम है कि कूफ़ा में लोग आपके साथ दग़ा करेंगे, तो वहां जाइए ही क्यों? तकदीर आपको खींच तो न ले जाएगी? बेकसों की इमदाद जरूर आपका और आप ही का नहीं, हर एक इंसान का फर्ज है, लेकिन आपके कुन्बे की भी तो कोई खबर लेने वाला हो? इंसान पर दुनिया से पहले खानदान का हक होता है।
हुसैन– ज़रा इस खत को पढ़ लो तब कहो कि मैंने जो फैसला किया है, वह मुनासिब है या नहीं। (शहरबानू के हाथ के खत देकर) देखा! इससे क्या साबित होता है? लेकिन जितने आदमियों ने इस पर दस्तखत किए हैं, उसके आधे भी मेरे साथ हो जायेंगे, तो मैं यजीद का काफ़िया तंग कर दूंगा। इस्लाम की खिलाफ़त इतना आला रुतबा है कि उसकी कोशिश में जान दे देना भी जिल्लत नहीं। जब मेरे हाथों में एक स्याहकार बैदीन आदमी को सजा देने का मौक़ा आया है, तो उससे फ़ायदा न उठाना पहले सिरे की पस्तहिम्मती है। घर में आग लगते देखकर उसमें कूद पड़ना नादानी है, लेकिन पानी मिल रहा हो, तो उनसे आग को न बुझाना उनसे भी बड़ी नादानी है।
सकीना– मगर अब्बाजान, अब तो मुहर्रम का महीना आ रहा है। फूफ़ीजान की बहुत दिनों से आरजू थी कि इस महीने में यहां रहती।
हुसैन– तुम लोगों को ले जाने का मेरा इरादा नहीं है।
जैनब– भैया, ऐसा भी हो सकता है कि आप वहां जायें, और हम यहां रहें! खुदा जाने, कैसी पड़े, कैसी न पड़े।
सकीना– अब्बाजान दिल्लगी करते हैं, आप लोग सच समझ गई।
कुलसूम– और कोई चले, चाहे न चले, मैं तो ज़रूर ही जाऊंगी। मेरे दिल से लगी हुई है कि एक बार यजीद को खूब आड़े हाथों लेती।
सकीना– मैं अपनी फतह का कसीदा लिखने के लिए बेताब हूं।
शहर०– आप समझते हैं कि हमारे साथ रहने से आपको तरद्दुद होगा, पर मैं पूछती हूं, आपको वहां फंसाकर दुश्मनों ने इधर हमला कर दिया, तो हमारी हिफा़जत की फिक्र आपको चैन लेने देगी?
जैनब– असग़र हुड़क-हुड़ककर जान दे देगा।
सकीना– हम अपने ऊपर इस बदनामी का दाग़ नहीं लगा सकती कि रसूल के बेटे ने तो इस्लाम की हिमायत में जान दी, और बेटियां हरम में बैठी रहीं।
हुसैन– (स्वगत) शहरबानू ने मार्के की बात कही, अगर दुश्मनों ने हरम पर हमला कर दिया, तो हम वहां बैठे-बैठे क्या कर लेंगे? इन्हें यहां छोड़ देना अपने किले की दीवार में शिग़ाफ़ कर देने से कम खतरनाक नहीं। (प्रकट) नहीं, मैं तो लोगों पर जब्र नहीं करता, अगर चलना चाहती है, तो शौक़ से चलो।
पांचवां दृश्य
[यजीद का दराबर। मुआबिया बेड़ियां पहने हुए बैठे हुआ है। चार गुलाम नंगी तलवारें लिए उसके चारों तरफ़ खड़े हैं। यजीद के तख्त के करीब सरजून रूमी बैठा हुआ है।]
मुआ०– (दिल से) नबी की औलाद पर यह जुल्म! मुझी से तो इसका बदला लिया जायेगा। बाप का कर्ज़ बेटे ही की तो अदा करना पड़ता है! नगर मेरे खून से इस जुलम का दाग़ न मिटेगा। हर्गिज नहीं, इस खानदान का निशान मिट जायेगा। कोई फातिहा पढ़ने वाला भी न रहेगा। आह! नबी की औलाद पर यह जुल्म! जिनके क़दमों की खाक आंखों में लगानी चाहिए थी। तबाही के सामान हैं। ऐ रसूक पाक, मैं बेगुनाह हूं, (प्रकट) आप जानते हैं। मौलाना रूमी के वालिद का मुझे कब तक इंतजार करना पड़ेगा।?
रूमी– आते ही होंगे। जियाद से कुछ बातें हो रही हैं।
मुआ०– वालिद मुझसे चाहते हैं कि मैं इस मार्के में शरीक हो जाऊं, लेकिन अगर जालिमों के हाथ से अख़्तियार छीनने के लिये, हक़ की हिमायत के लिये यह पहलू अख़्तियार किया जाता, तब सबसे पहले मेरी तलवार म्यान से निकलती, सबसे पहले मैं जिहाद का झंड़ा उठाता, पर हक़ का खून करने के लिये मेरी तलवार कभी बाहर न निकलेगी, और मेरी जबान उस वक्त तक मलामत करती रहेगी, जब तक वह तालू से खींच न ली जाये। नबी की मसन्द पर (जिसने दुनिया को हिदायत का चिराग दिखलाया, जिसने इसलामी क़ौम की बुनियाद डाली) उस शख्स को बैठने का मजाज नहीं है, जो दीन को पैरों चले कुचलता हो, जो इंसानियत के नाम को दाग़ लगाता हो, चाहे वह मेरा बाप ही क्यों न हो। इस्लाम का खलीफ़ा होना चाहिए, जिस पर इंसानियत को गरूर हो, जो दीनदार हो, हक़परस्त हो, बेदार हो, बेलौस हो, दूसरों के लिये नमूना हो, जो ताकत से नहीं, फ़ौज से नहीं, अपने कमान से, अपने सिफ़ात से दूसरों पर अपना वक़ार जमाए।
[यजीद, जुहाक़, जियाद, शरीक, शम्स, आदि आते हैं।]
यजीद– आप लोग देखिए, यह मेरा सपूट बेटा है, जो अपने बाप को कुत्ते से भी ज्यादा नापाक समझता है। मेरी फूलों की सेज में यहीं एक कांटा है, मेरा नियामतों के थाल में यही एक मक्खी है। आप लोग इसे समझाएं, इसे क़याल करें, इसीलिए मैंने इसे यहां बुलाया है। इसको समझाए कि खलीफ़ा के लिये दीनदारी से ज्यादा मुल्कदारी की जरूरत है। दीन मुल्लाओं के लिये है, बादशाहों के लिये नहीं। दीनदारी और मुल्कदारी दो अलग-अलग चीजें हैं, और एक ही जात में दोनों का मेल मुमकिन नहीं।
मुआ०– अगर हुकूमत करने के लिये दीन और हक़ का खून करना जरूरी है, तो मैं गद्दारी करने को उससे बेहतर समझता हूं। मुल्कदारी की मंशा इंसाफ और सच्चाई की हिफ़ाजत करना है, उसका खून करना नहीं।
यजीद– आप लोग सुनते हैं इसकी बातें। यह मुझे मुल्कदारी का सबक सिखा रहा है। इसके सिर से अभी सौदा नहीं उतरा। इसे फिर वहीं ले जाओ। ऐसे आदमी को आजाद रखना खतरनाक है, चाहे वह तख्त का वारिस ही क्यों न हो। बाज हालतें ऐसी होती हैं, जब इंसान को अपने ही से बचाना जरूरी होता है। दीवाने के न रोके, तो वह अपना गोश्त काट खाता है। (गुलाम मुआबिया को ले जाता है) जियाद, अब तुम अपनी दास्तान कहो, जब तक तुम मुझे इसका यकीन न दिला दोगे कि तुम कूफ़ा से अपनी जान से खौफ़ से नहीं, मेरे फायदे के ख्याल से आए हो, मैं तुम्हें मुआफ़ न करूंगा। ऐसे नाजुक मौके पर जब शहर में बग़ावत का हंगामा गर्म हो सल्तनत के हर एक मुलाजिम– चाहे वह सूबे का आमिल हो या शाही महल का दरबान– यही फर्ज है कि वह अपनी जगह पर आखिर तक खड़ा रहे, चाहे उसका जिस्म तीरों से छलनी क्यों न हो जाये।
जियाद– या खलीफ़ा, मैं अपने फ़र्ज से वाकिफ हूं, पर मैं यह अर्ज करने के लिये हाजिर हुआ हूं कि इस वक्त रियाया पर सख्ती करने से हालत और भी नाजुक हो जायेगी। जब सल्तनत को किसी दूसरे मुद्दई का खौफ हो, तो बादशाह को रियाया के साथ नरमी के बर्ताव करके उसे अपना दोस्त बना लेना मुनासिब है। बिगड़ी हुई रियाया तिनके की तरह है, जो एक चिनगारी से जल उठती है। मेरी अर्ज है कि हमें इस वक्त रियाया का दिल, अपने हाथ से कर लेना चाहिए, उसकी गरदनें एहसानों से दवा देनी चाहिए, ताकि वह सिर न उठा सके।
यजीद– मेरी फौज़ बागियों का सिर कुचलने के लिये काफी है।
रूमी– नाजुक मौके पर अगर कोई चीज सल्तनत को बचा सकती है, तो वह सख्ती है। शायद और किसी हालत में सख्ती की इतनी ज्यादा जरूरत नहीं होती।
जुहाक– बादशाह की रियाया उसकी ज़ौजा की तरह है। ज़ौजा पर हम निसार होते हैं, उसके तलबे सहलाते हैं, उसकी बलाएं लेते हैं, लेकिन जब उसे किसी रकीब से मुखातिब होते देखते हैं, तो उस वक्त उसकी बलाएं नहीं लेते। हमारी तलवार म्यान से निकल आती है, और या तो रकीब की गर्दन पर गिरती है या बीवी की गर्दन पर, या दोनों की गरदनों पर।
रूमी– बेशक, कूफ़ा को कुचल दो, कूफ़ा को कोफ्त कर दो।
यजीद– कूफ़ा को कोफ्त में डाल दो। यहां से जाते-ही-जाते फौजी कानून जारी कर दो। एक हजार आदमियों को तैयार रखो। जो आदमी जरा भी गर्म हो, उसे फौरन कत्ल कर दो। सरदारों को एकबारगी गिरफ्तार कर लो, यहां तक कि कोई शायर शेर न पढ़ने पाए, मसजिदों में खुतबे न होने पाएं, मक्तबों में कोई लड़का न जाने पाए। रईसों को खूब जलील करो। जिल्लत सबसे बड़ी सज़ा है।
[एक कासिद आता है]
शम्स– कहां से आते हो?
कासिद– खलीफ़ा को मेरा सलाम हो, मुझे मक्का के अमीर ने आपकी खिदमत में यह अर्ज करने को भेजा हैं कि हुसैन का चचेरा भाई मुसलिम कूफ़ा की तरफ़ रवाना हो गया है।
यजीद– कोई खत भी लाया है?
कासिद– आंमिल ने खत इसलिये नहीं दिया कि कहीं मुझे दुश्मन गिरफ्तार न कर लें।
यजीद– जियाद, तुम इसी वक्त कूफ़ा चले जाओ। तुम्हें मेरे सबसे तेज घोड़े को ले जाने का अख्तियार है। अगर मेरा काबू होता, तो तुम्हें हवा के घोड़े पर सवार करता।
जियाद– खलीफ़ा पर मेरी जान निसार हो, मुझे इस पर मुहिम पर जाने से मुआफ रखिए। जुहाफ या शम्स को तैनात फरमाएं।
यजीद– इसके मानी यह है कि मैं अपनी एक आंख फोड़ लूं।
रूमी– आखिर तुम क्या चाहते हो?
जियाद– मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि इस मौके पर रियाया के साथ मुलायमियत का बर्ताव किया जाये, सरदार को जागीरें दी जायें, उनके वजीफे बढ़ाए जायें, यतीमों और बेवाओं की परवरिश का इंतजाम किया गया। मैंने कूफ़ावालों की खसलत का गौर से मुताला किया है, वे हयादार नहीं है, दिलेर नहीं है, दीनदार नहीं हैं। चंद खास आदमियों को छोड़कर, सब-के-सब लोभी और खुदगर्ज है। बात पर अड़ना नहीं जानते, शान पर मरना नहीं जानते, थोड़े से फायदे के लिये भाई-भाई का गला काटने पर आमादा हो जाते हैं। कुत्तों को भगाने के लिये लाठी से ज्यादा आसान हड्डी का एक टुकड़ा होता है। सब-के-सब उस पर टूट पड़ते हैं और एक दूसरे की भंभोड़ खाते हैं। खलीफ़ा का खजाना दस-बीस हजार दीनारों के निकल जाने से खाली न हो जायेगा, पर एक कौम हमारे हाथ आ जायेगी। सख्ती कमजोर के हक में वही काम करती है, जो ऐंठन तिनके के साथ। हम ऐंठन के बदले हवा के झोके से तिनकों को बिखेर सकते हैं, फौज से फ़ौज कुचली जा सकती है, एक कौम नहीं।
रूमी– मैं तो हमेशा सख्ती का हामी रहा, और रहूंगा।
शरीक– कामिल हकीम वह हैं, जो मरीज के मिजाज के मुताबिक दवा में तबदीली करता रहे। आपने उस हकीम का किस्सा नहीं सुना, जो हमेशा फ़स्द खोलने की तजवीज किया करता था। एक बार एक दीवाने का फ़स्द खोलने गया। दीवाने ने हकीम की गर्दन इतने जोर से दबाई की हकीम साहब की जूबान बाहर निकल आई। मुल्कदारी के आईने मौंके और जरूरत के मुताबिक बदलते रहते हैं।
यजीद– जियाद, मैं इस मुआमले में तुम्हें मुख्तार बनाता हूं। मुझे भी कुछ-कुछ आदेश हो रहा है कि कहीं हुसैन के बाद कूफ़ावालों को लुभा न लें। तुम जो मुनासिब समझो, करो। लेकिन याद रखो, अगर कूफ़ा गया, तो तुम्हारी जान उसके साथ जायेगी। यह शर्त मंजूर है।
जियाद– मंजूर है।
यजीद– हुर को ताकीद कर दो कि बहुत नमाज न पढ़े, और मुसलिम को इस तरह तलाश करे, जैसे कोई बखील अपनी खोई मुर्गी को तलाश करता है। तुम्हारी नरमी कमजोरों की नरमी नहीं होनी चाहिए, जिसे खुशामद कहते हैं। उसमें हुकूमत की शान कायम रखनी चाहिए। बस, जाओ।
[जियाद शरीक और कासिद चले जाते हैं।]
जुहाक– नरगिस को बुलाओ, ज़रा ग़म ग़लत करे। (गुलाब के हाथ से शराब का प्याला लेकर) यह मेरी फ़तह का जाम है।
रूमी– मुबारक हो, (दिल में) जियाद तुम्हें डूबा देगा, तब नरमी का मज़ा मालूम होगा।
(नरगिस जुहाक की पीठ पर बैठी हुई आती है।)
यजीद– शाबाश नरगिस, शाबाश, क्या खूब खच्चर है। इसकी कोई तशवीह। (उपमा) देना शम्स।
शम्स– मुर्ग के सिर पर ताज है।
रूमी– लीद पर मक्खी बैठी हुई है।
नरगिस– (गर्दन पर से कूदकर) लाहौल-विला-कूवत।
यजीद– वल्लाह, इस तशबीह से दिल खुश हो गया। नरगिस, बस इसी बात पर एक मस्ताना ग़जल सुनाओ। खुदा तुम्हारे दीवानों को तुम पर निसार करे।
नरगिस गाती है–
शबे-वस्ल वह रूठ जाना किसी का,
वह रूठे को अपने मनाना किसी का।
कोई दिल को देखे न तिरछी नज़र से,
खता कर न जाए निशाना किसी का।
अभी थाम लोगे तुम अपने जिगर को,
सुनो, तो सुनाएं फसाना किसी का।
जरा देख ले चल के, सैयाद, तू भी
कि उठता है अब आब-दाना किसी का।
वह कुछ सोचकर हो लिए उसके पीछे,
जनाजा हुआ जब रवाना किसी का।
बुरा वक्त जिस वक्त आता है ‘बिस्मिल’,
नहीं साथ देता जमाना किसी का।
[परदा गिरता है]
छठा दृश्य
(संध्या का समय। सूर्यास्त हो चुका है। कूफ़ा का शहर– कोई सारवान ऊँट का गल्ला लिए दाखिल हो रहे है।)
पहला– यार गलियों से चलना, नहीं तो किसी सिपाही की नज़र पड़ जाये, तो महीनों बेगार झेलनी पड़े।
दूसरा– हाँ-हाँ, वे बला के मूजी है। कुछ लादने को नहीं होता, तो यों ही बैठ जाते हैं, और दस-बीस कोस का चक्कर लौट आते हैं। ऐसा अंधेर पहले कभी न होता था। मजूरी तो भाड़ में गई, ऊपर से लात और गालियां खाओ।
तीसरा– यह सब महज पैसे आँटने के हथकंडे हैं। न-जाने कहां के कुत्ते आ के सिपाहियों में दाखिल हो गए। छोटे-बड़े एक ही रंग में रंगे हुए है।
चौथा– अमीर के पास फरियाद लेकर जाओ, तो उल्टे और बौछार पड़ती है। अजीब मुसीबत का सामना है। हज़रत हुसैन जब तक न आएंगे, हमारे सिर से ये बला न टलेगी।
[मुसलिम पीछे से आते हैं।]
मुस०– क्यों यारों, इस शहर में कोई खुदा का बंदा ऐसा है, जिसके यहां मुसाफिरों के ठहरने को जगह मिल जाये?
पहला– यहां के रईसों की कुछ न पूछो। कहने को दो-चार बड़े आदमी हैं, मगर किसी के यहां पूरी मजूरी नहीं मिलती। हां, जरा गालियां कम देते हैं।
मुस०– सारे शहर में एक भी सच्चा मुसलमान नहीं है?
दूसरा– जनाब, यहां कोई शहर के काजी तो हैं नहीं, हां, मुख्तार की निस्बत सुनते हैं कि बड़े दीनदार आदमी है। हैसियत तो ऐसी नहीं, मगर खुदा ने हिम्मत दी है। कोई गरीब चला जाये, तो भूखा न लौटेगा।
तीसरा– सुना है, उनकी जागीर जब्त कर ली गई है।
मुस०– यह क्यों?
तीसरा– इसीलिये कि उन्होंने अब तक याजीद की बैयत नहीं ली।
मुस०– तुममें से मुझे कोई उनके घर तक पहुंचा सकता है?
चौथा– जनाब, यह ऊँटनियों के दुहने का वक्त है; हमें फुरसत नहीं, सीधे चले जाइए, आगे लाल मसजिद मिलेगी, वहीं उनका मकान है।
मुस०– खुद तुम पर रहमत करे। अब चला जाऊंगा।
[परदा बदलता है। मसजिद के क़रीब मुख्तार का मकान]
मुस०– (एक बुड्ढे से) यही मुख्तार का मकान हैं न?
बुड्डा– जी हां, ग़रीब ही का नाम मुख्तार है। आइए, कहां से तशरीफ़ ला रहे हैं?
मुस०– मक्के शरीफ़ से।
मुख०– (मुसलिम के गले से लिपटकर) मुआफ कीजिएगा। बुढ़ापे की बीनाई शराबी की तोबा की तरह कमजोर होता है। आज बड़ा मुबारक दिन है। बारे हज़रत ने हमारी फ़रियाद सुन ली। खैरियत से हैं न?
मुस०– (घोड़े से उतरकर) जी हां, सब खुदा का फ़जल है।
मुख०– खुदा जानता है, आपको देखकर आँखें शाद हो गई। हज़रत का इरादा कब तक आने का है?
मुस०– (खत निकालकर मुख्तार को देते हैं) इसमें उन्होंने सब कुछ मुफ़स्सल लिख दिया है।
मुस०– (खत को छाती और आंखों से लगाकर पढ़ता है) खुशनसीब कि हज़रत के कदमों से यह शहर पाक होगा। मेरी बैयत हाजिर है, और मेरे दोस्तों की तरफ से भी कोऊ अंदेशा नहीं।
[गुलाम को बुलाता है।]
गुलाम– जनाब ने क्यों याद फरमाया?
मुख०– देखो, इसी वक्त हारिस, हज्जाम सुलेमान, शिमर, क़ीस, शैस और हानी के मकान पर जाओ और मेरा यह रुक्का दिखाकर जवाब लाओ।
गुलाम– रुक्का लेकर चला जाता है।
[गुलाम रुक्का लेकर चला जाता है।]
पहले मुझे ऐसा मालूम होता था कि हज़रद का कोई क़ासिद आएगा, तो मैं शायद दीवान हो जाऊंगा, पर इस वक्त आपको सामने देखकर भी खामोश बैठा हुआ हूं। किसी शायर ने सच कहा है– ‘जो मजा इन्तजार में देखा, वह नहीं वस्लेयार में देखा।’ जन्नत का खयाल कितना दिलफ़रेब है, पर शायद उसमें दाख़िल होने पर इतनी खुशी न रहे। आइए, नमाज़ अदा कर लें। इसके बाद कुछ आराम फ़रमा लीजिए। फिर दम मारने की फुरसत न मिलेगी।
दोनों मकान के अंदर चले जाते हैं। परदा बदलता है।
(मुसलिम और मुख्तार बैठे हुए हैं।)
मुस०– कितने आदमी बैयत लेने के लिये तैयार हैं?
मुख०– देखिए, सब अभी आ जाते हैं। अगर यजीद की जानिब से जुल्म और सख्ती इसी तरह होती रही, तो हमारे मददगारों की तादाद दिन-दिन बढ़ती जायेगी। लेकिन कहीं उसने दिलजोई शुरू कर दी, तो हमें इतनी आसानी से कामयाबी न होगी।
[सुलेमान का प्रवेश]
सुले०– अस्सामअलेक हज़रत मुसलिम, आपको देखकर आंखें रोशन हो गई; मेरे कबीले के सौ आदमी बैयत लेने की हाजिर हैं और सब-के-सब अपनी बात पर मिटने वाले आदमी हैं।
मुस०– आपको खुदा नजात दे। इस आदमियों से कहिए, कल जामा मसजिद में जमा हों। आपका खत पढ़कर भैया को बहुत रंज हुआ। उन्होंने तो फैसला लिया था कि रसूल के मजार पर बैठे हुए जिंदगी गुजार दें, पर आपके आखिरी खत ने उन्हें बेक़रार कर दिया। सायल की हिमायत से वह कभी नहीं मुंह मोड़ सकते।
[शैस, कीस, शिमर, साद और हज्जाज का प्रवेश]
शैस– अस्सामअलेक हज़रत, आपको देखकर जिगर ठंडा हो गया।
कीस– अस्सलामअलेक आपके क़दमों से हमारे वीरान घर आबाद हो गए।
हल्लाज– अस्सामअलेक, आपको देखकर हमारे मुर्दा तन में जान आ गई।
मुस०– (सबसे गले मिलकर) हज़रत इमाम ने मुझे यह खत देकर आपकी खिदमत में भेजा है।
[शिमर खत लेकर ऊंची आवाज से पढ़ता है, और सब लोग सिर झुकाए सुनते हैं।]
शैस– हमारे ज़हे नसीब, मैं तो अभी दस्तख्वान पर था। खबर पाते ही आपकी ज़ियारत करने दौड़ा।
हज्जाज– मैं तो अभी-अभी बसरे से लौटा हूं, दम भी न मारने पाया था कि आपके तशरीफ़ लाने की खबर पाई। मेरे कबीले के बहुत से आदमी बैयत लेने को बाहर खड़े हैं।
मुस०– उन्हें कल जामा मसजिद में बुलाइए।
शिमर– वह कौन-सा दिन होगा कि मलऊन यजीद के जुल्म से नज़ात होगी।
शैस– हज़रत हुसैन ने हम गरीबों की आवाज़ सुन ली। अब हमारे बुरे दिन न रहेंगे।
कीस– हमारी किस्मत के सितारे अब रोशन होंगे। मेरी दिली तमन्ना है कि जियाद का सिर अपने पैरों के नीचे देखूं।
शिमर– मैंने तो मिन्नत मानी है कि मलऊन जियाद के मुंह में कालिख लगाकर सारे शहर में फिराऊं।
कीस– मैं तो यजीद की नाक काटकर उसकी हथेली पर रख देना चाहता हूं।
[हानी, कसीर और अशअस का प्रवेश।]
हानी– या बिरादर हुसैन, आप पर, खुदा की रहमत हो।
कीस– अल्लाहताला आप पर साया रखे। हम सब आपकी राह देख रहे थे।
मुस०– भाई साहब ने मुझे यह खत देकर आपकी तसकीन के लिए भेजा है।
[हानी ख़त लेकर आंखों से लगाता है, और आंखों में ऐनक लगाकर पढ़ता है।]
शिमर– अब जियाद की खबर लूंगा।
कीस– मैं तो यजीद की आंखों में मिर्च डालकर उसका तड़पना देखूंगा।
मुस०– आप लोग भी कल अपने कबीलेवालों को जामा मसजिद में बुलाएं। कल तीन-चार हज़ार आदमी आ जाऐंगे?
शैस– खुदा झूठ न बुलवाए, तो इसके दसगुने हो जायेंगे।
हानी– नबी की औलाद की शान और ही है। वह हुस्न, वह इख़लाक, वह शराफत कहीं नज़र ही नहीं आती।
कीस– यजीद को देखो, खासा हब्शी मालूम होता है।
हज्जाम– जियाद तो खासा सारवान है।
मुस०– तो कल शाम को जामा मसजिद में आने की ठहरी।
शिमर– तो हम लोग चलकर अपने कबीलों को तैयार करें, ताकि जो लोग इस वक्त यहां न हों, वे भी आ जायें।
[सब लोग चले जाते हैं]
मुस०– (दिल में) ये सब कूफ़ा के नामी सरदार हैं। हमारी फतह जरूर होगी और एक बार तकदीर को जक उठानी पड़ेगी। बीस हजार आदमियों की बैयत मिल गई, तो फिर हुसैन को खिलाफ़त की मसनद पर बैठने से कौन रोक सकता है, जरूर बैठेंगे।
सातवाँ दृश्य
[कूफ़ा के चौक में कई दुकानदार बातें कर रहे हैं।]
पहला– सुना, आज हज़रत हुसैन तशरीफ लेनेवाले हैं।
दूसरा– हां, कल मुख्तार के मकान पर बड़ा जमघट था। मक्का से कोई साहब उनके आने की खबर लाए हैं।
तीसरा– खुदा करे, जल्द आवें। किसी तरह इन जालिमों से पीछा छूटे। मैंने बैयत तो यजीद की ले ली है, लेकिन हज़रत आएंगे, तो फौरन फिर जाऊंगा।
चौथा– लोग कहते थे, बड़ी धूमधाम से आ रहे है। पैदल और सवार फौजें हैं। खेमे वगैरह ऊँटों पर लदे हुए हैं।
पहला– दुकान बढ़ाओ, हम लोग भी चलें। तकदीर में जो कुछ बिकना था, बिक चुका। आकबत की भी तो कुछ फिक्र करनी चाहिए (चौंककर) अरे बाजे की आवाजें कहां से आ रही हैं?
दूसरा– आ गए शायद।
[सब दौड़ते हैं। जियाद का जलूस सामने से आता है। जियाद मिंबर पर खड़ा हो जाता है।]
कई आवाजें– मुबारक हो, मुबारक हो, या हज़रत हुसैन!
जियाद– दोस्तों, मैं हुसैन नहीं हूं। हुसैन का अदना गुलाम रसूल पाक के कदमों पर निसार होने वाला नाचीज खादिम बिन जियाद हूं।
एक आवाज– जियाद है, मलऊन जियाद है।
दूसरा– गिरा दो मिंबर पर से; उतार दो मरदूद को।
तीसरा– लगा दो तीर का निशाना। ज़ालिम की जबान बन्द हो जाय।
चौथा– खामोश, खामोश। सुनो, क्या कहता है?
जियाद– अगर आप समझते हैं कि मैं जालिम हूं, तो बेशक मुझे तीर का निशाना बनाइए, पत्थरों से मारिए, क़त्ल कीजिए, हाजिर हूं। जालिम गर्दन जदनी है और जो जुल्म बर्दाश्त करे, वह बेग़ैरत है। मुझे ग़रूर है कि आप गै़रत है, जोश है।
कई आवाजें– सुनो, सुनो, खामोश।
जियाद– हां, मैं ग़ैरत से, ग़रूर से नहीं डरता, क्योंकि यही वह ताक है, जो किसी कौम को जालिम के हाथ से बचा सकती है। खुदा के लिए उस जुल्म की नाकदारी न कीजिए, जिसने आपकी ग़ैरत को जगाया। यही मेरी मंशा थी, यही यजीद की मंशा थी, और खुदा का शुक्र कि हमारी तमन्ना पूरी हुई। अब हमें यकीन हो गया है कि हम आपके ऊपर भरोसा कर सकते हैं। जालिम उस्ताद की भी कभी-कभी जरूरत होती है। हज़रत हुसैन जैसा पाक-नीयत दीनदार बुजुर्ग आपको यह सबक न दे सकता था। यह हम जैसा कमीना, ख़ुदगरज़ आदमियों ही का काम था। लेकिन अगर हमारी नीयत खराब होती, तो आप आज मुझे यहां खड़े होकर उन रियायतों का एलान करते न देखते, जो मैं अभी-अभी करने वाला हूं। इन एलानों से आप पर मेरे क़ौल की सच्चाई रोशन हो जायेगी।
कई आवाजें– खामोश, खामोश, सुनो-सुनो।
जियाद– खलीफा, यजीद का हुक्म है कि कूफ़ा और बसरा का हरएक बालिग मर्द पांच सौ दिरहम सालाना खजाने से पाए।
बहुत-सी आवाजें– सुभानअल्लाह, सुभानअल्लाह।
जियाद– और कूफ़ा व बसरे की हरएक बालिग औरत दो सौ दिरहम पाए, जब तक उस का निकाह न हो।
बहुत-सी आवाजेंन– सुभानअल्लाह, सुभानअल्लाह।
जियाद– और हरएक बेवा को सौ दिरहम सलाना मिलें, जब तक उसकी आंखें बंद न हो जायें, वह दूसरा निकाह न कर ले।
बहुत-सी आवाजें– सुभानअल्लाह, सुभानअल्लाह।
जियाद– यह मेरे हाथ में खलीफ़ा का फ़रमान है। देखिए, जिसे यकीन न हो। हरएक यतीम को बालिग होने तक सौ दिरहम सलाना मुकर्रर किया गया है। हर एक जवान मर्द और औरत को शादी के वक्त एक हजार दिरहम एकमुश्त खर्च के लिए दिया जायेगा।
बहुत-सी आवाजें– खुदा खलीफा यजीद को सलामत रखे। कितनी फैयाजी की है।
जियाद– अभी और सुनिए, तब फैसला कीजिए कि यजीद जालिम है या रियाया-परवर? उसका हुक्म है कि हरएक कबीले के सरदार को दरिया के किनारे की उतनी जमीन अता की जाय, जितनी दूर उसका तीर जा सके।
बहुत-सी आवाजें– वहम यजीद की बैयत मंजूर करते हैं। यजीद हमारा खलीफा है।
जियाद– नहीं, यजीद बैयत के लिए आपकी रिश्वत नहीं देता। बैयात आपके अख्तियार में हैं। जिसे जी चाहें दीजिए। यजीद हुसैन से दुश्मनी करना नहीं चाहता। उसका हुक्म है कि नदियों के घाट पर महसूल मुआफ कर दिया जायें।
बहुत-सी आवाजें– हम यजीद को अपनी खलीफ़ा तसलीम करते हैं।
जियाद-नहीं-नहीं, यजीद कभी हुसैन के ह़क को जायल न करेगा। हुसैन मालिक है, फ़ाज़िल हैं, आबिद हैं, जाहिद हैं, यजीद को इनमें से कोई सिफ़र रखने का दावा नहीं। यजीद में अगर कोई सिफ़त है, तो यह कि वह जुल्म करना जानता है, खासकर नाजुक वक्त पर, जब माल और जान की हिफ़ाजत करने वाला कोई न हो, जब सब अपने हक और दावे पेश करने में मशरूफ हों।
बहुत-सी आवाजें– जालिम यजीद ही हमारा अमीर है। दिल से उसकी बैयत कबूल करते हैं।
जियाद– सोचिए, और गौर से सोचिए। अगर खिलाफ़त के दूसरे दावेदारों की तरह यजीद भी किसी गोशे में बैठे हुए बैयत की फिक्र करते, तो आज मुल्क की क्या हालत होती? आपकी जान व माल की हिफाजत कौन करता? कौन मुल्क को बाहर के हमलों से और अन्दर की लड़ाइयों से बचाता? कौन सड़कों और बंदरगाहों को डाकुओं से महफूज रखता? कौन कौम की बहू-बेटियों की हुरमल का जिम्मेदार होता? जिस एक आदमी की जात से कौम और मुल्क को नाजुक मौके पर कितने फायदे पहुंचे हों, और जिसने खलीफ़ा चुने जाने का इंतजार न करके ये बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियां सिर पर ले ली हों, क्या वह इसी काबिल है कि उसे मलऊन और मरदूद कहा जाय, उसे सारे बाजार में गालियां दी जाये?
एक आवाज– हम बहुत नादिम हैं। खुदा हमारा गुनाह मुआफ करे।
शिमर– हमने खलीफ़ा यजीद के साथ बड़ी बेइंसाफी की है।
जियाद– हां, आपने जरूर बेइंसाफी की है। मैं यह बिला खौफ़ कहता हूं, ऐसा आदमी इससे कहीं अच्छा बर्ताव के लायक रखा। हुसैन की इज्जत यजीद के और मेरे दिल में उससे जरा भी कम नहीं है, जितनी और किसी के दिल में होगी। अगर आप उन्हें अपना खलीफा तसलीम करते हैं, तो मुबारक हो। हम खुश, हमारा खुदा खुश। यजीद सबसे पहले उनकी बैयत मंजूर करेगा, उसके बाद मैं हूंगा। रसूल पाक ने खिलाफत के लिए इंतखाब की शर्त लगा दी है। मगर हुसैन के लिए इसकी कैद नहीं।
कीस– है। यह कैद सबके लिए एक-सा है।
जियाद– अगर है, तो इंतखाब का बेहतर और कौन मौका होगा। आप अपनी रजा और रग़बत से किसी का लिहाज और मुरौवत किए बगैर जिसे चाहें, खलीफ़ा तसलीम कर लें। मैं कसरत राय को मानकर यजीद को इसकी इत्तला दे दूंगा।
एक तरफ से– हम यजीद को खलीफ़ा मानते हैं।
दूसरी तरफ से– हम यजीद की बैयत कबूल करते हैं।
तीसरी तरफ से– यजीद, यजीद, यजीद।
जियाद-खामोश, हुसैन को कौन खलीफ़ा मानता है?
[कोई आवाज़ नहीं आती।]
जियाद– आप जानते हैं, यजीद आबिद नहीं।
कई आवाजें– हमें आबिद की जरूरत नहीं।
जियाद– यजीद आलिम नहीं, फ़ाजिल नहीं हाफ़िज नहीं।
कई आवाजें– हमें आलिम फ़ाजिल की जरूरत नहीं,
हज्जाज– कितना फैयाज़ है।
शिमर– किसी खलीफ़ा ने इतनी फैयाजी नहीं की।
शैस– आबिद कभी फैयाज नहीं होता।
अशअस– अभी, कुछ न पूछो, मसजिद के मुल्लाओं को देखो, रोटियों पर जान देते हैं।
जियाद– अच्छा, यजीद को आपने खलीफ़ा तो मान लिया, लेकिन हैजाज, मिस्र, यमन के लोग किसी और को खलीफ़ा मान लें, तो?
ब० अ०– हम खलीफ़ा यजीद के लिए जान दे देंगे। जियाद– बहुत मुमकिन है कि हजरत हुसैन ही को वे लोग अपना खलीफा बनाए, तो आप अपना कौल निभाएंगे?
ब० आ०– निभाएंगे। यजीद के सिवा और कोई खलीफ़ा नहीं हो सकता। बैयत लेने के लिये भेजा है और शायद खुद भी आ रहे हैं। यजीद को गोशे में बैठकर, खुदा की याद करना इससे कहीं अच्छा मालूम होगा कि वह इस्लाम में निफ़ाक की आग भड़काएं। अभी मौका है, आप लोग खूब गौर कर लें।
शिमर– हमने खूब गौर कर लिया है।
हज्जात– हुसैन को न जाने क्यों खिलाफ़त की हवस है। बैठे हुए खुदा की इबादत क्यों नहीं करते?
कीस– हुसैन मदीनावालों के साथ जो सलूक करेंगे, वह अभी हमारे साथ नहीं कर सकते।
शैस– उनका आना बला का आना है।
जियाद– अगर आप चाहते हैं कि मुल्क में अमन रहे, तो खबरदार, इस वक्त एक आदमी भी जामा मसजिद में न जाये। हुसैन आए, हमारे सिर आँखों पर। हम उनकी ताजीम करेंगे, उनकी खिदमत करेंगे, लेकिन उन्हें खिलाफ़त का दावा पेश करते देखेंगे, तो मुल्क में अमन रखने के लिए हमें आपकी ज़रूरत होगी। यही आपकी आजमाइश का वक्त होगा, और इसी में पूरे उतरने पर इस्लाम की जिंदगी का दारमदार है।
[मिंबर पर से उतर आता है।]
शैस– बड़ी गलती हुई कि हुसैन को खत लिखा।
शिमर– मैं तो अब जामा मसजिद न जाऊंगा।
कीस– यहां कौन जाता है।
शैश– काश, इन्हीं रियायतों का चंद रोज पहले एलान कर दिया गया होता, तो खत लिखने की नौबत ही क्यों आती।
शिमर– दीन की फिक्र मोटे आदमी करें, यहां आदमी दुनिया की फिक्र काफी है।
[सब जाते हैं।]
आठवां दृश्य
[नौ बजे रात का समय। कूफ़ा की जामा मसजिद। मुसलिम, मुख्तार, सुलेमान और हानी बैठे हुए हैं। कुछ आदमी द्वार पर बैठे हुए हैं।]
सुले०– अब तक लोग नहीं आए?
हानी– अब जाने की कम उम्मीद है।
मुस०– आज जियाद का लौटना सितम हो गया। उसने लोगों को वादों के सब्ज बाग दिखाए होंगे।
सुले०– इसी को तो सियामत का आईन कहते हैं।
मुस०– इन जालिमों ने सियासत को ईमान से बिल्कुल जुदा कर दिया है। दूसरे खलीफ़ों ने इन दोनों को मिलाया था। सियासत को दग़ा से पाक कर दिया था।
मुख०– हजरत मुसलिम, अब आप अपनी तकरीर शुरू कीजिए, शायद लोग जमा हो जायें।
[मुसलिम मिंबर पर चढ़कर भाषण देते हैं]
‘‘शुक्र है उस पाक खुदा का, जिसने हमें आज दीन इस्लाम के लिए एक ऐसे बुजुर्ग को खलीफ़ा चुनने का मौका दिया है, जो इस्लाम का सच्चा दोस्त…।’’
[बहुत से आदमी मसजिद में घुस पड़ते हैं।]
पहला– बस हज़रत मुसलिम, जबान बंद कीजिए।
दूसरा– जनाब, आप चुपके से मदीने की राह लें। यजीद हमारे खलीफ़ा हैं और यजीद हमारा इमाम है।
सुले०– मुझे मालूम है कि जियाद ने आज तुम्हारी पीठ पर खूब हाथ फेरे हैं, और हरी-हरी घास दिखाई है, पर याद रखो, घास के नीचे जाल बिछा हुआ है।
[बाहर से ईंट और पत्थर की वर्षा होने लगती है।]
एक आ०– मारो-मारो, यह कौम का दुश्मन है।
सुले०– जालिमी, यह खुदा का घर है। इसकी हुरमत का तो खयाल रखो।
दू० आ०– खुदा का घर नहीं; इस्लाम के दुश्मनों का अड्डा है।
तीसरा– मारो-मारो, अभी तक इसकी जबान बंद नहीं हुई।
[सुलेमान जख्मी होकर गिर पड़ते हैं। मुसलिम बाहर आकर कहते हैं।]
‘‘ऐ बदनसीब कौम, अगर तू इतनी जल्दी रसूल की नसीहतों को भूल सकती है और तुझमें नेक और बद की तमीज नहीं रही, अगर तू इतनी जल्द जुल्म और जिल्लत को भूल सकती है, तो तू दुनिया में कभी सुर्खरू न होगी।’’
एक आ०– इस्लाम का दुश्मन है।
दूसरा– नहीं-नहीं, हजरत हुसैन के चचेरे भाई हैं। इनकी तौहीन मत करो।
तीसरा– इन्हें पकड़कर शहर की किसी अंधेरी गली में छोड़ दो। हम इनके खून से हाथ न रंगेगे।
[कई आदमी मुसलिम पर टूट पड़ते हैं और उन्हें खींचते हुए ले जाते हैं, और साथ ही परदा भी बदलता है।]
मुस०– (दिल में) जालिमों ने कहां लाकर छोड़ दिया। कुछ नहीं सूझता। रास्ता नहीं मालूम। कहां जाऊं? कोई आदमी नज़र नहीं आता कि उससे रास्ता पूछूं।
[हानी आता हुआ दिखाई देता है।]
मुस०– ऐ खुदा के नेक बंदे, मुझे यहां से निकलने का रास्ता बता दो।
हानी– हज़रत मुसलिम! क्या अभी आप यहीं खड़े हैं?
मुस०– आप हैं, हानी? रसूल पाक की कसम, इस वक्त तन में जान पड़ गई। मुझे तो कई आदमियों ने पकड़ लिया, और यहां छोड़कर चल दिए।
हानी– वे मेरे ही आदमी थे। मैंने वहां की हालत देखी, तो आपको वहां से हटा देना मुनासिब समझा। मैंने उन्हें तो ताकीद की थी कि आपको मेरे घर पहुंचा दें।
मुस०– पहले आपके आदमी होंगे, अब नहीं हैं। जियाद की तकरीर ने उन पर भी असर किया है।
हानी– खैर, कोई मुजायका नहीं, मेरा मकान करीब है; आइए। हम सियासत के मैदान में जियाद से नीचा खा गए। उसने यह खबर मशहूर कर दी कि हुसैन आ रहे हैं। इस हीले से लोग जमा हो गए, और उसे उनको फ़रेब देने का मौका मिल गया।
मुस०– मुझे तो अब चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा नज़र आता है।
हानी– जियाद की तकरीर ने सूरत बदल दी। जिन आदमियों ने हजरत के पास खत भेजने पर जोर दिया था, वे भी फ़रेब में आ गए।
[सुलेमान और मुख्तार आते हैं। सुलेमान के सिर पर पट्टी बंधी हुई है।]
मुख०– शुक्र है, आप खैरियत से पहुंच गए। जियाद के आदमी आपको तलाश करते फिरते हैं।
मुस०– हानी, ऐसी हालत में यहां रहकर मैं आपको खतरे में नहीं डालना चाहता। मुझे रुखसत कीजिए। रात को किसी मसजिद में पड़ा रहूंगा।
हानी– मुआज अल्लाह, यह आप क्या फ़रमाते हैं! यह आपका घर है। मैं और मेरा सब कुछ हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार है।
[शरीक का प्रवेश]
शरीक– अस्सलाम अलेक या हजरत मुसलिम है। मैं भी हुसैन के गुलामों में हूं।
हानी– हज़रत मुसलिम, आपने शरीफ का नाम सुना होगा। आप हज़रत अली के पुराने खादिम हैं, और उनकी शान में कई कसीदे लिख चुके हैं।
मुस०– (शरीक से गले मिलकर) ऐसा कौन बदनसीब होगा, जिससे आपका कलाम न देखा गया हो।
शरीक मैं हज़रत का खादिम और नबी का गुलाम हूं। बसरेवालों की फ़रियाद लेकर यजीद के पास गया था। वहां मालूम हुआ कि आप मक्का से रवाना हो गए हैं। मैं जियाद के साथ ही इधर चल पड़ा कि शायद आपकी कुछ खिदमत कर सकूं। यजीद ने अब सख्ती की जगह नरमी और रियायत से काम लेना शुरू किया है और, आज जियाद की तकरीर का असर देखकर मुझे यकीन हो गया है कि यहां के लोग हज़रत हुसैन से जरूर दगा कर जायेंगे। हमें भी फरेब का जवाब फरेब से ही देना लाजिम है।
मुस०– क्योंकर?
शरीक– इसकी आसान तरकीब है। मैं जियाद को अपनी बीमारी की खबर दूंगा। वह यहां मेरी मिजाज-पुरसी करने जरूर आवेगा, आप उसे कत्ल कर दीजिए।
मुस०– अल्लाहताला से फरमाया है कि मुसलमान को मुसलमान का खून करना जायज नहीं।
शरीक– अगर अल्लाहताला ने यह भी तो फरमाया है कि बेदीन को अमन देना साँप को पालना है।
मुस०– पर मेरी इंसानियत इसकी इजाजत नहीं देती।
शरीक– बेदीन को क़त्ल करना ऐन सवाब है। जिहाद में इंसानियत को दखल नहीं, हक का रास्ता डाकुओं और लुटेरों से खाली नहीं है। और उनका ख़ौफ है, तो इस रास्ते पर कदम ही न रखना चाहिए। आप इस मामले को सोचिए।
[बाहर से आदमियों का एक गिरोह हानी का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस जाता है।]
एक आ०– इन्हीं ने हुसैन को खत लिखा था। पकड़ लो इन्हें।
मुस०– (सामने आकर) यहां से चले जाओ।
दू० आ०– यही हजरत मुसलिम हैं। इन्हें गिरफ्तार कर लो।
मुस०– हां, मैं ही मुसलिम हूं। मैं ही तुम्हारा खतावार हूं। अगर चाहते हो, तो मुझे कत्ल करो। (कमर से तलवार फेंककर) यह लो, अब तुम्हें मुझसे कोई खौफ़ नहीं है। अगर तुम्हारा खलीफ़ा मेरे खून से खुश हो, तो उसे खुश करो। मगर खुदा के लिये हुसैन को लिख दो कि आप यहां न आएं। उन्हें खिलाफत की हवस नहीं है। उनकी मंशा सिर्फ आपकी हिमायत करना था। वह आप पर अपनी जान निसार करना चाहते थे।
उनके पास फ़ौज नहीं थी, हथियार नहीं थे, महज आपके लिए अपनी बात दे देने का जोश था, इसीलिए उन्होंने अपने गोशे को छोड़ना मंजूर किया। अब आपको उनकी जरूरत नहीं है, तो उन्हें मना कर दीजिए कि यहां मत आओ। उन्हें बुलाकर शहीद कर देने से आपको नदामत और अफसोस के सिवा और कुछ हाथ न आएगा। उनकी जान लेनी मुश्किल नही; यहीं की कैफ़ियत देखकर वह इस सदमे से खुद भी मर जायेंगे। वह इसे आपका कसूर नहीं, अपना कसूर समझेंगे कि वही उम्मत, जो मेरे नाना पर जान देती थी, अगर आज मेरे खून की प्यासी हो रही है, तो यह मेरी खता है। यह गम उनका काम तमाम कर देगा। आपका और आपके अमीर का मंशा खुद-व-खुद पूरा हो जायेगा। बोलो, मंजूर है? उन्हें लिख दूं कि आपने जिनकी हिमायत के लिये शहीद होना कबूल किया था, वह अब आपको शहीद करने की फिक्र में है। आर इधर रुख न कीजिए।
[कोई नहीं बोलता]
खामोशी नीम रज़ा है। आप कहते हैं कि यह कैफ़ियत उन्हें लिख दी जाये।
कई आवाजें– नहीं, नहीं इसकी जरूरत नहीं।
मुस०– तो क्या आप यहीं उनकी लाश को अपनी आंखों के सामने तड़पती देखना चाहती है?
एक आ०– मुआजअल्लाह, हम हजरत हुसैन के कातिल न होगे।
मुस०– ऐसा न कहिए, वरना रसूल को जन्नत में भी तकलीफ होगी। आप अपनी खरज के गुलाम हैं, दौलत के गुलाम हैं। रसूल ने आपको हमेशा सब्र और संतोष की हिदायत की। आप जानते हैं, वह खुद सादगी से जिंदगी बसर करते थे। आपको पहले खलीफ़ा का हाल मालूम है, हजरत फ़ारूक के हालात से भी आप वाक़िफ हैं। अफसोस! आप उस रसूल को भूल गए, जो तवहीद के बाद इस्लाम का सबसे पाक वसूल हैं, वरना आप वसीकों और जागीरों के जाल में फंस जाते। आपने एक पल के लिये भी ख़याल नहीं किया कि वे जागीरें और वसीके किसके घर से आएंगे। दूसरों से, जो कई पुश्तों से जबरन रुपए वसूल करके आपको वसीके दिए जायेंगे। आपको खुश करने के लिये दूसरों को तबाह करने का बहाना हाथ आ जायेगा। आप अपने भाइयों के हक छीनकर अपनी हवस की प्यास बुझाना चाहते हैं। दीन-परवरी नहीं है, यह भाई-बंदी नहीं है, उसका कुछ और ही नाम है।
कई आवाजें– नहीं-नहीं, हम हराम का माल नहीं चाहते।
मुस०– मैं यजीद का दुश्मन नहीं हूं। मैं जियाद का दुश्मन नहीं हूं; मैं इस्लाम का दोस्त हूं। जो आदमी इस्लाम को पैरों से कुचलता है, चाहे वह यजीद हो, जियाद हो, या खुद हुसैन हो। उसका दुश्मन हूं। जो शख्स कुरान की और रसूल की तौहीन करता है, वह मेरा दुश्मन है।
कई आ०– हम भी उसके दुश्मन हैं। वह मुसलमान नहीं, काफ़िर है।
मुस०– बेशक, और कोई मुसलमान– अगर वह मुसलमान हैं, काफ़िर को खलीफ़ा न तस्लीम करेगा, चाहे वह उसका दामन हीरे व जवाहिर से भर दे।
कई आ०– बेशक, बेशक।
मुस०– उससे एक सच्चा दीनदार आदमी कहीं अच्छा खलीफ़ा होगा, चाहे वह चिंथड़े ही पहने हुए हो।
कई आ०– बेशक, बेशक
मुस०– तो अब आप तसलीम करते हैं कि खलीफा उसे होना चाहिए, जो इस्लाम का सच्चा पैरा हो, वह नहीं, जो एक का घर लूटकर दूसरे का दिल भरता हो।
कई आ०– बेशक, बेशक।
मुस०– किसी मुसलमान के लिये इसमें बड़ी शरम की बात नहीं हो सकती कि वह किसी को महज दौलत या हुकूमत की बदौलत अपना इमाम समझे। इमाम के लिये सबसे बड़े शर्त क्या है? इस्लाम का सच्चा पैरो होना। इस्लाम की दौलत को हमेशा हक़ीर समझा है। वह इस्लाम की मौत का दिन होगा, जब यह दौलत के सामने सिर झुकाएगा। खुदा हमको और आपको वह दिन देखने के लिए जिंदा न रखे। हमारा दुनिया से मिट जाना इससे कहीं अच्छा है। तुम्हारा फर्ज है कि बैयत लेने से पहले तहकीक कर लो, जिसे तुम खलीफ़ा बना रहे हो, वह रसूल की हिदायतों पर अमल करता है या नहीं। तहक़ीक करो, वह शराब तो नहीं पीता।
कई आ०– क्या तहक़ीक़ करना तुम्हारा काम है। जांच करों कि तुम्हारा खलीफ़ा जिनाकार तो नहीं?
कई आ०– क्या यजीद जिनाकार है?
मूस०– यह जांच करना तुम्हारा काम है। दर्याफ्त करो कि वह नमाज पढ़ता है, रोजे रखता है, आलिमों की इज्जत करता है, खजाने को बेजा इस्तेमाल तो नहीं करता? अगर इन बातों के लिए जांच किए बगैर तुम महज जागीरों और वसीकों की उम्मीद पर किसी की बैयत कबूल करते हो, तुम तो कयामत के रोज खुदा के सामने शर्मिंदा होंगे। जब वह पूछेगा कि तुमने इंतखाब के हक का क्यों बेजा इस्तेमाल किया, जो तुम कैसे क्या जवाब दोगे? जब रसूल तुम्हारा दामन पकड़कर पूछेंगे कि तुमने उसकी अमानत को, जो मैंने तुम्हें दी थी, क्यों मिटा दिया उन्हें कौन-सा मुंह दिखाओगे?
कई आ०– हमें जियाद ने धोखा दिया। हम यजीद की बैयत से इनकार करते है।
मुस०– पहले खूब जांच लो। मैं किसी पर इलजाम नहीं लगाता। कौन खड़ा हो कर कह सकता है कि यजीद इन बुराइयों से पाक है।
कई आ०– हम जांच कर चुके।
मुस०– तो तुम्हें किसकी बैयत मंजूर है?
शोर– हुसैन की! रसूल के नवासे की।
मुस०– उनके बारे में तुमने उन बातों की जांच कर ली? तुम्हें यकीन है कि हुसैन उस बुराइयों से पाक है?
कई आ०– हमने जांच कर ली। हुसैन में कोई बुराई नहीं। हम हुसैन को अपना खलीफा तस्लीम करते है। जियाद ने हमें गुमराह कर दिया था।
एक आदमी– पहले जियाद को कत्ल कर दो।
दु० आ०– बेशक, उसी ने गुमराह किया था।
मुस०– नहीं तुम्हें रसूल का वास्ता है। मोमिन पर मोमिन का खून हराम है।
[सब आदमी वहीं बैठ जाते हैं, और मुसलिम के हाथों पर हुसैन की बैयत करते हैं।]
नवाँ दृश्य
[दोपहर का समय। हानी का मकान शरीक एक चारपाई पर पड़े हुए है। मुसलिम और हानी फ़र्श पर बैठे हैं।]
शरीक– जियाद अब आता ही होगा। मुसलिम, तलवार को तेज रखना।
हानी– मैं खुद उसे क़त्ल करता, पर जईफ़ी ने हाथों में कूबत बाकी नहीं रखी।
शरीक– इसमें पसोपेशे की मुतलक जरूरत नहीं। हक की हिमायत के लिये, इस्लाम की हिमायत के लिये, कौम की हिमायत के लिये, अगर खून का दरिया बहा दिया जाये, तो उसमें फरिश्ते वजू करें। औलिया की रूहें उसमें नहाएंगी। जो हाथ हक की हिमायत में न उठे, वह अंधी आँखों से, बुझे हुए चिराग से, दिन के चांद से भी ज्यादा बेकार है। इस्लाम की खिदमत को इससे बेहतर मौका आपको फिर न मिलेगा– शायद फिर कभी किसी को न मिलेगा। कूफ़ा और बसरा पर कब्जा करके यजीद की बड़ी-से-बड़ी फ़ौज का मुकाबला कर सकते हैं। यजीद की खिलाफ़त इस्लाम को दुनियादारी और इस्लाम की तरफ ले जायेगी और हुसैन की खिलाफ़त हक और सच्चाई की तरफ। क्या यह आपको मंजूर है कि यजीद के हाथों इस्लाम तबाह हो जाये।
[जियाद आता है, और मुसलिम बग़ल की कोठरी में छिप जाते हैं।]
जियाद– अस्सलामअलेक या शरीक, तुम्हारी हालत तो बहुत खराब नजर आती है।
हानी– कल से आँखें नहीं खोली। सारी रात कराहते गुजरी है।
शरीक– खुदा फरमाता है– हक के वास्ते जो तलवार उठाता है, उसके लिये जन्नत का दरवाजा खुला हुआ हुआ है।
जियाद– शरीक, शरीक! कैसी तबीयत है?
शरीक– शौक कहता था कि हां, हसरत यह कहती थी, नहीं; मैं इधर मुश्किल में था, कातिल उधर मुश्किल में था।
हानी– आँखें खोलो। अमीर तुम्हारी मुलाकात को आए हैं।
शरीक– सल्ब की कूबत, तड़पने की, तड़पता किस तरह; एक दिल में दूसरा खंजर कफ़े कातिल में था।
जियाद– क्या रात भी यहीं इनकी हालत थी?
हानी– जी हां, यों ही बकते रहे।
शरीक– गले पर छुरी क्यों नहीं फेर देते, हकीकत पर अपनी नजर करनेवाले।
जियाद– किसी हकीम को बुलाना चाहिए।
शरीक– कौन आया है, जियाद!
हुजूम-आरजू से बढ़ गई बेताबियां दिल की;
अरे ओ छिपानेवाले, यह हिजाबें जां सितां कब तक।
जियाद– तुम्हारे घरवालों को खबर दी जाये?
शरीक– मैं यहीं मरूंगा, मैं यहीं मरूंगा।
मेरी खुशी पर आसमां हंसता है, और हंसे न क्यों;
बैठा हूं जाके चैन से दोस्त की वज्में-नाज में।
जियाद– खुदा किसी गरीब को बेवतनी में मरीज न बनाए। हानी, मैंने सुना है, मुसलिम मक्के से यहां आए हैं। खलीफ़ा ने मुझे सख्त ताकीद की है कि उन्हें गिरफ्तार कर लूं। आप शहर के रईस हैं, उनका कुछ सुराग मिले, तो मुझे तो इत्तिला दीजिएगा। मुझे आपके ऊपर पूरा भरोसा है। आप समझ सकते हैं कि उनके आने से मुल्क में कितना शोर-शर पैदा होगा। कसम है कलाम-पाक की इस वक्त जो उनका सुराग लगा दे, उसका दामन जवाहारात से भर दूं। मैं इस फिक्र में जाता हूं। आप भी तलाश में रहिए।
[चला जाता है]
शरीक– हजरत मुसलिम, आप से आज जो गलती हुई है, उस पर आप मरते दम तक पछताएंगे और आपके बाद मुसलमान कौम इसका खमियाजा उठाएगी। तुम कयास नहीं कर सकते कि तुमने इस्लाम को आज कितना बड़ा नुकसान पहुंचाया है। शायद खुदा को यही मंजूर है कि रसूल का लगाया हुआ बाग यजीद के हाथों बरबाद हो जाये।
मुस०– शरीक, मैंने कभी दगा नहीं की, और मुझे यकीन है कि हजरत हुसैन मेरी इस हरकत को कभी पसंद न करते। इस्लाम का दरख्त हक के बीच से उगा है। दगा से उसकी आबपाशी करने में अंदेशा है कि कहीं दरख्त सूख न जाये। हक पर कायम रहते हुए अगर इस्लाम का नामोनिशान दुनिया से मिट जाय, तो भी इससे कहीं बेहतर है कि उसे जिंगा रहने के लिए दग़ा का सहारा लेना पड़े। (हानी से) भाई साहब को इत्तिला दे दूं कि यहां १८ हजार आदमियों ने आपकी बैयत कबूल कर ली है।
हानी– जरूर। मेरा गुलाम इस खिदमत के लिए हाजिर है।
मुस०– (दिल में) यह गैरमुमकिन है कि इतने आदमी बैयत लेकर फिर उसे तोड़ दें। कल मुझे चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा नज़र आता था। आज़ चारों तरफ रोशनी नज़र आती है। मेरी ही तहरीक हुसैन यहां आने के लिए राजी हुए। खुदा का शुक्र है कि मेरा दावा सही निकला, और मेरी उम्मीद पूरी हुई।
दसवाँ दृश्य
[संध्या का समय। जियाद का दरबार]
जियाद– तुम लोगों में ऐसा एक आदमी भी नहीं है, जो मुसलिम का सुराग़ लगा सके। मैं वादा करता हूं कि पांच हजार दीनार उसकी नज़र करूंगा।
एक दर०– हुजूर, कहीं सुराग नहीं मिलता। इतना पता तो मिलता है कि कई हजार आदमियों ने उनके हाथ पर हुसैन की बैयत की है। पर वह कहां ठहरे हैं, इसका पता नहीं चलता।
[मुअक्किल का प्रवेश]
मुअ०– हुजूर को खुदा सलामत रख, एक खुशखबरी लाया हूं। अपना ऊंट लेकर शहर के बाहर चारा काटने गया था। कि एक आदमी को बड़ी तेजी से सांड़नी पर जाते रखा। मैंने पहचान लिया, वह सांड़िनी हानी की थी। उनकी खिदमत में कई साल रह चुका हूं। शक हुआ कि यह आदमी इधर कहां जा रहा है। उसे एक हीले से रोककर पकड़ लिया। जब मारने की धमकी दी, तो उसने कबूल किया कि मुसलिम का खत लेकर मक्के जा रहा हूं। मैंने वह खत उससे छीन लिया, यह हाजिर है। हुक्म हो, तो कासिद को पेश करूं।
जियाद– (खत पढ़कर) कसम खुदा की, मैं मुसलिम को जिंदा न छोड़ूंगा। मैं यहां मौजूद रहूं और १८ हजार आदमी हुसैन की बैयत कबूल कर लें। (कासिद से) तू किसका नौकर है?
कासिद– अपने आका का।
जियाद– तेरा आका कौन है?
कासिद– जिसने मुझे मिस्त्रियों के हाथ से खरीदा था।
जियाद– किसने तुझे खरीदा?
कासिद– जिसने रुपये दिए।
जियाद– किसने रुपये दिए?
कासिद– मेरे आका ने।
जियाद– तेरा आक़ा कहां रहता है?
कासिद– अपने घर में।
जियाद– उसका घर कहां है?
कासिद– जहां उसके बुजुर्गो ने बनवाया था।
जियाद– कसम खुदा की, तू एक ही शैतान है। मैं जानता हूं कि तुझ जैसे आदमी के साथ कैसा बर्ताब करना चाहिए। (जल्लाद से) इसे ले जाकर कत्ल कर दे।
मुअ०– हुजूर, मैं खूब पहचानता हूं कि यह सांड़नी हानी की है।
जियाद– अगर तू मुसलिम का सुराग लगा दे, तो तुझे आजाद कर दूं, और पांच हजार दीनार इनाम दूं।
मुअ०– (दिल में) ये बड़े-बड़े हाकिम बड़ी-बड़ी थैलियां हड़प करने ही के लिए है। अक्ल खाक नहीं होती। जब सांड़नी मौजूद है, तो उसके मालिक का पता लगाना क्या मुश्किल है? आज किसी भले आदमी का मुंह देखा था। चल कर सांडनी पर बैठ जाता हूं और उसकी नकेल छोड़ देता हूं। आप ही अपने घर पहुंच जाएगी। वहीं मुसलिम का पता लग जाएगा।
(चला जाता है)
जियाद– (दिल में) अगर वह सांड़नी हानी की है, तो साफ जाहिर है कि वह भी इस साजिश में शरीक है। मैं अब तक उसे, अपना दोस्त समझता था। खुदा, कुछ नहीं मालूम होता कि कौन मेरा दोस्त है, और कौन दुश्मन। मैं अभी उसके घर गया था। अगर शरीक भी हानी का मददगार है, तो यही कहना पड़ेगा कि दुनिया में किसी पर भी एतबार नहीं किया जा सकता।
ग्यारहवाँ दृश्य
[10 बजे रात का समय। जियाद के महल के सामने सड़क पर सुलेमान, मुखतार और हानी चले आ रहे हैं।]
सुले०– जियाद के बर्ताव में अब कितना फर्क नज़र आता है।
मुख०– हां, वरना हमें मशविरा देने के लिये क्यों बुलाता।
हानी– मुझे तो खौफ़ है कि उसे मुसलिम की बैयत लेने की खबर मिल गई है। कहीं उसकी नीयत खराब न हो।
मुख०– शक और ऐतबार साथ-साथ नहीं होता। वरना वह आज आपके घर न जाता।
हानी– उस वक्त भी शायद भेद लेने ही के इरादे से गया हो। मुझे गलती हुई कि अपने कबीले के कुछ आदमियों को साथ न लाया, तलवार भी नहीं ली।
सुले०– यह आपका वहम है।
[जियाद के मकान में वे सब दाखिल होते हैं। वहां कीस, शिमर, हज्जात आदि बैठे हुए हैं।]
जियाद– अस्सामअलेक। आइए, आप लोगों से एक खास मुआमले में सलाह लेनी है। क्यों शेख हानी, आपके साथ खलीफ़ा यजीद ने जो रियायतें की, क्या उनका यह बदला होना चाहिए था कि आप मुसलिम को अपने घर में ठहराएं, और लोगों को हुसैन की बैयत करने पर आमादा करें? हम आपका रुतबा और इज्जत बढ़ाते हैं, और आप हमारी जड़ खोदने की फिक्र में हैं?
हानी– या अमीर, खुदा जानता है, मैंने मुसलिम को खुद नहीं बुलाया, वह रात को मेरे घर आए, और पनाह चाही। यह इंसानियत के खिलाफ था कि मैं उन्हें घर से निकाल देता। आप खुद सोच सकते हैं कि इसमें मेरी क्या खता थी।
जियाद– तुम्हें मालूम था कि हुसैन खलीफ़ा यजीद के दुश्मन हैं?
हानी– अगर मेरा दुश्मन भी मेरी पनाह में आता, तो मैं दरवाजा न बंद रखता।
जियाद– अगर तुम अपनी खैरियत चाहते हो, तो मुसलिम को मेरे हवाले कर दो। वरना कलाम पाक की कसम, फिर आफताब की रोशनी न देखोगे।
हानी– या अमीर, अगर आप मेरे जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर डालें, और उन टुकड़ों को आग में डालें, तो भी मैं मुसलिम को आपके हवाले न करूंगा। मुरौवत इसे कभी क़बूल नहीं करती कि अपनी पनाह में आने वाले आदमी को दुश्मन के हवाले किया जाए। यह शराफत के खिलाफ है। अरब की आन के खिलाफ है। अगर मैं ऐसा करूं, तो अपनी ही निगाह में गिर जाऊंगा। मेरे मुंह पर हमेशा के लिए स्याही का दाग़ लग जायेगा और आनेवाली नस्ल मेरे नाम पर लानत करेंगी।
कीस– (हानी को एक किनारे ले जाकर) हानी, सोचो, इसका अंजाम क्या होगा? तुम पर, तुम्हारे खानदान पर, तुम्हारे कबीले पर आफत आ जाएगी। इतने आदमियों को कुर्बान करके एक आदमी की जान बचाना कहां की दानाई है?
हानी– कीस, तुम्हारे मुंह से ये बातें जेबा नहीं देती? मैं हुसैन के चचेरे भाई के साथ कभी दग़ा न करूंगा, चाहे मेरा सारा खानदान कत्ल कर दिया जाये।
जियाद– शायद तुम अपनी जिंदगी से बेजार हो गए हो।
हानी– आप मुझे मकान पर बुलाकर मुझे कत्ल की धमकी दे रहे हैं। मैं कहता हूं कि मेरा एक कतरा खून इस आलीशान इमारत को हिला देगा। हानी बेकस, बेजार और बेमददगार नहीं है।
जियाद– (हानी के मुंह पर सोंटे से मारकर) खलीफा का नायब किसी के मुंह से अपनी तौहीन न सुनेगा, चाहे वह दस हजार कबीले का सरदार क्यों न हो।
हानी– (नाक से खून पोंछते हुए) जालिम! तुझे शर्म नहीं आती कि एक निहत्थे आदमी पर वार कर रहा है। काश मैं जानता कि तू दग़ा करेगा, तो तू यों न बैठा रहता।
सुले०– जियाद! मैं तुम्हें खबरदार किये देता हूं कि अगर हानी को कैद किया, तो तू भी सलामत न बचेगा।
[जियाद सुलेमान को मारने उठता है, लेकिन हज्जाज उसे रोक लेता है।]
जियाद– तुम लोग बैठे मुँह क्या ताक रहे हो, पकड़ लो इसे बुड्ढे को। (बाहर की तरफ शोर मचता है।) यह शोर कैसा है?
कीस– (खिड़की से बाहर की तरफ झांककर) बागियों की एक फौज इस तरफ बढ़ती चली आ रही है।
जियाद– कितने आदमी होंगे?
कीस– कसम खुदा की, दस हजार से कम नहीं है।
जियाद– (सिपाही को बुलाकर) हानी को ले जाओ और उसे कोठरी में बन्द कर दो, जहां कभी आफताब की किरणें नहीं पहुँचती।
सुले०– जियाद मैं तुम्हें खबरदार किए देता हूं कि तुझे खुद न उसी कोठरी में कैद होना पड़े।
[सुलेमान और मुख्तार बाहर चले जाते हैं।]
कीस– बागियों की एक फौज बड़ी तेजी से बढ़ती चली आ रही है। बीस हजार से कम न होगी। मुसलिम झंडा लिए हुए सबके आगे हैं।
जियाद– दरवाजे बंद कर लो। अपनी-अपनी तलवारें लेकर तैयार हो जाओ। कसम खुदा की, मैं इस बगावत का मुकाबला जबान से करूंगा। (छत पर चढ़कर बागियों से पूछता है।) तुम लोग शोर क्यों मचाते हो?
एक आ०– हम तुझसे हानी के खून का बदला लेने आए हैं।
जियाद– कलाम पाक की कसम, जीते-जागते आदमी के खून का बदला आज तक कभी किसी ने न लिया। अगर मैं झूठा हूं, तो तुम्हारे शहर का काजी तो झूठ न बोलेगा। (काजी को नीचे बुलाकर) बागियों से कह दो, हानी जिंदा है।
काजी– या अमीर! मैं हानी को जब तक अपनी आंखों से न देख लूं, मेरी जबान से यह तसदीक न होगी।
जियाद– कलाम पाक की कसम, मैं तमाम मुल्लाओं को वासिल जहन्नुम कर दूंगा। जा, देख आ, जल्दी कर।
[काजी नीचे जाता है, और क्षण भर में लौट आता है।]
काजी– ऐ कूफा के बाशिंदों! मैं ईमान की रू से तसदीक करता हूं कि शेख हानी जिंदा है। हां, उनकी नाक से खून जारी है।
मुस०– बढ़े चलो। महल पर चढ़ जाओ। क्या कहा, जीने नहीं है? जवां मरदों को कभी जीने का मुहताज नहीं देखा। तुम आप जीने बन जाओ।
जियाद– (दिल में) जालिम एक दूसरे के कंधों पर चढ़ रहे हैं। (प्रकट) दोस्तों, यह हंगामा किसलिए है? मैं हुसैन का दुश्मन नहीं हूँ। मुसलिम का दुश्मन नहीं हूं, अगर तुमने हुसैन की बैयत कबूल की है, तो मुबारक हो। वह शौक से आए। मैं यजीद का गुलाम नहीं हूं। जिसे कौन का खलीफ़ा बनाए उसका गुलाम हूं, लेकिन इसका तसफिया हंगामें से न होगा, इस मकान को पस्त करने से न होगा, अगर ऐसा हो, तो सबसे पहले इस पर मेरा हाथ उठेगा। मुझे कत्त करने से भी फैसला न होगा, अगर ऐसा हो, तो मैं अपने हाथों अपना सिर कलम करने को तैयार हूं। इसका फैसला आपस की सलाह से होगा।
मुस०– ठहरो, बस, थोड़ी कसर और है। ऊपर पहुंचे कि तुम्हारी फतह है।
सुले०– ऐ! ये लोग भागे नहीं जाते हैं? ठहरो-ठहरो, क्या बात है?
एक सि०– देखिए, कीस कुछ कह रहा है।
कीस– (खिड़की से सर निकालकर) भाइयो, हम और तुम एक शहर के रहनेवाले। क्या तुम हमारे खून से अपनी तलवारों की प्यास बुझाओगे? तुममें से कितने ही मेरे साथ खेले हुए हैं। क्या यह मुनासिब है कि हम एक दूसरे का खून बहाएं! हम लोगों ने दौलत के लालच से, रुतबे के लालच से और हुकूमत के लालच से यजीद की बैयत नहीं कबूल की है, बल्कि महज इसलिए कि कूफ़ा की गलियों में खून के नाले न बहें।
कई आ०– हम जियाद से लड़ना चाहते हैं, अपने भाइयों से नहीं।
मुस०– ठहरो-ठहरो। इस दग़ाबाज की बातों में न आओ।
सुले०– अफ़सोस, कोई नहीं सुनता। सब भागे चले जाते हैं। वह कौन बदनसीब है, जिसके आदमी इतनी आसानी से बहकाए जा सकते हैं।
मुस०– मेरी नादानी थी कि इन पर एतबार किया।
सुले०– मैं हजरत हुसैन को कौन-सा मुंह दिखाऊंगा। ऐसे लोग दग़ा देते जा रहे हैं, जिनको मैं तकदीर से ज्यादा अटल समझता था। कीस गया, हज्जाज गया, हारिश गया, शीश ने दग़ा की, अशअस ने दग़ा दी। जितने अपने थे, सब बेगाने हो गए।
मुख०– अब हमारे साथ कुल तीस आदमी और रह गए।
[यजीद के सिपाही महल से निकलते हैं। खुदा, इन मूजियों से बचाओ। हजरत मुसलिम, मुझे अब कोई ऐसा मकान नज़र नहीं आता, जहां आपकी हिफ़ाजत कर सकूं। मुझे यहां की मिट्टी से भी दग़ा की बू आ रही है]
कसीर– गरीब का मकान हाजिर है।
मुख०– अच्छी बात है। हजरत मुसलिम, आप इनके साथ जायें। हमें रुखसत कीजिए। हम दो-चार ऐसे आदमियों का रहना जरूरी है, जो हजरत हुसैन पर अपनी जान निसार कर सकें। हमें अपनी जान प्यारी नहीं, लेकिन हुसैन की खातिर उसकी हिफ़ाजत करनी पड़ेगी।
[वे दोनों एक गली में गायब हो जाते हैं।]
बारहवाँ दृश्य
[9 बजे रात का समय। मुसलिम एक अंधेरी गली में खड़े हैं, थोड़ी दूर पर एक चिराग़ जल रहा है। तौआ अपने मकान के दरवाज़े पर बैठी हुई है।]
मुस०– (स्वागत) उफ्! इतनी गरमी मालूम होती है कि बदन का खून आग हो गया। दिन-भर गुजर गया, कहीं पानी का एक बूंद भी न नसीब हुआ। एक दिन, सिर्फ एक दिन पहले, 20 हज़ार आदमियों ने मेरे हाथों पर हुसैन की बैयत ली थी। आज किसी से एक बूंद पानी मांगते हुए खौफ़ होता है कि कहीं गिरफ्तार न हो जाऊं। साए पर दुश्मन का गुमान होता है। खुदा से अब मेरी दुआ है कि हुसैन मक्के से न चले हों। आह कसीर! खुदा तुम्हें जन्नत में जगह दे। कितना दिलेर, कितना जांबाज! दोस्त की हिमायत का पाक फर्ज इतनी जवांमरदी से किसने पूरा किया होगा! तुम दोनों बाप और बेटे इस दग़ा और फरेब की दुनिया में रहने के लायक न थे। तुम्हारी मज़ार पर हूरे फातिहा पढ़ने आएंगी। आह! अब प्यास के मारे नहीं रह जाता। दुश्मन की तलवार से मरना इतना खौफ़नाक नहीं, जितना प्यास से तड़प-तड़पकर मरना। चिराग़ नज़र आता है। वहां चलकर पानी मांगू, शायद मिल जाये। (प्रकट) ऐ नेक बीबी, मेरा प्यास के मारे बुरा हाल है, थोड़ा-सा पानी पिला दो।
तौआ– आओ, बैठो, पानी लाती हूं।
[वह पानी लाती हैं, और मुसलिम पीकर, दीवार से लगकर बैठते हैं।]
तौआ– ऐ खुदा के बंदे, क्या तूने पानी नहीं पिया?
मुस०– पी चुका।
तौआ– तो अब घर जाओ। यहां अकेले पड़ा रहना मुनासिब नहीं है। जियाद के सिपाही चक्कर लगा रहे हैं, ऐसा न हो, तुम्हें सुबहे में पकड़ लें।
मुस०– चला जाऊंगा।
तौआ– हां बेटा, जमाना खराब है, अपने घर चले जाओ।
मुस०– चला जाऊंगा।
तौआ– रात गुजरती जाती है। तुम चले जाओ, तो मैं दरवाजा बंद कर लूं।
मुस०– चला जाऊंगा।
तौआ– सुभानअल्लाह! तुम भी अजीब आदमी हो। मैं तुमसे बार-बार घर जाने को कहती हूं, और तुम उठते ही नहीं। मुझे तुम्हारा यहां पड़ा रहना पसंद नहीं। कहीं कोई वारदात हो जाये। तो मैं खुदा के दरगाह में गुनहगार बनूं।
मुस०– ऐ नेक बीबी, जिसका यहां घर ही न हो, वह किसके घर चला जाये। जिसके लिए घरों के दरवाजे नहीं, सड़के बंद हो गई हों, उसका कहां ठिकाना है। अगर तुम्हारे घर में जगह और दिल में दर्द हो, तो मुझे पनाह दो। शायद मैं कभी इस नेकी का बदला दे सकूं।
तौआ– तुम कौन हो?
मुस०– मैं वही बदनसीब आदमी हूं, जिसकी आज घर-घर तलाश हो रही है। मेरा नाम मुसलिम है।
तौआ– या हजरत, तुम पर मेरी जान फिदा हो। जब तक तौआ जिंदा है, आपको किसी दूसरे घर जाने की जरूरत नहीं। खुशनसीब के मरने के वक्त आपकी जियारत हुई। मैं जियाद से क्यों डरूं? जिसके लिए मौत के सिवा और कोई आरजू नहीं। आइए, आपको अपने मकान के दूसरे हिस्से में ठहरा दूं, जहां किसी का गुजर नहीं हो सकता। (मुसलिम तौआ के साथ जाते हैं) यहां आप आराम कीजिए, मैं खाना लाती हूं।
[बलाल का प्रवेश]
बलाल– अम्मा, आज जियाद वे लोगों की खताएं माफ कर दीं, सबको तसल्ली दी, और इतमीनान दिलाया कि तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जायेगी। हज़रत मुसलिम का न जाने क्या हाल हुआ।
तौआ– जो हुसैन का दुश्मन है, उसके कौल का क्या ऐतबार!
बलाल– नहीं अम्मा, छोटे-बड़े खातिर से पेशे आए। उसकी बातें ऐसी होती हैं कि एक-एक लफ़्ज दिल में चुभ जाता है। हज़रत मुसलिम का बचना अब मुझे भी मुश्किल जान पड़ता है। अब खयाल होता है, उनके यहां आने से पहले हम लोगों में निफ़ाक पैदा हो गया। जियाद ने वादा किया है कि जो उन्हें गिरफ्तार करा देगा, उसे बहुत कुछ इनाम-इकराम में मिलेगा।
तौआ– बेटा, कहीं तेरी नीयत तो नहीं बदल गई। खुदा की क़सम, मैं तुझे कभी दूध न बख्शूंगी।
बलाल– अम्मा, खुदा न करे, मेरी नीयत में फर्क आए। मैं तो सिर्फ बात कह रहा था। आज सारा शहर जियाद को दुआएं दे रहा है।
[तौआ प्याले में खाना लेकर मुसलिम को दे आती है।]
बलाल– हजरत हुसैन तशरीफ न लाएं, तो अच्छा हो। मुझे खौफ़ है कि लोग उनके साथ दग़ा करेंगे।
तौआ– ऐसी बातें मुंह से न निकाल। हाथ-मुंह धो ले। क्या तुझे भूख नहीं लगी, या जियाद ने दावत कर दी?
बलाल– खुदा मुझे उसकी दावत से बचाए। खाना ला।
[तौआ उसके सामने खाना रख देती है, और फिर प्याले में कुछ रखकर मुसलिम को दे आती है।]
बलाल– यह पिछवाड़े की तरफ बार-बार क्यों जा रही हो अम्मा?
तौआ– कुछ नहीं बेटा! यों ही एक जरूरत से चली गई थी।
बलाल– हज़रत मुसलिम पर न जाने क्या गुजरी।
[खाना खाकर चारपाई पर लेटता है, तौआ बिस्तर लेकर मुसलिम की चारपाई पर बिछा आती है।]
बलाल– अम्मा, फिर तुम उधर गई, और कुछ लेकर गई। आखिर माज़रा क्या है? कोई मेहमान तो नहीं आया है?
तौआ– बेटा मेहमान आता, तो क्या उनके लिए यहां जगह न थी?
बलाल– मगर कोई-न-कोई धात है। क्या मुझसे भी छिपाने की ज़रूरत है?
तौआ– तू सो जा, तुझसे क्या।
बलाल– जब तक बतला न दोगी, तब तक मैं न सोऊंगा।
तौआ– किसी से कहेगा तो नहीं?
बलाल– तुम्हें मुझ पर भी एतबार नहीं?
तौआ– कसम खा।
बलाल– खुदा की कसम है, जो किसी से कहूं।
तौआ– (बलाल के कान में) हज़रत मुसलिम हैं।
बलाल– अम्मा, जियाद को खबर मिल गई, तो हम तबाह हो जायेंगे।
तौआ– खबर कैसे हो जायेगी। मैं तो कहूंगी नहीं। हां, तेरे दिल की नहीं जानती। करती क्या, एक तो मुसाफिर, दूसरे हुसैन के भाई। घर में जगह न होती, तो दिल में बैठा लेती।
बलाल– (दिल में!) अम्माँ ने मुझे यह राज बता दिया, बड़ी गलती की मैंने जिद करके पूछा, मुझसे गलती हुई। दिल पर क्योंकर काबू रख सकता हूं। एक वार से बादशाहत मिलती हो, तो ऐसा कौन हाथ है, जो न उठ जायेगा। एक बात से दौलत मिलती हो, जिंदगी के सारे हौसले पूरे होते हों, तो वह कौन जुबान है, जो चुप रह जायेगी। ऐ दिल, गुमराह न हो, तूने सख्त कसमें खाई हैं। लानत का तौक गले में न डाल। लेकिन होगा तो वही, जो मुकद्दर में हैं। अगर मुसलिम की तकदीर में बचना लिखा है, तो बचेंगे, चाहे सारी दुनिया दुश्मन हो जाये। मरना लिखा है, तो मरेंगे, चाहे सारी दुनिया उन्हें बचाए।
[उठकर तौआ की चारपाई की तरफ देखता है, और चुपके-से दरवाजा खोलकर चला जाता है।]
तौआ– (चौंककर उठ बैठती है।) आह! जालिम मां से भी दग़ा की। तुझे यह भी शर्म नहीं आई कि हुसैन का भाई मेरे मकान में गिरफ्तार हो, आकबत के दिन खुदा को कौने-सा मुंह दिखाएंगा। एक कसीर था कि अपनी और अपने बेटे की जान अपने मेहमान पर निसार कर दी, और एक बदनसीब मैं हूं कि मेरा बेटा उसी मेहमान को दुश्मनों के हवाले करने जा रहा है।
[बाहर शोर सुनाई देता है। मुसलिम तौआ के कमरे में आते हैं।]
मुस०– तौआ, यह शोर कैसा है?
तौआ– या हजरत! क्या बताऊं, मेरा बेटा मुझसे दग़ा कर गया। वह बुरी सायत थी कि मैंने अपने घर में आपको पनाह दी। काश अगर मैंने उस वक्त बेमुरौवती की होती, तो आप इस खतरे में न पड़ते। अगर कभी किसी मां को बेटा जनने पर अफ़सोस हुआ है, तो वह बदनसीब मां मैं हूं। अगर जानती कि यह यों दग़ा करेगा, तो जच्चेखाने में ही उसका गला घोंट देती।
मुस०– नेक बीबी, शर्मिंदा न हो। तेरे बेटे की खता नहीं, सब कुछ वही हो रहा है, जो तकदीर में था, और जिसकी मुझे खबर थी। लेकिन दुनिया में रहकर इंसाफ, इज्जत और ईमान के लिए प्राण देना हर एक बच्चे मुसलमान का फर्ज है। खुदा नबियों के हाथों हिदायत के बीज बोता है, और शहीदों के खून से उसे सींचता है। शहादत वह आला-से-आला रुतबा है जो कि खुदा इंसान को दे सकता है। मुझे अफ़सोस सिर्फ यह है कि जो बात एक दिन पहले होनी चाहिए थी, वह आज खुदा के बंदों के खून बहाने के बाद हो रही है।
[जियाद के आदमी बाहर से तौआ के घर में आग लगा देते हैं, और मुसलिम बाहर निकलकर दुश्मनों पर टूट पड़ते हैं।]
एक सिपाही– तलवार क्या है, बिजली है। खुदा बचाए।
[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर जाता है।]
दूसरा सिपाही– अब इधर चला, जैसे कोई मस्त शेर डकारता हुआ चला आता हो। बंदा तो घर का राह लेता है, कौन जान दे।
(भागता है।)
तीसरा सिपाही– अर…र…र…या हजरत, मैं गरीब मुसाफिर हूं, देखने आया था कि यहां क्या हो रहा है।
[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है]
चौथा सिपाही– जहन्नुम में जाये ऐसी नौकरी। आदमी आदमी से लड़ता है कि देव से। या हज़रत, मैं नहीं हूं, मैं तो हजूर के हाथों पर बैयत कतरने आया था।
[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है।]
पांचवा सिपाही– किधर से भागें, कहीं जगह नहीं मिलती। या हजरत, अपनी बूढ़ी मां का अकेला लड़का हूं। जान बख्शें, तो हुजूर की जूतियां सीधी करूंगा।
[तलवार पकड़ते ही गिर पड़ता है। सिपाहियों में भगदड़ पड़ जाती है।]
कीस– जवानो, हिम्मत न हारो, तुम तीन सौ हो। कितने शर्म की बात है कि एक आदमी से इतना डर रहे हो।
एक सिपाही– बड़े बहादुर हो, तो तुम्हीं क्यों नहीं उससे लड़ आते? दुम दबाए पीछे क्यों खड़े हो? क्या तुम्हीं को अपनी जान प्यारी है!
कीस– हजरत मुसलिम, अमीर जियाद का हुक्म है कि अगर आप हथियार रख दें, तो आपको पनाह दी जाये। (सिपाहियों से) तुम सब छतों पर चढ़ जाओ, और ऊपर से पत्थर फेंको।
मुस०– ऐ खुदा और रसूल के दुश्मन, मुझे तेरी पनाह की जरूरत नहीं है। मैं यहां तुझसे पनाह मांगने नहीं आया हूं, तुझे सच्चाई के राह पर लाने आया हूं।
(एक पत्थर सिर पर आता है) ऐ गुमराहो! क्या तुमने इस्लाम से मुंह फेरकर शराफत और इंसानियत से भी मुंह फेर लिया। क्या तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम अपने रसूल पाक के अजीज पर पत्थर फेंक रहे हो। हमारे साथ तुम्हारा यह कमीनापन!
[तलवार लेकर टूट पड़ते और गाते हैं।]
कूचे में रास्ती के हम अब गदा हुए हैं,
क्या खौफ़ मौत का है, हक़ पर फ़िदा हुए हैं।
ईमां है अपना मुसलिक, मकरोदग़ा से नफ़रत,
दुनिया से फेरकर मुंह नकशे-वफ़ा हुए हैं।
क्या उन पे हाथ उठाऊं, जो मौत से हैं खायफ,
जो राहें-हक़ से फिरकर सरफे दग़ा हुए हैं।
दुनिया में आके इक दिन हर शख्स को है मरना,
जन्नत है, उनकी, जो यां वकफ़े जफ़ा हुए हैं।
कीस– कलामे पाक की कसम, हम आपसे फरेब न करेंगे। अगर हम आपसे झूठ बोलें, तो हमारी नजात न हो।
मुस०– वल्लाह! मुझे जिंदा गिरफ्तार करके जियाद के तानों का निशाना न बना सकेगा।
कीस– (आहिस्ते से) यह शेर इस तरह काबू में न आएगा। इसका सामना करना मौत का लुकमा बनना है। यहां गहरा गड्ढा खोदो। जब तक वह औरों को गिराता हुआ आए, तब तक गड्ढा तैयार हो जाना चाहिए। यहां अंधेरा है, वह जोश में इधर आते ही गिर जायेगा।
एक सि०– जियाद पर लानत हो, जिसने हमें शेर से लड़ने के लिये भेजा था। या हजरत, रहम, रहम!
दू० मि०– खुदा खैर करे। क्या जानता था, यहां मौत का सामना करना पड़ेगा। बाल-बच्चों की खबर लेने वाला कोई नहीं।
[मुसलिम गड्ढे में गिर पड़ते हैं।]
मुस०– जालिमों, आखिर तुमने दग़ा की।
कीस– पकड़ लो, पकड़ लो, निकलने न पाए। कत्ल न करना। जिंदा पकड़ लो।
अशअस– तलवार का हकदार मैं हूं।
कीस– जिर्रह मेरा हिस्सा है।
अश०– खुद उतार लो, साद को देंगे।
मुस०– प्यास! बड़े जोरों की प्यास है। खुदा के लिये एक घूंट पानी पिला दो।
कीस०– अब जहन्नुम के सिवा यहां पानी का एक कतरा भी न मिलेगा।
मुस०– तुफ़ है तुझ पर जालिम, तुझे शरीफ़ों की तरह जबह करने की भी तमीज नहीं। मरने वालों से ऐसी दिल-खराश बातें की जाती हैं? अफ़सोस!
अश०– अब अफसोस करने से क्या फायदा? यह तुम्हारे फेल का नतीजा है।
मुस०– आह! मैं अपने लिए अफ़सोस नहीं करता। रोता हूं हुसैन के लिए जिसे मैंने तुम्हारी मदद के लिए आमादा किया। जो मेरी ही मिन्नतों से अपने गोशे पर निकलने को राजी हुआ। जबकि खानदान के सभी आदमी तुम्हारी दग़ाबाजी का खौफ़ दिला रहे थे, मैंने ही उन्हें यहां आने पर मज़बूर किया। रोता हूं कि जिस दग़ा ने मुझे तबाह किया, वह उन्हें और उनके साथ उनके खानदान को भी तबाह कर देगी। क्या तुम्हारे ख़याल में यह रोने की बात नहीं है? तुमसे कुछ सवाल करूं?
अश०– हुसैन की बैयात के सिवा और जो सवाल चाहे कर सकते हो।
मुस०– हुसैन की मेरी मौत की इत्तिला दे देना।
अश०– मंजूर है।
[कई सिपाही मुसलिम को रस्सियों से बांधकर ले जाते है।]
तेरहवां दृश्य
[प्रातःकाल का समय। जियाद का दरबार। मुसलिम को कई आदमी मुश्क कसे लाते हैं]
मुस०– मेरा उस पर सलाम है, जो हिदायत पर चलता है, आकबत से डरता है, और सच्चे बादशाह की बंदगी करता है।
चोबदार– मुसलिम! अमीर को सलाम करो।
मुस०– चुप रह। अमीर, मेरा मालिक, मेरा इमाम हुसैन है।
जियाद– तुमने कूफ़ा में आकर कानू के मुताबिक कायम की हुई बादशाहत को उखाड़ने की कोशिश की, बागियों को भड़काया और रियासत में निफ़ाक पैदा किया?
मुस०– कूफ़ा-कानून के मुताबिक न कोई सल्तनत कायम थी, न है। मैं उस शख्श का कासिद हूं, जो चुनाव के कानून से, विरासत के कानून से और लियाकत से अमीर है। कूफ़ावालों ने खुद उसे अमीर बनाया। अगर तुमने लोगों के साथ इंसाफ किया होता, तो बेशक, तुम्हारा हुक्म जायज था। रियाया की मर्जी और सब हकों को मिटा देती है। मगर तुमने लोगों पर वे जुल्म किए कि कैसर ने भी न किए थे। बेगुनाहों को सजाएं दीं, जुरमानें के हीले से उनकी दौलत लूटी, अमन रखने के हीले से उनके सरदारों को कत्ल किया। ऐसे जालिम हाकिम को, चाहे वह किसी हक के बिना पर हुकूमत करता हो, हुकूमत करने का कोई हक नहीं रहता, क्योंकि हैवानी ताकत कोई हक़ नहीं है। ऐसी हुकूमत को मिटाना हर सच्चे आदमी का फर्ज़ हैं और जो इस फ़र्ज से खौफ़ या लालच के कारण मुंह मोड़ता है, वह इंसान और खुदा दोनों ही की निगाहों में गुनाहगार है। मैंने अपने मकदूर-भर रियाया के तेरे पंजे से छुड़ाने की कोशिश की और मौका पाऊंगा, तो फिर करूंगा।
जियाद– वल्लाह, तू फिर इसका मौका न पाएगा। तूने बग़ावत की है। बगावत की सजा कत्ल है। और दूसरे बागियों की इबरत के लिये मैं तुझे इस तरह कत्ल कराऊंगा, जैसे अब तक न किया गया होगा।
मुस०– बेशक। यह लियाकत तुझी में है।
जियाद– इस गुस्ताख को ले जाओ, और सबसे ऊंची छत पर क़त्ल करो।
मुस०– साद, तुमको मालूम है कि तुम मेरे कराबतमंद हो?
साद– मालूम है।
मुस०– मैं तुमसे कुछ वसीयत करना चाहता हूं।
साद– शौक से करो।
मुस०– मैंने यहां कई आदमियों से कर्ज लेकर अपनी जरूरतों पर खर्च किए थे। इस कागज़ पर उनके नाम और रकमें दर्ज हैं। तुम मेरा घोड़ा और मेरे हथियार बेचकर यह कर्ज अदा कर देना, वरना हिसाब के दिन मुझे इन आदमियों से शर्मिदा होना होगा।
साद– इसका इतमीनान रखिए।
मुस०– मेरी लाश को दफ़न करा देना।
साद– यह मेरे इमकान में नहीं है।
[जल्लाद आकर मुसलिम को ले जाता है।]
अश०– था अमीर, मुसलिम क़त्ल हुए अब बगावत का कोई अंदेशा नहीं। अब आप हानी की जानबख्शी कीजिए।
जियाद– कलाम पाक की क़सम, अगर मेरी नजात भी होती हो, तो हानी को नहीं छोड़ सकता।
अश०– लोग बिगड़ खड़े हों, तो?
जियाद– जब कौम के सरदार मेरे तरफ़दार हैं, तो रियाय की तरफ से कोई अंदेशा नहीं। (जल्लाद को बुलाकर) तूने मुसलिम को कत्ल किया?
जल्लाद– अमीर के हुक्म की तामील हो गई। खुदावंद किसी को इतनी दिलेरी से जान देते नहीं देखा। पहले नमाज पढ़ा, तब मुझसे मुस्कराकर कहा– ‘तू अपना काम कर’।
जियाद– तूने उसे नमाज क्यों पढ़ने दिया? किसके हुक्म से?
जल्लाद– गरीबपरवर, आखिर नमाज के रोकने का अजाब जल्लादों के लिए भी भारी है। जिस्म को सिर से अलग कर देना इतना बड़ा गुनाह नहीं है जितना किसी को खुदा की इबादत से रोकना।
जियाद– चुप रह नामाकूल। तू क्या जानता है, किसको क्या सज़ा देनी चाहिए। ग़ैरतमंदों के लिये रूहानी ज़िल्लत क़त्ल से कहीं ज्यादा तकलीफ देती है। खैर, अब हानी को ले जा और चौराहे पर कत्ल कर डाल।
एक आ०– खुदावंत, यह खिदमत मुझे सुपुर्द हो।
जियाद– तू कौन है।
आ०– हानी का गुलाम हूं। मुझ पर उसने इतने जुल्म किए है कि मैं उनके खून का प्यासा हो गया हूं। आपकी निगाह हो जाये, तो मेरी पुरानी आरजू पूरी हो। मैं इस तरह क़त्ल करूंगा कि देखने वाले आंखें बंद कर लेंगे।
जियाद– कलाम पाक की कसम, तेरा सवाल जरूर पूरा करूंगा।
[गुलाम हानी को पकड़े हुए ले जाता है। कई सिपाही तलवारें लिए साथ-साथ जाते हैं।]
गुलाम– (हानी से) मेरे प्यारे आका मैंने जिंदगी भर आपका नमक खाया, कितनी ही खताएं कीं, पर आपने कभी कड़ी निगाहों से नहीं देखा। अब आपके जिस्म पर किसी बेहर्द कातिल का हाथ पड़े, वह मैं नहीं देख सकता। मैं इस हालात में भी आपकी खिदमत करना चाहता हूं। मैं आपकी रूह को इस जिस्म की कैद से इस तरह आजाद करूंगा कि जरा भी तकलीफ न हो। खुदा आपको जन्नत दे, और खता माफ करे।
तीसरा अंक
पहला दृश्य
[दोपहर का समय। रेगिस्तान में हुसैन के काफ़िले का पड़ाव। बगूले उड़ रहे है। हुसैन असगर को गोद में लिए अपने खेमे के द्वार पर खड़े हैं।]
हुसैन– (मन में) उफ्, यह गर्मी! निगाहें जलती हैं। पत्थर की चट्टानों से चिनगारियां निकल रही हैं। झीलें, कुएं सब सूखे पड़े हुए हैं, गोया उन्हें गर्मी ने जला दिया हो। हवा से बदन झूलसा जाता है। बच्चों के चेहरे कैसे संवला गए हैं। यह सफेदी, यह रेगिस्तान, इसकी कहीं हद भी है या नहीं। जिन लोगों ने प्यास के मारे हौक-हौककर पानी पी लिया है, उनके कलेजे में दर्द हो रहा है। अब तक कूफ़ा से कोई कासिद नहीं आया। खुदा जाने मुसलिम का क्या हाल हुआ। करीने से ऐसा मालूम होता है कि ईराकवालों ने उनसे दग़ा की, और उनको शहीद कर दिया, वरना यह खामोशी क्यों? अगर वह जन्नत को सिधारे हैं,
तो मेरे लिए भी दूसरा रास्ता नहीं हैं। शहादत मेरा इंतजार कर रही है। कोई मुझसे मिलने आ रहा हैं।
[फर्जूक का प्रवेश]
फर०– अस्सलामअलेक या हज़रत हुसैन, मैंने बहुत चाहा कि मक्के ही में आपकी जियारत करूं, लेकिन अफसोस, मेरी कोशिश बेकार हुई।
हुसैन– अगर ईराक से आए हो, तो वहां की क्या खबर हैं?
फर०– या हज़रत! वहां की खबरें वे ही हैं, जो आपको मालूम हैं। लोगों के दिल आपके साथ हैं, क्योंकि आप हक पर हैं और, उनकी तलवारें यजीद के साथ है, क्योंकि उसके पास दौलत है।
हुसैन– और मेरे भाई मुसलिम की भी कुछ खबर लाए हो?
फर०– उनकी रूह जन्नत में है, और सिर किले की दीवार पर।
मातम है कई दिन से मुसलमानों के घर में;
खंदक में है लाश उनकी व सर किले की दर में।
हुसैन– (सीने पर हाथ धरकर) आह! मुसलिम, वही हुआ, जिसका मुझे खौफ़ था। अब तक तुम्हें कफ़न भी नसीब नहीं हुआ। क्या तुम्हारी नेकनियती का यही सिला था? आह! तुम इतने दिनों तक मेरे साथ रहे, पर मैंने तुम्हारी कद्र न जानी। मैंने तुम्हारे ऊपर जुल्म किया, मैंने जान-बूझकर तुम्हारी जान ली। मेरे अजीज और दोस्त, सब के सब मुझे कूफ़ावालों से होशियार कर रहे थे, पर मैंने किसी की न सुनी, और तुम्हें हाथ से खोया। मैं उनके बेटों को और उनकी बीबी को कौन मुँह दिखाऊंगा।
[मुसलिम की लड़की फातिमा आती है।]
आओ बेटी, बैठो, मेरी गोद में चली आओ। कुछ खाया कि नहीं?
फातिमा– बुआ ने शहद और रोटी दी थी। चचाजान, अब हम लोग कै दिन में अब्बा के पास पहुंचेगे? पाँच-छः दिन तो हो गए!
हुसैन– (दिल में) आह! कलेजा मुंह को आता है। इस सवाल का क्या जवाब दूं। कैसे कह दूं कि अब तेरे अब्बा जन्नत में मिलेंगे। (प्रकट) बेटी, खुदा की जब मरजी होगी।
अली०– आह! तुम अब्बाजान की गोद में बैठ गई। उतरिए चटपट।
फातिमा– तुम मेरे अब्बाजान की गोद में बैठोगे, तो मैं अभी उतार दूंगी।
हुसैन– बेटी, मैं ही तुम्हारा अब्बाजान हूं। तुम बैठी रहो।
इसे बकने दो।
फातिमा– आप मेरी तरफ देखकर आंखों में आंसू क्यों भरे हुए हैं। आप मेरा इतना प्यार क्यों कर रहे हैं? आप यह क्यों कहते हैं कि मैं ही अब्बाजान हूं? ऐसी बातें तो यतीमों से की जाती हैं।
हुसैन– (रोकर) बेटी, तेरे अब्बा को खुदा ने बुला लिया।
[फातिमा रोती हुई अपनी मां के पास जाती है। औरतें रोने लगती हैं।]
जैनब– (बाहर आकर) भैया, यह क्या गजब हो गया?
हुसैन– बहन, क्या कहूं सितम टूट पड़ा। मुसलिम तो शहीद हो गए। कूफ़ावालों ने दग़ा की।
जैनब– तो ऐसे दग़ाबाजों से मदद की क्या उम्मीद हो सकती है? मैं तुमसे मिन्नत करती हूं कि यहीं से वापस चलो। कूफ़ावालों ने कभी वफा नहीं की।
[मुसलिम के बेटे अब्दुला का प्रवेश।]
अब्बदुल्ला– फूफीजान, अब तो अगर तकदीर भी रास्ते में खड़ी हो जाये, तो भी मेरे कदम पीछे न हटेंगे। तुफ् है मुझ पर, अगर अपने बाप का बदला न लू! हाय वह इंसान, जिसने किसी से बदी नहीं की, जो रहम और मुरौवत का पुतला था, जो दिल का इतना साफ था कि उसे किसी का शुबहा न होता था इतनी बेदरदी से कत्ल किया जाये।
(अब्बास का प्रवेश)
अब्बास– बेशक, अब कूफ़ावालों को उनकी दग़ा की सजा दिए बगैर लौट जाना ऐसी जिल्लत हैं जिससे हमारी गर्दन हमेशा झुकी रहेगी। खुदा को जो कुछ मंजूर है, वह होगा। हम सब शहीद हो जायें, रसूल के खानदान का निशान मिट जाये, पर यहां से लौटकर हम दुनिया को अपने ऊपर हंसने का मौका न देंगे। मुझे यकीन है कि यह शरारत कूफ़ा के रईसों और सरदारों की है, जिन्हें जियाद के वादों ने दीवाना बना रखा है। आप जिस वक्त कूफ़ा में कदम रखेंगे, रियाया अपने सरदारों से मुंह फेरकर आपके कदमों पर झुकेगी और वह दिन दूर नहीं जब यजीद का नापाक सिर उसके तन से जुदा होगा। आप खुदा का नाम लेकर खेमे उखड़वाइए। अब देर करने का मौका नहीं है। हक के लिए शहीद होना वह मौत है जिसके लिए फरिश्तों की रूहें तड़पती हैं।
जैनब– भैया, मैं तुझ पर सदके। घर वापस चलो।
हुसैन– आह! अब यहां से वापस होना मेरे अख्तियार की बात नहीं है। मुझे दूर से दुश्मन की फौज का गुबार नजर आ रहा है। पुश्त की तरफ भी दुश्मन ने रास्ता रोक रखा है। दाहिने-बाएं कोसों तक बस्ती का निशान नहीं। कूफ़ा में हमें तख्त नसीब हो या तख्ता, हमारे लिए कोई दूसरा मुकाम नहीं है। अब्बास, जाकर मेरे साथियों से कह दो, मैं उन्हें खुशी से इजाज़त देता हूं, जहां जिसका जी चाहे, चला जाये। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। चलो, हम लोग खेमे उखाड़े।
दूसरा दृश्य
[संध्या का समय। हुसैन का काफिला रेगिस्तान में चला जा रहा है।]
अब्बास– अल्लाहोअकबर। वह कूफ़ा के दरख्त नज़र आने लगे।
हबीद– अभी कूफ़ा दूर है। कोई दूसरा गांव होगा।
अब्बास– रसूल पाक की कसम, फौज है। भालों की नोंके साफ नज़र आ रही हैं।
हुसैन– हां, फौज ही है। दुश्मनों ने कूफे से हमारी दावत का यह सामान भेजा है। यहीं उस टीले के करीब खेमे लगा दो। अजब नहीं कि इसी मैदान में किस्मतों का फैसला हो।
[काफिला रुक जाता हैं। खेमे गड़ने लगते हैं। बेगमें ऊंटों से उतरती हैं। दुश्मन की फौज करीब आ जाती है।]
अब्बास– खबरदार, कोई कदम आगे न रखे। यहां हज़रत हुसैन के खेमे हैं।
अली अक०– अभी जाकर इन बेअदबों की तबीह करता हूं।
हुसैन– अब्बास, पूछो, ये लोग कौन हैं, और क्या चाहते हैं?
अब्बास– (फौज से) तुम्हारा सरदार कौन हैं?
हुर– (सामने आकर) मेरा नाम हुर है। हज़रत हुसैन का गुलाम हूं।
अब्बास– दोस्त दुश्मन बनकर आए, तो वह भी दुश्मन है।
हुर– या हजरत, हाकिम के हुक्म से मजबूर हूं, बैयत से मजबूत हूं, नमक की कैद से मजबूत हूं, लेकिन दिल हुसैन ही का गुलाम है।
हुसैन– (अब्बास से) भाई, आने दो, इसकी बातों में सच्चाई की बू आती है।
हुर– या हज़रत, आपको कूफ़ावालों ने दग़ा दी है! जियाद और यजीद, दोनों आपको कत्ल करने की तैयारियां कर रहे हैं। चारों तरफ से फौजें जमा की जा रही हैं। कूफ़ा से सरदार आप से जंग करने के लिए तैयार बैठे हैं।
हुसैन– पहले यह बतलाओ कि तुम्हारे सिपाही क्यों इतने निढाल और परेशान हो रहे हैं?
हुर– या हज़रत क्या अर्ज करूं। तीन पहर से पानी का एक बूंद न मिला। प्यास के मारे सबों के दम लबों पर आ रहे हैं।
हुसैन– (अब्बास से) भैया, प्यासों की प्यास बुझानी एक सौ नमाज़ों से ज्यादा सवाब का काम है। तुम्हारे पास पानी हो, तो इन्हें पिला दो। क्या हुआ, अगर मेरे ये दुश्मन हैं, हैं तो मुसलमान– मेरे नाना के नाम पर मरनेवाले।
अब्बास– या हज़रत, आपके साथ बच्चे हैं, औरतें और पानी यहां उनका है।
हुसैन– इन्हें पानी पिला दो, मेरे बच्चों का खुदा है।
[अब्बास, अली अकबर, हबीब पानी की मशकें लाकर सिपाहियों को पानी पिलाते हैं।]
अब्बास– हुर, अब यह बतलाओ कि तुम हमसे सुलह करना चाहते हो या जंग?
हुर– हज़रत, मुझे आपसे न जंग का हुक्म दिया गया है, न सुलह का। मैं सिर्फ इसलिए भेजा गया हूं कि हज़रत को जियाद के पास ले जाऊं, और किसी दूसरी तरफ न जाने दूं।
अब्बास– इसके मानी यह हैं कि तुम जंग करना चाहते हो। हम किसी खलीफ़ा या आमिल के हुक्म के पाबंद नहीं हैं कि किसी खास तरफ जायें। मुल्क खुदा का है। हम आजादी से जहां चाहेंगे, जायेंगे। अगर हमको कोई रोकेगा, तो उसे कांटों की तरह रास्ते से हटा देंगे।
हुसैन– नमाज़ का वक्त आ गया। पहले नमाज अदा कर लें, उसके बाद और बातें होंगी। हुर, तुम मेरे साथ नमाज़ पढ़ोगे या अपनी फौज के साथ?
हुर– या हज़रत, आपके पीछे खड़े होकर नमाज अदा करने का सवाब न छोड़ूगा, चाहे मेरी फौज मुझसे जुदा क्यों न हो जाये।
तीसरा दृश्य
[संध्या का समय– नसीमा बगीचे में बैठी आहिस्ता-आहिस्ता गा रही है।]
दफ़न करने ले चले जब मेरे घर से मुझे,
काश तुम भी झांक लेते रौज़ने घर से मुझे।
सांस पूरी हो चुकी दुनिया से रुख्सत हो चुका,
तुम अब आए हो उठाने मेरे बिस्तर से मुझे।
क्यों उठाता है मुझे मेरी तमन्ना को निकाल,
तेरे दर तक खींच लाई थी यही घर से मुझे।
हिज्र की सब कुछ यही मूनिस था मेरा ऐ क़जा–
एक जरा रो लेने दे मिल-मिल के बिस्तर से मुझे।
याद है तस्कीन अब तक वह जमाना याद है,
जब छुड़ाया था फ़लक ने मेरे दिलवर से मुझे।
[वहब का प्रवेश। नसीमा चुप हो जाती है।]
वहब– खामोश क्यों हो गई। यही सुनकर मैं आया था।
नसीमा– मेरा गाना ख़याल है, तनहाई का मूनिस अपना दर्द क्यों सुनाऊं, जब कोई सुनना न चाहे।
बहब– नसीमा, शिकवे, करने का ह़क मेरा है, तुम इसे ज़बरदस्ती छीन लेती हो।
नसीमा– तुम मेरे हो, तुम्हारा सब कुछ मेरा है, पर मुझे इसका यकीन नहीं आता। मुझे हरदम यहीं अंदेशा रहता है कि तुम मुझे भूल जाओगे, तुम्हारा दिल मुझसे बेज़ार हो जायेगा, मुझसे बेतनाई करने लगोगे। यह ख़याल दिल से नहीं निकलता। बहुत चाहती हूं कि निकल जाये, पर वह किसी पानी से भीगी हुई बिल्ली की तरह नहीं निकलता। तब मैं रोने लगती हूं, और ग़मनाक ख़याल मुझे चारों तरफ़ से घेर लेते हैं। तुमने न-जाने मुझ पर कौन-सा जादू कर दिया है कि मैं अपनी नहीं रही। मुझे ऐसा गुमान होता है कि हमारी बहार थोड़े ही दिनों की मेहमान है। मैं तुमसे इल्तजा करती हूं कि मेरी तरफ से निगाहें न मोटी करना, वरना मेरा दिल पाश-पाश हो जायेगा। मुझे यहां आने के पहले कभी न मालूम हुआ था कि मेरा दिल इतना नाजुक है।
वहब– मेरी क़ैफ़ियत इससे ठीक उल्टी है। मेरे दिल में एक नई कूबत आ गई है, मुझे खयाल होता है अब दुनिया की कोई फ़िक्र, कोई तग़ीव, कोई आरजू मेरे दिल पर फ़तह नहीं पा सकती। ऐसी कोई ताकत नहीं है, जिसका मैं मुकाबला न कर सकूं। तुमने मेरे दिल की कूबत सौगुनी कर दी। यहां तक अब मुझे मौत का भी गम नहीं। मुहब्बत ने मुझे दिलेर, बैखौफ़, मजबूत बना दिया है, मुझे तो ऐसा गुमान होता है कि मुहब्बत कूबते-दिल की कीमिया है।
नसीमा– वहब, इन बातों से वहशत हो रही है, शायद हमारी तबाही के सामान हो रहे हैं। वहब, मैं तुम्हें न जाने दूंगी, कलाम पाक की क़सम, कहीं न जाने दूंगी। मुझे इसकी फिक्र नहीं कि कौन खलीफ़ा होता है और कौन अमीर। मुझे माल व ज़र की, इलाके व जागीर की मुतलक़ परवा नहीं। मैं तुम्हें चाहती हूं, सिर्फ तुम्हें।
[कमर का प्रवेश]
कमर– वहब, देख, दरवाजे पर जालिम जियाद के सिपाही क्या गजब कर रहे हैं। तेरे वालिद को गिरफ्तार कर लिया है और जामा मसजिद की तरफ खींचे लिए जाते हैं।
नसीमा– हाय सितम, इसीलिए तो मुझे वहसत हो रही थी।
[वहब उठ खड़ा होता है। नसीमा उसका हाथ पकड़ लेती है।]
वहब– नसीमा, मैं अभी लौटा आता हूं, तुम घबराओ नहीं।
नसीमा– नहीं-नहीं तुम यहां मुझे जिंदा छोड़कर नहीं जा सकते। मैं जियाद को जानती हूं। तुमको भी जानती हूं। जियाद के सामने जाकर फिर तुम नहीं लौट सकते।
कमर– बेटा, अगर नसीमा तुझे नहीं जाने देती, तो मत जा। मगर याद रख, तेरे चेहरे पर हमेशा के लिए स्याही का दाग़ लग जायेगा। खुद जाती हूं। नसीमा, शायद हमारी-तुम्हारी फिर मुलाकात न हो, यह आखिरी मुलाकात है। रुखसत। वहब, घर-बार तुझे सौंपा खुदा तुझे नेकी की तौफ़ीक दे, तेरी उम्र दराज़ हो।
वहब– अम्मा, मैं भी चलता हूं।
कमर– नहीं, तुझ पर अपनी बीबी का हक़ सबसे ज्यादा है।
वहब– नसीमा, खुदा के लिए…।
नसीमा– नहीं। मेरे प्यारे आक़ा, मुझे जिंदा छोड़कर नहीं।
[कमर चली जाती है। वहब सिर थामकर बैठ जाता है।]
नसीमा– प्यारे, तुम्हारी मुहब्बत की क़तावार हूँ, जो सजा चाहे दो। मुहब्बत खुदग़रज होती है। मैं अपने चमन को हवा के झोंकों से बचाना चाहती हूं। काश तकदीर ने मुझे इस गुलज़ार में न बिठाया होता, काश मैंने इस चमन में अपना घोंसला न बनाया होता, तो आज वर्क और सैयाद का इतना खौफ क्यों होता! मेरी बदौलत तुम्हें यह नदामत उठानी पड़ी काश मैं मर जाती!
[नसीमा वहब के पैरों पर सिर रख देती है।]
चौथा दृश्य
[आधी रात का समय। अब्बास हुसैन के खेमे के सामने खड़े पहरा दे रहे हैं। हुर आहिस्ता से आकर खेमे के करीब खड़ा हो जाता है।]
हुर– (दिल में) खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा? किस मुंह से रसूल के सामने जाऊंगा? आह, गुलामी तेरा बुरा हो। जिस बुजुर्ग ने हमें ईमान की रोशनी दी, खुदा की इबादत सिखाई, इंसान बनाया, उसी के बेटे से जंग करना मेरे लिये कितनी शर्म की बात है। यह मुझसे न होगा। मैं जानता हूं, यजीद मेरे खून का प्यासा हो जायेगा, मेरी जागीर छीन ली जाएगी, मेरे लड़के रोटियों के मुहताज हो जायेंगे, मगर दुनिया खोकर रसूल की निगाह का हकदार हो जाऊंगा। मुझे न मालूम था कि यजीद की बैयत लेकर मैं अपनी आक़बत बिगाड़ने पर मजबूर किया जाऊंगा। अब यह जान हज़रत हुसैन पर निसार है। जो होना है, हो। यजीद की खिलाफत पर कोई हक नहीं। मैंने उसकी बैयत लेने में खास गलती की। उसके हुक्म की पाबंदी मुझ पर फर्ज़ नहीं। खुदा के दरबार में मैं इसके लिये गुनहगार न ठहरूंगा।
[आगे बढ़ता है।]
अब्बास– कौन है? खबरदार, एक कदम आगे न बढ़े, वरना लाश जमीन पर होगी।
हुर– या हज़रत, आपका गुलाम हुर हूं। हज़रत हुसैन की खिदमत में कुछ अर्ज करना चाहता हूं।
अब्बास– इस वक्त वह आराम फरमा रहे हैं।
हुर– मेरा उनसे इसी वक्त मिलना जरूरी है।
अब्बास– (दिल में) दग़ा का अंदेशा तो नहीं मालूम होता। मैं भी इसके साथ चलता हूं। जरा भी हाथ-पांव हिलाया कि सिर उड़ा दूंगा (प्रकट) अच्छा, जाओ।
[अब्बास खेमे से बाहर हुसैन को बुला लाते है।]
हुर– या हज़रत, मुआफ कीजिएगा। मैंने आपको नावक्त तकलीफ दी। मैं यह अर्ज करने आया हूं कि आप कूफ़ा की तरफ न जाये। रात का वक्त है, मेरी फौज सो रही है, आप किसी दूसरे तरफ चले जायें। मेरी यह अर्ज कबूल कीजिए।
हुसैन– हुर, यह अपनी जान बचाने का मौका नहीं, इस्लाम की आबरू को कायम रखने का सवाल है।
हुर– आप यमन की तरफ चले जायें, तो वहां आपको काफी मदद मिलेगी। मैंने सुना है, सुलेमान और मुख्तार वहां आपकी मदद के लिये फौज जमा कर रहे हैं।
हुसैन– हुर जिस लालच ने कूफ़ा के रईसों को मुझसे फेर दिया, क्या वह यमन में अपना असर न दिखाएगा? इंसान की गफ़लत सब जगह एक-सी होती है। मेरे लिए कूफ़ा के सिवा दूसरा रास्ता नहीं है। अगर तुम न जाने दोगे, तो जबरदस्ती जाऊंगा। यह जानता हूं कि वहीं मुझे शहादत नसीब होगी। इसकी खबर मुझे नाना की जबान मुबारक से मिल चुकी है। क्या खौफ़ से शहादत के रुतबे को छोड़ दूं?
हुर– अगर आप जाना ही चाहते हैं, तो मस्तूरात को वापस कर दीजिए।
हुसैन– हाय, ऐसा मुमकिन होता, तो मुझसे ज्यादा खुश कोई न होता। मगर इनमें से कोई भी मेरा साथ छोड़ने पर तैयार नहीं है।
[किसी तरह से ऊँ ऊँ की आवाज आ रही।]
हुर– या हजरत, यह आवाज कहां से आ रही है? इसे सुनकर दिल पर रोब तारी हो रहा है।
[एक योगी भभूत रमाए, जटा बढ़ाए, मृग-चर्म कंधे पर रखे हुए आते हैं।]
योगी– भगवन्! मैं उस स्थान को जाना चाहता हूं, जहां महर्षि मुहम्मद की समाधि है।
हुसैन– तुम कौन हो? यह कैसी शक्ल बना रखी है?
योगी– साधु हूं। उस देश से आ रहा हूं, जहां प्रथम ओंकार-ध्वनि की सृष्टि हुई थी। महर्षि मुहम्मद ने उसी ध्वनि से संपूर्ण जगत को निनादित कर दिया है। उनके अद्वैतवाद ने भारत के समाधि-मग्न ऋषियों को भी जागृति प्रदान कर दी है। उसी महात्मा की समाधि का दर्शन करने के लिए मैं भारत से आया हूं, कृपा कर मुझे मार्ग बता दीजिए।
हुसैन– आइए, खुशनसीब कि आपकी जियारत हुई। रात का वक्त है अंधेरा छाया हुआ है। इस वक्त यहीं आराम कीजिए। सुबह मैं आपके साथ अपना एक आदमी भेज दूंगा।
योगी– (गौर से हुसैन के चेहरे को देखकर) नहीं महात्मन् मेरा व्रत है कि उस पावन भूमि का दर्शन किए बिना कहीं विश्राम न करूंगा। प्रभो, आपके मुखारविंद पर भी मुझे उसी महर्षि के तेज का प्रतिबिंब दिखाई देता है। आप उनके आत्मीय हैं?
हुसैन– जी हां, उनका नेवासा हूं। मगर आपने नाना को देखा ही नहीं, फिर आपको कैसे मालूम हुआ कि मेरी सूरत उनसे मिलती है?
योगी– (हंसकर) भगवन्! मैंने उनका स्थूल शरीर नहीं देखा, पर उनके आत्मशरीर का दर्शन किया है। आत्मा द्वारा उनकी पवित्र वार्ता सुनी है। में प्रत्यक्ष देख रहा हूं कि आप में वही पवित्र आत्मा अवतरित हुई है। आज्ञा दीजिए, आपके चरण-रज से अपने मस्तक को पवित्र करूं।
हुसैन– (पैरों को हटाकर) नहीं-नहीं, मैं इंसान हूं और रसूल पाक की हिदायत है कि इंसान को इंसान की इबादत वाजिब नहीं।
योगी– धन्य है! मनुष्य के ब्रह्मत्व का कितना उच्च आदर्श है! यह ज्ञान-ज्योति, जो इस देश के उद्भाषित हुई है, एक दिन समस्त भूमंडल को आलोकित करेगी, और देश-देशांतरों में सत्य और न्याय का मुख उज्जवल करेगी। हां, इस महार्षि की संतान-न्याय-गौरव का पालन करेगी। अब मुझे आज्ञा दीजिए, आपके दर्शनों से कृतार्थ हो गया।
[योगी चला जाता है]
हुसैन– अब मुझे मरने का ग़म नहीं रहा। मेरे नाना की उम्मत हक और इंसाफ की हिमायत करेगी। शायद इसीलिए रसूल ने अपनी औलाद को हक पर कुर्बान करने का फैसला किया है। हुर, तुमने इस फकीर की पेशगोई सुनी?
हुर– या हज़रत, आपका रुतबा आज जैसा समझा हूं, ऐसा कभी न समझा था। हुजूर रसूल पाक से मेरे हक़ में दुआ करें कि मुझ रूहस्याह के गुनाह मुआफ़ करें।
[चला जाता है]
हुसैन– अब्बास, अब हमें कूफ़ावालों को अपने पहुंचने की इत्तिला देनी चाहिए।
अब्बास– वजा है।
हुसैन– कौन जा सकता है?
अब्बास– सैदावी को भेज दूं?
हुसैन– बहुत अच्छी बात है।
[अब्बास सैदावी को बुला लाते हैं।]
अब्बास– सैदावी, तुम्हें हमारे पहुंचाने की खबर लेकर कूफ़ा जाना पड़ेगा। यह कहने की जरूरत नहीं कि यह बड़े खतरे का काम है।
सैदावी– या हजरत, जब आपकी मुझ पर निगाह है, तो फिर खौफ़ किस-किस बात का।
हुसैन– शाबाश, यह खत लो, और वहां किसी ऐसे सरदार को देना, जो रसूल का सच्चा बंदा हो। जाओ, खुदा तुम्हें खैरियत से ले जाये।
[सैदावी जाता है।]
हुसैन– (दिल में) सैदावी, जाते हो, मगर मुझे शक है कि तुम लौटोगे! तुमने जिसे न दीन की हिफ़ाजत का ख्याल है, न हक का, जिसे दुश्मनों ने चारों तरफ़ से घेर नहीं रखा है, जिसको शहीद करने के लिए फौजे नहीं जमा की जा रही हैं, जो दुनिया में आराम से जिंदगी बसर कर सकता है, महज वफ़ादारी का हक़ अदा करने के लिए जान-बूझकर मौत के मुंह में कदम रखा है, तो मैं मौत से क्यों डरूं।
[गाते हैं।]
मौत का क्या उसको हैं, जो मुसलमां हो गया,
जिसकी नीयत नेक हैं, जो सिदकू ईमां हो गया।
कब दिलेरों को सताए फिक्र जर और खौफ़ जो,
अज्म सादिक उसका है, जो पाक दामा हो गया।
क्यों नदामत हो मुझे, दुनिया में ग़र जिंदा रहा,
जाय ग़म क्या है, जो नज़रे-तेग़ बुर्रा हो गया।
हो अदू दुनिया में रुसवा, आखिरत में ग़म नसीब,
मुनहरिफ दीं से हुआ, औं’ नंग-दौरां हो गया।
पांचवां दृश्य
[रात का समय। हुसैन अपने खेमे में सोए हुए हैं। वह चौंक पड़ते हैं, और लेटे हुए, चौकन्नी आंखों से, इधर-उधर ताकते हैं।]
हुसैन– (दिल में) यहां तो कोई नजर नहीं आता। मैं हूं, शमा है, और मेरा धड़कता हुआ दिल है। फिर मैंने आवाज किसकी सुनी! सिर में कैसा चक्कर आ रहा है। जरूर कोई था। ख्वाब पर हकीकत का धोखा नहीं हो सकता। ख्वाब के आदमी शबनम के परदे में ढकी हुई तस्वीरों की तरह होते हैं। ख्वाब की आवाज़ें जमींन के नीचे से निकलने वाली आवाजों की तरह मालूम होती है। उनमें यह बात कहां! देखूं, कोई बाहर तो खड़ा नहीं है। (खेमे से बाहर निकलकर) उफ् कितनी गहरी तारीकी है, गोया मेरी आँखों ने कभी रोशनी देखी ही नहीं। कैसा गहरा सन्नाटा है, गोया सुनने की ताकत ही से महरूम हूं। गोया यह दुनिया अभी-अभी अदम के ग़ार से निकली है (प्रकट) कोई हैं।
[अली अकबर का प्रवेश]
अली०– हाज़िर हूं, अब्बाजान, क्या इरशाद है?
हुसैन– यहां से अभी कोई सवार तो नहीं गुजरा है?
अली०– अगर मेरे होश-हवास बजा हैं, तो इधर कोई जानदार नहीं गुजरा।
हुसैन– ताज्जुब है, अभी लेटा हुआ था, और जहां तक मुझे याद है, मेरी पलकें तक नहीं झपकीं, पर मैंने देखा, एक आदमी मुश्की घोड़े पर सवार सामने खड़े होकर मुझसे कह रहा है कि ‘ऐ हुसैन! इराक जाने की जल्दी कर रहे हो, और मौत तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ी जा रही है।’ बेटा, मालूम हो रहा है, मेरी मौत करीब है!
अली०– बाबा, क्या हम हक़ पर नहीं हैं?
हुसैन– बेशक, हम हक़ पर हैं, तो मौत का क्या डर। क्या परवा, अगर हम मौत की तरफ जायें या मौत हमारी तरफ आए।
हुसैन– बेटा, तुमने दिल खुद कर दिया। खुदा तुमको वह सबसे बड़ा इनाम दे, जो बाप बेटे को दे सकता है।
[जहीर, हबीब, अब्दुला, कलबी और उसकी स्त्री का प्रवेश।]
अली०– कौन इधर से जा रहा है?
जहीर– हम मुसाफिर हैं। ये खेमे क्या हज़रत हुसैन के हैं?
अली०– हां।
जहीर– खुदा का शुक्र है कि हम मंजिल-मक़सूद पर पहुंच गए। हम उन्हीं की जियारत के लिए कूफ़ा से आ रहे हैं।
हुसैन– जिसके लिए आप कूफ़ा से आ रहे है, वह खुद आपसे मिलने के लिए कूफ़ा जा रहा है। मैं ही हुसैन बिन अली हूं।
जहीर– हमारे जहे-नसीब कि आपकी जियारत हुई। हम सब-के-सब आपके गुलाम हैं। कूफ़ा में इस वक्त दर व दीवार आपके दुश्मन हो रहे हैं। आप उधर क़स्द न फरमाएं। हम इसलिए चले आए हैं कि वहां रहकर आपकी कुछ खिदमत नहीं कर सकते। हमने हज़रत मुसलिम के क़त्ल का खूनी नज़ारा देखा है, रानी को कत्ल होते देखा है, और गरीब तौआ की चोटियां कटते देखी है। जो लोग आपकी दोस्ती का दम भरते थे, वे आज जियाद के दाहिने बाजू बने हुए हैं।
हुसैन– खुदा उन्हें नेक रास्ते पर लाए। तकदीर मुझे कूफ़ा लिए जाती है, और अब कोई ताकत मुझे वहां जाने से रोक नहीं सकती। आप लोग चलकर आराम फरमाएं। कल का दिन मुबारक होगा, क्योंकि मैं उस मुकाम पर पहुंच जाऊंगा, जहां शहादत मेरे इंतजार में खड़ी है।
[सब जाते हैं]
छठा दृश्य
[कर्बला का मैदान। एक तरफ केरात-नदीं लहरें मार रही है। हुसैन मैदान में खड़े हैं। अब्बास और अली अकबर भी उनके साथ हैं।]
अली अकबर– दरिया के किनारे खेमे लगाए जाए, वहां ठंडी हवा आएगी।
अब्बास– बड़ी फ़िजा की जगह है।
हुसैन– (आंखों में आंसू भरे हुए) भाई, लहराते हुए दरिया को देखकर खुद-बखुद बाबा बहुत ग़मग़ीन थे। उनकी आंखों से आंसू न थमते थे। न खाना खाते थे, न सोते थे। मैंने पूछा– ‘‘या हजरत, आप क्यों इस क़दर बेताब हैं?’’ मुझे छाती से लिपटाकर बोले– ‘‘बेटा, तू मेरे बाद एक दिन यहां आएगा, उस दिन तुझे मेरे रोने का सबब मालूम होगा। आज मुझे उनकी वह बात याद आती है। उनका रोना बेसबब नहीं था। इसी जगह हमारे खून बहाए जायेंगे, इसी जगह हमारी बहनें और बेटियां, कैद की जाएंगी, इसी जगह हमारे आदमी कत्ल होंगे, और हम जिल्लत उठाएंगे। खुदा की क़सम, इसी जगह मेरी गर्दन की रगें कटेंगी और मेरी दाढ़ी खून में रंगी जायेगी। इसी जगह का वादा मेरे नाना से अल्लाहताला ने किया है, और उसका वादा तक़दीर की तहरीर है।
[गाते हैं।]
देगा जगह कोई मुश्ते गुबार को,
बैठेगा कौन लेके किसी बेकरार को।
दर सैकड़ों कफ़स में हैं, फिर भी असीर हूं,
कैसा मकां मिला है, गरीबे-दबार को।
दिल-सौज कौन है, जो न जाने के जुल्म से,
देखे मेरी बुझी हुई शमए-मज़ार को।
आखिर है दास्तान शबे-ग़म कि बाग मर्ग,
करता है बंद दीदए-अख्तर शुमार को।
आवाज ए-चमन की उम्मीद और मेरे बाद–
चुप कर दिया फ़लक ने ज़बाने-बहार को।
राहत कहां नसीब कि सहराए-गम को धूप,
देती है आग हर शजरे शायादार को।
खुद आसमां को नक्शे-वफा से है दुश्मनी,
तुम क्यों मिटा रहे हो निशाने-मजार को।
इस हादिसे से कबूल कि मैं फिर कुछ न कह सकूं,
सुन लो बयान हाले-दिले बेकरार को।
[जैनब खेमे से बाहर निकल आती है।]
जैनब– भैया, यह कौन-सा सहरा है कि इसे देखकर खौफ से कलेजा मुंह को आ रहा है। बानू बहुत घबराई हुई है, और असगर छाती से मुंह नहीं लगाता।
हुसैन– बहन! यही कर्बला का मैदान है।
जैनब– (दोनों हाथों से सिर पीटकर) भैया, मेरी आंखों के तारे, तुम पर मेरी जान निसार हो। हमें तक़दीर ने यहां कहां लाके छोड़ा, क्यों कहीं और चलते?
हुसैम– बहन, कहां जाऊं? चारो तरफ से नाके बंद हैं। जियाद का हुक्म कि मेरा लश्कर यहीं उतरे। मजबूत हूं, लड़ाई में बहस नहीं करना चाहता।
जैनब– हाय भैया! यह बड़ी मनहूस जगह है। मुझे लड़कपन से यहां की खबर है। हाय भैया! इस जगह तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे। मैं बैठी देखूंगी, और तुम बर्छियां खाओगे। मुझे मदीने भी न पहुंचा सकोगे? रसून की औलाद यहीं तबाह होगी, उनकी नामूस यहीं लूटेगी। हाय तकदीर!
इस दश्त में तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे भाई,
गर खाक भी छानूं तो न हाथ आवेगा भाई।
बहनों को मदीने में न पहुंचाओगे भाई,
मैं देखूंगी और बरछिया तुम खाओगे भाई।
औलाद से बानू की यह छूटने की जगह है,
नामूसे-नबी की यही लूटने की जगह है।
[बेहोश हो जाती हैं। लोग पानी के छींटे देते हैं]
अली अक०– या हजरत, खेमे कहां लगाए जाये?
अब्बास– मेरी सलाह तो है कि दरिया के किनारे लगें।
हुसैन– नहीं, भैया, दुश्मन हमें दरिया के किनारे न उतरने देंगे। इसी मैदान में खेमे लगाओ, खुदा यहां भी है, और वहां भी। उसकी मर्जी पूरी होकर रहेगी।
[जैनब को औरतें उठाकर खेमे में ले जाती हैं।]
बानू– हाय-हाय! बाजीजान को क्या हो गया। या खुदा हम मुसीबत के मारे हुए हैं, हमारे हाल पर रहम कर।
हुसैन– बानू, यह मेरी बहन नहीं, मां है। अगर इस्लाम में बुतपरस्ती हराम न होती, तो मैं इसकी इबादत करता। यह मेरे खानदान का रोशन सितारा है। मुझ-सा खुशनसीब भाई दुनिया में और कौन होगा, जिसे खुदा ने ऐसी बहन अता की। जैनब के मुंह पर पानी के छींटे देते हैं।
सातवां दृश्य
[नसीमा अपने कमरे में अकेली बैठी हुई है– समय १२ बजे रात का।]
नसीमा– (दिल में) वह अब तक नहीं आए। गुलाम को उन्हें साथ लाने के लिए भेजा, वह भी वहीं का हो रहा। खुदा करे, वह आते हों। दुनिया में रहते हुए हमारे ऊपर मुल्क की हालात का असर न पड़े। मुहल्ले में आग लगी हो तो अपना दरवाजा बंद करके बैठ रहना खतरे से नहीं बचा सकता। मैंने अपने तई इन झगड़ों से कितना बचाया था, यहां तक कि अब्बाजान और अम्मा जो यजीद की बैयत न कबूल करने के जुर्म में जलावतन कर दिए गए, तब भी मैं अपना दरवाजा बंद किए बैठी रही, पर कोई तदबीर कारगर न हुई। बैयत की बला फिर गले पड़ी। वहब मेरे लिए सब कुछ करने को तैयार है। वह यजीद की बैयत भी कबूल कर लेता, चाहें उसके दिल को कितना ही सदमा हो। पर जो कुछ हो रहा है, उसे देखकर अब मेरा दिन भी यजीद की बैयत की तरफ मायल नहीं होता, उससे नफ़रत होती है। मुसलिम कितनी बेदरदी से कत्ल किए गए हानी को जालिम ने किस बुरी तरह कत्ल कराया। यह सब देखकर अगर यजीद की बैयत कबूल कर लूं, तो शायद मेरा जमीर मुझे कभी मुआफ न करेगा। हमेशा पहलू में खलिश होती रहेगी। आह! इस खलिश को भी सह सकती हूँ, पर वहब की रूहानी कोफ्त अब नहीं सही जाती। मैंने उन पर बहुत जुलम किए। अब उनकी मुहब्बत की जंजीर को और न खींचूंगी। जिस दिन से अब्बा और अम्मा निकाले गए हैं, मैंने वहब को कभी दिल से खुश नहीं देखा। उनकी वह जिंदादिली गायब हो गई। यों वह अब भी मेरे साथ हंसते हैं, गाते हैं, पर मैं जानती हूं, यह मेरी दिलजुई है। मैं उन्हें जब अकेले बैठे देखती हूं, तो वह उदास और बेचैन नजर आते हैं…वह आ गए, चलूं दरवाजा खोल दूं।
[जाकर दरवाजा खोल देती है। वहब अंदर दाखिल होता है।]
नसीमा– तुम आ गए, वरना मैं खुद आती। तबियत बहुत घबरा रही थी। गुलाम कहां रह गया?
वहब– क़त्ल कर दिया गया। नसीमा, मैंने किसी को इतनी दिलेरी से जान लेते नहीं देखा। इतनी लापरवाही से कोई कुत्ते के सामने लुकमा भी न फेंकता होगा। मैं तो समझता हूं, वह कोई औलिया था।
नसीमा– हाय, मेरे वफ़ादार और गरीब सालिम! खुदा तुझे जन्नत नसीब करे। जालियों ने उसे क्यों क़त्ल किया?
वहब– आह! मेरे ही कारण उस गरीब की जान गई। जामा मसजिद में हजारों आदमी जमा थे। खबर है, और तहकीक खबर है कि हज़रत हुसैन मक्के से बैयत लेने आ रहे हैं। जालिमों के होश उड़े हुए हैं। जो पहले बच रहे थे, उनसे अब यजीद की खिलाफत का हलफ़ लिया जा रहा है। जियाद ने जब मुझसे हलफ़ लेने को कहा, तो मैं राजी हो गया। इनकार करता तो उसी वक्त कैदखाने में डाल दिया जाता। जियाद ने खुश होकर मेरी तारीफ की, और यजीद के हामियों की सफ़ में ऊंचे दर्जे पर बिठाया, जागरीर में इजाफ़ा किया, और कोई मंसब भी देना चाहते हैं। उसकी मंशा यह भी है कि सब हामियों को एक सफ़ में बिठाकर एकबारगी सबसे हलफ़ ले लिया जाये इसीलिये मुझे देर हो रही थी। इसी असना में सालिम पहुंचा, और मुझे यजीदवालों की सफ़ में बैठे देखकर मुझसे बदजबानी करने लगा। मुझे दग़ाबाज जमानासाज बेशर्म, खुदा जाने, क्या-क्या कहा, और उसी जोश में यजीद और जियाद दोनों ही को शान में बेअदबी की। मुझे ताना देता हुआ बोला, मैं आज तुम्हारे नमक की कैद से आजाद हो गया। मुझे कत्ल होना मंजूर हैं मगर ऐसे आदमी की गुलामी मंजूर नहीं, जो खुद दूसरों का गुलाम है। जियाद ने हुक्म दिया– इस बदमाश की गर्दन मार दो और, जल्लादों ने वहीं सहन में उसको कल्ल कर डाला। हाय! मेरी आंखों के सामने उसकी जान ली गई, और मैं उसके हक़ में जबान तक न खोल सका, उसकी तड़पती हुई लाश मेरी आंखों के सामने घसीटकर कुत्तों के आगे डाल दी गई, और मेरे खून में जोश न आया। आफियत बड़े मंहगे दामों में मिलती है।
नसीमा– बेशक, महंगे दाम हैं। तुमने अभी बैयत तो नहीं ली?
वहब– अभी नहीं, बहुत देर हो गई, लोगों की तादाद बढ़ती जाती थी आखिर आज हलफ़ लेना मुल्तवी किया गया। कल फिर सबकी तलबी है।
नसीमा– तुम इन जालिमों को बैयत हर्गिज न लेना।
वहब– नहीं नसीमा, अब उसका मौका निकल गया।
नसीमा– मैं तुमसे मिन्नत करती हूं हर्गिज न लेना।
वहब– तुम मेरी दिलजूई के लिए अपने ऊपर जब्र कर रही हो।
नसीमा– नहीं वहब, अगर तुम दिल से भी बैयत कबूल करनी चाहो, तो मैं खुश न हूंगी। में भी इंसान हूं वहब, निरी भेड़ नहीं हूं। मेरे दिल के जज़बात मुर्दा नहीं हुए है। मैं तुम्हें इन जालिमों के सामने सिर न झुकाने दूंगी। जानती हूं जागरी जब्त हो जायेगी,. वजीफ़ा बंद हो जायेगा, जलावतन कर दिए जायेंगे। मैं तुम्हारे साथ ये सारी आफ़तें झेल लूंगी।
वहब– और अगर जालिमों ने इतने ही पर बस न की?
नसीमा– आह वहब, अगर यह होना है, तो खुदा के लिए इसी वक्त यहां से चले चलो। किसी सामान की जरूरत नहीं। इसी तरह, इन्हीं पांवों चलो। यहां से दूर किसी दरख्त के साए में बैठकर दिन काट दूंगी, पर इन जालिमों की खुशामद न करूंगी।
बहब– (नसीमा को गले लगाकर) नसीमा, मेरी जान तुझ पर फ़िदा हो। जालिमों की सख्ती मेरे हक में अकसीर हो गई। अब उस जुल्म से मुझे कोई शिकायत नहीं। हमारे जिस्म बारहा गले मिल चुके है, आज हमारी रूहें गले मिली हैं, मगर इस वक्त नाके बंद होंगे।
नसीमा– जालिमों के नौकर बहुत ईमानदार नहीं होते। मैं उसे 50 दीनार दूंगी, और वहीं हमें अपने घोड़े पर सवार कराके शहर पहुंचा देगा। वहब– सोच लो, बागियों के साथ किसी की रू-रियासत नहीं हो सकती उनकी एक ही सजा है, और वह है कत्ल।
नसीमा– वहब, इंसान के दिल की क़ैफियत हमेशा एक-सी-नहीं रहती। केंचुए से डरने वाला आदमी सांप की गर्दन पकड़ लेता है। ऐश के वंदे गुदड़ियों में मस्त हो जाते हैं। मैंने समझा था, जो खतरा है, घोंसलों से बाहर निकलने में है, अंदर बैठे रहने में आराम-ही-आराम है। पर अब मालूम हुआ कि सैयाद के हाथ घोंसले के बाहर निकलने में है, अंदर बैठे रहने में आराम-ही-आराम है। पर अब मालूम हुआ कि सैयाद के हाथ घोंसले के अंदर भी पहुंच जाते हैं। हमारी नजात जमाना से भागने में नहीं, उसका मुकाबला करने में है। तुम्हारी सोहबत ने, मुल्क की हालत ने, क़ौम के रईसों और अमीरों की पस्ती ने मुझ पर रोशन कर दिया कि यहां इतमीनान के मानी ईमान-फ़रोशी और आफ़ियत के मानी हक़कुशी हैं। ईमान और हक़ की हिफ़ाजत असली आफ़ियत और इतमीनान है। शायद ने खूब कहा है–
लुफ्त मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में,
कुछ अगर है, तो यही खूने-जिगर पीने में।
वहब– मुआफ करो नसीमा, मैंने तुम्हें पहचानने में गलती की। चलो, सफ़र का सामान करें।
चौथा अंक
पहला दृश्य
[प्रातःकाल का समय। जियाद फर्श पर बैठा हुआ सोच रहा है।]
जियाद– (स्वगत) उस वफ़ादारी की क्या कीमत है, जो महज जबान तक महदूद रहें? कूफ़ा के सभी सरदार, जो मुसलिम बिन अकील से जंग करते वक्त बग़लें झांक रहे हैं। कोई इस मुहिम को अंजाम देने का बीडा नहीं उठाता। आकबत और नजात की आड़ में सब-के-सब पनाह ले रहे हैं। क्या अक्ल है, जो दुनिया को अकबा की ख़याली नियामतों पर कुर्बान कर देती है। मजहब! तेरे नाम पर कितनी हिमाकतें सबाब समझी जाती हैं, तूने इंसान को कितना बातिन-परस्त, कितना कम हिम्मत बना दिया है!
[उमर साद का प्रवेश]
साद– अस्सलामअलेक या अमीर, आपने क्यों याद फ़रमाया?
जियाद– तुमसे एक खास मामले में सलाह लेनी है। तुम्हें मालूम हैं, ‘रै’ कितना ज़रखेज, आबाद और सेहतपरवर सूबा है?
साद– खूब जानता हूं, हुजूर, वहां कुछ दिनों रहा हूं, सारा सूबा मेवे के बागों और पहाड़ी चश्मों में गुलजार बना हुआ है। बाशिदें निहायत खलीक और मिलनसार। बीमार आदमी वहां जाकर तवाना हो जाता है!
जियाद– मेरी तजवीज है कि तुम्हें उस सूबे का आमिल बनाऊं। मंजूर करोगे?
साद– (बंदगी करके) सिर और आंखों से। इस क़द्रदानी के लिये क़यामत तक शुक्रगुजार रहूंगा।
जियाद– माकूल सालाना, मुशाहरे के अलावा तुम्हें घोड़े नौकर, गुलाम सरकार की तरफ से मिलेंगे।
साद– ऐन बंदानवाजी है। खुदा आपको हमेशा खुशखर्रर रखे।
जियाद– तो मैं मुंशी को हुक्म देता हूं कि तुम्हारे नाम फ़रमान जारी कर दे, और तुम वहां जाकर काम संभालो।
साद– गुलाम हमेशा आपका मशकूर रहेगा।
जियाद– मुझे यकीन है, तुम उतने ही कारगुज़ार और वफ़ादार साबित होगे, जैसी मुझे तुम्हारी जात से उम्मीद है।
[मीर मुंशी को बुलाता है, वह साद के नाम फ़रमान लिखता है।]
साद– (फ़रमान लेकर) तो मैं कल चला जाऊं?
जियाद– नहीं-नहीं इतना जल्द नहीं। वहां जाने के पहले तुम्हें अपनी वफ़ादारी का सबूत देना पड़ेगा। इतना ऊंचा मंसब उसी को दिया जा सकता है, जो हमारा एतबार हासिल कर सके। यह किसी बड़ी खिदमत का सिला होगा।
साद– मैं हर एक खिदमत के लिये दिलोजान से हाजिर हूं। जिस मुहिम को और कोई अंजाम न दे सकता हो, उस पर मुझे भेज दीजिए। खुदा ने चाहा, तो कामयाब होकर आऊंगा।
जियाद– बेशक-बेशक, मुझे तुम्हारी जात से ऐसी ही उम्मीद है। तुम्हें मालूम है, हुसैन बिन अली कूफ़े की तरफ़ आ रहे हैं। हमको उनकी तरफ से बहुत अंदेशा है। तुमको उनसे जंग करने के लिये जाना होगा। उधर से हमें बेफ़िक्र करके फिर ‘रै’ की हुकूमत पर जाना।
साद– या अमीर, आप मुझे इस मुहिम पर जाने से मुआफ़ रखे, इसके सिवा आप जो हुक्म देंगे, उसकी तामिल में मुझे जरा भी उज्र न होगा।
जियाद– क्या, हुसैन से जंग करने में तुम्हें क्या उज्र है?
साद– आपका गुलाम हूं, लेकिन हुसैन के मुकाबले से मुझे मुआफ़ रखे, तो आपका हमेशा एहसान मानूंगा।
जियाद– बेहतर है, तुम्हारी जगह किसी और को भेजूंगा। फ़रमान वापस देकर घर बैठ जाओ। ‘रै’ का इलाका उसी आदमी का हक़ है, जो इस मुहिम को अंजाम दे। मौत के बग़ैर जन्नत नसीब नहीं हो सकती। जो आदमी एक पैर दीन की किश्ती में रखता है, दूसरा पैर दुनिया की किश्ती में, उसे कभी साहिल पर पहुंचना नसीब न होगा।
साद– (दिल में) एक तरफ़ ‘रै’ का इलाक़ा है, दूसरी तरफ़ नजात; एक तरफ दौलत और हुकूमत है, दूसरी तरफ़ लामत और अजाब! खुदा! मेरी तकदीर में क्या लिखा। है (प्रकट) या अमीर, मुझे एक दिन की मुहलत दीजिए। मैं कल इस मामले पर गौर करके आपको जवाब दूंगा।
जियाद– अच्छी बात है। सोच लो।
[दोनों चले जाते हैं।]
दूसरा दृश्य
[प्रातःकाल का समय। साद का मकान। साद बैठा हुआ है।]
साद– (मन में) यार दोस्त, अपने बेगाने, अजीज, सब मुझे हुसैन के मुकाबले पर जाने से मना करते हैं। बीबी कहती है, अगर तेरे पास दुनिया में कुछ भी बाकी न रहे, तो इससे बेहतर है कि तू हुसैन का खून अपनी गर्दन पर ले। आज मैंने जियाद को जवाब देने का वादा किया है। सारी रात सोचते गुजर गई, और अभी तक कुछ फैसला न कर सका। अजीज दोफ़स्ले पड़ा हुआ हूं। अपना दिल भी हुसैन के क़त्ल पर आमादा नहीं होता। गो मैंने यजीद के हाथों पर बैयत की। पर हुसैन से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। कितना दीनदार, कितना बेलौस आदमी है। हमी ने उन्हें यहां बुलाया, बार-बार खत और क़ासिद भेजे, और आज जब वह यहां हमारी मदद करने आ रहे हैं, तो हम उनको जान लेने पर तैयार है हाय खुदग़रजी! तेरा बुरा हो, तेरे सामने दीन-ईमान, नेक-बद की तरफ़ से आँखें बंद हो जाती है। कितना गुनाहे-अजीम है। अपने रसूल के नवासे की गर्दन पर तलवार चलाना! खुदा न करे, मैं इतना गुमराह हो जाऊं। ‘रै’ का सूबा कितना जरखे़ज है। वहां थोड़े दिन भी रह गया, तो मालामाल हो जाऊंगा। कितनी शान से बसर होगी। तुफ् है मुझ पर, जो अपनी शान और हुकूमत के लिये बड़े-से-बड़े गुनाह करने का इरादा कर रहा हूं। नहीं, मुझसे यह फ़ेल न होगा। ‘रै’ जन्नत ही सही, पर फ़र्जन्दे-रसूल का खून करके मुझे जन्नत में जाना भी मंजूर नहीं।
[जियाद का प्रवेश।]
साद– अस्सलामअलेक। अमीर जियाद, मैं तो खुद ही हाजिर होनेवाला था। आपने नाहक़ तकलीफ की।
जियाद– शहर का दौरा करने निकला था। बागियों पर इस वक्त बहुत सख्त निगाह रखने की जरूरत है। मुझे मालूम हुआ है कि हबीब, जहीर, अब्दुलाह वगै़रा छिपकर हुसैन के लश्कर में दाखिल हो गए है। इसकी रोकथाम न की गई, जो बाग़ी शेर हो जायेंगे। हुसैन के साथ आदमी थोड़े हैं, पर मुझे ताज्जुब होगा, अगर यहां आते-आते उनके साथ आधा शहर हो जाये। शेर पिंजरे में भी हो तो, भी उससे डरना चाहिए। रसूल का नाती फौज का मुहताज नहीं रह सकता। कहो, तुमने क्या फैसला किया? मैं अब ज्यादा इंतजार नहीं कर सकता।
साद– या अमीर, हुसैन के मुकाबले के लिये न तो अपना दिल ही गवाही देता है, और न घरवालों की सलाह होती है। आपने मुझे ‘रै’ की निज़ामत अता की है, इसके लिये आपको अपनी मुरब्बी समझता हूं। मगर क़त्ले-हुसैन के वास्ते मुझे न भेजिए।
जियाद– साद, दुनिया में कोई खुशी बगै़र तकलीफ के नहीं हासिल होती। शहद के साथ मक्खी के डंक का जहर भी है। तुम शहद का मजा उठाना चाहते हो, मगर डंक की तकलीफ नहीं उठाना चाहते। बिना मौत की तकलीफ उठाए जन्नत में जाना चाहते हो। तुम्हें मजबूर नहीं करता। इस इनाम पर हुसैन से जंग करने के लिये आदमियों की कमी नहीं है। मुझे फ़रमान वापस दे दो, और आराम से घर बैठकर रसूल और खुदा की इबादत करो।
साद– या अमीर! सोचिए, इस हालत में मेरी कितनी बदनामी होगी। सारे शहर में खबर फैल गई कि मैं ‘रै’ का नाज़िम बनाया गया हूं। मेरे यार-दोस्त मुझे मुबारकबाद दे चुके। अब जो मुझसे फ़रमान ले लिया जायया, तो लोग दिल में क्या कहेंगे?
जियाद– यह सवाल तो तुम्हें अपने दिल से पूछना चाहिए।
साद– या अमीर मुझे कुछ और मुहलत दीजिए।
जियाद– तुम इस तरह टाल-मटोल करके देर करना चाहते हो। कलाम पाक की कसम है, अब मैं तुम्हारे साथ ज्यादा सख्ती से पेश आऊंगा। अगर शाम को हुसैन से जंग करने के लिये तैयार होकर न आए, तो तेरी जायदाद जब्त कर लूंगा, तेरा घर लुटवा दूंगा, यह मकान पामाल हो जायेगा, और तेरी जान की भी खैरियत नहीं।
[जियाद का प्रस्थान]
साद– (दिल में) मालूम होता है, मेरी तकदीर में रूस्याह होना ही लिखा है। अब महज़ ‘रै’ की निजामत का सवाल है। अब अपनी जायदाद और जान का सवाल है। इस जालिम ने हानी को कितनी बेरहमी से कत्ल किया। कसीर का भी अपनी अईनपरवरी की गिरां कीमत देनी पड़ी। शहरवालों ने जबान तक न हिलाई। वह तो महज हुसैन के अजीज थे। यह मामला उससे कहीं नाजुक है। जियाद बेरहम हो जायेगा, तो जो कुछ न कर गुजरे, वह थोड़ा है। मैं ‘रै’ को ईमान पर कुर्बान कर सकता हूं, पर जान और जायदाद को नहीं कुरबान कर सकता। काश मुझसे हानी और कसीर की-सी हिम्मत होती।
[शिमर का प्रवेश]
शिमर– अस्सलामअलेक। साद, किस फिक्र में बैठे हो, जियाद को तुमने क्या जवाब दिया?
साद– दिल हुसैन के मुकाबले पर राजी नहीं होना।
शिमर– सरवत और दौलत हासिल करने का ऐसा सुनहरा मौका फिर हाथ न आएगा। ऐसे मौके जिदंगी में बार-बार नहीं आते।
साद– नजात कैसे होगी?
शिमर– खुदा रहीम है, करीम है, उसकी जात से कुछ बईद नहीं। गुनाहों को माफ न करता, तो रहीम क्यों कहलाता? हम गुनाह न करें, तो वह माफ क्या करेगा?
साद– खुदा ऐसे बड़े गुनाह को माफ न करेगा।
शिमर– अगर खुदा की जात से यह एतकाद उठ जाये, तो मैं आज मुसलमान न रहूं। यह रोजा और नजाम या ज़कात और खैरात, किस मर्ज़ की दवा है, अगर हमारे गुनाहों को भी माफ़ न करा सके।
साद– रसूले-खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा?
शिमर– साद, तुम समझते हो, हम अपनी मर्जी के मुख्तार हैं, यह यक़ीदा बातिल है। सब-के-सब हुक्म के बंदे हैं। उसकी मर्जी के बगैर हम अपनी उंगली को भी नहीं हिला सकते। सबाब और अज़ाब का यहां सवाल ही नहीं रहता। अक्लमंद आदमी उधार के लिये नकद को नहीं छोड़ता। ताखीर मत करो, वरना फिर हाथ मलोगे।
[शिमर चला जाता है।]
साद– (दिल में) शिमर ने बहुत माकूल बातें कहीं। बेशक खुदा अपने बंदों के गुनाहों को माफ करेगा, वरना हिसाब के दिन दोज़ख में गुनाहगारों के खड़े होने की जगह भी न मिलेगी। मैं जाहिद खुदा की यही मरजी है कि हुसैन के मुकाबले पर मैं जाऊं, वरना जियाद यह तजवीज़ ही क्यों करता। जब खुदा की यही मर्जी है, तो मुझे सिर झुकाने के सिवा और क्या चारा है। अब जो होना हो, सो हो– आग में कूद पडा, जलूं या बचूं।
[गुलाम को बुलाकर जियाद के नाम अपनी मंजूरी का खत लिखता है।]
गुलाम– शायद हुजूर ने ‘रै’ की निजामत कबूल कर ली है
साद– जा, तुझे इन बातों से क्या मतलब।
गुलाम– मैं पहले ही से जानता था कि आप यही फैसला करेंगे।
साद– तुझे क्योंकर इसका इल्म था?
गुलाब– मैं खुद इस मंसब को न छोड़ता, चाहे इसके लिये कितना ही जुल्म करना पड़ता।
साद– (दिल में) जालिम कैसी पते की बात कहता है।
[गुलाम चला जाता है, और साद गाने लगता है।]
कोई तुमसे जुदा दर्दे-जुदाई लेके बैठा है,
वह अपने घर में अब अपनी कमाई लेके बैठा है।
जिगर, दिल, जान, ईमां अब कहां तक नाम ले कोई,
वह जालिम सैकड़ों चीजें पराई लेके बैठा है।
खुदा ही है मेरी तौबा का, जब साक़ी कहे मुझसे–
अरे, पी भी, कहां की पारसाई लेके बैठा है।
तेरे काटे शबे-गम मेरी बरसों से नहीं कटती,
तो फिर तू ऐ खुदा, नाहक खुदाई लेके बैठा है।
कहूं कुछ मैं, तो मुंह फेरकर कहता है औरों से–
खुदा जाने, यह कब की आशनाई लेके बैठा है।
अमल कुछ चल गया है शौक़ पर ज़ाहिद का ऐ यारो,
कि मस्जिद में पुरानी एक चटाई लेके बैठा है।
तीसरा दृश्य
[केरात-नदी के किनारे साद का लश्कर पड़ा हुआ है। केरात से दो मील के फासले पर कर्बला के मैदान में हुसैन का लश्कर है। केरात और हुसैन के लश्कर के बीच में साद ने एक लश्कर को नदी के पानी को रोकने के लिये पहरा को बैठा दिया है। प्रातःकाल का समय। शिमर और साद खेमे में बैठे हुए हैं।]
साद– मेरा दिल अभी तक हुसैन से जंग करने को तैयार नहीं होता। चाहता हूं, किसी तरीके से सुलह हो जाये, मगर तीन कासिदों में से एक भी मेरे खत का जवाब न ला सका। एक तो हज़रत हुसैन के पास जा ही न सका, दूसरा शर्म के मारे रास्ते ही से किसी तरह खिसक गया, और तीसरे से जाकर हुसैन की बैयत अख्तियार कर ली। अब और कासिदों को भेजते हुए डरता हूं कि इनका भी वही हाल न हो।
शिमर– ज़ियाद को ये बातें मालूम होंगी, तो आपसे सख्त नाराज होगा।
साद– मुझे बार-बार यही ख्याल आता है कि हुसैन यहां जंग के इरादे से नहीं, महज हम लोगों के बुलाने से आए हैं। उन्हें बुलाकर उनसे दग़ा करना इंसानियत के खिलाफ़ मालूम होता है।
शिमर– मुझे खौफ़ है कि आपके ताखीर से नाराज होकर, जियाद आपको वापस न बुला लें। फिर उनके गुस्से से खुदा ही बचाए। जियाद ने कितनी सख्त ताकीद की थी कि हुसैन के लश्कर को पानी का एक बूंद भी न मिले। वहां उनके आदमी दरिया से पानी ले जाते है, कुएं खोदते हैं। इधर से कोई रोक-टोक नहीं होती। क्या आप समझते हैं कि जियाद से ये बातें छिपी होंगी।
साद– मालूम नहीं, कौन उसके पास ये सब खबरें भेजता रहता है?
शिमर– उसने यहां अपने कितने गोंइदे बिठा रखे हैं, जो दम-दम की खबरें भेज देते हैं।
[एक कासिद का प्रवेश]
कासिद– अस्सलामअलेक बिन साद। अमीर का हुक्मनामा लाया हूं।
[साद को जियाद का खत देता है।]
साद– (खत पढ़कर) तुम बाहर बैठो, इस जवाब दिया जायेगा। (कासिद चला जाता है) इसमें भी वही ताकीद है कि हुसैन को पानी मत लेने दो, जंग करने में एक लहमें की देर न करो। देखिए, लिखते हैं–
‘‘हुसैन से जंग करने के लिये अब कोई बहाना नहीं रहा। फौज की कमी की शिकायत थी, सो वह भी नहीं रही। अब मेरे पास २२ हजार सवार और पैदल मौजूद हैं।’’
शिमर– बेशक, उनका लिखना वाजिब है। मैं जाकर सख्त हुक्म देता हूं कि हुसैन के लश्कर की एक चिड़िया भी दरिया के किनारे न आने पाए। आप जंग का हुक्म दे दें।
साद– आपको मालूम है, २२ हजार आदमियों में कितने अजाब के खौफ़ से भाग गए, और रोज भागते जाते हैं।
शिमर– इसीलिये तो और भी जरूरी है कि जंग शुरू कर दी जाये, वरना रफ्ता-रफ्ता यह सारी फौज बादलों की तरह गायब हो जायेगी। पर मैंने सुना है, जियाद ने उन सब आदमियों को गिरफ्तार कर लिया है, और बहुत जल्द वे सब फौज में आ जायेंगे। पर यह हुक्म भी जारी कर दिया है कि जो आदमी फौज से भागेगा, उसकी जायदाद छीन ली जायेगी, और उसे खानदान के साथ जलावतन कर दिया जायेगा, इस हुक्म का लोगों पर अच्छा असर पड़ा है। अब उम्मीद नहीं कि भागने की कोई हिम्मत करे। मुझे यह भी खबर मिली है कि जियाद ने कई आदमियों को कत्ल करा दिया है।
[एक और कासिद का प्रवेश]
कासिद– अस्सलामअलेक बिन साद। हजरत हुसैन ने यह खत भेजा है, और उसका जवाब तलब किया है। (साद को खत देता है।)
साद– (खत पढ़कर) बाहर जाकर बैठो। अभी जवाब मिलेगा।
शिमर– (खत पर झुककर) इसमें क्या लिखा है?
साद– (खत को बंद करके) कुछ नहीं, यही लिखा है कि मैं तुमसे मिलना चाहता हूं।
शिमर– यह उनकी नई चाल है। कमाल पाक की कसम, आप उनकी दरख्वास्त मानकर पछताएंगे। आपको फौज में फिर आना नसीब न होगा।
साद– क्या तुम्हारा यह मतलब है कि हुसैन मुझसे दग़ा करेगे? अली का बेटा दग़ा नहीं कर सकता।
शिमर– यह मेरा मतलब नहीं। यहां से बच निकलने की कोई तज़वीज पेश करना चाहते होंगे। उनकी जबान में जादू का असर है, ऐसा न हो कि वह आपको चकमा दे। क्या हर्ज है, अगर मैं भी आपके साथ चलूं?
साद– मैं समझता हूं कि मैं अपने दीन और दुनिया की हिफ़ाजत खुद कर सकता हूं। मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं।
शिमर– आपको अख्तियार है। कम-से-कम मेरी इतनी सलाह तो मान ही लीजिएगा कि अपने थोड़े-से चुने हुए आदमी लेते जाइएगा।
साद– यह मेरा जाती मामला है, जैसा मुनासिब समझूंगा, करूंगा।
[कासिद को बुलाकर खत का जवाब देता है]
शिमर– रात का वक्त लिखा है न?
साद– इतना तो तुम्हें खुद समझ लेना चाहिए था।
शिमर– (जाने के लिये खड़ा होकर) मेरी बात का जरूर ख़याल रखिएगा। (दिल में) इसके अंदाज से मालूम होता है कि हुसैन की बातों में आ जायेगा। जियाद के पास खुद जाकर यह किस्सा कहूं।
साद– (दिल में) खुदा तुझसे समझे जालिम? तू जियाद से भी दो अंगुल बढ़ा हुआ है। शायद मेरा यह कयात गलत नहीं है कि तू ही जियाद को यहां के हालात की इत्तिला देता है। हुसैन दग़ा करेंगे! हुसैन दग़ा करने वालों में नहीं, दग़ा का शिकार होने वालों में है।
[उठकर अंदर चला जाता है]
चौथा दृश्य
[हुसैन के हरम की औरतें बैठी हुई बातें कर रही हैं। शाम का वक्त।]
सुगरा– अम्मा, बडी प्यास लगी है।
अली असगर– पानी, बूआ पानी।
हंफ़ा– कुर्बान गई, बेटे कितना पानी पियोगे? अभी लाई (मश्को को जाकर देखती है, और छाती पीटती लौटती है) ऐ कुरबान गई बीबी, कहीं एक बूंद पानी नहीं। बच्चों को क्या पिलाऊं?
जैनब– क्या बिलकुल पानी गायब हो गया?
हंफ़ा– ऐ कुरबान गई बीबी, सारे मटके और मशकें खाली पड़ी हुई हैं।
जैनब– गजब हो गया। नदी तो बंद ही थी, अब जालिम कुएं भी नहीं खोदने देते।
असगर– पानी, बूआ पानी!
शहरबानू– या खुदा! किस आवाज में फंसे। इन नन्हों को कैसे समझाऊं!
हंफ़ा– बीबी, कुरबान जाऊं। मैं जाकर दरिया से पानी लाती हूं। कौन मुआ रोकेगा, मुंह झुलस दूं उसका। क्या मेरे लाल प्यासों तड़पेंगे, जब दरिया में पानी भरा हुआ है?
जैनब– तू नहीं जानती, साढे छः हजार जवान दरिया का पानी रोकने के लिए तैनात हैं?
हंफ़ा– ऐ कुरबान जाऊं बीवी, कौन मुझसे बोलेगा, झाड़ न मारूंगी। रसूल के बेटे प्यासे रहेंगे?
[हंफ़ा एक मशक लेकर दरिया की तरफ़ जाती है और थोड़ी देर बाद लौट आती है, सिर के बाल नुचे हुए, कपड़े फटे हुए, मशक नदारद। रोती हुई जमीन पर बैठ जाती है।]
जैनब– क्या हुआ हंफ़ा? यह तेरी क्या हालत है?
हंफा– बीबी, खुदा का अज़ाब इन रूस्याहों पर नाजिल हो। जालिम ने मुझे रोक लिया, मेरी मशक छीन ली, और एक कुत्ते को मुझ पर छोड़ दिया। भागते-भागते किसी तरह यहां तक पहुंची हूं। हाय! इन मूजियों पर आसमान भी नहीं फट पड़ता। इतनी दुर्गति कभी न हुई थी।
(रोती है।)
हुसैन– (अंदर जाकर) हंफ़ा क्यों रोती है, अरे, यह तेरे कपड़े किसने फाड़े?
जैनब– बेचारी शामत की मारी पानी लेने गई थी। बच्चे प्यास से तड़प रहे थे। जालिमों ने नोमजान कर दिया।
हुसैन– हंफ़ा, मत रोओ। रसूल के कदमों की कसम, अभी उन जालिमों का सिर तेरे पैरों पर होगा, जिनके बेरहम हाथों ने तेरी बेहुरमती की, चाहे मेरे सारे रफ़ीक, मेरे सारे अजीज़ और मैं खुद क्यों न मर जाऊं। औरत की बेहुरमती का बदला खून है, चाहे वह गुलाम और बेक़स ही क्यों न हों। उन मलऊनों को दिखा दूंगा कि मुझे अपनी लौंडी की आबरू अपने हरम से कम प्यारी नहीं है।
[तलवार हाथ में लेकर बाहर जाते हैं, पर हंफा उनके पैरों को पकड़ लेती है।]
हंफा– मेरे आका़, मेरी जान आप पर फ़िदा हो। मैं अपना बदला दुनिया में नहीं, अक़बे में लेना चाहती हूं जहां की आग कहीं ज्यादा तेज, जहां की सजाएं यहां से कहीं ज्यादा दिल हिलाने वाली होंगी। मैं नहीं चाहती कि आपकी तलवार से कत्ल होकर वह अजाब से छूट जाय।
हुसैन– हंफा, यह सब उसके लिए है, जो दुनिया में अपना बदला न ले सके। अगर मेरे पास एक लाख आदमी होते, तो तेरी बेइज्जती का बदला लेने के लिए मैं उन्हें कुरबान कर देता, इन बहत्तर आदमियों की हकी़क़त ही क्या है। मेरे पैरों को छोड़ दे, ऐसा न हो कि मेरा गुस्सा आग बनकर मुझको जलाकर खाक कर दे।
हंफा– (दिल में) काश इस वक्त वे जालिम यहां होते और देखते कि जिसे उन्होंने कुत्तों से नुचवाया था, उसकी अली के बेटे की निगाहों में कितनी इज्जत है। नहीं मेरे मौला, मैं दुश्मनों को इतनी अच्छी मौत नहीं देना चाहती। मैं उन्हें जहन्नूम की आग में जलाना चाहती…।
[अली अकबर का प्रवेश]
अली अक०– अब्बाजान, साद अपनी फ़ौज से निकलकर आया है, और आपसे मिलना चाहता है।
हुसैन– हां, मैंने इसी वक्त उसे बुलाया था। पहले उससे हंफ़ा को सताने वालों के खून का मुआविजा लेना है।
[हुसैन और अली अकबर बाहर जाते हैं।]
अली अक०– या हजरत, मैं भी आपके साथ रहूंगा।
अब्बास– मैं भी।
हुसैन– नहीं, मैंने उनसे तनहा मिलने का वादा किया है। तुम्हारे साथ रहने से मेरी बात में फर्क आएगा।
अली अक०– वह तो अपने एक साथ एक सौ जवानों से ज्यादा लाया है, जो चंद कदमों के फासले पर खड़े हैं। हम आपको तनहा न जाने देंगे।
अब्बास– साद की शराफ़त पर मुझे भरोसा नहीं है।
हुसैन– मैं उसे इतना कमीना नहीं समझता कि मेरे साथ दग़ा करे। खैर, अगर उसे कोई एतराज न होगा, तो वहां मौजूद रहना। उसे भी अपने साथ दो आदमियों को रखने की आजादी होगी।
[तीनों आदमी अस्त्र से सुसज्जित होकर चलते हैं। परदा बदलता है। दोनों फौजों के बीच में हुसैन और साद खड़े हैं। हुसैन के साथ अकबर और अब्बास हैं, साद के साथ उसका बेटा और गुलाम]
साद– अस्सलामअलेक। या फ़र्जदे रसूल, आपने मुझे अपनी खिदमत में हाज़िर होने का मौका दिया, इसके लिए आपका मशक़र हूं। मुझे क्या इर्शाद है?
हुसैन– मैंने तुम्हें यह तसफ़िया करने के लिए तकलीफ़ दी है कि आखिर तुम मुझसे क्या चाहते हो? तुम्हारे वलिद रसूल पाक के रफीकों में थे, और अगर बाप की तबियत का असर कुछ बेटे पर पड़ता है, तो मुझे उम्मीद है कि तुम में इंसानियत का जौहर मौजूद है। क्या नहीं जानते कि मैं कौन हूं। मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं।
साद– आप रसूल पाक के नवासे हैं।
हुसैन– और यह जानकर भी तुम मुझसे जंग करने आए हो, क्या तुम्हें खुदा का जरा भी खौफ नहीं है? तुममें जरा भी इंसाफ नहीं है कि तुम मुझसे जंग करने आए हो, जो तुम्हारे ही भाइयों की दग़ा का शिकार बनकर यहां आ फंसा है, और अब यहां से वापस जाना चाहता है। क्यों ऐसा काम करते हो, जिसके लिए तुम्हें दुनिया में रुसवाई और अक़बा में रूस्याही हासिल हो?
साद– या हजरत, मैं क्या करूं। खुदा जानता है कि मैं कितनी मजबूरी की हालत में यहां आया हूं।
हुसैन– साद, कोई इंसान आज तक वह काम करने पर मजबूर नहीं हुआ। जो उसे पसंद न आया हो। तुमको यकीन है कि मेरे कत्ल के सिलसिले में तुम्हारी जागीर बेढ़ंगी ‘रै’ हुकूमत हाथ आएगी, दौलत हासिल होगी। लेकिन साद, हराम की दौलत ने बहुत दिनों तक किसी के साथ दोस्ती नहीं की और न वह तुम्हारे लिए अपनी पुरानी आदत छोड़ेगी। हबिस को छोड़ो और मुझे अपने घर जाने दो।
साद– फिर तो मेरी जिंदगी के दिन उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।
हुसैन– अगर यह खौफ़ है, तो मैं तुम्हें अपने साथ ले जा सकता हूं।
साद– या हज़रत, जालिम मेरे मकान बरबाद कर देंगे, जो शहर में अपना सानी नहीं रखते।
हुसैन– सुभानल्लाह! तुमने वह बात मुंह से निकाली, जो तुम्हारी शान से बईद है। अगर हक़ पर कायम रहने की सजा में तुम्हारा मकान बरबाद किया जाये, तो ऐसा बड़ा नुकसान नहीं। हक़ के लिए लोगों ने इससे कहीं बड़े नुकसान उठाए हैं, यहां तक कि जान से भी दरेग़ नहीं किया। मैं वादा करता हूं कि मैं तुझे उससे अच्छा मकान बनवा दूंगा।
साद– या हजरत, मेरे पास बड़ी जरखे़ज और आबाद जागीरें हैं, जो जब्त कर ली जायेंगी, और मेरी औलाद उनसे महरूम रह जायेगी।
हुसैन– मैं हिजाज, मैं तुम्हें उनसे ज्यादा जरखेज और आबाद जागीरें दूंगा। इसका इतमीनान रखो कि मेरी ज़ात से तुम्हें कोई नुकसान न पहुंचेगा।
साद– या हज़रत, आप पर मेरी जान निसार हो, मेरे साथ 22 हज़ार सवार और पैदल हैं। जियाद ने उनके सरदारों से बड़े-बड़े वादे कर रखे हैं, मैं अगर आपकी तरफ आ भी जाऊं, तो वे आपसे जरूर जंग करेंगे। इसीलिए मुनासिब यही है कि आप जो शर्त पसंद फरमाएं, मैं जियाद को लिख भेजूं। मैं अपने खत के सुलह पर जोर दूंगा, और मुझे यकीन है कि जियाद मेरी तजवीज मंजूर कर लेगा।
हुसैन– खुदा तुम्हें इसका सबाब आक़बत में देगा। मेरी पहली शर्त है कि मुझे मक्का लौटने दिया जाये, अगर यह न मंजूर हो, तो सरहदों की तरफ जाकर अमन से जिंदगी बसर करने को राजी हूं, अगर यह भी मंजूर न हो, तो मुझे यजीद ही के पास जाने दिया जाये, और सबसे बड़ी शर्त यह है कि जब तक मैं यहां हूं, मुझे दरिया से पानी लेने की पूरी आजादी हासिल हो। मैं यजीद की बैयत किसी हालत से न कबूल करूंगा, और अगर तुमने मेरी बापसी की यह शर्त कायम न की, तो हम यहां शहीद हो जाना ही पंसद करेंगे। लेकिन अगर यह मंशा है कि मुझे कत्ल ही कर दिया जाये, तो मैं अपनी जान को गिरां से गिरां कीमत पर बेचूंगा।
साद– हजरत, आपकी शर्तें बहुत माकूल हैं।
हुसैन– मैं तुम्हारे जवाब का कब तक इंतजार करूं?
साद– सुबह, आफ़ताब की रोशनी के साथ मेरा कासिद आपकी खिदमत में हाजिर होगा।
[दोनों आदमी अपनी-अपनी फौज़ की तरफ लौटते हैं।]
पांचवां दृश्य
[8 बजे रात का समय। जियाद की खास बैठक। शिमर और जियाद बातें कर रहे हैं।]
जियाद– क्या कहते हो। मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि दरिया पर हुसैन का कोई आदमी न आने पाए।
शिमर– बजा है। मगर मैं तो हुसैन के आदमियों को दरिया से पानी लाते बराबर देखता रहा हूं, और शायद मेरा, दरिया की हिफ़ाजत के लिए अपनी जिम्मेदारी पर, हुक्म जारी करना साद को बुरा लगा।
जियाद– साद पर मुझे इतमीनान है। मुमकिन है, उसे लोगों को प्यासों मरते देखकर रहम आ गया हो, और हक़ तो यह है कि शायद मैं भी मौके पर इतना बेरहम नहीं हो सकता। इससे यह नहीं साबित होता कि साद की नीयत डाँवाडोल हो रही है।
शिमर– मैं साद की शिकायत करने के लिए आपकी खिदमत में नहीं हाजिर हुआ हूँ, सिर्फ वहां ही हालत अर्ज करनी थी। हुसैन ने आज साद को मुलाकात करने को भी तो बुलाया है। देखिए, क्या बातें होती हैं।
जियाद– क्या? साद हुसैन से मुलाकातें भी कर रहा है? तुम साबित कर सकते हो?
शिमर– हूजूर, मेरे सबूत की जरूरत नहीं। उनका कासिद अभी आता ही होगा।
जियाद– क्या कई बार मुलाकातें हुई हैं?
शिमर– आज की मुलाकात का भी तो मुझे इल्म है, पर शायद और भी मुलाकातें तनहाई में हुई हैं।
जियाद– कोई और आदमी साथ नहीं रहा?
शिमर– मैंने खुद साथ चलना चाहा था, पर मेरी अर्ज कबूल न हुई।
जियाद– कलाम पाक की कसम मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैंने उसे हुसैन से जंग करने को भेजा है, मसालहत करने के लिए नहीं। मैं उससे इसका जवाब तलब करूंगा।
शिमर– हुजूर के उनके साथ जो सलूक किए हैं, और इस काम के लिए सिला तजवीज किया है वह तो किसी दुश्मन को भी आपका दोस्त बना देता। मगर अपना-अपना मिजाज ही तो है।
[एक कासिद का प्रवेश]
कासिद– अस्सलामअलेक या अमीर, उमर दिन साद का खत लाया हूं।
[जियाद को खत देता है, और जियाद उसे पढ़ने लगता है। कासिद बाहर चला जाता है।]
जियाद– इस मसालहत का नतीजा तो अच्छा निकला। हुसैन वापस जाने को रजामंद हैं, और साद ने इसकी ताईद करते हुए लिखा है कि उनकी जानिब से किसी खतरे का अंदेशा नहीं। खल़ीफ़ा यजीद की मंशा भी यही है। साद ने खूब किया कि गैर जंग के फतह हासिल कर ली।
शिमर– बेशक बड़ी शानदार फतह है।
जियाद– क्यों, यह फतह नहीं है? तंग क्यों करते हो? शिमर– जिसे आप फतह करते रहे हैं, वह फतह नहीं, आपकी शिकस्त है। ऐसी शिकस्त, जो आपको फिर पनपने न देगी। आग फूस में पड़कर उतनी खौफ़नाक नहीं हो सकती, जितने इस मुहासिरे से निकलकर हुसैन हो जायेंगे। शेर किसी शिकार के पीछे दौड़ता हुआ बस्ती में आ गया है। उसे आप घेरकर मार सकते हैं, लेकिन एक बार वह फिर जंगल में पहुंच जाये, तो कौन है, जो उसके पंजों के सामने जाने की हिम्मत कर सके। कर्बला से निकलकर हुसैन वह दरिया होंगे, जो बांध को तोड़कर बाहर निकल आया हो, और आपकी हालत उसी टूटे हुए बांध की-सी होगी।
जियाद– हां, इसमें तो कोई शक नहीं कि अगर वह निकलकर हिजाज और यमन चले जायें, तो शायद खलीफ़ा यजीद की खिलाफत डगमगा जाये। मगर एक शर्त यह भी तो है कि उन्हें यजीद के पास जाने दिया जाए। इसमें हमें क्या उज्र हो सकता है?
शिमर– अगर बाज कबूतर के करीब पहुंच जाये, तो दुनिया की कोई फौज उसे बाज के चंगुल से नहीं बचा सकती। हुसैन अपने बाप के बेटे हैं। खलीफा़ उनकी दलीलों से पेश नहीं पा सकते। कोई अजब नहीं कि अपनी अक्ल के ज़ोर से आज का कैदी कल का खलीफ़ा हो, और खलीफ़ा को उल्टे उसकी बैयत कबूल करनी पड़े।
जियाद– तुम्हारा यह खयाल भी बहुत सही है। काश मुझे तुम्हारी वफ़ादरी का इतना इल्म पहले होता, तो तुम्हीं फौज के सिपहसालार होते।
शिमर– काश साद ने मेरी बातें इतनी कद्रदानी से सुनी होती, तो मुझे यहां आने और आपको तकलीफ़ देने की जरूरत ही न पड़ती।
जियाद– तुम सुबह चले जाओ, और साद से कहो कि फौरन जंग शुरू करे।
शिमर– हुजूर की जो हुक्म देना हो खत के जरिए दे। मातहत के जरिए उसके अफ़सर को हुक्म देना अफसर को मातहत के खून का प्यासा बनाना है।
जियाद– बेहतर, मैं खत ही लिख देता हूं।
[जियाद खत लिखकर शिमर को देता है]
शिमर– इसमें हुजूर ने ऐसा कोई कलमा तो नहीं लिखा, जिसमें साद को सुबहा हो कि मेरे इशारे से लिखा गया है?
जियाद– मुतलक़ नहीं। हां, यह अलबत्ता लिख दिया है कि अगर तूने सिरताबी की, तो तेरी जगह शिमर लश्कर का सरदार होगा।
शिमर– हुजूर की कद्रदानी की कहां तक तारीफ करूं।
जियाद– इसकी जरूरत नहीं। अगर साद मेरे हुक्म की तामील करे, तो बेहतर, नहीं तो वह माजूल होगा, और तुम लश्कर के सरदार होगे। पहला काम जो तुम करोगे, वह साद का सर कलम करके मेरे पास भेजना होगा। यहीं तुम्हारी बहाली की बिस्मिल्लाह होगी।
शिमर– (उठकर) आदाब बजा लाता हूं।
[शिमर बाहर चला जाता है और जियाद मकान में आराम करने जाता हैं।]
छठा दृश्य
[प्रातःकाल। शाम का लश्कर। हुर और साद घोड़ों पर सवार फ़ौज का मुआयना कर रहे हैं।]
हुर– अभी तर जियाद ने आपके खत का जबान नहीं दिया?
साद-उसके इंतजार में रात-भर आंखें नहीं लगीं। जब किसी की आहट मिलती थी, तो गुमान होता था कि कासिद है। मुझे तो यकीन है कि अमीर जियाद मेरी तजबीब मंजूर कर लेंगे।
हुर– काश ऐसा होता! अगर जंग की नौबत आई, तो फौज़ के कितने ही सिपाही लड़ने से इनकार कर देगे।
[सामने से शिमर घोड़ा दौड़ाता हुआ आता है।]
साद– लो, कासिद भी आ गया। खुदा करे, अच्छी खबर लाया हो। अरे, यह तो शिमर है।
हुर– हां, शिमर ही है। खुदा खैर करे, जब यह खुद जियाद के पास गया था, तो मुझे आपकी तजबीब के मंजूर होने से बहुत शक है।
शिमर– (करीब आकर) अस्सलामअलेक। मैं कल एक जरूरत से मकान चला गया। अमीर जियाद को खबर हो गई। उसने मुझे बुलाया और आपको यह खत दिया।
[खत साद को देता है। साद खत पढ़कर जेब में रख लेता है, और एक लंबी सांस लेता है।]
साद– शिमर, मैंने समझा था, तुम सुलह की खबर लाते होंगे।
शिमर– आपकी समझ की गलती थी। आपको मालूम है कि अमीर जियाद एक बार फैसला करके फिर उसे नहीं बदलते। अब आपकी क्या मंशा है?
साद– मजबूर हुक्म की तामील करूंगा।
शिमर– तो मैं, फौजों को तैयार होने का हुक्म देता हूं?
साद– जैसा मुनासिब समझा।
[शिमर फौज़ की तरफ़ चला जाता है।]
हुर– खुदा सब कुछ करें, इंसान का बातिन स्याह न बनाए।
साद– यह सब इन्हीं हजरत की कारगुजारी है। जियाद मेरी तरफ़ से कभी इतने बदनुमान न थे।
हुर– मुझे तो फ़र्जन्दें रसूल से लड़ने के खयाल ही से दहशत होती है।
साद– हुर, तुम सच कहते हो। मुझे यकीन है कि उनसे जो लड़ेगा, उसकी जगह जहन्नुम में है। मगर मजबूर हूं, ‘रै’ की परवा न करूं, तो भी घर की तरफ़ से बेफ़िक्र तो नहीं हो सकता। अफ़सोस, मैं हविस के हाथों तबाह हुआ। काश मेरा दिल इतना मजबूत होता कि ‘रै’ की निजामत पर लट्टू न हो जाता, तो आज मैं फ़र्जन्दें रसूल के मुकाबले पर न खड़ा होता। हुर, क्या इस जंग के बाद किसी तरह मगफ़िरत हो सकती?
हुर– फ़र्जन्दे-रसूल के खून का दाग़ कैसे धुलेगा?
साद– हुर, मैं इतने रोजे रखूंगा कि मेरा जिस्म घुल जाये, इतनी नमाजें अदा करूंगा कि आज तक किसी ने न की होंगी। ‘रै’ को सारी आमदनी खैरात कर दूंगा। पियादा पा हज करूंगा। और रसूल पाक की क़ब्र पर बैठकर रोऊंगा, गुनहगारों की खताएं मुआफ करूंगा, और एक चीटीं को भी ईजा न पहुंचाऊंगा। हाय! जालिम शिमर सोचने का मौका भी नहीं देना चाहता। फौजें तैयार हो रही हैं। क़ीस, हज्जाज, शीश, अशअस अपने-अपने आदमियों को सफ़ों में खड़े करने लगे। वह लो, नक्कारे पर चोट भी पड़ गई।
हुर– मैं भी जाता हूं, अपने आदमियों को संभालूं।
[आहिस्ता-आहिस्ता जाता है।]
साद– ऐ खुदा! बहुत बेहतर होता कि तूने मुझे शिमर की तरह स्याह बातिन बनाया होता, या हानी और क़सीर का-सा दिल दिया होता कि अपने को ग़ैर पर कुर्बान कर देता। कमजोर इंसान भी जानता है कि मुझे क्या करना चाहिए, और क्या नहीं कर सकता। वह गुलाम से भी बदतर है, जिसका अपनी मर्जी पर कोई अधिकार नहीं। मेरे कबीलेवालों ने भी सफ़बंदी शुरू कर दी। मुझे भी अब जाकर अपनी जगह पर सबसे आगे चलना चाहिए और वही करना चाहिए, जो शिमर कराए, क्योंकि अब मैं फ़ौज़ का सरदार नहीं हूं, शिमर है।
[आहिस्ता-आहिस्ता जाकर फौ़ज के सामने खड़ा हो जाता है।]
शिमर– (उच्च स्वर से) ऐ खिलाफत को जिंदा रखने के लिए अपने तई कुरबान करने वाले। बहादुरों, खुदा का नाम लेकर कदम आगे बढ़ाओ, दुश्मन तुम्हारे सामने है। वह हमारे रसूल पाक का नवासा है, और उस रिश्ते से हम सब ताजीम से उसके आगे सिर झुकाते हैं। लेकिन जो आदमी हिंर्स का इतना बंदा है कि रसूल पाक के हुक्म का, जो उन्होंने खिलाफ़त को अब तक कायम रखने के लिए दिया था, पैरों-तले कुचलता है, और जो क़ौम की बैयत की परवा न करके अपने विरासत के हक़ के लिए खिलाफ़त को खाक में मिला देना चाहे, वह रसूल का नवासा होते हुए भी मुसलमान नहीं है। हमारी निगाहों में रसूल के हुक्म की इज्जत उसके नवासे की इज्जत से कहीं ज्यादा है। हमारा फर्ज है कि हमने जिस खलीफ़ा की बैयत क़बूल की है, उसे ऐसे हमलों, से बचाएं, जो हिर्स को पूरा करने के लिए दाद के नाम पर किए जाते हैं। चलो, फर्ज के मैदान में कदम बढ़ाओ।
[नश्कारे पर चौब पड़ती है, और पूरा लश्कर हुसैन के पड़ाव की तरफ बढ़ता है। साद आगे कदम बढ़ाता हुआ हुसैन के खेमे के क़रीब पहुंच जाता है।]
अब्बास– (हुसैन के खेमे से निकलकर) साद! यह दग़ा! हम तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहे है, और तुम हमारे ऊपर हमला कर रहे हो? क्या यही आईने-जंग है?
साद– हज़रत, कलाम पाक की कसम, मैं दगा के इरादे से नहीं आया। (जियाद का खत अब्बास के हाथ में देकर) यह देखिए, और मेरे साथ इंसाफ कीजिए। मैं इस वक्त नाम के लिए फ़ौज का सरदार हूं, अख्तियार शिमर के हाथों में है।
अब्बास– (खत पढ़कर) आखिर तुम दुनिया की तरफ झुके। याद रखो, की दरगार में शिमर नहीं, तुम खतावार समझे जाओगे।
साद– या हजरत, यह जानता हूं पर जियाद के गुस्से का मुकाबला नहीं कर सकता। वह बिल्ला है, मैं चूहा हूं, वह बाज है, मैं कबूतर हूं। वह एक इशारे से मेरे खानदान का निशान मिटा सकता है। अपनी हिफ़ाजत की फिक्र ने मुझे मजबूर कर दिया है, मेरे दीन और ईमान को फ़ना कर दिया है।
अब्बास– खुलासा यह है कि तुम हमारा मुहासिरा करना चाहते हो। ठहरो, मैं जाकर भाई साहब को इत्तिला दे दूं।
[अब्बास हुसैन के खेमे की तरफ जाते हैं।]
शिमर– (साद के पास आकर) क्या अब कोई दूसरी चाल चलने की सोच रहे हैं?
साद– नहीं, हजरत हुसैन को हमारी आमद और मंशा की इत्तिला देने गए हैं।
शिमर– यह मौके को हमारे हाथों से छीनने का हीला है। शायद कबीलों से इमदाद तलब करने का क़स्द कर रहे हैं। एक दिन की देर भी उन्हें मौके का बादशाह बना सकती है।
[अब्बास खेमे से वापस आते हैं।]
अब्बास– मैंने हजरत हुसैन को तुम्हारा पैग़ाम दिया। हज़रत को इसका बेहद सदमा है कि उनकी कोई शर्त मंजूर नहीं की गई। सुलह की इससे ज्यादा कोशिश उनके इमकान में न थी। गो हम सब जंग के लिये तैयार है, लेकिन उन्होंने एक दिन की मुहलत मांगी है कि दुआ और नमाज में गुजारे। सुबह को हमें खुदा का जो हुक्म होगा, उसकी तामील करेंगे।
साद– इसका जवाब मैं अपनी फ़ौज के दूसरे सरदारों से मशविरा करके दूंगा।
[अब्बास अपने खेमों की तरफ़ जाते हैं, और हुर, हज्जाज, अशअस, कीस सब साद के पास आकर खड़े हो जाते हैं।]
साद– शिमर, तुम्हारी इस मामले में क्या सलाह है?
शिमर– यह उनकी हीलेबाजी है। आइंदा आप अमीर हैं, जो जी चाहे, करें।
साद– (दूसरे सरदारों से मुखातिब होकर) हजरत हुसैन ने एक दिन की मुहलत की दरख्वास्त की है, आप लोगों की क्या सलाह है?
शिमर– इसका आप लोग खयाल रखिएगा कि यह मुहलत आफ़त के मीजान को पलट सकती है।
हुर– मुहलत के मंजूर करने में पसोपेश का कोई मौका नहीं।
हज्जाज– हुसैन अगर काफ़िर होते, और मुहल्लत की दरख्वास्त करते, तो भी उसको कबूल करना लाजिम था।
क़ीस– बहुत मुमकिन है, वह कल तक आपस में सलाह करके यजीद की बैयत कबूल कर ले, तो नाहक खूरेजी क्यों हो।
शिमर– और अगर शाम तक बनी, असद और दूसरे कबीले उनकी मदद के लिए आ जायें, तो?
शीश– हजरत हुसैन ने अभी तक किसी कबीले से इमदाद नहीं तलब की है, वरना हम इतने इतमीनान से यहां न खड़े होते।
साद– बनी और असद ही नहीं, अगर ईराक के सारे कबीलें आ जायें, तब भी हम आज उन्हें जंग के लिए मजबूर नहीं कर सकते। यह इंसानियत के खिलाफ़ है। मेरा यही फैसला है। आइंदा आप लोगों को आख्तियार है।
[साद गुस्से में भरा हुआ वहां से चला जाता है।]
शिमर– क्या आप लोगों की यही मर्जी है कि आज जंग मुल्तवी की जाय?
हुर– यहां जितने असहाय मौजूद है, सब अपनी राएं दे चुके, अमीरे-लश्कर भी चला गया। ऐसी हालात में मुहलत के सिवा और हो ही क्या सकता है। अगर आप अपनी जिम्मेदारी पर जंग करना चाहते हैं, तो शौक से कीजिए।
[हुर, हज्जाज बगैरह भी चले जाते हैं।]
शिमर– (दिल में) कौन कहता है कि हुसैन के साथ दग़ा की गई? यहां सब-के-सब के दोस्त हैं। इस फौ़ज में रहने से कहीं यह बेहतर था कि सब के सब हुसैन की फौज में होते। तब भी उनकी इतनी मदद न कर सकते। मुझे जरा ताज्जुब न होगा, अगर कल सब लोग हथियार रखकर हुसैन के कदमों पर गिर पड़े। जियाद को इस मुहलत की भी इत्तिला तो दे ही दूं।
[साद का क़ासिद मुहलत का पैग़ाम लेकर हुसैन के लश्कर की तरफ जाता है। शिमर अपने खेमे की तरफ़ जाता है।]
सातवाँ दृश्य
[समय 8 बजे रात। हुसैन एक कुर्सी पर मैदान में बैठे हुए हैं। उनके दोस्त और अजीज सब फ़र्श पर बैठे हुए हैं। शमा जल रही है।]
हुसैन– शुक्र है, खुदाए-पाक का, जिसने हमें ईमान की रोशनी अता की, ताकि हम नेक को क़बूल करें, और बद से बचें। मेरे सामने इस वक्त मेरे बेटे और भतीजे, भाई और भांजे, दोस्त और रफी़क सब जमा हैं। मैं सबके लिए खुदा से दुआ करता हूँ। मुझे इसका फख्र है कि उसने मुझे ऐसे सआदतमंद अजीज और ऐसे जाँ निसार दोस्त अता किए। अपनी दोस्ती का हक़ पूरी तरह अदा कर दिया, आपने साबित कर दिया कि हक़ के सामने आप जान और माल की कोई हक़ीकत नहीं समझते। इस्लाम की तारीख में आपका नाम हमेशा रोशन रहेगा। मेरा दिल खयाल से पाश-पाश हुआ जाता है कि कल मेरे बायस वे लोग, जिन्हें जिंदा हिम्मत चाहिए, जिनका हक है जिंदा रहना, जिनको अभी जिंदगी में बहुत करना बाकी है, शहीद हो जायेंगे। मुझे सच्ची खुशी होगी, अगर तुम लोग मेरे दिल का बोझ हल्का कर दोगे। मैं बड़ी खुशी के हरएक को इजाजत देता हूं कि उसका जहां जी चाहे, चला जाये। मेरा किसी पर कोई हक़ नहीं है। नहीं मैं तुमसे इल्तमास करता हूं इसे क़बूल करो। तुमसे किसी को दुश्मनी नहीं हुई है, जहां जाओगे, लोग तुम्हारी इज्जत करेंगे। तुम जिंदा शहीद हो जाओगे, जो मरकर शहादत का दर्जा पाने से इज्जत की बात नहीं। दुश्मन को सिर्फ मेरे खून की प्यास है, मैं ही उसके रास्ते का पत्थर हूं। अगर हक़ और इंसाफ को सिर्फ मेरे खून से आसूदगी हो जाये, तो उसके लिए और खून क्यों बहाया जाये? साद से एक शव की मुहलत मांगने में यही मेरा खयाल था। यह देखो में यह शमा ठंडी किए देता हूं, जिसमें किसी को हिजाब न हो।
[सब लोग रोने लगते हैं, और कोई अपनी जगह से नहीं हिलता।]
अब्बास– या हजरत, अगर आप हमें मारकर भगाएं, तो भी हम नहीं जा सकते। खुदा वह दिन न दिखाए कि हम आपसे जुदा हों। आपकी सफलता के साए में पल-भर अब हम सोच ही नहीं सकते कि आपके बगैर हम क्या करेंगे, कैसे रहेंगे।
अली अकबर– अब्बाजन, यह आप क्या फरमाते हैं? हम आपके कदमों पर निसार होने के लिये आए हैं। आपको यहां तनहा छोड़कर जाना तो क्या, महज उसके खयाल से रूह को नफ़रत होती है।
हबीब– खुदा की कसम, आपको उस वक्त तक नहीं छोड़ सकते, जब तक दुश्मनों के सीने में अपनी तेज बर्छिया न चुभा लें। अगर मेरे पास तलवार भी न होती, तो मैं आपकी हिमायत पत्थरों से करता।
अब्दुल्लाह कलवी– अगर मुझे इसका यकीन हो जाये कि मैं आपकी हिमायत में जिंदा जलाया जाऊंगा और फिर जिंदा होकर जलाया जाऊंगा, और यह अमल सत्तर बार होता रहेगा, तो भी मैं आपसे जुदा नहीं हो सकता। आपके कदमों पर निसार होने से जो रुतबा हासिल होगा, वह ऐसी-ऐसी बेशुमार जिंदगियों से भी नहीं हासिल हो सकता।
जहीर– हज़रत आपने जबाने-मुबारक से ये बातें निकालकर मेरी जितनी दिलशिकनी की है, उसका काफी इजहार नहीं कर सकता। अगर हमारे दिल दुनिया की हविस से मगलूब भी हो जायें, तो हमारे किसी दूसरी तरफ जाने से गुरेज करेंगे। क्या आप हमें दुनिया में रूहस्याह और बेगै़रत बनाकर जिंदा रखना चाहते हैं?
अली असगर– आप तो मुझे शरीक किए बगै़र कभी कोई चीज न खाते थे, क्या जन्नत के मजे अकेले उठाइएगा? शमा जलवा दीजिए, हमें इस तरीकी में आप नज़र नहीं आते।
हुसैन– आह! काश रसूले-पाक आज जिंदा होते और देखते कि उनकी औलाद उनकी उम्मत हक़ पर कितने शौक से फिदा होती है। खुदा से मेरी यही इल्तजा है कि इस्लाम में हक पर शहीद होने वालों की कभी-कमी न रहे। असगर, बेटा जाओ, तुम्हारे बाप की जान तुम पर फिदा हो, हम-तुम-साथ जन्नत के मेवे खायेंगे। दोस्तों, आओ, नमाज पढ लें। शायद यह हमारी आखिरी नमाज हो।
[सब लोग नमाज पढ़ने लगते हैं।]
आठवाँ दृश्य
[प्रातःकाल हुसैन के लश्कर में जंग की तैयारियां हो रही हैं।]
अब्बास– खेमे एक दूसरे से मिला दिए गए, और उनके चारों तरफ खंदके खोद डाली गई, उनमें लकड़ियां भर दी गई। नक्कारा बजवा दूं?
हुसैन– नहीं, अभी नहीं। मैं जंग में पहले क़दम नहीं बढ़ाना चाहता। मैं एक बार फिर सुलह की तहरीक करूंगा। अभी तक मैंने शाम के लश्कर से कोई तकदीर नहीं की, सरदारों ही से काम निकालने की कोशिश करता रहा। अब मैं जवानों से दूबदू बातें करना चाहता हूं। कह, दो सांडनी तैयार करे।
अब्बास– जैसा इर्शाद।
[बाहर जाते हैं।]
हुसैन– (दुआ करते हुए) ऐ खुदा! तू ही डूबती हुई किश्तियों को पार लगाने वाला है। मुझे तेरी ही पनाह है, तेरा ही भरोसा है, जिस रंज से दिल कमजोर हो, उसमें तेरी ही मदद मांगता हूं। जो आफत किसी तरह सिर से न टले, जिसमें दोस्तों से काम न निकले, जहां कोई हीला न हो, वहां तू ही मेरा मददगार है।
[खेमे से बाहर निकलते हैं। हबीब और जहीर आपस में नेजेवाजी का अभ्यास कर रहे हैं।]
हबीब– या हजरत, खुदा से मेरी यही दुआ है कि नेजा साद के जिगर में चुभ जाये, और ‘रै’ की सूबेदारी का अरमान उसके खून के रास्ते निकल जाये।
जहीर– उसे सूबेदारी जरूर मिलेगी। जहन्नुम की या ‘रै’ की, इसका फैसला मेरी तलवार करेगी।
हबीब– वाह! वह मेरा शिकार है, उधर निगाहें न उठाइएगा। आपके लिये मैंने शिमर को छोड़ दिया।
जहीर– बखुदा, वह मेरे मुकाबिले आए, तो मैं उसकी नाक काटकर छोड़ दूं। ऐसे बदनीयत आदमी के लिये जहन्नुम से ज्यादा तकलीफ दुनिया ही में है।
अब्बास– और मेरे लिये कौन-सा शिकार तजवीज किया?
जहीर– आपके लिये जियाद हाजिर है।
हुसैन– और मेरे लिये? क्या मैं ताकता ही रहूंगा?
जहीर– आपको कोई शिकार न मिलेगा।
हुसैन– मेरे साथ यह ज्यादती क्यों?
जहीर– इसलिए कि आप भी शिकारियों की जाल में आ जायेंगे, तो जन्नत की नियामतों में भी साझा बटाएंगे। आपके लिये रसूल-पाक की कुर्बत काफ़ी है। जन्नत की नियामतों में हम आपको शरीक नहीं करना चाहते।
हुसैन– मैं जरा साद के लश्कर से बातें करके आ जाऊं, तो इसका फैसला हो।
हबीब– उन गुमराहों की फ़रमाइश करना बेकार है। उनके दिल इतने सख्त हो गए हैं कि उन पर कोई तकदीर असर नहीं कर सकती।
हुसैन– ताहम कोशिश करना मेरा फर्ज़ है।
[परदा बदलता है। हुसैन अपनी सांड़नी पर साद की फौज के सामने खड़े हैं।]
हुसैन– ऐ लोगों, कूफ़ा और शाम के दिलेर जवानों और सरदारों! मेरी बात सुनो, जल्दी न करो। मुसलमान अपने भाई की गर्दन पर तलवार चलाने में, जितनी देर करे, ऐन सवाब है। मैं उस वक्त तक खुरेजी नहीं करना चाहता, जब तक तुम्हें इतना न समझा लूं, जितना मुझ पर वाजिब है। मैं खुदा और इंसान दोनों ही के नजदीक इस जंग की जिम्मेदारी से पाक रहना चाहता हूं, जहां भाई की तलवार भाई की गर्दन पर होगी। तुम्हें मालूम है, मैं यहां क्यों आया? क्या मैंने इराक या शाम पर फौजकसी की? मेरे अजीज़, दोस्त और अहलेबैत अगर फौज कहे जा सकते हो, तो बेशक मैंने फौजकसी की। सुनो और इंसाफ करो, अगर तुम्हें खुदा का खौफ और ईमान का लिहाज है कि मैं यहां के झगड़ों से अलग रहकर खुदा की इबादत में अपनी जिंदगी के बचे हुए दिन गुजारूंगा। मगर तुम्हारी ही फरियाद ने मुझे अपने गोशे से निकाला, रसूल की फरियाद सुनकर मैं कानों से उंगली न डाल सका। अगर इस हिमायत की सज़ा क़त्ल है, तो यह सिर हाजिर है, शौक से कत्ल करो। मैं हज्जात से पूछता हूं-क्या तुमने मुझे खत नहीं लिखे थे?
हज्जाज– मैंने आपको कोई खत नहीं लिखा था।
हुसैन– क़ीस, तुम्हें भी खत लिखने से इंकार है?
कीस– मैंने कब आपसे फरियाद की थी?
शिमर– सरासर ग़लत है, झूठ है।
हुसैन– खुदा गवाह है कि मैं अपनी जिंदगी में कभी झूठ नहीं बोला, लेकिन आज यह दाग भी लगा।
कीस– आप यजीद की बैयत क्यों नहीं कर लेते कि इस्लाम हमेशा के लिये फ़ितना और फसाद-पाक हो जाये?
हुसैन– क्या इसके सिवा मसालहत की और कोई सूरत नहीं है?
शिमर– नहीं, और कोई दूसरी सूरत नहीं है।
हुसैन– तो इस शर्त पर सुलह करना मेरे लिये गैरमुमकिन है। खुदा की कसम, मैं जलील होकर तुम्हारे सामने सिर न झुकाऊंगा, और न खौफ़ मुझे यजीद की बैयत कबूल करने पर मजबूर कर सकता है। अब तुम्हें अख्तियार है। हम भी जंग के लिये तैयार हैं।
शिमर– पहला तीर चलाने का सबाब मेरा है।
[हुसैन पर तीर चलाता है।]
किसी तरफ से आवाज आती है–
‘‘जहन्नुम में जाने का फख्र भी पहले तुझी को होगा।’’
[हुसैन ऊँटनी को अपनी फौज की तरफ़ फेर देते हैं। हुर अपनी फ़ौज से निकलकर आहिस्ता-आहिस्ता हुसैन के पीछे चलते हैं।]
शिमर– वल्लाह, हुर, तुम्हारा इस तरह आहिस्ता-आहिस्ता अपने तई तौल-तौलकर चलना मेरे दिल में शुबहा पैदा कर रहा है। मैंने तुमको कभी लड़ाई में इस तरह काँपते हुए चलते नहीं देखा।
हुर– अपने को जन्नत और जहन्नुम के लिये तौल रहा हूं, और हक़ है कि मैं जन्नत के मुकाबले में किसी चीज को नहीं समझता, चाहे कोई मार ही क्यों न डाले। (घोड़े को एक ऐड लगाकर हुसैन के पास पहुंच जाते हैं) ऐ फर्जन्दे रसूल! मैं भी आपके हमराह हूं। खुदावंद मुझे आप पर फिदा करे, मैं वहीं हूं, जिसने आपको रास्ते में वापस करने की कोशिश की थी। खुदा की कसम, मुझे उम्मीद न थी कि ये लोग आपके साथ यह बर्ताव करेंगे, और सुलह की कोई शर्त न कबूल करेंगे, वरना मैं आपको इधर आने ही न देता, जब तक आप मेरे सिर पर न आते। अब इधर से मायूस होकर आपकी खिदमत में हाजिर हुआ हूं कि आपकी मदद करते हुए अपने तई आपके कदमों पर निसार कर दूं। क्या आपके नजदीक मेरी तौवा कबूल होगी?
हुसैन– खुदा से मेरी दुआ है, तुम्हारी तौबा कबूल करें।
हुर– अब मुझे मालूम हो गया कि मैं यजीद से अपनी बैयत वापस लेने में कोई गुनाह नहीं कह रहा हूं।
[दोनों चले जाते हैं। तीरों की वर्षा होने लगती है।]
नवाँ दृश्य
[कूफ़ा का वक्त। कूफ़ा का एक गांव। नसीमा खजूर के बाग में जमीन पर बैठी हुई गाती है।]
गीत
दबे हुओं को दबाती है ऐ जमीने-लहद,
यह जानती है कि दम जिस्म नातवां में नहीं।
क़फस में जी नहीं लगता है आह! फिर भी मेरा,
यह जानता हूं कि तिनका भी आशियां में नहीं।
उजाड़ दे कोई या फूंक दे उसे बिजली,
यह जानता हूं कि रहना अब आशियां में नहीं।
खुदा अपने दिल से मेरा हाल पूछा लो सारा,
मेरी जवां से मजा मेरी दास्तां में नहीं।
करेंगे आज से हम जब्त, चाहे जो कुछ नहीं।
यह क्या कि लब पै फुगां और असर फुगां में नहीं।
खयाल करके खुदा अपनी किए को रोता हूं,
तबाहियों के सिवा कुछ मेरे मकां में नहीं।
[वहब का प्रवेश]
नसीमा– बड़ी देर की। अकेले बैठे-बैठे जी उकता गया। कुछ उन लोगों की खबर मिली?
वहब– हां नसीमा, मिली। तभी तो देर हुई। तुम्हारा खयाल सही निकला। हज़रत हुसैन के साथ है।
नसीम– क्या हज़रत-हुसैन की फौज़ आ गई?
वहब– कैसी फौज़? कुल बूढ़े, जवान और बच्चे मिलाकर 72 आदमी हैं। दस-पांच आदमी कूफ़ा से भी आ गए हैं। कर्बला के बेपनाह मैदान में उनके खेमे पड़े हैं। जालिम जियाद ने बीस-पच्चीस हजार आदमियों से उन्हें घेर रखा है। न कहीं जाने देता है, न कोई बात मानता है, यहां तक कि दरिया से पानी भी नहीं लेने देता। पांच हजार जवान दरिया की हिफा़जत के लिये तैनात कर दिए हैं। शायद कल तक जंग शुरू हो जाये।
नसीमा– मुट्ठी-भर आदमियों के लिये 20-25 हजार सिपाही! कितनी ग़जब! ऐसा गुस्सा आता है, जिया को पाऊं, तो सिर कुचल दूं।
वहब– बस, उसकी यही जिद है कि यजीद की बैयत कबूल करो। हजरत हुसैन कहते हैं, यह मुझसे न होगा।
नसीमा– हजरत हुसैन नबी के बेटे है, कौल पर जान देते हैं। मैं होती तो जियाद को ऐसा जुल देती कि वह भी याद करता। कहती– हां, मुझे बैयत कबूल है। वहां से आकर बड़ी फ़ौज जमा करती, और यजीद के दांत खट्टे कर देती। रसूल पाक को शरआ मैं ऐसी आफ़तों के मौके के लिये कुछ रियासत रखनी चाहिए थी। तो हजरत की फौज़ में बड़ी घबराहट फैली होगी?
वहब– मुतलक नहीं नसीमा। सब लोग शहादत के शौक में मतवाले हो रहे हैं। सबसे ज्यादा तकलीफ पानी की है। जरा-जरा से बच्चे प्यासे तड़प रहे हैं।
नसीमा– आह जालिम! तुझसे खुदा समझे।
वहब– नसीमा, मुझे रुखसत करो। अब दिल नहीं मानता, मैं भी हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार होने जाता हूं। आओ, गले मिल ले। शायद फिर मुलाकात न हो।
नसीमा– हाय वहब! क्या मुझे छोड़ जाओगे। मैं भी चलूंगी।
वहब– नहीं नसीमा, उस लू के झोंको में यह फूल मुरझा जायेगा। (नसीमा को गले लगाकर) फिर दिल कमजोर हुआ जाता है। सारी राह कंबख्त को समझाता आया था। नसीमा, तुम मुझे दुत्कार दो। खुदा, तूने मुहब्बत को नाहक पैदा किया।
नसीमा– रोकर वहब, फूल किस काम आएगा। कौन इसको सूंघेगा, कौन इसे दिल से लगाएगा? मैं भी हजरत जैनब के क़दमों पर निसार हूंगी।
वहब– वह प्यास की शिद्दत, वह गरमी की तकलीफ, वह हंगामे, कैसे ले जाऊं?
नसीमा– जिन तकलीफों को सैदानियां झेल सकती है, क्या मैं न झेल सकूंगी? हीले मत करो वहब, मैं तुम्हें तनहा न जाने दूंगी।
वहब– नसीमा, तुम्हें निगाहों से देखते हुए मेरे कदम मैदान की तरफ न उठेंगे।
नसीमा– (वहब के कंधे पर सिर रखकर) प्यारे! क्यों किसी ऐसी जगह नहीं चलते, जहां एक गोशे में बैठकर इस जिंदगी का लुप्त उठाएं। तुम चले जाओगे, खुदा न ख्वास्ता दुश्मनों को कुछ हो गया, तो मेरी जिन्दगी रोते ही गुजरेगी। क्या हमारी जिंदगी रोने ही के लिये है? मेरा दिल अभी दुनिया की लज्जतों का भूखा है। जन्नत की खुशियों की उम्मीद पर इस जिंदगी को कुर्बान नहीं करते बनता। हज़रत हुसैन की फतह तो होने से रही। पच्चीस हज़ार के सामने जैसे सौ, वैसे ही एक सौ एक।
वहब– आह नसीमा। तुमने दिल के सबसे नाजुक हिस्से पर निशाना मारा। मेरी यही दिली तमन्ना है कि हम किसी आफ़ियत के गोशे में बैठकर जिंदगी की बहार लूटें। पर जालिम की यह बेदर्दी देखकर खून में जोश आ जाता है, और दिल बेअख्तियार यही चाहता है कि चलकर हजरत हुसैन की हिमायत में शहीद हो जाऊं। जो आदमी अपनी आंखों से जुल्म होते देखकर जालिम का हाथ नहीं रोकता, वह भी खुदा की निगाहों में जालिम का शरीक है।
नसीमा– मैं अपनी आंखें तुम पर सदके करूं, मुझे अजाब व सवाब के मुखमसों में मत डालो। सोचो, क्या यह सितम नहीं है कि हमारी जिंदगी की बहार इतनी जल्द रुखसत हो जाये? अभी मेरे उरूसी कपड़े भी नहीं मैले हुए, हिना का रंग भी नहीं फीका पड़ा, तुम्हें मुझ पर जरा भी तर्स नहीं आता? क्या ये आंखें रोने के लिये बनाई गई हैं? क्या ये हाथ दिल को दबाने के लिये बनाए गए हैं? यही मेरी जिंदगी का अंजाम है?
[वहब के गले में हाथ डाल देती है।]
वहब– (स्वगत) खुदा संभालियों, अब तेरा ही भरोसा है। यह आशिक की दिल बहलानेवाली इल्तजा नहीं मालूम का ईमान ग़ारत करने वाला तकाजा है।
[साहसराय की सेना सामने से चली आ रही है।]
नसीमा– अरे! यह फौज कहां से आ रही है? सिपाहियों का ऐसा अनोखा लिबास तो कहीं नहीं देखा। इनके माथों पर ये लाल-लाल बेल-बूटे कैसे बने हैं? कसम है इन आंखों की, ऐसे सजीले, कसे हसीन जवान आज तक मेरी नजर से नहीं गुजरे।
वहब– मैं जाकर पूछता हूं, कौन लोग है। (आगे बढ़कर एक सिपाही से पूछता है) ऐ जवानों! तुम फरिश्ते हो या इंसान? अरब में तो हमने आदमी नहीं देखे। तुम्हारें चेहरों से जलाल बरस रहा है। इधर कहां जा रहे हो?
सिपाही– तुमने सुलतान साहसराय का नाम सुना है। हम उन्हीं के सेवक हैं, और हजरत हुसैन की सहायता करने जा रहे हैं, जो इस वक्त कर्बला के मैदान में घिरे हुए हैं। तुमने यजीद की बैयत ली है या नहीं?
वहब– मैं उस जालिम की बैयत क्यों कबूल करने लगा था।
सिपाही– तो आश्चर्य है कि तुम हज़रत हुसैन की फौज में क्यों नहीं हो। तुम सूरत से मनचले जवान मालूम होते हो, फिर यह कायरता कैसी?
वहब– (शरमाते हुए) हम वहीं जा रहे हैं।
सिपाही– तो फिर आओ, साथ चले।
वहब– मेरे साथ मस्तूरात भी हैं। तुम लोग बढ़ो, हम भी आते हैं।
[फ़ौज चली जाती है।]
नसीमा– यह साहसराय कौन है?
वहब– यह तो नहीं कह सकता, पर इतना कह सकता हूं कि ऐसा हक़परस्त दिलेर, इंसान पर निसार होने वाला आदमी दुनिया में न होगा। वेकसों की हिमायत में कभी उसे पीछे कदम हटाते नहीं देखा। मालूम नहीं, किस मजहब का आदमी है, पर जिस मजहब और जिस क़ौम में ऐसी पाक रूहें पैदा हों, वह दुनिया के लिये बरकत है।
नसीमा– इनके भी बाल बच्चे होंगे?
वहब– बहुत बड़ा खानदान है। सात तो भाई भी हैं।
नसीमा– और मुसलमान न होते हुए भी ये लोग हजरत हुसैन की इमदाद के लिए जा रहे हैं?
वहब– हां, और क्या!
नसीमा– तो हमारे लिये कितनी शर्म की बात है कि हम यों पहलूतिही करें।
वहब– प्यारी नसीमा, चले चलेंगे। दो-चार दिन तो जिदंगी की बहार लूट लें।
नसीमा– नहीं वहब, एक लम्हें की भी देर न करो। खुदा हमें जन्नत में फिर मिलाएगा, और अब अब्द तक जिंदगी की बहार लूटेंगे।
वहब– नसीमा आज और सब्र करो।
नसीमा– एक लम्हा भी नहीं। वहब, अब इम्तहान में न डालो, सांडनी लाओ, फौरन चलो।
पांचवां अंक
पहला दृश्य
[समय ९ बजे दिन। दोनों फौ़जे लड़ाई के लिये तैयार हैं।]
हुर– या हजरत, मुझे मैदान में जाने की इजाजत मिले। अब शहादत का शौक रोके नहीं रुकता।
हुसैन– वाह, अभी आए हो और अभी चले जाओगे। यह मेहमाननेवाजी का दस्तूर नहीं कि हम तुम्हें आते-ही-आते रुखसत कर दें।
हुर– या फ़र्जदे-रसूल मैं आपका मेहमान नहीं, गुलाम हूं। आपके कदमों पर निसार होने के लिये आया हूं।
हुसैन– (हुर के गले मिलकर आंखों में आंसू भरे हुए) अगर तुम्हारी इसी में खुशी है, तो आओ, खुदा को सौंपा–
दुनिया के शहीदों में तेरा नाम हो भाई,
उक़बा में तुझे राहतोआराम हो भाई।
[हुर मैदान की तरफ चलते हैं, हुसैन खेमे के दरवाजे तक उन्हें पहुंचाते आते हैं। खेमे से निकलते हुए हुर हुसैन के कदमों को बोसा देते हैं, और चले जाते हैं।]
हुर– (मैदान में जाकर)
गुलाम हजरते शब्बीर रन में आता है,
वही जो दीन का है बंदा, वह मेरा आका है।
वह आए ठीक के खम, जिसकी मौत आई है।
उसी का पीने को खूँ मेरी तेग आई है।
[सफ़वान उधर से झूमता हुआ आता है।]
हुर– सफवान, कितनी शर्म की बात है कि तुम फ़र्जदे-रसूल से जंग करने आए हो?
सफवान– हम सिपाहियों को माल, दौलत, जागीर और रुतवा चाहिए, हमें दीन और आक़बत से क्या काम? संभल जाओ।
[दोनों पहलवानों में चोटें चलने लगती हैं।]
अब्बास– वह मारा। सफवान का सीना टूट गया, जमीन पर तड़पने लगा।
हबीब– सफ़वान के तीनों भाई दौड़े चले आते हैं।
अब्बास– वाह मेरे शेर! एक तलवार से लिया, दूसरा भी गिरा, और तीसरा भागा जाता है।
हबीब– या खुदा, खैर कर, हुर का घोड़ा गिर गया।
हुसैन– फौरन एक घोड़ा भेजो।
[एक आदमी हुर के पास घोड़ा लेकर जाता है।]
अब्बास– यह पीरा नासाली और यह दिलेरी! ऐसा बहादुर आज तक नज़र से नहीं गुजरा। तलवार बिजली की तरह कौंध रही है।
हुसैन– देखो, दुश्मन का लश्कर कैसा पीछे हटा जाता है। मरनेवालों के सामने खड़ा होना आसान नहीं है। दिलेरी को इंतहा है।
अब्बास– अफ़सोस, अब हाथ नहीं उठते। तीरों से सारा बदल चलनी हो गया।
शिमर– तीरों की बारिश करो, मार लो। हैफ़ है तुम पर कि एक आदमी से इतने खायाफ़ हो। वह गिरा, काट लो सिर और हुसैन की फ़ौज में फेंक दो।
[कई आदमी हुर के सिर को काटने को चलते हैं, कि हुसैन मैदान की तरफ दौडते हैं।]
एक– वह हुसैन दौड़े चले आते हैं। भागों, नहीं तो जान न बचेगी।
हुसैन– हुर की लाश से लिपटकर
टुकड़े हैं बदन, जख्म बहुत खाए हैं भाई,
हो होश में आ लाश पै हम आए हैं भाई।
[हुर आंखें खोलकर देखते हैं, और अपना सिर उनकी गोद में रख देते हैं।]
हुर– या हजरत, आपके कदमों पर निसार हो गया, जिंदगी ठिकाने लगी।
तकिया तेरे जानू का मयस्सर हुआ आका़,
जर्रा था यह सब महरे-मुनौवर हुआ आका़।
हुसैन– हाय! मेरा जांबाज रफीक़ दुनिया से रुखसत हो गया। यह वह दिलावर था, जिसने हक पर अपने रुतबा और दौलत को निसार कर दिया, जिसने दीन के लिये दुनिया को लात मार दी। ये हक पर जान देने वाले हैं, जिन्होंने इस्लाम के नाम को रोशन किया है, और हमेशा रोशन रखेंगे। जा मुहम्मद के प्यारे, जन्नत तेरे लिए हाथ फैलाये हुए है। जा, और हयात अब्दी के लुत्फ उठा। मेरे नाना से यह दीजियो कि हुसैन भी जल्द ही तुम्हारी खिदमत में हाजिर होने वाला है, और तुम्हारे कुन्बे को साथ लिए हुए। काबिल ताजीम हैं वे माताएं, जो ऐसे बेटे पैदा करती हैं!
दूसरा दृश्य
[समर-भूमि। साद की तरफ़ से दो पहलवान आते हैं– यसार और सालिम।]
यसार– (ललकारकर) कौन निकलता है, हुर का साथ देने के लिये। चला जाए, जिसे मौत का मजा चखना हो। हम वह है, जिनकी तलवार से क़ज़ा की रूह भी क़जा होती है।
[अब्दुल्लाह कलवी हुसैन के लश्कर से निकलते हैं।]
यसार– तू कौन हैं?
अब्दुल्लाह– मैं अब्दुल्लाह बिन अमीर कलवी हूं, जिसकी तलवार हमेशा बेदीनों के खून की प्यासी रहती है।
यसार– तेरे मुकाबले में तलवार उठाते हमें शर्म आती है। जाकर हबीब या जहीर को भेज।
अब्दुल्लाह– तू उन सरदार के-फौज़ से क्या लड़ेगा, जिनकी जिंदगी जियाद की गुलामी में गुजरी। तुझे उन रईसों को ललकारते हुए शर्म भी नहीं आती। तुझ जैसों के लिये मैं ही काफी हूं।
[यसार तलवार लेकर झपटता है। अब्दुल्लाह एक ही वार में उसका काम तमाम कर देते हैं। तब सालिम उन पर टूट पड़ता है। अब्दुल्लाह की पांचों उंगलियां कट जाती है, तलवार जमीन पर गिर पड़ती है वह बाएं हाथ में नेजा ले लेते हैं, और सालिम के सोने में नेजा चुभा देते हैं। वह भी गिर पड़ता है। जियाद की फौज से निकलकर लोग अब्दुल्लाह को घेर लेते हैं। इधर से कमर लकड़ी लेकर दौड़ती है।]
कमर– मेरी जान तुम पर फ़िदा हो, रसूल के नवासे के लिये लड़ते-लड़ते जान दे दो। मैं भी तुम्हारी मदद को आई।
अब्बदुलाह– नहीं-नहीं, कमर मेरे लिये तुम्हारी दुआ काफी है; इधर मत आओ।
क़मर– मैं इन शैतानों को लकड़ी से मारकर गिरा दूंगी। एक के लिये दो भेजे, जब दोनों जहन्नुम पहुंच गए, जो सारी फौज़ निकल पड़ी। यह कौन-सी जंग है?
अब्बदुल्लाह– मैं एक ही हाथ से इन सबको मार गिराऊंगा। तुम खेमे में जाकर बैठो।
कमर– मैं जब तक जिंदा हूं, तुम्हारा साथ छोड़ूंगी। तुम्हारे साथ ही रसूल पाक की खिदमत में हाजिर हूंगी।
हुसैन– (कमर से) ऐ नेक खातून, तुझ पर अल्लाह ताला रहम करे। तुम वहां जाओगी, तो यहां मस्तूरात की खबर लेगा? औरतों को जिहाद करना मना है। लौट आओ, और देखो, तुम्हारा जांबाज शौहर एक हाथ से कितने आदमियों का मुकाबला कर रहा है। आफ़रीं है तुम पर, मेरे शेर। तुमने अपने रसूल की जो खिदमत की है, उसे हम कभी न भूलेंगे। खुदा तुम्हें उसकी सजा देगा। आह! जालिमों ने तीर मारकर गरीब को गिरा दिया! खुदा उसे जन्नत दे।
क़मर– या हज़रत इसका गम नहीं। वह आप पर निसार हो गए, इससे बेहतर और कौन-सी मौत हो सकती थी। काश मैं भी उनके साथ चली जाती। मेरे जांबाज! सच्चे दिलावर जा, और जन्नत में आराम कर। तू वह था जिसने कभी सायल को नही फेरा, जिसकी नीयत कभी खराब और निगाह कभी बुरी नहीं हुई। जा, और जन्नत में आराम कर।
हुसैन– कमर सब्र करो कि इसके सिवा कोई चारा नहीं है।
कमर– मुझे उनके मरने का गम नहीं हैं। मैं खुश हूं कि उन्होंने हक़ पर जान दी। इस वक्त अगर मेरे सौ बेटे होते, तो मैं इसी तरह उन्हें भी आपके कदमों पर निसार कर देती। काश वहब इतना जनपरस्त न होता…।
[वहब का प्रवेश]
वहब– अस्सलामअलेक या हज़रत हुसैन।
क़मर– (वहब को गले लगाकर) जरा देर पहले ही क्यों न आ गए बेटा कि अपने बाप का बेटा कि अपने बाप का आखिरी दीदार कर लेते। नसीमा कहां है?
वहब– यहीं खेमों के पीछे खड़ी है?
क़मर– मैं अभी तुम्हारा ही जिक्र कर रही थी। क्यों बेटा, अपने बाप का नाम रोशन न करोगे? मेरा तुम्हारे ऊपर बड़ा हक़ है। तुम मेरे जिगर का खून पीकर पले हो। मेरा दूध हलाल न करोगे! मेरी तमन्ना है कि हुसैन पर अपनी जान निसार करो, ताकि दुनिया में क़मर का नाम क़मर की तरह चमके, जिसका और बेटा, दोनों की हक़ पर शहीद हुए।
वहब– अम्माजान, मेरी भी दिली तमन्ना यह थी और है। मैं अपने बाप के नाम को दाग़ नहीं लगाना चाहता, मगर नसीमा को क्या करूं? उसकी मुसीबतों का खयाल हिम्मत को पस्त कर देता है। जाता हूं, अगर उसने इजाजत दे दी, तो मेरे लिये उससे बढ़कर खुशी नहीं हो सकती।
क़मर– बेटा, तुम उसकी आदत से वाकिफ होकर फिर उसी से पूछने जाते हो। इसके मानी इसके सिवा और कुछ नहीं है कि तुम खुद मैदान में जाते हुए डरते हो।
[वहब नसीमा के पास जाता है।]
नसीमा– काश जरा देर कब्ल आ जाते, तो अब्बाजान की आखिरी दुआएं मिल जाती।
वहब– हमारी बदनसीबी
नसीमा– मैं जानती हूं, तुम हमेशा के लिये खैरबाद कहने आए हो। जाओ, प्यारे, और एक सपूत बेटे की तरह अपने वालिद का नाम रोशन करो। काश औरतों पर जिहाद हराम न होता, तो मैं भी तुम्हारे ही साथ अपने को हक़ की हिमायत में निसार कर देती। जब से मैंने फ़र्जदें-रसूल की पाक सूरत देखी है, मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मेरा दिल रोशन हो गया है, और उस रोशनी में कुर्बान हो जाओ। नसीमा जब तक जिएगी, तुम्हारी मज़ार पर फ़ातिहा और दरूद पढ़ेगी। जाओ, जन्नत में मुझे भूल न जाना। मैंने हवस के दाम में फंसकर तुम्हें फ़र्ज के रास्ते से हटा दिया था। रसूल पाक से कहना, मेरा गुनाह मुआफ करें। जाओ, इन आंसुओं का खयाल न करो, वरना ये आंसू तुम्हारे जोश को बुझा देंगे। मैं अभी बहुत दिन तक रोऊंगी, तुम इसका ग़म न करना। जाओ, तुम्हें खुदा को सौंपा– आह! दिल फटा जाता है। कैसे सब्र करूं?
[वहब आंसू पोंछता हुआ जाता है।]
कमर– (अंदर आकर) बेटी, तुझे गले से लगा लूं, और तुझ पर अपनी जान फ़िदा, तूने खानदान की आबरू रख ली।
नसीमा– अम्माजान, रसूल पाक ने अगर कोई बेइंसाफी की, तो वह यही है कि औरतों पर जियाद हराम कर दिया, वरना इस वक्त मैं वहब के पहलू में होती। देखिए, दुश्मन उन पर चारों तरफ से कितनी बेदर्दी से नेजे़ और तीर फेंक रहे हैं। किसी की हिम्मत नहीं है कि उनके सामने खम ठोककर आए। आह! देखिए, उनके हाथ कितनी तेजी से चल रहे हैं। जिस पर उनका एक हाथ पड़ जाता है, वह फिर नहीं उठता, दुश्मन भागे जाते हैं। हा बुजदिलो, नामर्दो! वह इधर चले आ रहे हैं, बदन खून से तर हैं, जिस पर भी जख्म लगे हैं।
[वहब आकर खेमे के सामने खड़ा हो जाता है।]
वहब– अम्माजान, मुझसे राजी हुई?
क़मर– बेटा, तुझ पर हजार जान से निसार हूं। तुमने बाप का नाम रोशन कर दिया, लेकिन मैं चाहती हूं कि जब तक तेरे हाथों में ताकत है, तब तक दुश्मनों को आराम न लेने दे।
वहब– (स्वगत) आह! हक़ पर जान देना भी उतना आसान नहीं है, जितना लोग खयाल करते हैं। (प्रकट) अम्मा, यही मेरा भी इरादा है, लेकिन नसीमा के आसुंओं की याद मुझे खींच लाई है।
[क़मर चली जाती है।]
नसीमा, तुम्हें आखिरी बार देखने की तमन्ना मैदान से खींच लाई। सनम का पुजारी सनम ही पर कुर्बान हो सकता है, दीन और ईमान, हक़ और इंसाफ, ये सब उसकी नजरों में खिलौने की तरह लगते हैं। मुहब्बत दुनिया की सबसे मजबूत बेड़ी है, सबसे सख्त जंजीर। (चौंककर) कोई पहलवान मैदान में आकर ललकार रहा है। हाय! लानत हो उन पर, जो हक को पामाल करके हजारों को नामुराद मरने पर मजबूर करते हैं। नसीमा, हमेशा के लिये रूखसत? मेरी तरफ एक बार मुहब्बत की निगाहों से देख लो, उनमें मुहब्बत का ऐसा जाम हो कि उसका नशा मेरे सिर से कयामत तक न उतरे।
नसीमा– मेरी जान आह! दिल निकला जाता है…।
[वहब मैदान की तरफ चला जाता है।]
खुदा! काश मुझे मौत आ जाती कि वह दिलखराश नज्जारा आंखों से न देख पड़ता मेरा जवान दिलेर जांबाज शौहर मौत के मुंह में जा रहा है, और मैं बैठी देख रही हूं। जमीन, तू क्यों नहीं फट जाती कि मैं उसमें समा जाऊं, बिजली आसमान से गिरकर क्यों मेरा खातमा नहीं कर देती! वह देव उन पर तलवार लिए झपटा, या खुदा मुझ नामुराद पर रहम कर। दूर हो जालिम, सीधा जहन्नुम को चला जा। अब कोई आगे नहीं आता है। हाय! जालियों ने घेर लिया। खुदा, तू यह बेइंसाफी देख रहा है, और इन मूजियों पर अपना कहर नहीं नाजिल करता। एक के लिये एक फ़ौज भेज देना कौन-सा आईने-जंग है। हाय! खुदा गजब हो गया। अब नहीं देखा जाता।
[छाती पीटकर रोने लगती है, शिमर वहब का सिर काट कर फेंक देता है, कमर दौड़कर सिर को गोद में उठा लेती है, और उसे आंखों से लगाती हैं।]
कमर– मेरे सपूत बेटे, मुबारक है यह घड़ी कि मैं तुझे अपनी आंखों से हक़ पर शहीद होते देख रही हूं। आज तू मेरे कर्ज़ से अदा हो गया, आज मेरी मुराद पूरी हो गई, आज मेरी जिदंगी सफल हो गई, मैं अपनी सारी तकलीफ़ का सिला पा गई। खुदा तुझे शहीदों के पहलू में जगह दे। नसीमा…मेरी जान, आज तूने सच्चा सोहाग पाया है, जो कयामत तक तुझे सुहागिन बनाए रखेगा। अब हूरें तरे तलुओं-तले आंखे बिछांएगी, और फरिश्ते तेरे क़दमों की खाक का सुरमा बनाएंगे।
[वहब का सिर नसीमा की गोद में रख देती है, नसीमा सिर को गोद में रखे हुए बैठ करके रोती है।]
काजल बना-बनाके तेरी खाके–दर को मैं
रोशन करूंगी अपनी सवादे-नजर को मैं।
आंसू भी खश्क हो गए, अल्लाह रे सोज़े-गम,
क्योंकर बुझाऊँ आतिशे-दाग़े जिगर को मैं।
तेरे सिवा है कौन, जो बेकस की ले खबर,
आती न तेरे दर पर, तो जाती किधर को मैं।
तलवार कह रही है जवानी-कौम से–
मुद्दत से ढूंढ़ती हूं तुम्हारी कमर को मैं।
बाज आई मैं दुआ ही से, या रब कि कब तलक
करती फिरू तलाश जहां में असर को मैं।
गर-तेरी खाके दर से न मिलता यह इफ्तखार,
करती न यों बुलंद कभी अपने सिर को मैं।
हाय प्यारे! तुम कितने बेवफा़ हो, मुझे अकेले छोड़कर चले जाते हो! लो, मैं भी आती हूं। इतनी जल्दी नहीं, जरा ठहरो।
[साहसराय का प्रवेश]
साहसराय– सती, तुम्हें नमस्कार करता हूं।
नसीमा– साहब, आप खूब आए। आपका शुक्रिया तहेदिल से शुक्रिया आपने ही मुझे आज इस दर्जे पर पहुंचाया। आपके वतन में औरतें अपने शौहरों के बाद जिंदा नहीं रहती। वे बड़ी खुशनसीब होती हैं।
साहस०– सती, हम लोगों को आशीर्वाद दो।
नसीमा– (हंसकर) यह दरजा! अल्लाह रे मैं, यह वहब की बदौलत, उसकी शहादत के तुफैल, खुदा, तुमसे मेरी दुआ है, मेरी क़ौम में कभी शहीदों की कमी न रहे, कभी वह दिन न आए कि हक़ को जांबाजों की जरूरत हो, और उस पर सिर कटाने वाले न मिले। इस्लाम, मेरा प्यारा इस्लाम शहीदों से सदा मालामाल रहे!
[अपने दामन से एक सलाई निकालकर वहब के खून में डुबाती।]
क्यों, साहसराय, तुम्हारे यहां सती के जिस्म से आग निकलती है, और वह उसमें जल जाती है। क्या बिला आग के जान नहीं निकालती?
साहस०– नसीमा, तू देवी है। ऐसी देवियों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। आकाश से देवता तुझ पर पुष्प-वर्षा कर रहे हैं।
[नसीमा आंखों में सलाई फेर लेती है, और एक आह के साथ उसकी जान निकल जाती है।]
तीसरा दृश्य
[दोपहर का समय। हजरत हुसैन अब्बास के साथ खेमे के दरवाजे पर खड़े मैदाने-जंग की तरफ ताक रहे हैं।]
हुसैन– कैसे-कैसे जांबाज दोस्त रुखसत हो गए और होते जा रहे हैं। प्यास से कलेजे मुंह को आ रहे हैं, और ये जालिम नमाज तक की मुहलत नहीं देते। आह! जहीर का सा दीनदार उठ गया, मुसलिम बिन ऊसजा इस आलमेजईफ़ी में भी कितने जोश से लड़े। किस-किसका नाम गिनाऊं।
अब्बास-या हजरत, मुझे अंदेशा हो रहा है कि शिमर कोई नया सितम ढाने की तैयारियां कर रहा है। यह देखिए, वह सिपाहियों की एक बड़ी जमैयत लिए इधर चला जाता है।
हबीब– (जोश से) शिमर, खबरदार, अगर इधर एक कदम भी बढ़ाया, तो तेरी लाश पर कुत्ते रोवेगे। तुझे शर्म नहीं आती जालिम कि अहलेबैत के खेमे पर हमला करना चाहता है।
शिमर– हम इस हमले से जंग का फैसला कर देना चाहते हैं। जवानो, तीर बरसाओ।
हुसैन– अफसोस, घोड़े मरे जा रहे हैं। घुटने टेककर बैठ जाओ, और तीरों का जवाब दो। खुदा ही हमारा वाली और हाफ़िज हैं।
शिमर– बढ़ो-बढ़ो, एक आन में फैसला हुआ जाता है।
सिपाही– देखते नहीं हो; हमारी सफ़ें खाली होती जाती हैं! यह तीर हैं। या खुदा का गजब। हम आदमियों से लड़ने आए हैं, देवों से नहीं।
शिमर– लड़कियां जलाओ, फौरन इन खेमों पर आग के अंगारे फेंको, जलते हुए कुंदे फेंको जलाकर स्याह कर दो।
[आग की बारिश होने लगती है। औरतें खेमे से चिल्लाती हुई बाहर निकल आती है।]
जैनब– तुफ् है तुझ पर जालिम, मर्दों से नहीं, औरतों पर अपनी दिलेरी दिखाता है।
हुसैन– साद! यह क्या सितम हैं? तुम लोगों का दुश्मन मैं हूं। मुझसे लड़ो, खेमों में और औरतों और बच्चों के सिवा कोई मर्द नहीं है। वे गरीब निकलकर भाग न सकी, तो हम इधर चले जायेगें, तुमसे लड़ न सकेंगे। अफसोस है कि इतनी जमैयत के होते हुए भी तुम यह विदअतें कर रहे हो।
शिमर– फेंको अंगारे। मुझे दोजख में जलना नसीब हो, अगर मैं इन सब खेमों को जला न डालूं।
शीस– शिमर, तुम्हारी यह हरकत आईने जंग के खिलाफ़ है। हिसाब के दिन तुम्हीं इसके जिम्मेदार होंगे।
कीस– रोको अपने आदमियों को।
शिमर– मैं अपने फ़ैल का मुख्तार हूं। आग बरसाओ, लगा दो आग।
शीस– साद, खुदा को क्या मुंह दिखाओगे?
हबीब– दोस्त, टूट पड़ो, शिमर, पर, बाज की तरह टूट पड़ो। नामूसे-हुसैन पर निसार हो जाओ। एकबारगी नेजों का वार करो।
[हबीब और उनके साथ दस आदमी नेजे ले जाकर शिमर पर टूट पड़ते हैं। शिमर भागता है, और उसकी फौज भी भाग जाती है।]
हुसैन– हबीब, तुमने आज अहलेबैत की आबरू रख ली। खुदा तुम्हें इसकी सज़ा दे।
हबीब– या मौला, दुश्मन दो-चार लम्हों के लिए हट गया है, नमाज का वक्त आ गया है, हमारी तमन्ना है कि आपके साथ आखिरी नमाज पढ़ ले। शायद फिर यह मौका न मिले।
हुसैन– खुदा तुम पर रहम करे, अजान दो। ऐ साद, क्या तू इस्लाम की शरियत को भी भूल गया? क्या इतनी मुहलत न देगा कि नमाज पढ़कर जंग की जाय?
शिमर– खुदा पाक की कसम, हर्गिज नहीं। तुम बेनमाज़ क़त्ल किए जाओगे। शरियत बागियों के लिए नहीं है।
हबीब– या मौला, आप नमाज अदा फरमाएं, इस मूजी को बकने दें। इसकी इतनी मजाल नहीं है कि नमाज में मुखिल हो।
[लोग नमाज पढ़ने लगते हैं। साहसराय और उनके सातों भाई हुसैन की पुश्त पर खड़े शिमर के तीरों से उनको बचाते रहते हैं। नमाज खत्म हो जाती है।]
हुसैन– दोस्तों, मेरे प्यारे ग़मसारो, यह नमाज इस्लाम की तारीख में यादगार रहेगी। अगर खुदा के इन दिलेर बंदों ने, हमारे पुश्त पर खड़े होकर, हमें दुश्मनों के तीरों से न बचाया होता, तो हमारी नमाज हर्गिज न पूरी होती। ऐ हक़परस्तों, हम तुम्हें सलाम करते हैं। अगर्चे तुम मोमिन नहीं हो, लेकिन जिस मजहब के पैरों ऐसे हक़परजर, ऐसे इंसाफ पर जान देन वाले, जिंदगी को इस तरह नाचीज समझने वाले, मजलूमों की हिमायत में सिर काटने वाले हों, वह सच्चा और मिनजानिब खुदा है। वह मजहब दुनिया में हमेशा कायम रहे और नूरे इस्लाम के साथ उसकी रोशनी भी चारों तरफ फैले।
साहसराय– भगवन् आपने हमारे प्रति जो शुभेच्छाएं प्रकट की हैं, उनके लिए हम आपके कृतज्ञ हैं। मेरी भी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि जब कभी इस्लाम को हमारे रक्त की आवश्यकता हो, तो हमारी जाति में अपना वक्ष खोल देने वालों देने वालों की कमी न रहे। अब मुझे आज्ञा हो कि चलकर अपने प्रायश्चित की क्रिया पूरी करूं।
हुसैन– नहीं, मेरे दोस्तों, जब तक हम बाकी हैं, अपने मेहमानों में न जाने देंगे?
साहस०– हजरत, हम आपके मेहमान नहीं, सेवक हैं। सत्य और न्याय पर मरना ही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यह हमारा कर्त्तव्य मात्र है, पर किसी पर एहसान नहीं।
हुसैन– आह! किस मुंह से कहूं कि जाइए। खुदा करे इस मैदान में हमारे और आपके खून से जिस इमारत की बुनियाद पड़ी है, वह जमाने की नज़र में हमेशा महफूज रहे, वह कभी वीरान न हो, उसमें हमेशा नग़मे की सदाएं बुलंद हों, और आफ़ताब की किरणें हमेशा उस पर चमकती रहें।
[सातों भाई गाते हुए मैदान में जाते हैं।]
जय भारत, जय भारत, जय मम प्राणपते!
भाल विशाल चमत्कृत सित हिमगिर राजे,
परसत बाल प्रभाकर हेम-प्रभा ब्राजे।
जय भारत…
ऋषि-मुनि पुण्य तपोनिधि तेज-पुंजधारी,
सब विधि अधम अविद्या भव-भय-तमहारी।
जय भारत…
जय जय वेद चतुर्मुख अखिल भेद ज्ञाता,
सुविमल शांति सुधा-निधि मुद मंगलदाता।
जय भारत…
जय जय विश्व-विदांवर जय विश्रुत नामी,
जय जय धर्म-धुरंधर जय श्रुति-पथगामी।
जय भारत…
अजित अजेय अलौकिक अतुलित बलधामा,
पूरन प्रेम-पयोनिधि शुभ गुन-गुन-ग्रामा।
जय भारत…
हे प्रिय पूज्य परम मन नमो-नमो देवा,
बिनवत अधम-पापि जन ग्रहन करहु सेवा।
जय भारत…
अब्बास– गज़ब जांबाज हैं। अब मुझ पर यह हकीकत खुली कि इस्लाम के दायरे के बाहर भी इस्लाम है। ये सचमुच मुसलमान हैं और रसूल पाक ऐसे आदमियों की शफ़ाअत न करें, मुमकिन नहीं।
हुसैन– कितनी दिलेरी से लड़ रहे हैं!
अब्बास– फौज़ में बेखौफ़ घुसे जाते हैं। ऐसी बेजिगरी से किसी के मौत के मुंह में जाते नहीं देखा।
अली अक०– ऐसे पांच सौ आदमी भी हमारे साथ होते, तो मैदान हमारा था।
हुसैन– आह! वह साहसहाय घोड़े से गिरे। मक्कार शिमर ने पीछे से वार किया। इस्लाम को बदनाम करने वाला मूजी!
अब्बास– वह दूसरा भाई भी गिरा।
हुसैन– इनके रिवाज के मुताबिक लाशों को जलाना होगा। चिता तैयार कराओ।
अली अक०– तीसरा भाई भी मारा गया।
अब्बास– जालिमों ने चारों तरफ़ से घेर लिया, मगर किस गजब के तीरंदाज हैं। तीर का शोला-सा निकलता है!
अली अक०– अल्लाह, उनके तीरों से आग निकल रही है। कोहराम मच गया, सारी जमैयत परेशान भागी जा रही है।
अब्बास– चारों सूरमा दुश्मन के खेमों की तरफ जा रहे हैं। फौज़ काई की तरह फटती जाती है। वह खेमों से शोला निकलने लगे!
अली अक०– या खुदा, चारों देखते-देखते गायब हो गये।
हुसैन– शायद उनके सामने कोई खदक खोदी गई है।
अब्बास– जी हां, यही मेरा भी खयाल है।
हुसैन– चिताएं तैयार कराओ। अगर फ़रेब न किया जाता, तो ये सारी फौज़ को खाक़ कर देते। तीर है या मौजजा।
अब्बास– खुदा के ऐसे बंदे भी है, जो बिना गरज के हक़ पर सिर कटाते हैं।
हुसैन– ये उस पाक मुल्क के रहने वाले हैं, जहां सबसे पहले तौहीद की सदा उठी थी। खुदा से मेरी दुआ है कि इन्हें शहीदों में ऊंचा रुतबा दे। वह चिता शोले उठे! ऐ खुदा, यह सोज इस्लाम के दिल से कभी न मिटे, इस क़ौम के लिए हमारे दिलेर हमेशा अपना खून बहाते रहें, यह बीज जो आज आग में बोया गया है, क़यामत तक फलता रहे।
चौथा दृश्य
[जैनब अपने खेमे में बैठी हुई है। शाम का वक्त]
जैनब– (स्वगत) अब्बास और अली अकबर के सिवा अब भैया के कोई रकीफ़ बाकी नहीं रहे। सब लोग उन पर निसार हो गए। हाय, कासिम-सा जवान, मुसलिम के बेटे, अब्बास के भाई, भैया इमाम हसन के चारों बेटे, सब दाग़ दिए गए। देखते-देखते हरा-भरा बाग वीरान् हो गया, गुलजार बस्ती उजड़ गई। सभी माताओं के कलेजे ठंडे हुए। बापों के दिल बाग़-बाग़ हुए। एक में ही बदनसीब नामुराद रह गई। खुदा ने मुझे भी दो बेटे दिए हैं, पर जब वे काम ही न आए, तो उनको देखकर जिगर क्या ठंडा हो। इससे तो यही बेहतर होता कि मैं बांझ ही रहती। तब यह बेवफ़ाई का दाग़ तो माथे पर न लगता। हुसैन ने इन लड़कों को अपने लड़कों की तरह समझा, लड़कों की तरह पाला, पर वे इस मुसीबत में, तारीकी में, साए की तरह साथ छोड़ देते हैं, दग़ा कर रहे हैं।
हां, यह दग़ा नहीं, तो और क्या है? आखिर भैया अपने दिल में क्या समझ रहे होंगे। कहीं यह खयाल न करते हों कि मैंने ही उन्हें मैदान जाने से मना कर दिया है। यह खयाल न पैदा हो कि मैं उनके साथ अपनी गरज निकालने के लिए जमानासाजी कर रही थी। आह! उन्हें क्योंकर अपना दिल खोलकर दिखा दूं कि वह उनके लिए कितना बेकरार है, पर अपने लड़कों पर काबू नहीं। जाओ, जैसे तुमने मेरे मुंह में कालिख लगाई है, मैं भी तुम्हें दूध न बख्शूंगी। ये इतने कम हिम्मत कैसे हो गए। जिसका नाना रण में तूफान पैदा कर देता था, जिनके बाप की ललकार सुनकर दुश्मनों के कलेजे दहल जाते थे, वे ही लड़के इतने वादे, पस्तहिम्मत हों। यह मेरी तकदीर की खराबी, और क्या! जब रण में जाना ही नहीं, तो वे हथियार सजाकर क्यों मुझे जलाते हैं। भैया को कौन-सा मुंह दिखाऊंगी, उनके सामने आंखें कैसे उठाऊंगी।
[दोनों लड़कों का प्रवेश]
औम– अम्माजान, आप हमारा फैसला कर दीजिए। मैं पहले रण में जाता हूं, पर यह मुझे जाने नहीं देता, कहता है पहले में जाऊंगा। सुबह से यही बहस छिड़ी हुई है, किसी तरह छोड़ता ही नहीं। बताओ, बड़े भाई के होते हुए छोटा भाई शहीद हो, यह कहां का इंसाफ है?
मुहम्मद– तो अम्माजान, यह कहां का इंसाफ है कि बड़ा भाई तो मरने जाये, और छोटा भाई बैठा उसकी लाश पर मातम करे। अम्मा, आप चाहे खुश हों या नाराज, यह तो मुझसे न होगा। शायद इनका यह ख्याल हो कि मैं जब क़ाबिल नहीं हूं। छोटा हूं, क्या जवाब दूं, लेकिन खुदा चाहेगा, तो–
एक हमले में गर हम उलट दें सफ़े लश्कर,
फिर दूध न अपना हमें तुम बख्शियो मादर!
शह के क़दमे-पाक पै सिर देके फिरेंगे,
या रण से सिरे-शिम्रोउमर लेके फिरेंगे।
अम्माजान, आप न मेरी खातिर कीजिए न इनकी, इंसाफ़ से फरमाइये पहले किसको जाने का हक है?
जैनब– अच्छा, तुम लोगों के रण में जाने का यह मतलब था। मैं कुछ और समझ रही थी। प्यारो, तुम्हारी मां ने तुम्हारी दिलेरी पर शक किया, इसे माफ करो। मालूम नहीं, मुझे क्या हो गया था कि मेरे दिल में तुम्हारी तरफ से ऐसे बसबसे पैदा हुए। लो, मैं झगड़ा चुकाए देती हूं। तुम दोनों खुदा का नाम लेकर साथ-साथ सिधारो, और दिखा दो कि तुम किसी शब्बीर की उल्फ़त में कम नहीं हो। मेरी और मेरे खानदान की आबरू तुम्हारे हाथ है।
शेरों के लिए नंग है तलवार से डरना,
मैदान में तन-मन के सिपर सीनों को करना।
हर जख्म पै दम उलफ़ते-शब्बीर का भरना,
कुरबान गई जीने से, बेहतर है वह मरना।
दुनिया में भला इज्जते-इस्लाम तो रह जाय,
तुम जीते रहो, या न रहो, नाम तो रह जाय।
नाना की तरह कौन बग़ा करता है देखूं?
सिर कौन हजारों के जुदा करता है देखूं?
हक़ कौन बहुत मां का अदा करता है देखूं?
एक-एक सफ़े-जंग में क्या करता है देखूं?
दिखलाइयों हाथों से सफाई का तमाशा,
मैं परदे से देखूंगी लड़ाई का तमाशा।
यह तो मैं जानती हूं कि तुम नाम करोगे, पर कमसिन बहुत हो, इसलिए समझती हूं। जाओ, तुम्हें खुदा को सौंपा।
[दोनों मैदान की तरफ जाकर लड़ते हैं, और जैनब परदे की आड़ से देखती है। शहरबानू का प्रवेश।]
शहरबानू– है-है, बहन, यह तुमने क्या सितम किया? इन नन्हें-नन्हें बच्चों को रण में झोंक दिया। अभी अली अकबर बैठा ही हुआ है, अब्बास मौजूद ही है, ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी?
जैनब– वे किसी के रोके रुकते थे? कल ही से हथियार सजे मुंतजिर बैठे है। रात-भर तलवारें साफ की गई है और यहां आए ही किसलिए थे। जिन्दगी बाकी है, तो दोनों फिर आएंगे। मर जाने का ग़म नहीं, आखिर किस दिन काम आते। जिहद में छोटे-बड़े की तमीज़ नहीं रहती। मैं रसूल पाक को कौन मुंह दिखाती।
शहरबानू– देखो, हाय-हाय, दोनों के दुश्मनों को किस तरह घेर रखा है। कोई जाकर बेचारों को घेर भी नहीं लेता। शब्बीर भी बैठे तमाशा देख रहे हैं। यह नहीं कि किसी को भेज दें। हैं तो जरा-जरा से, पर कैसे मछलियों की तरह चमकते फिरते है! खैर अच्छा हुआ, अब्बास दौड़े जा रहे हैं।
[अब्बास का मैदान की तरफ दौड़े हुए आना।]
जैनब– (खेमे से निकलकर) अब्बास, तुम्हें रसूल पाक की कसम है, जो उन्हें लौटाने जाओ। हां, उनका दिल बढ़ाते जाओ। क्या मुझे शहादत के सवाब में कुछ भी देने का इरादा नहीं है? भैया तो इतने खुदग़रज कभी न थे!
[दोनों भाई मारे जाते हैं। हुसैन और अब्बास उनकी लाश उठाने जाते हैं, और जैनब एक आह भरकर बेहोश हो जाती है।]
पांचवां दृश्य
[12 बजे रात का समय। लड़ाई ज़रा देर के लिए बंद है। दुश्मन की फ़ौज ग़ाफिल है। दरिया का किनारा। अब्बास हाथों में मशक लिए दरिया के किनारे खड़े हैं।]
अब्बास– (दिल में) हम दरिया से कितने करीब हैं। इतनी ही दूर पर यह दरिया मौजें मार रहा है, पर हम पानी के एक-एक बूंद को तरसते रहते हैं। दो दिन से किसी के मुंह में पानी का कतरा नहीं गया, बच्चे वगैरह पानी के लिए बिलबिला रहे हैं, औरतों के लब खुश्क हुए जाते हैं, खुद हजरत हुसैन का बुरा हाल हो रहा है। मगर कोई अपनी तकलीफ़ किसी से नहीं कहती। बेचारी सकीना तड़प रही थी। काश ये जालिम इसी तरह गाफ़िल पड़े रहते, और मैं मशक लिए हुए बचकर निकल जाता। जी चाहता है, दरिया-का-दरिया पी जाऊं, पर गै़रत गवारा नहीं करती कि घर के सब आदमी तो प्यासों मर रहे हों, और मैं यहीं अपनी प्यास बुझाऊं। घोड़े ने भी पानी में मुंह नहीं डाला। वफा़दार जानवर! तू हैवान होकर इतना ग़ैरतमंद है, मैं इंसान होकर बेग़ैरतमंद हो जाऊं।
[दरिया से पानी लेकर घाट पर चढ़ते हैं।]
एक सिपाही– यह कौन पानी लिए जाता है?
अब्बास– (खामोश)
कई आदमी– क्या कोई पानी ले रहा है? खड़ा रह।
[कई सिपाही अब्बास को घेर लेते हैं।]
एक– यह तो हुसैन के लश्कर का आदमी है– क्यों जी, तुम्हारा क्या नाम है?
अब्बास– मैं हजरत हुसैन का भाई अब्बास हूं।
कई आदमी– छीन लो मशक।
अब्बास– इतना आसान न समझो। एक-एक बूंद पानी के लिए एक-एक सिर देना पड़ेगा। पानी इतना महंगा कभी न बिका होगा।
[अब्बास तलवार खींचकर दुश्मनों पर झपट पड़ते हैं, और उनके घेरे से निकल जाने की कोशिश करते हैं।]
[शिमर दौड़ा हुआ आता है।]
शिमर– खबरदार, खबरदार, चारों तरफ से घेर लो, मशक में नेजे मारो, मशक में।
अब्बास– अरे जालिम, बेदर्द! तू मुसलमान होकर नबी की औलाद पर इतनी संख्तियां कर रहा है। बच्चे प्यासों तड़प रहे हैं, हज़रत हुसैन का बुरा हाल हो रहा है, और तुझे जरा दर्द नहीं आता।
शिमर– खलीफ़ा से बग़ावत करने वाला मुसलमान मुसलमान नहीं, और न उसके साथ कोई रियायत की जा सकती है। दिलेरी, बस, जंग का इसी दम खातमा है। अब्बास को लिया, फिर वहां हुसैन के सिवा और कोई बाकी न रहेगा।
[सिपाही अब्बास पर नेजे चलाते हैं, और अब्बास नेजों को तलवार से काट देते हैं।]
[साद का प्रवेश]
साद– ठहरो-ठहरो! दुश्मन को दोस्त बना लेने में जितना फायदा है, उतना कत्ल करने में नहीं। अब्बास, मैं आपसे कुछ अर्ज करना चाहता हूं। एक दम के लिए तलवार रोक दीजिए। तनी हुई तलवार मसालहत की जबान बंद कर देती है।
अब्बास– मसालहत की गुफ्तगू अगर करनी है, तो हज़रत हुसैन के पास क्यों नहीं जाते। हालांकि अब वह कुछ न सुनेंगे। दो भांजे, दो भतीजे मारे जा चुके, कितने ही अहबाब शहीद हो चुके, वह खुद जिन्दगी से बेजार हैं, मरने पर कमर बांध चुके हैं।
साद– तो ऐसी हालत में आपको अपनी जान की और भी कद्र करनी चाहिए। दुनिया में अली की कोई निशानी तो रहे। खानदान का नाम तो न मिटे।
अब्बास– भाई के बाद जीना बेकार है।
साद–
माबैन लहद साथ बिरादर नहीं जाता,
भाई कोई भाई के लिए मर नहीं जाता।
अब्बास–
भाई के लिये जी से गुजर जाता है भाई?
जाता है बिरादर भी जिधर जाता है भाई?
क्या भाई हो तेगों में तो डर जाता है भाई।
आंच आती है भाई पै, तो मर जाता है भाई।
साद– आपसे तो खलीफ़ा को कोई दुश्मनी नहीं, आप उनकी बैयत क़बूल कर लें, तो आपकी हर तरह भलाई होगी। आप जो रुतबा चाहेंगे, वह आपको मिल जायेगा, और आप हजरत अली के जानशीन समझे जायेंगे।
अब्बास– जब हुसैन-जैसे सुलहपसंद आदमी ने जिसने कभी गुस्से को पास नहीं आने दिया, जिसने जंग पर कभी सबकत नहीं की, जिसने आज भी मुझसे ताक़ीत कर दी कि राह न मिले, तो दरिया पर न जाना तुम्हारी बात नहीं मानी, तो मैं जो इस औसाफ में से एक भी नहीं रखता, तुम्हारी बातें मानूंगा।
साद– तुम्हें अख्तियार है।
शिमर– टूट पड़ो, टूट पड़ो।
[एक सिपाही पीछे से आकर एक तलवार मारता है, जिससे अब्बास का दाहिना हाथ कट जाता है। अब्बास बाएं हाथ में तलवार ले लेते हैं।]
शिमर– अभी एक हाथ बाकी है, जो उसे गिरा दे, उसे एक लाख दीनार इनाम मिलेगा। चारों तरफ़ से जख्मी सिपाहियों की आहें सुनाई दे रही हैं। अब्बास सफ़ों को चीरते, सिपाहियों को गिराते हुसैन के खेमे के सामने पहुंच जाते हैं। इनमें से एक सिपाही तलवार से उनका बायां हाथ भी गिरा देता है। शिमर उनकी छाती में भाला चुभा देता है। अब्बास मशक दांतों से पकड़ लेते है। तब सिर पर एक गुर्ज पड़ता है, और अब्बास घोड़े से गिर पड़ते हैं।
अब्बास– (चिल्लाकर) भैया, तुम्हारा गुलाम अब जाता है– उसका आखिरी सलाम कबूल करो।
[हुसैन खेमे से बाहर निकलकर दौड़ते हुए आते हैं, और अब्बास के पास पहुंच कर उन्हें गोद में उठा लेते है]
हुसैन– आह! मेरे प्यारे भाई, मेरे क़बूते-बाजू, तुम्हारी मौत ने कमर तोड़ दी। हाय! अब कोई सहारा नहीं रहा। तुम्हें अपने पहलू में देखते हुए मुझे वह भरोसा होता था, जो बच्चे को अपनी मां की गोद में होता है। तुम मेरे पुश्तेपनाह थे। हाय! अब किसे देखकर दिल को ढाढ़स होगा। आह! अगर तुम्हें इतनी जल्द रुखसत होना था, तो पहले मुझी को क्यों न मर जाने दिया? आह अब तक मैंने तुम्हें इस तरह बचाया था, जैसे कोई आंधी से चिराग से बचाता है। पर क़ज़ा से कुछ बस न चला। हाय! मैं खुद क्यों न पानी लेने गया। हाय, अब खैर, भैया इतनी तस्कीन है कि फिर हमसे तुमसे मुलाकात होगी, और फिर हम क़यामत तक न जुदा होंगे।
छठा दृश्य
[दोपहर का समय। हुसैन अपने खेमे में खड़े है, जैनब, कुलसूम, सकीना, शहरबानू, सब उन्हें घेरे खड़े हैं।]
हुसैन– जैनब, अब्बास के बाद अली अकबर दिल को तस्कीन देता था। अब किसे देखकर दिल को ढाढ़स दूं? हाय! मेरा जवान बेटा प्यासा तड़प-तड़पकर मर गया! किस शान से मैदान की तरफ़ गया था। कितना हंसमुख, कितना हिम्मत का धनी! जैनब, मैंने उसे कभी उदास नहीं देखा, हमेशा मुस्कुराता रहता था। ऐ आंखों! अगर रोई, तो तुम्हें निकालकर फेंक दूंगा। खुदा की मर्जी में रोना कैसा! मालूम होता है, सारी कुदरत मुझे तबाह करने पर तुली हुई है। यह धूप कि उसकी तरफ ताकने ही से आंखें जलने लगती है! यह जलता हुआ बालू, ये लू के झूलसाने वाले झोंके, और यह प्यास! यों जिंदा जलना तीरों और भालों के जख्मों से कहीं ज्यादा सख्त है।
[अली असगर आता है, और बेहोश होकर गिर पड़ता है।]
शहरबानू– हाय, मेरे बच्चे को क्या हुआ!
हुसैन– (असगर को गोद में उठाकर) आह! यह फूल पानी के बग़ैर मुर्झाया जा रहा है। खुदा, इस रंज में अगर मेरी जबान से तेरी शान में कोई बेअदबी हो जाये, तो माफ कीजिए, मैं अपने होश में नहीं हूं। एक कटोरे पानी के लिए इस वक्त मैं जन्नत के हाथ धोने को तैयार हूं।
[असगर को गोद में लिए खेमे से बाहर आकर।]
ऐ जालिम क़ौम, अगर तुम्हारे खयाल में गुनहगार हूं, तो इस बच्चे ने तो कोई खता नहीं की है, इसे एक घूंट पानी पिला दो। मैं तुम्हारी नबी को नेवासा हूं, अगर इसमें तुम्हें शक है, तो काबा का बेकस मुसाफिर तो हूं। इससे भी अगर तुम्हें ताम्मुल हो, तो मुसलमान तो हूं। यह भी नहीं, तो अल्लाह का एक नाचीज बंदा तो हूं। क्या मेरे मरते हुए बच्चे पर तुम्हें इतना रहम भी नहीं आता?
मैं यह नहीं कहता हूं कि पानी मुझे ला दो,
तुम आन के चिल्लू से इसे आब पिला दो।
मरता है यह, मरते हुए बच्चे को जिला दो,
लिल्लाह, कलेजे की मेरी आग बुझा दो।
जब मुंह मेरा तकता है यह हसरत की नजर से,
ऐ जालिमो, उठता है धुआं मेरे जिगर से।
[शिमर एक तीर मारता है, असगर के गले को छेदता हुआ हुसैन के बाजू में चुभ जाता है। हुसैन जल्दी से तीर को निकालते हैं और तीर निकलते ही असगर की जान निकल जाती है। हुसैन असगर को लिये फिर खेमे में आते हैं।]
शहरबानू– यह मेरा फूल-सा बच्चा!
हुसैन– हमेशा के लिये इसकी प्यास बुझ गई। (खून से चिल्लू भरकर आसमान की तरफ उछालते हुए।) इस सब आफ़तों का गवाह खुदा हैं। अब कौन है, जो जालिमों से इस खून का बदला लें।
[सज्जाद चारपाई से उठकर, लड़खड़ाते हुए मैदान की तरफ चलते हैं।]
जैनब– अरे बेटा, तुम में तो खड़े होने की भी ताब नहीं, महीनों से आंखें नहीं खोली, तुम कहाँ जाते हो।
सज्जाद– बिस्तर पर मरने से मैदान में मरना अच्छा है। जब सब जन्नत पहुंच चुके, तो मैं यहां क्यों पड़ा रहूं।?
हुसैन– बेटा, खुदा के लिये बाप के ऊपर रहम करो, वापस जाओ। रसूल की तुम्हीं एक निशानी हो। तुम्हारे ही ऊपर औरतों की हिफ़ाजत का भार है। आह! और कौन है, जो इस फ़र्ज को अदा करे। तुम्हीं मेरे जांनसीन हो, इन सबको तुम्हारे हवाले करता हूं। खुदा हाफिज! ऐ जैनब, ऐ कुलसूम, ऐ सकीना, तुम लोगों पर मेरा सलाम हो कि यह आखिरी मुलाकात है।
[जैनब रोती हुई हुसैन से लिपट जाती है।]
सकीना– अब किसका मुंह देखकर जिऊंगी।
हुसैन– जैनब!
मरकर भी न भूलूंगा मैं एहसान तुम्हारे;
बेटों को भला कौन बहन भाई पै वारे।
प्यार न किया उनको, जो थे जान से प्यारे;
बस, मा की मुहब्बत के थे ये अंदाज हैं सारे।
फ़ाके में हमें बर्छियां खाने की रज़ा दो;
बस, अब यही उल्फ़त है कि जाने की रज़ा़ दो।
हमशीर का ग़म है किसी भाई को गवारा?
मजबूर है लेकिन असद अल्लाह का प्यारा।
रंज और मुसीबत से कलेजा है दो पारा;
किससे कहूं, जैसा मुझे सदमा है तुम्हारा।
इस घर की तबाही के लिये रोता है शब्बीर।
तुम छूटती नहीं मां से जुदा होता है शब्बीर।
[हाथ उठाकर दुआ करते हैं।]
या रब, है यह सादात का घर तेरे हवाले,
रांड हैं कई खस्ता जिग़र तेरे हवाले,
बेकस है बीमार पिसर तेरे हवाले,
सब हैं मेरे दरिया के गुहरे तेरे हवाले।
[मैदान की तरफ जाते हैं।]
शिमर– (फौज से) खबरदार, खबरदार, हुसैन आए। सब-के-सब संभल जाओ। समझ लो, अब मैदान तुम्हारा है।
[हुसैन फ़ौज के सामने खड़े होकर कहते हैं।]
बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का!
मां ऐसी कि सब जिसकी शफा़अत के हैं मुहताज,
बाप ऐसा, सनमखानों को जिसने किया ताराज;
बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का।
लड़ने को अगर हैदर सफ़दर न निकलते,
बुत घर से खुदा के कभी बाहर न निकलते।
बेट